सोमवार, 11 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

विदुर उवाच –

ये त्वयाभिहिता ब्रह्मन् सुताः प्राचीनबर्हिषः ।
ते रुद्रगीतेन हरिं सिद्धिमापुः प्रतोष्य काम् ॥ १ ॥
किं बार्हस्पत्येह परत्र वाथ
     कैवल्यनाथप्रियपार्श्ववर्तिनः ।
आसाद्य देवं गिरिशं यदृच्छया
     प्रापुः परं नूनमथ प्रचेतसः ॥ २ ॥

मैत्रेय उवाच -
प्रचेतसोऽन्तरुदधौ पितुरादेशकारिणः ।
अपयज्ञेन तपसा पुरञ्जनण् अतोषयन् ॥ ३ ॥
दशवर्षसहस्रान्ते पुरुषस्तु सनातनः ।
तेषां आविरभूत् कृच्छ्रं शान्तेन शमयन् रुचा ॥ ४ ॥
सुपर्णस्कन्धमारूढो मेरुश्रूङ्‌गमिवाम्बुदः ।
पीतवासा मणिग्रीवः कुर्वन् वितिमिरा दिशः ॥ ५ ॥
काशिष्णुना कनकवर्णविभूषणेन
     भ्राजत्कपोलवदनो विलसत्किरीटः ।
अष्टायुधैरनुचरैर्मुनिभिः सुरेन्द्रैः
     आसेवितो गरुडकिन्नरगीतकीर्तिः ॥ ६ ॥
पीनायताष्टभुजमण्डल मध्यलक्ष्म्या
     स्पर्धच्छ्रिया परिवृतो वनमालयाऽऽद्यः ।
बर्हिष्मतः पुरुष आह सुतान् प्रपन्नान्
     पर्जन्यनादरुतया सघृणावलोकः ॥ ७ ॥

विदुरजीने पूछाब्रह्मन् ! आपने राजा प्राचीनबर्हिके जिन पुत्रोंका वर्णन किया था, उन्होंने रुद्रगीत के द्वारा श्रीहरिकी स्तुति करके क्या सिद्धि प्राप्त की ? ॥ १ ॥ बार्हस्पत्य ! मोक्षाधिपति श्रीनारायण के अत्यन्त प्रिय भगवान्‌ शङ्कर का अकस्मात् सान्निध्य प्राप्त करके प्रचेताओंने मुक्ति तो प्राप्त की ही होगी; इससे पहले इस लोकमें अथवा परलोकमें भी उन्होंने क्या पायावह बतलाने- की कृपा करें ॥ २ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहाविदुरजी ! पिताके आज्ञाकारी प्रचेताओंने समुद्रके अंदर खड़े रहकर रुद्रगीतके जपरूपी यज्ञ और तपस्याके द्वारा समस्त शरीरोंके उत्पादक भगवान्‌ श्रीहरिको प्रसन्न कर लिया ॥ ३ ॥ तपस्या करते-करते दस हजार वर्ष बीत जानेपर पुराणपुरुष श्रीनारायण अपनी मनोहर कान्तिद्वारा उनके तपस्याजनित क्लेशको शान्त करते हुए सौम्य विग्रहसे उनके सामने प्रकट हुए ॥ ४ ॥ गरुडज़ीके कंधेपर बैठे हुए श्रीभगवान्‌ ऐसे जान पड़ते थे, मानो सुमेरुके शिखर पर कोई श्याम घटा छायी हो। उनके श्रीअङ्ग में मनोहर पीताम्बर और कण्ठ में कौस्तुभमणि सुशोभित थी। अपनी दिव्य प्रभा से वे सब दिशाओं का अन्धकार दूर कर रहे थे ॥ ५ ॥ चमकीले सुवर्णमय आभूषणोंसे युक्त उनके कमनीय कपोल और मनोहर मुखमण्डल की अपूर्व शोभा हो रही थी। उनके मस्तकपर झिलमिलाता हुआ मुकुट शोभायमान था। प्रभुकी आठ भुजाओंमें आठ आयुध थे; देवता, मुनि और पार्षदगण सेवामें उपस्थित थे तथा गरुडजी किन्नरोंकी भाँति साममय पंखोंकी ध्वनिसे कीर्तिगान कर रहे थे ॥ ६ ॥ उनकी आठ लंबी-लंबी स्थूल भुजाओंके बीचमें लक्ष्मीजीसे स्पर्धा करनेवाली वनमाला विराजमान थी। आदिपुरुष श्रीनारायण ने इस प्रकार पधारकर अपने शरणागत प्रचेताओं की ओर दयादृष्टि से निहारते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा ॥ ७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

