मंगलवार, 29 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

सूत उवाच ।

आनर्तान् स उपव्रज्य स्वृद्धाञ्जनपदान् स्वकान् ।
दध्मौ दरवरं तेषां विषादं शमयन्निव ॥ १ ॥
स उच्चकाशे धवलोदरो दरोऽपि
     उरुक्रमस्य अधरशोण शोणिमा ।
दाध्मायमानः करकञ्जसम्पुटे
     यथाब्जखण्डे कलहंस उत्स्वनः ॥ २ ॥
तमुपश्रुत्य निनदं जगद्‍भयभयावहम् ।
प्रत्युद्ययुः प्रजाः सर्वा भर्तृदर्शनलालसाः ॥ ३ ॥
तत्रोपनीतबलयो रवेर्दीपमिवादृताः ।
आत्मारामं पूर्णकामं निजलाभेन नित्यदा ॥ ४ ॥
प्रीत्युत्फुल्लमुखाः प्रोचुः हर्षगद्‍गदया गिरा ।
पितरं सर्वसुहृदं अवितारं इवार्भकाः ॥ ५ ॥

सूतजी कहते हैंश्रीकृष्णने अपने समृद्ध आनर्त्त देशमें पहुँचकर वहाँके लोगों की विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पाञ्चजन्य नामक शङ्ख बजाया ॥ १ ॥ भगवान्‌ के होठों की लाली से लाल हुआ वह श्वेत वर्णका शङ्ख बजते समय उनके कर-कमलोंमें ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंगके कमलोंपर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वर से मधुर गान कर रहा हो ॥ २ ॥ भगवान्‌के शङ्ख की वह ध्वनि संसार के भय को भयभीत करनेवाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसासे नगरके बाहर निकल आयी ॥ ३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभ से ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं। फिर भी जैसे लोग बड़े आदरसे भगवान्‌ सूर्यको भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकारकी भेंटोंसे प्रजाने श्रीकृष्णका स्वागत किया ॥ ४ ॥ सबके मुख-कमल प्रेमसे खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी तोतली बोलीमें बातें करते हैं ॥ ५ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

नताः स्म ते नाथ सदाङ्‌घ्रिपङ्‌कजं
     विरिञ्चवैरिञ्च्य सुरेन्द्र वन्दितम् ।
परायणं क्षेममिहेच्छतां परं
     न यत्र कालः प्रभवेत्परः प्रभुः ॥ ६ ॥
भवाय नस्त्वं भव विश्वभावन
     त्वमेव माताथ सुहृत्पतिः पिता ।
त्वं सद्‍गुरुर्नः परमं च दैवतं
     यस्यानुवृत्त्या कृतिनो बभूविम ॥ ७ ॥
अहो सनाथा भवता स्म यद्वयं
     त्रैविष्टपानामपि दूरदर्शनम् ।
प्रेमस्मित स्निग्ध निरीक्षणाननं
     पश्येम रूपं तव सर्वसौभगम् ॥ ८ ॥
यर्ह्यम्बुजाक्षापससार भो भवान्
     कुरून् मधून् वाथ सुहृद् दिदृक्षया ।
तत्राब्दकोटिप्रतिमः क्षणो भवेद्
     रविं विनाक्ष्णोरिव नस्तवाच्युत ॥ ९ ॥
इति चोदीरिता वाचः प्रजानां भक्तवत्सलः ।
शृण्वानोऽनुग्रहं दृष्ट्या वितन्वन् प्राविशत्पुरम् ॥ १० ॥

स्वामिन् ! हम आपके उन चरण-कमलोंको सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र तक करते हैं, जो इस संसार में परम कल्याण चाहनेवालों के लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेने पर परम समर्थ काल भी एक बालतक बाँका नहीं कर सकता ॥ ६ ॥ विश्वभावन ! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम आराध्यदेव हैं। आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण करें ॥ ७ ॥ अहा ! हम आपको पाकर सनाथ हो गये। क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम रूपका हम दर्शन करते रहते हैं। कितना सुन्दर मुख है ! प्रेमपूर्ण मुसकानसे स्निग्ध चितवन ! यह दर्शन तो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है ॥ ८ ॥ कमलनयन श्रीकृष्ण ! जब आप अपने बन्धु-बान्धवोंसे मिलनेके लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रज-मण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षोंके समान लंबा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसी सूर्यके बिना आँखोंकी ॥ ९ ॥ भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रजाके मुखसे ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टिसे उनपर अनुग्रह की वृष्टि करते हुए द्वारकामें प्रविष्ट हुए ॥ १० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

