बुधवार, 13 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण षष्ठ स्कन्ध – छठा अध्याय

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

दक्षप्रजापति की साठ कन्याओं के वंश का विवरण

श्रीशुक उवाच
ततः प्राचेतसोऽसिक्न्यामनुनीतः स्वयम्भुवा ||१||
षष्टिं सञ्जनयामास दुहितॄः पितृवत्सलाः
दश धर्माय कायेन्दोर्द्विषट्त्रिणव दत्तवान् ||२||
भूताङ्गिरः कृशाश्वेभ्यो द्वे द्वे तार्क्ष्याय चापराः
नामधेयान्यमूषां त्वं सापत्यानां च मे शृणु ||३||
यासां प्रसूतिप्रसवैर्लोका आपूरितास्त्रयः
भानुर्लम्बा ककुद्यामिर्विश्वा साध्या मरुत्वती ||४||
वसुर्मुहूर्ता सङ्कल्पा धर्मपत्न्यः सुताञ्शृणु
भानोस्तु देवऋषभ इन्द्र सेनस्ततो नृप ||५||
विद्योत आसील्लम्बायास्ततश्च स्तनयित्नवः
ककुदः सङ्कटस्तस्य कीकटस्तनयो यतः ||६||
भुवो दुर्गाणि यामेयः स्वर्गो नन्दिस्ततोऽभवत्
विश्वेदेवास्तु विश्वाया अप्रजांस्तान्प्रचक्षते ||७||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! तदनन्तर ब्रह्माजी के बहुत अनुनय-विनय करनेपर दक्षप्रजापतिने अपनी पत्नी असिक्री के गर्भसे साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं। वे सभी अपने पिता दक्षसे बहुत प्रेम करती थीं ॥ १ ॥ दक्षप्रजापतिने उनमेंसे दस कन्याएँ धर्मको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस चन्द्रमाको, दो भूतको, दो अङ्गिराको, दो कृशाश्वको और शेष चार  तार्क्ष्यनामधारी कश्यप को ही ब्याह दीं ॥ २ ॥ परीक्षित्‌ ! तुम इन दक्षकन्याओं और इनकी सन्तानोंके नाम मुझसे सुनो। इन्हींकी वंशपरम्परा तीनों लोकोंमें फैली हुई है ॥ ३ ॥
धर्मकी दस पत्नियाँ थींभानु, लम्बा, ककुभ्, जामि, विश्वा, साध्या, मरुत्वती, वसु, मुहूर्ता और सङ्कल्पा। इनके पुत्रों  के नाम सुनो ॥ ४ ॥ राजन् ! भानु का पुत्र देवऋषभ और उसका इन्द्रसेन था। लम्बाका पुत्र हुआ विद्योत और उसके मेघगण ॥ ५ ॥ ककुभ्का पुत्र हुआ सङ्कट, उसका कीकट और कीकटके पुत्र हुए पृथ्वीके सम्पूर्ण दुर्गों (किलों) के अभिमानी देवता। जामि के पुत्र का नाम था स्वर्ग और उसका पुत्र हुआ नन्दी ॥ ६ ॥ विश्वाके विश्वेदेव हुए। उनके कोई सन्तान न हुई। साध्या  से साध्यगण हुए और उनका पुत्र हुआ अर्थसिद्धि ॥ ७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

दक्षप्रजापति की साठ कन्याओं के वंश का विवरण

साध्योगणश्च साध्याया अर्थसिद्धिस्तु तत्सुतः
मरुत्वांश्च जयन्तश्च मरुत्वत्या बभूवतुः ||८||
जयन्तो वासुदेवांश उपेन्द्र इति यं विदुः
मौहूर्तिका देवगणा मुहूर्तायाश्च जज्ञिरे ||९||
ये वै फलं प्रयच्छन्ति भूतानां स्वस्वकालजम्
सङ्कल्पायास्तु सङ्कल्पः कामः सङ्कल्पजः स्मृतः ||१०||
वसवोऽष्टौ वसोः पुत्रास्तेषां नामानि मे शृणु
द्रोणः प्राणो ध्रुवोऽर्कोऽग्निर्दोषो वास्तुर्विभावसुः ||११||
द्रोणस्याभिमतेः पत्न्या हर्षशोकभयादयः
प्राणस्योर्जस्वती भार्या सह आयुः पुरोजवः ||१२||

मरुत्वतीके दो पुत्र हुएमरुत्वान् और जयन्त। जयन्त भगवान्‌ वासुदेवके अंश हैं, जिन्हें लोग उपेन्द्र भी कहते हैं ॥ ८ ॥ मुहूर्ता से मूहूर्त के अभिमानी देवता उत्पन्न हुए। ये अपने-अपने मूहूर्त में जीवों को उनके कर्मानुसार फल देते हैं ॥ ९ ॥ सङ्कल्पाका पुत्र हुआ संकल्प और उसका काम। वसुके पुत्र आठों वसु हुए। उनके नाम मुझसे सुनो ॥ १० ॥ द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु। द्रोणकी पत्नीका नाम है अभिमति। उससे हर्ष, शोक, भय आदिके अभिमानी देवता उत्पन्न हुए ॥ ११ ॥ प्राणकी पत्नी ऊर्जस्वतीके गर्भसे सह, आयु और पुरोजव नामके तीन पुत्र हुए। ध्रुवकी पत्नी धरणीने अनेक नगरोंके अभिमानी देवता उत्पन्न किये ॥ १२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

