॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)
श्रीकृष्ण
का द्वारका-गमन
शौनक
उवाच ।
हत्वा
स्वरिक्थस्पृध आततायिनो
युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः ।
सहानुजैः
प्रत्यवरुद्धभोजनः
कथं प्रवृत्तः किमकारषीत्ततः ॥ १ ॥
सूत
उवाच –
वंशं
कुरोर्वंशदवाग्निनिर्हृतं
संरोहयित्वा भवभावनो हरिः ।
निवेशयित्वा
निजराज्य ईश्वरो
युधिष्ठिरं प्रीतमना बभूव ह ॥ २ ॥
निशम्य
भीष्मोक्तमथाच्युतोक्तं
प्रवृत्त विज्ञान विधूत विभ्रमः ।
शशास
गामिन्द्र इवाजिताश्रयः
परिध्युपान्तां अनुजानुवर्तितः ॥ ३ ॥
कामं
ववर्ष पर्जन्यः सर्वकामदुघा मही ।
सिषिचुः
स्म व्रजान् गावः पयसोधस्वतीर्मुदा ॥ ४ ॥
नद्यः
समुद्रा गिरयः सवनस्पतिवीरुधः ।
फलन्त्योषधयः
सर्वाः कामं अन्वृतु तस्य वै ॥ ५ ॥
नाधयो
व्याधयः क्लेशा दैवभूतात्महेतवः ।
अजातशत्रौ
अवभवन् जन्तूनां राज्ञि कर्हिचित् ॥ ६ ॥
शौनकजीने
पूछा—धार्मिकशिरोमणि महाराज युधिष्ठिरने अपनी पैतृक सम्पत्तिको हड़प जानेके
इच्छुक आतताइयों का नाश करके अपने भाइयोंके साथ किस प्रकारसे राज्य-शासन किया और
कौन-कौन-से काम किये, क्योंकि भोगोंमें तो उनकी प्रवृत्ति थी
ही नहीं ॥ १ ॥
सूतजी
कहते हैं—सम्पूर्ण सृष्टिको उज्जीवित करनेवाले भगवान् श्रीहरि परस्परकी कलहाग्नि से
दग्ध कुरुवंशको पुन: अंकुरित कर और युधिष्ठिर को उनके राज्यसिंहासन पर बैठाकर बहुत
प्रसन्न हुए ॥ २ ॥ भीष्मपितामह और भगवान् श्रीकृष्णके उपदेशोंके श्रवणसे उनके
अन्त:करण में विज्ञान- का उदय हुआ और भ्रान्ति मिट गयी। भगवान्के आश्रयमें रहकर
वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीका इन्द्रके समान शासन करने लगे। भीमसेन आदि उनके भाई
पूर्णरूप से उनकी आज्ञाओं का पालन करते थे ॥ ३ ॥ युधिष्ठिरके राज्यमें
आवश्यकतानुसार यथेष्ट वर्षा होती थी, पृथ्वीमें समस्त अभीष्ट
वस्तुएँ पैदा होती थीं, बड़े-बड़े थनोंवाली बहुत-सी गौएँ
प्रसन्न रहकर गोशालाओं को दूधसे सींचती रहती थीं ॥ ४ ॥ नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वनस्पति,
लताएँ और ओषधियाँ प्रत्येक ऋतुमें यथेष्टरूपसे अपनी-अपनी वस्तुएँ
राजाको देती थीं ॥ ५ ॥ अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरके राज्यमें किसी प्राणीको कभी
भी आधि-व्याधि अथवा दैविक, भौतिक और आत्मिक क्लेश नहीं होते
थे ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
०००००००००००
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
श्रीकृष्णका
द्वारका-गमन
उषित्वा
हास्तिनपुरे मासान् कतिपयान् हरिः ।
सुहृदां
च विशोकाय स्वसुश्च प्रियकाम्यया ॥ ७ ॥
आमंत्र्य
चाभ्यनुज्ञातः परिष्वज्याभिवाद्य तम् ।
आरुरोह
रथं कैश्चित् परिष्वक्तोऽभिवादितः ॥ ८ ॥
सुभद्रा
द्रौपदी कुन्ती विराटतनया तथा ।
गान्धारी
धृतराष्ट्रश्च युयुत्सुः गौतमो यमौ ॥ ९ ॥
वृकोदरश्च
धौम्यश्च स्त्रियो मत्स्यसुतादयः ।
न
सेहिरे विमुह्यन्तो विरहं शार्ङ्गधन्वनः ॥ १० ॥
सत्सङ्गात्
मुक्तदुःसङ्गो हातुं नोत्सहते बुधः ।
