बुधवार, 30 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌के अन्य लीला-चरित्रोंका वर्णन

उद्धव उवाच ।

ततः स आगत्य पुरं स्वपित्रोः
     चिकीर्षया शं बलदेवसंयुतः ।
निपात्य तुङ्गाद् रिपुयूथनाथं
     हतं व्यकर्षद् व्यसुमोजसोर्व्याम् ॥ १ ॥
सान्दीपनेः सकृत् प्रोक्तं ब्रह्माधीत्य सविस्तरम् ।
तस्मै प्रादाद् वरं पुत्रं मृतं पञ्चजनोदरात् ॥ २ ॥
समाहुता भीष्मककन्यया ये
     श्रियः सवर्णेन बुभूषयैषाम् ।
गान्धर्ववृत्त्या मिषतां स्वभागं
     जह्रे पदं मूर्ध्नि दधत्सुपर्णः ॥ ३ ॥
ककुद्मिनोऽविद्धनसो दमित्वा
     स्वयंवरे नाग्नजितीमुवाह ।
तद्‍भग्नमानानपि गृध्यतोऽज्ञान्
     जघ्नेऽक्षतः शस्त्रभृतः स्वशस्त्रैः ॥ ४ ॥

उद्धवजी कहते हैंइसके बाद श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवको सुख पहुँचानेकी इच्छासे बलदेवजी के साथ मथुरा पधारे और उन्होंने शत्रुसमुदाय के स्वामी कंस को ऊँचे सिंहासन से नीचे पटककर तथा उसके प्राण लेकर उसकी लाश को बड़े जोर से पृथ्वीपर घसीटा ॥ १ ॥ सान्दीपनि मुनिके द्वारा एक बार उच्चारण किये हुए साङ्गोपाङ्ग वेदका अध्ययन करके दक्षिणास्वरूप उनके मरे हुए पुत्रको पञ्चजन नामक राक्षसके पेटसे (यमपुरीसे) लाकर दे दिया ॥ २ ॥ भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणीके सौन्दर्यसे अथवा रुक्मीके बुलानेसे जो शिशुपाल और उसके सहायक वहाँ आये हुए थे, उनके सिरपर पैर रखकर गान्धर्व विधिके द्वारा विवाह करनेके लिये अपनी नित्यसंगिनी रुक्मिणी को वे वैसे ही हरण कर लाये, जैसे गरुड अमृत-कलश को ले आये थे ॥ ३ ॥ स्वयंवर में सात बिना नथे हुए बैलों को नाथकर नाग्रजिती (सत्या) से विवाह किया। इस प्रकार मानभङ्ग हो जानेपर मूर्ख राजाओंने शस्त्र उठाकर राजकुमारी को छीनना चाहा। तब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने स्वयं बिना घायल हुए अपने शस्त्रों से उन्हें मार डाला ॥ ४ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌के अन्य लीला-चरित्रोंका वर्णन

प्रियं प्रभुर्ग्राम्य इव प्रियाया
     विधित्सुरार्च्छद्द्युतरुं यदर्थे ।
वज्र्याद्रवत्तं सगणो रुषान्धः
     क्रीडामृगो नूनमयं वधूनाम् ॥ ५ ॥
सुतं मृधे खं वपुषा ग्रसन्तं
     दृष्ट्वा सुनाभोन्मथितं धरित्र्या ।
आमंत्रितस्तत् तनयाय शेषं
     दत्त्वा तदन्तःपुरमाविवेश ॥ ६ ॥
तत्राहृतास्ता नरदेवकन्याः
     कुजेन दृष्ट्वा हरिमार्तबन्धुम् ।
उत्थाय सद्यो जगृहुः प्रहर्ष
     व्रीडानुरागप्रहितावलोकैः ॥ ७ ॥
आसां मुहूर्त एकस्मिन् नानागारेषु योषिताम् ।
सविधं जगृहे पाणीन् अनुरूपः स्वमायया ॥ ८ ॥
तास्वपत्यान्यजनयद् आत्मतुल्यानि सर्वतः ।
एकैकस्यां दश दश प्रकृतेर्विबुभूषया ॥ ९ ॥

