बुधवार, 13 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण षष्ठ स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण

श्रीशुक उवाच
वृत्रे हते त्रयो लोका विना शक्रेण भूरिद ।
सपाला ह्यभवन् सद्यो विज्वरा निर्वृतेन्द्रियाः ॥ १ ॥
देवर्षिपितृभूतानि दैत्या देवानुगाः स्वयम् ।
प्रतिजग्मुः स्वधिष्ण्यानि ब्रह्मेशेन्द्रादयस्ततः ॥ २ ॥

श्रीराजोवाच
इन्द्रस्यानिर्वृतेर्हेतुं श्रोतुमिच्छामि भो मुने ।
येनासन् सुखिनो देवा हरेर्दुःखं कुतोऽभवत् ॥ ३ ॥

श्रीशुक उवाच
वृत्रविक्रमसंविग्नाः सर्वे देवाः सहर्षिभिः ।
तद्वधायार्थयन्निन्द्रं नैच्छद्भीतो बृहद्वधात् ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंमहादानी परीक्षित्‌ ! वृत्रासुरकी मृत्युसे इन्द्रके अतिरिक्त तीनों लोक और लोकपाल तत्क्षण परम प्रसन्न हो गये। उनका भय, उनकी चिन्ता जाती रही ॥ १ ॥ युद्ध समाप्त होनेपर देवता, ऋषि, पितर, भूत, दैत्य और देवताओंके अनुचर गन्धर्व आदि इन्द्रसे बिना पूछे ही अपने-अपने लोकको लौट गये। इसके पश्चात् ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र आदि भी चले गये ॥२॥
राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! मैं देवराज इन्द्रकी अप्रसन्नताका कारण सुनना चाहता हूँ। जब वृत्रासुरके वधसे सभी देवता सुखी हुए, तब इन्द्रको दु:ख होनेका क्या कारण था ? ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! जब वृत्रासुरके पराक्रमसे सभी देवता और ऋषि-महर्षि अत्यन्त भयभीत हो गये, तब उन लोगोंने उसके वधके लिये इन्द्रसे प्रार्थना की; परन्तु वे ब्रह्महत्याके भयसे उसे मारना नहीं चाहते थे ॥ ४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण

इन्द्र उवाच
स्त्रीभूद्रुमजलैरेनो विश्वरूपवधोद्भवम् ।
विभक्तमनुगृह्णद्भिर्वृत्रहत्यां क्व मार्ज्म्यहम् ॥ ५ ॥

श्रीशुक उवाच
ऋषयस्तदुपाकर्ण्य महेन्द्रमिदमब्रुवन् ।
याजयिष्याम भद्रं ते हयमेधेन मा स्म भैः ॥ ६ ॥
हयमेधेन पुरुषं परमात्मानमीश्वरम् ।
इष्ट्वा नारायणं देवं मोक्ष्यसेऽपि जगद्वधात् ॥ ७ ॥
ब्रह्महा पितृहा गोघ्नो मातृहाचार्यहाघवान् ।
श्वादः पुल्कसको वापि शुद्ध्येरन् यस्य कीर्तनात् ॥ ८ ॥
तमश्वमेधेन महामखेन श्रद्धान्वितोऽस्माभिरनुष्ठितेन ।
हत्वापि सब्रह्मचराचरं त्वं न लिप्यसे किं खलनिग्रहेण ॥ ९ ॥

देवराज इन्द्रने उन लोगोंसे कहादेवताओ और ऋषियो ! मुझे विश्वरूपके वधसे जो ब्रह्महत्या लगी थी, उसे तो स्त्री, पृथ्वी, जल और वृक्षोंने कृपा करके बाँट लिया। अब यदि मैं वृत्रका वध करूँ तो उसकी हत्यासे मेरा छुटकारा कैसे होगा ? ॥ ५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंदेवराज इन्द्रकी बात सुनकर ऋषियोंने उनसे कहा—‘देवराज ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम तनिक भी भय मत करो। क्योंकि हम अश्वमेध यज्ञ कराकर तुम्हें सारे पापोंसे मुक्त कर देंगे ॥ ६ ॥ अश्वमेध यज्ञके द्वारा सबके अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् परमात्मा नारायणदेव की आराधना करके तुम सम्पूर्ण जगत्का वध करनेके पापसे भी मुक्त हो सकोगे; फिर वृत्रासुरके वधकी तो बात ही क्या है ॥ ७ ॥ देवराज ! भगवान्‌के नाम-कीर्तनमात्रसे ही ब्राह्मण, पिता, गौ, माता, आचार्य आदिकी हत्या करनेवाले महापापी, कुत्तेका मांस खानेवाले चाण्डाल और कसाई भी शुद्ध हो जाते हैं ॥ ८ ॥ हमलोग अश्वमेधनामक महायज्ञका अनुष्ठान करेंगे। उसके द्वारा श्रद्धापूर्वक भगवान्‌की आराधना करके तुम ब्रह्मापर्यन्त समस्त चराचर जगत्की हत्याके भी पापसे लिप्त नहीं होगे। फिर इस दुष्टको दण्ड देनेके पापसे छूटनेकी तो बात ही क्या है ॥ ९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण

श्रीशुक उवाच
एवं सञ्चोदितो विप्रैर्मरुत्वानहनद्रिपुम् ।
ब्रह्महत्या हते तस्मिन्नाससाद वृषाकपिम् ॥ १० ॥
तयेन्द्रः स्मासहत्तापं निर्वृतिर्नामुमाविशत् ।
ह्रीमन्तं वाच्यतां प्राप्तं सुखयन्त्यपि नो गुणाः ॥ ११ ॥
तां ददर्शानुधावन्तीं चाण्डालीमिव रूपिणीम् ।
जरया वेपमानाङ्गीं यक्ष्मग्रस्तामसृक्पटाम् ॥ १२ ॥
विकीर्य पलितान् केशांस्तिष्ठ तिष्ठेति भाषिणीम् ।
मीनगन्ध्यसुगन्धेन कुर्वतीं मार्गदूषणम् ॥ १३ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार ब्राह्मणोंसे प्रेरणा प्राप्त करके देवराज इन्द्रने वृत्रासुरका वध किया था। अब उसके मारे जानेपर ब्रह्महत्या इन्द्रके पास आयी ॥ १० ॥ उसके कारण इन्द्रको बड़ा क्लेश, बड़ी जलन सहनी पड़ी। उन्हें एक क्षणके लिये भी चैन नहीं पड़ता था। सच है, जब किसी सङ्कोची सज्जनपर कलङ्क लग जाता है, तब उसके धैर्य आदि गुण भी उसे सुखी नहीं कर पाते ॥ ११ ॥ देवराज इन्द्रने देखा कि ब्रह्महत्या साक्षात् चाण्डालीके समान उनके पीछे-पीछे दौड़ी आ रही है। बुढ़ापेके कारण उसके सारे अङ्ग काँप रहे हैं और क्षयरोग उसे सता रहा है। उसके सारे वस्त्र खूनसे लथपथ हो रहे हैं ॥ १२ ॥ वह अपने सफेद-सफेद बालोंको बिखेरे ठहर जा ! ठहर जा !!इस प्रकार चिल्लाती आ रही है। उसके श्वासके साथ मछलीकी-सी दुर्गन्ध आ रही है, जिसके कारण मार्ग भी दूषित होता जा रहा है ॥ १३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण

नभो गतो दिशः सर्वाः सहस्राक्षो विशाम्पते ।
प्रागुदीचीं दिशं तूर्णं प्रविष्टो नृप मानसम् ॥ १४ ॥
स आवसत्पुष्करनालतन्तू-
नलब्धभोगो यदिहाग्निदूतः ।
वर्षाणि साहस्रमलक्षितोऽन्तः
स ञ्चिन्तयन् ब्रह्मवधाद्विमोक्षम् ॥ १५ ॥
तावत्त्रिणाकं नहुषः शशास
विद्यातपोयोगबलानुभावः ।
स सम्पदैश्वर्यमदान्धबुद्धि-
र्नीतस्तिरश्चां गतिमिन्द्रपत्न्या ॥ १६॥
ततो गतो ब्रह्मगिरोपहूत
ऋतम्भरध्याननिवारिताघः ।
पापस्तु दिग्देवतया हतौजा-
स्तं नाभ्यभूदवितं विष्णुपत्न्या ॥ १७ ॥

