सोमवार, 11 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

मैत्रेय उवाच –

विजिताश्वोऽधिराजासीत् पृथुपुत्रः पृथुश्रवाः ।
यवीयोभ्योऽददात्काष्ठा भ्रातृभ्यो भ्रातृवत्सलः ॥ १ ॥
हर्यक्षायादिशत्प्राचीं धूम्रकेशाय दक्षिणाम् ।
प्रतीचीं वृकसंज्ञाय तुर्यां द्रविणसे विभुः ॥ २ ॥
अन्तर्धानगतिं शक्रात् लब्ध्वान्तर्धानसंज्ञितः ।
अपत्यत्रयमाधत्त शिखण्डिन्यां सुसम्मतम् ॥ ३ ॥
पावकः पवमानश्च शुचिरित्यग्नयः पुरा ।
वसिष्ठशापात् उत्पन्नाः पुनर्योगगतिं गताः ॥ ४ ॥
अन्तर्धानो नभस्वत्यां हविर्धानमविन्दत ।
य इन्द्रं अश्वहर्तारं विद्वानपि न जघ्निवान् ॥ ५ ॥
राज्ञां वृत्तिं करादान दण्डशुल्कादिदारुणाम् ।
मन्यमानो दीर्घसत्र व्याजेन विससर्ज ह ॥ ६ ॥
तत्रापि हंसं पुरुषं परमात्मानमात्मदृक् ।
यजन् तल्लोकतामाप कुशलेन समाधिना ॥ ७ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! महाराज पृथुके बाद उनके पुत्र परम यशस्वी विजिताश्व राजा हुए। उनका अपने छोटे भाइयोंपर बड़ा स्नेह था, इसलिये उन्होंने चारोंको एक-एक दिशाका अधिकार सौंप दिया ॥ १ ॥ राजा विजिताश्वने हर्यक्षको पूर्व, धूम्रकेशको दक्षिण, वृकको पश्चिम और द्रविणको उत्तर दिशाका राज्य दिया ॥ २ ॥ उन्होंने इन्द्रसे अन्तर्धान होनेकी शक्ति प्राप्त की थी, इसलिये उन्हें अन्तर्धानभी कहते थे। उनकी पत्नीका नाम शिखण्डिनी था। उससे उनके तीन सुपुत्र हुए ॥ ३ ॥ उनके नाम पावक, पवमान और शुचि थे। पूर्वकालमें वसिष्ठजीका शाप होनेसे उपर्युक्त नामके अग्रियोंने ही उनके रूपमें जन्म लिया था। आगे चलकर योगमार्गसे ये फिर अग्निरूप हो गये ॥ ४ ॥
अन्तर्धानके नभस्वती नामकी पत्नीसे एक और पुत्र-रत्न हविर्धान प्राप्त हुआ। महाराज अन्तर्धान बड़े उदार पुरुष थे। जिस समय इन्द्र उनके पिताके अश्वमेध-यज्ञका घोड़ा हरकर ले गये थे, उन्होंने पता लग जानेपर भी उनका वध नहीं किया था ॥ ५ ॥ राजा अन्तर्धानने कर लेना, दण्ड देना, जुरमाना वसूल करना आदि कर्तव्योंको बहुत कठोर एवं दूसरोंके लिये कष्टदायक समझकर एक दीर्घकालीन यज्ञमें दीक्षित होनेके बहाने अपना राज-काज छोड़ दिया ॥ ६ ॥ यज्ञकार्यमें लगे रहनेपर भी उन आत्मज्ञानी राजाने भक्तभयभञ्जन पूर्णतम परमात्माकी आराधना करके सुदृढ़ समाधिके द्वारा भगवान्‌के दिव्य लोकको प्राप्त किया ॥ ७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

हविर्धानाद् हविर्धानी विदुरासूत षट् सुतान् ।
बर्हिषदं गयं शुक्लं कृष्णं सत्यं जितव्रतम् ॥ ८ ॥
बर्हिषत् सुमहाभागो हाविर्धानिः प्रजापतिः ।
क्रियाकाण्डेषु निष्णातो योगेषु च कुरूद्वह ॥ ९ ॥
यस्येदं देवयजनं अनु यज्ञं वितन्वतः ।
प्राचीनाग्रैः कुशैरासीद् आस्तृतं वसुधातलम् ॥ १० ॥
सामुद्रीं देवदेवोक्तां उपयेमे शतद्रुतिम् ।
यां वीक्ष्य चारुसर्वाङ्‌गीं किशोरीं सुष्ठ्वलङ्‌कृताम् ॥ ११ ॥
परिक्रमन्तीं उद्वाहे चकमेऽग्निः शुकीमिव ॥ ११ ॥
विबुधासुरगन्धर्व मुनिसिद्धनरोरगाः ।
विजिताः सूर्यया दिक्षु क्वणयन्त्यैव नूपुरैः ॥ १२ ॥
प्राचीनबर्हिषः पुत्राः शतद्रुत्यां दशाभवन् ।
तुल्यनामव्रताः सर्वे धर्मस्नाताः प्रचेतसः ॥ १३ ॥
पित्राऽऽदिष्टाः प्रजासर्गे तपसेऽर्णवमाविशन् ।
दशवर्षसहस्राणि तपसाऽऽर्चन् तपस्पतिम् ॥ १४ ॥
यदुक्तं पथि दृष्टेन गिरिशेन प्रसीदता ।
तद्ध्यायन्तो जपन्तश्च पूजयन्तश्च संयताः ॥ १५ ॥

विदुरजी ! हविर्धानकी पत्नी हविर्धानी ने बर्हिषद्, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य और जितव्रत नामके छ: पुत्र पैदा किये ॥ ८ ॥ कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ! इनमें हविर्धानके पुत्र महाभाग बर्हिषद् यज्ञादि कर्मकाण्ड और योगाभ्यासमें कुशल थे। उन्होंने प्रजापतिका पद प्राप्त किया ॥ ९ ॥ उन्होंने एक स्थानके बाद दूसरे स्थानमें लगातार इतने यज्ञ किये कि यह सारी भूमि पूर्वकी ओर अग्रभाग करके फैलाये हुए कुशोंसे पट गयी थी। (इसीसे आगे चलकर वे प्राचीनबर्हिनामसे विख्यात हुए) ॥ १० ॥
राजा प्राचीनबर्हिने ब्रह्माजीके कहनेसे समुद्रकी कन्या शतद्रुतिसे विवाह किया था। सर्वाङ्गसुन्दरी किशोरी शतद्रुति सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे सजधजकर विवाह-मण्डपमें जब भाँवर देनेके लिये घूमने लगी, तब स्वयं अग्रिदेव भी मोहित होकर उसे वैसे ही चाहने लगे जैसे शुकीको चाहा था ॥ ११ ॥ नवविवाहिता शतद्रुतिने अपने नूपुरोंकी झनकारसे ही दिशा-विदिशाओंके देवता, असुर, गन्धर्व, मुनि, सिद्ध, मनुष्य और नागसभीको वशमें कर लिया था ॥ १२ ॥ शतद्रुतिके गर्भसे प्राचीनबर्हिके प्रचेता नामके दस पुत्र हुए। वे सब बड़े ही धर्मज्ञ तथा एक-से नाम और आचरणवाले थे ॥ १३ ॥ जब पिताने उन्हें सन्तान उत्पन्न करनेका आदेश दिया, तब उन सबने तपस्या करनेके लिये समुद्रमें प्रवेश किया। वहाँ दस हजार वर्षतक तपस्या करते हुए उन्होंने तपका फल देनेवाले श्रीहरिकी आराधना की ॥ १४ ॥ घरसे तपस्या करनेके लिये जाते समय मार्गमें श्रीमहादेवजीने उन्हें दर्शन देकर कृपापूर्वक जिस तत्त्वका उपदेश दिया था, उसीका वे एकाग्रतापूर्वक ध्यान, जप और पूजन करते रहे ॥ १५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

विदुर उवाच –

प्रचेतसां गिरित्रेण यथाऽऽसीत्पथि सङ्‌गमः ।
यदुताह हरः प्रीतः तन्नो ब्रह्मन् वदार्थवत् ॥ १६ ॥
सङ्‌गमः खलु विप्रर्षे शिवेनेह शरीरिणाम् ।
दुर्लभो मुनयो दध्युः असङ्‌गाद्यमभीप्सितम् ॥ १७ ॥
आत्मारामोऽपि यस्त्वस्य लोककल्पस्य राधसे ।
शक्त्या युक्तो विचरति घोरया भगवान् भवः ॥ १८ ॥