श्रीभगवानुवाच -
वरं वृणीध्वं भद्रं वो यूयं मे नृपनन्दनाः ।
सौहार्देनापृथग्धर्माः तुष्टोऽहं सौहृदेन वः ॥ ८ ॥
योऽनुस्मरति सन्ध्यायां युष्मान् अनुदिनं नरः ।
तस्य भ्रातृष्वात्मसाम्यं तथा भूतेषु सौहृदम् ॥ ९ ॥
ये तु मां रुद्रगीतेन सायं प्रातः समाहिताः ।
स्तुवन्त्यहं कामवरान् दास्ये प्रज्ञां च शोभनाम् ॥ १० ॥
यद्यूयं पितुरादेशं अग्रहीष्ट मुदान्विताः ।
अथो व उशती कीर्तिः लोकाननु भविष्यति ॥ ११ ॥
भविता विश्रुतः पुत्रो ऽनवमो ब्रह्मणो गुणैः ।
य एतां आत्मवीर्येण त्रिलोकीं पूरयिष्यति ॥ १२ ॥
कण्डोः प्रम्लोचया लब्धा कन्या कमललोचना ।
तां चापविद्धां जगृहुः भूरुहा नृपनन्दनाः ॥ १३ ॥
क्षुत्क्षामाया मुखे राजा सोमः पीयूषवर्षिणीम् ।
देशिनीं रोदमानाया निदधे स दयान्वितः ॥ १४ ॥
प्रजाविसर्ग आदिष्टाः पित्रा मां अनुवर्तता ।
तत्र कन्यां वरारोहां तां उद्वहत मा चिरम् ॥ १५ ॥
अपृथग्धर्मशीलानां सर्वेषां वः सुमध्यमा ।
अपृथग्धर्मशीलेयं भूयात् पत्‍न्यर्पिताशया ॥ १६ ॥
दिव्यवर्षसहस्राणां सहस्रमहतौजसः ।
भौमान् भोक्ष्यथ भोगान् वै दिव्यान् चानुग्रहान्मम ॥ १७ ॥
अथ मय्यनपायिन्या भक्त्या पक्वगुणाशयाः ।
उपयास्यथ मद्धाम निर्विद्य निरयादतः ॥ १८ ॥
गृहेष्वाविशतां चापि पुंसां कुशलकर्मणाम् ।
मद् वार्तायातयामानां न बन्धाय गृहा मताः ॥ १९ ॥
नव्यवद्‌ हृदये यज्ज्ञो ब्रह्मैतद्‍ब्रह्मवादिभिः ।
न मुह्यन्ति न शोचन्ति न हृष्यन्ति यतो गताः ॥ २० ॥

श्रीभगवान्‌ ने (प्रचेताओं से) कहाराजपुत्रो ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम सब में परस्पर बड़ा प्रेम है और स्नेहवश तुम एक ही धर्मका पालन कर रहे हो। तुम्हारे इस आदर्श सौहार्द से मैं बड़ा प्रसन्न हूँ। मुझसे वर माँगो ॥ ८ ॥ जो पुरुष सायंकाल के समय प्रतिदिन तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका अपने भाइयों में अपने ही समान प्रेम होगा तथा समस्त जीवों के प्रति मित्रता का भाव हो जायगा ॥ ९ ॥ जो लोग सायंकाल और प्रात:काल एकाग्रचित्त से रुद्रगीतद्वारा मेरी स्तुति करेंगे, उनको मैं अभीष्ट वर और शुद्ध बुद्धि प्रदान करूँगा ॥ १० ॥ तुमलोगोंने बड़ी प्रसन्नतासे अपने पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की है, इससे तुम्हारी कमनीय कीर्ति समस्त लोकोंमें फैल जायगी ॥ ११ ॥ तुम्हारे एक बड़ा ही विख्यात पुत्र होगा। वह गुणोंमें किसी भी प्रकार ब्रह्माजीसे कम नहीं होगा तथा अपनी सन्तानसे तीनों लोकोंको पूर्ण कर देगा ॥ १२ ॥
राजकुमारो ! कण्डु ऋषिके तपोनाशके लिये इन्द्रकी भेजी हुई प्रम्लोचा अप्सरासे एक कमलनयनी कन्या उत्पन्न हुई थी। उसे छोडक़र वह स्वर्गलोकको चली गयी। तब वृक्षोंने उस कन्याको लेकर पाला-पोसा ॥ १३ ॥ जब वह भूखसे व्याकुल होकर रोने लगी तब ओषधियोंके राजा चन्द्रमाने दयावश उसके मुँहमें अपनी अमृतवर्षिणी तर्जनी अँगुली दे दी ॥ १४ ॥ तुम्हारे पिता आजकल मेरी सेवा (भक्ति) में लगे हुए हैं; उन्होंने तुम्हें सन्तान उत्पन्न करनेकी आज्ञा दी है। अत: तुम शीघ्र ही उस देवोपम सुन्दरी कन्यासे विवाह कर लो ॥ १५ ॥ तुम सब एक ही धर्ममें तत्पर हो और तुम्हारा स्वभाव भी एक-सा ही है; इसलिये तुम्हारे ही समान धर्म और स्वभाववाली वह सुन्दरी कन्या तुम सभीकी पत्नी होगी तथा तुम सभीमें उसका समान अनुराग होगा ॥ १६ ॥ तुमलोग मेरी कृपासे दस लाख दिव्य वर्षोंतक पूर्ण बलवान् रहकर अनेकों प्रकारके पार्थिव और दिव्य भोग भोगोगे ॥ १७ ॥ अन्तमें मेरी अविचल भक्तिसे हृदयका समस्त वासनारूप मल दग्ध हो जानेपर तुम इस लोक तथा परलोकके नरकतुल्य भोगोंसे उपरत होकर मेरे परम धामको जाओगे ॥ १८ ॥ जिन लोगोंके कर्म भगवदर्पणबुद्धिसे होते हैं और जिनका सारा समय मेरी कथावार्ताओंमें ही बीतता है, वे गृहस्थाश्रममें रहें तो भी घर उनके बन्धनका कारण नहीं होते ॥ १९ ॥ वे नित्यप्रति मेरी लीलाएँ सुनते रहते हैं, इसलिये ब्रह्मवादी वक्ताओंके द्वारा मैं ज्ञान-स्वरूप परब्रह्म उनके हृदयमें नित्य नया-नया-सा भासता रहता हूँ और मुझे प्राप्त कर लेनेपर जीवोंको न मोह हो सकता है, न शोक और न हर्ष ही ॥ २० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

मैत्रेय उवाच -
एवं ब्रुवाणं पुरुषार्थभाजनं
     जनार्दनं प्राञ्जलयः प्रचेतसः ।
तद्दर्शनध्वस्ततमोरजोमला
     गिरागृणन् गद्‍गदया सुहृत्तमम् ॥ २१ ॥

प्रचेतस ऊचुः -
नमो नमः क्लेशविनाशनाय
     निरूपितोदारगुणाह्वयाय ।
मनोवचोवेगपुरोजवाय
     सर्वाक्षमार्गैरगताध्वने नमः ॥ २२ ॥
शुद्धाय शान्ताय नमः स्वनिष्ठया
     मनस्यपार्थं विलसद्द्वयाय ।
नमो जगत्स्थानलयोदयेषु
     गृहीतमायागुणविग्रहाय ॥ २३ ॥
नमो विशुद्धसत्त्वाय हरये हरिमेधसे ।
वासुदेवाय कृष्णाय प्रभवे सर्वसात्वताम् ॥ २४ ॥
नमः कमलनाभाय नमः कमलमालिने ।
नमः कमलपादाय नमस्ते कमलेक्षण ॥ २५ ॥
नमः कमलकिञ्जल्क पिशङ्‌गामलवाससे ।
सर्वभूतनिवासाय नमोऽयुङ्‌क्ष्महि साक्षिणे ॥ २६ ॥
रूपं भगवता त्वेतद् अशेषक्लेशसङ्‌क्षयम् ।
आविष्कृतं नः क्लिष्टानां किं अन्यद् अनुकंपितम् ॥ २७ ॥
एतावत्त्वं हि विभुभिः भाव्यं दीनेषु वत्सलैः ।
यदनुस्मर्यते काले स्वबुद्ध्याभद्ररन्धन ॥ २८ ॥
येनोपशान्तिर्भूतानां क्षुल्लकानामपीहताम् ।
अन्तर्हितोऽन्तर्हृदये कस्मान्नो वेद नाशिषः ॥ २९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंभगवान्‌के दर्शनोंसे प्रचेताओंका रजोगुण-तमोगुण मल नष्ट हो चुका था। जब उनसे सकल पुरुषार्थोंके आश्रय और सबके परम सुहृद् श्रीहरिने इस प्रकार कहा, तब वे हाथ जोडक़र गद्गदवाणीसे कहने लगे ॥ २१ ॥

प्रचेताओंने कहाप्रभो ! आप भक्तोंके क्लेश दूर करनेवाले हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं। वेद आपके उदार गुण और नामोंका निरूपण करते हैं। आपका वेग मन और वाणीके वेगसे भी बढक़र है तथा आपका स्वरूप सभी इन्द्रियोंकी गतिसे परे है। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ २२ ॥ आप अपने स्वरूपमें स्थित रहनेके कारण नित्य शुद्ध और शान्त हैं, मनरूप निमित्तके कारण हमें आपमें यह मिथ्या द्वैत भास रहा है। वास्तवमें जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये आप मायाके गुणोंको स्वीकार करके ही ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूप धारण करते हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २३ ॥ आप विशुद्ध सत्त्वस्वरूप हैं, आपका ज्ञान संसारबन्धनको दूर कर देता है। आप ही समस्त भागवतोंके प्रभु वसुदेवनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं, आपको नमस्कार है ॥ २४ ॥ आपकी ही नाभिसे ब्रह्माण्डरूप कमल प्रकट हुआ था, आपके कण्ठमें कमलकुसुमोंकी माला सुशोभित है तथा आपके चरण कमलके समान कोमल हैं; कमलनयन ! आपको नमस्कार है ॥ २५ ॥ आप कमलकुसुमकी केसरके समान स्वच्छ पीताम्बर धारण किये हुए हैं, समस्त भूतोंके आश्रयस्थान हैं तथा सबके साक्षी हैं; हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥
भगवन् ! आपका यह स्वरूप सम्पूर्ण क्लेशोंकी निवृत्ति करनेवाला है; हम अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेषादि क्लेशोंसे पीडि़तोंके सामने आपने इसे प्रकट किया है। इससे बढक़र हमपर और क्या कृपा होगी ॥ २७ ॥ अमङ्गलहारी प्रभो ! दीनोंपर दया करनेवाले समर्थ पुरुषोंको इतनी ही कृपा करनी चाहिये कि समय-समयपर उन दीनजनोंको ये हमारे हैंइस प्रकार स्मरण कर लिया करें ॥ २८ ॥ इसीसे उनके आश्रितोंका चित्त शान्त हो जाता है। आप तो क्षुद्र-से-क्षुद्र प्राणियोंके भी अन्त:करणोंमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान रहते हैं। फिर आपके उपासक हमलोग जो-जो कामनाएँ करते हैं, हमारी उन कामनाओंको आप क्यों न जान लेंगे ॥ २९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