राजन् ! देवराज इन्द्र उसके भयसे दिशाओं और आकाशमें भागते फिरे। अन्तमें कहीं भी शरण न मिलनेके कारण उन्होंने पूर्व और उत्तरके कोनेमें स्थित मानसरोवरमें शीघ्रतासे प्रवेश किया ॥ १४ ॥ देवराज इन्द्र मानसरोवरके कमलनालके तन्तुओंमें एक हजार वर्षोंतक छिपकर निवास करते रहे और सोचते रहे कि ब्रह्महत्यासे मेरा छुटकारा कैसे होगा। इतने दिनोंतक उन्हें भोजनके लिये किसी प्रकारकी सामग्री न मिल सकी। क्योंकि वे अग्निदेवताके मुखसे भोजन करते हैं और अग्नि देवता जलके भीतर कमलतन्तुओंमें जा नहीं सकते थे ॥ १५ ॥ जबतक देवराज इन्द्र कमलतन्तुओंमें रहे, तबतक अपनी विद्या, तपस्या और योगबलके प्रभावसे राजा नहुष स्वर्गका शासन करते रहे। परंतु जब उन्होंने सम्पत्ति और ऐश्वर्यके मदसे अंधे होकर इन्द्रपत्नी शची के साथ अनाचार करना चाहा, तब शचीने उनसे ऋषियोंका अपराध करवाकर उन्हें शाप दिला दियाजिससे वे साँप हो गये ॥ १६ ॥ तदनन्तर जब सत्य के परम पोषक भगवान्‌ का ध्यान करने से इन्द्रके पाप नष्टप्राय हो गये, तब ब्राह्मणोंके बुलवानेपर वे पुन: स्वर्गलोकमें गये। कमलवनविहारिणी विष्णुपत्नी लक्ष्मीजी इन्द्रकी रक्षा कर रही थीं और पूर्वोत्तर दिशा के अधिपति रुद्र ने पाप को पहले ही निस्तेज कर दिया था, जिससे वह इन्द्र पर आक्रमण नहीं कर सका ॥ १७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण

तं च ब्रह्मर्षयोऽभ्येत्य हयमेधेन भारत ।
यथावद्दीक्षयां चक्रुः पुरुषाराधनेन ह ॥ १८ ॥
अथेज्यमाने पुरुषे सर्वदेवमयात्मनि ।
अश्वमेधे महेन्द्रेण वितते ब्रह्मवादिभिः ॥ १९ ॥
स वै त्वाष्ट्रवधो भूयानपि पापचयो नृप ।
नीतस्तेनैव शून्याय नीहार इव भानुना ॥ २० ॥
स वाजिमेधेन यथोदितेन
वितायमानेन मरीचिमिश्रैः ।
इष्ट्वाधियज्ञं पुरुषं पुराण-
मिन्द्रो महानास विधूतपापः ॥ २१ ॥
इदं महाख्यानमशेषपाप्मनां
प्रक्षालनं तीर्थपदानुकीर्तनम् ।
भक्त्युच्छ्रयं भक्तजनानुवर्णनं
महेन्द्रमोक्षं विजयं मरुत्वतः ॥ २२ ॥
पठेयुराख्यानमिदं सदा बुधाः
शृण्वन्त्यथो पर्वणि पर्वणीन्द्रियम् ।
धन्यं यशस्यं निखिलाघमोचनं
रिपुञ्जयं स्वस्त्ययनं तथायुषम् ॥ २३ ॥

परीक्षित्‌ ! इन्द्रके स्वर्गमें आ जानेपर ब्रहमर्षियोंने वहाँ आकर भगवान्‌की आराधनाके लिये इन्द्रको अश्वमेध यज्ञकी दीक्षा दी, उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया ॥ १८ ॥ जब वेदवादी ऋषियोंने उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया तथा देवराज इन्द्रने उस यज्ञके द्वारा सर्वदेवस्वरूप पुरुषोत्तम भगवान्‌की आराधना की, तब भगवान्‌की आराधनाके प्रभावसे वृत्रासुरके वधकी वह बहुत बड़ी पापराशि इस प्रकार भस्म हो गयी, जैसे सूर्योदयसे कुहरेका नाश हो जाता है ॥ १९-२० ॥ जब मरीचि आदि मुनीश्वरोंने उनसे विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ कराया, तब उसके द्वारा सनातन पुरुष यज्ञपति भगवान्‌की आराधना करके इन्द्र सब पापोंसे छूट गये और पूर्ववत् फिर पूजनीय हो गये ॥ २१ ॥
परीक्षित्‌ ! इस श्रेष्ठ आख्यानमें इन्द्रकी विजय, उनकी पापोंसे मुक्ति और भगवान्‌के प्यारे भक्त वृत्रासुरका वर्णन हुआ है। इसमें तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले भगवान्‌के अनुग्रह आदि गुणोंका सङ्कीर्तन है। यह सारे पापोंको धो बहाता है और भक्तिको बढ़ाता है ॥ २२ ॥ बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिये कि वे इस इन्द्रसम्बन्धी आख्यान को सदा-सर्वदा पढ़ें और सुनें। विशेषत: पर्वों के अवसर पर तो अवश्य ही इसका सेवन करें । यह धन और यश को बढ़ाता है, सारे पापों से छुड़ाता है, शुत्रुपर विजय प्राप्त कराता है, तथा आयु और मङ्गल की अभिवृद्धि करता है ॥२३॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे इन्द्रविजयो नाम त्रयोदशोऽध्या‍यः ॥ १३ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण षष्ठ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