मैत्रेय उवाच –

प्रचेतसः पितुर्वाक्यं शिरसाऽऽदाय साधवः ।
दिशं प्रतीचीं प्रययुः तपस्यादृतचेतसः ॥ १९ ॥
ससमुद्रं उप विस्तीर्णं अपश्यन् सुहत्सरः ।
महन्मन इव स्वच्छं प्रसन्नसलिलाशयम् ॥ २० ॥
नीलरक्तोत्पलाम्भोज कह्लारेन्दीवराकरम् ।
हंससारसचक्राह्व कारण्डवनिकूजितम् ॥ २१ ॥
मत्तभ्रमरसौस्वर्य हृष्टरोमलताङ्‌घ्रिपम् ।
पद्मकोशरजो दिक्षु विक्षिपत्पवनोत्सवम् ॥ २२ ॥
तत्र गान्धर्वमाकर्ण्य दिव्यमार्गमनोहरम् ।
विसिस्म्यू राजपुत्रास्ते मृदङ्‌गपणवाद्यनु ॥ २३ ॥
तर्ह्येव सरसस्तस्मान् निष्क्रामन्तं सहानुगम् ।
उपगीयमानममर प्रवरं विबुधानुगैः ॥ २४ ॥
तप्तहेमनिकायाभं शितिकण्ठं त्रिलोचनम् ।
प्रसादसुमुखं वीक्ष्य प्रणेमुर्जातकौतुकाः ॥ २५ ॥
स तान्प्रपन्नार्तिहरो भगवान् धर्मवत्सलः ।
धर्मज्ञान् शीलसम्पन्नान् प्रीतः प्रीतानुवाच ह ॥ २६ ॥

विदुरजीने पूछाब्रह्मन् ! मार्गमें प्रचेताओंका श्रीमहादेवजीके साथ किस प्रकार समागम हुआ और उनपर प्रसन्न होकर भगवान्‌ शङ्करने उन्हें क्या उपदेश किया, वह सारयुक्त बात आप कृपा करके मुझसे कहिये ॥ १६ ॥ ब्रह्मर्षे ! शिवजीके साथ समागम होना तो देहधारियोंके लिये बहुत कठिन है। औरोंकी तो बात ही क्या हैमुनिजन भी सब प्रकारकी आसक्ति छोडक़र उन्हें पानेके लिये उनका निरन्तर ध्यान ही किया करते हैं, किन्तु सहजमें पाते नहीं ॥ १७ ॥ यद्यपि भगवान्‌ शङ्कर आत्माराम हैं, उन्हें अपने लिये न कुछ करना है, न पाना, तो भी इस लोकसृष्टिकी रक्षाके लिये वे अपनी घोररूपा शक्ति (शिवा) के साथ सर्वत्र विचरते रहते हैं ॥ १८ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहाविदुरजी ! साधुस्वभाव प्रचेतागण पिताकी आज्ञा शिरोधार्य कर तपस्यामें चित्त लगा पश्चिमकी ओर चल दिये ॥ १९ ॥ चलते-चलते उन्होंने समुद्रके समान विशाल एक सरोवर देखा। वह महापुरुषोंके चित्तके समान बड़ा ही स्वच्छ था तथा उसमें रहनेवाले मत्स्यादि जलजीव भी प्रसन्न जान पड़ते थे ॥ २० ॥ उसमें नीलकमल, लालकमल, रातमें, दिनमें और सायंकालमें खिलनेवाले कमल तथा इन्दीवर आदि अन्य कई प्रकारके कमल सुशोभित थे। उसके तटोंपर हंस, सारस, चकवा और कारण्डव आदि जलपक्षी चहक रहे थे ॥ २१ ॥ उसके चारों ओर तरह-तरहके वृक्ष और लताएँ थीं, उनपर मतवाले भौंरे गूँज रहे थे। उनकी मधुर ध्वनिसे हर्षित होकर मानो उन्हें रोमाञ्च हो रहा था। कमलकोशके परागपुञ्ज वायुके झकोंरोंसे चारों ओर उड़ रहे थे मानो वहाँ कोई उत्सव हो रहा है ॥ २२ ॥ वहाँ मृदङ्ग, पणव आदि बाजोंके साथ अनेकों दिव्य राग- रागिनियोंके क्रमसे गायनकी मधुर ध्वनि सुनकर उन राजकुमारोंको बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ २३ ॥ इतनेमें ही उन्होंने देखा कि देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर अपने अनुचरोंके सहित उस सरोवरसे बाहर आ रहे हैं। उनका शरीर तपी हुई सुवर्णराशिके समान कान्तिमान् है, कण्ठ नीलवर्ण है तथा तीन विशाल नेत्र हैं। वे अपने भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये उद्यत हैं। अनेकों गन्धर्व उनका सुयश गा रहे हैं। उनका सहसा दर्शन पाकर प्रचेताओंको बड़ा कुतूहल हुआ और उन्होंने शङ्करजीके चरणोंमें प्रणाम किया ॥ २४-२५ ॥ तब शरणागतभयहारी धर्मवत्सल भगवान्‌ शङ्करने अपने दर्शनसे प्रसन्न हुए उन धर्मज्ञ और शीलसम्पन्न राजकुमारोंसे प्रसन्न होकर कहा॥ २६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

श्रीरुद्र उवाच –

यूयं वेदिषदः पुत्रा विदितं वश्चिकीर्षितम् ।
अनुग्रहाय भद्रं व एवं मे दर्शनं कृतम् ॥ २७ ॥
यः परं रंहसः साक्षात् त्रिगुणात् जीवसंज्ञितात् ।
भगवन्तं वासुदेवं प्रपन्नः स प्रियो हि मे ॥ २८ ॥
स्वधर्मनिष्ठः शतजन्मभिः पुमान्
     विरिञ्चतामेति ततः परं हि माम् ।
अव्याकृतं भागवतोऽथ वैष्णवं
     पदं यथाहं विबुधाः कलात्यये ॥ २९ ॥
अथ भागवता यूयं प्रियाः स्थ भगवान् यथा ।
न मद्‍भागवतानां च प्रेयानन्योऽस्ति कर्हिचित् ॥ ३० ॥
इदं विविक्तं जप्तव्यं पवित्रं मङ्‌गलं परम् ।
निःश्रेयसकरं चापि श्रूयतां तद्वदामि वः ॥ ३१ ॥

मैत्रेय उवाच –

इत्यनुक्रोशहृदयो भगवानाह ताञ्छिवः ।
बद्धाञ्जलीन्राजपुत्रान् नारायणपरो वचः ॥ ३२ ॥

श्रीमहादेवजी बोलेतुमलोग राजा प्राचीनबर्हि के पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वह भी मुझे मालूम है। इस समय तुमलोगोंपर कृपा करनेके लिये ही मैंने तुम्हें इस प्रकार दर्शन दिया है ॥ २७ ॥ जो व्यक्ति अव्यक्त प्रकृति तथा जीवसंज्ञक पुरुषइन दोनों के नियामक भगवान्‌ वासुदेव की साक्षात् शरण लेता है, वह मुझे परम प्रिय है ॥ २८ ॥ अपने वर्णाश्रमधर्म का भलीभाँति पालन करने वाला पुरुष सौ जन्म के बाद ब्रह्मा के पद को प्राप्त होता है। और इससे भी अधिक पुण्य होनेपर वह मुझे प्राप्त होता है । परन्तु जो भगवान्‌ का अनन्य भक्त है, वह तो मृत्युके बाद ही सीधे भगवान्‌ विष्णुके उस सर्वप्रपञ्चातीत परमपदको प्राप्त हो जाता है, जिसे रुद्ररूपमें स्थित मैं तथा अन्य आधिकारिक देवता अपने-अपने अधिकारकी समाप्तिके बाद प्राप्त करेंगे ॥ २९ ॥ तुमलोग भगवद्भक्त होनेके नाते मुझे भगवान्‌के समान ही प्यारे हो। इसी प्रकार भगवान्‌के भक्तोंको भी मुझसे बढक़र और कोई कभी प्रिय नहीं होता ॥ ३० ॥ अब मैं तुम्हें एक बड़ा ही पवित्र, मङ्गलमय और कल्याणकारी स्तोत्र सुनाता हूँ। इसका तुमलोग शुद्धभावसे जप करना ॥ ३१ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैंतब नारायणपरायण करुणार्द्रहृदय भगवान्‌ शिवने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उन राजपुत्रोंको यह स्तोत्र सुनाया ॥ ३२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

