रविवार, 9 दिसंबर 2018

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०४)


|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०४)

अच्छे आचरण करनेवालेको कोई यह नहीं कहता कि तुम अच्छे आचरण क्यों करते हो, पर बुरे आचरण करनेवाले को सब कहते हैं कि तुम बुरे आचरण क्यों करते हो ? प्रसन्न रहनेवाले को कोई यह नहीं कहता कि तुम प्रसन्न क्यों रहते हो, पर दुःखी रहनेवाले को सब कहते हैं कि तुम दुःखी क्यों रहते हो ? तात्पर्य है कि भगवान्‌ का ही अंश होने से जीवमें दैवी सम्पत्ति स्वाभाविक है‒‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी चेतन अमल सहज सुखरासी ॥’ (मानस ७ । ११७ । १) । आसुरी सम्पत्ति स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक है और नाशवान्‌के संगसे आती है । जब जीव भगवान्‌से विमुख होकर नाशवान् (असत्) का संग कर लेता है अर्थात् शरीरमें अहंता-ममता कर लेता है, तब उसमें आसुरी सम्पत्ति आ जाती है और दैवी सम्पत्ति दब जाती है । नाशवान्‌का संग छूटते ही सद्‌गुण-सदाचार स्वतः प्रकट हो जाते हैं ।

(२) ‘साधुभावे च सदित्येतत्ययुज्यते’‒अन्तःकरणके श्रेष्ठ भावोंको ‘साधुभाव’ कहते हैं । परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे श्रेष्ठ भावोंके लिये ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया जाता है । श्रेष्ठ भाव अर्थात् सद्‌गुण-सदाचार दैवी सम्पत्ति है । ‘देव’ नाम भगवान्‌का है और उनकी सम्पत्ति ‘दैवी सम्पत्ति’ कहलाती है । भगवान्‌की सम्पत्तिको अपनी माननेसे अथवा अपने बलसे उपार्जित माननेसे अभिमान आ जाता है, जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है । अभिमानकी छायामें सभी दुर्गुण-दुराचार रहते हैं ।

सद्‌गुण-सदाचार किसीकी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं है । अगर ये व्यक्तिगत होते तो एक व्यक्तिमें जो सद्‌गुण-सदाचार हैं, वे दूसरे व्यक्तियोंमें नहीं आते । वास्तवमें ये सामान्य धर्म हैं, जिनको मनुष्यमात्र धारण कर सकता है । जैसे पिता की सम्पत्तिपर सन्तानमात्र का अधिकार होता है, ऐसे ही भगवान्‌ की सम्पत्ति (सद्‌गुण-सदाचार) पर प्राणिमात्र का समान अधिकार है ।

अपने में सद्‌गुण-सदाचार होने का जो अभिमान आता है, वह वास्तवमें सद्‌गुण-सदाचारकी कमीसे अर्थात् उसके साथ आंशिकरूपसे रहनेवाले दुर्गुण-दुराचारसे ही पैदा होता है । जैसे, सत्य बोलनेका अभिमान तभी आता है; जब सत्यके साथ आंशिक असत्य रहता है । सत्यकी पूर्णतामें अभिमान आ ही नहीं सकता । असत्य साथमें रहनेसे ही सत्यकी महिमा दीखती है और उसका अभिमान आता है । जैसे, किसी गाँवमें सब निर्धन हों और एक लखपति हो तो उस लखपतिकी महिमा दीखती है और उसका अभिमान आता है । परन्तु जिस गाँवमें सब-के-सब करोडपति हों, वहाँ लखपतिकी महिमा नहीं दीखती और उसका अभिमान नहीं आता । तात्पर्य है कि अपनेमें विशेषता दीखनेसे ही अभिमान आता है । अपनेमें विशेषता दीखना परिच्छिन्नताको पुष्ट करता है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०३)

|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०३)

यह सत्-तत्त्व ही सद्‌गुणों और सदाचारका मूल आधार है । अतः उपर्युक्त सत् शब्दका थोड़ा विस्तारसे विचार करें ।