मधुभोजदशार्हार्ह कुकुरान्धक वृष्णिभिः ।
आत्मतुल्य बलैर्गुप्तां नागैर्भोगवतीमिव ॥ ११ ॥
सर्वर्तु सर्वविभव पुण्यवृक्षलताश्रमैः ।
उद्यानोपवनारामैः वृत पद्माकर श्रियम् ॥ १२ ॥
गोपुरद्वारमार्गेषु कृतकौतुक तोरणाम् ।
चित्रध्वजपताकाग्रैः अन्तः प्रतिहतातपाम् ॥ १३ ॥
सम्मार्जित महामार्ग रथ्यापणक चत्वराम् ।
सिक्तां गन्धजलैरुप्तां फलपुष्पाक्षताङ्‌कुरैः ॥ १४ ॥
द्वारि द्वारि गृहाणां च दध्यक्षत फलेक्षुभिः ।
अलङ्‌कृतां पूर्णकुम्भैः बलिभिः धूपदीपकैः ॥ १५ ॥

जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान्‌ की वह द्वारका पुरी भी मधु, भोज, दशार्ह, अर्ह, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंसे, जिनके पराक्रमकी तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी ॥ ११ ॥ वह पुरी समस्त ऋतुओं के सम्पूर्ण वैभव से सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओं के कुञ्जों से युक्त थी। स्थान-स्थान पर फलों से पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे। बीच-बीचमें कमलयुक्त सरोवर नगरकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १२ ॥ नगरके फाटकों, महलके दरवाजों और सडक़ोंपर भगवान्‌के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानोंपर घामका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था ॥ १३ ॥ उसके राजमार्ग, अन्यान्य सडक़ें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जलसे सींच दिये गये थे। और भगवान्‌के स्वागतके लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अङ्कुर चारों ओर बिखरे हुए थे ॥ १४ ॥ घरोंके प्रत्येक द्वारपर दही, अक्षत, फल, ईख, जलसे भरे हुए कलश, उपहारकी वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे ॥ १५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

निशम्य प्रेष्ठमायान्तं वसुदेवो महामनाः ।
अक्रूरश्चोग्रसेनश्च रामश्चाद्‍भुतविक्रमः ॥ १६ ॥
प्रद्युम्नः चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
प्रहर्षवेग उच्छशित शयनासन भोजनाः ॥ १७ ॥
वारणेन्द्रं पुरस्कृत्य ब्राह्मणैः ससुमङ्‌गलैः ।
शङ्‌खतूर्य निनादेन ब्रह्मघोषेण चादृताः ।
प्रत्युज्जग्मू रथैर्हृष्टाः प्रणयागत साध्वसाः ॥ १८ ॥
वारमुख्याश्च शतशो यानैः तत् दर्शनोत्सुकाः ।
लसत्कुण्डल निर्भात कपोल वदनश्रियः ॥ १९ ॥
नटनर्तकगन्धर्वाः सूत मागध वन्दिनः ।
गायन्ति चोत्तमश्लोक चरितानि अद्‍भुतानि च ॥ २० ॥

उदारशिरोमणि वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, अद्भुत पराक्रमी बलराम, प्रद्युम्न, चारुदेष्ण और जाम्बवतीनन्दन साम्बने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्ण आ रहे हैं, तब उनके मनमें इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगोंने अपने सभी आवश्यक कार्यसोना, बैठना और भोजन आदि छोड़ दिये। प्रेमके आवेगसे उनका हृदय उछलने लगा। वे मङ्गल शकुन के लिये एक गजराज को आगे करके स्वस्त्ययन-पाठ करते हुए और माङ्गलिक सामग्रियोंसे सुसज्जित ब्राह्मणोंको साथ लेकर चले। शङ्ख और तुरही आदि बाजे बजने लगे और वेदध्वनि होने लगी। वे सब हर्षित होकर रथोंपर सवार हुए और बड़ी आदरबुद्धिसे भगवान्‌की अगवानी करने चले ॥ १६१८ ॥ साथ ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनके लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ वारांगनाएँ, जिनके मुख कपोलोंपर चमचमाते हुए कुण्डलोंकी कान्ति पडऩेसे बड़े सुन्दर दीखते थे, पालकियोंपर चढक़र भगवान्‌की अगवानीके लिये चलीं ॥ १९ ॥ बहुत-से नट, नाचनेवाले, गानेवाले, विरद बखाननेवाले सूत, मागध और वंदीजन भगवान्‌ श्रीकृष्णके अद्भुत चरित्रोंका गायन करते हुए चले ॥ २० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

भगवान् तत्र बन्धूनां पौराणां अनुवर्तिनाम् ।
यथाविधि उपसङ्‌गम्य सर्वेषां मानमादधे ॥ २१ ॥
प्रह्वाभिवादन आश्लेष करस्पर्श स्मितेक्षणैः ।
आश्वास्य चाश्वपाकेभ्यो वरैश्च अभिमतैर्विभुः ॥ २२ ॥
स्वयं च गुरुभिर्विप्रैः सदारैः स्थविरैरपि ।
आशीर्भिः युज्यमानोऽन्यैः वन्दिभिश्चाविशत् पुरम् ॥ २३ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकों से उनकी योग्यता के अनुसार अलग- अलग मिलकर सब का सम्मान किया ॥ २१ ॥ किसी  को सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसी को वाणीसे अभिवादन किया, किसीको हृदयसे लगाया, किसीसे हाथ मिलाया, किसीकी ओर देखकर मुसकरा भर दिया और किसीको केवल प्रेमभरी दृष्टिसे देख लिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही-वरदान दिया। इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धोंका तथा दूसरे लोगोंका भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनोंसे विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया ॥ २२-२३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