श्रीरुद्र उवाच –

जितं ते आत्मविद्‌धुर्य स्वस्तये स्वस्तिरस्तु मे ।
भवताराधसा राद्धं सर्वस्मा आत्मने नमः ॥ ३३ ॥
नमः पङ्‌कजनाभाय भूतसूक्ष्मेन्द्रियात्मने ।
वासुदेवाय शान्ताय कूटस्थाय स्वरोचिषे ॥ ३४ ॥
सङ्‌कर्षणाय सूक्ष्माय दुरन्तायान्तकाय च ।
नमो विश्वप्रबोधाय प्रद्युम्नायान्तरात्मने ॥ ३५ ॥
नमो नमोऽनिरुद्धाय हृषीकेशेन्द्रियात्मने ।
नमः परमहंसाय पूर्णाय निभृतात्मने ॥ ३६ ॥
स्वर्गापवर्गद्वाराय नित्यं शुचिषदे नमः ।
नमो हिरण्यवीर्याय चातुर्होत्राय तन्तवे ॥ ३७ ॥
नम ऊर्ज इषे त्रय्याः पतये यज्ञरेतसे ।
तृप्तिदाय च जीवानां नमः सर्वरसात्मने ॥ ३८ ॥
सर्वसत्त्वात्मदेहाय विशेषाय स्थवीयसे ।
नमस्त्रैलोक्यपालाय सह ओजोबलाय च ॥ ३९ ॥
अर्थलिङ्‌गाय नभसे नमोऽन्तर्बहिरात्मने ।
नमः पुण्याय लोकाय अमुष्मै भूरिवर्चसे ॥ ४० ॥
प्रवृत्ताय निवृत्ताय पितृदेवाय कर्मणे ।
नमोऽधर्मविपाकाय मृत्यवे दुःखदाय च ॥ ४१ ॥
नमस्ते आशिषामीश मनवे कारणात्मने ।
नमो धर्माय बृहते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।
पुरुषाय पुराणाय साङ्‌ख्ययोगेश्वराय च ॥ ४२ ॥
शक्तित्रयसमेताय मीढुषेऽहङ्‌कृतात्मने ।
चेतआकूतिरूपाय नमो वाचो विभूतये ॥ ४३ ॥

भगवान्‌ रुद्र स्तुति करने लगेभगवन् ! आपका उत्कर्ष उच्चकोटिके आत्मज्ञानियोंके कल्याणके लियेनिजानन्द लाभके लिये है, उससे मेरा भी कल्याण हो। आप सर्वदा अपने निरतिशय परमानन्द स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं, ऐसे सर्वात्मक आत्मस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ ३३ ॥ आप पद्मनाभ (समस्त लोकोंके आदि कारण) हैं; भूतसूक्ष्म (तन्मात्र) और इन्द्रियोंके नियन्ता, शान्त, एकरस और स्वयंप्रकाश वासुदेव (चित्तके अधिष्ठाता) भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है ॥ ३४ ॥ आप ही सूक्ष्म (अव्यक्त), अनन्त और मुखाग्रिके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंका संहार करनेवाले अहंकारके अधिष्ठाता सङ्कर्षण तथा जगत्के प्रकृष्ट ज्ञानके उद्गमस्थान बुद्धि के अधिष्ठाता प्रद्युम्न हैं; आपको नमस्कार है ॥ ३५ ॥ आप ही इन्द्रियोंके स्वामी मनस्तत्त्व के अधिष्ठाता भगवान्‌ अनिरुद्ध हैं; आपको बार-बार नमस्कार है। आप अपने तेजसे जगत् को व्याप्त करनेवाले सूर्यदेव हैं, पूर्ण होनेके कारण आपमें वृद्धि और क्षय नहीं होता; आपको नमस्कार है ॥ ३६ ॥ आप स्वर्ग और मोक्षके द्वार तथा निरन्तर पवित्र हृदयमें रहनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप ही सुर्वणरूप वीर्यसे युक्त और चातुर्होत्र कर्मके साधन तथा विस्तार करनेवाले अग्रिदेव हैं; आपको नमस्कार है ॥ ३७ ॥ आप पितर और देवताओंके पोषक सोम हैं तथा तीनों वेदोंके अधिष्ठाता हैं; हम आपको नमस्कार करते हैं, आप ही समस्त प्राणियोंको तृप्त करनेवाले सर्वरस (जल) रूप हैं; आपको नमस्कार है ॥ ३८ ॥ आप समस्त प्राणियोंके देह, पृथ्वी और विराट्स्वरूप हैं तथा त्रिलोकीकी रक्षा करनेवाले मानसिक, ऐन्द्रियिक और शारीरिक शक्तिस्वरूप वायु (प्राण) हैं; आपको नमस्कार है ॥ ३९ ॥ आप ही अपने गुण शब्दके द्वारासमस्त पदार्थोंका ज्ञान करानेवाले तथा बाहर-भीतरका भेद करनेवाले आकाश हैं तथा आप ही महान् पुण्योंसे प्राप्त होनेवाले परम तेजोमय स्वर्ग-वैकुण्ठादि लोक हैं; आपको पुन:- पुन: नमस्कार है ॥ ४० ॥ आप पितृलोककी प्राप्ति करानेवाले प्रवृत्ति-कर्मरूप और देवलोककी प्राप्तिके साधन निवृत्तिकर्मरूप हैं तथा आप ही अधर्मके फलरूप दु:खदायक मृत्यु हैं; आपको नमस्कार है ॥ ४१ ॥ नाथ ! आप ही पुराणपुरुष तथा सांख्य और योगके अधीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण हैं; आप सब प्रकारकी कामनाओंकी पूर्तिके कारण, साक्षात् मन्त्रमूर्ति और महान् धर्मस्वरूप हैं; आपकी ज्ञानशक्ति किसी भी प्रकार कुण्ठित होनेवाली नहीं है; आपको नमस्कार है, नमस्कार है ॥ ४२ ॥ आप ही कर्ता, करण और कर्मतीनों शक्तियोंके एकमात्र आश्रय हैं; आप ही अहंकारके अधिष्ठाता रुद्र हैं; आप ही ज्ञान और क्रियास्वरूप हैं तथा आपसे ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरीचार प्रकारकी वाणीकी अभिव्यक्ति होती है; आपको नमस्कार है ॥ ४३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

दर्शनं नो दिदृक्षूणां देहि भागवतार्चितम् ।
रूपं प्रियतमं स्वानां सर्वेन्द्रियगुणाञ्जनम् ॥ ४४ ॥
स्निग्धप्रावृड्घनश्यामं सर्वसौन्दर्यसङ्‌ग्रहम् ।
चार्वायतचतुर्बाहुं सुजातरुचिराननम् ॥ ४५ ॥
पद्मकोशपलाशाक्षं सुन्दरभ्रु सुनासिकम् ।
सुद्विजं सुकपोलास्यं समकर्णविभूषणम् ॥ ४६ ॥
प्रीतिप्रहसितापाङ्‌गं अलकै रूपशोभितम् ।
लसत्पङ्‌कजकिञ्जल्क दुकूलं मृष्टकुण्डलम् ॥ ४७ ॥
स्फुरत्किरीटवलय हारनूपुरमेखलम् ।
शङ्‌खचक्रगदापद्म मालामण्युत्तमर्द्धिमत् ॥ ४८ ॥
सिंहस्कन्धत्विषो बिभ्रत् सौभग ग्रीवकौस्तुभम् ।
श्रियानपायिन्या क्षिप्त निकषाश्मोरसोल्लसत् ॥ ४९ ॥
पूररेचकसंविग्न वलिवल्गुदलोदरम् ।
प्रतिसङ्‌क्रामयद् विश्वं नाभ्यावर्तगभीरया ॥ ५० ॥
श्यामश्रोण्यधिरोचिष्णु दुकूलस्वर्णमेखलम् ।
समचार्वङ्‌घ्रिजङ्‌घोरु निम्नजानुसुदर्शनम् ॥ ५१ ॥
पदा शरत्पद्मपलाशरोचिषा
     नखद्युभिर्नोऽन्तरघं विधुन्वता ।
प्रदर्शय स्वीयमपास्तसाध्वसं
     पदं गुरो मार्गगुरुस्तमोजुषाम् ॥ ५२ ॥