वृत्रासुरका वध

श्रीऋषिरुवाच -

एवं जिहासुर्नृप देहमाजौ
     मृत्युं वरं विजयान्मन्यमानः ।
शूलं प्रगृह्याभ्यपतत् सुरेन्द्रं
     यथा महापुरुषं कैटभोऽप्सु ॥ १ ॥
ततो युगान्ताग्निकठोरजिह्वं
     आविध्य शूलं तरसासुरेन्द्रः ।
क्षिप्त्वा महेन्द्राय विनद्य वीरो
     हतोऽसि पापेति रुषा जगाद ॥ २ ॥
ख आपतत् तद् विचलद् ग्रहोल्कवद्
     निरीक्ष्य दुष्प्रेक्ष्यमजातविक्लवः ।
वज्रेण वज्री शतपर्वणाच्छिनद्
     भुजं च तस्योरगराजभोगम् ॥ ३ ॥
छिन्नैकबाहुः परिघेण वृत्रः
     संरब्ध आसाद्य गृहीतवज्रम् ।
हनौ तताडेन्द्रमथामरेभं
     वज्रं च हस्तान् न्यपतन् मघोनः ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! वृत्रासुर रणभूमिमें अपना शरीर छोडऩा चाहता था, क्योंकि उसके विचारसे इन्द्रपर विजय प्राप्त करके स्वर्ग पानेकी अपेक्षा मरकर भगवान्‌को प्राप्त करना श्रेष्ठ था। इसलिये जैसे प्रलयकालीन जलमें कैटभासुर भगवान्‌ विष्णुपर चोट करनेके लिये दौड़ा था, वैसे ही वह भी त्रिशूल उठाकर इन्द्रपर टूट पड़ा ॥ १ ॥ वीर वृत्रासुरने प्रलयकालीन अग्रिकी लपटोंके समान तीखी नोकोंवाले त्रिशूलको घुमाकर बड़े वेगसे इन्द्रपर चलाया और अत्यन्त क्रोधसे सिंहनाद करके बोला—‘पापी इन्द्र ! अब तू बच नहीं सकता॥ २ ॥ इन्द्रने यह देखकर कि वह भयङ्कर त्रिशूल ग्रह और उल्काके समान चक्कर काटता हुआ आकाशमें आ रहा है, किसी प्रकारकी अधीरता नहीं प्रकट की और उस त्रिशूलके साथ ही वासुकि नागके समान वृत्रासुरकी विशाल भुजा अपने सौ गाँठोंवाले वज्रसे काट डाली ॥ ३ ॥ एक बाँह कट जानेपर वृत्रासुरको बहुत क्रोध हुआ। उसने वज्रधारी इन्द्रके पास जाकर उनकी ठोड़ीमें और गजराज ऐरावतपर परिघ से ऐसा प्रहार किया कि उनके हाथसे वह वज्र गिर पड़ा ॥ ४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

वृत्रासुरका वध

वृत्रस्य कर्मातिमहाद्‍भुतं तत्
     सुरासुराश्चारणसिद्धसङ्‌घाः ।
अपूजयंस्तत् पुरुहूतसङ्‌कटं
     निरीक्ष्य हा हेति विचुक्रुशुर्भृशम् ॥ ५ ॥
इन्द्रो न वज्रं जगृहे विलज्जितः
     च्युतं स्वहस्तादरिसन्निधौ पुनः ।
तमाह वृत्रो हर आत्तवज्रो
     जहि स्वशत्रुं न विषादकालः ॥ ६ ॥
युयुत्सतां कुत्रचिदाततायिनां
     जयः सदैकत्र न वै परात्मनाम् ।
विनैकमुत्पत्तिलयस्थितीश्वरं
     सर्वज्ञमाद्यं पुरुषं सनातनम् ॥ ७ ॥

