॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)
आग्नीध्र-चरित्र
तस्याः सुललितगमनपदविन्यासगतिविलासायाश्चानुपदं खणखणायमानरुचिरचरणाभरणस्वनमुपाकर्ण्य नरदेवकुमारः समाधियोगेनामीलितनयननलिनमुकुलयुगलमीषद्विकचय्य व्यचष्ट ||५||
तामेवाविदूरे मधुकरीमिव सुमनस उपजिघ्रन्तीं दिविजमनुजमनोनयनाह्लाददुघैर्गतिविहारव्रीडाविनयावलोकसुस्वराक्षरावयवैर्मनसि नृणां कुसुमायुधस्य विदधतीं विवरं निजमुखविगलितामृतासवसहासभाषणामोदमदान्धमधुकरनिकरोपरोधेन द्रुतपदविन्यासेन वल्गुस्पन्दनस्तनकलशकबरभाररशनां देवीं तदवलोकनेन विवृतावसरस्य भगवतो मकरध्वजस्य वशमुपनीतो जडवदिति होवाच ||६||
पूर्वचित्तिकी विलासपूर्ण सुललित गतिविधि और पाद विन्यासकी शैलीसे पद-पदपर उसके चरणनूपुरों की झनकार हो उठती थी। उसकी मनोहर ध्वनि सुनकर राजकुमार आग्नीध्र ने समाधियोग द्वारा मूँदे हुए अपने कमल-कलीके समान सुन्दर नेत्रोंको कुछ-कुछ खोलकर देखा तो पास ही उन्हें वह अप्सरा दिखायी दी। वह भ्रमरीके समान एक-एक फूलके पास जाकर उसे सूँघती थी तथा देवता और मनुष्योंके मन और नयनों को आह्लादित करने वाली अपनी विलासपूर्ण गति, क्रीडा-चापल्य, लज्जा एवं विनययुक्त चितवन, सुमधुर वाणी तथा मनोहर अङ्गावयवों से पुरुषों के हृदय में कामदेवके प्रवेश के लिये द्वार-सा बना देती थी। जब वह हँस-हँसकर बोलने लगती, तब ऐसा प्रतीत होता मानो उसके मुखसे अमृतमय मादक मधु झर रहा है। उसके नि:श्वास के गन्ध से मदान्ध होकर भौंरे उसके मुख-कमल को घेर लेते, तब वह उनसे बचनेके लिये जल्दी-जल्दी पैर उठाकर चलती तो उसके कुचकलश, वेणी और करधनी हिलने से बड़े ही सुहावने लगते। यह सब देखने से भगवान् कामदेव को आग्नीध्र के हृदयमें प्रवेश करनेका अवसर मिल गया और वे उनके अधीन होकर उसे प्रसन्न करनेके लिये पागलकी भाँति इस प्रकार कहने लगे— ॥ ५-६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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