कीर्त्यमानं
यशो यस्य सकृत् आकर्ण्य रोचनम् ॥ ११ ॥
तस्मिन्
न्यस्तधियः पार्थाः सहेरन् विरहं कथम् ।
दर्शनस्पर्शसंलाप
शयनासन भोजनैः ॥ १२ ॥
सर्वे
तेऽनिमिषैः अक्षैः तं अनु द्रुतचेतसः ।
वीक्षन्तः
स्नेहसम्बद्धा विचेलुस्तत्र तत्र ह ॥ १३ ॥
अपने
बन्धुओंका शोक मिटानेके लिये और अपनी बहिन सुभद्राकी प्रसन्नताके लिये भगवान्
श्रीकृष्ण कई महीनोंतक हस्तिनापुरमें ही रहे ॥ ७ ॥ फिर जब उन्होंने राजा
युधिष्ठिरसे द्वारका जानेकी अनुमति माँगी, तब राजाने उन्हें
अपने हृदयसे लगाकर स्वीकृति दे दी। भगवान् उनको प्रणाम करके रथपर सवार हुए। कुछ
लोगों (समान उम्रवालों) ने उनका आलिङ्गन किया और कुछ (छोटी उम्र- वालों) ने प्रणाम
॥ ८ ॥ उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती,
उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र,
युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल,
सहदेव, भीमसेन, धौम्य और
सत्यवती आदि सब मूर्छित-से हो गये। वे शार्ङ्गपाणि श्रीकृष्ण का विरह नहीं सह सके
॥ ९-१० ॥ भगवद्भक्त सत्पुरुषोंके सङ्गसे जिसका दु:सङ्ग छूट गया है, वह विचारशील पुरुष भगवान्के मधुर-मनोहर सुयशको एक बार भी सुन लेनेपर फिर
उसे छोडऩेकी कल्पना भी नहीं करता। उन्हीं भगवान्के दर्शन तथा स्पर्शसे, उनके साथ आलाप करनेसे तथा साथ-ही-साथ सोने, उठने-बैठने
और भोजन करनेसे जिनका सम्पूर्ण हृदय उन्हें समर्पित हो चुका था, वे पाण्डव भला, उनका विरह कैसे सह सकते थे ॥ ११-१२ ॥
उनका चित्त द्रवित हो रहा था, वे सब निर्निमेष नेत्रों से
भगवान् को देखते हुए स्नेह-बन्धनसे बँधकर जहाँ-तहाँ दौड़ रहे थे ॥ १३ ॥
शेष
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)
श्रीकृष्णका
द्वारका-गमन
न्यरुन्धन्
उद्गलत् बाष्पमौत्कण्ठ्यात् देवकीसुते ।
निर्यात्यगारात्
नोऽभद्रं इति स्यात् बान्धवस्त्रियः ॥ १४ ॥
मृदङ्गशङ्खभेर्यश्च
वीणापणव गोमुखाः ।
धुन्धुर्यानक
घण्टाद्या नेदुः दुन्दुभयस्तथा ॥ १५ ॥
प्रासादशिखरारूढाः
कुरुनार्यो दिदृक्षया ।
ववृषुः
कुसुमैः कृष्णं प्रेमव्रीडास्मितेक्षणाः ॥ १६ ॥
सितातपत्रं
जग्राह मुक्तादामविभूषितम् ।
रत्नदण्डं
गुडाकेशः प्रियः प्रियतमस्य ह ॥ १७ ॥
उद्धवः
सात्यकिश्चैव व्यजने परमाद्भुते ।
विकीर्यमाणः
कुसुमै रेजे मधुपतिः पथि ॥ १८ ॥
अश्रूयन्ताशिषः
सत्याः तत्र तत्र द्विजेरिताः ।
नानुरूपानुरूपाश्च
निर्गुणस्य गुणात्मनः ॥ १९ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण के घरसे चलते समय उनके बन्धुओंकी स्त्रियोंके नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते
हुए आँसुओंसे भर आये;
परन्तु इस भयसे कि कहीं यात्राके समय अशकुन न हो जाय, उन्होंने बड़ी कठिनाईसे उन्हें रोक लिया ॥ १४ ॥ भगवान्के प्रस्थानके समय
मृदङ्ग, शङ्ख, भेरी, वीणा, ढोल, नरसिंगे, धुन्धुरी, नगारे, घंटे और
दुन्दुभियाँ आदि बाजे बजने लगे ॥ १५ ॥ भगवान्के दर्शनकी लालसासे कुरुवंशकी
स्त्रियाँ अटारियोंपर चढ़ गयीं और प्रेम, लज्जा एवं मुसकानसे