दक्षप्रजापति की साठ कन्याओं के वंश का विवरण

ध्रुवस्य भार्या धरणिरसूत विविधाः पुरः
अर्कस्य वासना भार्या पुत्रास्तर्षादयः स्मृताः ||१३||
अग्नेर्भार्या वसोर्धारा पुत्रा द्र विणकादयः
स्कन्दश्च कृत्तिकापुत्रो ये विशाखादयस्ततः ||१४||
दोषस्य शर्वरीपुत्रः शिशुमारो हरेः कला
वास्तोराङ्गिरसीपुत्रो विश्वकर्माकृतीपतिः ||१५||
ततो मनुश्चाक्षुषोऽभूद्विश्वे साध्या मनोः सुताः
विभावसोरसूतोषा व्युष्टं रोचिषमातपम् ||१६||

अर्ककी पत्नी वासनाके गर्भसे तर्ष (तृष्णा) आदि पुत्र हुए। अग्नि नामक वसुकी पत्नी धाराके गर्भसे द्रविणक आदि बहुत-से पुत्र उत्पन्न हुए ॥ १३ ॥ कृत्तिकापुत्र स्कन्द भी अग्नि से ही उत्पन्न हुए। उनसे विशाख आदिका जन्म हुआ। दोषकी पत्नी शर्वरीके गर्भसे शिशुमारका जन्म हुआ। वह भगवान्‌का कलावतार है ॥ १४ ॥ वसुकी पत्नी आङ्गिरसीसे शिल्पकलाके अधिपति विश्वकर्माजी हुए। विश्वकर्माके उनकी भार्या कृतीके गर्भसे चाक्षुष मनु हुए और उनके पुत्र विश्वेदेव एवं साध्यगण हुए ॥ १५ ॥ विभावसुकी पत्नी उषासे तीन पुत्र हुएव्युष्ट, रोचिष् और आतप। उनमेंसे आतपके पञ्चयाम (दिवस) नामक पुत्र हुआ, उसीके कारण सब जीव अपने-अपने कार्योंमें लगे रहते हैं ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

दक्षप्रजापति की साठ कन्याओं के वंश का विवरण

पञ्चयामोऽथ भूतानि येन जाग्रति कर्मसु
सरूपासूत भूतस्य भार्या रुद्रांश्च कोटिशः ||१७||
रैवतोऽजो भवो भीमो वाम उग्रो वृषाकपिः
अजैकपादहिर्ब्रध्नो बहुरूपो महानिति ||१८||
रुद्रस्य पार्षदाश्चान्ये घोराः प्रेतविनायकाः
प्रजापतेरङ्गिरसः स्वधा पत्नी पितॄनथ ||१९||
अथर्वाङ्गिरसं वेदं पुत्रत्वे चाकरोत्सती
कृशाश्वोऽर्चिषि भार्यायां धूमकेतुमजीजनत् ||२०||
धिषणायां वेदशिरो देवलं वयुनं मनुम्
तार्क्ष्यस्य विनता कद्रूः पतङ्गी यामिनीति च ||२१||
पतङ्ग्यसूत पतगान्यामिनी शलभानथ
सुपर्णासूत गरुडं साक्षाद्यज्ञेशवाहनम्
सूर्यसूतमनूरुं च कद्रूर्नागाननेकशः ||२२||

भूतकी पत्नी दक्षनन्दिनी सरूपाने कोटि-कोटि रुद्रगण उत्पन्न किये। इनमें रैवत, अज, भव, भीम, वाम, उग्र, वृषाकपि, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, बहुरूप, और महान्ये ग्यारह मुख्य हैं। भूतकी दूसरी पत्नी भूतासे भयङ्कर भूत और विनायकादिका जन्म हुआ। ये सब ग्यारहवें प्रधान रुद्र महान्के पार्षद हुए ॥ १७-१८ ॥ अङ्गिरा प्रजापतिकी प्रथम पत्नी स्वधाने पितृगणको उत्पन्न किया और दूसरी पत्नी सतीने अथर्वाङ्गिरस नामक वेदको ही पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया ॥ १९ ॥ कृशाश्वकी पत्नी अर्चिसे धूम्रकेशका जन्म हुआ और धिषणासे चार पुत्र हुएवेदशिरा, देवल, वयुन और मनु ॥ २० ॥ ताक्ष्1र्यनामधारी कश्यपकी चार स्त्रियाँ थींविनता, कद्रू, पतङ्गी और यामिनी। पतङ्गी से पक्षियों का और यामिनी से शलभों (पतंगों) का जन्म हुआ ॥ २१ ॥ विनता के पुत्र गरुड़ हुए, ये ही भगवान्‌ विष्णु के वाहन हैं। विनताके ही दूसरे पुत्र अरुण हैं, जो भगवान्‌ सूर्य के सारथि हैं। कद्रू से अनेकों नाग उत्पन्न हुए ॥ २२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

दक्षप्रजापति की साठ कन्याओं के वंश का विवरण

कृत्तिकादीनि नक्षत्राणीन्दोः पत्न्यस्तु भारत
दक्षशापात्सोऽनपत्यस्तासु यक्ष्मग्रहार्दितः ||२३||
पुनः प्रसाद्य तं सोमः कला लेभे क्षये दिताः
शृणु नामानि लोकानां मातॄणां शङ्कराणि च ||२४||
अथ कश्यपपत्नीनां यत्प्रसूतमिदं जगत्
अदितिर्दितिर्दनुः काष्ठा अरिष्टा सुरसा इला ||२५||
मुनिः क्रोधवशा ताम्रा सुरभिः सरमा तिमिः
तिमेर्यादोगणा आसन्श्वापदाः सरमासुताः ||२६||
सुरभेर्महिषा गावो ये चान्ये द्विशफा नृप
ताम्रायाः श्येनगृध्राद्या मुनेरप्सरसां गणाः ||२७||
दन्दशूकादयः सर्पा राजन्क्रोधवशात्मजाः
इलाया भूरुहाः सर्वे यातुधानाश्च सौरसाः ||२८||