भगवान्‌ विषयी पुरुषोंकी-सी लीला करते हुए अपनी प्राणप्रिया सत्यभामा को प्रसन्न करने की इच्छासे उनके लिये स्वर्गसे कल्पवृक्ष उखाड़ लाये। उस समय इन्द्र ने क्रोधसे अंधे होकर अपने सैनिकोंसहित उनपर आक्रमण कर दिया; क्योंकि वह निश्चय ही अपनी स्त्रियों का क्रीडामृग बना हुआ है ॥ ५ ॥ अपने विशाल डीलडौल से आकाश को भी ढक देनेवाले अपने पुत्र भौमासुर को भगवान्‌के हाथसे मरा हुआ देखकर पृथ्वीने जब उनसे प्रार्थना की, तब उन्होंने भौमासुर के पुत्र भगदत्त को उसका बचा हुआ राज्य देकर उसके अन्त:पुरमें प्रवेश किया ॥ ६ ॥ वहाँ भौमासुर द्वारा हरकर लायी हुई बहुत-सी राजकन्याएँ थीं। वे दीनबन्धु श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही खड़ी हो गयीं और सबने महान् हर्ष, लज्जा एवं प्रेमपूर्ण चितवनसे तत्काल ही भगवान्‌ को पतिरूप में वरण कर लिया ॥७॥ तब भगवान्‌ ने अपनी निजशक्ति योगमाया से उन ललनाओं के अनुरूप उतने ही रूप धारणकर उन सबका अलग-अलग महलों में एक ही मुहूर्त में विधिवत् पाणिग्रहण किया ॥ ८ ॥ अपनी लीलाका विस्तार करने के लिये उन्होंने उनमें से प्रत्येक के गर्भसे सभी गुणों में अपने ही समान दस-दस पुत्र उत्पन्न किये ॥ ९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌के अन्य लीला-चरित्रोंका वर्णन

कालमागधशाल्वादीन् अनीकै रुन्धतः पुरम् ।
अजीघनत् स्वयं दिव्यं स्वपुंसां तेज आदिशत् ॥ १० ॥
शम्बरं द्विविदं बाणं मुरं बल्वलमेव च ।
अन्यांश्च दन्तवक्रादीन् अवधीत्कांश्च घातयत् ॥ ११ ॥
अथ ते भ्रातृपुत्राणां पक्षयोः पतितान् नृपान् ।
चचाल भूः कुरुक्षेत्रं येषां आपततां बलैः ॥ १२ ॥
स कर्णदुःशासनसौबलानां
     कुमंत्रपाकेन हतश्रियायुषम् ।
सुयोधनं सानुचरं शयानं
     भग्नोरुमूर्व्यां न ननन्द पश्यन् ॥ १३ ॥

(उद्धवजी विदुरजी से कहरहे हैं) जब कालयवन, जरासन्ध और शाल्वादि ने अपनी सेनाओं से मथुरा और द्वारकापुरी को घेरा था, तब भगवान्‌ ने निजजनों को अपनी अलौकिक शक्ति देकर उन्हें स्वयं मरवाया था ॥ १० ॥ शम्बर, द्विविद, बाणासुर, मुर, बल्वल तथा दन्तवक्त्र आदि अन्य योद्धाओं में से भी किसी को उन्होंने स्वयं मारा था और किसी को दूसरों से मरवाया ॥ ११ ॥ इसके बाद उन्होंने आपके भाई धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रों का पक्ष लेकर आये हुए राजाओं का भी संहार किया, जिनके सेनासहित कुरुक्षेत्र में पहुँचने पर पृथ्वी डगमगाने लगी थी ॥ १२ ॥
कर्ण, दु:शासन और शकुनि की खोटी सलाह से जिसकी आयु और श्री दोनों नष्ट हो चुकी थीं, तथा भीमसेन की गदा से जिस की जाँघ टूट चुकी थी, उस दुर्योधन को अपने साथियों के सहित पृथ्वीपर पड़ा देखकर भी उन्हें प्रसन्नता न हुई ॥ १३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌के अन्य लीला-चरित्रोंका वर्णन

कियान् भुवोऽयं क्षपितोरुभारो
     यद्द्रोणभीष्मार्जुन भीममूलैः ।
अष्टादशाक्षौहिणिको मदंशैः
     आस्ते बलं दुर्विषहं यदूनाम् ॥ १४ ॥
मिथो यदैषां भविता विवादो
     मध्वामदाताम्रविलोचनानाम् ।
नैषां वधोपाय इयानतोऽन्यो
     मय्युद्यतेऽन्तर्दधते स्वयं स्म ॥ १५ ॥
एवं सञ्चिन्त्य भगवान् स्वराज्ये स्थाप्य धर्मजम् ।
नन्दयामास सुहृदः साधूनां वर्त्म दर्शयन् ॥ १६ ॥