युक्त चितवनसे भगवान्को देखती हुई उनपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं ॥ १६ ॥ उस समय
भगवान्के प्रिय सखा घुँघराले बालोंवाले अर्जुनने अपने प्रियतम श्रीकृष्णका वह
श्वेत छत्र, जिसमें मोतियोंकी झालर लटक रही थी और जिसका डंडा
रत्नोंका बना हुआ था, अपने हाथमें ले लिया ॥ १७ ॥ उद्धव और
सात्यकि बड़े विचित्र चँवर डुलाने लगे। मार्गमें भगवान् श्रीकृष्णपर चारों ओरसे
पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी। बड़ी ही मधुर झाँकी थी ॥ १८ ॥ जहाँ-तहाँ ब्राह्मणोंके
दिये हुए सत्य आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे। वे सगुण भगवान्के तो अनुरूप ही थे;
क्योंकि उनमें सब कुछ है, परन्तु निर्गुणके
अनुरूप नहीं थे, क्योंकि उनमें कोई प्राकृत गुण नहीं है ॥ १९
॥
शेष
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
श्रीकृष्णका
द्वारका-गमन
अन्योन्यमासीत्
संजल्प उत्तमश्लोकचेतसाम् ।
कौरवेन्द्रपुरस्त्रीणां
सर्वश्रुतिमनोहरः ॥ २० ॥
स
वै किलायं पुरुषः पुरातनो
य एक आसीदविशेष आत्मनि ।
अग्रे
गुणेभ्यो जगदात्मनीश्वरे
निमीलितात्मन्निशि सुप्तशक्तिषु ॥ २१ ॥
स
एव भूयो निजवीर्यचोदितां
स्वजीवमायां प्रकृतिं सिसृक्षतीम् ।
अनामरूपात्मनि रूपनामनी
विधित्समानोऽनुससार शास्त्रकृत् ॥ २२ ॥
हस्तिनापुर
की कुलीन रमणियाँ,
जिनका चित्त भगवान् श्रीकृष्ण में रम गया था, आपस में ऐसी बातें कर रही थीं, जो सबके कान और मन को
आकृष्ट कर रही थीं ॥ २० ॥ वे आपस में कह रही थीं—‘सखियो ! ये
वे ही सनातन परम पुरुष हैं, जो प्रलयके समय भी अपने अद्वितीय
निर्विशेष स्वरूपमें स्थित रहते हैं। उस समय सृष्टिके मूल ये तीनों गुण भी नहीं
रहते। जगदात्मा ईश्वरमें जीव भी लीन हो जाते हैं और महत्तत्त्वादि समस्त शक्तियाँ
अपने कारण अव्यक्तमें सो जाती हैं ॥ २१ ॥ उन्होंने ही फिर अपने नाम-रूपरहित
स्वरूपमें नामरूपके निर्माणकी इच्छा की, तथा अपनी
काल-शक्तिसे प्रेरित प्रकृतिका, जो कि उनके अंशभूत जीवोंको
मोहित कर लेती है और सृष्टिकी रचनामें प्रवृत्त रहती है, अनुसरण
किया और व्यवहारके लिये वेदादि शास्त्रोंकी रचना की ॥ २२ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
श्रीकृष्णका
द्वारका-गमन
स
वा अयं यत्पदमत्र सूरयो
जितेन्द्रिया निर्जितमातरिश्वनः ।
पश्यन्ति
भक्ति उत्कलितामलात्मना
नन्वेष सत्त्वं परिमार्ष्टुमर्हति ॥ २३ ॥
स
वा अयं सख्यनुगीत सत्कथो
वेदेषु गुह्येषु च गुह्यवादिभिः ।
य
एक ईशो जगदात्मलीलया
सृजत्यवत्यत्ति न तत्र सज्जते ॥ २४ ॥
यदा
ह्यधर्मेण तमोधियो नृपा
जीवन्ति तत्रैष हि सत्त्वतः किल ।
धत्ते
भगं सत्यमृतं दयां यशो
भवाय रूपाणि दधत् युगे युगे ॥ २५ ॥
इस
जगत् में जिसके स्वरूपका साक्षात्कार जितेन्द्रिय योगी अपने प्राणोंको वशमें करके
भक्तिसे प्रफुल्लित निर्मल हृदयमें किया करते हैं, ये
श्रीकृष्ण वही साक्षात् परब्रह्म हैं। वास्तवमें इन्हींकी भक्तिसे अन्त:करणकी
पूर्ण शुद्धि हो सकती है, योगादिके द्वारा नहीं ॥ २३ ॥ सखी !
