शनिवार, 6 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

आग्नीध्र-चरित्र

का त्वं चिकीर्षसि च किं मुनिवर्य शैले
मायासि कापि भगवत्परदेवतायाः
विज्ये बिभर्षि धनुषी सुहृदात्मनोऽर्थे
किं वा मृगान्मृगयसे विपिने प्रमत्तान् ||७||
बाणाविमौ भगवतः शतपत्रपत्रौ
शान्तावपुङ्खरुचिरावतितिग्मदन्तौ
कस्मै युयुङ्क्षसि वने विचरन्न विद्मः
क्षेमाय नो जडधियां तव विक्रमोऽस्तु ||८||
शिष्या इमे भगवतः परितः पठन्ति
गायन्ति साम सरहस्यमजस्रमीशम्
युष्मच्छिखाविलुलिताः सुमनोऽभिवृष्टीः
सर्वे भजन्त्यृषिगणा इव वेदशाखाः ||९||
वाचं परं चरणपञ्जरतित्तिरीणां
ब्रह्मन्नरूपमुखरां शृणवाम तुभ्यम्
लब्धा कदम्बरुचिरङ्कविटङ्कबिम्बे
यस्यामलातपरिधिः क्व च वल्कलं ते ||१०||
किं सम्भृतं रुचिरयोर्द्विज शृङ्गयोस्ते
मध्ये कृशो वहसि यत्र दृशिः श्रिता मे
पङ्कोऽरुणः सुरभिरात्मविषाण ईदृग्
येनाश्रमं सुभग मे सुरभीकरोषि ||११||
लोकं प्रदर्शय सुहृत्तम तावकं मे
यत्रत्य इत्थमुरसावयवावपूर्वौ
अस्मद्विधस्य मनौन्नयनौ बिभर्ति
बह्वद्भुतं सरसराससुधादि वक्त्रे ||१२||

‘मुनिवर्य ! तुम कौन हो, इस पर्वतपर तुम क्या करना चाहते हो ? तुम परमपुरुष श्रीनारायणकी कोई माया तो नहीं हो ? [भौंहोंकी ओर संकेत करके—] सखे ! तुमने ये बिना डोरीके दो धनुष क्यों धारण कर रखे हैं ? क्या इनसे तुम्हारा कोई अपना प्रयोजन है, अथवा इस ‘संसारारण्यमें मुझ-जैसे मतवाले मृगोंका शिकार करना चाहते हो ! ॥ ७ ॥ [कटाक्षोंको लक्ष्य करके—] तुम्हारे ये दो बाण तो बड़े सुन्दर और पैने हैं। अहो ! इनके कमलदलके पंख हैं, देखनेमें बड़े शान्त हैं और हैं भी पंखहीन[*]।  यहाँ वनमें विचरते हुए तुम इन्हें किसपर छोडऩा चाहते हो ? यहाँ तुम्हारा कोई सामना करनेवाला नहीं दिखायी देता। तुम्हारा यह पराक्रम हम-जैसे जडबुद्धियोंके लिये कल्याणकारी हो ॥ ८ ॥ [भौंरोंकी ओर देखकर—] भगवन् ! तुम्हारे चारों ओर जो ये शिष्यगण अध्ययन कर रहे हैं, वे तो निरन्तर रहस्ययुक्त सामगान करते हुए मानो भगवान्‌की स्तुति कर रहे हैं और ऋषिगण जैसे वेदकी शाखाओंका अनुसरण करते हैं उसी प्रकार ये सब तुम्हारी चोटीसे झड़े हुए पुष्पोंका सेवन कर रहे हैं ॥ ९ ॥ [नूपुरोंके शब्दकी ओर संकेत करके—] ब्रह्मन् ! तुम्हारे चरणरूप पिंजड़ों में जो तीतर बंद हैं, उनका शब्द तो सुनायी देता है; परन्तु रूप देखनेमें नहीं आता। [करधनीसहित पीली साड़ीमें अङ्गकी कान्तिकी उत्प्रेक्षा कर—] तुम्हारे नितम्बोंपर यह कदम्ब कुसुमोंकी-सी आभा कहाँसे आ गयी ? इनके ऊपर तो अंगारोंका मण्डल- सा भी दिखायी देता है। किन्तु तुम्हारा वल्कल-वस्त्र कहाँ है ? ॥ १० ॥ [कुङ्कुममण्डित कुचोंकी ओर लक्ष्य करके—] द्विजवर ! तुम्हारे इन दोनों सुन्दर सींगोंमें क्या भरा हुआ है ? अवश्य ही इनमें बड़े अमूल्य रत्न भरे हैं, इसीसे तो तुम्हारा मध्यभाग इतना कृश होनेपर भी तुम इनका बोझ ढो रहे हो। यहाँ जाकर तो मेरी दृष्टि भी मानो अटक गयी है। और सुभग ! इन सींगोंपर तुमने यह लाल-लाल लेप-सा क्या लगा रखा है ? इसकी गन्धसे तो मेरा सारा आश्रम महक उठा है ॥ ११ ॥ मित्रवर ! मुझे तो तुम अपना देश दिखा दो, जहाँके निवासी अपने वक्ष:स्थलपर ऐसे अद्भुत अवयव धारण करते हैं, जिन्होंने हमारे-जैसे प्राणियोंके चित्तोंको क्षुब्ध कर दिया है तथा मुखमें विचित्र हाव-भाव, सरसभाषण और अधरामृत-जैसी अनूठी वस्तुएँ रखते हैं ॥ १२ ॥
…………………….
[*] बाणका पिछला हिस्सा।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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