वृत्रासुरके इस अत्यन्त अलौकिक कार्यको देखकर देवता, असुर, चारण, सिद्धगण आदि सभी प्रशंसा करने लगे। परन्तु इन्द्रका सङ्कट देखकर वे ही लोग बार-बार हाय-हाय !कहकर चिल्लाने लगे ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! वह वज्र इन्द्रके हाथसे छूटकर वृत्रासुरके पास ही जा पड़ा था। इसलिये लज्जित होकर इन्द्रने उसे फिर नहीं उठाया। तब वृत्रासुरने कहा—‘इन्द्र ! तुम वज्र उठाकर अपने शत्रुको मार डालो। यह विषाद करनेका समय नहीं है ॥ ६ ॥ (देखो—) सर्वज्ञ, सनातन, आदिपुरुष भगवान्‌ ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेमें समर्थ हैं। उनके अतिरिक्त देहाभिमानी और युद्धके लिये उत्सुक आततायियोंको सर्वदा जय ही नहीं मिलती। वे कभी जीतते हैं तो कभी हारते हैं ॥ ७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

वृत्रासुरका वध

लोकाः सपाला यस्येमे श्वसन्ति विवशा वशे ।
द्विजा इव शिचा बद्धाः स काल इह कारणम् ॥ ८ ॥
ओजः सहो बलं प्राणं अमृतं मृत्युमेव च ।
तमज्ञाय जनो हेतुं आत्मानं मन्यते जडम् ॥ ९ ॥
यथा दारुमयी नारी यथा यंत्रमयो मृगः ।
एवं भूतानि मघवन् नीशतन्त्राणि विद्धि भोः ॥ १० ॥
पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तं आत्मा भूतेन्द्रियाशयाः ।
शक्नुवन्त्यस्य सर्गादौ न विना यदनुग्रहात् ॥ ११ ॥

ये सब लोक और लोकपाल जालमें फँसे हुए पक्षियोंकी भाँति जिसकी अधीनतामें विवश होकर चेष्टा करते हैं, वह काल ही सबकी जय-पराजयका कारण है ॥ ८ ॥ वही काल मनुष्यके मनोबल, इन्द्रियबल, शरीरबल, प्राण, जीवन और मृत्युके रूपमें स्थित है। मनुष्य उसे न जानकर जड शरीरको ही जय-पराजय आदिका कारण समझता है ॥ ९ ॥ इन्द्र ! जैसे काठकी पुतली और यन्त्रका हरिण नचानेवालेके हाथमें होते हैं, वैसे ही तुम समस्त प्राणियोंको भगवान्‌के अधीन समझो ॥ १० ॥ भगवान्‌के कृपा-प्रसादके बिना पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पञ्चभूत, इन्द्रियाँ और अन्त:करणचतुष्टयये कोई भी इस विश्वकी उत्पत्ति आदि करनेमें समर्थ नहीं हो सकते ॥ ११ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

वृत्रासुरका वध

अविद्वानेवमात्मानं मन्यतेऽनीशमीश्वरम् ।
भूतैः सृजति भूतानि ग्रसते तानि तैः स्वयम् ॥ १२ ॥
आयुः श्रीः कीर्तिरैश्वर्यं आशिषः पुरुषस्य याः ।
भवन्त्येव हि तत्काले यथानिच्छोर्विपर्ययाः ॥ १३ ॥
तस्मादकीर्तियशसोः जयापजययोरपि ।
समः स्यात्सुखदुःखाभ्यां मृत्युजीवितयोस्तथा ॥ १४ ॥
सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः ।
तत्र साक्षिणमात्मानं यो वेद स न बध्यते ॥ १५ ॥
पश्य मां निर्जितं शत्रु वृक्णायुधभुजं मृधे ।
घटमानं यथाशक्ति तव प्राणजिहीर्षया ॥ १६ ॥
प्राणग्लहोऽयं समर इष्वक्षो वाहनासनः ।
अत्र न ज्ञायतेऽमुष्य जयोऽमुष्य पराजयः ॥ १७ ॥

