॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
राजा
पृथु की तपस्या और परलोकगमन
मैत्रेय
उवाच –
दृष्ट्वात्मानं
प्रवयसं एकदा वैन्य आत्मवान् ।
आत्मना
वर्धिताशेष स्वानुसर्गः प्रजापतिः ॥ १ ॥
जगतस्तस्थुषश्चापि
वृत्तिदो धर्मभृत्सताम् ।
निष्पादितेश्वरादेशो
यदर्थमिह जज्ञिवान् ॥ २ ॥
आत्मजेष्वात्मजां
न्यस्य विरहाद् रुदतीमिव ।
प्रजासु
विमनःस्वेकः सदारोऽगात्तपोवनम् ॥ ३ ॥
तत्राप्यदाभ्यनियमो
वैखानससुसम्मते ।
आरब्ध
उग्रतपसि यथा स्वविजये पुरा ॥ ४ ॥
कन्दमूलफलाहारः
शुष्कपर्णाशनः क्वचित् ।
अब्भक्षः
कतिचित्पक्षान् वायुभक्षस्ततः परम् ॥ ५ ॥
ग्रीष्मे
पञ्चतपा वीरो वर्षास्वासारषाण्मुनिः ।
आकण्ठमग्नः
शिशिरे उदके स्थण्डिलेशयः ॥ ६ ॥
तितिक्षुर्यतवाग्दान्त
ऊर्ध्वरेता जितानिलः ।
आरिराधयिषुः
कृष्णं अचरत् तप उत्तमम् ॥ ७ ॥
तेन
क्रमानुसिद्धेन ध्वस्तकर्ममलाशयः ।
प्राणायामैः
सन्निरुद्ध षड्वर्गश्छिन्नबन्धनः ॥ ८ ॥
सनत्कुमारो
भगवान् यदाहाध्यात्मिकं परम् ।
योगं
तेनैव पुरुषं अभजत् पुरुषर्षभः ॥ ९ ॥
भगवद्धर्मिणः
साधोः श्रद्धया यततः सदा ।
भक्तिर्भगवति
ब्रह्मणि अनन्यविषयाभवत् ॥ १० ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—इस प्रकार महामनस्वी प्रजापति पृथु ने स्वयमेव अन्नादि तथा पुर-ग्रामादि
सर्गकी व्यवस्था करके स्थावर-जङ्गम सभी की आजीविका का सुभीता कर दिया तथा
साधुजनोचित धर्मोंका भी खूब पालन किया। ‘मेरी अवस्था कुछ ढल
गयी है और जिसके लिये मैंने इस लोकमें जन्म लिया था, उस
प्रजा-रक्षणरूप ईश्वराज्ञाका पालन भी हो चुका है; अत: अब
मुझे अन्तिम पुरुषार्थ—मोक्षके लिये प्रयत्न करना चाहिये’
यह सोचकर उन्होंने अपने विरहमें रोती हुई अपनी पुत्रीरूपा पृथ्वीका
भार पुत्रोंको सौंप दिया और सारी प्रजाको बिलखती छोडक़र वे अपनी पत्नीसहित अकेले ही
तपोवनको चल दिये ॥ १—३ ॥ वहाँ भी वे वानप्रस्थ आश्रमके
नियमानुसार उसी प्रकार कठोर तपस्यामें लग गये, जैसे पहले
गृहस्थाश्रममें अखण्ड व्रतपूर्वक पृथ्वीको विजय करनेमें लगे थे ! ॥ ४ ॥ कुछ दिन तो
उन्होंने कन्द-मूल-फल खाकर बिताये, कुछ काल सूखे पत्ते खाकर
रहे, फिर कुछ पखवाड़ोंतक जलपर ही रहे और इसके बाद केवल
वायुसे ही निर्वाह करने लगे ॥ ५ ॥ वीरवर पृथु मुनिवृत्तिसे रहते थे। गॢमयोंमें
उन्होंने पञ्चाग्रियोंका सेवन किया, वर्षाऋतुमें खुले
मैदानमें रहकर अपने शरीरपर जलकी धाराएँ सहीं और जाड़ेमें गलेतक जलमें खड़े रहे। वे
प्रतिदिन मिट्टीकी वेदीपर ही शयन करते थे ॥ ६ ॥ उन्होंने शीतोष्णादि सब प्रकारके
