॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना
पराभवस्तावदबोधजातो यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम्
यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः ||५||
एवं मनः कर्मवशं प्रयुङ्क्ते अविद्ययात्मन्युपधीयमाने
प्रीतिर्न यावन्मयि वासुदेवे न मुच्यते देहयोगेन तावत् ||६||
यदा न पश्यत्ययथा गुणेहां स्वार्थे प्रमत्तः सहसा विपश्चित्
गतस्मृतिर्विन्दति तत्र तापानासाद्य मैथुन्यमगारमज्ञः ||७||
पुंसः स्त्रिया मिथुनीभावमेतं तयोर्मिथो हृदयग्रन्थिमाहुः
अतो गृहक्षेत्रसुताप्तवित्तैर्जनस्य मोहोऽयमहं ममेति ||८||
यदा मनोहृदयग्रन्थिरस्य कर्मानुबद्धो दृढ आश्लथेत
तदा जनः सम्परिवर्ततेऽस्माद्मुक्तः परं यात्यतिहाय हेतुम् ||९||
जब तक जीव को आत्मतत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती, तभीतक अज्ञानवश देहादि के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जबतक यह लौकिक-वैदिक कर्मोंमें फँसा रहता है, तबतक मनमें कर्म की वासनाएँ भी बनी ही रहती हैं और इन्हीं से देह-बन्धन की प्राप्ति होती है ॥ ५ ॥ इस प्रकार अविद्या के द्वारा आत्मस्वरूपके ढक जानेसे कर्मवासनाओंके वशीभूत हुआ चित्त मनुष्यको फिर कर्मोंमें ही प्रवृत्त करता है। अत: जबतक उसको मुझ वासुदेवमें प्रीति नहीं होती, तबतक वह देहबन्धनसे छूट नहीं सकता ॥ ६ ॥ स्वार्थमें पागल जीव जबतक विवेकदृष्टिका आश्रय लेकर इन्द्रियोंकी चेष्टाओंको मिथ्या नहीं देखता, तबतक आत्मस्वरूपकी स्मृति खो बैठनेके कारण वह अज्ञानवश विषयप्रधान गृह आदिमें आसक्त रहता है और तरह-तरहके क्लेश उठाता रहता है ॥ ७ ॥ स्त्री और पुरुष—इन दोनोंका जो परस्पर दाम्पत्य-भाव है, इसीको पण्डितजन उनके हृदयकी दूसरी स्थूल एवं दुर्भेद्य ग्रन्थि कहते हैं। देहाभिमानरूपी एक-एक सूक्ष्म ग्रन्थि तो उनमें अलग-अलग पहलेसे ही है। इसीके कारण जीवको देहेन्द्रियादिके अतिरिक्त घर, खेत, पुत्र, स्वजन और धन आदिमें भी ‘मैं’ और ‘मेरे’पनका मोह हो जाता है ॥ ८ ॥ जिस समय कर्मवासनाओंके कारण पड़ी हुई इसकी यह दृढ़ हृदय-ग्रन्थि ढीली हो जाती है, उसी समय यह दाम्पत्यभावसे निवृत्त हो जाता है और संसारके हेतुभूत अहंकारको त्यागकर सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त हो परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ९ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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