वे (भगवान्) सोचने लगेयदि द्रोण, भीष्म, अर्जुन और भीमसेन के द्वारा इस अठारह अक्षौहिणी सेना का विपुल संहार हो भी गया, तो इससे पृथ्वी का कितना भार हलका हुआ। अभी तो मेरे अंशरूप प्रद्युम्न आदि के बलसे बढ़े हुए यादवों का दु:सह दल बना ही हुआ है ॥ १४ ॥ जब ये मधु-पानसे मतवाले हो लाल-लाल आँखें करके आपस में लडऩे लगेंगे, तब उससे ही इनका नाश होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। असल में मेरे संकल्प करने पर ये स्वयं ही अन्तर्धान हो जायँगे ॥ १५ ॥ यों सोचकर भगवान्‌ने युधिष्ठिरको अपनी पैतृक राजगद्दीपर बैठाया और अपने सभी सगे-सम्बन्धियोंको सत्पुरुषोंका मार्ग दिखाकर आनन्दित किया ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌के अन्य लीला-चरित्रोंका वर्णन

उत्तरायां धृतः पूरोः वंशः साध्वभिमन्युना ।
स वै द्रौण्यस्त्रसंछिन्नः पुनर्भगवता धृतः ॥ १७ ॥
अयाजयद् धर्मसुतं अश्वमेधैस्त्रिभिर्विभुः ।
सोऽपि क्ष्मामनुजै रक्षन् रेमे कृष्णमनुव्रतः ॥ १८ ॥
भगवान् अपि विश्वात्मा लोकवेदपथानुगः ।
कामान् सिषेवे द्वार्वत्यां असक्तः साङ्ख्यमास्थितः ॥ १९ ॥

उत्तरा के उदर में जो अभिमन्यु ने पूरुवंश का बीज स्थापित किया था, वह भी अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से नष्ट-सा हो चुका था; किन्तु भगवान्‌ ने उसे बचा लिया ॥ १७ ॥ उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से तीन अश्वमेध-यज्ञ करवाये और वे भी श्रीकृष्ण के अनुगामी होकर अपने छोटे भाइयोंकी सहायतासे पृथ्वीकी रक्षा करते हुए बड़े आनन्दसे रहने लगे ॥ १८ ॥ विश्वात्मा श्रीभगवान्‌ ने भी द्वारकापुरी में रहकर लोक और वेद की मर्यादा का पालन करते हुए सब प्रकार के भोग भोगे, किन्तु सांख्ययोग की स्थापना करनेके लिये उनमें कभी आसक्त नहीं हुए ॥ १९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌के अन्य लीला-चरित्रोंका वर्णन

स्निग्धस्मितावलोकेन वाचा पीयूषकल्पया ।
चरित्रेणानवद्येन श्रीनिकेतेन चात्मना ॥ २० ॥
इमं लोकममुं चैव रमयन् सुतरां यदून् ।
रेमे क्षणदया दत्त क्षणस्त्रीक्षणसौहृदः ॥ २१ ॥
तस्यैवं रममाणस्य संवत्सरगणान् बहून् ।
गृहमेधेषु योगेषु विरागः समजायत ॥ २२ ॥
दैवाधीनेषु कामेषु दैवाधीनः स्वयं पुमान् ।
को विश्रम्भेत योगेन योगेश्वरमनुव्रतः ॥ २३ ॥

 मधुर मुसकान, स्नेहमयी चितवन, सुधामयी वाणी, निर्मल चरित्र तथा समस्त शोभा और सुन्दरता के निवास अपने श्रीविग्रह से (भगवान् ने) लोक-परलोक और विशेषतया यादवों को आनन्दित किया तथा रात्रिमें अपनी प्रियाओंके साथ क्षणिक अनुरागयुक्त होकर समयोचित विहार किया और इस प्रकार उन्हें भी सुख दिया ॥ २०-२१ ॥ इस तरह बहुत वर्षोंतक विहार करते-करते उन्हें गृहस्थ आश्रम-सम्बन्धी भोग-सामग्रियोंसे वैराग्य हो गया ॥ २२ ॥ ये भोग-सामग्रियाँ ईश्वर के अधीन हैं और जीव भी उन्हीं के अधीन है। जब योगेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण को ही उनसे वैराग्य हो गया तब भक्तियोग के द्वारा उनका अनुगमन करनेवाला भक्त तो उनपर विश्वास ही कैसे करेगा ? ॥ २३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌के अन्य लीला-चरित्रोंका वर्णन