(१) ‘सद्भावे’‒सद्भाव कहते हैं‒परमात्माके अस्तित्व या होनेपनको । प्रायः सभी आस्तिक यह बात तो मानते ही हैं कि सर्वोपरि सर्वनियन्ता कोई विलक्षण शक्ति सदासे है और वह अपरिवर्तनशील है । जो संसार प्रत्यक्ष प्रतिक्षण बदल रहा है, उसे ‘है’ अर्थात् स्थिर कैसे कहा जाय ? यह तो नदीके जलके प्रवाहकी तरह निरन्तर बह रहा है । जो बदलता है, वह ‘है’ कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि इन्द्रियों, बुद्धि आदिसे जिसको जानते, देखते हैं, वह संसार पहले नहीं था, आगे भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी जा रहा है‒यह सभीका अनुभव है । फिर भी आश्चर्य यह है कि ‘नहीं’ होते हुए भी वह ‘है’ के रूपमें स्थिर दिखायी दे रहा है । ये दोनों बातें परस्पर सर्वथा विरुद्ध हैं । वह होता, तब तो बदलता नहीं और बदलता है तो ‘है’ अर्थात् स्थिर नहीं । इससे सिद्ध होता है कि यह ‘होनापन’ संसार-शरीरादिका नहीं है, प्रत्युत सत्-तत्त्व (परमात्मा) का है, जिससे नहीं होते हुए भी संसार ‘है’ दीखता है । परमात्माके होनेपनका भाव दृढ़ होनेपर सदाचारका पालन स्वतः होने लगता है ।

भगवान् हैं‒ऐसा दृढ़तासे माननेपर न पाप, अन्याय, दुराचार होंगे और न चिन्ता, भय आदि ही । जो सच्चे हृदयसे सर्वत्र परमात्माकी सत्ता मानते हैं, उनसे पाप हो ही कैसे सकते हैं ?[1] परम दयालु, परम सुहद् परमात्मा सर्वत्र हैं, ऐसा माननेपर न भय होगा और न चिन्ता होगी । भय लगने अथवा चिन्ता होनेपर ‘मैंने भगवान्‌को नहीं माना’‒इस प्रकार विपरीत धारणा नहीं करनी चाहिये, किंतु भगवान्‌के रहते चिन्ता, भय कैसे आ सकते हैं‒ऐसा माने । दैवी सम्पत्ति (सदाचार) के छब्बीस लक्षणोंमें प्रथम ‘अभय’ है (गीता १६ । १) ।

[1] जो व्यक्ति भगवान्‌को भी मानता हो और असत्-आचरण (दुराचार) भी करता हो, उसके द्वारा असत्-आचरणोंका विशेष प्रचार होता है, जिससे समाजका बड़ा नुकसान होता है । कारण कि जो व्यक्ति भीतरसे भी बुरा हो और बाहरसे भी बुरा हो, उससे बचना बड़ा सुगम होता है; क्योंकि उससे दूसरे लोग सावधान हो जाते हैं । परन्तु जो व्यक्ति भीतरसे बुरा हो और बाहरसे भला बना हो, उससे बचना बड़ा कठिन होता है । जैसे, सीताजीके सामने रावण और हनुमान्‌जीके सामने कालनेमि राक्षस आये तो उनको सीताजी और हनुमान्‌जी पहचान नहीं सके; क्योंकि उनका वेश साधुओंका था ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०२)

|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०२)

भगवान् घोषणा करते हैं‒

“अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥“
(गीता ९ । ३०)

‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये । कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है ।’

तात्पर्य है कि बाहर से साधु न दीखने पर भी उसको साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने यह पक्का निश्चय कर लिया है कि अब मेरे को केवल भजन ही करना है । स्वयं का निश्चय होने के कारण वह किसी प्रकार के प्रलोभन से अथवा विपत्ति आने पर भी अपने ध्येय से विचलित नहीं किया जा सकता ।

