सोमवार, 11 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध – इकतीसवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश और उनका परमपद-लाभ

मैत्रेय उवाच -
तत उत्पन्नविज्ञाना आश्वधोक्षजभाषितम् ।
स्मरन्त आत्मजे भार्यां विसृज्य प्राव्रजन् गृहात् ॥ १ ॥
दीक्षिता ब्रह्मसत्रेण सर्वभूतात्ममेधसा ।
प्रतीच्यां दिशि वेलायां सिद्धोऽभूद् यत्र जाजलिः ॥ २ ॥
तान्निर्जितप्राणमनोवचोदृशो
     जितासनान् शान्तसमानविग्रहान् ।
परेऽमले ब्रह्मणि योजितात्मनः
     सुरासुरेड्यो ददृशे स्म नारदः ॥ ३ ॥
तमागतं त उत्थाय प्रणिपत्याभिनन्द्य च ।
पूजयित्वा यथादेशं सुखासीनं अथाब्रुवन् ॥ ४ ॥

प्रचेतस ऊचुः -
स्वागतं ते सुरर्षेऽद्य दिष्ट्या नो दर्शनं गतः ।
तव चङ्‌क्रमणं ब्रह्मन् अभयाय यथा रवेः ॥ ५ ॥
यदादिष्टं भगवता शिवेनाधोक्षजेन च ।
तद्‍गृहेषु प्रसक्तानां प्रायशः क्षपितं प्रभो ॥ ॥ ६ ॥
तन्नः प्रद्योतयाध्यात्म ज्ञानं तत्त्वार्थदर्शनम् ।
येनाञ्जसा तरिष्यामो दुस्तरं भवसागरम् ॥ ७ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! दस लाख वर्ष बीत जानेपर जब प्रचेताओंको विवेक हुआ, तब उन्हें भगवान्‌के वाक्योंकी याद आयी और वे अपनी भार्या मारिषाको पुत्रके पास छोडक़र तुरंत घरसे निकल पड़े ॥ १ ॥ वे पश्चिम दिशामें समुद्रके तटपरजहाँ जाजलि मुनिने सिद्धि प्राप्त की थीजा पहुँचे और जिससे समस्त भूतोंमें एक ही आत्मतत्त्व विराजमान हैऐसा ज्ञान होता है, उस आत्मविचाररूप ब्रह्मसत्रका सङ्कल्प करके बैठ गये ॥ २ ॥ उन्होंने प्राण, मन, वाणी और दृष्टिको वशमें किया तथा शरीरको निश्चेष्ट, स्थिर और सीधा रखते हुए आसनको जीतकर चित्तको विशुद्ध परब्रह्ममें लीन कर दिया। ऐसी स्थितिमें उन्हें देवता और असुर दोनोंके ही वन्दनीय श्रीनारदजीने देखा ॥ ३ ॥ नारदजीको आया देख प्रचेतागण खड़े हो गये और प्रणाम करके आदर-सत्कारपूर्वक देश-कालानुसार उनकी विधिवत् पूजा की। जब नारदजी सुखपूर्वक बैठ गये, तब वे कहने लगे ॥ ४ ॥
प्रचेताओंने कहादेवर्षे ! आपका स्वागत है, आज बड़े भाग्यसे हमें आपका दर्शन हुआ। ब्रह्मन् ! सूर्यके समान आपका घूमना-फिरना भी ज्ञानालोक से समस्त जीवोंको अभय-दान देनेके लिये ही होता है ॥ ५ ॥ प्रभो ! भगवान्‌ शङ्कर और श्रीविष्णु भगवान्‌ ने हमें जो उपदेश दिया था, उसे गृहस्थीमें आसक्त रहनेके कारण हमलोग प्राय: भूल गये हैं ॥ ६ ॥ अत: आप हमारे हृदयोंमें उस परमार्थतत्त्वका साक्षात्कार करानेवाले अध्यात्मज्ञानको फिर प्रकाशित कर दीजिये, जिससे हम सुगमतासे ही इस दुस्तर संसार-सागरसे पार हो जायँ ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश और उनका परमपद-लाभ

मैत्रेय उवाच -
इति प्रचेतसां पृष्टो भगवान् नारदो मुनिः ।
भगवति उत्तमश्लोक आविष्टात्माब्रवीन् नृपान् ॥ ८ ॥

नारद उवाच -
तज्जन्म तानि कर्माणि तदायुस्तन्मनो वचः ।
नृणां येन हि विश्वात्मा सेव्यते हरिरीश्वरः ॥ ९ ॥
किं जन्मभिः त्रिभिर्वेह शौक्रसावित्रयाज्ञिकैः ।
कर्मभिर्वा त्रयीप्रोक्तैः पुंसोऽपि विबुधायुषा ॥ १० ॥
श्रुतेन तपसा वा किं वचोभिश्चित्तवृत्तिभिः ।
बुद्ध्या वा किं निपुणया बलेनेन्द्रियराधसा ॥ ११ ॥
किं वा योगेन साङ्‌ख्येन न्यासस्वाध्याययोरपि ।
किं वा श्रेयोभिरन्यैश्च न यत्रात्मप्रदो हरिः ॥ १२ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंभगवन्मय श्रीनारदजीका चित्त सर्वदा भगवान्‌ श्रीकृष्णमें ही लगा रहता है। वे प्रचेताओंके इस प्रकार पूछनेपर उनसे कहने लगे ॥ ८ ॥