पुर्यां कदाचित् क्रीडद्‌भिः यदुभोजकुमारकैः ।
कोपिता मुनयः शेपुः भगवन् मतकोविदाः ॥ २४ ॥
ततः कतिपयैर्मासैः वृष्णिभोज अन्धकादयः ।
ययुः प्रभासं संहृष्टा रथैर्देवविमोहिताः ॥ २५ ॥
तत्र स्नात्वा पितॄन् देवान् ऋषींश्चैव तदम्भसा ।
तर्पयित्वाथ विप्रेभ्यो गावो बहुगुणा ददुः ॥ २६ ॥
हिरण्यं रजतं शय्यां वासांस्यजिनकम्बलान् ।
यानं रथानिभान् कन्या धरां वृत्तिकरीमपि ॥ २७ ॥
अन्नं चोरुरसं तेभ्यो दत्त्वा भगवदर्पणम् ।
गोविप्रार्थासवः शूराः प्रणेमुर्भुवि मूर्धभिः ॥ २८ ॥

एक बार द्वारकापुरी में खेलते हुए यदुवंशी और भोजवंशी बालकों ने खेल-खेल में कुछ मुनीश्वरों को चिढ़ा दिया। तब यादवकुल का नाश ही भगवान्‌ को अभीष्ट हैयह समझकर उन ऋषियों ने बालकों को शाप दे दिया ॥ २४ ॥ इसके कुछ ही महीने बाद भावीवश वृष्णि, भोज और अन्धकवंशी यादव बड़े हर्षसे रथोंपर चढक़र प्रभासक्षेत्र को गये ॥ २५ ॥ वहाँ स्नान करके उन्होंने उस तीर्थ के जलसे पितर, देवता और ऋषियों का तर्पण किया तथा ब्राह्मणों को श्रेष्ठ गौएँ दीं ॥ २६ ॥ उन्होंने सोना, चाँदी, शय्या, वस्त्र, मृगचर्म, कम्बल, पालकी, रथ, हाथी, कन्याएँ और ऐसी भूमि जिससे जीविका चल सके तथा नाना प्रकार के सरस अन्न भी भगवदर्पण करके ब्राह्मणों को दिये। इसके पश्चात् गौ और ब्राह्मणों के लिये ही प्राण धारण करनेवाले उन वीरों ने पृथ्वीपर सिर टेककर उन्हें प्रणाम किया ॥ २७-२८ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।
इति भागवतः पृष्टः क्षत्त्रा वार्तां प्रियाश्रयाम् ।
प्रतिवक्तुं न चोत्सेह औत्कण्ठ्यात् स्मारितेश्वरः ॥ १ ॥
यः पञ्चहायनो मात्रा प्रातराशाय याचितः ।
तन्नैच्छत् रचयन् यस्य सपर्यां बाललीलया ॥ २ ॥
स कथं सेवया तस्य कालेन जरसं गतः ।
पृष्टो वार्तां प्रतिब्रूयाद् भर्तुः पादौ अनुस्मरन् ॥ ३ ॥
स मुहूर्तं अभूत्तूष्णीं कृष्णाङ्‌घ्रिसुधया भृशम् ।
तीव्रेण भक्तियोगेन निमग्नः साधु निर्वृतः ॥ ४ ॥
पुलकोद् भिन्नसर्वाङ्गो मुञ्चन्मीलद्‌दृशा शुचः ।
पूर्णार्थो लक्षितस्तेन स्नेहप्रसरसम्प्लुतः ॥ ५ ॥
शनकैः भगवल्लोकान् नृलोकं पुनरागतः ।
विमृज्य नेत्रे विदुरं प्रीत्याहोद्धव उत्स्मयन् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब विदुरजीने परम भक्त उद्धवसे इस प्रकार उनके प्रियतम श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखनेवाली बातें पूछीं, तब उन्हें अपने स्वामी का स्मरण हो आया और वे हृदय भर आनेके कारण कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ १ ॥ जब ये पाँच वर्षके थे, तब बालकोंकी तरह खेलमें ही श्रीकृष्णकी मूर्ति बनाकर उसकी सेवा-पूजा में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि कलेवे के लिये माता के बुलानेपर भी उसे छोडक़र नहीं जाना चाहते थे ॥ २ ॥ अब तो दीर्घकाल से उन्हीं की सेवामें रहते-रहते ये बूढ़े हो चले थे; अत: विदुरजीके पूछनेसे उन्हें अपने प्यारे प्रभुके चरणकमलों का स्मरण हो आयाउनका चित्त विरहसे व्याकुल हो गया। फिर वे कैसे उत्तर दे सकते थे ॥ ३ ॥ उद्धवजी श्रीकृष्णके चरणारविन्द-मकरन्द-सुधासे सराबोर होकर दो घड़ीतक कुछ भी नहीं बोल सके। तीव्र भक्तियोगसे उसमें डूबकर वे आनन्द-मग्र हो गये ॥ ४ ॥ उनके सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया तथा मुँदे हुए नेत्रोंसे प्रेमके आँसुओंकी धारा बहने लगी। उद्धवजीको इस प्रकार प्रेम-प्रवाहमें डूबे हुए देखकर विदुरजीने उन्हें कृतकृत्य माना ॥ ५ ॥ कुछ समय बाद जब उद्धवजी भगवान्‌के प्रेमधामसे उतरकर पुन: धीरे-धीरे संसारमें आये, तब अपने नेत्रोंको पोंछकर भगवल्लीलाओंका स्मरण हो आनेसे विस्मित हो विदुरजीसे इस प्रकार कहने लगे ॥ ६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

