॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)
द्वारका
में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत
सूत
उवाच ।
आनर्तान्
स उपव्रज्य स्वृद्धाञ्जनपदान् स्वकान् ।
दध्मौ
दरवरं तेषां विषादं शमयन्निव ॥ १ ॥
स
उच्चकाशे धवलोदरो दरोऽपि
उरुक्रमस्य अधरशोण शोणिमा ।
दाध्मायमानः
करकञ्जसम्पुटे
यथाब्जखण्डे कलहंस उत्स्वनः ॥ २ ॥
तमुपश्रुत्य
निनदं जगद्भयभयावहम् ।
प्रत्युद्ययुः
प्रजाः सर्वा भर्तृदर्शनलालसाः ॥ ३ ॥
तत्रोपनीतबलयो
रवेर्दीपमिवादृताः ।
आत्मारामं
पूर्णकामं निजलाभेन नित्यदा ॥ ४ ॥
प्रीत्युत्फुल्लमुखाः
प्रोचुः हर्षगद्गदया गिरा ।
पितरं
सर्वसुहृदं अवितारं इवार्भकाः ॥ ५ ॥
सूतजी
कहते हैं—श्रीकृष्णने अपने समृद्ध आनर्त्त देशमें पहुँचकर वहाँके लोगों की
विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पाञ्चजन्य नामक शङ्ख बजाया ॥ १ ॥
भगवान् के होठों की लाली से लाल हुआ वह श्वेत वर्णका शङ्ख बजते समय उनके
कर-कमलोंमें ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंगके कमलोंपर बैठकर
कोई राजहंस उच्चस्वर से मधुर गान कर रहा हो ॥ २ ॥ भगवान्के शङ्ख की वह ध्वनि
संसार के भय को भयभीत करनेवाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्णके
दर्शनकी लालसासे नगरके बाहर निकल आयी ॥ ३ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं,
वे अपने आत्मलाभ से ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं। फिर भी जैसे लोग
बड़े आदरसे भगवान् सूर्यको भी दीपदान करते हैं, वैसे ही
अनेक प्रकारकी भेंटोंसे प्रजाने श्रीकृष्णका स्वागत किया ॥ ४ ॥ सबके मुख-कमल
प्रेमसे खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान् श्रीकृष्णकी
ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी
तोतली बोलीमें बातें करते हैं ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
०००००००००००
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
द्वारका
में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत
नताः
स्म ते नाथ सदाङ्घ्रिपङ्कजं
विरिञ्चवैरिञ्च्य सुरेन्द्र वन्दितम् ।
परायणं
क्षेममिहेच्छतां परं
न यत्र कालः प्रभवेत्परः प्रभुः ॥ ६ ॥
भवाय
नस्त्वं भव विश्वभावन
त्वमेव माताथ सुहृत्पतिः पिता ।
त्वं
सद्गुरुर्नः परमं च दैवतं
यस्यानुवृत्त्या कृतिनो बभूविम ॥ ७ ॥
अहो
सनाथा भवता स्म यद्वयं
त्रैविष्टपानामपि दूरदर्शनम् ।
प्रेमस्मित
स्निग्ध निरीक्षणाननं
पश्येम रूपं तव सर्वसौभगम् ॥ ८ ॥
यर्ह्यम्बुजाक्षापससार
भो भवान्
कुरून् मधून् वाथ सुहृद् दिदृक्षया ।
तत्राब्दकोटिप्रतिमः
क्षणो भवेद्
रविं विनाक्ष्णोरिव नस्तवाच्युत ॥ ९ ॥
इति
चोदीरिता वाचः प्रजानां भक्तवत्सलः ।
शृण्वानोऽनुग्रहं
दृष्ट्या वितन्वन् प्राविशत्पुरम् ॥ १० ॥
‘स्वामिन् ! हम आपके उन चरण-कमलोंको सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र तक करते हैं,
जो इस संसार में परम कल्याण चाहनेवालों के लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं,
जिनकी शरण ले लेने पर परम समर्थ काल भी एक बालतक बाँका नहीं कर सकता
॥ ६ ॥ विश्वभावन ! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम
आराध्यदेव हैं। आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण
करें ॥ ७ ॥ अहा ! हम आपको पाकर सनाथ हो गये। क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम
रूपका हम दर्शन करते रहते हैं। कितना सुन्दर मुख है ! प्रेमपूर्ण मुसकानसे स्निग्ध
चितवन ! यह दर्शन तो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है ॥ ८ ॥ कमलनयन श्रीकृष्ण ! जब आप
अपने बन्धु-बान्धवोंसे मिलनेके लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रज-मण्डल) चले जाते
हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षोंके समान
लंबा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसी
सूर्यके बिना आँखोंकी ॥ ९ ॥ भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण प्रजाके मुखसे ऐसे वचन
सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टिसे उनपर अनुग्रह की वृष्टि करते हुए द्वारकामें
प्रविष्ट हुए ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
0000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)
द्वारका
में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत
मधुभोजदशार्हार्ह
कुकुरान्धक वृष्णिभिः ।
आत्मतुल्य
बलैर्गुप्तां नागैर्भोगवतीमिव ॥ ११ ॥
सर्वर्तु
सर्वविभव पुण्यवृक्षलताश्रमैः ।
उद्यानोपवनारामैः
वृत पद्माकर श्रियम् ॥ १२ ॥
गोपुरद्वारमार्गेषु
कृतकौतुक तोरणाम् ।
चित्रध्वजपताकाग्रैः
अन्तः प्रतिहतातपाम् ॥ १३ ॥
सम्मार्जित
महामार्ग रथ्यापणक चत्वराम् ।
सिक्तां
गन्धजलैरुप्तां फलपुष्पाक्षताङ्कुरैः ॥ १४ ॥
द्वारि
द्वारि गृहाणां च दध्यक्षत फलेक्षुभिः ।
अलङ्कृतां
पूर्णकुम्भैः बलिभिः धूपदीपकैः ॥ १५ ॥
जैसे
नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान् की वह द्वारका पुरी भी मधु, भोज,
दशार्ह, अर्ह, कुकुर,
अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंसे, जिनके
पराक्रमकी तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी
॥ ११ ॥ वह पुरी समस्त ऋतुओं के सम्पूर्ण वैभव से सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं
लताओं के कुञ्जों से युक्त थी। स्थान-स्थान पर फलों से पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे। बीच-बीचमें कमलयुक्त सरोवर नगरकी शोभा
बढ़ा रहे थे ॥ १२ ॥ नगरके फाटकों, महलके दरवाजों और सडक़ोंपर
भगवान्के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र
ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानोंपर घामका कोई
प्रभाव नहीं पड़ता था ॥ १३ ॥ उसके राजमार्ग, अन्यान्य सडक़ें,
बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जलसे सींच दिये गये थे। और
भगवान्के स्वागतके लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अङ्कुर
चारों ओर बिखरे हुए थे ॥ १४ ॥ घरोंके प्रत्येक द्वारपर दही, अक्षत,
फल, ईख, जलसे भरे हुए
कलश, उपहारकी वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे ॥ १५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
0000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
द्वारका
में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत
निशम्य
प्रेष्ठमायान्तं वसुदेवो महामनाः ।
अक्रूरश्चोग्रसेनश्च
रामश्चाद्भुतविक्रमः ॥ १६ ॥
प्रद्युम्नः
चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
प्रहर्षवेग
उच्छशित शयनासन भोजनाः ॥ १७ ॥
वारणेन्द्रं
पुरस्कृत्य ब्राह्मणैः ससुमङ्गलैः ।
शङ्खतूर्य
निनादेन ब्रह्मघोषेण चादृताः ।
प्रत्युज्जग्मू