जिसे इस बात का पता नहीं है कि भगवान्‌ ही सब का नियन्त्रण करते हैं, वही इस परतन्त्र जीव को स्वतन्त्र कर्ता-भोक्ता मान बैठता है। वस्तुत: स्वयं भगवान्‌ ही प्राणियों के द्वारा प्राणियों की रचना और उन्हीं के द्वारा उनका संहार करते हैं ॥ १२ ॥ जिस प्रकार इच्छा न होनेपर भी समय विपरीत होने से मनुष्य को मृत्यु और अपयश आदि प्राप्त होते हैंवैसे ही समयकी अनुकूलता होनेपर इच्छा न होनेपर भी उसे आयु, लक्ष्मी, यश और ऐश्वर्य आदि भोग भी मिल जाते हैं ॥ १३ ॥ इसलिये यश-अपयश, जय-पराजय, सुख-दु:ख, जीवन-मरणइनमें से किसी एक की इच्छा-अनिच्छा न रखकर सभी परिस्थितियों में समभाव से रहना चाहियेहर्ष-शोक के वशीभूत नहीं होना चाहिये ॥ १४ ॥ सत्त्व, रज और तमये तीनों गुण प्रकृति के हैं, आत्मा के नहीं; अत: जो पुरुष आत्मा को उनका साक्षीमात्र जानता है, वह उनके गुण-दोष से लिप्त नहीं होता ॥ १५ ॥ देवराज इन्द्र ! मुझे भी तो देखो; तुमने मेरा हाथ और शस्त्र काटकर एक प्रकार से मुझे परास्त कर दिया है, फिर भी मैं तुम्हारे प्राण लेने के लिये यथाशक्ति प्रयत्न कर ही रहा हूँ ॥ १६ ॥ यह युद्ध क्या है, एक जूए का खेल । इसमें प्राण की बाजी लगती है, बाणों के पासे डाले जाते हैं और वाहन ही चौसर हैं। इसमें पहले से यह बात नहीं मालूम होती कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा ॥१७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

वृत्रासुरका वध

श्रीशुक उवाच -
इन्द्रो वृत्रवचः श्रुत्वा गतालीकमपूजयत् ।
गृहीतवज्रः प्रहसन् तमाह गतविस्मयः ॥ १८ ॥

इन्द्र उवाच -
अहो दानव सिद्धोऽसि यस्य ते मतिरीदृशी ।
भक्तः सर्वात्मनात्मानं सुहृदं जगदीश्वरम् ॥ १९ ॥
भवानतार्षीन्मायां वै वैष्णवीं जनमोहिनीम् ।
यद् विहायासुरं भावं महापुरुषतां गतः ॥ २० ॥
खल्विदं महदाश्चर्यं यद्रजःप्रकृतेस्तव ।
वासुदेवे भगवति सत्त्वात्मनि दृढा मतिः ॥ २१ ॥
यस्य भक्तिर्भगवति हरौ निःश्रेयसेश्वरे ।
विक्रीडतोऽमृताम्भोधौ किं क्षुद्रैः खातकोदकैः ॥ २२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! वृत्रासुरके ये सत्य एवं निष्कपट वचन सुनकर इन्द्रने उनका आदर किया और अपना वज्र उठा लिया। इसके बाद बिना किसी प्रकारका आश्चर्य किये मुसकराते हुए वे कहने लगे॥ १८ ॥
देवराज इन्द्रने कहाअहो दानवराज ! सचमुच तुम सिद्ध पुरुष हो। तभी तो तुम्हारा धैर्य, निश्चय और भगवद्भाव इतना विलक्षण है। तुमने समस्त प्राणियोंके सुहृद् आत्मस्वरूप जगदीश्वरकी अनन्य भावसे भक्ति की है ॥ १९ ॥ अवश्य ही तुम लोगोंको मोहित करनेवाली भगवान्‌की मायाको पार कर गये हो। तभी तो तुम असुरोचित भाव छोडक़र महापुरुष हो गये हो ॥ २० ॥ अवश्य ही यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि तुम रजोगुणी प्रकृतिके हो, तो भी विशुद्ध सत्त्वस्वरूप भगवान्‌ वासुदेवमें तुम्हारी बुद्धि दृढ़तासे लगी हुई है ॥ २१ ॥ जो परम कल्याणके स्वामी भगवान्‌ श्रीहरिके चरणोंमें प्रेममय भक्तिभाव रखता है, उसे जगत्के भोगोंकी क्या आवश्यकता है। जो अमृतके समुद्रमें विहार कर रहा है, उसे क्षुद्र गड्ढोंके जलसे प्रयोजन ही क्या हो सकता है ॥ २२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