वास्तवमें ये वही हैं, जिनकी सुन्दर लीलाओं का गायन वेदों में
और दूसरे गोपनीय शास्त्रों में व्यासादि रहस्यवादी ऋषियोंने किया है—जो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और अपनी लीलासे जगत् की सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं, परन्तु उनमें आसक्त नहीं
होते ॥ २४ ॥ जब तामसी बुद्धिवाले राजा अधर्मसे अपना पेट पालने लगते हैं तब ये ही
सत्त्वगुणको स्वीकार कर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत, दया और यश प्रकट करते और संसारके कल्याणके लिये
युग-युगमें अनेकों अवतार धारण करते हैं ॥ २५ ॥
शेष
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०००००००
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)
श्रीकृष्णका
द्वारका-गमन
अहो
अलं श्लाघ्यतमं यदोः कुलं
अहो अलं पुण्यतमं मधोर्वनम् ।
यदेष
पुंसां ऋषभः श्रियः पतिः
स्वजन्मना चङ्क्रमणेन चाञ्चति ॥ २६ ॥
अहो
बत स्वर्यशसः तिरस्करी
कुशस्थली पुण्ययशस्करी भुवः ।
पश्यन्ति
नित्यं यदनुग्रहेषितं
स्मितावलोकं स्वपतिं स्म यत्प्रजाः ॥ २७ ॥
अहो
! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम
श्रीकृष्णने जन्म ग्रहण करके इस वंशको सम्मानित किया है। वह पवित्र मधुवन
(व्रजमण्डल) भी अत्यन्त धन्य है, जिसे इन्होंने अपने शैशव
एवं किशोरावस्थामें घूम-फिरकर सुशोभित किया है ॥ २६ ॥ बड़े हर्षकी बात है कि
द्वारकाने स्वर्गके यशका तिरस्कार करके पृथ्वीके पवित्र यशको बढ़ाया है। क्यों न
हो, वहाँकी प्रजा अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णको, जो बड़े प्रेमसे मन्द-मन्द मुसकराते हुए उन्हें कृपादृष्टिसे देखते हैं,
निरन्तर निहारती रहती हैं ॥ २७ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
००००००००००
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)
श्रीकृष्णका
द्वारका-गमन
नूनं
व्रतस्नानहुतादिनेश्वरः
समर्चितो ह्यस्य गृहीतपाणिभिः ।
पिबंति
याः सख्यधरामृतं मुहुः
व्रजस्त्रियः सम्मुमुहुः यदाशयाः ॥ २८ ॥
या
वीर्यशुल्केन हृताः स्वयंवरे
प्रमथ्य चैद्यः प्रमुखान्हि शुष्मिणः ।
प्रद्युम्न
साम्बाम्ब सुतादयोऽपरा
याः चाहृता भौमवधे सहस्रशः ॥ २९ ॥
एताः
परं स्त्रीत्वमपास्तपेशलं
निरस्तशौचं बत साधु कुर्वते ।
यासां
गृहात् पुष्करलोचनः पतिः
न जातु अपैत्याहृतिभिः हृदि स्पृशन् ॥ ३० ॥
एवंविधा
गदन्तीनां स गिरः पुरयोषिताम् ।
निरीक्षणेन
अभिनन्दन् सस्मितेन ययौ हरिः ॥ ३१ ॥
सखी
! जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है, उन स्त्रियों ने
अवश्य ही व्रत, स्नान, हवन आदि के
द्वारा इन परमात्माकी आराधना की होगी; क्योंकि वे बार-बार
इनकी उस अधर-सुधाका पान करती हैं, जिसके स्मरणमात्रसे ही
व्रजबालाएँ आनन्दसे मूर्च्छित हो जाया करती थीं ॥ २८ ॥ ये स्वयंवरमें शिशुपाल आदि
मतवाले राजाओंका मान मर्दन करके जिनको अपने बाहुबलसे हर लाये थे तथा जिनके पुत्र