परीक्षित्‌ ! कृत्तिका आदि सत्ताईस नक्षत्राभिमानिनी देवियाँ चन्द्रमाकी पत्नियाँ हैं। रोहिणीसे विशेष प्रेम करनेके कारण चन्द्रमाको दक्षने शाप दे दिया, जिससे उन्हें क्षयरोग हो गया था। उन्हें कोई सन्तान नहीं हुई ॥ २३ ॥ उन्होंने दक्षको फिरसे प्रसन्न करके कृष्णपक्षकी क्षीण कलाओंके शुक्लपक्षमें पूर्ण होनेका वर तो प्राप्त कर लिया, (परन्तु नक्षत्राभिमानी देवियोंसे उन्हें कोई सन्तान न हुई) अब तुम कश्यपपत्नियोंके मङ्गलमय नाम सुनो। वे लोकमाताएँ हैं। उन्हींसे यह सारी सृष्टि उत्पन्न हुई है। उनके नाम हैंअदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा और तिमि। इनमें तिमिके पुत्र हैंजलचर जन्तु और सरमाके बाघ आदि हिंसक जीव ॥ २४२६ ॥ सुरभिके पुत्र हैंभैंस, गाय तथा दूसरे दो खुरवाले पशु। ताम्राकी सन्तान हैंबाज, गीध आदि शिकारी पक्षी। मुनिसे अप्सराएँ उत्पन्न हुर्ईं ॥ २७ ॥ क्रोधवशा के पुत्र हुएसाँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तु। इलासे वृक्ष, लता आदि पृथ्वीमें उत्पन्न होनेवाली वनस्पतियाँ और सुरसासे यातुधान (राक्षस) ॥ २८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

दक्षप्रजापति की साठ कन्याओं के वंश का विवरण

अरिष्टायास्तु गन्धर्वाः काष्ठाया द्विशफेतराः
सुता दनोरेकषष्टिस्तेषां प्राधानिकाञ्शृणु ||२९||
द्विमूर्धा शम्बरोऽरिष्टो हयग्रीवो विभावसुः
अयोमुखः शङ्कुशिराः स्वर्भानुः कपिलोऽरुणः ||३०||
पुलोमा वृषपर्वा च एकचक्रोऽनुतापनः
धूम्रकेशो विरूपाक्षो विप्रचित्तिश्च दुर्जयः ||३१||
स्वर्भानोः सुप्रभां कन्यामुवाह नमुचिः किल
वृषपर्वणस्तु शर्मिष्ठां ययातिर्नाहुषो बली ||३२||
वैश्वानरसुतायाश्च चतस्रश्चारुदर्शनाः
उपदानवी हयशिरा पुलोमा कालका तथा ||३३||
उपदानवीं हिरण्याक्षः क्रतुर्हयशिरां नृप
पुलोमां कालकां च द्वे वैश्वानरसुते तु कः ||३४||
उपयेमेऽथ भगवान्कश्यपो ब्रह्मचोदितः
पौलोमाः कालकेयाश्च दानवा युद्धशालिनः ||३५||
तयोः षष्टिसहस्राणि यज्ञघ्नांस्ते पितुः पिता
जघान स्वर्गतो राजन्नेक इन्द्र प्रियङ्करः ||३६||
विप्रचित्तिः सिंहिकायां शतं चैकमजीजनत्
राहुज्येष्ठं केतुशतं ग्रहत्वं य उपागताः ||३७||

अरिष्टासे गन्धर्व और काष्ठासे घोड़े आदि एक खुरवाले पशु उत्पन्न हुए। दनुके इकसठ पुत्र हुए। उनमें प्रधान-प्रधानके नाम सुनो ॥ २९ ॥ द्विमूर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अयोमुख, शङ्कुशिरा, स्वर्भानु, कपिल, अरुण, पुलोमा, वृषपर्वा, एकचक्र, अनुतापन, धूम्रकेश, विरूपाक्ष, विप्रचित्ति और दुर्जय ॥ ३०-३१ ॥ स्वर्भानुकी कन्या सुप्रभासे नमुचिने और वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठासे महाबली नहुषनन्दन ययातिने विवाह किया ॥ ३२ ॥ दनुके पुत्र वैश्वानरकी चार सुन्दरी कन्याएँ थीं। इनके नाम थेउपदानवी, हयशिरा, पुलोमा और कालका ॥ ३३ ॥ इनमेंसे उपदानवीके साथ हिरण्याक्षका और हयशिराके साथ क्रतुका विवाह हुआ। ब्रह्माजीकी आज्ञासे प्रजापति भगवान्‌ कश्यपने ही वैश्वानरकी शेष दो पुत्रियोंपुलोमा और कालकाके साथ विवाह किया। उनसे पौलोम और कालकेय नामके साठ हजार रणवीर दानव हुए। इन्हींका दूसरा नाम निवातकवच था। ये यज्ञकर्ममें विघ्र डालते थे, इसलिये परीक्षित्‌ ! तुम्हारे दादा अर्जुनने अकेले ही उन्हें इन्द्रको प्रसन्न करनेके लिये मार डाला। यह उन दिनों की बात है, जब अर्जुन स्वर्ग में गये हुए थे ॥ ३४३६ ॥ विप्रचित्ति की पत्नी सिंहिका के गर्भ से एक सौ एक पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें सबसे बड़ा था राहु, जिसकी गणना ग्रहों में हो गयी। शेष सौ पुत्रों का नाम केतु था ॥ ३७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