कृष्णद्युमणि निम्लोचे गीर्णेष्वजगरेण ह ।
किं नु नः कुशलं ब्रूयां गतश्रीषु गृहेष्वहम् ॥ ७ ॥
दुर्भगो बत लोकोऽयं यदवो नितरामपि ।
ये संवसन्तो न विदुः हरिं मीना इवोडुपम् ॥ ८ ॥
इङ्‌गितज्ञाः पुरुप्रौढा एकारामाश्च सात्वताः ।
सात्वतां ऋषभं सर्वे भूतावासममंसत ॥ ९ ॥
देवस्य मायया स्पृष्टा ये चान्यद् असदाश्रिताः ।
भ्राम्यते धीर्न तद्वाक्यैः आत्मन्युप्तात्मनो हरौ ॥ १० ॥

उद्धवजी बोलेविदुरजी ! श्रीकृष्णरूप सूर्यके छिप जाने से हमारे घरों को कालरूप अजगर ने खा डाला है, वे श्रीहीन हो गये हैं; अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊँ ॥ ७ ॥ ओह ! यह मनुष्यलोक बड़ा ही अभागा है; इसमें भी यादव तो नितान्त भाग्यहीन हैं, जिन्होंने निरन्तर श्रीकृष्णके साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचानाजिस तरह अमृतमय चन्द्रमाके समुद्रमें रहते समय मछलियाँ उन्हें नहीं पहचान सकी थीं ॥ ८ ॥ यादवलोग मनके भावको ताडऩेवाले, बड़े समझदार और भगवान्‌के साथ एक ही स्थानमें रहकर क्रीडा करनेवाले थे; तो भी उन सबने समस्त विश्वके आश्रय, सर्वान्तर्यामी श्रीकृष्णको एक श्रेष्ठ यादव ही समझा ॥ ९ ॥ किंतु भगवान्‌ की माया से मोहित इन यादवों और इनसे व्यर्थका वैर ठानने वाले शिशुपाल आदि के अवहेलना और निन्दासूचक वाक्यों से भगवत्प्राण महानुभावों की बुद्धि भ्रम में नहीं पड़ती थी ॥ १० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

प्रदर्श्या तप्ततपसां अवितृप्तदृशां नृणाम् ।
आदायान्तरधाद्यस्तु स्वबिम्बं लोकलोचनम् ॥ ११ ॥
यन्मर्त्यलीलौपयिकं स्वयोग
     मायाबलं दर्शयता गृहीतम् ।
विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धेः
     परं पदं भूषणभूषणाङ्गम् ॥ १२ ॥
यद्धर्मसूनोर्बत राजसूये
     निरीक्ष्य दृक्स्वस्त्ययनं त्रिलोकः ।
कार्त्स्न्येन चाद्येह गतं विधातुः
     अर्वाक्सृतौ कौशलमित्यमन्यत ॥ १३ ॥
यस्यानुरागप्लुतहासरास
     लीलावलोकप्रतिलब्धमानाः ।
व्रजस्त्रियो दृग्भिरनुप्रवृत्त
     धियोऽवतस्थुः किल कृत्यशेषाः ॥ १४ ॥