प्रद्युम्र, साम्ब, आम्ब आदि हैं,
वे रुक्मिणी आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुरको मारकर लायी हुई जो
इनकी हजारों अन्य पत्नियाँ हैं, वे वास्तवमें धन्य हैं।
क्योंकि इन सभीने स्वतन्त्रता और पतिव्रतासे रहित स्त्रीजीवनको पवित्र और उज्ज्वल
बना दिया है। इनकी महिमाका वर्णन कोई क्या करे। इनके स्वामी साक्षात् कमलनयन
भगवान् श्रीकृष्ण हैं, जो नाना प्रकारकी प्रिय चेष्टाओं तथा
पारिजातादि प्रिय वस्तुओंकी भेंटसे इनके हृदयमें प्रेम एवं आनन्दकी अभिवृद्धि करते
हुए कभी एक क्षणके लिये भी इन्हें छोडक़र दूसरी जगह नहीं जाते ॥ २९-३० ॥ हस्तिनापुरकी स्त्रियाँ इस प्रकार बातचीत कर ही
रही थीं कि भगवान् श्रीकृष्ण मन्द मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवनसे उनका अभिनन्दन
करते हुए वहाँसे विदा हो गये ॥ ३१ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--दसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)
श्रीकृष्णका
द्वारका-गमन
अजातशत्रुः
पृतनां गोपीथाय मधुद्विषः ।
परेभ्यः
शङ्कितः स्नेहात् प्रायुङ्क्त चतुरङ्गिणीम् ॥ ३२ ॥
अथ
दूरागतान् शौरिः कौरवान् विरहातुरान् ।
सन्निवर्त्य
दृढं स्निग्धान् प्रायात्स्वनगरीं प्रियैः ॥ ३३ ॥
कुरुजाङ्गलपाञ्चालान्
शूरसेनान् सयामुनान् ।
ब्रह्मावर्तं
कुरुक्षेत्रं मत्स्यान् सारस्वतानथ ॥ ३४ ॥
मरुधन्वमतिक्रम्य
सौवीराभीरयोः परान् ।
आनर्तान्
भार्गवोपागात् श्रान्तवाहो मनाग्विभुः ॥ ३५ ॥
तत्र
तत्र ह तत्रत्यैः हरिः प्रत्युद्यतार्हणः ।
सायं
भेजे दिशं पश्चात् गविष्ठो गां गतस्तदा ॥ ३६ ॥
अजातशत्रु
युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णकी रक्षाके लिये हाथी, घोड़े,
रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें
स्नेहवश यह शङ्का हो आयी थी कि कहीं रास्तेमें शत्रु इनपर आक्रमण न कर दें ॥ ३२ ॥
सुदृढ़ प्रेमके कारण कुरुवंशी पाण्डव भगवान् के साथ बहुत दूरतक चले गये। वे लोग
उस समय भावी विरहसे व्याकुल हो रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें बहुत आग्रह
करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रोंके साथ
द्वारकाकी यात्रा की ॥ ३३ ॥ शौनकजी! वे कुरुजाङ्गल, पाञ्चाल,
शूरसेन, यमुनाके तटवर्ती प्रदेश ब्रह्मावर्त,
कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत
और मरुधन्व देशको पार करके सौवीर और आभीर देशके पश्चिम आनर्त्त देशमें आये। उस समय
अधिक चलनेके कारण भगवान्के रथके घोड़े कुछ थक-से गये थे ॥ ३४-३५ ॥ मार्ग में
स्थान-स्थान पर लोग उपहारादि के द्वारा भगवान् का सम्मान करते, सायंकाल होनेपर वे रथपर से भूमिपर उतर आते और जलाशयपर जाकर सन्ध्या-वन्दन
करते। यह उनकी नित्यचर्या थी ॥ ३६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे
श्रीकृष्णद्वारकागमनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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