दक्षप्रजापति की साठ कन्याओं के वंश का विवरण

अथातः श्रूयतां वंशो योऽदितेरनुपूर्वशः
यत्र नारायणो देवः स्वांशेनावतरद्विभुः ||३८||
विवस्वानर्यमा पूषा त्वष्टाथ सविता भगः
धाता विधाता वरुणो मित्रः शत्रु उरुक्रमः ||३९||
विवस्वतः श्राद्धदेवं संज्ञासूयत वै मनुम्
मिथुनं च महाभागा यमं देवं यमीं तथा
सैव भूत्वाथ वडवा नासत्यौ सुषुवे भुवि ||४०||
छाया शनैश्चरं लेभे सावर्णिं च मनुं ततः
कन्यां च तपतीं या वै वव्रे संवरणं पतिम् ||४१||
अर्यम्णो मातृका पत्नी तयोश्चर्षणयः सुताः
यत्र वै मानुषी जातिर्ब्रह्मणा चोपकल्पिता ||४२||
पूषानपत्यः पिष्टादो भग्नदन्तोऽभवत्पुरा
योऽसौ दक्षाय कुपितं जहास विवृतद्विजः ||४३||
त्वष्टुर्दैत्यात्मजा भार्या रचना नाम कन्यका
सन्निवेशस्तयोर्जज्ञे विश्वरूपश्च वीर्यवान् ||४४||
तं वव्रिरे सुरगणा स्वस्रीयं द्विषतामपि
विमतेन परित्यक्ता गुरुणाङ्गिरसेन यत् ||४५||

परीक्षित्‌ ! अब क्रमश: अदिति की वंशपरम्परा सुनो। इस वंश में सर्वव्यापक देवाधिदेव नारायण ने अपने अंश से वामनरूप में अवतार लिया था ॥ ३८ ॥ अदिति के पुत्र थेविवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इन्द्र और त्रिविक्रम (वामन)। यही बारह आदित्य कहलाये ॥ ३९ ॥ विवस्वान् की पत्नी महाभाग्यवती संज्ञा के गर्भ से श्राद्धदेव (वैवस्वत) मनु एवं यम-यमी का जोड़ा पैदा हुआ ! संज्ञा ने ही घोड़ी का रूप धारण करके भगवान्‌ सूर्य के द्वारा भूलोक में दोनों अश्विनीकुमारों को जन्म दिया ॥ ४० ॥ विवस्वान् की दूसरी पत्नी थी छाया। उसके शनैश्चर और सावर्णि मनु नामके दो पुत्र तथा तपती नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई। तपती ने संवरण को पतिरूप में वरण किया ॥ ४१ ॥ अर्यमा की पत्नी मातृका थी। उसके गर्भ से चर्षणी नामक पुत्र हुए। वे कर्तव्य-अकर्तव्य के ज्ञान से युक्त थे। इसलिये ब्रह्माजी ने उन्हीं के आधारपर मनुष्यजातिकी (ब्राह्मणादि वर्णोंकी) कल्पना की ॥ ४२ ॥ पूषा के कोई सन्तान न हुई। प्राचीन काल में जब शिवजी दक्षपर क्रोधित हुए थे, तब पूषा दाँत दिखाकर हँसने लगे थे; इसलिये वीरभद्र ने इनके दाँत तोड़ दिये थे। तब से पूषा पिसा हुआ अन्न ही खाते हैं ॥ ४३ ॥ दैत्यों की छोटी बहिन कुमारी रचना त्वष्टा की पत्नी थी। रचना के गर्भ से दो पुत्र हुएसंनिवेश और पराक्रमी विश्वरूप ॥ ४४ ॥ इस प्रकार विश्वरूप यद्यपि शत्रुओं के भानजे थेफिर भी जब देवगुरु बृहस्पति जी ने इन्द्र से अपमानित होकर देवताओं का परित्याग कर दिया, तब देवताओं ने विश्वरूप को ही अपना पुरोहित बनाया था ॥ ४५ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः

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श्रीमद्भागवतमहापुराण षष्ठ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

श्रीनारदजी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारदजी को दक्षका शाप

श्रीशुक उवाच

तस्यां स पाञ्चजन्यां वै विष्णुमायोपबृंहितः
हर्यश्वसंज्ञानयुतं पुत्रानजनयद्विभुः ||१||
अपृथग्धर्मशीलास्ते सर्वे दाक्षायणा नृप
पित्रा प्रोक्ताः प्रजासर्गे प्रतीचीं प्रययुर्दिशम् ||२||
तत्र नारायणसरस्तीर्थं सिन्धुसमुद्रयोः
सङ्गमो यत्र सुमहन्मुनिसिद्धनिषेवितम् ||३||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌के शक्तिसञ्चारसे दक्ष प्रजापति परम समर्थ हो गये थे। उन्होंने पञ्चजनकी पुत्री असिक्री से हर्यश्व नाम के दस हजार पुत्र उत्पन्न किये ॥ १ ॥ राजन् ! दक्षके ये सभी पुत्र एक आचरण और एक स्वभावके थे। जब उनके पिता दक्षने उन्हें सन्तान उत्पन्न करनेकी आज्ञा दी, तब वे तपस्या करनेके विचारसे पश्चिम दिशाकी ओर गये ॥ २ ॥ पश्चिम दिशामें सिन्धुनदी और समुद्रके सङ्गम पर नारायण-सर नाम का एक महान् तीर्थ है। बड़े-बड़े मुनि और सिद्ध पुरुष वहाँ निवास करते हैं ॥ ३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

श्रीनारदजी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारदजी को दक्षका शाप