राजमार्गं गते कृष्णे द्वारकायाः कुलस्त्रियः ।
हर्म्याण्यारुरुहुर्विप्र तदीक्षण महोत्सवाः ॥ २४ ॥
नित्यं निरीक्षमाणानां यदपि द्वारकौकसाम् ।
न वितृप्यन्ति हि दृशः श्रियो धामाङ्‌गमच्युतम् ॥ २५ ॥
श्रियो निवासो यस्योरः पानपात्रं मुखं दृशाम् ।
बाहवो लोकपालानां सारङ्‌गाणां पदाम्बुजम् ॥ २६ ॥
सितातपत्रव्यजनैः उपस्कृतः
     नवर्षैः अभिवर्षितः पथि ।
पिशङ्‌गवासा वनमालया बभौ
     यथार्कोडुप चाप वैद्युतैः ॥ २७ ॥

शौनकजी ! जिस समय भगवान्‌ राजमार्गसे जा रहे थे, उस समय द्वारका की कुल-कामिनियाँ भगवान्‌ के दर्शन को ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़ गयीं ॥ २४ ॥ भगवान्‌- का वक्ष:स्थल मूर्तिमान् सौन्दर्यलक्ष्मी का  निवासस्थान है। उनका मुखारविन्द नेत्रोंके द्वारा पान करनेके लिये सौन्दर्य-सुधासे भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालोंको भी शक्ति देनेवाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसोंके आश्रय हैं। उनके अङ्ग-अङ्ग शोभाके धाम हैं। भगवान्‌की इस छविको द्वारकावासी नित्य-निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षणके लिये भी तृप्त नहीं होतीं ॥ २५-२६ ॥ द्वारकाके राजपथपर भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऊपर श्वेत वर्णका छत्र तना हुआ था, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे। इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजलीसे शोभायमान हो ॥ २७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

प्रविष्टस्तु गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः ।
ववन्दे शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा ॥ २८ ॥
ताः पुत्रमङ्‌कं आरोप्य स्नेहस्नुत पयोधराः ।
हर्षविह्वलितात्मानः सिषिचुः नेत्रजैर्जलैः ॥ २९ ॥
अथाविशत् स्वभवनं सर्वकाममनुत्तमम् ।
प्रासादा यत्र पत्‍नीनां सहस्राणि च षोडश ॥ ३० ॥
पत्‍न्यः पतिं प्रोष्य गृहानुपागतं
     क्य सञ्जात मनोमहोत्सवाः ।
उत्तस्थुरारात् सहसासनाशयात्
     व्रतैः व्रीडित लोचनाननाः ॥ ३१ ॥
तं आत्मजैः दृष्टिभिरन्तरात्मना
     दुरन्तभावाः परिरेभिरे पतिम् ।
निरुद्धमप्यास्रवदम्बु नेत्रयोः
     विलज्जतीनां भृगुवर्य वैक्लवात् ॥ ३२ ॥

भगवान्‌ सबसे पहले अपने माता-पिताके महलमें गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्दसे देवकी आदि सातों माताओंको चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओंने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर गोदमें बैठा लिया। स्नेहके कारण उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्षसे विह्वल हो गया और वे आनन्दके आँसुओंसे उनका अभिषेक करने लगीं ॥ २८-२९ ॥ माताओंसे आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवनमें गये। उसमें सोलह हजार पत्नियों के अलग-अलग महल थे ॥ ३० ॥ अपने प्राणनाथ भगवान्‌ श्रीकृष्णको बहुत दिन बाहर रहनेके बाद घर आया देखकर रानियों के हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोडक़र उठ खड़ी हुर्ईं; उन्होंने केवल आसनको ही नहीं, बल्कि उन नियमोंको[*] भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पति के प्रवासी होनेपर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रोंमें लज्जा छा गयी ॥ ३१ ॥ भगवान्‌के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रोंके द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रों के बहाने शरीर से उनका आलिङ्गन किया। शौनकजी ! उस समय उनके  नेत्रों में जो प्रेम के आँसू छलक आये थे, उन्हें सङ्कोचवश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशता के कारण वे ढलक ही गये ॥ ३२ ॥

......................................................
[*] जिस स्त्रीका पति विदेश गया हो, उसे इन नियमोंका पालन करना चहिये
क्रीडां शरीरसंस्कारं समाजोत्सवदर्शनम्। हास्यं परगृहे यानं त्यजेत्प्रोषितभर्तृका ॥
जिसका पति परदेश गया हो, उस स्त्री को खेल-कूद, शृंगार, सामाजिक उत्सवों में भाग लेना, हँसी-मजाक करना और पराये घर जानाइन पाँच कामों को त्याग देना चाहिये। ............(याज्ञवल्क्यस्मृति)