रथैर्हृष्टाः प्रणयागत साध्वसाः ॥ १८ ॥
वारमुख्याश्च
शतशो यानैः तत् दर्शनोत्सुकाः ।
लसत्कुण्डल
निर्भात कपोल वदनश्रियः ॥ १९ ॥
नटनर्तकगन्धर्वाः
सूत मागध वन्दिनः ।
गायन्ति
चोत्तमश्लोक चरितानि अद्भुतानि च ॥ २० ॥
उदारशिरोमणि
वसुदेव,
अक्रूर, उग्रसेन, अद्भुत
पराक्रमी बलराम, प्रद्युम्न, चारुदेष्ण
और जाम्बवतीनन्दन साम्बने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण आ रहे
हैं, तब उनके मनमें इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगोंने अपने सभी
आवश्यक कार्य—सोना, बैठना और भोजन आदि
छोड़ दिये। प्रेमके आवेगसे उनका हृदय उछलने लगा। वे मङ्गल शकुन के लिये एक गजराज को
आगे करके स्वस्त्ययन-पाठ करते हुए और माङ्गलिक सामग्रियोंसे सुसज्जित ब्राह्मणोंको
साथ लेकर चले। शङ्ख और तुरही आदि बाजे बजने लगे और वेदध्वनि होने लगी। वे सब
हर्षित होकर रथोंपर सवार हुए और बड़ी आदरबुद्धिसे भगवान्की अगवानी करने चले ॥ १६—१८ ॥ साथ ही भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनके लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ
वारांगनाएँ, जिनके मुख कपोलोंपर चमचमाते हुए कुण्डलोंकी
कान्ति पडऩेसे बड़े सुन्दर दीखते थे, पालकियोंपर चढक़र भगवान्की
अगवानीके लिये चलीं ॥ १९ ॥ बहुत-से नट, नाचनेवाले, गानेवाले, विरद बखाननेवाले सूत, मागध और वंदीजन भगवान् श्रीकृष्णके अद्भुत चरित्रोंका गायन करते हुए चले
॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)
द्वारका
में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत
भगवान्
तत्र बन्धूनां पौराणां अनुवर्तिनाम् ।
यथाविधि
उपसङ्गम्य सर्वेषां मानमादधे ॥ २१ ॥
प्रह्वाभिवादन
आश्लेष करस्पर्श स्मितेक्षणैः ।
आश्वास्य
चाश्वपाकेभ्यो वरैश्च अभिमतैर्विभुः ॥ २२ ॥
स्वयं
च गुरुभिर्विप्रैः सदारैः स्थविरैरपि ।
आशीर्भिः
युज्यमानोऽन्यैः वन्दिभिश्चाविशत् पुरम् ॥ २३ ॥
भगवान्
श्रीकृष्ण ने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकों से उनकी
योग्यता के अनुसार अलग- अलग मिलकर सब का सम्मान किया ॥ २१ ॥ किसी को सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसी को वाणीसे अभिवादन किया, किसीको हृदयसे लगाया,
किसीसे हाथ मिलाया, किसीकी ओर देखकर मुसकरा भर
दिया और किसीको केवल प्रेमभरी दृष्टिसे देख लिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही-वरदान दिया। इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन,
सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धोंका तथा दूसरे लोगोंका भी आशीर्वाद ग्रहण
करते एवं वंदीजनोंसे विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान् श्रीकृष्णने नगरमें
प्रवेश किया ॥ २२-२३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)
द्वारका
में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत
राजमार्गं
गते कृष्णे द्वारकायाः कुलस्त्रियः ।
हर्म्याण्यारुरुहुर्विप्र
तदीक्षण महोत्सवाः ॥ २४ ॥
नित्यं
निरीक्षमाणानां यदपि द्वारकौकसाम् ।
न
वितृप्यन्ति हि दृशः श्रियो धामाङ्गमच्युतम् ॥ २५ ॥
श्रियो
निवासो यस्योरः पानपात्रं मुखं दृशाम् ।
बाहवो
लोकपालानां सारङ्गाणां पदाम्बुजम् ॥ २६ ॥
सितातपत्रव्यजनैः
उपस्कृतः
नवर्षैः अभिवर्षितः पथि ।
पिशङ्गवासा
वनमालया बभौ
यथार्कोडुप चाप वैद्युतैः ॥ २७ ॥
शौनकजी