साधक तभी अपने ध्येय-लक्ष्यसे विचलित होता है, जब वह असत्‒संसार और शरीरको ‘है’ अर्थात् सदा रहनेवाला मान लेता है । असत्‌की स्वतन्त्र सत्ता न होनेपर भी भूलसे मनुष्यने उसे सत् मान लिया और भोग-संग्रहकी ओर आकृष्ट हो गया । अतः असत्‒संसार, शरीर, परिवार, रुपये-पैसे, जमीन, मान, बड़ाईसे विमुख होकर (इन्हें अपना मानकर इनसे सुख न लेकर और सुख लेनेकी इच्छा न रखकर) इनका यथायोग्य सदुपयोग करना है तथा सत्‌-तत्त्व (परमात्मा) को ही अपना मानना है । श्रीमद्भगवद्गीताके अनुसार असत् (संसार) की सत्ता नहीं है और सत्-तत्त्व (परमात्मा) का अभाव नहीं है‒

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।“
.......... (२ । १६)

जिस वास्तविक तत्त्वका कभी अभाव अथवा नाश नहीं होता, उसका अनुभव हम सबको हो सकता है । हमारा ध्यान उस तत्त्वकी ओर न होनेसे ही वह अप्राप्त-सा हो रहा है । उस सत्-तत्त्वका विवेचन गीतामें भगवान्‌ने पाँच प्रकारसे किया है ।

(१) सद्भावे (१७ । २६)
(२) साधुभावे च सदित्येतत् प्रयुज्यते । (१७ । २६)
(३) प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥
(१७ । २६)
(४) यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
(१७ । २७)
(५) कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥
(१७ । २७) 

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से



गीतोक्त सदाचार (पोस्ट..०१)

|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार (पोस्ट..०१)

भगवान्‌ने अर्जुनको निमित्त बनाकर मनुष्यमात्रको सदाचारयुक्त जीवन बनाने तथा दुर्गुण-दुराचारोंका त्याग करनेकी अनेक युक्तियाँ श्रीमद्भगवद्गीतामें बतलायी हैं । वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थितिके अनुरूप विहित कर्तव्य-कर्म करनेके लिये प्रेरणा करते हुए भगवान् कहते हैं‒

“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।“
......................(गीता ३ । २१)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं ।’

वस्तुतः मनुष्यके आचरणसे ही उसकी वास्तविक स्थिति जानी जा सकती है । आचरण दो प्रकारके होते हैं‒(१) अच्छे आचरण, जिन्हें सदाचार कहते हैं और (२) बुरे आचरण, जिन्हें दुराचार कहते हैं ।

सदाचार और सद्‌गुणों का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । सद्‌गुण से सदाचार प्रकट होता है और सदाचार से सद्‌गुण दृढ़ होते हैं । इसी प्रकार दुर्गुण-दुराचार का भी परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । सद्‌गुण-सदाचार (सत् होनेसे) प्रकट होते हैं, पैदा नहीं होते । ‘प्रकट’ वही तत्त्व होता है, जो पहलेसे (अदर्शनरूपसे) रहता है । दुर्गुण-दुराचार मूल में हैं नहीं, वे केवल सांसारिक कामना और अभिमान से उत्पन्न होते हैं । दुर्गुण-दुराचार स्वयं मनुष्यने ही उत्पन्न किये हैं । अतः इनको दूर करनेका उत्तरदायित्व भी मनुष्य पर ही है । सद्‌गुण-सदाचार कुसंग के प्रभाव से दब सकते हैं, परंतु नष्ट नहीं हो सकते, जब कि दुर्गुण-दुराचार सत्संगादि सदाचार के पालन से सर्वथा नष्ट हो सकते हैं । सर्वथा दुर्गुण-दुराचाररहित सभी हो सकते हैं, किंतु कोई भी व्यक्ति सर्वथा सद्‌गुण-सदाचार से रहित नहीं हो सकता ।