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

यद्यप्यसौ पार्श्वगतो रहोगतः
     तथापि तस्याङ्‌घ्रियुगं नवं नवम् ।
पदे पदे का विरमेत तत्पदात्
     चलापि यच्छ्रीर्न जहाति कर्हिचित् ॥ ३३ ॥
एवं नृपाणां क्षितिभारजन्मनां
     अक्षौहिणीभिः परिवृत्ततेजसाम् ।
विधाय वैरं श्वसनो यथानलं
     मिथो वधेनोपरतो निरायुधः ॥ ३४ ॥
स एष नरलोकेऽस्मिन् अवतीर्णः स्वमायया ।
रेमे स्त्रीरत्‍नकूटस्थो भगवान् प्राकृतो यथा ॥ ३५ ॥

यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्ण एकान्त में सर्वदा ही उनके (रानियों के) पास रहते थे, तथापि उनके चरण-कमल उन्हें पद-पद पर नये-नये जान पड़ते। भला, स्वभाव से ही चञ्चल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षण के लिये भी कभी नहीं छोड़तीं, उनकी संनिधि से किस स्त्री को तृप्ति हो सकती है ॥ ३३ ॥
जैसे वायु बाँसों के संघर्षसे दावानल पैदा करके उन्हें जला देता है, वैसे ही पृथ्वी के भारभूत और शक्तिशाली राजाओं में परस्पर फूट डालकर बिना शस्त्र ग्रहण किये ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने उन्हें कई अक्षौहिणी सेनासहित एक-दूसरे से मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये ॥ ३४ ॥ साक्षात् परमेश्वर ही अपनी लीलासे इस मनुष्य-लोकमें अवतीर्ण हुए थे और सहस्रों रमणी-रत्नोंमें रहकर उन्होंने साधारण मनुष्य की तरह क्रीडा की ॥ ३५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

उद्दामभाव पिशुनामल वल्गुहास ।
     व्रीडावलोकनिहतो मदनोऽपि यासाम् ॥
सम्मुह्य चापमजहात् प्रमदोत्तमास्ता ।
     यस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकुः ॥ ३६ ॥
तमयं मन्यते लोको ह्यसङ्‌गमपि सङ्‌गिनम् ।
आत्मौपम्येन मनुजं व्यापृण्वानं यतोऽबुधः ॥ ३७ ॥
एतत् ईशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्‍गुणैः ।
न युज्यते सदाऽत्मस्थैः यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥ ३८ ॥
तं मेनिरेऽबला मूढाः स्त्रैणं चानुव्रतं रहः ।
अप्रमाणविदो भर्तुः ईश्वरं मतयो यथा ॥ ३९ ॥

जिनकी निर्मल और मधुर हँसी उनके हृदयके उन्मुक्त भावोंको सूचित करनेवाली थी, जिनकी लजीली चितवनकी चोटसे बेसुध होकर विश्वविजयी कामदेवने भी अपने धनुषका परित्याग कर दिया थावे कमनीय कामिनियाँ अपने काम-विलासोंसे जिनके मनमें तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असङ्ग भगवान्‌ श्रीकृष्णको संसारके लोग अपने ही समान कर्म करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते हैंयह उनकी मूर्खता है ॥ ३६-३७ ॥ यही तो भगवान्‌की भगवत्ता है कि वे प्रकृतिमें स्थित होकर भी उसके गुणोंसे कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान्‌की शरणागत बुद्धि अपनेमें रहनेवाले प्राकृत गुणोंसे लिप्त नहीं होती ॥ ३८ ॥ वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्णको अपना एकान्तसेवी, स्त्रीपरायण भक्त ही समझ बैठी थीं; क्योंकि वे अपने स्वामीके ऐश्वर्यको नहीं जानती थींठीक वैसे ही जैसे अहंकारकी वृत्तियाँ ईश्वरको अपने धर्मसे युक्त मानती हैं ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने श्रीकृष्णद्वारकाप्रवेशो नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय


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प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

श्रीकृष्ण का द्वारका-गमन

शौनक उवाच ।

हत्वा स्वरिक्थस्पृध आततायिनो
     युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः ।
सहानुजैः प्रत्यवरुद्धभोजनः
     कथं प्रवृत्तः किमकारषीत्ततः ॥ १ ॥