असौ एव वरोऽस्माकं ईप्सितो जगतः पते ।
प्रसन्नो भगवान्येषां अपवर्गः गुरुर्गतिः ॥ ३० ॥
वरं वृणीमहेऽथापि नाथ त्वत्परतः परात् ।
न ह्यन्तस्त्वद् विभूतीनां सोऽनन्त इति गीयसे ॥ ३१ ॥
पारिजातेऽञ्जसा लब्धे सारङ्‌गोऽन्यन्न सेवते ।
त्वदङ्‌घ्रिमूलमासाद्य साक्षात्किं किं वृणीमहि ॥ ३२ ॥
यावत्ते मायया स्पृष्टा भ्रमाम इह कर्मभिः ।
तावद्‍भवत् प्रसङ्‌गानां सङ्‌गः स्यान्नो भवे भवे ॥ ३३ ॥
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं न अपुनर्भवम् ।
भगवत् सङ्‌गिसङ्‌गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ ३४ ॥
यत्रेड्यन्ते कथा मृष्टाः तृष्णायाः प्रशमो यतः ।
निर्वैरं यत्र भूतेषु नोद्वेगो यत्र कश्चन ॥ ३५ ॥
यत्र नारायणः साक्षाद् भगवान् न्यासिनां गतिः ।
संस्तूयते सत्कथासु मुक्तसङ्‌गैः पुनः पुनः ॥ ३६ ॥
तेषां विचरतां पद्‍भ्यां तीर्थानां पावनेच्छया ।
भीतस्य किं न रोचेत तावकानां समागमः ॥ ३७ ॥

(प्रचेता स्तुति कर रहे  हैं) जगदीश्वर ! आप मोक्षका मार्ग दिखानेवाले और स्वयं पुरुषार्थस्वरूप हैं । आप हमपर प्रसन्न हैं, इससे बढक़र हमें और क्या चाहिये। बस, हमारा अभीष्ट वर तो आपकी प्रसन्नता ही है ॥ ३० ॥ तथापि, नाथ ! हम एक वर आपसे अवश्य माँगते हैं। प्रभो ! आप प्रकृति आदिसे परे हैं और आपकी विभूतियोंका भी कोई अन्त नहीं है; इसलिये आप अनन्तकहे जाते हैं ॥ ३१ ॥ यदि भ्रमरको अनायास ही कल्पवृक्ष मिल जाय, तो क्या वह किसी दूसरे वृक्षका सेवन करेगा ? तब आपकी चरणशरणमें आकर अब हम क्या-क्या माँगें ॥ ३२ ॥ हम आपसे केवल यही माँगते हैं कि जबतक आपकी मायासे मोहित होकर हम अपने कर्मानुसार संसारमें भ्रमते रहें, तबतक जन्म-जन्ममें हमें आपके प्रेमी भक्तोंका सङ्ग प्राप्त होता रहे ॥ ३३ ॥ हम तो भगवद्भक्तोंके क्षणभरके सङ्गके सामने स्वर्ग और मोक्षको भी कुछ नहीं समझते; फिर मानवी भोगोंकी तो बात ही क्या है ॥ ३४ ॥ भगवद्भक्तोंके समाजमें सदा-सर्वदा भगवान्‌की मधुर-मधुर कथाएँ होती रहती हैं, जिनके श्रवणमात्रसे भोगतृष्णा शान्त हो जाती है। वहाँ प्राणियोंमें किसी प्रकारका वैर-विरोध या उद्वेग नहीं रहता ॥ ३५ ॥ अच्छे- अच्छे कथा-प्रसङ्गोंद्वारा निष्कामभावसे संन्यासियोंके एकमात्र आश्रय साक्षात् श्रीनारायणदेवका बार-बार गुणगान होता रहता है ॥ ३६ ॥ आपके वे भक्तजन तीर्थोंको पवित्र करनेके उद्देश्यसे पृथ्वीपर पैदल ही विचरते रहते हैं। भला, उनका समागम संसारसे भयभीत हुए पुरुषोंको कैसे रुचिकर न होगा ॥ ३७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