! जिस समय भगवान् राजमार्गसे जा रहे थे, उस समय द्वारका की
कुल-कामिनियाँ भगवान् के दर्शन को ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़
गयीं ॥ २४ ॥ भगवान्- का वक्ष:स्थल मूर्तिमान् सौन्दर्यलक्ष्मी का निवासस्थान है। उनका मुखारविन्द नेत्रोंके
द्वारा पान करनेके लिये सौन्दर्य-सुधासे भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालोंको
भी शक्ति देनेवाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसोंके आश्रय हैं। उनके अङ्ग-अङ्ग
शोभाके धाम हैं। भगवान्की इस छविको द्वारकावासी नित्य-निरन्तर निहारते रहते हैं,
फिर भी उनकी आँखें एक क्षणके लिये भी तृप्त नहीं होतीं ॥ २५-२६ ॥
द्वारकाके राजपथपर भगवान् श्रीकृष्णके ऊपर श्वेत वर्णका छत्र तना हुआ था, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओरसे पुष्पोंकी
वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे।
इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य,
चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजलीसे शोभायमान हो
॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)
द्वारका
में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत
प्रविष्टस्तु
गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः ।
ववन्दे
शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा ॥ २८ ॥
ताः
पुत्रमङ्कं आरोप्य स्नेहस्नुत पयोधराः ।
हर्षविह्वलितात्मानः
सिषिचुः नेत्रजैर्जलैः ॥ २९ ॥
अथाविशत्
स्वभवनं सर्वकाममनुत्तमम् ।
प्रासादा
यत्र पत्नीनां सहस्राणि च षोडश ॥ ३० ॥
पत्न्यः
पतिं प्रोष्य गृहानुपागतं
क्य सञ्जात मनोमहोत्सवाः ।
उत्तस्थुरारात्
सहसासनाशयात्
व्रतैः व्रीडित लोचनाननाः ॥ ३१ ॥
तं
आत्मजैः दृष्टिभिरन्तरात्मना
दुरन्तभावाः परिरेभिरे पतिम् ।
निरुद्धमप्यास्रवदम्बु
नेत्रयोः
विलज्जतीनां भृगुवर्य वैक्लवात् ॥ ३२ ॥
भगवान्
सबसे पहले अपने माता-पिताके महलमें गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्दसे देवकी आदि
सातों माताओंको चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओंने उन्हें अपने हृदयसे
लगाकर गोदमें बैठा लिया। स्नेहके कारण उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्षसे विह्वल हो गया और वे आनन्दके आँसुओंसे उनका अभिषेक करने
लगीं ॥ २८-२९ ॥ माताओंसे आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न
सर्वश्रेष्ठ भवनमें गये। उसमें सोलह हजार पत्नियों के अलग-अलग महल थे ॥ ३० ॥ अपने
प्राणनाथ भगवान् श्रीकृष्णको बहुत दिन बाहर रहनेके बाद घर आया देखकर रानियों के
हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोडक़र उठ खड़ी
हुर्ईं; उन्होंने केवल आसनको ही नहीं, बल्कि
उन नियमोंको[*] भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पति के
प्रवासी होनेपर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रोंमें लज्जा छा गयी ॥ ३१ ॥
भगवान्के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रोंके द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रों के बहाने शरीर से उनका
आलिङ्गन किया। शौनकजी ! उस समय उनके नेत्रों में जो प्रेम के आँसू छलक आये थे,
उन्हें सङ्कोचवश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशता के कारण वे ढलक
ही गये ॥ ३२ ॥
......................................................