श्रीनारदजीने कहाराजाओ ! इस लोकमें मनुष्यका वही जन्म, वही कर्म, वही आयु, वही मन और वही वाणी सफल है, जिसके द्वारा सर्वात्मा सर्वेश्वर श्रीहरिका सेवन किया जाता है ॥ ९ ॥ जिनके द्वारा अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाले श्रीहरिको प्राप्त न किया जाय, उन माता- पिताकी पवित्रतासे, यज्ञोपवीत-संस्कारसे एवं यज्ञदीक्षासे प्राप्त होनेवाले उन तीन प्रकारके श्रेष्ठ जन्मोंसे, वेदोक्त कर्मोंसे, देवताओंके समान दीर्घ आयुसे, शास्त्रज्ञानसे, तपसे, वाणीकी चतुराईसे, अनेक प्रकारकी बातें याद रखनेकी शक्तिसे, तीव्र बुद्धिसे, बलसे, इन्द्रियोंकी पटुतासे, योगसे, सांख्य (आत्मानात्मविवेक) से, संन्यास और वेदाध्ययनसे तथा व्रत-वैराग्यादि अन्य कल्याण- साधनोंसे भी पुरुषका क्या लाभ है ? ॥ १०१२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश और उनका परमपद-लाभ
                                       
श्रेयसामपि सर्वेषां आत्मा ह्यवधिरर्थतः ।
सर्वेषामपि भूतानां हरिरात्माऽऽत्मदः प्रियः ॥ १३ ॥
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन
     तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः ।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां
     तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ॥ १४ ॥
यथैव सूर्यात्प्रभवन्ति वारः
     पुनश्च तस्मिन् प्रविशन्ति काले ।
भूतानि भूमौ स्थिरजङ्‌गमानि
     तथा हरावेव गुणप्रवाहः ॥ १५ ॥
एतत्पदं तज्जगदात्मनः परं
     सकृद्विभातं सवितुर्यथा प्रभा ।
यथासवो जाग्रति सुप्तशक्तयो
     द्रव्यक्रियाज्ञानभिदाभ्रमात्ययः ॥ १६ ॥
यथा नभस्यभ्रतमःप्रकाशा
     भवन्ति भूपा न भवन्त्यनुक्रमात् ।
एवं परे ब्रह्मणि शक्तयस्त्वमू
     रजस्तमः सत्त्वमिति प्रवाहः ॥ १७ ॥
तेनैकमात्मानमशेषदेहिनां
     कालं प्रधानं पुरुषं परेशम् ।
स्वतेजसा ध्वस्तगुणप्रवाहं
     आत्मैकभावेन भजध्वमद्धा ॥ १८ ॥

(नारद जी कह रहे हैं) वास्तवमें समस्त कल्याणों की अवधि आत्मा ही है और आत्मज्ञान प्रदान करनेवाले श्रीहरि ही सम्पूर्ण प्राणियोंकी प्रिय आत्मा हैं ॥ १३ ॥ जिस प्रकार वृक्षकी जड़ सींचनेसे उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभीका पोषण हो जाता है और जैसे भोजनद्वारा प्राणोंको तृप्त करनेसे समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्रीभगवान्‌की पूजा ही सबकी पूजा है ॥ १४ ॥ जिस प्रकार वर्षाकालमें जल सूर्यके तापसे उत्पन्न होता है और ग्रीष्म- ऋतुमें उसीकी किरणोंमें पुन: प्रवेश कर जाता है तथा जैसे समस्त चराचर भूत पृथ्वीसे उत्पन्न होते हैं और फिर उसीमें मिल जाते हैं, उसी प्रकार चेतनाचेतनात्मक यह समस्त प्रपञ्च श्रीहरिसे ही उत्पन्न होता है और उन्हींमें लीन हो जाता है ॥ १५ ॥ वस्तुत: यह विश्वात्मा श्रीभगवान्‌का वह शास्त्रप्रसद्धि सर्वोपाधिरहित स्वरूप ही है। जैसे सूर्यकी प्रभा उससे भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार कभी-कभी गन्धर्व-नगरके समान स्फुरित होनेवाला यह जगत् भगवान्‌से भिन्न नहीं है; तथा जैसे जाग्रत् अवस्थामें इन्द्रियाँ क्रियाशील रहती हैं किन्तु सुषुप्तिमें उनकी शक्तियाँ लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार यह जगत् सर्गकालमें भगवान्‌से प्रकट हो जाता है और कल्पान्त होनेपर उन्हींमें लीन हो जाता है। स्वरूपत: तो भगवान्‌में द्रव्य, क्रिया और ज्ञानरूपी त्रिविध अहंकारके कार्योंकी तथा उनके निमित्तसे होनेवाले भेदभ्रमकी सत्ता है ही नहीं ॥ १६ ॥ नृपतिगण ! जैसे बादल, अन्धकार और प्रकाशये क्रमश: आकाशसे प्रकट होते हैं और उसीमें लीन हो जाते हैं; किन्तु आकाश इनसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार ये सत्त्व, रज, और तमोमयी शक्तियाँ कभी परब्रह्मसे उत्पन्न होती हैं और कभी उसीमें लीन हो जाती हैं। इसी प्रकार इनका प्रवाह चलता रहता है; किन्तु इससे आकाशके समान असङ्ग परमात्मामें कोई विकार नहीं होता ॥ १७ ॥ अत: तुम ब्रह्मादि समस्त लोकपालोंके भी अधीश्वर श्रीहरिको अपनेसे अभिन्न मानते हुए भजो क्योंकि वे ही समस्त देहधारियोंके एकमात्र आत्मा हैं। वे ही जगत् के  निमित्तकारण काल, उपादानकारण प्रधान और नियन्ता पुरुषोत्तम हैं तथा अपनी कालशक्तिसे वे ही इस गुणोंके प्रवाहरूप प्रपञ्चका संहार कर देते हैं ॥ १८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश और उनका परमपद-लाभ