सूत उवाच –

वंशं कुरोर्वंशदवाग्निनिर्हृतं
     संरोहयित्वा भवभावनो हरिः ।
निवेशयित्वा निजराज्य ईश्वरो
     युधिष्ठिरं प्रीतमना बभूव ह ॥ २ ॥
निशम्य भीष्मोक्तमथाच्युतोक्तं
     प्रवृत्त विज्ञान विधूत विभ्रमः ।
शशास गामिन्द्र इवाजिताश्रयः
     परिध्युपान्तां अनुजानुवर्तितः ॥ ३ ॥
कामं ववर्ष पर्जन्यः सर्वकामदुघा मही ।
सिषिचुः स्म व्रजान् गावः पयसोधस्वतीर्मुदा ॥ ४ ॥
नद्यः समुद्रा गिरयः सवनस्पतिवीरुधः ।
फलन्त्योषधयः सर्वाः कामं अन्वृतु तस्य वै ॥ ५ ॥
नाधयो व्याधयः क्लेशा दैवभूतात्महेतवः ।
अजातशत्रौ अवभवन् जन्तूनां राज्ञि कर्हिचित् ॥ ६ ॥

शौनकजीने पूछाधार्मिकशिरोमणि महाराज युधिष्ठिरने अपनी पैतृक सम्पत्तिको हड़प जानेके इच्छुक आतताइयों का नाश करके अपने भाइयोंके साथ किस प्रकारसे राज्य-शासन किया और कौन-कौन-से काम किये, क्योंकि भोगोंमें तो उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं ॥ १ ॥
सूतजी कहते हैंसम्पूर्ण सृष्टिको उज्जीवित करनेवाले भगवान्‌ श्रीहरि परस्परकी कलहाग्नि से दग्ध कुरुवंशको पुन: अंकुरित कर और युधिष्ठिर को उनके राज्यसिंहासन पर बैठाकर बहुत प्रसन्न हुए ॥ २ ॥ भीष्मपितामह और भगवान्‌ श्रीकृष्णके उपदेशोंके श्रवणसे उनके अन्त:करण में विज्ञान- का उदय हुआ और भ्रान्ति मिट गयी। भगवान्‌के आश्रयमें रहकर वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीका इन्द्रके समान शासन करने लगे। भीमसेन आदि उनके भाई पूर्णरूप से उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे ॥ ३ ॥ युधिष्ठिरके राज्यमें आवश्यकतानुसार यथेष्ट वर्षा होती थी, पृथ्वीमें समस्त अभीष्ट वस्तुएँ पैदा होती थीं, बड़े-बड़े थनोंवाली बहुत-सी गौएँ प्रसन्न रहकर गोशालाओं को दूधसे सींचती रहती थीं ॥ ४ ॥ नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वनस्पति, लताएँ और ओषधियाँ प्रत्येक ऋतुमें यथेष्टरूपसे अपनी-अपनी वस्तुएँ राजाको देती थीं ॥ ५ ॥ अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरके राज्यमें किसी प्राणीको कभी भी आधि-व्याधि अथवा दैविक, भौतिक और आत्मिक क्लेश नहीं होते थे ॥ ६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

उषित्वा हास्तिनपुरे मासान् कतिपयान् हरिः ।
सुहृदां च विशोकाय स्वसुश्च प्रियकाम्यया ॥ ७ ॥
आमंत्र्य चाभ्यनुज्ञातः परिष्वज्याभिवाद्य तम् ।
आरुरोह रथं कैश्चित् परिष्वक्तोऽभिवादितः ॥ ८ ॥
सुभद्रा द्रौपदी कुन्ती विराटतनया तथा ।
गान्धारी धृतराष्ट्रश्च युयुत्सुः गौतमो यमौ ॥ ९ ॥
वृकोदरश्च धौम्यश्च स्त्रियो मत्स्यसुतादयः ।
न सेहिरे विमुह्यन्तो विरहं शार्ङ्गधन्वनः ॥ १० ॥
सत्सङ्गात् मुक्तदुःसङ्गो हातुं नोत्सहते बुधः ।
कीर्त्यमानं यशो यस्य सकृत् आकर्ण्य रोचनम् ॥ ११ ॥
तस्मिन् न्यस्तधियः पार्थाः सहेरन् विरहं कथम् ।
दर्शनस्पर्शसंलाप शयनासन भोजनैः ॥ १२ ॥
सर्वे तेऽनिमिषैः अक्षैः तं अनु द्रुतचेतसः ।
वीक्षन्तः स्नेहसम्बद्धा विचेलुस्तत्र तत्र ह ॥ १३ ॥