[*]
जिस स्त्रीका पति विदेश गया हो, उसे इन नियमोंका पालन करना
चहिये—
क्रीडां
शरीरसंस्कारं समाजोत्सवदर्शनम्। हास्यं परगृहे यानं त्यजेत्प्रोषितभर्तृका ॥
जिसका
पति परदेश गया हो,
उस स्त्री को खेल-कूद, शृंगार, सामाजिक उत्सवों में भाग लेना, हँसी-मजाक करना और
पराये घर जाना—इन पाँच कामों को त्याग देना चाहिये। ............(याज्ञवल्क्यस्मृति)
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)
द्वारका
में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत
यद्यप्यसौ
पार्श्वगतो रहोगतः
तथापि तस्याङ्घ्रियुगं नवं नवम् ।
पदे
पदे का विरमेत तत्पदात्
चलापि यच्छ्रीर्न जहाति कर्हिचित् ॥ ३३ ॥
एवं
नृपाणां क्षितिभारजन्मनां
अक्षौहिणीभिः परिवृत्ततेजसाम् ।
विधाय
वैरं श्वसनो यथानलं
मिथो वधेनोपरतो निरायुधः ॥ ३४ ॥
स
एष नरलोकेऽस्मिन् अवतीर्णः स्वमायया ।
रेमे
स्त्रीरत्नकूटस्थो भगवान् प्राकृतो यथा ॥ ३५ ॥
यद्यपि
भगवान् श्रीकृष्ण एकान्त में सर्वदा ही उनके (रानियों के) पास रहते थे, तथापि उनके चरण-कमल उन्हें पद-पद पर नये-नये जान पड़ते। भला, स्वभाव से ही चञ्चल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षण के लिये भी कभी नहीं छोड़तीं,
उनकी संनिधि से किस स्त्री को तृप्ति हो सकती है ॥ ३३ ॥
जैसे
वायु बाँसों के संघर्षसे दावानल पैदा करके उन्हें जला देता है, वैसे ही पृथ्वी के भारभूत और शक्तिशाली राजाओं में परस्पर फूट डालकर बिना
शस्त्र ग्रहण किये ही भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें कई अक्षौहिणी सेनासहित एक-दूसरे
से मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये ॥ ३४ ॥ साक्षात् परमेश्वर ही अपनी
लीलासे इस मनुष्य-लोकमें अवतीर्ण हुए थे और सहस्रों रमणी-रत्नोंमें रहकर उन्होंने
साधारण मनुष्य की तरह क्रीडा की ॥ ३५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)
द्वारका
में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत
उद्दामभाव
पिशुनामल वल्गुहास ।
व्रीडावलोकनिहतो मदनोऽपि यासाम् ॥
सम्मुह्य
चापमजहात् प्रमदोत्तमास्ता ।
यस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकुः ॥ ३६
॥
तमयं
मन्यते लोको ह्यसङ्गमपि सङ्गिनम् ।
आत्मौपम्येन
मनुजं व्यापृण्वानं यतोऽबुधः ॥ ३७ ॥
एतत्
ईशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्गुणैः ।
न
युज्यते सदाऽत्मस्थैः यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥ ३८ ॥
तं
मेनिरेऽबला मूढाः स्त्रैणं चानुव्रतं रहः ।
अप्रमाणविदो
भर्तुः ईश्वरं मतयो यथा ॥ ३९ ॥
जिनकी
निर्मल और मधुर हँसी उनके हृदयके उन्मुक्त भावोंको सूचित करनेवाली थी, जिनकी लजीली चितवनकी चोटसे बेसुध होकर विश्वविजयी कामदेवने भी अपने धनुषका
परित्याग कर दिया था—वे कमनीय कामिनियाँ अपने काम-विलासोंसे
जिनके मनमें तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असङ्ग
भगवान् श्रीकृष्णको संसारके लोग अपने ही समान कर्म करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते
हैं—यह उनकी मूर्खता है ॥ ३६-३७ ॥ यही तो भगवान्की भगवत्ता
है कि वे प्रकृतिमें स्थित होकर भी उसके गुणोंसे कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान्की शरणागत बुद्धि अपनेमें रहनेवाले प्राकृत गुणोंसे लिप्त
नहीं होती ॥ ३८ ॥ वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्णको अपना एकान्तसेवी, स्त्रीपरायण भक्त ही समझ बैठी थीं; क्योंकि वे अपने
स्वामीके ऐश्वर्यको नहीं जानती थीं—ठीक वैसे ही जैसे
अहंकारकी वृत्तियाँ ईश्वरको अपने धर्मसे युक्त मानती हैं ॥ ३९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे
नैमिषीयोपाख्याने श्रीकृष्णद्वारकाप्रवेशो नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
0000000000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें