बुधवार, 13 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

श्रीराजोवाच

देवासुरनृणां सर्गो नागानां मृगपक्षिणाम्
सामासिकस्त्वया प्रोक्तो यस्तु स्वायम्भुवेऽन्तरे ||१||
तस्यैव व्यासमिच्छामि ज्ञातुं ते भगवन्यथा
अनुसर्गं यया शक्त्या ससर्ज भगवान्परः ||२||

श्रीसूत उवाच

इति सम्प्रश्नमाकर्ण्य राजर्षेर्बादरायणिः
प्रतिनन्द्य महायोगी जगाद मुनिसत्तमाः ||३||

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् आपने संक्षेप से (तीसरे स्कन्ध में) इस बात का वर्णन किया कि स्वायम्भुव मन्वन्तर में देवता, असुर, मनुष्य, सर्प और पशु-पक्षी आदि की सृष्टि कैसे हुई ॥ १ ॥ अब मैं उसी का विस्तार जानना चाहता हूँ। प्रकृति आदि कारणों के भी परम कारण भगवान्‌ अपनी जिस शक्ति से जिस प्रकार उसके बाद की सृष्टि करते हैं, उसे जानने की भी मेरी इच्छा है ॥ २ ॥

सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! परम योगी व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी ने राजर्षि परीक्षित्‌ का यह सुन्दर प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहा ॥ ३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                         00000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

श्रीशुक उवाच

यदा प्रचेतसः पुत्रा दश प्राचीनबर्हिषः
अन्तःसमुद्रादुन्मग्ना ददृशुर्गां द्रुमैर्वृताम् ||४||
द्रुमेभ्यः क्रुध्यमानास्ते तपोदीपितमन्यवः
मुखतो वायुमग्निं च ससृजुस्तद्दिधक्षया ||५||
ताभ्यां निर्दह्यमानांस्तानुपलभ्य कुरूद्वह
राजोवाच महान्सोमो मन्युं प्रशमयन्निव ||६||
न द्रुमेभ्यो महाभागा दीनेभ्यो द्रोग्धुमर्हथ
विवर्धयिषवो यूयं प्रजानां पतयः स्मृताः ||७||
अहो प्रजापतिपतिर्भगवान्हरिरव्ययः
वनस्पतीनोषधीश्च ससर्जोर्जमिषं विभुः ||८||

श्रीशुकदेवजीने कहाराजा प्राचीनबर्हि के दस लडक़ेजिनका नाम प्रचेता थाजब समुद्र से बाहर निकले, तब उन्होंने देखा कि हमारे पिता के निवृत्तिपरायण हो जानेसे सारी पृथ्वी पेड़ों से घिर गयी है ॥ ४ ॥ उन्हें वृक्षों पर बड़ा क्रोध आया। उनके तपोबल ने तो मानो क्रोध की आगमें आहुति ही डाल दी। बस, उन्होंने वृक्षों को जला डालनेके लिये अपने मुखसे वायु और अग्नि की सृष्टि की ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! जब प्रचेताओंकी छोड़ी हुई अग्नि और वायु उन वृक्षोंको जलाने लगी, तब वृक्षों के राजाधिराज चन्द्रमा ने उनका क्रोध शान्त करते हुए इस प्रकार कहा ॥ ६ ॥ महाभाग्यवान् प्रचेताओ ! ये वृक्ष बड़े दीन हैं। आपलोग इनसे द्रोह मत कीजिये; क्योंकि आप तो प्रजाकी अभिवृद्धि करना चाहते हैं और सभी जानते हैं कि आप प्रजापति हैं ॥ ७ ॥ महात्मा प्रचेताओ ! प्रजापतियोंके अधिपति अविनाशी भगवान्‌ श्रीहरिने सम्पूर्ण वनस्पतियों और ओषधियोंको प्रजाके हितार्थ उनके खान-पानके लिये बनाया है ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                      000000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

अन्नं चराणामचरा ह्यपदः पादचारिणाम्
अहस्ता हस्तयुक्तानां द्विपदां च चतुष्पदः ||९||
यूयं च पित्रान्वादिष्टा देवदेवेन चानघाः
प्रजासर्गाय हि कथं वृक्षान्निर्दग्धुमर्हथ ||१०||
आतिष्ठत सतां मार्गं कोपं यच्छत दीपितम्
पित्रा पितामहेनापि जुष्टं वः प्रपितामहैः ||११||
तोकानां पितरौ बन्धू दृशः पक्ष्म स्त्रियाः पतिः
पतिः प्रजानां भिक्षूणां गृह्यज्ञानां बुधः सुहृत् ||१२||
अन्तर्देहेषु भूतानामात्मास्ते हरिरीश्वरः
सर्वं तद्धिष्ण्यमीक्षध्वमेवं वस्तोषितो ह्यसौ ||१३||
यः समुत्पतितं देह आकाशान्मन्युमुल्बणम्
आत्मजिज्ञासया यच्छेत्स गुणानतिवर्तते ||१४||
अलं दग्धैर्द्रुमैर्दीनैः खिलानां शिवमस्तु वः
वार्क्षी ह्येषा वरा कन्या पत्नीत्वे प्रतिगृह्यताम् ||१५||

संसारमें पाँखोंसे उडऩेवाले चर प्राणियोंके भोजन फल-पुष्पादि अचर पदार्थ हैं। पैरसे चलनेवालों के घास-तृणादि बिना पैरवाले पदार्थ भोजन हैं; हाथवालोंके वृक्ष-लता आदि बिना हाथवाले और दो पैरवाले मनुष्यादिके लिये धान, गेहूँ आदि अन्न भोजन हैं। चार पैरवाले बैल, ऊँट आदि खेती प्रभृति के द्वारा अन्न की उत्पत्ति में सहायक हैं ॥ ९ ॥ निष्पाप प्रचेताओ! आपके पिता और देवाधिदेव भगवान्‌ ने आप लोगों को यह आदेश दिया है कि प्रजा की सृष्टि करो। ऐसी स्थिति में आप वृक्षोंको जला डालें, यह कैसे उचित हो सकता है ॥ १० ॥ आपलोग अपना क्रोध शान्त करें और अपने पिता, पितामह, प्रपितामह आदिके द्वारा सेवित सत्पुरुषोंके मार्गका अनुसरण करें ॥ ११ ॥ जैसे मा-बाप बालकोंकी, पलकें नेत्रोंकी, पति पत्नीकी, गृहस्थ भिक्षुकोंकी और ज्ञानी अज्ञानियोंकी रक्षा करते हैं और उनका हित चाहते हैंवैसे ही प्रजाकी रक्षा और हितका उत्तरदायी राजा होता है ॥ १२ ॥ प्रचेताओ ! समस्त प्राणियोंके हृदयमें सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ आत्माके रूपमें विराजमान हैं। इसलिये आपलोग सभीको भगवान्‌का निवासस्थान समझें। यदि आप ऐसा करेंगे तो भगवान्‌को प्रसन्न कर लेंगे ॥ १३ ॥ जो पुरुष हृदयके उबलते हुए भयङ्कर क्रोधको आत्मविचारके द्वारा शरीरमें ही शान्त कर लेता है, बाहर नहीं निकलने देता, वह कालक्रमसे तीनों गुणोंपर विजय प्राप्त कर लेता है ॥ १४ ॥ प्रचेताओ ! इन दीन-हीन वृक्षोंको और न जलाइये; जो कुछ बच रहे हैं, उनकी रक्षा कीजिये। इससे आपका भी कल्याण होगा। इस श्रेष्ठ कन्याका पालन इन वृक्षोंने ही किया है, इसे आपलोग पत्नीके रूपमें स्वीकार कीजिये॥ १५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                        00000000000





॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

इत्यामन्त्र्य वरारोहां कन्यामाप्सरसीं नृप
सोमो राजा ययौ दत्त्वा ते धर्मेणोपयेमिरे ||१६||
तेभ्यस्तस्यां समभवद्दक्षः प्राचेतसः किल
यस्य प्रजाविसर्गेण लोका आपूरितास्त्रयः ||१७||
यथा ससर्ज भूतानि दक्षो दुहितृवत्सलः
रेतसा मनसा चैव तन्ममावहितः शृणु ||१८||
मनसैवासृजत्पूर्वं प्रजापतिरिमाः प्रजाः
देवासुरमनुष्यादीन्नभःस्थलजलौकसः ||१९||
तमबृंहितमालोक्य प्रजासर्गं प्रजापतिः
विन्ध्यपादानुपव्रज्य सोऽचरद्दुष्करं तपः|| २०||
तत्राघमर्षणं नाम तीर्थं पापहरं परम्
उपस्पृश्यानुसवनं तपसातोषयद्धरिम् ||२१||
अस्तौषीद्धंसगुह्येन भगवन्तमधोक्षजम्
तुभ्यं तदभिधास्यामि कस्यातुष्यद्यथा हरिः ||२२||

(श्रीशुकदेवजी कहते हैं) परीक्षित्‌! वनस्पतियों के राजा चन्द्रमा ने प्रचेताओं को इस प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें प्रम्लोचा अप्सरा की सुन्दरी कन्या दे दी और वे वहाँ से चले गये। प्रचेताओं ने धर्मानुसार उसका पाणिग्रहण किया ॥ १६ ॥ उन्हीं प्रचेताओं के द्वारा उस कन्या के गर्भ से प्राचेतस दक्षकी उत्पत्ति हुई। फिर दक्षकी प्रजा-सृष्टिसे तीनों लोक भर गये ॥ १७ ॥ इनका अपनी पुत्रियोंपर बड़ा प्रेम था। इन्होंने जिस प्रकारअपने संकल्प और वीर्यसे विविध प्राणियोंकी सृष्टि की, वह मैं सुनाता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो ॥ १८ ॥ परीक्षित्‌! पहले प्रजापति दक्षने जल, थल और आकाशमें रहनेवाले देवता, असुर एवं मनुष्य आदि प्रजाकी सृष्टि अपने संकल्पसे ही की ॥ १९ ॥ जब उन्होंने देखा कि वह सृष्टि बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने विन्ध्याचलके निकटवर्ती पर्वतोंपर जाकर बड़ी घोर तपस्या की ॥ २० ॥ वहाँ एक अत्यन्त श्रेष्ठ तीर्थ है, उसका नाम हैअघमर्षण। वह सारे पापों को धो बहाता है। प्रजापति दक्ष उस तीर्थमें त्रिकाल स्नान करते और तपस्याके द्वारा भगवान्‌की आराधना करते ॥ २१ ॥ प्रजापति दक्षने इन्द्रियातीत भगवान्‌ की हंसगुह्यनामक स्तोत्र से स्तुति की थी। उसी से भगवान्‌ उन पर प्रसन्न हुए थे। मैं तुम्हें वह स्तुति सुनाता हूँ ॥ २२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                   00000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०५)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

श्रीप्रजापतिरुवाच

नमः परायावितथानुभूतये
गुणत्रयाभासनिमित्तबन्धवे
अदृष्टधाम्ने गुणतत्त्वबुद्धिभि-
र्निवृत्तमानाय दधे स्वयम्भुवे ||२३||
न यस्य सख्यं पुरुषोऽवैति सख्युः
सखा वसन्संवसतः पुरेऽस्मिन्
गुणो यथा गुणिनो व्यक्तदृष्टे-
स्तस्मै महेशाय नमस्करोमि ||२४||
देहोऽसवोऽक्षा मनवो भूतमात्रा
नात्मानमन्यं च विदुः परं यत्
सर्वं पुमान्वेद गुणांश्च तज्ज्ञो
न वेद सर्वज्ञमनन्तमीडे ||२५||

दक्ष प्रजापतिने इस प्रकार स्तुति कीभगवन् ! आपकी अनुभूति, आपकी चित्-शक्ति अमोघ है। आप जीव और प्रकृतिसे परे, उनके नियन्ता और उन्हें सत्तास्फूर्ति देनेवाले हैं। जिन जीवोंने त्रिगुणमयी सृष्टिको ही वास्तविक सत्य समझ रखा है, वे आपके स्वरूपका साक्षात्कार नहीं कर सके हैं; क्योंकि आपतक किसी भी प्रमाणकी पहुँच नहीं हैआपकी कोई अवधि, कोई सीमा नहीं है। आप स्वयं- प्रकाश और परात्पर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २३ ॥ यों तो जीव और ईश्वर एक-दूसरेके सखा हैं तथा इसी शरीरमें इकट्ठेही निवास करते हैं; परन्तु जीव सर्वशक्तिमान् आपके सख्यभावको नहीं जानताठीक वैसे ही, जैसे रूप, रस, गन्ध आदि विषय अपने प्रकाशित करनेवाली नेत्र, घ्राण आदि इन्द्रियवृत्तियोंको नहीं जानते। क्योंकि आप जीव और जगत् के द्रष्टा हैं, दृश्य नहीं। महेश्वर ! मैं आपके श्रीचरणोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ २४ ॥ देह, प्राण, इन्द्रिय, अन्त:करणकी वृत्तियाँ, पञ्चमहाभूत और उनकी तन्मात्राएँये सब जड होनेके कारण अपनेको और अपनेसे अतिरिक्तको भी नहीं जानते। परन्तु जीव इन सबको और इनके कारण सत्त्व, रज और तमइन तीन गुणोंको भी जानता है। परंतु वह भी दृश्य अथवा ज्ञेयरूपसे आपको नहीं जान सकता। क्योंकि आप ही सबके ज्ञाता और अनन्त हैं। इसलिये प्रभो ! मैं तो केवल आपकी स्तुति करता हूँ ॥ २५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                 ०००००००००००




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

यदोपरामो मनसो नामरूप-
रूपस्य दृष्टस्मृतिसम्प्रमोषात्
य ईयते केवलया स्वसंस्थया
हंसाय तस्मै शुचिसद्मने नमः ||२६||
मनीषिणोऽन्तर्हृदि सन्निवेशितं
स्वशक्तिभिर्नवभिश्च त्रिवृद्भिः
वह्नि यथा दारुणि पाञ्चदश्यं
मनीषया निष्कर्षन्ति गूढम् ||२७||
स वै ममाशेषविशेषमाया
निषेधनिर्वाणसुखानुभूतिः
स सर्वनामा स च विश्वरूपः
प्रसीदतामनिरुक्तात्मशक्तिः ||२८||
यद्यन्निरुक्तं वचसा निरूपितं
धियाक्षभिर्वा मनसा वोत यस्य
मा भूत्स्वरूपं गुणरूपं हि तत्तत्
स वै गुणापायविसर्गलक्षणः ||२९||

जब समाधि- कालमें प्रमाण, विकल्प और विपर्ययरूप विविध ज्ञान और स्मरण-शक्तिका लोप हो जानेसे इस नाम- रूपात्मक जगत् का निरूपण करनेवाला मन उपरत हो जाता है, उस समय बिना मनके भी केवल सच्चिदानन्दमयी अपनी स्वरूपस्थितिके द्वारा आप प्रकाशित होते रहते हैं। प्रभो ! आप शुद्ध हैं और शुद्ध हृदय-मन्दिर ही आपका निवासस्थान है। आपको मेरा नमस्कार है ॥ २६ ॥ जैसे याज्ञिक लोग काष्ठमें छिपे हुए अग्नि को सामिधेनीनामके पंद्रह मन्त्रोंके द्वारा प्रकट करते हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष अपनी सत्ताईस शक्तियोंके भीतर गूढभाव से छिपे हुए आपको अपनी शुद्ध बुद्धिके द्वारा हृदयमें ही ढूँढ़ निकालते हैं ॥ २७ ॥ जगत् में  जितनी भिन्नताएँ देख पड़ती हैं, वे सब मायाकी ही हैं। मायाका निषेध कर देनेपर केवल परम सुखके साक्षात्कारस्वरूप आप ही अवशेष रहते हैं। परंतु जब विचार करने लगते हैं, तब आपके स्वरूपमें मायाकी उपलब्धिनिर्वचन नहीं हो सकता। अर्थात् माया भी आप ही हैं। अत: सारे नाम और सारे रूप आपके ही हैं। प्रभो ! आप मुझपर प्रसन्न होइये। मुझे आत्म- प्रसादसे पूर्ण कर दीजिये ॥ २८ ॥
प्रभो ! जो कुछ वाणीसे कहा जाता है अथवा जो कुछ मन, बुद्धि और इन्द्रियोंसे ग्रहण किया जाता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि वह तो गुणरूप है और आप गुणोंकी उत्पत्ति और प्रलयके अधिष्ठान हैं। आपमें केवल उनकी प्रतीतिमात्र है ॥ २९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                    ००००००००००


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

यस्मिन्यतो येन च यस्य यस्मै
यद्यो यथा कुरुते कार्यते च
परावरेषां परमं प्राक्प्रसिद्धं
तद्ब्रह्म तद्धेतुरनन्यदेकम् ||३०||
यच्छक्तयो वदतां वादिनां वै
विवादसंवादभुवो भवन्ति
कुर्वन्ति चैषां मुहुरात्ममोहं
तस्मै नमोऽनन्तगुणाय भूम्ने ||३१||
अस्तीति नास्तीति च वस्तुनिष्ठयो-
रेकस्थयोर्भिन्नविरुद्धधर्मणोः
अवेक्षितं किञ्चन योगसाङ्ख्ययोः
समं परं ह्यनुकूलं बृहत्तत् ||३२||

भगवन् ! आप में ही यह सारा जगत् स्थित है; आपसे ही निकला है और आपनेऔर किसी के सहारे नहींअपने-आप से ही इसका निर्माण किया है। यह आपका ही है और आपके लिये ही है। इसके रूपमें बननेवाले भी आप हैं और बनानेवाले भी आप ही हैं। बनने-बनानेकी विधि भी आप ही हैं। आप ही सबसे काम लेनेवाले भी हैं। जब कार्य और कारणका भेद नहीं था, तब भी आप स्वयंसिद्ध स्वरूपसे स्थित थे। इसीसे आप सबके कारण भी हैं। सच्ची बात तो यह है कि आप जीव-जगत्के भेद और स्वगतभेद से सर्वथा रहित एक, अद्वितीय हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। आप मुझपर प्रसन्न हों ॥ ३० ॥ प्रभो ! आपकी ही शक्तियाँ वादी-प्रतिवादियोंके विवाद और संवाद (ऐकमत्य) का विषय होती हैं और उन्हें बार-बार मोहमें डाल दिया करती हैं। आप अनन्त अप्राकृत कल्याण-गुणगणोंसे युक्त एवं स्वयं अनन्त हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३१ ॥ भगवन् ! उपासकलोग कहते हैं कि हमारे प्रभु हस्त-पादादिसे युक्त साकार-विग्रह हैं और सांख्यवादी कहते हैं कि भगवान्‌ हस्त-पादादि विग्रहसे रहितनिराकार हैं। यद्यपि इस प्रकार वे एक ही वस्तुके दो परस्परविरोधी धर्मोंका वर्णन करते हैं, परंतु फिर भी उसमें विरोध नहीं है। क्योंकि दोनों एक ही परम वस्तुमें स्थित हैं। बिना आधारके हाथ-पैर आदिका होना सम्भव नहीं और निषेधकी भी कोई-न-कोई अवधि होनी ही चाहिये। आप वही आधार और निषेधकी अवधि हैं। इसलिये आप साकार, निराकार दोनोंसे ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं ॥ ३२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                00000000000





॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०८)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

योऽनुग्रहार्थं भजतां पादमूल-
मनामरूपो भगवाननन्तः
नामानि रूपाणि च जन्मकर्मभि-
र्भेजे स मह्यं परमः प्रसीदतु ||३३||
यः प्राकृतैर्ज्ञानपथैर्जनानां
यथाशयं देहगतो विभाति
यथानिलः पार्थिवमाश्रितो गुणं
स ईश्वरो मे कुरुतां मनोरथम् ||३४||

प्रभो ! आप अनन्त हैं। आपका न तो कोई प्राकृत नाम है और न कोई प्राकृत रूप; फिर भी जो आपके चरणकमलोंका भजन करते हैं, उनपर अनुग्रह करनेके लिये आप अनेक रूपोंमें प्रकट होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन-उन रूपों एवं लीलाओं के अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं। परमात्मन् ! आप मुझपर कृपा-प्रसाद कीजिये ॥ ३३ ॥ लोगोंकी उपासनाएँ प्राय: साधारण कोटिकी होती हैं। अत: आप सबके हृदयमें रहकर उनकी भावनाके अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओंके रूपमें प्रतीत होते रहते हैंठीक वैसे ही जैसे हवा गन्धका आश्रय लेकर सुगन्धित प्रतीत होती है; परन्तु वास्तवमें सुगन्धित नहीं होती। ऐसे सबकी भावनाओंका अनुसरण करनेवाले प्रभु मेरी अभिलाषा पूर्ण करें ॥ ३४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

                              000000000000





॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०९)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

श्रीशुक उवाच

इति स्तुतः संस्तुवतः स तस्मिन्नघमर्षणे
प्रादुरासीत्कुरुश्रेष्ठ भगवान्भक्तवत्सलः ||३५||
कृतपादः सुपर्णांसे प्रलम्बाष्टमहाभुजः
चक्रशङ्खासिचर्मेषु धनुःपाशगदाधरः ||३६||
पीतवासा घनश्यामः प्रसन्नवदनेक्षणः
वनमालानिवीताङ्गो लसच्छ्रीवत्सकौस्तुभः ||३७||
महाकिरीटकटकः स्फुरन्मकरकुण्डलः
काञ्च्यङ्गुलीयवलय नूपुराङ्गदभूषितः ||३८||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! विन्ध्याचल के अघमर्षण तीर्थ में जब प्रजापति दक्ष ने इस प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान्‌ उनके सामने प्रकट हुए ॥ ३५ ॥ उस समय भगवान्‌ गरुडक़े कंधों पर चरण रखे हुए थे। विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट आठ भुजाएँ थीं; उनमें चक्र, शङ्ख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश और गदा धारण किये हुए थे ॥ ३६ ॥ वर्षाकालीन मेघ  के समान श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा था। मुखमण्डल प्रफुल्लित था। नेत्रोंसे प्रसादकी वर्षा हो रही थी। घुटनोंतक वनमाला लटक रही थी। वक्ष:स्थलपर सुनहरी रेखाश्रीवत्सचिह्न और गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही थी ॥ ३७ ॥ बहुमूल्य किरीट, कंगन, मकराकृति कुण्डल, करधनी, अँगूठी, कड़े, नूपुर और बाजूबंद अपने-अपने स्थानपर सुशोभित थे ॥ ३८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                         0000000000



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट१०)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

त्रैलोक्यमोहनं रूपं बिभ्रत्त्रिभुवनेश्वरः
वृतो नारदनन्दाद्यैः पार्षदैः सुरयूथपैः ||३९||
स्तूयमानोऽनुगायद्भिः सिद्धगन्धर्वचारणैः
रूपं तन्महदाश्चर्यं विचक्ष्यागतसाध्वसः ||४०||
ननाम दण्डवद्भूमौ प्रहृष्टात्मा प्रजापतिः
न किञ्चनोदीरयितुमशकत्तीव्रया मुदा
आपूरितमनोद्वारैर्ह्रदिन्य इव निर्झरैः ||४१||
तं तथावनतं भक्तं प्रजाकामं प्रजापतिम्
चित्तज्ञः सर्वभूतानामिदमाह जनार्दनः ||४२||

त्रिभुवनपति भगवान्‌ ने त्रैलोक्यविमोहन रूप धारण कर रखा था। नारद, नन्द, सुनन्द आदि पार्षद उनके चारों ओर खड़े थे। इन्द्र आदि देवेश्वरगण स्तुति कर रहे थे तथा सिद्ध, गन्धर्व और चारण भगवान्‌के गुणोंका गान कर रहे थे। यह अत्यन्त आश्चर्यमय और अलौकिक रूप देखकर दक्षप्रजापति कुछ सहम गये ॥ ३९-४० ॥ प्रजापति दक्ष ने आनन्द से भरकर भगवान्‌ के चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम किया। जैसे झरनोंके जलसे नदियाँ भर जाती हैं, वैसे ही परमानन्द के उद्रेक से उनकी एक-एक इन्द्रिय भर गयी और आनन्दपरवश हो जानेके कारण वे कुछ भी बोल न सके ॥ ४१ ॥ परीक्षित्‌ ! प्रजापति दक्ष अत्यन्त नम्रता से झुककर भगवान्‌ के सामने खड़े हो गये। भगवान्‌ सब के हृदय की बात जानते ही हैं, उन्होंने दक्ष प्रजापतिकी भक्ति और प्रजावृद्धिकी कामना देखकर उनसे यों कहा ॥ ४२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                 000000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट११)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

श्रीभगवानुवाच

प्राचेतस महाभाग संसिद्धस्तपसा भवान्
यच्छ्रद्धया मत्परया मयि भावं परं गतः ||४३||
प्रीतोऽहं ते प्रजानाथ यत्तेऽस्योद्बृंहणं तपः
ममैष कामो भूतानां यद्भूयासुर्विभूतयः ||४४||
ब्रह्मा भवो भवन्तश्च मनवो विबुधेश्वराः
विभूतयो मम ह्येता भूतानां भूतिहेतवः ||४५||
तपो मे हृदयं ब्रह्मंस्तनुर्विद्या क्रियाकृतिः
अङ्गानि क्रतवो जाता धर्म आत्मासवः सुराः ||४६||
अहमेवासमेवाग्रे नान्यत्किञ्चान्तरं बहिः
संज्ञानमात्रमव्यक्तं प्रसुप्तमिव विश्वतः ||४७||

श्रीभगवान्‌ ने कहापरम भाग्यवान् दक्ष ! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी, क्योंकि मुझपर श्रद्धा करनेसे तुम्हारे हृदयमें मेरे प्रति परम प्रेमभावका उदय हो गया है ॥ ४३ ॥ प्रजापते ! तुमने इस विश्वकी वृद्धिके लिये तपस्या की है, इसलिये मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। क्योंकि यह मेरी ही इच्छा है कि जगत् के  समस्त प्राणी अभिवृद्ध और समृद्ध हों ॥ ४४ ॥ ब्रह्मा, शङ्कर, तुम्हारे जैसे प्रजापति, स्वायम्भुव आदि मनु तथा इन्द्रादि देवेश्वरये सब मेरी विभूतियाँ हैं और सभी प्राणियोंकी अभिवृद्धि करनेवाले हैं ॥ ४५ ॥ ब्रह्मन् ! तपस्या मेरा हृदय है, विद्या शरीर है, कर्म आकृति है, यज्ञ अङ्ग हैं, धर्म मन है और देवता प्राण हैं ॥ ४६ ॥ जब यह सृष्टि नहीं थी, तब केवल मैं ही था और वह भी निष्क्रियरूपमें। बाहर- भीतर कहीं भी और कुछ न था। न तो कोई द्रष्टा था और न दृश्य। मैं केवल ज्ञानस्वरूप और अव्यक्त था। ऐसा समझ लो, मानो सब ओर सुषुप्ति-ही-सुषुप्ति छा रही हो ॥ ४७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                           00000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट१२)

दक्ष के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और भगवान्‌ का प्रादुर्भाव

मय्यनन्तगुणेऽनन्ते गुणतो गुणविग्रहः
यदासीत्तत एवाद्यः स्वयम्भूः समभूदजः ||४८||
स वै यदा महादेवो मम वीर्योपबृंहितः
मेने खिलमिवात्मानमुद्यतः स्वर्गकर्मणि ||४९||
अथ मेऽभिहितो देवस्तपोऽतप्यत दारुणम्
नव विश्वसृजो युष्मान्येनादावसृजद्विभुः ||५०||
एषा पञ्चजनस्याङ्ग दुहिता वै प्रजापतेः
असिक्नी नाम पत्नीत्वे प्रजेश प्रतिगृह्यताम् ||५१||
मिथुनव्यवायधर्मस्त्वं प्रजासर्गमिमं पुनः
मिथुनव्यवायधर्मिण्यां भूरिशो भावयिष्यसि ||५२||
त्वत्तोऽधस्तात्प्रजाः सर्वा मिथुनीभूय मायया
मदीयया भविष्यन्ति हरिष्यन्ति च मे बलिम् ||५३||

श्रीशुक उवाच

इत्युक्त्वा मिषतस्तस्य भगवान्विश्वभावनः
स्वप्नोपलब्धार्थ इव तत्रैवान्तर्दधे हरिः ||५४||

(श्रीभगवान्‌ जह रहे हैं) प्रिय दक्ष ! मैं अनन्त गुणोंका आधार एवं स्वयं अनन्त हूँ। जब गुणमयी मायाके क्षोभसे यह ब्रह्माण्ड-शरीर प्रकट हुआ, तब इसमें अयोनिज आदिपुरुष ब्रह्मा उत्पन्न हुए ॥ ४८ ॥ जब मैंने उनमें शक्ति और चेतनाका सञ्चार किया तब देवशिरोमणि ब्रह्मा सृष्टि करनेके लिये उद्यत हुए। परंतु उन्होंने अपनेको सृष्टिकार्यमें असमर्थ-सा पाया ॥ ४९ ॥ उस समय मैंने उन्हें आज्ञा दी कि तप करो। तब उन्होंने घोर तपस्या की और उस तपस्याके प्रभावसे पहले-पहल तुम नौ प्रजापतियोंकी सृष्टि की ॥ ५० ॥ प्रिय दक्ष ! देखो, यह पञ्चजन प्रजापतिकी कन्या असिक्री है। इसे तुम अपनी पत्नीके रूपमें ग्रहण करो ॥ ५१ ॥ अब तुम गृहस्थोचित स्त्रीसहवासरूप धर्मको स्वीकार करो। यह असिक्री भी उसी धर्मको स्वीकार करेगी। तब तुम इसके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न कर सकोगे ॥ ५२ ॥ प्रजापते ! अबतक तो मानसी सृष्टि होती थी, परंतु अब तुम्हारे बाद सारी प्रजा मेरी माया से स्त्री-पुरुष के संयोग से ही उत्पन्न होगी तथा मेरी सेवा में तत्पर रहेगी ॥ ५३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंविश्वके जीवनदाता भगवान्‌ श्रीहरि यह कहकर दक्ष के सामने ही इस प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे स्वप्न में देखी हुई वस्तु स्वप्न टूटते ही लुप्त हो जाती है ॥ ५४ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                               000000000000




श्रीमद्भागवतमहापुराण षष्ठ स्कन्ध – तीसरा अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

यम और यमदूतोंका संवाद

श्रीराजोवाच

निशम्य देवः स्वभटोपवर्णितं प्रत्याह किं तानपि धर्मराजः
एवं हताज्ञो विहतान्मुरारेर्नैदेशिकैर्यस्य वशे जनोऽयम् ||१||
यमस्य देवस्य न दण्डभङ्गः कुतश्चनर्षे श्रुतपूर्व आसीत्
एतन्मुने वृश्चति लोकसंशयं न हि त्वदन्य इति मे विनिश्चितम् ||२||

श्रीशुक उवाच

भगवत्पुरुषै राजन्याम्याः प्रतिहतोद्यमाः
पतिं विज्ञापयामासुर्यमं संयमनीपतिम् ||३||

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! देवाधिदेव धर्मराजके वशमें सारे जीव हैं और भगवान्‌के पार्षदोंने उन्हींकी आज्ञा भंग कर दी तथा उनके दूतोंको अपमानित कर दिया। जब उनके दूतोंने यमपुरीमें जाकर उनसे अजामिलका वृत्तान्त कह सुनाया, तब सब कुछ सुनकर उन्होंने अपने दूतोंसे क्या कहा ? ॥ १ ॥ ऋषिवर ! मैंने पहले यह बात कभी नहीं सुनी कि किसीने किसी भी कारणसे धर्मराजके शासनका उल्लङ्घन किया हो। भगवन् ! इस विषयमें लोग बहुत सन्देह करेंगे और उसका निवारण आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं कर सकता, ऐसा मेरा निश्चय है ॥ २ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌के पार्षदोंने यमदूतोंका प्रयत्न विफल कर दिया, तब उन लोगोंने संयमनीपुरीके स्वामी एवं अपने शासक यमराजके पास जाकर निवेदन किया ॥ ३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                       00000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

यम और यमदूतोंका संवाद

यमदूता ऊचुः

कति सन्तीह शास्तारो जीवलोकस्य वै प्रभो
त्रैविध्यं कुर्वतः कर्म फलाभिव्यक्तिहेतवः ||४||
यदि स्युर्बहवो लोके शास्तारो दण्डधारिणः
कस्य स्यातां न वा कस्य मृत्युश्चामृतमेव वा ||५||
किन्तु शास्तृबहुत्वे स्याद्बहूनामिह कर्मिणाम्
शास्तृत्वमुपचारो हि यथा मण्डलवर्तिनाम् ||६
अतस्त्वमेको भूतानां सेश्वराणामधीश्वरः
शास्ता दण्डधरो नॄणां शुभाशुभविवेचनः ||७||
तस्य ते विहितो दण्डो न लोके वर्ततेऽधुना
चतुर्भिरद्भुतैः सिद्धैराज्ञा ते विप्रलम्भिता ||८||
नीयमानं तवादेशादस्माभिर्यातनागृहान्
व्यामोचयन्पातकिनं छित्त्वा पाशान्प्रसह्य ते ||९||
तांस्ते वेदितुमिच्छामो यदि नो मन्यसे क्षमम्
नारायणेत्यभिहिते मा भैरित्याययुर्द्रुतम् ||१०||

यमदूतोंने कहाप्रभो ! संसारके जीव तीन प्रकारके कर्म करते हैंपाप, पुण्य अथवा दोनोंसे मिश्रित। इन जीवोंको उन कर्मोंका फल देनेवाले शासक संसारमें कितने हैं ? ॥ ४ ॥ यदि संसारमें दण्ड देनेवाले बहुत-से शासक हों, तो किसे सुख मिले और किसे दु:खइसकी व्यवस्था एक-सी न हो सकेगी ॥ ५ ॥ संसारमें कर्म करनेवालोंके अनेक होनेके कारण यदि उनके शासक भी अनेक हों, तो उन शासकोंका शासकपना नाममात्रका ही होगा, जैसे एक सम्राट्के अधीन बहुत-से नाममात्रके सामन्त होते हैं ॥ ६ ॥ इसलिये हम तो ऐसा समझते हैं कि अकेले आप ही समस्त प्राणियों और उनके स्वामियोंके भी अधीश्वर हैं। आप ही मनुष्योंके पाप और पुण्यके निर्णायक, दण्डदाता और शासक हैं ॥ ७ ॥ प्रभो ! अबतक संसारमें कहीं भी आपके द्वारा नियत किये हुए दण्डकी अवहेलना नहीं हुई थी; किन्तु इस समय चार अद्भुत सिद्धोंने आपकी आज्ञाका उल्लङ्घन कर दिया है ॥ ८ ॥ प्रभो ! आपकी आज्ञासे हमलोग एक पापीको यातनागृहकी ओर ले जा रहे थे, परन्तु उन्होंने बलपूर्वक आपके फंदे काटकर उसे छुड़ा दिया ॥ ९ ॥ हम आपसे उनका रहस्य जानना चाहते हैं। यदि आप हमें सुननेका अधिकारी समझें तो कहें। प्रभो ! बड़े ही आश्चर्यकी बात हुई कि इधर तो अजामिलके मुँहसे नारायण !यह शब्द निकला और उधर वे डरो मत’, डरो मत ! कहते हुए झटपट वहाँ आ पहुँचे ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                0000000





॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

यम और यमदूतोंका संवाद

श्रीशुक उवाच

इति देवः स आपृष्टः प्रजासंयमनो यमः
प्रीतः स्वदूतान्प्रत्याह स्मरन्पादाम्बुजं हरेः ||११||

यम उवाच

परो मदन्यो जगतस्तस्थुषश्च
ओतं प्रोतं पटवद्यत्र विश्वम्
यदंशतोऽस्य स्थितिजन्मनाशा
नस्योतवद्यस्य वशे च लोकः ||१२||
यो नामभिर्वाचि जनं निजायां
बध्नाति तन्त्र्यामिव दामभिर्गाः
यस्मै बलिं त इमे नामकर्म-
निबन्धबद्धाश्चकिता वहन्ति ||१३||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंजब दूतोंने इस प्रकार प्रश्न किया, तब देवशिरोमणि प्रजाके शासक भगवान्‌ यमराजने प्रसन्न होकर श्रीहरिके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए उनसे कहा ॥ ११ ॥
यमराजने कहादूतो ! मेरे अतिरिक्त एक और ही चराचर जगत् के  स्वामी हैं। उन्हींमें यह सम्पूर्ण जगत् सूतमें वस्त्रके समान ओतप्रोत है। उन्हींके अंश ब्रह्मा, विष्णु और शङ्कर इस जगत् की  उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करते हैं। उन्हींने इस सारे जगत् को नथे हुए बैल के समान अपने अधीन कर रखा है ॥ १२ ॥ मेरे प्यारे दूतो ! जैसे किसान अपने बैलोंको पहले छोटी-छोटी रस्सियोंमें बाँधकर फिर उन रस्सियोंको एक बड़ी आड़ी रस्सीमें बाँध देते हैं, वैसे ही जगदीश्वर भगवान्‌ने भी ब्राह्मणादि वर्ण और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमरूप छोटी-छोटी नामकी रस्सियोंमें बाँधकर फिर सब नामोंको वेदवाणी रूप बड़ी रस्सीमें बाँध रखा है। इस प्रकार सारे जीव नाम एवं कर्मरूप बन्धनमें बँधे हुए भयभीत होकर उन्हें ही अपना सर्वस्व भेंट कर रहे हैं ॥ १३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                  00000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

यम और यमदूतोंका संवाद

अहं महेन्द्रो निर्ऋतिः प्रचेताः
सोमोऽग्निरीशः पवनो विरिञ्चिः
आदित्यविश्वे वसवोऽथ साध्या
मरुद्गणा रुद्रगणाः ससिद्धाः ||१४||
अन्ये च ये विश्वसृजोऽमरेशा
भृग्वादयोऽस्पृष्टरजस्तमस्काः
यस्येहितं न विदुः स्पृष्टमायाः
सत्त्वप्रधाना अपि किं ततोऽन्ये ||१५||
यं वै न गोभिर्मनसासुभिर्वा
हृदा गिरा वासुभृतो विचक्षते
आत्मानमन्तर्हृदि सन्तमात्मनां
चक्षुर्यथैवाकृतयस्ततः परम् ||१६||
तस्यात्मतन्त्रस्य हरेरधीशितुः
परस्य मायाधिपतेर्महात्मनः
प्रायेण दूता इह वै मनोहरा-
श्चरन्ति तद्रूपगुणस्वभावाः ||१७||
भूतानि विष्णोः सुरपूजितानि
दुर्दर्शलिङ्गानि महाद्भुतानि
रक्षन्ति तद्भक्तिमतः परेभ्यो
मत्तश्च मर्त्यानथ सर्वतश्च ||१८||

(यमराज कह रहे हैं) दूतो ! मैं, इन्द्र, निर्ऋति, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, शङ्कर, वायु, सूर्य, ब्रह्मा, बारहों आदित्य, विश्वेदेवता, आठों वसु, साध्य, उनचास मरुत्, सिद्ध, ग्यारहों रुद्र, रजोगुण एवं तमोगुणसे रहित भृगु आदि प्रजापति और बड़े-बड़े देवतासब-के-सब सत्त्वप्रधान होनेपर भी उनकी माया के अधीन हैं तथा भगवान्‌ कब क्या किस रूपमें करना चाहते हैंइस बातको नहीं जानते। तब दूसरोंकी तो बात ही क्या है ॥ १४-१५ ॥ दूतो ! जिस प्रकार घट, पट आदि रूपवान् पदार्थ अपने प्रकाशक नेत्रको नहीं देख सकतेवैसे ही अन्त:करणमें अपने साक्षीरूपसे स्थित परमात्माको कोई भी प्राणी इन्द्रिय, मन, प्राण, हृदय या वाणी आदि किसी भी साधनके द्वारा नहीं जान सकता ॥ १६ ॥ वे प्रभु सबके स्वामी और स्वयं परम स्वतन्त्र हैं। उन्हीं मायापति पुरुषोत्तम के दूत उन्हींके समान परम मनोहर रूप, गुण और स्वभावसे सम्पन्न होकर इस लोक में प्राय: विचरण किया करते हैं ॥ १७ ॥ विष्णुभगवान्‌के सुरपूजित एवं परम अलौकिक पार्षदोंका दर्शन बड़ा दुर्लभ है। वे भगवान्‌के भक्तजनोंको उनके शत्रुओंसे, मुझसे और अग्रि आदि सब विपत्तियोंसे सर्वथा सुरक्षित रखते हैं ॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                      00000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)

यम और यमदूतोंका संवाद

धर्मं तु साक्षाद्भगवत्प्रणीतं
न वै विदुरृषयो नापि देवाः
न सिद्धमुख्या असुरा मनुष्याः
कुतो नु विद्याधरचारणादयः ||१९||
स्वयम्भूर्नारदः शम्भुः कुमारः कपिलो मनुः
प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिर्वैयासकिर्वयम् ||२०||
द्वादशैते विजानीमो धर्मं भागवतं भटाः
गुह्यं विशुद्धं दुर्बोधं यं ज्ञात्वामृतमश्नुते ||२१||
एतावानेव लोकेऽस्मिन्पुंसां धर्मः परः स्मृतः
भक्तियोगो भगवति तन्नामग्रहणादिभिः ||२२||
नामोच्चारणमाहात्म्यं हरेः पश्यत पुत्रकाः
अजामिलोऽपि येनैव मृत्युपाशादमुच्यत ||२३||

(यमराज कह रहे हैं) स्वयं भगवान्‌ने ही धर्मकी मर्यादाका निर्माण किया है। उसे न तो ऋषि जानते हैं और न देवता या सिद्धगण ही। ऐसी स्थितिमें मनुष्य, विद्याधर, चारण और असुर आदि तो जान ही कैसे सकते हैं ॥ १९ ॥ भगवान्‌के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहुत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। दूतो ! भागवतधर्मका रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैंब्रह्माजी, देवर्षि नारद, भगवान्‌ शङ्कर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्मपितामह, बलि, शुकदेवजी और मैं (धर्मराज) ॥ २०-२१ ॥ इस जगत्में जीवोंके लिये बस, यही सबसे बड़ा कर्तव्यपरम धर्महै कि वे नाम-कीर्तन आदि उपायोंसे भगवान्‌के चरणोंमें भक्तिभाव प्राप्त कर लें ॥ २२ ॥ प्रिय दूतो ! भगवान्‌के नामोच्चारणकी महिमा तो देखो, अजामिल-जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करने- मात्र से मृत्युपाश से छुटकारा पा गया ॥ २३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                               000000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०६)

यम और यमदूतोंका संवाद

एतावतालमघनिर्हरणाय पुंसां
सङ्कीर्तनं भगवतो गुणकर्मनाम्नाम्
विक्रुश्य पुत्रमघवान्यदजामिलोऽपि
नारायणेति म्रियमाण इयाय मुक्तिम् ||२४||
प्रायेण वेद तदिदं न महाजनोऽयं
देव्या विमोहितमतिर्बत माययालम्
त्रय्यां जडीकृतमतिर्मधुपुष्पितायां
वैतानिके महति कर्मणि युज्यमानः ||२५||
एवं विमृश्य सुधियो भगवत्यनन्ते
सर्वात्मना विदधते खलु भावयोगम्
ते मे न दण्डमर्हन्त्यथ यद्यमीषां
स्यात्पातकं तदपि हन्त्युरुगायवादः ||२६||
ते देवसिद्धपरिगीतपवित्रगाथा
ये साधवः समदृशो भगवत्प्रपन्नाः
तान्नोपसीदत हरेर्गदयाभिगुप्तान्
नैषां वयं न च वयः प्रभवाम दण्डे ||२७||

(यमराज कह रहे हैं) भगवान्‌के गुण, लीला और नामोंका भलीभाँति कीर्तन मनुष्योंके पापोंका सर्वथा विनाश कर दे, यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है, क्योंकि अत्यन्त पापी अजामिलने मरनेके समय चञ्चल चित्तसे अपने पुत्रका नाम नारायणउच्चारण किया। इस नामाभासमात्रसे ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो ही गये, मुक्तिकी प्राप्ति भी हो गयी ॥ २४ ॥ बड़े-बड़े विद्वानोंकी बुद्धि कभी भगवान्‌ की माया से मोहित हो जाती है। वे कर्मोंके मीठे-मीठे फलोंका वर्णन करनेवाली अर्थवादरूपिणी वेदवाणीमें ही मोहित हो जाते हैं और यज्ञष्ठञ्ज६/३९ (३३६-३३७) यागादि बड़े-बड़े कर्मोंमें ही संलग्न रहते हैं तथा इस सुगमातिसुगम भगवन्नाम की महिमा को नहीं जानते। यह कितने खेद की बात है ॥ २५ ॥ प्रिय दूतो ! बुद्धिमान् पुरुष ऐसा विचार कर भगवान्‌ अनन्तमें ही सम्पूर्ण अन्त:करणसे अपना भक्तिभाव स्थापित करते हैं। वे मेरे दण्डके पात्र नहीं हैं। पहली बात तो यह है कि वे पाप करते ही नहीं, परन्तु यदि कदाचित् संयोगवश कोई पाप बन भी जाय, तो उसे भगवान्‌का गुणगान तत्काल नष्ट कर देता है ॥ २६ ॥ जो समदर्शी साधु भगवान्‌ को ही अपना साध्य और साधन दोनों समझकर उनपर निर्भर हैं, बड़े-बड़े देवता और सिद्ध उनके पवित्र चरित्रोंका प्रेमसे गान करते रहते हैं। मेरे दूतो ! भगवान्‌की गदा उनकी सदा रक्षा करती रहती है। उनके पास तुमलोग कभी भूलकर भी मत फटकना। उन्हें दण्ड देने की सामर्थ्य न हम में है और न साक्षात् काल में ही ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                           00000000000





॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

यम और यमदूतोंका संवाद

तानानयध्वमसतो विमुखान्मुकुन्द
पादारविन्दमकरन्दरसादजस्रम्
निष्किञ्चनैः परमहंसकुलैरसङ्गैर्
जुष्टाद्गृहे निरयवर्त्मनि बद्धतृष्णान् ||२८||
जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं
चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम्
कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि
तानानयध्वमसतोऽकृतविष्णुकृत्यान् ||२९||
तत्क्षम्यतां स भगवान्पुरुषः पुराणो
नारायणः स्वपुरुषैर्यदसत्कृतं नः
स्वानामहो न विदुषां रचिताञ्जलीनां
क्षान्तिर्गरीयसि नमः पुरुषाय भूम्ने ||३०||

बड़े-बड़े परमहंस दिव्य रसके लोभ से सम्पूर्ण जगत् और शरीर आदिसे भी अपनी अहंता-ममता हटाकर, अकिञ्चन होकर निरन्तर भगवान्‌ मुकुन्द के पादारविन्दका मकरन्द-रस पान करते रहते हैं। जो दुष्ट उस दिव्य रससे विमुख हैं और नरक के दरवाजे घर-गृहस्थी की तृष्णा का बोझा बाँध कर उसे ढो रहे हैं, उन्हीं को मेरे पास बार-बार लाया करो ॥ २८ ॥ जिन की जीभ भगवान्‌ के गुणों और नामों का उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके  चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणों में नहीं झुकता, उन भगवत्सेवाविमुख पापियों को ही मेरे पास लाया करो ॥ २९ ॥ आज मेरे दूतों ने भगवान्‌ के पार्षदों का अपराध करके स्वयं भगवान्‌ का ही तिरस्कार किया है। यह मेरा ही अपराध है। पुराणपुरुष भगवान्‌ नारायण हमलोगों का यह अपराध क्षमा करें। हम अज्ञानी होनेपर भी हैं उनके निजजन, और उनकी आज्ञा पानेके लिये अञ्जलि बाँधकर सदा उत्सुक रहते हैं। अत: परम महिमान्वित भगवान्‌के लिये यही योग्य है कि वे क्षमा कर दें। मैं उन सर्वान्तर्यामी एकरस अनन्त प्रभुको नमस्कार करता हूँ ॥ ३० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                 000000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

यम और यमदूतोंका संवाद

तस्मात्सङ्कीर्तनं विष्णोर्जगन्मङ्गलमंहसाम्
महतामपि कौरव्य विद्ध्यैकान्तिकनिष्कृतम् || ३१||
शृण्वतां गृणतां वीर्याण्युद्दामानि हरेर्मुहुः
यथा सुजातया भक्त्या शुद्ध्येन्नात्मा व्रतादिभिः ||३२||
कृष्णाङ्घ्रिपद्ममधुलिण् न पुनर्विसृष्ट
मायागुणेषु रमते वृजिनावहेषु
अन्यस्तु कामहत आत्मरजः प्रमार्ष्टुम्
ईहेत कर्म यत एव रजः पुनः स्यात् ||३३||
इत्थं स्वभर्तृगदितं भगवन्महित्वं
संस्मृत्य विस्मितधियो यमकिङ्करास्ते
नैवाच्युताश्रयजनं प्रतिशङ्कमाना
द्रष्टुं च बिभ्यति ततः प्रभृति स्म राजन् ||३४||
इतिहासमिमं गुह्यं भगवान्कुम्भसम्भवः
कथयामास मलय आसीनो हरिमर्चयन् ||३५||

श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित्‌ ! इसलिये तुम ऐसा समझ लो कि बड़े-से-बड़े पापोंका सर्वोत्तम, अन्तिम और पाप-वासनाओंको भी निर्मूल कर डालनेवाला प्रायश्चित्त यही है कि केवल भगवान्‌के गुणों, लीलाओं और नामोंका कीर्तन किया जाय। इसीसे संसारका कल्याण हो सकता है ॥ ३१ ॥ जो लोग बार-बार भगवान्‌के उदार और कृपापूर्ण चरित्रोंका श्रवण-कीर्तन करते हैं, उनके हृदयमें प्रेममयी भक्तिका उदय हो जाता है। उस भक्तिसे जैसी आत्मशुद्धि होती है, वैसी कृच्छ्र- चान्द्रायण आदि व्रतोंसे नहीं होती ॥ ३२ ॥ जो मनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्द-मकरन्द- रसका लोभी भ्रमर है, वह स्वभावसे ही मायाके आपातरम्य, दु:खद और पहलेसे ही छोड़े हुए विषयोंमें फिर नहीं रमता। किन्तु जो लोग उस दिव्य रससे विमुख हैं कामनाओंने जिनकी विवेकबुद्धिपर पानी फेर दिया है, वे अपने पापोंका मार्जन करनेके लिये पुन: प्रायश्चित्तरूप कर्म ही करते हैं। इससे होता यह है कि उनके कर्मोंकी वासना मिटती नहीं और वे फिर वैसे ही दोष कर बैठते हैं ॥ ३३ ॥ परीक्षित्‌ ! जब यमदूतों ने अपने स्वामी धर्मराज के मुखसे इस प्रकार भगवान्‌ की महिमा सुनी और उसका स्मरण किया, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। तभीसे वे धर्मराज की बातपर विश्वास करके अपने नाश की आशङ्का से भगवान्‌ के आश्रित भक्तोंके पास नहीं जाते। और तो क्या, वे उनकी ओर आँख उठाकर देखने में भी डरते हैं ॥ ३४ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! यह इतिहास परम गोपनीयअत्यन्त रहस्यमय है। मलयपर्वतपर विराजमान भगवान्‌ अगस्त्यजी ने श्रीहरि की पूजा करते समय मुझे यह सुनाया था ॥ ३५ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे यमपुरुषसंवादे तृतीयोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                     00000000000







श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...