द्वन्द्वोंको सहा तथा वाणी और मनका संयम करके ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए
प्राणोंको अपने अधीन किया। इस प्रकार श्रीकृष्णकी आराधना करनेके लिये उन्होंने
उत्तम तप किया ॥ ७ ॥ इस क्रमसे उनकी तपस्या बहुत पुष्ट हो गयी और उसके प्रभावसे
कर्ममल नष्ट हो जानेके कारण उनका चित्त सर्वथा शुद्ध हो गया। प्राणायामोंके द्वारा
मन और इन्द्रियोंके निरुद्ध हो जानेसे उनका वासनाजनित बन्धन भी कट गया ॥ ८ ॥ तब,
भगवान् सनत्कुमार ने उन्हें जिस परमोत्कृष्ट अध्यात्मयोगकी शिक्षा
दी थी, उसीके अनुसार राजा पृथु पुरुषोत्तम श्रीहरिकी आराधना
करने लगे ॥ ९ ॥ इस तरह भगवत्परायण होकर श्रद्धापूर्वक सदाचारका पालन करते हुए
निरन्तर साधन करनेसे परब्रह्म परमात्मामें उनकी अनन्य भक्ति हो गयी ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
राजा
पृथु की तपस्या और परलोकगमन
तस्यानया
भगवतः परिकर्मशुद्ध
सत्त्वात्मनस्तदनु संस्मरणानुपूर्त्या ।
ज्ञानं
विरक्तिमदभूत् निशितेन येन
चिच्छेद संशयपदं निजजीवकोशम् ॥ ११ ॥
छिन्नान्यधीरधिगतात्मगतिर्निरीहः
तत्तत्यजेऽच्छिनदिदं वयुनेन येन ।
तावन्न
योगगतिभिर्यतिरप्रमत्तो
यावद्गदाग्रजकथासु रतिं न कुर्यात् ॥ १२ ॥
एवं
स वीरप्रवरः संयोज्यात्मानमात्मनि ।
ब्रह्मभूतो
दृढं काले तत्याज स्वं कलेवरम् ॥ १३ ॥
सम्पीड्य
पायुं पार्ष्णिभ्यां वायुमुत्सारयन् शनैः ।
नाभ्यां
कोष्ठेष्ववस्थाप्य हृदुरःकण्ठशीर्षणि ॥ १४ ॥
उत्सर्पयंस्तु
तं मूर्ध्नि क्रमेणावेश्य निःस्पृहः ।
वायुं
वायौ क्षितौ कायं तेजस्तेजस्ययूयुजत् ॥ १५ ॥
खान्याकाशे
द्रवं तोये यथास्थानं विभागशः ।
क्षितिमम्भसि
तत्तेजसि अदो वायौ नभस्यमुम् ॥ १६ ॥
इन्द्रियेषु
मनस्तानि तन्मात्रेषु यथोद्भवम् ।
भूतादिनामून्युत्कृष्य
महत्यात्मनि सन्दधे ॥ १७ ॥
तं
सर्वगुणविन्यासं जीवे मायामये न्यधात् ।
तं
चानुशयमात्मस्थं असावनुशयी पुमान् ।
नानवैराग्यवीर्येण
स्वरूपस्थोऽजहात्प्रभुः ॥ १८ ॥
इस
प्रकार भगवदुपासना से अन्त:करण शुद्ध सात्त्विक हो जानेपर निरन्तर भगवच्चिन्तनके
प्रभावसे प्राप्त हुई इस अनन्य भक्तिसे उन्हें वैराग्यसहित ज्ञानकी प्राप्ति हुई
और फिर उस तीव्र ज्ञानके द्वारा उन्होंने जीवके उपाधिभूत अहंकारको नष्ट कर दिया, जो सब प्रकारके संशय-विपर्यय का आश्रय है ॥ ११ ॥ इसके पश्चात्
देहात्मबुद्धि की निवृत्ति और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण की अनुभूति होने पर अन्य सब
प्रकार की सिद्धि आदि से भी उदासीन हो जाने के कारण उन्होंने उस तत्त्वज्ञान के
लिये भी प्रयत्न करना छोड़ दिया, जिसकी सहायतासे पहले अपने