यद्यपि लोक में ऐसी प्रसिद्धि है कि मनुष्य सदाचारी होने पर सद्‌गुणी और दुराचारी होने पर दुर्गुणी बनता है, किंतु वास्तविकता यह है कि सद्‌गुणी होनेपर ही व्यक्ति सदाचारी और दुर्गुणी होने पर ही दुराचारी बनता है । जैसे‒दयारूप सद्‌गुणके पश्चात् दानरूप सदाचार प्रकट होता है । इसी प्रकार पहले चोरपने (दुर्गुण) का भाव अहंता (मैं) में उत्पन्न होनेपर व्यक्ति चोरीरूप दुराचार करता है । अतः मनुष्यको सद्‌गुणों का संग्रह और दुर्गुणोंका त्याग दृढ़तासे करना चाहिये । दृढ़ निश्चय होनेपर दुराचारी-से-दुराचारी को भी भगवत्प्राप्तिरूप सदाचार के चरम लक्ष्यकी प्राप्ति हो सकती है ।


(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


योगक्षेमं वहाम्यहम्

जय श्रीहरि

योगक्षेमं वहाम्यहम्

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : हे अर्जुन ! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, मैं ही जलको ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जलको मैं ही) वर्षारूपसे बरसा देता हूँ । (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।

तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा (इन्द्ररूपसे) मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे (पुण्योंके फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गके देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।
वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।

जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भलीभाँति उपासना करते हैं, मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।

हे कुन्तीनन्दन ! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक अर्थात् देवताओंको मुझसे अलग मानते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ; किन्तु वे मुझे तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।
(सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोडऩेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्त:करणवाले भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।

हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।
इस प्रकार (मेरे अर्पण करनेसे) कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा।
मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। (उन प्राणियोंमें) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।

अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है । हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्तका पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।

श्रीमद्भगवद्गीता.....नँवे अध्याय से
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]


योगक्षेमं वहाम्यहम्

जय श्रीहरि

योगक्षेमं वहाम्यहम्

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : हे अर्जुन ! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, मैं ही जलको ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जलको मैं ही) वर्षारूपसे बरसा देता हूँ । (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।

तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा (इन्द्ररूपसे) मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे (पुण्योंके फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गके देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।
वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।

जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भलीभाँति उपासना करते हैं, मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।

हे कुन्तीनन्दन ! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक अर्थात् देवताओंको मुझसे अलग मानते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ; किन्तु वे मुझे तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।
(सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोडऩेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्त:करणवाले भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।

हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।
इस प्रकार (मेरे अर्पण करनेसे) कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा।
मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। (उन प्राणियोंमें) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।

अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है । हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्तका पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।

श्रीमद्भगवद्गीता.....नँवे अध्याय से
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]


कर्म फल भोग में परतन्त्रता


|| जय श्री हरि: ||

कर्म फल भोग में परतन्त्रता

कर्म बंधन में जकडा हुआ यह अखिल जगत् परिवर्तनशील तो है ही, जीव को नीच योनियों में भी जाना पड़ता है | यदि जीव कर्म-परतंत्र न होकर स्वतंत्र होता तो यह परिस्थिति सामने क्यों आती ! भला, स्वर्ग में रहने और अनेक प्रकार के सुख भोगने की सुविधा को छोड़कर विष्ठा एवं मूत्र के भण्डार में भयभीत होकर रहना कौन चाहता है ? त्रिलोकी में गर्भवास से बढ़कर दूसरा कोई नरक नहीं है | गर्भवास से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या में तत्पर हो जाते हैं | गर्भ में कीड़े काटते हैं | नीचे से जठराग्नि ताप पहुंचाती है | निर्दयतापूर्वक बंधे रहना पड़ता है | गर्भ से बाहर निकलते समय भी वैसे ही कठिन परिस्थिति सामने आती है; क्योंकि निकलने का मार्ग जो योनियंत्र है, वह स्वयं दारुण है | फिर बचपन में नाना प्रकार के दारुण दु:ख भोगने पड़ते हैं | विवेकी पुरुष किस सुख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा कर सकते हैं; परन्तु देवता, मनुष्य एवं पशु आदि का शरीर धारण करके किये हुए अच्छे-बुरे कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है | तप यज्ञ और दान के प्रभाव से मनुष्य इंद्र बन सकता है और पुण्य समाप्त हो जाने पर इन्द्र भी धरातल पर आते हैं | इसमें कोई संशय नहीं है !
.....(महर्षि व्यास)