(भगवान रूद्र स्तुति कर रहे हैं) प्रभो ! हमें आपके दर्शनोंकी अभिलाषा है; अत: आपके भक्तजन जिसका पूजन करते हैं और जो आपके निजजनोंको अत्यन्त प्रिय है, अपने उस अनूप रूपकी आप हमें झाँकी कराइये। आपका वह रूप अपने गुणोंसे समस्त इन्द्रियोंको तृप्त करनेवाला है ॥ ४४ ॥ वह वर्षाकालीन मेघके समान स्निग्ध श्याम और सम्पूर्ण सौन्दर्योंका सार-सर्वस्व है। सुन्दर चार विशाल भुजाएँ, महामनोहर मुखारविन्द, कमलदलके समान नेत्र, सुन्दर भौंहें, सुघड़ नासिका, मनमोहिनी दन्तपंक्ति, अमोल- कपोलयुक्त मनोहर मुखमण्डल और शोभाशाली समान कर्णयुगल हैं ॥ ४५-४६ ॥ प्रीतिपूर्ण उन्मुक्त हास्य, तिरछी चितवन, काली-काली घुँघराली अलकें, कमलकुसुमकी केसरके समान फहराता हुआ पीताम्बर, झिलमिलाते हुए कुण्डल, चमचमाते हुए मुकुट, कङ्कण, हार, नूपुर और मेखला आदि विचित्र आभूषण तथा शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, वनमाला और कौस्तुभमणिके कारण उसकी अपूर्व शोभा है ॥ ४७-४८ ॥ उसके सिंहके समान स्थूल कंधे हैंजिनपर हार, केयूर एवं कुण्डलादिकी कान्ति झिलमिलाती रहती हैतथा कौस्तुभमणिकी कान्तिसे सुशोभित मनोहर ग्रीवा है। उसका श्यामल वक्ष:स्थल श्रीवत्सचिह्नके रूपमें लक्ष्मीजीका नित्य निवास होनेके कारण कसौटीकी शोभाको भी मात करता है ॥ ४९ ॥ उसका त्रिवलीसे सुशोभित, पीपलके पत्तेके समान सुडौल उदर श्वासके आने-जानेसे हिलता हुआ बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है। उसमें जो भँवरके समान चक्करदार नाभि है, वह इतनी गहरी है कि उससे उत्पन्न हुआ यह विश्व मानो फिर उसीमें लीन होना चाहता है ॥ ५० ॥ श्यामवर्ण कटिभागमें पीताम्बर और सुवर्णकी मेखला शोभायमान है। समान और सुन्दर चरण, ङ्क्षपडली, जाँघ और घुटनोंके कारण आपका दिव्य विग्रह बड़ा ही सुघड़ जान पड़ता है ॥ ५१ ॥ आपके चरणकमलोंकी शोभा शरद् ऋतुके कमल-दलकी कान्तिका भी तिरस्कार करती है। उनके नखोंसे जो प्रकाश निकलता है, वह जीवोंके हृदयान्धकारको तत्काल नष्ट कर देता है। हमें आप कृपा करके भक्तोंके भयहारी एवं आश्रयस्वरूप उसी रूपका दर्शन कराइये। जगद्गुरो ! हम अज्ञानावृत प्राणियोंको अपनी प्राप्तिका मार्ग बतलानेवाले आप ही हमारे गुरु हैं ॥ ५२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

एतद् रूपमनुध्येयं आत्मशुद्धिमभीप्सताम् ।
यद्‍भक्तियोगोऽभयदः स्वधर्ममनुतिष्ठताम् ॥ ५३ ॥
भवान् भक्तिमता लभ्यो दुर्लभः सर्वदेहिनाम् ।
स्वाराज्यस्याप्यभिमत एकान्तेनात्मविद्‍गतिः ॥ ५४ ॥
तं दुराराध्यमाराध्य सतामपि दुरापया ।
एकान्तभक्त्या को वाञ्छेत् पादमूलं विना बहिः ॥ ५५ ॥
यत्र निर्विष्टमरणं कृतान्तो नाभिमन्यते ।
विश्वं विध्वंसयन् वीर्य शौर्यविस्फूर्जितभ्रुवा ॥ ५६ ॥
क्षणार्धेनापि तुलये न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
भगवत् सङ्‌गिसङ्‌गस्य मर्त्यानां किमुताशिषः ॥ ५७ ॥
अथानघाङ्‌घ्रेस्तव कीर्तितीर्थयोः
     अन्तर्बहिःस्नानविधूतपाप्मनाम् ।
भूतेष्वनुक्रोशसुसत्त्वशीलिनां
     स्यात्सङ्‌गमोऽनुग्रह एष नस्तव ॥ ५८ ॥
न यस्य चित्तं बहिरर्थविभ्रमं
     तमोगुहायां च विशुद्धमाविशत् ।
यद्‍भक्तियोगानुगृहीतमञ्जसा
     मुनिर्विचष्टे ननु तत्र ते गतिम् ॥ ५९ ॥
यत्रेदं व्यज्यते विश्वं विश्वस्मिन् अवभाति यत् ।
तत्त्वं ब्रह्म परं ज्योतिः आकाशमिव विस्तृतम् । ॥ ६० ॥

(भगवान रूद्र स्तुति कर रहे हैं) प्रभो ! चित्तशुद्धिकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको आपके इस रूपका निरन्तर ध्यान करना चाहिये; इसकी भक्ति ही स्वधर्मका पालन करनेवाले पुरुषको अभय करनेवाली है ॥ ५३ ॥ स्वर्गका शासन करनेवाला इन्द्र भी आपको ही पाना चाहता है तथा विशुद्ध आत्मज्ञानियोंकी गति भी आप ही हैं। इस प्रकार आप सभी देहधारियोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं; केवल भक्तिमान् पुरुष ही आपको पा सकते हैं ॥ ५४ ॥ सत्पुरुषोंके लिये भी दुर्लभ अनन्य भक्तिसे भगवान्‌को प्रसन्न करके, जिनकी प्रसन्नता किसी अन्य साधनासे दु:साध्य है, ऐसा कौन होगा जो उनके चरणतलके अतिरिक्त और कुछ चाहेगा ॥ ५५ ॥ जो काल अपने अदम्य उत्साह और पराक्रमसे फडक़ती हुए भौंहके इशारेसे सारे संसारका संहार कर डालता है, वह भी आपके चरणोंकी शरणमें गये हुए प्राणीपर अपना अधिकार नहीं मानता ॥ ५६ ॥ ऐसे भगवान्‌के प्रेमी भक्तोंका यदि आधे क्षणके लिये भी समागम हो जाय तो उसके सामने मैं स्वर्ग और मोक्षको कुछ नहीं समझता; फिर मृत्युलोक के तुच्छ भोगोंकी तो बात ही क्या है ॥ ५७ ॥ प्रभो ! आपके चरण सम्पूर्ण पापराशिको हर लेनेवाले हैं। हम तो केवल यही चाहते हैं कि जिन लोगोंने आपकी कीर्ति और तीर्थ (गङ्गाजी) में आन्तरिक और बाह्य स्नान करके मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकारके पापोंको धो डाला है तथा जो जीवोंके प्रति दया, राग-द्वेषरहित चित्त तथा सरलता आदि गुणोंसे युक्त हैं, उन आपके भक्तजनोंका सङ्ग हमें सदा प्राप्त होता रहे। यही हमपर आपकी बड़ी कृपा होगी ॥ ५८ ॥ जिस साधकका चित्त भक्तियोगसे अनुगृहीत एवं विशुद्ध होकर न तो बाह्य विषयोंमें भटकता है और न अज्ञान-गुहारूप प्रकृतिमें ही लीन होता है, वह अनायास ही आपके स्वरूपका दर्शन पा जाता है ॥ ५९ ॥ जिसमें यह सारा जगत् दिखायी देता है और जो स्वयं सम्पूर्ण जगत् में भास रहा है, वह आकाशके समान विस्तृत और परम प्रकाशमय ब्रह्मतत्त्व आप ही हैं ॥ ६० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

