|| जय श्रीहरिः ||
गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०६)
(४) ‘यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते’ (गीता १७ । २७)‒‘यज्ञ, तप और दानमें जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’‒कही जाती है ।’ सदाचारमें यज्ञ, दान और तप‒ये तीनों प्रधान हैं; किंतु इनका सम्बन्ध भगवान्से होना चाहिये । यदि इन (यज्ञादि) में मनुष्यकी दृढ़ स्थिति (निष्ठा) हो जाय तो स्वप्नमें भी उसके द्वारा दुराचार नहीं हो सकता । ऐसे दृढ़निश्रयी सदाचारी पुरुषके विषयमें ही कहा गया है‒
“निष्पीडितोऽपि मधु ह्युद्गमतीक्षुदण्डः ।“
‘ईखको पेरनेपर भी उसमेंसे मीठा रस ही प्राप्त होता है ।’
(५) ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते’ (गीता १७ । २७)‒‘उस परमात्माके लिये किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्‒ऐसे कहा जाता है ।’ अपना कल्याण चाहनेवाला निषिद्ध आचरण कर ही नहीं सकता । जबतक अपने जाननेमें आनेवाले दुर्गुण-दुराचारका त्याग नहीं करता, तबतक वह चाहे कितनी ज्ञान-ध्यानकी ऊँची-ऊँची बातें बनाता रहे, उसे सत्-तत्त्वका अनुभव नहीं हो सकता । निषिद्ध और विहित कर्मोंके त्याग-ग्रहणके विषयमें भगवान् कहते हैं‒
“तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥“
..........(गीता १६ । २४)
‘इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर शास्त्रविधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है ।’ विहित कर्म करनेकी अपेक्षा निषिद्धका त्याग श्रेष्ठ है । निषिद्ध आचरणके त्यागके बाद जो भी क्रियाएँ होंगी, वे सब भगवदर्थ होनेपर सत्-आचार (सदाचार) ही कहलायेगी । भगवदर्थ कर्म करनेवालोंसे एक बड़ी भूल यह होती है कि वे कर्मोंके दो विभाग कर लेते हैं । (१) संसार और शरीरके लिये किये जानेवाले कर्म अपने लिये और (२) पूजा-पाठ, जप-ध्यान, सत्संगादि सात्त्विक कर्म भगवान्के लिये मानते हैं; वास्तवमें जैसे पतिव्रता स्त्री घरका काम, शरीरकी क्रिया, पूजा-पाठादि सब कुछ पतिके लिये ही करती है, वैसे ही साधकको भी सब कुछ केवल भगवदर्थ करना चाहिये । भगवदर्थ कर्म सुगमतापूर्वक करनेके लिये पाँच बातें (पंचामृत) सदैव याद रखनी चाहिये‒(१) मैं भगवान्का हूँ, (२) भगवान्के घर (दरबार) में रहता हूँ, (३) भगवान्के घरका काम करता हूँ, (४) भगवान्का दिया हुआ प्रसाद पाता हूँ और (५) भगवान्के जनों (परिवार) की सेवा करता हूँ । इस प्रकार शास्त्र-विहित कर्म करनेपर सदाचार स्वतः पुष्ट होगा ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से
गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०६)
(४) ‘यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते’ (गीता १७ । २७)‒‘यज्ञ, तप और दानमें जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’‒कही जाती है ।’ सदाचारमें यज्ञ, दान और तप‒ये तीनों प्रधान हैं; किंतु इनका सम्बन्ध भगवान्से होना चाहिये । यदि इन (यज्ञादि) में मनुष्यकी दृढ़ स्थिति (निष्ठा) हो जाय तो स्वप्नमें भी उसके द्वारा दुराचार नहीं हो सकता । ऐसे दृढ़निश्रयी सदाचारी पुरुषके विषयमें ही कहा गया है‒
“निष्पीडितोऽपि मधु ह्युद्गमतीक्षुदण्डः ।“
‘ईखको पेरनेपर भी उसमेंसे मीठा रस ही प्राप्त होता है ।’
(५) ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते’ (गीता १७ । २७)‒‘उस परमात्माके लिये किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्‒ऐसे कहा जाता है ।’ अपना कल्याण चाहनेवाला निषिद्ध आचरण कर ही नहीं सकता । जबतक अपने जाननेमें आनेवाले दुर्गुण-दुराचारका त्याग नहीं करता, तबतक वह चाहे कितनी ज्ञान-ध्यानकी ऊँची-ऊँची बातें बनाता रहे, उसे सत्-तत्त्वका अनुभव नहीं हो सकता । निषिद्ध और विहित कर्मोंके त्याग-ग्रहणके विषयमें भगवान् कहते हैं‒
“तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥“
..........(गीता १६ । २४)
‘इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर शास्त्रविधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है ।’ विहित कर्म करनेकी अपेक्षा निषिद्धका त्याग श्रेष्ठ है । निषिद्ध आचरणके त्यागके बाद जो भी क्रियाएँ होंगी, वे सब भगवदर्थ होनेपर सत्-आचार (सदाचार) ही कहलायेगी । भगवदर्थ कर्म करनेवालोंसे एक बड़ी भूल यह होती है कि वे कर्मोंके दो विभाग कर लेते हैं । (१) संसार और शरीरके लिये किये जानेवाले कर्म अपने लिये और (२) पूजा-पाठ, जप-ध्यान, सत्संगादि सात्त्विक कर्म भगवान्के लिये मानते हैं; वास्तवमें जैसे पतिव्रता स्त्री घरका काम, शरीरकी क्रिया, पूजा-पाठादि सब कुछ पतिके लिये ही करती है, वैसे ही साधकको भी सब कुछ केवल भगवदर्थ करना चाहिये । भगवदर्थ कर्म सुगमतापूर्वक करनेके लिये पाँच बातें (पंचामृत) सदैव याद रखनी चाहिये‒(१) मैं भगवान्का हूँ, (२) भगवान्के घर (दरबार) में रहता हूँ, (३) भगवान्के घरका काम करता हूँ, (४) भगवान्का दिया हुआ प्रसाद पाता हूँ और (५) भगवान्के जनों (परिवार) की सेवा करता हूँ । इस प्रकार शास्त्र-विहित कर्म करनेपर सदाचार स्वतः पुष्ट होगा ।
(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से