(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित कल्याण के पुनर्जन्मांक से)



गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 12)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 12)
( सम्पादक-कल्याण )
व्यक्तोपासना में भजन का अभ्यास, भगवान्‌ के साकार-निराकार-तत्त्वका ज्ञान, उपास्य इष्टका ध्यान और उसीके लिये सर्व कर्मों का आचरण और उसी में सर्व कर्मफल का संन्यास रहता है। व्यक्तोपासक अपने उपास्यकी सेवाको छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहता। इसीसे अभ्यास, ज्ञान और ध्यानसे युक्त रहकर सर्व कर्मफलका परमात्माके लिये त्याग करते ही उसे परम शान्ति, परमात्माके परम पदका अधिकार मिल जाता है। यही भाव १२वें श्लोकमें व्यक्त किया गया है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धऽयानं विशिष्यते।
ध्यानाकर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥
रहस्यज्ञानरहित अभ्याससे परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है। उससे परमात्मा का ज्ञान श्रेष्ठ है और जिस सर्व-कर्म-फलत्याग में अभ्यास, ज्ञान और ध्यान तीनों रहते हैं, वह सर्वश्रेष्ठ है। उस त्यागके अनन्तर ही परम शान्ति मिल जाती है। इसके बीचके ८ से ११ तकके चार श्लोकोंमें ध्यान, अभ्यास, भगवदर्थ कर्म और भगवत्प्राप्तिरूप योगका आश्रय लेकर कर्मफलत्याग-ये चार साधन बतलाये गये हैं। जो जिसका अधिकारी हो, वह उसीको ग्रहण करे। इनमें छोटा बड़ा समझने की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ, जिसमें चारों हों, वह सर्वोत्तम है; वही परम भक्त है। ऐसे भक्तको जब परम सिद्धि मिल जाती है तब उसमें जिन सब लक्षणोंका प्रादुर्भाव होता है, उन्हींका वर्णन अधायकी समाप्तितकके अगले आठ श्लोकोंमें है। वे लक्षण सिद्ध भक्तमें स्वाभाविक होते हैं और साधकके लिये आदर्श हैं। यही गीतोक्त व्यक्तोपासना का रहस्य है।
इससे यह सिद्धान्त नहीं निकालना चाहिये कि अव्यक्तोपासनाका दर्ज़ा नीचा है या उसकी उपासनामें आचरणोंकी कोई खास भिन्नता है। अव्यक्तोपासनाका अधिकार बहुत ही ऊँचा है। विरक्त, धीर, वीर और सर्वथा संयमी पुरुष-पुंगव ही इस कण्टककीर्ण-मार्गपर पैर रख सकते हैं। उपासनामें भी दो-एक बातोंको छोड़कर प्रायः सादृश्यता ही है। व्यक्तोपासकके लिये ‘सर्वभूतेषु निर्वैरः’ की और ‘मैत्रः करुण’ की शर्त है, तो अव्यक्तोपासक के लिये ‘सर्वभूतहिते रताः’ की है । उसके लिये भगवान्‌में मनको एकाग्र करना आवश्यक है, तो इसके लिये भी समस्त ‘इन्द्रियग्राम’ को भलीभाँति वशमें करना ज़रुरी है। वह अपने उपास्यमें ‘परम श्रद्धावान्‌ है, तो यह भी सर्वत्र ब्रह्मदर्शनमें ‘समबुद्धि’ है।