जिन्होंने कभी तप नहीं किया, उन लोगों को भी इतने दिनों तक दर्शन देकर अब उनकी दर्शन-लालसा को तृप्त किये बिना ही वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन-मोहन श्रीविग्रह को छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रोंको ही छीन लिया है ॥ ११ ॥ भगवान्‌ ने अपनी योगमाया का प्रभाव दिखाने के लिए मानवलीलाओं के योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत् तो मोहित हो ही जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे । सौभाग्य और सुन्दरताकी पराकाष्ठा थी उस रूपमें। उससे आभूषण (अङ्गोंके गहने) भी विभूषित हो जाते थे ॥ १२ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें जब भगवान्‌ के उस नयनाभिराम रूपपर लोगों की दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकी ने यही माना था कि मानवसृष्टि की रचना में विधाता की जितनी चतुराई है, सब इसी रूपमें पूरी हो गयी है ॥ १३ ॥ उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवन से सम्मानित होने पर व्रजबालाओंकी आँखें उन्हीं की ओर लग जाती थीं और उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे घरके काम-धंधोंको अधूरा ही छोडक़र जड पुतलियोंकी तरह खड़ी रह जाती थीं॥१४॥

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तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

स्वशान्तरूपेष्वितरैः स्वरूपैः
     अभ्यर्द्यमानेष्वनुकम्पितात्मा ।
परावरेशो महदंशयुक्तो
     ह्यजोऽपि जातो भगवान् यथाग्निः ॥ १५ ॥
मां खेदयत्येतदजस्य जन्म
     विडम्बनं यद्वसुदेवगेहे ।
व्रजे च वासोऽरिभयादिव स्वयं
     पुराद् व्यवात्सीद् यत् अनन्तवीर्यः ॥ १६ ॥
दुनोति चेतः स्मरतो ममैतद्
     यदाह पादावभिवन्द्य पित्रोः ।
ताताम्ब कंसाद् उरुशंकितानां
     प्रसीदतं नोऽकृतनिष्कृतीनाम् ॥ १७ ॥

(उद्धवजी कहरहे हैं) चराचर जगत् और प्रकृति के स्वामी भगवान्‌ ने जब अपने शान्त-रूप महात्माओं को अपने ही घोररूप असुरों से सताये जाते देखा, तब वे करुणाभाव से द्रवित हो गये और अजन्मा होने पर भी अपने अंश बलरामजी के साथ काष्ठ में अग्नि के समान प्रकट हुए ॥ १५ ॥ अजन्मा होकर भी वसुदेवजी के यहाँ जन्म लेने की लीला करना, सबको अभय देने वाले होने पर भी मानो कंस के भय से व्रजमें जाकर छिप रहना और अनन्तपराक्रमी होने पर भी कालयवन के सामने मथुरापुरी को छोडक़र भाग जानाभगवान्‌ की ये लीलाएँ याद आ-आकर मुझे बेचैन कर डालती हैं ॥ १६ ॥ उन्होंने जो देवकी-वसुदेवकी चरण-वन्दना करके कहा था— ‘पिताजी, माताजी ! कंसका बड़ा भय रहनेके कारण मुझसे आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेरे इस अपराधपर ध्यान न देकर मुझपर प्रसन्न हों।श्रीकृष्णकी ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है ॥ १७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

को वा अमुष्याङ्‌घ्रिसरोजरेणुं
     विस्मर्तुमीशीत पुमान् विजिघ्रन् ।
यो विस्फुरद्‍भ्रूविटपेन भूमेः
     भारं कृतान्तेन तिरश्चकार ॥ १८ ॥
दृष्टा भवद्‌भिः ननु राजसूये
     चैद्यस्य कृष्णं द्विषतोऽपि सिद्धिः ।
यां योगिनः संस्पृहयन्ति सम्यग्
     योगेन कस्तद्विरहं सहेत ॥ १९ ॥
तथैव चान्ये नरलोकवीरा
     य आहवे कृष्णमुखारविन्दम् ।
नेत्रैः पिबन्तो नयनाभिरामं
     पार्थास्त्रपूतः पदमापुरस्य ॥ २० ॥