दयया सर्वभूतेषु सन्तुष्ट्या येन केन वा ।
सर्वेन्द्रियोपशान्त्या च तुष्यत्याशु जनार्दनः ॥ १९ ॥
अपहतसकलैषणामलात्मनि
     अविरतमेधितभावनोपहूतः ।
निजजनवशगत्वमात्मनोऽयन्
     न सरति छिद्रवदक्षरः सतां हि ॥ २० ॥
न भजति कुमनीषिणां स इज्यां
     हरिरधनात्मधनप्रियो रसज्ञः ।
श्रुतधनकुलकर्मणां मदैर्ये
     विदधति पापमकिञ्चनेषु सत्सु ॥ २१ ॥
श्रियमनुचरतीं तदर्थिनश्च
     द्विपदपतीन् विबुधांश्च यत्स्वपूर्णः ।
न भजति निजभृत्यवर्गतन्त्रः
     कथममुमुद्विसृजेत्पुमान् कृतज्ञः ॥ २२ ॥

मैत्रेय उवाच -
इति प्रचेतसो राजन् अन्याश्च भगवत्कथाः ।
श्रावयित्वा ब्रह्मलोकं ययौ स्वायम्भुवो मुनिः ॥ २३ ॥
तेऽपि तन्मुखनिर्यातं यशो लोकमलापहम् ।
हरेर्निशम्य तत्पादं ध्यायन्तस्तद्‍गतिं ययुः ॥ २४ ॥
एतत्तेऽभिहितं क्षत्तः यन्मां त्वं परिपृष्टवान् ।
प्रचेतसां नारदस्य संवादं हरिकीर्तनम् ॥ २५ ॥

वे भक्तवत्सल भगवान्‌ समस्त जीवोंपर दया करनेसे, जो कुछ मिल जाय उसीमें सन्तुष्ट रहनेसे तथा समस्त इन्द्रियोंको विषयोंसे निवृत्त करके शान्त करनेसे शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं ॥ १९ ॥ पुत्रैषणा आदि सब प्रकारकी वासनाओंके निकल जानेसे जिनका अन्त:करण शुद्ध हो गया है, उन संतोंके हृदयमें उनके निरन्तर बढ़ते हुए चिन्तनसे ङ्क्षखचकर अविनाशी श्रीहरि आ जाते हैं और अपनी भक्ताधीनताको चरितार्थ करते हुए हृदयाकाशकी भाँति वहाँसे हटते नहीं ॥ २० ॥ भगवान्‌ तो अपनेको (भगवान्‌को) ही सर्वस्व माननेवाले निर्धन पुरुषोंपर ही प्रेम करते हैं; क्योंकि वे परम रसज्ञ हैंउन अकिञ्चनोंकी अनन्याश्रया अहैतुकी भक्तिमें कितना माधुर्य होता है, इसे प्रभु अच्छी तरह जानते हैं। जो लोग अपने शास्त्रज्ञान, धन, कुल और कर्मोंके मदसे उन्मत्त होकर, ऐसे निष्किञ्चन साधुजनोंका तिरस्कार करते हैं, उन दुर्बुद्धियोंकी पूजा तो प्रभु स्वीकार ही नहीं करते ॥ २१ ॥ भगवान्‌ स्वरूपानन्दसे ही परिपूर्ण हैं, उन्हें निरन्तर अपनी सेवामें रहनेवाली लक्ष्मीजी तथा उनकी इच्छा करनेवाले नरपति और देवताओंकी भी कोई परवा नहीं है। इतनेपर भी वे अपने भक्तोंके तो अधीन ही रहते हैं। अहो ! ऐसे करुणा-सागर श्रीहरिको कोई भी कृतज्ञ पुरुष थोड़ी देरके लिये भी कैसे छोड़ सकता है ? ॥ २२ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! भगवान्‌ नारदने प्रचेताओंको इस उपदेशके साथ-साथ और भी बहुत-सी भगवत्सम्बन्धी बातें सुनायीं। इसके पश्चात् वे ब्रह्मलोकको चले गये ॥ २३ ॥ प्रचेतागण भी उनके मुखसे सम्पूर्ण जगत् के पापरूपी मलको दूर करनेवाले भगवच्चरित्र सुनकर भगवान्‌के चरणकमलोंका ही चिन्तन करने लगे और अन्तमें भगवद्धामको प्राप्त हुए ॥ २४ ॥ इस प्रकार आपने जो मुझसे श्रीनारदजी और प्रचेताओंके भगवत्कथासम्बन्धी संवादके विषयमें पूछा था, वह मैंने आपको सुना दिया ॥ २५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश और उनका परमपद-लाभ

श्रीशुक उवाच -
य एष उत्तानपदो मानवस्यानुवर्णितः ।
वंशः प्रियव्रतस्यापि निबोध नृपसत्तम ॥ २६ ॥
यो नारदादात् आविद्यां अधिगम्य पुनर्महीम् ।
भुक्त्वा विभज्य पुत्रेभ्य ऐश्वरं समगात्पदम् ॥ २७ ॥
इमां तु कौषारविणोपवर्णितां
     क्षत्ता निशम्याजितवादसत्कथाम् ।
प्रवृद्धभावोऽश्रुकलाकुलो मुनेः
     दधार मूर्ध्ना चरणं हृदा हरेः ॥ २८ ॥

विदुर उवाच -
सोऽयमद्य महायोगिन् भवता करुणात्मना ।
दर्शितस्तमसः पारो यत्राकिञ्चनगो हरिः ॥ २९ ॥

श्रीशुक उवाच -
इत्यानम्य तमामन्त्र्य विदुरो गजसाह्वयम् ।
स्वानां दिदृक्षुः प्रययौ ज्ञातीनां निर्वृताशयः ॥ ३० ॥
एतद् यः शृणुयाद् राजन् राज्ञां हर्यर्पितात्मनाम् ।
आयुर्धनं यशः स्वस्ति गतिमैश्वर्यमाप्नुयात् ॥ ३१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! यहाँतक स्वायम्भुव मनुके पुत्र उत्तानपादके वंशका वर्णन हुआ, अब प्रियव्रतके वंशका विवरण भी सुनो ॥ २६ ॥ राजा प्रियव्रतने श्रीनारदजीसे आत्मज्ञानका उपदेश पाकर भी राज्यभोग किया था तथा अन्तमें इस सम्पूर्ण पृथ्वीको अपने पुत्रोंमें बाँटकर वे भगवान्‌के परमधामको प्राप्त हुए थे ॥ २७ ॥
राजन् ! इधर श्रीमैत्रेयजीके मुखसे यह भगवद्गुणानुवादयुक्त पवित्र कथा सुनकर विदुरजी प्रेममग्र हो गये, भक्तिभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्रोंसे पवित्र आँसुओंकी धारा बहने लगी तथा उन्होंने हृदयमें भगवच्चरणोंका स्मरण करते हुए अपना मस्तक मुनिवर मैत्रेयजीके चरणोंपर रख दिया ॥ २८ ॥
विदुरजी कहने लगेमहायोगिन् ! आप बड़े ही करुणामय हैं। आज आपने मुझे अज्ञानान्धकारके उस पार पहुँचा दिया है, जहाँ अकिञ्चनोंके सर्वस्व श्रीहरि विराजते हैं ॥ २९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंमैत्रेयजीको उपर्युक्त कृतज्ञता सूचक वचन कहकर तथा प्रणाम कर विदुरजीने उनसे आज्ञा ली और फिर शान्तचित्त होकर अपने बन्धुजनोंसे मिलनेके लिये वे हस्तिनापुर चले गये ॥ ३० ॥ राजन् ! जो पुरुष भगवान्‌के शरणागत परमभागवत राजाओंका यह पवित्र चरित्र सुनेगा, उसे दीर्घ आयु, धन, सुयश, क्षेम, सद्गति और ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी ॥ ३१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे प्रचेतौपाख्यानं नाम एकस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

इति चतुर्थस्कन्ध समाप्त:

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

विदुर उवाच –

ये त्वयाभिहिता ब्रह्मन् सुताः प्राचीनबर्हिषः ।
ते रुद्रगीतेन हरिं सिद्धिमापुः प्रतोष्य काम् ॥ १ ॥
किं बार्हस्पत्येह परत्र वाथ
     कैवल्यनाथप्रियपार्श्ववर्तिनः ।
आसाद्य देवं गिरिशं यदृच्छया
     प्रापुः परं नूनमथ प्रचेतसः ॥ २ ॥

मैत्रेय उवाच -
प्रचेतसोऽन्तरुदधौ पितुरादेशकारिणः ।
अपयज्ञेन तपसा पुरञ्जनण् अतोषयन् ॥ ३ ॥
दशवर्षसहस्रान्ते पुरुषस्तु सनातनः ।
तेषां आविरभूत् कृच्छ्रं शान्तेन शमयन् रुचा ॥ ४ ॥
सुपर्णस्कन्धमारूढो मेरुश्रूङ्‌गमिवाम्बुदः ।
पीतवासा मणिग्रीवः कुर्वन् वितिमिरा दिशः ॥ ५ ॥
काशिष्णुना कनकवर्णविभूषणेन
     भ्राजत्कपोलवदनो विलसत्किरीटः ।
अष्टायुधैरनुचरैर्मुनिभिः सुरेन्द्रैः
     आसेवितो गरुडकिन्नरगीतकीर्तिः ॥ ६ ॥
पीनायताष्टभुजमण्डल मध्यलक्ष्म्या
     स्पर्धच्छ्रिया परिवृतो वनमालयाऽऽद्यः ।
बर्हिष्मतः पुरुष आह सुतान् प्रपन्नान्
     पर्जन्यनादरुतया सघृणावलोकः ॥ ७ ॥

विदुरजीने पूछाब्रह्मन् ! आपने राजा प्राचीनबर्हिके जिन पुत्रोंका वर्णन किया था, उन्होंने रुद्रगीत के द्वारा श्रीहरिकी स्तुति करके क्या सिद्धि प्राप्त की ? ॥ १ ॥ बार्हस्पत्य ! मोक्षाधिपति श्रीनारायण के अत्यन्त प्रिय भगवान्‌ शङ्कर का अकस्मात् सान्निध्य प्राप्त करके प्रचेताओंने मुक्ति तो प्राप्त की ही होगी; इससे पहले इस लोकमें अथवा परलोकमें भी उन्होंने क्या पायावह बतलाने- की कृपा करें ॥ २ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहाविदुरजी ! पिताके आज्ञाकारी प्रचेताओंने समुद्रके अंदर खड़े रहकर रुद्रगीतके जपरूपी यज्ञ और तपस्याके द्वारा समस्त शरीरोंके उत्पादक भगवान्‌ श्रीहरिको प्रसन्न कर लिया ॥ ३ ॥ तपस्या करते-करते दस हजार वर्ष बीत जानेपर पुराणपुरुष श्रीनारायण अपनी मनोहर कान्तिद्वारा उनके तपस्याजनित क्लेशको शान्त करते हुए सौम्य विग्रहसे उनके सामने प्रकट हुए ॥ ४ ॥ गरुडज़ीके कंधेपर बैठे हुए श्रीभगवान्‌ ऐसे जान पड़ते थे, मानो सुमेरुके शिखर पर कोई श्याम घटा छायी हो। उनके श्रीअङ्ग में मनोहर पीताम्बर और कण्ठ में कौस्तुभमणि सुशोभित थी। अपनी दिव्य प्रभा से वे सब दिशाओं का अन्धकार दूर कर रहे थे ॥ ५ ॥ चमकीले सुवर्णमय आभूषणोंसे युक्त उनके कमनीय कपोल और मनोहर मुखमण्डल की अपूर्व शोभा हो रही थी। उनके मस्तकपर झिलमिलाता हुआ मुकुट शोभायमान था। प्रभुकी आठ भुजाओंमें आठ आयुध थे; देवता, मुनि और पार्षदगण सेवामें उपस्थित थे तथा गरुडजी किन्नरोंकी भाँति साममय पंखोंकी ध्वनिसे कीर्तिगान कर रहे थे ॥ ६ ॥ उनकी आठ लंबी-लंबी स्थूल भुजाओंके बीचमें लक्ष्मीजीसे स्पर्धा करनेवाली वनमाला विराजमान थी। आदिपुरुष श्रीनारायण ने इस प्रकार पधारकर अपने शरणागत प्रचेताओं की ओर दयादृष्टि से निहारते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

श्रीभगवानुवाच -
वरं वृणीध्वं भद्रं वो यूयं मे नृपनन्दनाः ।
सौहार्देनापृथग्धर्माः तुष्टोऽहं सौहृदेन वः ॥ ८ ॥
योऽनुस्मरति सन्ध्यायां युष्मान् अनुदिनं नरः ।
तस्य भ्रातृष्वात्मसाम्यं तथा भूतेषु सौहृदम् ॥ ९ ॥
ये तु मां रुद्रगीतेन सायं प्रातः समाहिताः ।
स्तुवन्त्यहं कामवरान् दास्ये प्रज्ञां च शोभनाम् ॥ १० ॥
यद्यूयं पितुरादेशं अग्रहीष्ट मुदान्विताः ।
अथो व उशती कीर्तिः लोकाननु भविष्यति ॥ ११ ॥
भविता विश्रुतः पुत्रो ऽनवमो ब्रह्मणो गुणैः ।
य एतां आत्मवीर्येण त्रिलोकीं पूरयिष्यति ॥ १२ ॥
कण्डोः प्रम्लोचया लब्धा कन्या कमललोचना ।
तां चापविद्धां जगृहुः भूरुहा नृपनन्दनाः ॥ १३ ॥
क्षुत्क्षामाया मुखे राजा सोमः पीयूषवर्षिणीम् ।
देशिनीं रोदमानाया निदधे स दयान्वितः ॥ १४ ॥
प्रजाविसर्ग आदिष्टाः पित्रा मां अनुवर्तता ।
तत्र कन्यां वरारोहां तां उद्वहत मा चिरम् ॥ १५ ॥
अपृथग्धर्मशीलानां सर्वेषां वः सुमध्यमा ।
अपृथग्धर्मशीलेयं भूयात् पत्‍न्यर्पिताशया ॥ १६ ॥
दिव्यवर्षसहस्राणां सहस्रमहतौजसः ।
भौमान् भोक्ष्यथ भोगान् वै दिव्यान् चानुग्रहान्मम ॥ १७ ॥
अथ मय्यनपायिन्या भक्त्या पक्वगुणाशयाः ।
उपयास्यथ मद्धाम निर्विद्य निरयादतः ॥ १८ ॥
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मणाम् ।
मद् वार्तायातयामानां न बन्धाय गृहा मताः ॥ १९ ॥
नव्यवद्‌ हृदये यज्ज्ञो ब्रह्मैतद्‍ब्रह्मवादिभिः ।
न मुह्यन्ति न शोचन्ति न हृष्यन्ति यतो गताः ॥ २० ॥

श्रीभगवान्‌ ने (प्रचेताओं से) कहाराजपुत्रो ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम सब में परस्पर बड़ा प्रेम है और स्नेहवश तुम एक ही धर्मका पालन कर रहे हो। तुम्हारे इस आदर्श सौहार्द से मैं बड़ा प्रसन्न हूँ। मुझसे वर माँगो ॥ ८ ॥ जो पुरुष सायंकाल के समय प्रतिदिन तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका अपने भाइयों में अपने ही समान प्रेम होगा तथा समस्त जीवों के प्रति मित्रता का भाव हो जायगा ॥ ९ ॥ जो लोग सायंकाल और प्रात:काल एकाग्रचित्त से रुद्रगीतद्वारा मेरी स्तुति करेंगे, उनको मैं अभीष्ट वर और शुद्ध बुद्धि प्रदान करूँगा ॥ १० ॥ तुमलोगोंने बड़ी प्रसन्नतासे अपने पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की है, इससे तुम्हारी कमनीय कीर्ति समस्त लोकोंमें फैल जायगी ॥ ११ ॥ तुम्हारे एक बड़ा ही विख्यात पुत्र होगा। वह गुणोंमें किसी भी प्रकार ब्रह्माजीसे कम नहीं होगा तथा अपनी सन्तानसे तीनों लोकोंको पूर्ण कर देगा ॥ १२ ॥
राजकुमारो ! कण्डु ऋषिके तपोनाशके लिये इन्द्रकी भेजी हुई प्रम्लोचा अप्सरासे एक कमलनयनी कन्या उत्पन्न हुई थी। उसे छोडक़र वह स्वर्गलोकको चली गयी। तब वृक्षोंने उस कन्याको लेकर पाला-पोसा ॥ १३ ॥ जब वह भूखसे व्याकुल होकर रोने लगी तब ओषधियोंके राजा चन्द्रमाने दयावश उसके मुँहमें अपनी अमृतवर्षिणी तर्जनी अँगुली दे दी ॥ १४ ॥ तुम्हारे पिता आजकल मेरी सेवा (भक्ति) में लगे हुए हैं; उन्होंने तुम्हें सन्तान उत्पन्न करनेकी आज्ञा दी है। अत: तुम शीघ्र ही उस देवोपम सुन्दरी कन्यासे विवाह कर लो ॥ १५ ॥ तुम सब एक ही धर्ममें तत्पर हो और तुम्हारा स्वभाव भी एक-सा ही है; इसलिये तुम्हारे ही समान धर्म और स्वभाववाली वह सुन्दरी कन्या तुम सभीकी पत्नी होगी तथा तुम सभीमें उसका समान अनुराग होगा ॥ १६ ॥ तुमलोग मेरी कृपासे दस लाख दिव्य वर्षोंतक पूर्ण बलवान् रहकर अनेकों प्रकारके पार्थिव और दिव्य भोग भोगोगे ॥ १७ ॥ अन्तमें मेरी अविचल भक्तिसे हृदयका समस्त वासनारूप मल दग्ध हो जानेपर तुम इस लोक तथा परलोकके नरकतुल्य भोगोंसे उपरत होकर मेरे परम धामको जाओगे ॥ १८ ॥ जिन लोगोंके कर्म भगवदर्पणबुद्धिसे होते हैं और जिनका सारा समय मेरी कथावार्ताओंमें ही बीतता है, वे गृहस्थाश्रममें रहें तो भी घर उनके बन्धनका कारण नहीं होते ॥ १९ ॥ वे नित्यप्रति मेरी लीलाएँ सुनते रहते हैं, इसलिये ब्रह्मवादी वक्ताओंके द्वारा मैं ज्ञान-स्वरूप परब्रह्म उनके हृदयमें नित्य नया-नया-सा भासता रहता हूँ और मुझे प्राप्त कर लेनेपर जीवोंको न मोह हो सकता है, न शोक और न हर्ष ही ॥ २० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

मैत्रेय उवाच -
एवं ब्रुवाणं पुरुषार्थभाजनं
     जनार्दनं प्राञ्जलयः प्रचेतसः ।
तद्दर्शनध्वस्ततमोरजोमला
     गिरागृणन् गद्‍गदया सुहृत्तमम् ॥ २१ ॥

प्रचेतस ऊचुः -
नमो नमः क्लेशविनाशनाय
     निरूपितोदारगुणाह्वयाय ।
मनोवचोवेगपुरोजवाय
     सर्वाक्षमार्गैरगताध्वने नमः ॥ २२ ॥
शुद्धाय शान्ताय नमः स्वनिष्ठया
     मनस्यपार्थं विलसद्द्वयाय ।
नमो जगत्स्थानलयोदयेषु
     गृहीतमायागुणविग्रहाय ॥ २३ ॥
नमो विशुद्धसत्त्वाय हरये हरिमेधसे ।
वासुदेवाय कृष्णाय प्रभवे सर्वसात्वताम् ॥ २४ ॥
नमः कमलनाभाय नमः कमलमालिने ।
नमः कमलपादाय नमस्ते कमलेक्षण ॥ २५ ॥
नमः कमलकिञ्जल्क पिशङ्‌गामलवाससे ।
सर्वभूतनिवासाय नमोऽयुङ्‌क्ष्महि साक्षिणे ॥ २६ ॥
रूपं भगवता त्वेतद् अशेषक्लेशसङ्‌क्षयम् ।
आविष्कृतं नः क्लिष्टानां किं अन्यद् अनुकंपितम् ॥ २७ ॥
एतावत्त्वं हि विभुभिः भाव्यं दीनेषु वत्सलैः ।
यदनुस्मर्यते काले स्वबुद्ध्याभद्ररन्धन ॥ २८ ॥
येनोपशान्तिर्भूतानां क्षुल्लकानामपीहताम् ।
अन्तर्हितोऽन्तर्हृदये कस्मान्नो वेद नाशिषः ॥ २९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंभगवान्‌के दर्शनोंसे प्रचेताओंका रजोगुण-तमोगुण मल नष्ट हो चुका था। जब उनसे सकल पुरुषार्थोंके आश्रय और सबके परम सुहृद् श्रीहरिने इस प्रकार कहा, तब वे हाथ जोडक़र गद्गदवाणीसे कहने लगे ॥ २१ ॥

प्रचेताओंने कहाप्रभो ! आप भक्तोंके क्लेश दूर करनेवाले हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं। वेद आपके उदार गुण और नामोंका निरूपण करते हैं। आपका वेग मन और वाणीके वेगसे भी बढक़र है तथा आपका स्वरूप सभी इन्द्रियोंकी गतिसे परे है। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ २२ ॥ आप अपने स्वरूपमें स्थित रहनेके कारण नित्य शुद्ध और शान्त हैं, मनरूप निमित्तके कारण हमें आपमें यह मिथ्या द्वैत भास रहा है। वास्तवमें जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये आप मायाके गुणोंको स्वीकार करके ही ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूप धारण करते हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २३ ॥ आप विशुद्ध सत्त्वस्वरूप हैं, आपका ज्ञान संसारबन्धनको दूर कर देता है। आप ही समस्त भागवतोंके प्रभु वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं, आपको नमस्कार है ॥ २४ ॥ आपकी ही नाभिसे ब्रह्माण्डरूप कमल प्रकट हुआ था, आपके कण्ठमें कमलकुसुमोंकी माला सुशोभित है तथा आपके चरण कमलके समान कोमल हैं; कमलनयन ! आपको नमस्कार है ॥ २५ ॥ आप कमलकुसुमकी केसरके समान स्वच्छ पीताम्बर धारण किये हुए हैं, समस्त भूतोंके आश्रयस्थान हैं तथा सबके साक्षी हैं; हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥
भगवन् ! आपका यह स्वरूप सम्पूर्ण क्लेशोंकी निवृत्ति करनेवाला है; हम अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेषादि क्लेशोंसे पीडि़तोंके सामने आपने इसे प्रकट किया है। इससे बढक़र हमपर और क्या कृपा होगी ॥ २७ ॥ अमङ्गलहारी प्रभो ! दीनोंपर दया करनेवाले समर्थ पुरुषोंको इतनी ही कृपा करनी चाहिये कि समय-समयपर उन दीनजनोंको ये हमारे हैंइस प्रकार स्मरण कर लिया करें ॥ २८ ॥ इसीसे उनके आश्रितोंका चित्त शान्त हो जाता है। आप तो क्षुद्र-से-क्षुद्र प्राणियोंके भी अन्त:करणोंमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान रहते हैं। फिर आपके उपासक हमलोग जो-जो कामनाएँ करते हैं, हमारी उन कामनाओंको आप क्यों न जान लेंगे ॥ २९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

असौ एव वरोऽस्माकं ईप्सितो जगतः पते ।
प्रसन्नो भगवान्येषां अपवर्गः गुरुर्गतिः ॥ ३० ॥
वरं वृणीमहेऽथापि नाथ त्वत्परतः परात् ।
न ह्यन्तस्त्वद् विभूतीनां सोऽनन्त इति गीयसे ॥ ३१ ॥
पारिजातेऽञ्जसा लब्धे सारङ्‌गोऽन्यन्न सेवते ।
त्वदङ्‌घ्रिमूलमासाद्य साक्षात्किं किं वृणीमहि ॥ ३२ ॥
यावत्ते मायया स्पृष्टा भ्रमाम इह कर्मभिः ।
तावद्‍भवत् प्रसङ्‌गानां सङ्‌गः स्यान्नो भवे भवे ॥ ३३ ॥
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं न अपुनर्भवम् ।
भगवत् सङ्‌गिसङ्‌गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ ३४ ॥
यत्रेड्यन्ते कथा मृष्टाः तृष्णायाः प्रशमो यतः ।
निर्वैरं यत्र भूतेषु नोद्वेगो यत्र कश्चन ॥ ३५ ॥
यत्र नारायणः साक्षाद् भगवान् न्यासिनां गतिः ।
संस्तूयते सत्कथासु मुक्तसङ्‌गैः पुनः पुनः ॥ ३६ ॥
तेषां विचरतां पद्‍भ्यां तीर्थानां पावनेच्छया ।
भीतस्य किं न रोचेत तावकानां समागमः ॥ ३७ ॥

(प्रचेता स्तुति कर रहे  हैं) जगदीश्वर ! आप मोक्षका मार्ग दिखानेवाले और स्वयं पुरुषार्थस्वरूप हैं । आप हमपर प्रसन्न हैं, इससे बढक़र हमें और क्या चाहिये। बस, हमारा अभीष्ट वर तो आपकी प्रसन्नता ही है ॥ ३० ॥ तथापि, नाथ ! हम एक वर आपसे अवश्य माँगते हैं। प्रभो ! आप प्रकृति आदिसे परे हैं और आपकी विभूतियोंका भी कोई अन्त नहीं है; इसलिये आप अनन्तकहे जाते हैं ॥ ३१ ॥ यदि भ्रमरको अनायास ही कल्पवृक्ष मिल जाय, तो क्या वह किसी दूसरे वृक्षका सेवन करेगा ? तब आपकी चरणशरणमें आकर अब हम क्या-क्या माँगें ॥ ३२ ॥ हम आपसे केवल यही माँगते हैं कि जबतक आपकी मायासे मोहित होकर हम अपने कर्मानुसार संसारमें भ्रमते रहें, तबतक जन्म-जन्ममें हमें आपके प्रेमी भक्तोंका सङ्ग प्राप्त होता रहे ॥ ३३ ॥ हम तो भगवद्भक्तोंके क्षणभरके सङ्गके सामने स्वर्ग और मोक्षको भी कुछ नहीं समझते; फिर मानवी भोगोंकी तो बात ही क्या है ॥ ३४ ॥ भगवद्भक्तोंके समाजमें सदा-सर्वदा भगवान्‌की मधुर-मधुर कथाएँ होती रहती हैं, जिनके श्रवणमात्रसे भोगतृष्णा शान्त हो जाती है। वहाँ प्राणियोंमें किसी प्रकारका वैर-विरोध या उद्वेग नहीं रहता ॥ ३५ ॥ अच्छे- अच्छे कथा-प्रसङ्गोंद्वारा निष्कामभावसे संन्यासियोंके एकमात्र आश्रय साक्षात् श्रीनारायणदेवका बार-बार गुणगान होता रहता है ॥ ३६ ॥ आपके वे भक्तजन तीर्थोंको पवित्र करनेके उद्देश्यसे पृथ्वीपर पैदल ही विचरते रहते हैं। भला, उनका समागम संसारसे भयभीत हुए पुरुषोंको कैसे रुचिकर न होगा ॥ ३७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

वयं तु साक्षाद्‍भगवन् भवस्य
     प्रियस्य सख्युः क्षणसङ्‌गमेन ।
सुदुश्चिकित्स्यस्य भवस्य मृत्योः
     भिषक्तमं त्वाद्य गतिं गताः स्म ॥ ३८ ॥
यन्नः स्वधीतं गुरवः प्रसादिता
     विप्राश्च वृद्धाश्च सदानुवृत्त्या ।
आर्या नताः सुहृदो भ्रातरश्च
     सर्वाणि भूतान्यनसूययैव ॥ ३९ ॥
यन्नः सुतप्तं तप एतदीश
     निरन्धसां कालमदभ्रमप्सु ।
सर्वं तदेतत्पुरुषस्य भूम्नो
     वृणीमहे ते परितोषणाय ॥ ४० ॥
मनुः स्वयम्भूर्भगवान् भवश्च
     येऽन्ये तपोज्ञानविशुद्धसत्त्वाः ।
अदृष्टपारा अपि यन्महिम्नः
     स्तुवन्त्यथो त्वात्मसमं गृणीमः ॥ ४१ ॥
नमः समाय शुद्धाय पुरुषाय पराय च ।
वासुदेवाय सत्त्वाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ ४२ ॥

(प्रचेता स्तुति कर रहे हैं) भगवन् ! आपके प्रिय सखा भगवान्‌ शङ्करके क्षणभरके समागमसे ही आज हमें आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ है। आप जन्म-मरणरूप दु:साध्य रोगके श्रेष्ठतम वैद्य हैं, अत: अब हमने आपका ही आश्रय लिया है ॥ ३८ ॥ प्रभो ! हमने समाहित चित्तसे जो कुछ अध्ययन किया है, निरन्तर सेवा-शुश्रूषा करके गुरु, ब्राह्मण और वृद्धजनोंको प्रसन्न किया है तथा दोषबुद्धि त्यागकर श्रेष्ठ पुरुष, सुहृद्गण, बन्धुवर्ग एवं समस्त प्राणियोंकी वन्दना की है और अन्नादिको त्यागकर दीर्घकालतक जलमें खड़े रहकर तपस्या की है, वह सब आप सर्वव्यापक पुरुषोत्तमके सन्तोषका कारण होयही वर माँगते हैं ॥ ३९-४० ॥ स्वामिन् ! आपकी महिमाका पार न पाकर भी स्वायम्भुव मनु, स्वयं ब्रह्माजी, भगवान्‌ शङ्कर तथा तप और ज्ञानसे शुद्धचित्त हुए अन्य पुरुष निरन्तर आपकी स्तुति करते रहते हैं। अत: हम भी अपनी बुद्धिके अनुसार आपका यशोगान करते हैं ॥ ४१ ॥ आप सर्वत्र समान शुद्ध स्वरूप और परम पुरुष हैं। आप सत्त्वमूर्ति भगवान्‌ वासुदेवको हम नमस्कार करते हैं ॥ ४२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

मैत्रेय उवाच -
इति प्रचेतोभिरभिष्टुतो हरिः
     प्रीतस्तथेत्याह शरण्यवत्सलः ।
अनिच्छतां यान् अमतृप्तचक्षुषां
     ययौ स्वधामानपवर्गवीर्यः ॥ ४३ ॥
अथ निर्याय सलिलात् प्रचेतस उदन्वतः ।
वीक्ष्याकुप्यन् द्रुमैश्छन्नां गां गां रोद्धुः इवोच्छ्रितैः ॥ ४४ ॥
ततोऽग्निमारुतौ राजन् अमुञ्चन्मुखतो रुषा ।
महीं निर्वीरुधं कर्तुं संवर्तक इवात्यये ॥ ४५ ॥
भस्मसात् क्रियमाणान् तान् द्रुमान् वीक्ष्य पितामहः ।
आगतः शमयामास पुत्रान् बर्हिष्मतो नयैः ॥ ४६ ॥
तत्रावशिष्टा ये वृक्षा भीता दुहितरं तदा ।
उज्जह्रुस्ते प्रचेतोभ्य उपदिष्टाः स्वयम्भुवा ॥ ४७ ॥
ते च ब्रह्मण आदेशान् मारिषामुपयेमिरे ।
यस्यां महदवज्ञानाद् अजन्यजनयोनिजः ॥ ४८ ॥
चाक्षुषे त्वन्तरे प्राप्ते प्राक्सर्गे कालविद्रुते ।
यः ससर्ज प्रजा इष्टाः स दक्षो दैवचोदितः ॥ ४९ ॥
यो जायमानः सर्वेषां तेजस्तेजस्विनां रुचा ।
स्वयोपादत्त दाक्ष्याच्च कर्मणां दक्षमब्रुवन् ॥ ५० ॥
तं प्रजासर्गरक्षायां अनादिरभिषिच्य च ।
युयोज युयुजेऽन्यांश्च स वै सर्वप्रजापतीन् ॥ ५१ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! प्रचेताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर शरणागतवत्सल श्रीभगवान्‌ने प्रसन्न होकर कहा—‘तथास्तु। अप्रतिहतप्रभाव श्रीहरिकी मधुर मूर्तिके दर्शनोंसे अभी प्रचेताओंके नेत्र तृप्त नहीं हुए थे, इसलिये वे उन्हें जाने देना नहीं चाहते थे; तथापि वे अपने परमधामको चले गये ॥ ४३ ॥ इसके पश्चात् प्रचेताओंने समुद्रके जलसे बाहर निकलकर देखा कि सारी पृथ्वीको ऊँचे-ऊँचे वृक्षोंने ढक दिया है, जो मानो स्वर्गका मार्ग रोकनेके लिये ही इतने बढ़ गये थे। यह देखकर वे वृक्षोंपर बड़े कुपित हुए ॥ ४४ ॥ तब उन्होंने पृथ्वीको वृक्ष, लता आदिसे रहित कर देनेके लिये अपने मुखसे प्रचण्ड वायु और अग्रिको छोड़ा, जैसे कालाग्रिरुद्र प्रलयकालमें छोड़ते हैं ॥ ४५ ॥ जब ब्रह्माजीने देखा कि वे सारे वृक्षोंको भस्म कर रहे हैं, तब वे वहाँ आये और प्राचीनबर्हिके पुत्रोंको उन्होंने युक्तिपूर्वक समझाकर शान्त किया ॥ ४६ ॥ फिर जो कुछ वृक्ष वहाँ बचे थे, उन्होंने डरकर ब्रह्माजीके कहनेसे वह कन्या लाकर प्रचेताओंको दी ॥ ४७ ॥ प्रचेताओंने भी ब्रह्माजीके आदेशसे उस मारिषा नामकी कन्यासे विवाह कर लिया। इसीके गर्भसे ब्रह्माजीके पुत्र दक्षने, श्रीमहादेवजीकी अवज्ञाके कारण अपना पूर्वशरीर त्यागकर जन्म लिया ॥ ४८ ॥ इन्हीं दक्षने चाक्षुष मन्वन्तर आनेपर, जब कालक्रमसे पूर्वसर्ग नष्ट हो गया, भगवान्‌की प्रेरणासे इच्छानुसार नवीन प्रजा उत्पन्न की ॥ ४९ ॥ इन्होंने जन्म लेते ही अपनी कान्तिसे समस्त तेजस्वियोंका तेज छीन लिया। ये कर्म करनेमें बड़े दक्ष (कुशल) थे, इसीसे इनका नाम दक्षहुआ ॥ ५० ॥ इन्हें ब्रह्माजीने प्रजापतियोंके नायकके पदपर अभिषिक्त कर सृष्टिकी रक्षाके लिये नियुक्त किया और इन्होंने मरीचि आदि दूसरे प्रजापतियोंको अपने-अपने कार्यमें नियुक्त किया ॥ ५१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे प्राचेतसे चरिते त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...