तदुपस्पर्शनादेव विनिर्धूतमलाशयाः
धर्मे पारमहंस्ये च प्रोत्पन्नमतयोऽप्युत ||४||
तेपिरे तप एवोग्रं पित्रादेशेन यन्त्रिताः
प्रजाविवृद्धये यत्तान्देवर्षिस्तान्ददर्श ह ||५||
उवाच चाथ हर्यश्वाः कथं स्रक्ष्यथ वै प्रजाः
अदृष्ट्वान्तं भुवो यूयं बालिशा बत पालकाः ||६||
तथैकपुरुषं राष्ट्रं बिलं चादृष्टनिर्गमम्
बहुरूपां स्त्रियं चापि पुमांसं पुंश्चलीपतिम् ||७||
नदीमुभयतो वाहां पञ्चपञ्चाद्भुतं गृहम्
क्वचिद्धंसं चित्रकथं क्षौरपव्यं स्वयं भ्रमिम् ||८||
कथं स्वपितुरादेशमविद्वांसो विपश्चितः
अनुरूपमविज्ञाय अहो सर्गं करिष्यथ ||९||

नारायण-सरमें स्नान करते ही हर्यश्वोंके अन्त:करण शुद्ध हो गये, उनकी बुद्धि भागवतधर्ममें लग गयी। फिर भी अपने पिता दक्षकी आज्ञासे बँधे होनेके कारण वे उग्र तपस्या ही करते रहे। जब देवर्षि नारदने देखा कि भागवतधर्ममें रुचि होनेपर भी ये प्रजावृद्धिके लिये ही तत्पर हैं, तब उन्होंने उनके पास आकर कहा—‘अरे हर्यश्वो ! तुम प्रजापति हो तो क्या हुआ। वास्तवमें तो तुम लोग मूर्ख ही हो। बतलाओ तो, जब तुमलोगोंने पृथ्वीका अन्त ही नहीं देखा, तब सृष्टि कैसे करोगे? बड़े खेदकी बात है! ॥ ४६ ॥ देखोएक ऐसा देश है, जिसमें एक ही पुरुष है। एक ऐसा बिल है, जिससे बाहर निकलनेका रास्ता ही नहीं है। एक ऐसी स्त्री है, जो बहुरूपिणी है। एक ऐसा पुरुष है, जो व्याभिचारिणीका पति है। एक ऐसी नदी है, जो आगे-पीछे दोनों ओर बहती है। एक ऐसा विचित्र घर है, जो पचीस पदार्थोंसे बना है। एक ऐसा हंस है, जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है। एक ऐसा चक्र है, जो छुरे एवं वज्रसे बना हुआ है और अपने-आप घूमता रहता है। मूर्ख हर्यश्वो! जबतक तुमलोग अपने सर्वज्ञ पिताके उचित आदेशको समझ नहीं लोगे और इन उपर्युक्त वस्तुओंको देख नहीं लोगे, तबतक उनके आज्ञानुसार सृष्टि कैसे कर सकोगे?’ ॥ ७९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

श्रीनारदजी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारदजी को दक्षका शाप

श्रीशुक उवाच
तन्निशम्याथ हर्यश्वा औत्पत्तिकमनीषया
वाचः कूटं तु देवर्षेः स्वयं विममृशुर्धिया ||१०||
भूः क्षेत्रं जीवसंज्ञं यदनादि निजबन्धनम्
अदृष्ट्वा तस्य निर्वाणं किमसत्कर्मभिर्भवेत् ||११||
एक एवेश्वरस्तुर्यो भगवान्स्वाश्रयः परः
तमदृष्ट्वाभवं पुंसः किमसत्कर्मभिर्भवेत् ||१२||
पुमान्नैवैति यद्गत्वा बिलस्वर्गं गतो यथा
प्रत्यग्धामाविद इह किमसत्कर्मभिर्भवेत् ||१३||
नानारूपात्मनो बुद्धिः स्वैरिणीव गुणान्विता
तन्निष्ठामगतस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत् ||१४||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! हर्यश्व जन्मसे ही बड़े बुद्धिमान् थे। वे देवर्षि नारदकी यह पहेली, ये गूढ़ वचन सुनकर अपनी बुद्धिसे स्वयं ही विचार करने लगे॥ १० ॥ ‘(देवर्षि नारदका कहना तो सच है) यह लिङ्गशरीर ही, जिसे साधारणत: जीव कहते हैं, पृथ्वी है और यही आत्माका अनादि बन्धन है। इसका अन्त (विनाश) देखे बिना मोक्षके अनुपयोगी कर्मोंमें लगे रहनेसे क्या लाभ है? ॥ ११ ॥ सचमुच ईश्वर एक ही है। वह जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं और उनके अभिमानियों से भिन्न, उनका साक्षी तुरीय है। वही सबका आश्रय है, परंतु उसका आश्रय कोई नहीं है। वही भगवान्‌ हैं। उस प्रकृति आदिसे अतीत, नित्यमुक्त परमात्माको देखे बिना भगवान्‌के प्रति असमर्पित कर्मोंसे जीवको क्या लाभ है? ॥ १२ ॥ जैसे मनुष्य बिलरूप पातालमें प्रवेश करके वहाँसे नहीं लौट पातावैसे ही जीव जिसको प्राप्त होकर फिर संसारमें नहीं लौटता, जो स्वयं अन्तज्र्योति:स्वरूप है, उस परमात्माको जाने बिना विनाशवान् स्वर्ग आदि फल देनेवाले कर्मोंको करनेसे क्या लाभ है? ॥ १३ ॥ यह अपनी बुद्धि ही बहुरूपिणी और सत्त्व, रज आदि गुणोंको धारण करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्रीके समान है। इस जीवनमें इसका अन्त जाने बिनाविवेक प्राप्त किये बिना अशान्तिको अधिकाधिक बढ़ानेवाले कर्म करनेका प्रयोजन ही क्या है ? ॥ १४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