वास्तवमें भगवान्‌का क्या स्वरूप है और उनकी वाणी गीताके श्लोकोंका क्या मर्म है, इस बातको यथार्थतः भगवान्‌ ही जानते हैं अथवा जो महात्मा भगवत्कृपाका अनुभव कर चुके हैं, वे कुछ जान सकते हैं। मुझ-सरीखा विषयरत प्राणी इन विषयोंमें क्या जाने। मैंने यहाँपर जो कुछ लिखा है सो असलमें पूज्य महात्मा पुरुषोंका जूठन-प्रसाद ही है। जिन प्राचीन या अर्वाचीन महात्माओंका मत इस मतसे भिन्न है, वे भी मेरे लिये तो उसी भावसे पूज्य और आदरणीय हैं। मैंने उनकी वाणीका अनादर करनेके अभिप्रायसे एक अक्षर भी नहीं लिखा है। अवश्य ही मुझे यह मत प्यारा लगता है। सम्भव है इसमें मेरी रुचि और इस ओर की आसक्ति ही खास कारण हो। मैं तो सब सन्तोंका दासानुदास और उनकी चरण-रज का भिखारी हूँ।
ॐ तत्सत्
(श्रीवियोगी हरिजी-लिखित ‘भक्तियोग’ नामक पुस्तक की भूमिका से )
............हनुमानप्रसाद पोद्दार
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 11)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 11)
( सम्पादक-कल्याण )
अब रही उपासनाकी पद्धति । सो व्यक्तोपासना भक्तिप्रधान होती है । अव्यक्त और व्यक्त की उपासनामें प्रधान भेद दो हैं--उपास्यके स्वरूपका और भावका । अव्यक्तोपासना में उपास्य निराकार है और व्यक्तोपासनामें साकार । अव्यक्तोपासना का साधक अपनेको ब्रह्म से अभिन्न समझकर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहता है, तो व्यक्तोपासना का साधक भगवान्‌ को ही सर्वरूपों में अभिव्यक्त हुआ समझकर ‘वासुदेव सर्वमिति’ कहता है। उसकी पूजा में कोई आधार नहीं है और इसकी पूजा में भगवान्‌के साकार मनमोहन विग्रह का आधार है। वह सब कुछ स्वप्नवत्‌ मायिक मानता है, तो यह सब कुछ भगवान्‌ की आनन्दमयी लीला समझता है। वह अपने बल पर अग्रसर होता है, तो यह भगवान्‌ की कृपा के बलपर चलता है। उसमें ज्ञानकी प्रधानता है, तो इसमें भक्तिकी । अवश्य ही परस्पर भक्ति और ज्ञान दोनों में ही रहते हैं । अव्यक्तोपासक समझता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ, गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, वास्तव में कुछ है ही नहीं । व्यक्तोपासक समझता है कि मुझे अपने हाथ की कठपुतली बनाकर भगवान‌ ही सब कुछ करा रहे हैं। कर्ता, भोक्ता सब वे ही हैं । मेरे द्वारा जो कुछ होता है, सब उनकी प्रेरणा से और उन्हीं की शक्ति से होता है। मेरा अस्तित्व ही उनकी इच्छापर अवलम्बित है। यों समझकर वह अपना परम कर्तव्य केवल भगवान्‌का नित्य चिन्तन करना ही मानता है, भगवान्‌ क्या कराते हैं या करायेंगे--इस बातकी वह चिन्ता नहीं करता। वह तो अपने मन-बुद्धि उन्हें सौंपकर निश्चिन्त हो रहता है। भगवान्‌के इन वचनों के अनुसार उसके आचरण होते हैं-
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ॥
.........................( गी० ८ । ७ )
इस उपासनामें दम्भ, दर्प, काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, असत्य और मोहको तनिक-सा भी स्थान नहीं है। उपासक इन दुर्गुणोंसे रहित होकर सारे चराचरमें सर्वत्र अपने उपास्य-देवको देखता हुआ उनके नाम, गुण, प्रभाव और रहस्यके श्रवण, कीर्तन, मनन और ध्यानमें निरत रहता है। भजन-साधन को परम मुख्य माननेपर भी वह कर्त्तव्यकर्मों से कभी मुख नहीं मोड़ता, वरं न्याय से प्राप्त सभी योग्य कर्मोंको निर्भयतापूर्वक धैर्य-बुद्धिसे