अपने बन्धुओंका शोक मिटानेके लिये और अपनी बहिन सुभद्राकी प्रसन्नताके लिये भगवान्‌ श्रीकृष्ण कई महीनोंतक हस्तिनापुरमें ही रहे ॥ ७ ॥ फिर जब उन्होंने राजा युधिष्ठिरसे द्वारका जानेकी अनुमति माँगी, तब राजाने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर स्वीकृति दे दी। भगवान्‌ उनको प्रणाम करके रथपर सवार हुए। कुछ लोगों (समान उम्रवालों) ने उनका आलिङ्गन किया और कुछ (छोटी उम्र- वालों) ने प्रणाम ॥ ८ ॥ उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीमसेन, धौम्य और सत्यवती आदि सब मूर्छित-से हो गये। वे शार्ङ्गपाणि श्रीकृष्ण का विरह नहीं सह सके ॥ ९-१० ॥ भगवद्भक्त सत्पुरुषोंके सङ्गसे जिसका दु:सङ्ग छूट गया है, वह विचारशील पुरुष भगवान्‌के मधुर-मनोहर सुयशको एक बार भी सुन लेनेपर फिर उसे छोडऩेकी कल्पना भी नहीं करता। उन्हीं भगवान्‌के दर्शन तथा स्पर्शसे, उनके साथ आलाप करनेसे तथा साथ-ही-साथ सोने, उठने-बैठने और भोजन करनेसे जिनका सम्पूर्ण हृदय उन्हें समर्पित हो चुका था, वे पाण्डव भला, उनका विरह कैसे सह सकते थे ॥ ११-१२ ॥ उनका चित्त द्रवित हो रहा था, वे सब निर्निमेष नेत्रों से भगवान्‌ को देखते हुए स्नेह-बन्धनसे बँधकर जहाँ-तहाँ दौड़ रहे थे ॥ १३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

न्यरुन्धन् उद्‍गलत् बाष्पमौत्कण्ठ्यात् देवकीसुते ।
निर्यात्यगारात् नोऽभद्रं इति स्यात् बान्धवस्त्रियः ॥ १४ ॥
मृदङ्गशङ्खभेर्यश्च वीणापणव गोमुखाः ।
धुन्धुर्यानक घण्टाद्या नेदुः दुन्दुभयस्तथा ॥ १५ ॥
प्रासादशिखरारूढाः कुरुनार्यो दिदृक्षया ।
ववृषुः कुसुमैः कृष्णं प्रेमव्रीडास्मितेक्षणाः ॥ १६ ॥
सितातपत्रं जग्राह मुक्तादामविभूषितम् ।
रत्‍नदण्डं गुडाकेशः प्रियः प्रियतमस्य ह ॥ १७ ॥
उद्धवः सात्यकिश्चैव व्यजने परमाद्‍भुते ।
विकीर्यमाणः कुसुमै रेजे मधुपतिः पथि ॥ १८ ॥
अश्रूयन्ताशिषः सत्याः तत्र तत्र द्विजेरिताः ।
नानुरूपानुरूपाश्च निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥ १९ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण के घरसे चलते समय उनके बन्धुओंकी स्त्रियोंके नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते हुए आँसुओंसे भर आये; परन्तु इस भयसे कि कहीं यात्राके समय अशकुन न हो जाय, उन्होंने बड़ी कठिनाईसे उन्हें रोक लिया ॥ १४ ॥ भगवान्‌के प्रस्थानके समय मृदङ्ग, शङ्ख, भेरी, वीणा, ढोल, नरसिंगे, धुन्धुरी, नगारे, घंटे और दुन्दुभियाँ आदि बाजे बजने लगे ॥ १५ ॥ भगवान्‌के दर्शनकी लालसासे कुरुवंशकी स्त्रियाँ अटारियोंपर चढ़ गयीं और प्रेम, लज्जा एवं मुसकानसे युक्त चितवनसे भगवान्‌को देखती हुई उनपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं ॥ १६ ॥ उस समय भगवान्‌के प्रिय सखा घुँघराले बालोंवाले अर्जुनने अपने प्रियतम श्रीकृष्णका वह श्वेत छत्र, जिसमें मोतियोंकी झालर लटक रही थी और जिसका डंडा रत्नोंका बना हुआ था, अपने हाथमें ले लिया ॥ १७ ॥ उद्धव और सात्यकि बड़े विचित्र चँवर डुलाने लगे। मार्गमें भगवान्‌ श्रीकृष्णपर चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी। बड़ी ही मधुर झाँकी थी ॥ १८ ॥ जहाँ-तहाँ ब्राह्मणोंके दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे। वे सगुण भगवान्‌के तो अनुरूप ही थे; क्योंकि उनमें सब कुछ है, परन्तु निर्गुणके अनुरूप नहीं थे, क्योंकि उनमें कोई प्राकृत गुण नहीं है ॥ १९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

अन्योन्यमासीत् संजल्प उत्तमश्लोकचेतसाम् ।
कौरवेन्द्रपुरस्त्रीणां सर्वश्रुतिमनोहरः ॥ २० ॥
स वै किलायं पुरुषः पुरातनो
     य एक आसीदविशेष आत्मनि ।
अग्रे गुणेभ्यो जगदात्मनीश्वरे
     निमीलितात्मन्निशि सुप्तशक्तिषु ॥ २१ ॥
स एव भूयो निजवीर्यचोदितां
     स्वजीवमायां प्रकृतिं सिसृक्षतीम् ।
अनामरूपात्मनि रूपनामनी        
     विधित्समानोऽनुससार शास्त्रकृत् ॥ २२ ॥