श्रीनारदजी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारदजी को दक्षका शाप

तत्सङ्गभ्रंशितैश्वर्यं संसरन्तं कुभार्यवत्
तद्गतीरबुधस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत् ||१५||
सृष्ट्यप्ययकरीं मायां वेलाकूलान्तवेगिताम्
मत्तस्य तामविज्ञस्य किमसत्कर्मभिर्भवेत् ||१६||
पञ्चविंशतितत्त्वानां पुरुषोऽद्भुतदर्पणः
अध्यात्ममबुधस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत् ||१७||
ऐश्वरं शास्त्रमुत्सृज्य बन्धमोक्षानुदर्शनम्
विविक्तपदमज्ञाय किमसत्कर्मभिर्भवेत् ||१८

यह बुद्धि ही कुलटा स्त्री के समान है। इसके सङ्गसे जीवरूप पुरुषका ऐश्वर्यइसकी स्वतन्त्रता नष्ट हो गयी है। इसीके पीछे-पीछे वह कुलटा स्त्रीके पतिकी भाँति न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा है। इसकी विभिन्न गतियों, चालोंको जाने बिना ही विवेकरहित कर्मोंसे क्या सिद्धि मिलेगी ? ॥ १५ ॥ माया ही दोनों ओर बहनेवाली नदी है। यह सृष्टि भी करती है और प्रलय भी। जो लोग इससे निकलनेके लिये तपस्या, विद्या आदि तटका सहारा लेने लगते हैं, उन्हें रोकनेके लिये क्रोध, अहंकार आदिके रूपमें वह और भी वेगसे बहने लगती है। जो पुरुष उसके वेगसे विवश एवं अनभिज्ञ है, वह मायिक कर्मोंसे क्या लाभ उठावेगा? ॥ १६ ॥ ये पचीस तत्त्व ही एक अद्भुत घर हैं। पुरुष उनका आश्चर्यमय आश्रय है। वही समस्त कार्य-कारणात्मक जगत् का अधिष्ठाता है। यह बात न जानकर सच्चा स्वातन्त्र्य प्राप्त किये बिना झूठी स्वतन्त्रतासे किये जानेवाले कर्म व्यर्थ ही हैं ॥ १७ ॥ भगवान्‌का स्वरूप बतलानेवाला शास्त्र हंसके समान नीर-क्षीर-विवेकी है। वह बन्ध-मोक्ष, चेतन और जडक़ो अलग-अलग करके दिखा देता है। ऐसे अध्यात्मशास्त्ररूप हंस का आश्रय छोडक़र उसे जाने बिना बहिर्मुख बनानेवाले कर्मोंसे लाभ ही क्या है ? ॥ १८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

श्रीनारदजी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारदजी को दक्षका शाप

कालचक्रं भ्रमिस्तीक्ष्णं सर्वं निष्कर्षयज्जगत्
स्वतन्त्रमबुधस्येह किमसत्कर्मभिर्भवेत् ||१९||
शास्त्रस्य पितुरादेशं यो न वेद निवर्तकम्
कथं तदनुरूपाय गुणविस्रम्भ्युपक्रमेत् ||२०||
इति व्यवसिता राजन्हर्यश्वा एकचेतसः
प्रययुस्तं परिक्रम्य पन्थानमनिवर्तनम् ||२१||
स्वरब्रह्मणि निर्भात हृषीकेशपदाम्बुजे
अखण्डं चित्तमावेश्य लोकाननुचरन्मुनिः ||२२||

यह काल ही एक चक्र है। यह निरन्तर घूमता रहता है। इसकी धार छुरे और वज्रके समान तीखी है और यह सारे जगत् को अपनी ओर खींच रहा है। इसको रोकनेवाला कोई नहीं, यह परम स्वतन्त्र है। यह बात न जानकर कर्मोंके फलको नित्य समझकर जो लोग सकामभावसे उनका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उन अनित्य कर्मोंसे क्या लाभ होगा ? ॥ १९ ॥ शास्त्र ही पिता है; क्योंकि दूसरा जन्म शास्त्रके  द्वारा ही होता है और उसका आदेश कर्मों में लगना नहीं, उनसे निवृत्त होना है। इसे जो नहीं जानता, वह गुणमय शब्द आदि विषयों पर विश्वास कर लेता है। अब वह कर्मों से निवृत्त होने की आज्ञाका पालन भला कैसे कर सकता है ?’ ॥ २० ॥ परीक्षित्‌ ! हर्यश्वों ने एक मत से यही निश्चय किया और नारदजी की परिक्रमा करके वे उस मोक्षपथ के पथिक बन गये, जिसपर चलकर फिर लौटना नहीं पड़ता ॥ २१ ॥ इसके बाद देवर्षि नारद स्वरब्रह्म मेंसंगीतलहरी में अभिव्यक्त हुए, भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों में अपने चित्त को अखण्डरूपसे स्थिर करके लोक- लोकान्तरों में विचरने लगे ॥ २२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

श्रीनारदजी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारदजी को दक्षका शाप

