शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - पांचवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ऋषभजीका अपने पुत्रोंको उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना

हंसे गुरौ मयि भक्त्यानुवृत्या वितृष्णया द्वन्द्वतितिक्षया च
सर्वत्र जन्तोर्व्यसनावगत्या जिज्ञासया तपसेहानिवृत्त्या ||१०||
मत्कर्मभिर्मत्कथया च नित्यं मद्देवसङ्गाद्गुणकीर्तनान्मे
निर्वैरसाम्योपशमेन पुत्रा जिहासया देहगेहात्मबुद्धेः ||११||
अध्यात्मयोगेन विविक्तसेवया प्राणेन्द्रि यात्माभिजयेन सध्र्यक्
सच्छ्रद्धया ब्रह्मचर्येण शश्वदसम्प्रमादेन यमेन वाचाम् ||१२||
सर्वत्र मद्भावविचक्षणेन ज्ञानेन विज्ञानविराजितेन
योगेन धृत्युद्यमसत्त्वयुक्तो लिङ्गं व्यपोहेत्कुशलोऽहमाख्यम् ||१३||
कर्माशयं हृदयग्रन्थिबन्धमविद्ययासादितमप्रमत्तः
अनेन योगेन यथोपदेशं सम्यग्व्यपोह्योपरमेत योगात् ||१४||
पुत्रांश्च शिष्यांश्च नृपो गुरुर्वा मल्लोककामो मदनुग्रहार्थः
इत्थं विमन्युरनुशिष्यादतज्ज्ञान्न योजयेत्कर्मसु कर्ममूढान्
कं योजयन्मनुजोऽर्थं लभेत निपातयन्नष्टदृशं हि गर्ते ||१५||

(श्रीऋषभदेवजी कह रहे हैं) पुत्रो ! संसारसागर से पार होने में कुशल तथा धैर्य, उद्यम एवं सत्त्वगुणविशिष्ट पुरुष को चाहिये कि सब के आत्मा और गुरुस्वरूप मुझ भगवान्‌ में भक्तिभाव रखनेसे, मेरे परायण रहनेसे, तृष्णाके त्यागसे, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंके सहनेसे ‘जीवको सभी योनियोंमें दु:ख ही उठाना पड़ता है’ इस विचारसे, तत्त्वजिज्ञासासे, तपसे, सकाम कर्मके त्यागसे, मेरे ही लिये कर्म करनेसे, मेरी कथाओंका नित्यप्रति श्रवण करनेसे, मेरे भक्तोंके सङ्ग और मेरे गुणोंके कीर्तनसे, वैरत्यागसे, समतासे, शान्तिसे और शरीर तथा घर आदिमें मैं-मेरेपनके भावको त्यागनेकी इच्छासे, अध्यात्म- शास्त्रके अनुशीलनसे, एकान्त सेवनसे, प्राण, इन्द्रिय और मनके संयमसे, शास्त्र और सत्पुरुषोंके वचनमें यथार्थ बुद्धि रखनेसे, पूर्ण ब्रह्मचर्यसे, कर्तव्यकर्मोंमें निरन्तर सावधान रहनेसे, वाणीके संयमसे, सर्वत्र मेरी ही सत्ता देखनेसे, अनुभवज्ञानसहित तत्त्वविचारसे और योगसाधनसे अहंकाररूप अपने लिङ्गशरीरको लीन कर दे ॥ १०—१३ ॥ मनुष्यको चाहिये कि वह सावधान रहकर अविद्यासे प्राप्त इस हृदयग्रन्थिरूप बन्धनको शास्त्रोक्त रीतिसे इन साधनोंके द्वारा भलीभाँति काट डाले; क्योंकि यही कर्मसंस्कारोंके रहनेका स्थान है। तदनन्तर साधनका भी परित्याग कर दे ॥ १४ ॥ जिसको मेरे लोककी इच्छा हो अथवा जो मेरे अनुग्रहकी प्राप्तिको ही परम पुरुषार्थ मानता हो—वह राजा हो तो अपनी अबोध प्रजाको, गुरु अपने शिष्योंको और पिता अपने पुत्रोंको ऐसी ही शिक्षा दे। अज्ञानके कारण यदि वे उस शिक्षाके अनुसार न चलकर कर्मको ही परम पुरुषार्थ मानते रहें, तो भी उनपर क्रोध न करके उन्हें समझा-बुझाकर कर्ममें प्रवृत्त न होने दे। उन्हें विषयासक्तियुक्त काम्यकर्मोंमें लगाना तो ऐसा ही है, जैसे किसी अंधे मनुष्यको जान-बूझकर गढ़ेमें ढकेल देना। इससे भला, किस पुरुषार्थकी सिद्धि हो सकती है ॥ १५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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