हस्तिनापुर की कुलीन रमणियाँ, जिनका चित्त भगवान्‌ श्रीकृष्ण में रम गया था, आपस में ऐसी बातें कर रही थीं, जो सबके कान और मन को आकृष्ट कर रही थीं ॥ २० ॥ वे आपस में कह रही थीं—‘सखियो ! ये वे ही सनातन परम पुरुष हैं, जो प्रलयके समय भी अपने अद्वितीय निर्विशेष स्वरूपमें स्थित रहते हैं। उस समय सृष्टिके मूल ये तीनों गुण भी नहीं रहते। जगदात्मा ईश्वरमें जीव भी लीन हो जाते हैं और महत्तत्त्वादि समस्त शक्तियाँ अपने कारण अव्यक्तमें सो जाती हैं ॥ २१ ॥ उन्होंने ही फिर अपने नाम-रूपरहित स्वरूपमें नामरूपके निर्माणकी इच्छा की, तथा अपनी काल-शक्तिसे प्रेरित प्रकृतिका, जो कि उनके अंशभूत जीवोंको मोहित कर लेती है और सृष्टिकी रचनामें प्रवृत्त रहती है, अनुसरण किया और व्यवहारके लिये वेदादि शास्त्रोंकी रचना की ॥ २२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

स वा अयं यत्पदमत्र सूरयो
     जितेन्द्रिया निर्जितमातरिश्वनः ।
पश्यन्ति भक्ति उत्कलितामलात्मना
     नन्वेष सत्त्वं परिमार्ष्टुमर्हति ॥ २३ ॥
स वा अयं सख्यनुगीत सत्कथो
     वेदेषु गुह्येषु च गुह्यवादिभिः ।
य एक ईशो जगदात्मलीलया
     सृजत्यवत्यत्ति न तत्र सज्जते ॥ २४ ॥
यदा ह्यधर्मेण तमोधियो नृपा
     जीवन्ति तत्रैष हि सत्त्वतः किल ।
धत्ते भगं सत्यमृतं दयां यशो
     भवाय रूपाणि दधत् युगे युगे ॥ २५ ॥

इस जगत् में जिसके स्वरूपका साक्षात्कार जितेन्द्रिय योगी अपने प्राणोंको वशमें करके भक्तिसे प्रफुल्लित निर्मल हृदयमें किया करते हैं, ये श्रीकृष्ण वही साक्षात् परब्रह्म हैं। वास्तवमें इन्हींकी भक्तिसे अन्त:करणकी पूर्ण शुद्धि हो सकती है, योगादिके द्वारा नहीं ॥ २३ ॥ सखी ! वास्तवमें ये वही हैं, जिनकी सुन्दर लीलाओं का गायन वेदों में और दूसरे गोपनीय शास्त्रों में व्यासादि रहस्यवादी ऋषियोंने किया हैजो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और अपनी लीलासे जगत् की सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं, परन्तु उनमें आसक्त नहीं होते ॥ २४ ॥ जब तामसी बुद्धिवाले राजा अधर्मसे अपना पेट पालने लगते हैं तब ये ही सत्त्वगुणको स्वीकार कर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत, दया और यश प्रकट करते और संसारके कल्याणके लिये युग-युगमें अनेकों अवतार धारण करते हैं ॥ २५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

अहो अलं श्लाघ्यतमं यदोः कुलं
     अहो अलं पुण्यतमं मधोर्वनम् ।
यदेष पुंसां ऋषभः श्रियः पतिः
     स्वजन्मना चङ्क्रमणेन चाञ्चति ॥ २६ ॥
अहो बत स्वर्यशसः तिरस्करी
     कुशस्थली पुण्ययशस्करी भुवः ।
पश्यन्ति नित्यं यदनुग्रहेषितं
     स्मितावलोकं स्वपतिं स्म यत्प्रजाः ॥ २७ ॥

अहो ! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम श्रीकृष्णने जन्म ग्रहण करके इस वंशको सम्मानित किया है। वह पवित्र मधुवन (व्रजमण्डल) भी अत्यन्त धन्य है, जिसे इन्होंने अपने शैशव एवं किशोरावस्थामें घूम-फिरकर सुशोभित किया है ॥ २६ ॥ बड़े हर्षकी बात है कि द्वारकाने स्वर्गके यशका तिरस्कार करके पृथ्वीके पवित्र यशको बढ़ाया है। क्यों न हो, वहाँकी प्रजा अपने स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्णको, जो बड़े प्रेमसे मन्द-मन्द मुसकराते हुए उन्हें कृपादृष्टिसे देखते हैं, निरन्तर निहारती रहती हैं ॥ २७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