जीवकोशका नाश किया था, क्योंकि जबतक साधकको योगमार्ग के
द्वारा श्रीकृष्ण-कथामृतमें अनुराग नहीं होता, तबतक केवल
योगसाधनासे उसका मोहजनित प्रमाद दूर नहीं होता—भ्रम नहीं
मिटता ॥ १२ ॥ फिर जब अन्तकाल उपस्थित हुआ तो वीरवर पृथुने अपने चित्तको
दृढ़तापूर्वक परमात्मामें स्थिर कर ब्रह्मभावमें स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया ॥
१३ ॥ उन्होंने एड़ीसे गुदाके द्वारको रोककर प्राणवायुको धीरे-धीरे मूलाधारसे ऊपरकी
ओर उठाते हुए उसे क्रमश: नाभि, हृदय, वक्ष:स्थल,
कण्ठ और मस्तकमें स्थित किया ॥ १४ ॥ फिर उसे और ऊपरकी ओर ले जाते
हुए क्रमश: ब्रह्मरन्ध्रमें स्थिर किया। अब उन्हें किसी प्रकारके सांसारिक भोगोंकी
लालसा नहीं रही। फिर यथास्थान विभाग करके प्राणवायुको समष्टि वायुमें, पार्थिव शरीरको पृथ्वीमें और शरीरके तेजको समष्टि तेजमें लीन कर दिया ॥ १५
॥ हृदयाकाशादि देहावच्छिन्न आकाशको महाकाशमें और शरीरगत रुधिरादि जलीय अंशको
समष्टि जलमें लीन किया। इसी प्रकार फिर पृथ्वीको जलमें, जलको
तेजमें, तेजको वायुमें और वायुको आकाशमें लीन किया ॥ १६ ॥
तदनन्तर मनको [ सविकल्प ज्ञानमें जिनके अधीन वह रहता है, उन
] इन्द्रियोंमें, इन्द्रियोंको उनके कारणरूप तन्मात्राओंमें
और सूक्ष्मभूतों (तन्मात्राओं) के कारण अहंकारके द्वारा आकाश, इन्द्रिय और तन्मात्राओंको उसी अहंकारमें लीन कर, अहंकारको
महत्तत्त्वमें लीन किया ॥ १७ ॥ फिर सम्पूर्ण गुणोंकी अभिव्यक्ति करनेवाले उस
महत्तत्त्वको मायोपाधिक जीवमें स्थित किया। तदनन्तर उस मायारूप जीवकी उपाधिको भी
उन्होंने ज्ञान और वैराग्यके प्रभावसे अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूपमें स्थित होकर
त्याग दिया ॥ १८ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
राजा
पृथु की तपस्या और परलोकगमन
अर्चिर्नाम
महाराज्ञी तत्पत्न्यनुगता वनम् ।
सुकुमार्यतदर्हा
च यत्पद्भ्यां स्पर्शनं भुवः ॥ १९ ॥
अतीव
भर्तुर्व्रतधर्मनिष्ठया
शुश्रूषया चारषदेहयात्रया ।
नाविन्दतार्तिं
परिकर्शितापि सा
प्रेयस्करस्पर्शनमाननिर्वृतिः ॥ २० ॥
देहं
विपन्नाखिलचेतनादिकं
पत्युः पृथिव्या दयितस्य चात्मनः ।
आलक्ष्य
किञ्चिच्च विलप्य सा सती
चितामथारोपयदद्रिसानुनि ॥ २१ ॥
विधाय
कृत्यं ह्रदिनीजलाप्लुता
दत्त्वोदकं भर्तुरुदारकर्मणः ।
नत्वा
दिविस्थांस्त्रिदशांस्त्रिः परीत्य
विवेश वह्निं ध्यायती भर्तृपादौ ॥ २२ ॥
विलोक्यानुगतां
साध्वीं पृथुं वीरवरं पतिम् ।
तुष्टुवुर्वरदा
देवैः देवपत्न्यः सहस्रशः ॥ २३ ॥
कुर्वत्यः
कुसुमासारं तस्मिन् मन्दरसानुनि ।
नदत्स्वमरतूर्येषु