यो माययेदं पुरुरूपयासृजद्
     बिभर्ति भूयः क्षपयत्यविक्रियः ।
यद्‍भेदबुद्धिः सदिवात्मदुःस्थया
     त्वमात्मतन्त्रं भगवन्प्रतीमहि । ॥ ६१ ॥
क्रियाकलापैरिदमेव योगिनः
     श्रद्धान्विताः साधु यजन्ति सिद्धये ।
भूतेन्द्रियान्तःकरणोपलक्षितं
     वेदे च तन्त्रे च ते एव कोविदाः । ॥ ६२ ॥
त्वमेक आद्यः पुरुषः सुप्तशक्तिः
     तया रजःसत्त्वतमो विभिद्यते ।
महानहं खं मरुदग्निवार्धराः
     सुरर्षयो भूतगणा इदं यतः । ॥ ६३ ॥
सृष्टं स्वशक्त्येदमनुप्रविष्टः
     चतुर्विधं पुरमात्मांशकेन ।
अथो विदुस्तं पुरुषं सन्तमन्तः
     भुङ्‌क्ते हृषीकैर्मधु सारघं यः । ॥ ६४ ॥

(भगवान रूद्र स्तुति कर रहे हैं) भगवन् ! आपकी माया अनेक प्रकारके रूप धारण करती है। इसीके द्वारा आप इस प्रकार जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं जैसे यह कोई सद्वस्तु हो। किन्तु इससे आपमें किसी प्रकारका विकार नहीं आता। मायाके कारण दूसरे लोगोंमें ही भेदबुद्धि उत्पन्न होती है, आप परमात्मापर वह अपना प्रभाव डालनेमें असमर्थ होती है। आपको तो हम परम स्वतन्त्र ही समझते हैं ॥ ६१ ॥ आपका स्वरूप पञ्चभूत, इन्द्रिय और अन्त:करणके प्रेरकरूपसे उपलक्षित होता है। जो कर्मयोगी पुरुष सिद्धि प्राप्त करनेके लिये तरह-तरहके कर्मोंद्वारा आपके इस सगुण साकार स्वरूपका श्रद्धापूर्वक भलीभाँति पूजन करते हैं, वे ही वेद और शास्त्रोंके सच्चे मर्मज्ञ हैं ॥ ६२ ॥ प्रभो ! आप ही अद्वितीय आदिपुरुष हैं। सृष्टिके पूर्व आपकी मायाशक्ति सोयी रहती है। फिर उसीके द्वारा सत्त्व, रज और तमरूप गुणोंका भेद होता है और इसके बाद उन्हीं गुणोंसे महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्रि, जल, पृथ्वी, देवता, ऋषि और समस्त प्राणियोंसे युक्त इस जगत् की उत्पत्ति होती है ॥ ६३ ॥ फिर आप अपनी ही मायाशक्तिसे रचे हुए इन जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्जभेदसे चार प्रकारके शरीरोंमें अंशरूपसे प्रवेश कर जाते हैं और जिस प्रकार मधुमक्खियाँ अपने ही उत्पन्न किये हुए मधुका आस्वादन करती हैं, उसी प्रकार वह आपका अंश उन शरीरोंमें रहकर इन्द्रियोंके द्वारा इन तुच्छ विषयोंको भोगता है। आपके उस अंशको ही पुरुष या जीव कहते हैं ॥ ६४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

स एष लोकानतिचण्डवेगो
     विकर्षसि त्वं खलु कालयानः ।
भूतानि भूतैरनुमेयतत्त्वो
     घनावलीर्वायुरिवाविषह्यः । ॥ ६५ ॥
प्रमत्तमुच्चैरिति कृत्यचिन्तया
     प्रवृद्धलोभं विषयेषु लालसम् ।
त्वमप्रमत्तः सहसाभिपद्यसे
     क्षुल्लेलिहानोऽहिरिवाखुमन्तकः । ॥ ६६ ॥
कस्त्वत्पदाब्जं विजहाति पण्डितो
     यस्तेऽवमानव्ययमानकेतनः ।
विशङ्‌कयास्मद्‍गुरुरर्चति स्म यद्
     विनोपपत्तिं मनवश्चतुर्दश । ॥ ६७ ॥
अथ त्वमसि नो ब्रह्मन् परमात्मन् विपश्चिताम् ।
विश्वं रुद्रभयध्वस्तं अकुतश्चिद्‍भया गतिः । ॥ ६८ ॥

(भगवान रूद्र स्तुति कर रहे हैं) प्रभो ! आपका तत्त्वज्ञान प्रत्यक्षसे नहीं अनुमानसे होता है। प्रलयकाल उपस्थित होनेपर कालस्वरूप आप ही अपने प्रचण्ड एवं असह्य वेगसे पृथ्वी आदि भूतोंको अन्य भूतोंसे विचलित कराकर समस्त लोकोंका संहार कर देते हैंजैसे वायु अपने असहनीय एवं प्रचण्ड झोंकोंसे मेघोंके द्वारा ही मेघोंको तितर-बितर करके नष्ट कर डालती है ॥ ६५ ॥ भगवन् ! यह मोहग्रस्त जीव प्रमादवश हर समय इसी चिन्तामें रहता है कि अमुक कार्य करना है। इसका लोभ बढ़ गया है और इसे विषयोंकी ही लालसा बनी रहती है। किन्तु आप सदा ही सजग रहते हैं; भूखसे जीभ लपलपाता हुआ सर्प जैसे चूहेको चट कर जाता है, उसी प्रकार आप अपने कालस्वरूपसे उसे सहसा लील जाते हैं ॥ ६६ ॥ आपकी अवहेलना करनेके कारण अपनी आयुको व्यर्थ माननेवाला ऐसा कौन विद्वान् होगा, जो आपके चरणकमलोंको बिसारेगा ? इनकी पूजा तो कालकी आशङ्कासे ही हमारे पिता ब्रह्माजी और स्वायम्भुव आदि चौदह मनुओंने भी बिना कोई विचार किये केवल श्रद्धासे ही की थी ॥ ६७ ॥ ब्रह्मन् ! इस प्रकार सारा जगत् रुद्ररूप कालके भयसे व्याकुल है। अत: परमात्मन् ! इस तत्त्वको जाननेवाले हमलोगोंके तो इस समय आप ही सर्वथा भयशून्य आश्रय हैं ॥ ६८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान्‌ रुद्रका उपदेश

इदं जपत भद्रं वो विशुद्धा नृपनन्दनाः ।
स्वधर्ममनुतिष्ठन्तो भगवति अर्पिताशयाः । ॥ ६९ ॥
तमेवात्मानमात्मस्थं सर्वभूतेष्ववस्थितम् ।
पूजयध्वं गृणन्तश्च ध्यायन्तश्चासकृद्धरिम् ॥ ७० ॥
योगादेशमुपासाद्य धारयन्तो मुनिव्रताः ।
समाहितधियः सर्व एतदभ्यसतादृताः ॥ ७१ ॥
इदमाह पुरास्माकं भगवान्विश्वसृक्पतिः ।
भृग्वादीनां आत्मजानां सिसृक्षुः संसिसृक्षताम् ॥ ७२ ॥
ते वयं नोदिताः सर्वे प्रजासर्गे प्रजेश्वराः ।
अनेन ध्वस्ततमसः सिसृक्ष्मो विविधाः प्रजाः ॥ ७३ ॥
अथेदं नित्यदा युक्तो जपन् अवहितः पुमान् ।
अचिरात् श्रेय आप्नोति वासुदेवपरायणः ॥ ७४ ॥
श्रेयसामिह सर्वेषां ज्ञानं निःश्रेयसं परम् ।
सुखं तरति दुष्पारं ज्ञाननौर्व्यसनार्णवम् ॥ ७५ ॥
य इमं श्रद्धया युक्तो मद्‍गीतं भगवत्स्तवम् ।
अधीयानो दुराराध्यं हरिं आराधयत्यसौ ॥ ७६ ॥
विन्दते पुरुषोऽमुष्माद् यद्यद् इच्छत्यसत्वरम् ।
मद्‍गीतगीतात्सुप्रीतात् श्रेयसामेकवल्लभात् ॥ ७७ ॥
इदं यः कल्य उत्थाय प्राञ्जलिः श्रद्धयान्वितः ।
शृणुयात् श्रावयेन्मर्त्यो मुच्यते कर्मबन्धनैः ॥ ७८ ॥
गीतं मयेदं नरदेवनन्दनाः
     परस्य पुंसः परमात्मनः स्तवम् ।
जपन्त एकाग्रधियस्तपो महत्
     चरध्वमन्ते तत आप्स्यथेप्सितम् ॥ ७९ ॥