नाशं निशम्य पुत्राणां नारदाच्छीलशालिनाम्
अन्वतप्यत कः शोचन्सुप्रजस्त्वं शुचां पदम् ||२३||
स भूयः पाञ्चजन्यायामजेन परिसान्त्वितः
पुत्रानजनयद्दक्षः सवलाश्वान्सहस्रिणः ||२४||
ते च पित्रा समादिष्टाः प्रजासर्गे धृतव्रताः
नारायणसरो जग्मुर्यत्र सिद्धाः स्वपूर्वजाः ||२५||
तदुपस्पर्शनादेव विनिर्धूतमलाशयाः
जपन्तो ब्रह्म परमं तेपुस्तत्र महत्तपः ||२६||
अब्भक्षाः कतिचिन्मासान्कतिचिद्वायुभोजनाः
आराधयन्मन्त्रमिममभ्यस्यन्त इडस्पतिम् ||२७||
ॐ नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने
विशुद्धसत्त्वधिष्ण्याय महाहंसाय धीमहि ||२८||

(श्रीशुकदेवजी कह रहे हैं) परीक्षित्‌ ! जब दक्षप्रजापतिको  मालूम हुआ कि मेरे शीलवान् पुत्र नारद के उपदेशसे कर्तव्यच्युत हो गये हैं, तब वे शोक से व्याकुल हो गये। उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ। सचमुच अच्छी सन्तानका होना भी शोकका ही कारण है ॥ २३ ॥ ब्रह्माजी ने दक्षप्रजापति को बड़ी सान्त्वना दी। तब उन्होंने पञ्चजन-नन्दिनी असिक्री के गर्भ से एक हजार पुत्र और उत्पन्न किये । उनका नाम था शबलाश्व ॥ २४ ॥ वे भी अपने पिता दक्षप्रजापति की आज्ञा पाकर प्रजासृष्टि के उद्देश्य से तप करनेके लिये उसी नारायणसरोवर पर गये, जहाँ जाकर उनके बड़े भाइयों ने सिद्धि प्राप्त की थी ॥ २५ ॥ शबलाश्वों ने वहाँ जाकर उस सरोवर में स्नान किया। स्नानमात्रसे ही उनके अन्त:करणके सारे मल धुल गये। अब वे परब्रह्मस्वरूप प्रणवका जप करते हुए महान् तपस्यामें लग गये ॥ २६ ॥ कुछ महीनोंतक केवल जल और कुछ महीनोंतक केवल हवा पीकर ही उन्होंने हम नमस्कारपूर्वक ओङ्कारस्वरूप भगवान्‌ नारायणका ध्यान करते हैं, जो विशुद्धचित्तमें निवास करते हैं सबके अन्तर्यामी हैं तथा सर्वव्यापक एवं परमहंसस्वरूप हैं।’ —इस मन्त्र[*] का अभ्यास करते हुए मन्त्राधिपति भगवान्‌ की आराधना की ॥ २७-२८ ॥
.............................................
[*] ॐ नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने। विशुद्धसत्त्वधिष्ण्याय महाहंसाय धीमहि ।।

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

श्रीनारदजी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारदजी को दक्षका शाप

इति तानपि राजेन्द्र प्रजासर्गधियो मुनिः
उपेत्य नारदः प्राह वाचः कूटानि पूर्ववत् ||२९||
दाक्षायणाः संशृणुत गदतो निगमं मम
अन्विच्छतानुपदवीं भ्रातॄणां भ्रातृवत्सलाः ||३०||
भ्रातॄणां प्रायणं भ्राता योऽनुतिष्ठति धर्मवित्
स पुण्यबन्धुः पुरुषो मरुद्भिः सह मोदते ||३१||
एतावदुक्त्वा प्रययौ नारदोऽमोघदर्शनः
तेऽपि चान्वगमन्मार्गं भ्रातॄणामेव मारिष ||३२||
सध्रीचीनं प्रतीचीनं परस्यानुपथं गताः
नाद्यापि ते निवर्तन्ते पश्चिमा यामिनीरिव ||३३||
एतस्मिन्काल उत्पातान्बहून्पश्यन्प्रजापतिः
पूर्ववन्नारदकृतं पुत्रनाशमुपाशृणोत् ||३४||
चुक्रोध नारदायासौ पुत्रशोकविमूर्च्छितः
देवर्षिमुपलभ्याह रोषाद्विस्फुरिताधरः ||३५||

(श्रीशुकदेवजी कह रहे हैं) परीक्षित्‌ ! इस प्रकार दक्षके पुत्र शबलाश्व प्रजासृष्टिके लिये तपस्यामें संलग्न थे। उनके पास भी देवर्षि नारद आये और उन्होंने पहले के समान ही कूट वचन कहे ॥२९॥ उन्होंने कहा—‘दक्षप्रजापति के पुत्रो ! मैं तुमलोगों को जो उपदेश देता हूँ, उसे सुनो। तुमलोग तो अपने भाइयोंसे बड़ा प्रेम करते हो। इसलिये उनके मार्ग का अनुसन्धान करो ॥ ३० ॥ जो धर्मज्ञ भाई अपने बड़े भाइयों के श्रेष्ठ मार्ग का अनुसरण करता है, वही सच्चा भाई है ! वह पुण्यवान् पुरुष परलोक में मरुद्गणों के साथ आनन्द भोगता है ॥ ३१ ॥ परीक्षित्‌ ! शबलाश्वों को इस प्रकार उपदेश देकर देवर्षि नारद वहाँसे चले गये और उन लोगों ने भी अपने भाइयों के मार्ग का ही अनुगमन किया; क्योंकि नारदजी का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता ॥ ३२ ॥ वे उस पथ के पथिक बने, जो अन्तर्मुखी वृत्तिसे प्राप्त होनेयोग्य, अत्यन्त सुन्दर और भगवत्प्राप्तिके अनुकूल है। वे बीती हुई रात्रियोंके समान न तो उस मार्गसे अबतक लौटे हैं और न आगे लौटेंगे ही ॥ ३३ ॥
दक्षप्रजापतिने देखा कि आजकल बहुत-से अशकुन हो रहे हैं। उनके चित्तमें पुत्रोंके अनिष्टकी आशङ्का हो आयी। इतनेमें ही उन्हें मालूम हुआ कि पहलेकी भाँति अबकी बार भी नारदजीने मेरे पुत्रों को चौपट कर दिया ॥ ३४ ॥ उन्हें अपने पुत्रोंकी  कर्तव्यच्युति से बड़ा शोक हुआ और वे नारदजीपर बड़े क्रोधित हुए उनके मिलने पर क्रोध के मारे दक्षप्रजापति के होठ फडक़ने लगे और वे आवेश में भरकर नारदजी से बोले ॥ ३५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