भगवान्‌के निमित्त करता है। उसके मनमें एक ही सकामभाव रहता है कि अपने प्यारे भगवान्‌की इच्छाके विपरीत कोई भी कार्य मुझसे कभी न बन जाय। उसका यह भाव भी रहता है कि मैं परमात्माका ही प्यारा सेवक हूँ और परमात्मा ही मेरे एकमात्र सेव्य हैं। वे मुझपर दया करके मेरी सेवा स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करनेके लिये ही अपने अव्यक्त अनन्तस्वरूपमें स्थित रहते हुए ही साकार-व्यक्तरूपमें मेरे सामने प्रकट हो रहे हैं। इसलिये वह निरन्तर श्रद्धापूर्वक भगवान्‌का स्मरण करता हुआ ही समस्त कर्म करता है। भगवान्‌ने छठें अध्यायके अन्तमें ऐसे ही भजनपरायण योगीको सर्वश्रेष्ठ योगी माना है-
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्‌ भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
......................( गी० ६ । ४७ )
समस्त योगियोंमें भी जो श्रद्धालु योगी मुझमें लगाये हुए अन्तरात्मासे निरन्तर मुझे भजता है, वही मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ है। इस श्लोकमें आये हुए ‘श्रद्धावान्‌’ और ‘मद्गतैनान्तरात्मना’ के भाव ही द्वादश अध्यायके दूसरे श्लोकमें ‘श्रद्धया परयोपेता’ और ‘मय्यावेश्य मनः’ में व्यक्त हुए हैं । ‘युक्ततम’ शब्द तो दोनों में एक ही है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 10)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 10)
( सम्पादक-कल्याण )
अब व्यक्तोपासक की स्थिति देखिये । गीताका साकारोपासक भक्त अव्यवस्थित चित्त, मूर्ख, अभिमानी, दूसरे का अनिष्ट करनेवाला, धूर्त्त, शोकग्रस्त, आलसी, दीर्घसूत्री, अकर्मण्य, हर्ष-शोकादि से अभिभूत, अशुद्ध आचरण करनेवाला, हिंसक स्वभाववाला, लोभी, कर्मफलका इच्छुक और विषयासक्त नहीं होता। पापके लिये तो उसके अन्दर तनिक भी गुंजायश नहीं रहती । वह अपनी अहंता-ममता अपने प्रियतम परमात्मा के अर्पण कर निर्भय, निश्चिन्त, सिद्धि-असिद्धि में सम, निर्विकार, विषय-विरागी, अनहंवादी, सदाप्रसन्न, सेवा-परायण, धीरज और उत्साह का पुतला, कर्तव्यनिष्ठ और अनासक्त होता है । भगवान्‌ ने यहाँ साकारोपासना का फल और उपासक की महत्ता प्रकट करते हुए संक्षेपमें उसके ये लक्षण बताये हैं कि ‘केवल भगवान्‌ के लिये ही सब कर्म करनेवाला, भगवान्‌ को ही परम गति समझकर उन्हीं के परायण रहनेवाला, भगवान्‌ की ही अनन्य और परम भक्त, सम्पूर्ण सांसारिक विषयों में आसक्तिरहित, सब भूत-प्राणियों में वैरभाव से रहित, मन को परमात्मा में एकाग्र करके नित्य भगवान्‌ के भजन-ध्यान में रत, परम श्रद्धा-सम्पन्न, सर्व कर्मों का भगवान्‌ में भली-भाँति उत्सर्ग करनेवाला और अनन्यभाव से तैलधारावत्‌ परमात्माके ध्यानमें रहकर भजन-चिन्तन करनेवाला ( गीता ११ । १५, १२ । २, १२ । ६-७ )। गीतोक्त व्यक्तोपासक की संक्षेप में यही स्थिति है। भगवान्‌ ने इसी अध्याय के अन्तके ८ श्लोकों में व्यक्तोपासक सिद्ध भक्तके लक्षण विस्तार से बतलाये हैं।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...