(भगवान रूद्र राजपुत्रों को कह रहे हैं) राजकुमारो ! तुमलोग विशुद्ध भावसे स्वधर्मका आचरण करते हुए भगवान्‌में चित्त लगाकर मेरे कहे हुए इस स्तोत्रका जप करते रहो; भगवान्‌ तुम्हारा मङ्गल करेंगे ॥ ६९ ॥ तुमलोग अपने अन्त:करणमें स्थित उन सर्वभूतान्तर्यामी परमात्मा श्रीहरिका ही बार-बार स्तवन और चिन्तन करते हुए पूजन करो ॥ ७० ॥ मैंने तुम्हें यह योगादेश नामका स्तोत्र सुनाया है। तुमलोग इसे मनसे धारणकर मुनिव्रतका आचरण करते हुए इसका एकाग्रतासे आदरपूर्वक अभ्यास करो ॥ ७१ ॥ यह स्तोत्र पूर्वकालमें जगद्विस्तारके इच्छुक प्रजापतियोंके पति भगवान्‌ ब्रह्माजीने प्रजा उत्पन्न करनेकी इच्छावाले हम भृगु आदि अपने पुत्रोंको सुनाया था ॥ ७२ ॥ जब हम प्रजापतियोंको प्रजाका विस्तार करनेकी आज्ञा हुई, तब इसीके द्वारा हमने अपना अज्ञान निवृत्त करके अनेक प्रकारकी प्रजा उत्पन्न की थी ॥ ७३ ॥ अब भी जो भगवत्परायण पुरुष इसका एकाग्र चित्तसे नित्यप्रति जप करेगा, उसका शीघ्र ही कल्याण हो जायगा ॥ ७४ ॥ इस लोकमें सब प्रकारके कल्याणसाधनोंमें मोक्षदायक ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ है। ज्ञान-नौकापर चढ़ा हुआ पुरुष अनायास ही इस दुस्तर संसार- सागरको पार कर लेता है ॥ ७५ ॥ यद्यपि भगवान्‌की आराधना बहुत कठिन हैकिन्तु मेरे कहे हुए इस स्तोत्रका जो श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, वह सुगमतासे ही उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेगा ॥ ७६ ॥ भगवान्‌ ही सम्पूर्ण कल्याणसाधनोंके एकमात्र प्यारेप्राप्तव्य हैं। अत: मेरे गाये हुए इस स्तोत्रके गानसे उन्हें प्रसन्न करके वह स्थिरचित्त होकर उनसे जो कुछ चाहेगा, प्राप्त कर लेगा ॥ ७७ ॥ जो पुरुष उष:कालमें उठकर इसे श्रद्धापूर्वक हाथ जोडक़र सुनता या सुनाता है, वह सब प्रकारके कर्मबन्धनोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ७८ ॥ राजकुमारो ! मैंने तुम्हें जो यह परमपुरुष परमात्माका स्तोत्र सुनाया है, इसे एकाग्रचित्तसे जपते हुए तुम महान् तपस्या करो। तपस्या पूर्ण होनेपर इसीसे तुम्हें अभीष्ट फल प्राप्त हो जायगा ॥ ७९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे रुद्रगीतं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

राजा पृथु की तपस्या और परलोकगमन

मैत्रेय उवाच –

दृष्ट्वात्मानं प्रवयसं एकदा वैन्य आत्मवान् ।
आत्मना वर्धिताशेष स्वानुसर्गः प्रजापतिः ॥ १ ॥
जगतस्तस्थुषश्चापि वृत्तिदो धर्मभृत्सताम् ।
निष्पादितेश्वरादेशो यदर्थमिह जज्ञिवान् ॥ २ ॥
आत्मजेष्वात्मजां न्यस्य विरहाद् रुदतीमिव ।
प्रजासु विमनःस्वेकः सदारोऽगात्तपोवनम् ॥ ३ ॥
तत्राप्यदाभ्यनियमो वैखानससुसम्मते ।
आरब्ध उग्रतपसि यथा स्वविजये पुरा ॥ ४ ॥
कन्दमूलफलाहारः शुष्कपर्णाशनः क्वचित् ।
अब्भक्षः कतिचित्पक्षान् वायुभक्षस्ततः परम् ॥ ५ ॥
ग्रीष्मे पञ्चतपा वीरो वर्षास्वासारषाण्मुनिः ।
आकण्ठमग्नः शिशिरे उदके स्थण्डिलेशयः ॥ ६ ॥
तितिक्षुर्यतवाग्दान्त ऊर्ध्वरेता जितानिलः ।
आरिराधयिषुः कृष्णं अचरत् तप उत्तमम् ॥ ७ ॥
तेन क्रमानुसिद्धेन ध्वस्तकर्ममलाशयः ।
प्राणायामैः सन्निरुद्ध षड्वर्गश्छिन्नबन्धनः ॥ ८ ॥
सनत्कुमारो भगवान् यदाहाध्यात्मिकं परम् ।
योगं तेनैव पुरुषं अभजत् पुरुषर्षभः ॥ ९ ॥
भगवद्धर्मिणः साधोः श्रद्धया यततः सदा ।
भक्तिर्भगवति ब्रह्मणि अनन्यविषयाभवत् ॥ १० ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंइस प्रकार महामनस्वी प्रजापति पृथु ने स्वयमेव अन्नादि तथा पुर-ग्रामादि सर्गकी व्यवस्था करके स्थावर-जङ्गम सभी की आजीविका का सुभीता कर दिया तथा साधुजनोचित धर्मोंका भी खूब पालन किया। मेरी अवस्था कुछ ढल गयी है और जिसके लिये मैंने इस लोकमें जन्म लिया था, उस प्रजा-रक्षणरूप ईश्वराज्ञाका पालन भी हो चुका है; अत: अब मुझे अन्तिम पुरुषार्थमोक्षके लिये प्रयत्न करना चाहियेयह सोचकर उन्होंने अपने विरहमें रोती हुई अपनी पुत्रीरूपा पृथ्वीका भार पुत्रोंको सौंप दिया और सारी प्रजाको बिलखती छोडक़र वे अपनी पत्नीसहित अकेले ही तपोवनको चल दिये ॥ १३ ॥ वहाँ भी वे वानप्रस्थ आश्रमके नियमानुसार उसी प्रकार कठोर तपस्यामें लग गये, जैसे पहले गृहस्थाश्रममें अखण्ड व्रतपूर्वक पृथ्वीको विजय करनेमें लगे थे ! ॥ ४ ॥ कुछ दिन तो उन्होंने कन्द-मूल-फल खाकर बिताये, कुछ काल सूखे पत्ते खाकर रहे, फिर कुछ पखवाड़ोंतक जलपर ही रहे और इसके बाद केवल वायुसे ही निर्वाह करने लगे ॥ ५ ॥ वीरवर पृथु मुनिवृत्तिसे रहते थे। गॢमयोंमें उन्होंने पञ्चाग्रियोंका सेवन किया, वर्षाऋतुमें खुले मैदानमें रहकर अपने शरीरपर जलकी धाराएँ सहीं और जाड़ेमें गलेतक जलमें खड़े रहे। वे प्रतिदिन मिट्टीकी वेदीपर ही शयन करते थे ॥ ६ ॥ उन्होंने शीतोष्णादि सब प्रकारके द्वन्द्वोंको सहा तथा वाणी और मनका संयम करके ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए प्राणोंको अपने अधीन किया। इस प्रकार श्रीकृष्णकी आराधना करनेके लिये उन्होंने उत्तम तप किया ॥ ७ ॥ इस क्रमसे उनकी तपस्या बहुत पुष्ट हो गयी और उसके प्रभावसे कर्ममल नष्ट हो जानेके कारण उनका चित्त सर्वथा शुद्ध हो गया। प्राणायामोंके द्वारा मन और इन्द्रियोंके निरुद्ध हो जानेसे उनका वासनाजनित बन्धन भी कट गया ॥ ८ ॥ तब, भगवान्‌ सनत्कुमार ने उन्हें जिस परमोत्कृष्ट अध्यात्मयोगकी शिक्षा दी थी, उसीके अनुसार राजा पृथु पुरुषोत्तम श्रीहरिकी आराधना करने लगे ॥ ९ ॥ इस तरह भगवत्परायण होकर श्रद्धापूर्वक सदाचारका पालन करते हुए निरन्तर साधन करनेसे परब्रह्म परमात्मामें उनकी अनन्य भक्ति हो गयी ॥ १० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

