गुरुवार, 13 नवंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पच्चीसवां अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

नारद उवाच -

इति तौ दम्पती तत्र समुद्य समयं मिथः ।
तां प्रविश्य पुरीं राजन् मुमुदाते शतं समाः ॥ ४३ ॥
उपगीयमानो ललितं तत्र तत्र च गायकैः ।
क्रीडन् परिवृतः स्त्रीभिः ह्रदिनीं आविशत् शुचौ ॥ ४४ ॥
सप्तोपरि कृता द्वारः पुरस्तस्यास्तु द्वे अधः ।
पृथग् विषयगत्यर्थं तस्यां यः कश्चनेश्वरः ॥ ४५ ॥
पञ्च द्वारस्तु पौरस्त्या दक्षिणैका तथोत्तरा ।
पश्चिमे द्वे अमूषां ते नामानि नृप वर्णये ॥ ४६ ॥
खद्योताऽऽविर्मुखी च प्राग् द्वारावेकत्र निर्मिते ।
विभ्राजितं जनपदं याति ताभ्यां द्युमत्सखः ॥ ४७ ॥
नलिनी नालिनी च प्राग् द्वारौ एकत्र निर्मिते ।
अवधूतसखस्ताभ्यां विषयं याति सौरभम् ॥ ४८ ॥
मुख्या नाम पुरस्ताद् द्वाः तयाऽऽपणबहूदनौ ।
विषयौ याति पुरराड् रसज्ञविपणान्वितः ॥ ४९ ॥
पितृहूर्नृप पुर्या द्वाः दक्षिणेन पुरञ्जनः ।
राष्ट्रं दक्षिणपञ्चालं याति श्रुतधरान्वितः ॥ ५० ॥
देवहूर्नाम पुर्या द्वा उत्तरेण पुरञ्जनः ।
राष्ट्रं उत्तरपञ्चालं याति श्रुतधरान्वितः ॥ ५१ ॥
आसुरी नाम पश्चाद् द्वाः तया याति पुरञ्जनः ।
ग्रामकं नाम विषयं दुर्मदेन समन्वितः ॥ ५२ ॥
निर्‌ऋतिर्नाम पश्चाद् द्वाः तया याति पुरञ्जनः ।
वैशसं नाम विषयं लुब्धकेन समन्वितः ॥ ५३ ॥
अन्धावमीषां पौराणां निर्वाक् पेशस्कृतावुभौ ।
अक्षण्वतामधिपतिः ताभ्यां याति करोति च ॥ ५४ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं—राजन् ! उन स्त्री-पुरुषोंने इस प्रकार एक-दूसरेकी बातका समर्थन कर फिर सौ वर्षोंतक उस पुरीमें रहकर आनन्द भोगा ॥ ४३ ॥ गायक लोग सुमधुर स्वरमें जहाँ-तहाँ राजा पुरञ्जनकी कीर्ति गाया करते थे। जब ग्रीष्म ऋतु आती, तब वह अनेकों स्त्रियोंके साथ सरोवरमें घुसकर जलक्रीड़ा करता ॥ ४४ ॥ उस नगरमें जो नौ द्वार थे, उनमेंसे सात नगरीके ऊपर और दो नीचे थे। उस नगरका जो कोई राजा होता, उसके पृथक्-पृथक् देशोंमें जानेके लिये ये द्वार बनाये गये थे ॥ ४५ ॥ राजन् ! इनमेंसे पाँच पूर्व, एक दक्षिण, एक उत्तर और दो पश्चिमकी ओर थे। उनके नामोंका वर्णन करता हूँ ॥ ४६ ॥ पूर्वकी ओर खद्योता और आविर्मुखी नामके दो द्वार एक ही जगह बनाये गये थे। उनमें होकर राजा पुरञ्जन अपने मित्र द्युमान् के साथ विभ्राजित नामक देशको जाया करता था ॥ ४७ ॥ इसी प्रकार उस ओर नलिनी और नालिनी नामके दो द्वार और भी एक ही जगह बनाये गये थे। उनसे होकर वह अवधूतके साथ सौरभ नामक देशको जाता था ॥ ४८ ॥ पूर्वदिशाकी ओर मुख्या नामका जो पाँचवाँ द्वार था, उसमें होकर वह रसज्ञ और विपणके साथ क्रमश: बहूदन और आपण नामके देशोंको जाता था ॥ ४९ ॥ पुरीके दक्षिणकी ओर जो पितृहू नामका द्वार था, उसमें होकर राजा पुरञ्जन श्रुतधरके साथ दक्षिणपाञ्चाल देशको जाता था ॥ ५० ॥ उत्तरकी ओर जो देवहू नामका द्वार था, उससे श्रुतधरके ही साथ वह उत्तरपाञ्चाल देशको जाता था ॥ ५१ ॥ पश्चिम दिशामें आसुरी नामका दरवाजा था, उसमें होकर वह दुर्मदके साथ ग्रामक देशको जाता था ॥ ५२ ॥ तथा निर्ऋति नामका जो दूसरा पश्चिम द्वार था, उससे लुब्धकके साथ वह वैशस नामके देशको जाता था ॥ ५३ ॥ इस नगरके निवासियोंमें निर्वाक् और पेशस्कृत्—ये दो नागरिक अन्धे थे। राजा पुरञ्जन आँखवाले नागरिकोंका अधिपति होनेपर भी इन्हींकी सहायतासे जहाँ-तहाँ जाता और सब प्रकारके कार्य करता था ॥ ५४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌸🥀🥀💐जय श्रीहरि: !!🙏
    हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे 🙏

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