नूनं व्रतस्नानहुतादिनेश्वरः
     समर्चितो ह्यस्य गृहीतपाणिभिः ।
पिबंति याः सख्यधरामृतं मुहुः
     व्रजस्त्रियः सम्मुमुहुः यदाशयाः ॥ २८ ॥
या वीर्यशुल्केन हृताः स्वयंवरे
     प्रमथ्य चैद्यः प्रमुखान्हि शुष्मिणः ।
प्रद्युम्न साम्बाम्ब सुतादयोऽपरा
     याः चाहृता भौमवधे सहस्रशः ॥ २९ ॥
एताः परं स्त्रीत्वमपास्तपेशलं
     निरस्तशौचं बत साधु कुर्वते ।
यासां गृहात् पुष्करलोचनः पतिः
     न जातु अपैत्याहृतिभिः हृदि स्पृशन् ॥ ३० ॥
एवंविधा गदन्तीनां स गिरः पुरयोषिताम् ।
निरीक्षणेन अभिनन्दन् सस्मितेन ययौ हरिः ॥ ३१ ॥

सखी ! जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है, उन स्त्रियों ने अवश्य ही व्रत, स्नान, हवन आदि के द्वारा इन परमात्माकी आराधना की होगी; क्योंकि वे बार-बार इनकी उस अधर-सुधाका पान करती हैं, जिसके स्मरणमात्रसे ही व्रजबालाएँ आनन्दसे मूर्च्छित हो जाया करती थीं ॥ २८ ॥ ये स्वयंवरमें शिशुपाल आदि मतवाले राजाओंका मान मर्दन करके जिनको अपने बाहुबलसे हर लाये थे तथा जिनके पुत्र प्रद्युम्र, साम्ब, आम्ब आदि हैं, वे रुक्मिणी आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुरको मारकर लायी हुई जो इनकी हजारों अन्य पत्नियाँ हैं, वे वास्तवमें धन्य हैं। क्योंकि इन सभीने स्वतन्त्रता और पतिव्रतासे रहित स्त्रीजीवनको पवित्र और उज्ज्वल बना दिया है। इनकी महिमाका वर्णन कोई क्या करे। इनके स्वामी साक्षात् कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं, जो नाना प्रकारकी प्रिय चेष्टाओं तथा पारिजातादि प्रिय वस्तुओंकी भेंटसे इनके हृदयमें प्रेम एवं आनन्दकी अभिवृद्धि करते हुए कभी एक क्षणके लिये भी इन्हें छोडक़र दूसरी जगह नहीं जाते ॥ २९-३० ॥  हस्तिनापुरकी स्त्रियाँ इस प्रकार बातचीत कर ही रही थीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण मन्द मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवनसे उनका अभिनन्दन करते हुए वहाँसे विदा हो गये ॥ ३१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

श्रीकृष्णका द्वारका-गमन

अजातशत्रुः पृतनां गोपीथाय मधुद्विषः ।
परेभ्यः शङ्कितः स्नेहात् प्रायुङ्क्त चतुरङ्‌गिणीम् ॥ ३२ ॥
अथ दूरागतान् शौरिः कौरवान् विरहातुरान् ।
सन्निवर्त्य दृढं स्निग्धान् प्रायात्स्वनगरीं प्रियैः ॥ ३३ ॥
कुरुजाङ्गलपाञ्चालान् शूरसेनान् सयामुनान् ।
ब्रह्मावर्तं कुरुक्षेत्रं मत्स्यान् सारस्वतानथ ॥ ३४ ॥
मरुधन्वमतिक्रम्य सौवीराभीरयोः परान् ।
आनर्तान् भार्गवोपागात् श्रान्तवाहो मनाग्विभुः ॥ ३५ ॥
तत्र तत्र ह तत्रत्यैः हरिः प्रत्युद्यतार्हणः ।
सायं भेजे दिशं पश्चात् गविष्ठो गां गतस्तदा ॥ ३६ ॥

अजातशत्रु युधिष्ठिरने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी रक्षाके लिये हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें स्नेहवश यह शङ्का हो आयी थी कि कहीं रास्तेमें शत्रु इनपर आक्रमण न कर दें ॥ ३२ ॥ सुदृढ़ प्रेमके कारण कुरुवंशी पाण्डव भगवान्‌ के साथ बहुत दूरतक चले गये। वे लोग उस समय भावी विरहसे व्याकुल हो रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रोंके साथ द्वारकाकी यात्रा की ॥ ३३ ॥ शौनकजी! वे कुरुजाङ्गल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुनाके तटवर्ती प्रदेश ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत और मरुधन्व देशको पार करके सौवीर और आभीर देशके पश्चिम आनर्त्त देशमें आये। उस समय अधिक चलनेके कारण भगवान्‌के रथके घोड़े कुछ थक-से गये थे ॥ ३४-३५ ॥ मार्ग में स्थान-स्थान पर लोग उपहारादि के द्वारा भगवान्‌ का सम्मान करते, सायंकाल होनेपर वे रथपर से भूमिपर उतर आते और जलाशयपर जाकर सन्ध्या-वन्दन करते। यह उनकी नित्यचर्या थी ॥ ३६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे श्रीकृष्णद्वारकागमनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
                                  
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...