राजा पृथु की तपस्या और परलोकगमन

तस्यानया भगवतः परिकर्मशुद्ध
     सत्त्वात्मनस्तदनु संस्मरणानुपूर्त्या ।
ज्ञानं विरक्तिमदभूत् निशितेन येन
     चिच्छेद संशयपदं निजजीवकोशम् ॥ ११ ॥
छिन्नान्यधीरधिगतात्मगतिर्निरीहः
     तत्तत्यजेऽच्छिनदिदं वयुनेन येन ।
तावन्न योगगतिभिर्यतिरप्रमत्तो
     यावद्‍गदाग्रजकथासु रतिं न कुर्यात् ॥ १२ ॥
एवं स वीरप्रवरः संयोज्यात्मानमात्मनि ।
ब्रह्मभूतो दृढं काले तत्याज स्वं कलेवरम् ॥ १३ ॥
सम्पीड्य पायुं पार्ष्णिभ्यां वायुमुत्सारयन् शनैः ।
नाभ्यां कोष्ठेष्ववस्थाप्य हृदुरःकण्ठशीर्षणि ॥ १४ ॥
उत्सर्पयंस्तु तं मूर्ध्नि क्रमेणावेश्य निःस्पृहः ।
वायुं वायौ क्षितौ कायं तेजस्तेजस्ययूयुजत् ॥ १५ ॥
खान्याकाशे द्रवं तोये यथास्थानं विभागशः ।
क्षितिमम्भसि तत्तेजसि अदो वायौ नभस्यमुम् ॥ १६ ॥
इन्द्रियेषु मनस्तानि तन्मात्रेषु यथोद्‍भवम् ।
भूतादिनामून्युत्कृष्य महत्यात्मनि सन्दधे ॥ १७ ॥
तं सर्वगुणविन्यासं जीवे मायामये न्यधात् ।
तं चानुशयमात्मस्थं असावनुशयी पुमान् ।
नानवैराग्यवीर्येण स्वरूपस्थोऽजहात्प्रभुः ॥ १८ ॥

इस प्रकार भगवदुपासना से अन्त:करण शुद्ध सात्त्विक हो जानेपर निरन्तर भगवच्चिन्तनके प्रभावसे प्राप्त हुई इस अनन्य भक्तिसे उन्हें वैराग्यसहित ज्ञानकी प्राप्ति हुई और फिर उस तीव्र ज्ञानके द्वारा उन्होंने जीवके उपाधिभूत अहंकारको नष्ट कर दिया, जो सब प्रकारके संशय-विपर्यय का आश्रय है ॥ ११ ॥ इसके पश्चात् देहात्मबुद्धि की निवृत्ति और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण की अनुभूति होने पर अन्य सब प्रकार की सिद्धि आदि से भी उदासीन हो जाने के कारण उन्होंने उस तत्त्वज्ञान के लिये भी प्रयत्न करना छोड़ दिया, जिसकी सहायतासे पहले अपने जीवकोशका नाश किया था, क्योंकि जबतक साधकको योगमार्ग के द्वारा श्रीकृष्ण-कथामृतमें अनुराग नहीं होता, तबतक केवल योगसाधनासे उसका मोहजनित प्रमाद दूर नहीं होताभ्रम नहीं मिटता ॥ १२ ॥ फिर जब अन्तकाल उपस्थित हुआ तो वीरवर पृथुने अपने चित्तको दृढ़तापूर्वक परमात्मामें स्थिर कर ब्रह्मभावमें स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया ॥ १३ ॥ उन्होंने एड़ीसे गुदाके द्वारको रोककर प्राणवायुको धीरे-धीरे मूलाधारसे ऊपरकी ओर उठाते हुए उसे क्रमश: नाभि, हृदय, वक्ष:स्थल, कण्ठ और मस्तकमें स्थित किया ॥ १४ ॥ फिर उसे और ऊपरकी ओर ले जाते हुए क्रमश: ब्रह्मरन्ध्रमें स्थिर किया। अब उन्हें किसी प्रकारके सांसारिक भोगोंकी लालसा नहीं रही। फिर यथास्थान विभाग करके प्राणवायुको समष्टि वायुमें, पार्थिव शरीरको पृथ्वीमें और शरीरके तेजको समष्टि तेजमें लीन कर दिया ॥ १५ ॥ हृदयाकाशादि देहावच्छिन्न आकाशको महाकाशमें और शरीरगत रुधिरादि जलीय अंशको समष्टि जलमें लीन किया। इसी प्रकार फिर पृथ्वीको जलमें, जलको तेजमें, तेजको वायुमें और वायुको आकाशमें लीन किया ॥ १६ ॥ तदनन्तर मनको [ सविकल्प ज्ञानमें जिनके अधीन वह रहता है, उन ] इन्द्रियोंमें, इन्द्रियोंको उनके कारणरूप तन्मात्राओंमें और सूक्ष्मभूतों (तन्मात्राओं) के कारण अहंकारके द्वारा आकाश, इन्द्रिय और तन्मात्राओंको उसी अहंकारमें लीन कर, अहंकारको महत्तत्त्वमें लीन किया ॥ १७ ॥ फिर सम्पूर्ण गुणोंकी अभिव्यक्ति करनेवाले उस महत्तत्त्वको मायोपाधिक जीवमें स्थित किया। तदनन्तर उस मायारूप जीवकी उपाधिको भी उन्होंने ज्ञान और वैराग्यके प्रभावसे अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूपमें स्थित होकर त्याग दिया ॥ १८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

राजा पृथु की तपस्या और परलोकगमन

अर्चिर्नाम महाराज्ञी तत्पत्‍न्यनुगता वनम् ।
सुकुमार्यतदर्हा च यत्पद्‍भ्यां स्पर्शनं भुवः ॥ १९ ॥
अतीव भर्तुर्व्रतधर्मनिष्ठया
     शुश्रूषया चारषदेहयात्रया ।
नाविन्दतार्तिं परिकर्शितापि सा
     प्रेयस्करस्पर्शनमाननिर्वृतिः ॥ २० ॥
देहं विपन्नाखिलचेतनादिकं
     पत्युः पृथिव्या दयितस्य चात्मनः ।
आलक्ष्य किञ्चिच्च विलप्य सा सती
     चितामथारोपयदद्रिसानुनि ॥ २१ ॥
विधाय कृत्यं ह्रदिनीजलाप्लुता
     दत्त्वोदकं भर्तुरुदारकर्मणः ।
नत्वा दिविस्थांस्त्रिदशांस्त्रिः परीत्य
     विवेश वह्निं ध्यायती भर्तृपादौ ॥ २२ ॥
विलोक्यानुगतां साध्वीं पृथुं वीरवरं पतिम् ।
तुष्टुवुर्वरदा देवैः देवपत्‍न्यः सहस्रशः ॥ २३ ॥
कुर्वत्यः कुसुमासारं तस्मिन् मन्दरसानुनि ।
नदत्स्वमरतूर्येषु गृणन्ति स्म परस्परम् ॥ २४ ॥

देव्य ऊचुः -
अहो इयं वधूर्धन्या या चैवं भूभुजां पतिम् ।
सर्वात्मना पतिं भेजे यज्ञेशं श्रीर्वधूरिव ॥ २५ ॥
सैषा नूनं व्रजत्यूर्ध्वमनु वैन्यं पतिं सती ।
पश्यतास्मानतीत्यार्चिः दुर्विभाव्येन कर्मणा ॥ २६ ॥
तेषां दुरापं किं त्वन्यन् मर्त्यानां भगवत्पदम् ।
भुवि लोलायुषो ये वै नैष्कर्म्यं साधयन्त्युत ॥ २७ ॥
स वञ्चितो बतात्मध्रुक् कृच्छ्रेण महता भुवि ।
लब्ध्वापवर्ग्यं मानुष्यं विषयेषु विषज्जते ॥ २८ ॥