वयं तु साक्षाद्‍भगवन् भवस्य
     प्रियस्य सख्युः क्षणसङ्‌गमेन ।
सुदुश्चिकित्स्यस्य भवस्य मृत्योः
     भिषक्तमं त्वाद्य गतिं गताः स्म ॥ ३८ ॥
यन्नः स्वधीतं गुरवः प्रसादिता
     विप्राश्च वृद्धाश्च सदानुवृत्त्या ।
आर्या नताः सुहृदो भ्रातरश्च
     सर्वाणि भूतान्यनसूययैव ॥ ३९ ॥
यन्नः सुतप्तं तप एतदीश
     निरन्धसां कालमदभ्रमप्सु ।
सर्वं तदेतत्पुरुषस्य भूम्नो
     वृणीमहे ते परितोषणाय ॥ ४० ॥
मनुः स्वयम्भूर्भगवान् भवश्च
     येऽन्ये तपोज्ञानविशुद्धसत्त्वाः ।
अदृष्टपारा अपि यन्महिम्नः
     स्तुवन्त्यथो त्वात्मसमं गृणीमः ॥ ४१ ॥
नमः समाय शुद्धाय पुरुषाय पराय च ।
वासुदेवाय सत्त्वाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ ४२ ॥

(प्रचेता स्तुति कर रहे हैं) भगवन् ! आपके प्रिय सखा भगवान्‌ शङ्करके क्षणभरके समागमसे ही आज हमें आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ है। आप जन्म-मरणरूप दु:साध्य रोगके श्रेष्ठतम वैद्य हैं, अत: अब हमने आपका ही आश्रय लिया है ॥ ३८ ॥ प्रभो ! हमने समाहित चित्तसे जो कुछ अध्ययन किया है, निरन्तर सेवा-शुश्रूषा करके गुरु, ब्राह्मण और वृद्धजनोंको प्रसन्न किया है तथा दोषबुद्धि त्यागकर श्रेष्ठ पुरुष, सुहृद्गण, बन्धुवर्ग एवं समस्त प्राणियोंकी वन्दना की है और अन्नादिको त्यागकर दीर्घकालतक जलमें खड़े रहकर तपस्या की है, वह सब आप सर्वव्यापक पुरुषोत्तमके सन्तोषका कारण होयही वर माँगते हैं ॥ ३९-४० ॥ स्वामिन् ! आपकी महिमाका पार न पाकर भी स्वायम्भुव मनु, स्वयं ब्रह्माजी, भगवान्‌ शङ्कर तथा तप और ज्ञानसे शुद्धचित्त हुए अन्य पुरुष निरन्तर आपकी स्तुति करते रहते हैं। अत: हम भी अपनी बुद्धिके अनुसार आपका यशोगान करते हैं ॥ ४१ ॥ आप सर्वत्र समान शुद्ध स्वरूप और परम पुरुष हैं। आप सत्त्वमूर्ति भगवान्‌ वासुदेवको हम नमस्कार करते हैं ॥ ४२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध –तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