जिन्होंने कालरूप अपने भुकुटिविलास से ही पृथ्वी का सारा भार उतार दिया था, उन श्रीकृष्ण के पाद-पद्म-पराग का सेवन करनेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके ॥ १८ ॥ आप लोगों ने राजसूय यज्ञ में प्रत्यक्ष ही देखा था कि श्रीकृष्ण से द्वेष करनेवाले शिशुपाल को वह सिद्धि मिल गयी, जिसकी बड़े-बड़े योगी भली-भाँति योग-साधना करके स्पृहा करते रहते हैं। उनका विरह भला कौन सह सकता है ॥ १९ ॥ शिशुपाल के ही समान महाभारत- युद्धमें जिन दूसरे योद्धाओं ने अपनी आँखों से भगवान्‌ श्रीकृष्ण के नयनाभिराम मुख-कमलका मकरन्द पान करते हुए,अर्जुन के बाणोंसे बिंधकर प्राणत्याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान्‌ के परमधाम को प्राप्त हो गये ॥ २० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

स्वयं त्वसाम्यातिशयस्त्र्यधीशः
     स्वाराज्यलक्ष्म्याप्तसमस्तकामः ।
बलिं हरद्‌भिश्चिरलोकपालैः
     किरीटकोट्येडितपादपीठः ॥ २१ ॥
तत्तस्य कैङ्कर्यमलं भृतान्नो
     विग्लापयत्यङ्ग यदुग्रसेनम् ।
तिष्ठन्निषण्णं परमेष्ठिधिष्ण्ये
     न्यबोधयद्देव निधारयेति ॥ २२ ॥
अहो बकी यं स्तनकालकूटं
     जिघांसयापाययदप्यसाध्वी ।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं
     कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥ २३ ॥
मन्येऽसुरान् भागवतांस्त्र्यधीशे
     संरम्भमार्गाभिनिविष्टचित्तान् ।
ये संयुगेऽचक्षत ताऱ्यपुत्र
     मंसे सुनाभायुधमापतन्तम् ॥ २४ ॥

(उद्धवजी कहरहे हैं) स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण तीनों लोकों के अधीश्वर हैं। उनके समान भी कोई नहीं है, उनसे बढक़र तो कौन होगा। वे अपने स्वत:सिद्ध ऐश्वर्य से ही सर्वदा पूर्णकाम हैं। इन्द्रादि असंख्य लोकपालगण नाना प्रकार की भेंटें ला-लाकर अपने-अपने मुकुटों के अग्रभाग से उनके चरण रखने की चौकी को प्रणाम किया करते हैं ॥ २१ ॥ विदुरजी ! वे ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजसिंहासन पर बैठे हुए उग्रसेन के सामने खड़े होकर निवेदन करते थे, ‘देव ! हमारी प्रार्थना सुनिये।उनके इस सेवा-भाव की याद आते ही हम-जैसे सेवकों का चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है ॥ २२ ॥ पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्ण को मार डालने की नीयत से उन्हें दूध पिलाया था; उसको भी भगवान्‌ ने वह परम गति दी, जो धाय को मिलनी चाहिये। उन भगवान्‌ श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें ॥ २३ ॥ मैं असुरों को भी भगवान्‌ का भक्त समझता हूँ; क्योंकि वैरभावजनित क्रोध के कारण उनका चित्त सदा श्रीकृष्ण में लगा रहता था और उन्हें रणभूमि में सुदर्शन-चक्रधारी भगवान्‌ को कंधे पर चढ़ाकर झपटते हुए गरुडजी के दर्शन हुआ करते थे ॥ २४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

वसुदेवस्य देवक्यां जातो भोजेन्द्रबन्धने ।
चिकीर्षुर्भगवानस्याः शमजेनाभियाचितः ॥ २५ ॥
ततो नन्दव्रजमितः पित्रा कंसाद् विबिभ्यता ।
एकादश समास्तत्र गूढार्चिः सबलोऽवसत् ॥ २६ ॥
परीतो वत्सपैर्वत्सान् चारयन् व्यहरद्विभुः ।
यमुनोपवने कूजद् द्विजसङ्कुलिताङ्‌घ्रिपे ॥ २७ ॥

ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे पृथ्वीका भार उतारकर उसे सुखी करनेके लिये कंसके कारागार में वसुदेव-देवकी के यहाँ भगवान्‌ ने अवतार लिया था ॥ २५ ॥ उस समय कंस के डर से पिता वसुदेवजी ने उन्हें नन्दबाबा के व्रज में पहुँचा दिया था। वहाँ वे बलरामजी के साथ ग्यारह वर्ष तक इस प्रकार छिपकर रहे कि उनका प्रभाव व्रजके बाहर किसीपर प्रकट नहीं हुआ ॥ २६ ॥ यमुनाके उपवनमें, जिसके हरे-भरे वृक्षोंपर कलरव करते हुए पक्षियोंके झुंड-के-झुंड रहते हैं, भगवान्‌ श्रीकृष्णने बछड़ोंको चराते हुए ग्वाल-बालोंकी मण्डलीके साथ विहार किया था ॥ २७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

कौमारीं दर्शयन् चेष्टां प्रेक्षणीयां व्रजौकसाम् ।
रुदन्निव हसन्मुग्ध बालसिंहावलोकनः ॥ २८ ॥
स एव गोधनं लक्ष्म्या निकेतं सितगोवृषम् ।
चारयन् ननुगान् गोपान् रणद् वेणुररीरमत् ॥ २९ ॥
प्रयुक्तान् भोजराजेन मायिनः कामरूपिणः ।
लीलया व्यनुदत्तान् तान् बालः क्रीडनकानिव ॥ ३० ॥
विपन्नान् विषपानेन निगृह्य भुजगाधिपम् ।
उत्थाप्यापाययद् गावः तत्तोयं प्रकृतिस्थितम् ॥ ३१ ॥

वे व्रजवासियोंकी दृष्टि आकृष्ट करनेके लिये अनेकों बाल-लीला उन्हें दिखाते थे। कभी रोने-से लगते, कभी हँसते और कभी सिंह-शावकके समान मुग्ध दृष्टिसे देखते ॥ २८ ॥ फिर कुछ बड़े होनेपर वे सफेद बैल और रंग-बिरंगी शोभाकी मूर्ति गौओंको चराते हुए अपने साथी गोपोंको बाँसुरी बजा- बजाकर रिझाने लगे ॥ २९ ॥ इसी समय जब कंसने उन्हें मारनेके लिये बहुत-से मायावी और मनमाना रूप धारण करनेवाले राक्षस भेजे, तब उनको खेल-ही-खेलमें भगवान्‌ने मार डालाजैसे बालक खिलौनोंको तोड़-फोड़ डालता है ॥ ३० ॥ कालियनागका दमन करके विष मिला हुआ जल पीनेसे मरे हुए ग्वालबालों और गौओंको जीवितकर उन्हें कालियदहका निर्दोष जल पीनेकी सुविधा कर दी ॥ ३१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

उद्धवजी द्वारा भगवान्‌ की बाललीलाओं का वर्णन

अयाजयद् गोसवेन गोपराजं द्विजोत्तमैः ।
वित्तस्य चोरुभारस्य चिकीर्षन् सद्व्ययं विभुः ॥ ३२ ॥
वर्षतीन्द्रे व्रजः कोपाद् भग्नमानेऽतिविह्वलः ।
गोत्रलीलातपत्रेण त्रातो भद्रानुगृह्णता ॥ ३३ ॥
शरच्छशिकरैर्मृष्टं मानयन् रजनीमुखम् ।
गायन् कलपदं रेमे स्त्रीणां मण्डलमण्डनः ॥ ३४ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने बढ़े हुए धनका सद्व्यय कराने की इच्छा से श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा नन्दबाबा से गोवर्धन-पूजारूप गोयज्ञ करवाया ॥ ३२ ॥ भद्र ! इससे अपना मानभङ्ग होनेके कारण जब इन्द्रने क्रोधित होकर व्रजका विनाश करनेके लिये मूसलधार जल बरसाना आरम्भ किया, तब भगवान्‌ने करुणावश खेल-ही-खेलमें छत्तेके समान गोवर्धन पर्वतको उठा लिया और अत्यन्त घबराये हुए व्रजवासियोंकी तथा उनके पशुओंकी रक्षा की ॥ ३३ ॥ सन्ध्याके समय जब सारे वृन्दावनमें शरद्के चन्द्रमाकी चाँदनी छिटक जाती, तब श्रीकृष्ण उसका सम्मान करते हुए मधुर गान करते और गोपियोंके मण्डलकी शोभा बढ़ाते हुए उनके साथ रासविहार करते ॥ ३४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...