महाराज पृथुकी पत्नी महारानी अर्चि भी उनके साथ वनको गयी थीं। वे बड़ी सुकुमारी थीं, पैरोंसे भूमिका स्पर्श करनेयोग्य भी नहीं थीं ॥ १९ ॥ फिर भी उन्होंने अपने स्वामीके व्रत और नियमादिका पालन करते हुए उनकी खूब सेवा की और मुनिवृत्तिके अनुसार कन्द-मूल आदिसे निर्वाह किया। इससे यद्यपि वे बहुत दुर्बल हो गयी थीं, तो भी प्रियतमके करस्पर्शसे सम्मानित होकर उसीमें आनन्द माननेके कारण उन्हें किसी प्रकार कष्ट नहीं होता था ॥ २० ॥ अब पृथ्वीके स्वामी और अपने प्रियतम महाराज पृथुकी देहको जीवनके चेतना आदि सभी धर्मोंसे रहित देख उस सतीने कुछ देर विलाप किया। फिर पर्वतके ऊपर चिता बनाकर उसे उस चितापर रख दिया ॥ २१ ॥ इसके बाद उस समयके सारे कृत्य कर नदीके जलमें स्नान किया। अपने परम पराक्रमी पतिको जलाञ्जलि दे आकाशस्थित देवताओंकी वन्दना की तथा तीन बार चिताकी परिक्रमा कर पतिदेवके चरणोंका ध्यान करती हुई अग्रिमें प्रवेश कर गयीं ॥ २२ ॥ परमसाध्वी अर्चिको इस प्रकार अपने पति वीरवर पृथुका अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी देवियोंने अपने-अपने पतियोंके साथ उनकी स्तुति की ॥ २३ ॥ वहाँ देवताओंके बाजे बजने लगे। उस समय उस मन्दराचलके शिखरपर वे देवाङ्गनाएँ पुष्पोंकी वर्षा करती हुई आपसमें इस प्रकार कहने लगीं ॥ २४ ॥
देवियोंने कहाअहो ! यह स्त्री धन्य है ! इसने अपने पति राजराजेश्वर पृथुकी मन-वाणी- शरीरसे ठीक उसी प्रकार सेवा की है, जैसे श्रीलक्ष्मीजी यज्ञेश्वर भगवान्‌ विष्णुकी करती हैं ॥ २५ ॥ अवश्य ही अपने अचिन्त्य कर्मके प्रभावसे यह सती हमें भी लाँघकर अपने पतिके साथ उच्चतर लोकोंको जा रही है ॥ २६ ॥ इस लोकमें कुछ ही दिनोंका जीवन होनेपर भी जो लोग भगवान्‌के परमपदकी प्राप्ति करानेवाला आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिये संसारमें कौन पदार्थ दुर्लभ है ॥ २७ ॥ अत: जो पुरुष बड़ी कठिनतासे भूलोकमें मोक्षका साधनस्वरूप मनुष्य-शरीर पाकर भी विषयोंमें आसक्त रहता है, वह निश्चय ही आत्मघाती है; हाय ! हाय ! वह ठगा गया ! ॥ २८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

राजा पृथु की तपस्या और परलोकगमन

मैत्रेय उवाच -
स्तुवतीष्वमरस्त्रीषु पतिलोकं गता वधूः ।
यं वा आत्मविदां धुर्यो वैन्यः प्रापाच्युताश्रयः ॥ २९ ॥
इत्थम्भूतानुभावोऽसौ पृथुः स भगवत्तमः ।
कीर्तितं तस्य चरितं उद्दामचरितस्य ते ॥ ३० ॥
य इदं सुमहत्पुण्यं श्रद्धयावहितः पठेत् ।
श्रावयेत् श्रुणुयाद्वापि स पृथोः पदवीमियात् ॥ ३१ ॥
ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चस्वी राजन्यो जगतीपतिः ।
वैश्यः पठन् विट्पतिः स्यात् शूद्रः सत्तमतामियात् ॥ ३२ ॥
त्रिकृत्व इदमाकर्ण्य नरो नार्यथवाऽऽदृता ।
अप्रजः सुप्रजतमो निर्धनो धनवत्तमः ॥ ३३ ॥
अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः ।
इदं स्वस्त्ययनं पुंसां अमङ्‌गल्यनिवारणम् ॥ ३४ ॥
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं कलिमलापहम् ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां सम्यक् सिद्धिमभीप्सुभिः ॥ ३५ ॥
श्रद्धयैतदनुश्राव्यं चतुर्णां कारणं परम् ॥ ३५ ॥
विजयाभिमुखो राजा श्रुत्वैतदभियाति यान् ।
बलिं तस्मै हरन्त्यग्रे राजानः पृथवे यथा ॥ ३६ ॥
मुक्तान्यसङ्‌गो भगवति अमलां भक्तिमुद्वहन् ।
वैन्यस्य चरितं पुण्यं श्रृणुयात् श्रावयेत्पठेत् ॥ ३७ ॥
वैचित्रवीर्याभिहितं महन्माहात्म्यसूचकम् ।
अस्मिन्कृतमतिमर्त्यं पार्थवीं गतिमाप्नुयात् ॥ ३८ ॥
अनुदिनमिदमादरेण श्रृण्वन्
     पृथुचरितं प्रथयन् विमुक्तसङ्‌गः ।
भगवति भवसिन्धुपोतपादे
     स च निपुणां लभते रतिं मनुष्यः ॥ ३९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! जिस समय देवाङ्गनाएँ इस प्रकार स्तुति कर रही थीं, भगवान्‌के जिस परमधामको आत्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवत्प्राण महाराज पृथु गये, महारानी अर्चि भी उसी पतिलोकको गयीं ॥ २९ ॥ परमभागवत पृथुजी ऐसे ही प्रभावशाली थे। उनके चरित बड़े उदार हैं, मैंने तुम्हारे सामने उनका वर्णन किया ॥ ३० ॥ जो पुरुष इस परम पवित्र चरित्रको श्रद्धापूर्वक (निष्कामभावसे) एकाग्रचित्तसे पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता हैवह भी महाराज पृथुके पदभगवान्‌के परमधामको प्राप्त होता है ॥ ३१ ॥ इसका सकामभावसे पाठ करनेसे ब्राह्मण ब्रह्मतेज प्राप्त करता है, क्षत्रिय पृथ्वीपति हो जाता है, वैश्य व्यापारियोंमें प्रधान हो जाता है और शूद्रमें साधुता आ जाती है ॥ ३२ ॥ स्त्री हो अथवा पुरुषजो कोई इसे आदरपूर्वक तीन बार सुनता है, वह सन्तानहीन हो तो पुत्रवान्, धनहीन हो तो महाधनी, कीर्तिहीन हो तो यशस्वी और मूर्ख हो तो पण्डित हो जाता है। यह चरित मनुष्यमात्रका कल्याण करनेवाला और अमङ्गलको दूर करनेवाला है ॥ ३३-३४ ॥ यह धन, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला और कलियुगके दोषोंका नाश करनेवाला है। यह धर्मादि चतुर्वर्गकी प्राप्तिमें भी बड़ा सहायक है; इसलिये जो लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको भलीभाँति सिद्ध करना चाहते हों, उन्हें इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिये ॥ ३५ ॥ जो राजा विजयके लिये प्रस्थान करते समय इसे सुनकर जाता है, उसके आगे आ-आकर राजालोग उसी प्रकार भेंटें रखते हैं जैसे पृथुके सामने रखते थे ॥ ३६ ॥ मनुष्यको चाहिये कि अन्य सब प्रकारकी आसक्ति छोडक़र भगवान्‌में विशुद्ध निष्काम भक्ति-भाव रखते हुए महाराज पृथुके इस निर्मल चरितको सुने, सुनावे और पढ़े ॥ ३७ ॥ विदुरजी ! मैंने भगवान्‌के माहात्म्यको प्रकट करनेवाला यह पवित्र चरित्र तुम्हें सुना दिया। इसमें प्रेम करनेवाला पुरुष महाराज पृथुकी-सी गति पाता है ॥ ३८ ॥ जो पुरुष इस पृथु-चरितका प्रतिदिन आदरपूर्वक निष्कामभावसे श्रवण और कीर्तन करता है; उसका जिनके चरण संसार- सागरको पार करनेके लिये नौकाके समान हैं, उन श्रीहरिमें सुदृढ़ अनुराग हो जाता है ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्याय:

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...