॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना
ऋषभ उवाच
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान्कामानर्हते विड्भुजां ये
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्ध्येद्यस्माद्ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ||१||
महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्तेस्तमोद्वारं योषितां सङ्गिसङ्गम्
महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता विमन्यवः सुहृदः साधवो ये ||२||
ये वा मयीशे कृतसौहृदार्था जनेषु देहम्भरवार्तिकेषु
गृहेषु जायात्मजरातिमत्सु न प्रीतियुक्ता यावदर्थाश्च लोके ||३||
नूनं प्रमत्तः कुरुते विकर्म यदिन्द्रि यप्रीतय आपृणोति
न साधु मन्ये यत आत्मनोऽयमसन्नपि क्लेशद आस देहः ||४||
श्रीऋषभदेवजीने कहा—पुत्रो ! इस मर्त्यलोक में यह मनुष्य-शरीर दु:खमय विषयभोग प्राप्त करनेके लिये ही नहीं है। ये भोग तो विष्ठाभोजी सूकर-कूकरादिको भी मिलते ही हैं। इस शरीरसे दिव्य तप ही करना चाहिये, जिससे अन्त:करण शुद्ध हो; क्योंकि इसीसे अनन्त ब्रह्मानन्दकी प्राप्ति होती है ॥ १ ॥ शास्त्रोंने महापुरुषोंकी सेवाको मुक्तिका और स्त्रीसंगी कामियोंके सङ्गको नरकका द्वार बताया है। महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त, क्रोधहीन, सबके हितचिन्तक और सदाचार-सम्पन्न हों ॥ २ ॥ अथवा मुझ परमात्माके प्रेमके ही जो एकमात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयोंकी ही चर्चा करनेवाले लोगोंमें तथा स्त्री, पुत्र और धन आदि सामग्रियोंसे सम्पन्न घरोंमें जिनकी अरुचि हो और जो लौकिक कार्योंमें केवल शरीरनिर्वाहके लिये ही प्रवृत्त होते हों ॥ ३ ॥ मनुष्य अवश्य प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियोंको तृप्त करनेके लिये ही होती है। मैं इसे अच्छा नहीं समझता, क्योंकि इसीके कारण आत्माको यह असत् और दु:खदायक शरीर प्राप्त होता है ॥ ४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
💐💖🥀 जय श्रीहरि: !!🙏
जवाब देंहटाएंनारायण नारायण नारायण नारायण
हे नाथ नारायण वासुदेव: !!🙏