गृणन्ति स्म परस्परम् ॥ २४ ॥
देव्य
ऊचुः -
अहो
इयं वधूर्धन्या या चैवं भूभुजां पतिम् ।
सर्वात्मना
पतिं भेजे यज्ञेशं श्रीर्वधूरिव ॥ २५ ॥
सैषा
नूनं व्रजत्यूर्ध्वमनु वैन्यं पतिं सती ।
पश्यतास्मानतीत्यार्चिः
दुर्विभाव्येन कर्मणा ॥ २६ ॥
तेषां
दुरापं किं त्वन्यन् मर्त्यानां भगवत्पदम् ।
भुवि
लोलायुषो ये वै नैष्कर्म्यं साधयन्त्युत ॥ २७ ॥
स
वञ्चितो बतात्मध्रुक् कृच्छ्रेण महता भुवि ।
लब्ध्वापवर्ग्यं
मानुष्यं विषयेषु विषज्जते ॥ २८ ॥
महाराज
पृथुकी पत्नी महारानी अर्चि भी उनके साथ वनको गयी थीं। वे बड़ी सुकुमारी थीं, पैरोंसे भूमिका स्पर्श करनेयोग्य भी नहीं थीं ॥ १९ ॥ फिर भी उन्होंने अपने
स्वामीके व्रत और नियमादिका पालन करते हुए उनकी खूब सेवा की और मुनिवृत्तिके
अनुसार कन्द-मूल आदिसे निर्वाह किया। इससे यद्यपि वे बहुत दुर्बल हो गयी थीं,
तो भी प्रियतमके करस्पर्शसे सम्मानित होकर उसीमें आनन्द माननेके
कारण उन्हें किसी प्रकार कष्ट नहीं होता था ॥ २० ॥ अब पृथ्वीके स्वामी और अपने
प्रियतम महाराज पृथुकी देहको जीवनके चेतना आदि सभी धर्मोंसे रहित देख उस सतीने कुछ
देर विलाप किया। फिर पर्वतके ऊपर चिता बनाकर उसे उस चितापर रख दिया ॥ २१ ॥ इसके
बाद उस समयके सारे कृत्य कर नदीके जलमें स्नान किया। अपने परम पराक्रमी पतिको
जलाञ्जलि दे आकाशस्थित देवताओंकी वन्दना की तथा तीन बार चिताकी परिक्रमा कर
पतिदेवके चरणोंका ध्यान करती हुई अग्रिमें प्रवेश कर गयीं ॥ २२ ॥ परमसाध्वी
अर्चिको इस प्रकार अपने पति वीरवर पृथुका अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी
देवियोंने अपने-अपने पतियोंके साथ उनकी स्तुति की ॥ २३ ॥ वहाँ देवताओंके बाजे बजने
लगे। उस समय उस मन्दराचलके शिखरपर वे देवाङ्गनाएँ पुष्पोंकी वर्षा करती हुई आपसमें
इस प्रकार कहने लगीं ॥ २४ ॥
देवियोंने
कहा—अहो ! यह स्त्री धन्य है ! इसने अपने पति राजराजेश्वर पृथुकी मन-वाणी-
शरीरसे ठीक उसी प्रकार सेवा की है, जैसे श्रीलक्ष्मीजी
यज्ञेश्वर भगवान् विष्णुकी करती हैं ॥ २५ ॥ अवश्य ही अपने अचिन्त्य कर्मके
प्रभावसे यह सती हमें भी लाँघकर अपने पतिके साथ उच्चतर लोकोंको जा रही है ॥ २६ ॥
इस लोकमें कुछ ही दिनोंका जीवन होनेपर भी जो लोग भगवान्के परमपदकी प्राप्ति
करानेवाला आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिये
संसारमें कौन पदार्थ दुर्लभ है ॥ २७ ॥ अत: जो पुरुष बड़ी कठिनतासे भूलोकमें
मोक्षका साधनस्वरूप मनुष्य-शरीर पाकर भी विषयोंमें आसक्त रहता है, वह निश्चय ही आत्मघाती है; हाय ! हाय ! वह ठगा गया !
॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
राजा
पृथु की तपस्या और परलोकगमन
मैत्रेय
उवाच -
स्तुवतीष्वमरस्त्रीषु
पतिलोकं गता वधूः ।
यं
वा आत्मविदां धुर्यो वैन्यः प्रापाच्युताश्रयः ॥ २९ ॥
इत्थम्भूतानुभावोऽसौ
पृथुः स भगवत्तमः ।
कीर्तितं
तस्य चरितं उद्दामचरितस्य ते ॥ ३० ॥
य
इदं सुमहत्पुण्यं श्रद्धयावहितः पठेत् ।
श्रावयेत्
श्रुणुयाद्वापि स पृथोः पदवीमियात् ॥ ३१ ॥
ब्राह्मणो
ब्रह्मवर्चस्वी राजन्यो जगतीपतिः ।
वैश्यः
पठन् विट्पतिः स्यात् शूद्रः सत्तमतामियात् ॥ ३२ ॥
त्रिकृत्व
इदमाकर्ण्य नरो नार्यथवाऽऽदृता ।
अप्रजः
सुप्रजतमो निर्धनो धनवत्तमः ॥ ३३ ॥
अस्पष्टकीर्तिः
सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः ।
इदं
स्वस्त्ययनं पुंसां अमङ्गल्यनिवारणम् ॥ ३४ ॥
धन्यं
यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं कलिमलापहम् ।
धर्मार्थकाममोक्षाणां
सम्यक् सिद्धिमभीप्सुभिः ॥ ३५ ॥
श्रद्धयैतदनुश्राव्यं
चतुर्णां कारणं परम् ॥ ३५ ॥
विजयाभिमुखो
राजा श्रुत्वैतदभियाति यान् ।
बलिं
तस्मै हरन्त्यग्रे राजानः पृथवे यथा ॥ ३६ ॥
मुक्तान्यसङ्गो
भगवति अमलां भक्तिमुद्वहन् ।
वैन्यस्य
चरितं पुण्यं श्रृणुयात् श्रावयेत्पठेत् ॥ ३७ ॥
वैचित्रवीर्याभिहितं
महन्माहात्म्यसूचकम् ।
अस्मिन्कृतमतिमर्त्यं
पार्थवीं गतिमाप्नुयात् ॥ ३८ ॥
अनुदिनमिदमादरेण
श्रृण्वन्
पृथुचरितं प्रथयन् विमुक्तसङ्गः ।
भगवति
भवसिन्धुपोतपादे
स च निपुणां लभते रतिं मनुष्यः ॥ ३९ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—विदुरजी ! जिस समय देवाङ्गनाएँ इस प्रकार स्तुति कर रही थीं, भगवान्के जिस परमधामको आत्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवत्प्राण महाराज पृथु
गये, महारानी अर्चि भी उसी पतिलोकको गयीं ॥ २९ ॥ परमभागवत
पृथुजी ऐसे ही प्रभावशाली थे। उनके चरित बड़े उदार हैं, मैंने
तुम्हारे सामने उनका वर्णन किया ॥ ३० ॥ जो पुरुष इस परम पवित्र चरित्रको
श्रद्धापूर्वक (निष्कामभावसे) एकाग्रचित्तसे पढ़ता, सुनता
अथवा सुनाता है—वह भी महाराज पृथुके पद— भगवान्के परमधामको प्राप्त होता है ॥ ३१ ॥ इसका सकामभावसे पाठ करनेसे
ब्राह्मण ब्रह्मतेज प्राप्त करता है, क्षत्रिय पृथ्वीपति हो
जाता है, वैश्य व्यापारियोंमें प्रधान हो जाता है और
शूद्रमें साधुता आ जाती है ॥ ३२ ॥ स्त्री हो अथवा पुरुष—जो
कोई इसे आदरपूर्वक तीन बार सुनता है, वह सन्तानहीन हो तो
पुत्रवान्, धनहीन हो तो महाधनी, कीर्तिहीन
हो तो यशस्वी और मूर्ख हो तो पण्डित हो जाता है। यह चरित मनुष्यमात्रका कल्याण करनेवाला
और अमङ्गलको दूर करनेवाला है ॥ ३३-३४ ॥ यह धन, यश और आयुकी
वृद्धि करनेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला और कलियुगके
दोषोंका नाश करनेवाला है। यह धर्मादि चतुर्वर्गकी प्राप्तिमें भी बड़ा सहायक है;
इसलिये जो लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको भलीभाँति सिद्ध करना चाहते हों, उन्हें
इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिये ॥ ३५ ॥ जो राजा विजयके लिये प्रस्थान करते
समय इसे सुनकर जाता है, उसके आगे आ-आकर राजालोग उसी प्रकार
भेंटें रखते हैं जैसे पृथुके सामने रखते थे ॥ ३६ ॥ मनुष्यको चाहिये कि अन्य सब
प्रकारकी आसक्ति छोडक़र भगवान्में विशुद्ध निष्काम भक्ति-भाव रखते हुए महाराज
पृथुके इस निर्मल चरितको सुने, सुनावे और पढ़े ॥ ३७ ॥
विदुरजी ! मैंने भगवान्के माहात्म्यको प्रकट करनेवाला यह पवित्र चरित्र तुम्हें
सुना दिया। इसमें प्रेम करनेवाला पुरुष महाराज पृथुकी-सी गति पाता है ॥ ३८ ॥ जो
पुरुष इस पृथु-चरितका प्रतिदिन आदरपूर्वक निष्कामभावसे श्रवण और कीर्तन करता है;
उसका जिनके चरण संसार- सागरको पार करनेके लिये नौकाके समान हैं,
उन श्रीहरिमें सुदृढ़ अनुराग हो जाता है ॥ ३९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्याय:
शेष
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