मैत्रेय उवाच -
इति प्रचेतोभिरभिष्टुतो हरिः
     प्रीतस्तथेत्याह शरण्यवत्सलः ।
अनिच्छतां यान् अमतृप्तचक्षुषां
     ययौ स्वधामानपवर्गवीर्यः ॥ ४३ ॥
अथ निर्याय सलिलात् प्रचेतस उदन्वतः ।
वीक्ष्याकुप्यन् द्रुमैश्छन्नां गां गां रोद्धुः इवोच्छ्रितैः ॥ ४४ ॥
ततोऽग्निमारुतौ राजन् अमुञ्चन्मुखतो रुषा ।
महीं निर्वीरुधं कर्तुं संवर्तक इवात्यये ॥ ४५ ॥
भस्मसात् क्रियमाणान् तान् द्रुमान् वीक्ष्य पितामहः ।
आगतः शमयामास पुत्रान् बर्हिष्मतो नयैः ॥ ४६ ॥
तत्रावशिष्टा ये वृक्षा भीता दुहितरं तदा ।
उज्जह्रुस्ते प्रचेतोभ्य उपदिष्टाः स्वयम्भुवा ॥ ४७ ॥
ते च ब्रह्मण आदेशान् मारिषामुपयेमिरे ।
यस्यां महदवज्ञानाद् अजन्यजनयोनिजः ॥ ४८ ॥
चाक्षुषे त्वन्तरे प्राप्ते प्राक्सर्गे कालविद्रुते ।
यः ससर्ज प्रजा इष्टाः स दक्षो दैवचोदितः ॥ ४९ ॥
यो जायमानः सर्वेषां तेजस्तेजस्विनां रुचा ।
स्वयोपादत्त दाक्ष्याच्च कर्मणां दक्षमब्रुवन् ॥ ५० ॥
तं प्रजासर्गरक्षायां अनादिरभिषिच्य च ।
युयोज युयुजेऽन्यांश्च स वै सर्वप्रजापतीन् ॥ ५१ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! प्रचेताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर शरणागतवत्सल श्रीभगवान्‌ने प्रसन्न होकर कहा—‘तथास्तु। अप्रतिहतप्रभाव श्रीहरिकी मधुर मूर्तिके दर्शनोंसे अभी प्रचेताओंके नेत्र तृप्त नहीं हुए थे, इसलिये वे उन्हें जाने देना नहीं चाहते थे; तथापि वे अपने परमधामको चले गये ॥ ४३ ॥ इसके पश्चात् प्रचेताओंने समुद्रके जलसे बाहर निकलकर देखा कि सारी पृथ्वीको ऊँचे-ऊँचे वृक्षोंने ढक दिया है, जो मानो स्वर्गका मार्ग रोकनेके लिये ही इतने बढ़ गये थे। यह देखकर वे वृक्षोंपर बड़े कुपित हुए ॥ ४४ ॥ तब उन्होंने पृथ्वीको वृक्ष, लता आदिसे रहित कर देनेके लिये अपने मुखसे प्रचण्ड वायु और अग्रिको छोड़ा, जैसे कालाग्रिरुद्र प्रलयकालमें छोड़ते हैं ॥ ४५ ॥ जब ब्रह्माजीने देखा कि वे सारे वृक्षोंको भस्म कर रहे हैं, तब वे वहाँ आये और प्राचीनबर्हिके पुत्रोंको उन्होंने युक्तिपूर्वक समझाकर शान्त किया ॥ ४६ ॥ फिर जो कुछ वृक्ष वहाँ बचे थे, उन्होंने डरकर ब्रह्माजीके कहनेसे वह कन्या लाकर प्रचेताओंको दी ॥ ४७ ॥ प्रचेताओंने भी ब्रह्माजीके आदेशसे उस मारिषा नामकी कन्यासे विवाह कर लिया। इसीके गर्भसे ब्रह्माजीके पुत्र दक्षने, श्रीमहादेवजीकी अवज्ञाके कारण अपना पूर्वशरीर त्यागकर जन्म लिया ॥ ४८ ॥ इन्हीं दक्षने चाक्षुष मन्वन्तर आनेपर, जब कालक्रमसे पूर्वसर्ग नष्ट हो गया, भगवान्‌की प्रेरणासे इच्छानुसार नवीन प्रजा उत्पन्न की ॥ ४९ ॥ इन्होंने जन्म लेते ही अपनी कान्तिसे समस्त तेजस्वियोंका तेज छीन लिया। ये कर्म करनेमें बड़े दक्ष (कुशल) थे, इसीसे इनका नाम दक्षहुआ ॥ ५० ॥ इन्हें ब्रह्माजीने प्रजापतियोंके नायकके पदपर अभिषिक्त कर सृष्टिकी रक्षाके लिये नियुक्त किया और इन्होंने मरीचि आदि दूसरे प्रजापतियोंको अपने-अपने कार्यमें नियुक्त किया ॥ ५१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे प्राचेतसे चरिते त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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