श्रीनारदजी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारदजी को दक्षका शाप

श्रीदक्ष उवाच
अहो असाधो साधूनां साधुलिङ्गेन नस्त्वया
असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्गः प्रदर्शितः ||३६||
ऋणैस्त्रिभिरमुक्तानाममीमांसितकर्मणाम्
विघातः श्रेयसः पाप लोकयोरुभयोः कृतः ||३७||
एवं त्वं निरनुक्रोशो बालानां मतिभिद्धरेः
पार्षदमध्ये चरसि यशोहा निरपत्रपः ||३८||
ननु भागवता नित्यं भूतानुग्रहकातराः
ऋते त्वां सौहृदघ्नं वै वैरङ्करमवैरिणाम् ||३९||
नेत्थं पुंसां विरागः स्यात्त्वया केवलिना मृषा
मन्यसे यद्युपशमं स्नेहपाशनिकृन्तनम् ||४०||

दक्षप्रजापतिने कहाओ दुष्ट ! तुमने झूठमूठ साधुओं का बाना पहन रखा है। हमारे भोलेभाले बालकोंको भिक्षुकोंका मार्ग दिखाकर तुमने हमारा बड़ा अपकार किया है ॥ ३६ ॥ अभी उन्होंने ब्रह्मचर्यसे ऋषि-ऋण, यज्ञसे देव-ऋण और पुत्रोत्पत्ति से पितृ-ऋण नहीं उतारा था। उन्हें अभी कर्मफलकी नश्वरताके सम्बन्धमें भी कुछ विचार नहीं था। परंतु पापात्मन् ! तुमने उनके दोनों लोकोंका सुख चौपट कर दिया ॥ ३७ ॥ सचमुच तुम्हारे हृदयमें दयाका नाम भी नहीं है। तुम इस प्रकार बच्चोंकी बुद्धि बिगाड़ते फिरते हो। तुमने भगवान्‌के पार्षदोंमें रहकर उनकी कीर्तिमें कलङ्क ही लगाया। सचमुच तुम बड़े निर्लज्ज हो ॥ ३८ ॥ मैं जानता हूँ कि भगवान्‌के पार्षद सदा-सर्वदा दुखी प्राणियोंपर दया करनेके लिये व्यग्र रहते हैं। परंतु तुम प्रेमभावका विनाश करनेवाले हो। तुम उन लोगोंसे भी वैर करते हो, जो किसीसे वैर नहीं करते ॥ ३९ ॥ यदि तुम ऐसा समझते हो कि वैराग्यसे ही स्नेहपाशविषयासक्तिका बन्धन कट सकता है, तो तुम्हारा यह विचार ठीक नहीं है; क्योंकि तुम्हारे जैसे झूठमूठ वैराग्यका स्वाँग भरनेवालोंसे किसीको वैराग्य नहीं हो सकता ॥ ४० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

श्रीनारदजी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारदजी को दक्षका शाप

नानुभूय न जानाति पुमान्विषयतीक्ष्णताम्
निर्विद्यते स्वयं तस्मान्न तथा भिन्नधीः परैः ||४१||
यन्नस्त्वं कर्मसन्धानां साधूनां गृहमेधिनाम्
कृतवानसि दुर्मर्षं विप्रियं तव मर्षितम् ||४२||
तन्तुकृन्तन यन्नस्त्वमभद्रमचरः पुनः
तस्माल्लोकेषु ते मूढ न भवेद्भ्रमतः पदम् ||४३||

श्रीशुक उवाच

प्रतिजग्राह तद्बाढं नारदः साधुसम्मतः
एतावान्साधुवादो हि तितिक्षेतेश्वरः स्वयम् ||४४||

नारद ! मनुष्य विषयोंका अनुभव किये बिना उनकी कटुता नहीं जान सकता। इसलिये उनकी दु:खरूपताका अनुभव होनेपर स्वयं जैसा वैराग्य होता है, वैसा दूसरोंके बहकानेसे नहीं होता ॥ ४१ ॥ हमलोग सद्गृहस्थ हैं, अपनी धर्ममर्यादाका पालन करते हैं। एक बार पहले भी तुमने हमारा असह्य अपकार किया था। तब हमने उसे सह लिया ॥ ४२ ॥ तुम तो हमारी वंशपरम्परा का उच्छेद करनेपर ही उतारू हो रहे हो। तुमने फिर हमारे साथ वही दुष्टताका व्यवहार किया। इसलिये मूढ़ ! जाओ, लोक-लोकान्तरोंमें भटकते रहो। कहीं भी तुम्हारे लिये ठहरनेको ठौर नहीं होगी ॥ ४३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! संतशिरोमणि देवर्षि नारद ने बहुत अच्छाकहकर दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया। संसार में बस, साधुता इसी का नाम है कि बदला लेने की शक्ति रहनेपर भी दूसरे का किया हुआ अपकार सह लिया जाय ॥ ४४ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नारदशापो नाम पञ्चमोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...