वृत्रासुरका वध

श्रीशुक उवाच -
इति ब्रुवाणावन्योन्यं धर्मजिज्ञासया नृप ।
युयुधाते महावीर्यौ इन्द्रवृत्रौ युधाम्पती ॥ २३ ॥
आविध्य परिघं वृत्रः कार्ष्णायसमरिन्दमः ।
इन्द्राय प्राहिणोद् घोरं वामहस्तेन मारिष ॥ २४ ॥
स तु वृत्रस्य परिघं करं च करभोपमम् ।
चिच्छेद युगपद् देवो वज्रेण शतपर्वणा ॥ २५ ॥
दोर्भ्यां उत्कृत्तमूलाभ्यां बभौ रक्तस्रवोऽसुरः ।
छिन्नपक्षो यथा गोत्रः खाद् भ्रष्टो वज्रिणा हतः ॥ २६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार योद्धाओंमें श्रेष्ठ महापराक्रमी देवराज इन्द्र और वृत्रासुर धर्मका तत्त्व जाननेकी अभिलाषासे एक-दूसरेके साथ बातचीत करते हुए आपसमें युद्ध करने लगे ॥ २३ ॥ राजन् ! अब शत्रुसूदन वृत्रासुरने बायें हाथसे फौलादका बना हुआ एक बहुत भयावना परिघ उठाकर आकाश में घुमाया और उससे इन्द्रपर प्रहार किया ॥ २४ ॥ किन्तु देवराज इन्द्रने वृत्रासुरका वह परिघ तथा हाथीकी सूँडके समान लंबी भुजा अपने सौ गाँठोंवाले वज्रसे एक साथ ही काट गिरायी ॥ २५ ॥ जड़से दोनों भुजाओंके कट जानेपर वृत्रासुरके बायें और दायें दोनों कंधोंसे खूनकी धारा बहने लगी। उस समय वह ऐसा जान पड़ा, मानो इन्द्रके वज्रकी चोटसे पंख कट जानेपर कोई पर्वत ही आकाशसे गिरा हो ॥ २६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

वृत्रासुरका वध

कृत्वाधरां हनुं भूमौ दैत्यो दिव्युत्तरां हनुम्
नभोगम्भीरवक्त्रेण लेलिहोल्बणजिह्वया ॥ २७ ॥
दंष्ट्राभिः कालकल्पाभिः ग्रसन्निव जगत्त्रयम् ।
अतिमात्रमहाकाय आक्षिपन् तरसा गिरीन् ॥ २८ ॥
गिरिराट् पादचारीव पद्‍भ्यां निर्जरयन् महीम् ।
जग्रास स समासाद्य वज्रिणं सहवाहनम् ॥ २९ ॥
वृत्रग्रस्तं तमालोक्य सप्रजापतयः सुराः ।
महाप्राणो महावीर्यो महासर्प एव द्विपम् ।
हा कष्टमिति निर्विण्णाः चुक्रुशुः समहर्षयः ॥ ३० ॥

अब पैरों से चलने-फिरनेवाले पर्वतराज के समान अत्यन्त दीर्घकाय वृत्रासुर ने अपनी ठोड़ी को धरती से और ऊपर के होठ को स्वर्ग से लगाया तथा आकाश के समान गहरे मुँह, साँप के समान भयावनी जीभ एवं मृत्युके समान कराल दाढ़ों से मानो त्रिलोकी को निगलता, अपने पैरों की चोट से पृथ्वी को रौंदता और प्रबल वेग से पर्वतों को उलटता- पलटता वह इन्द्र के पास आया और उन्हें उनके वाहन ऐरावत हाथी के सहित इस प्रकार लील गया, जैसे कोई परम पराक्रमी और अत्यन्त बलवान् अजगर हाथी को निगल जाय। प्रजापतियों और महर्षियों के साथ देवताओं ने जब देखा कि वृत्रासुर इन्द्र को निगल गया, तब तो वे अत्यन्त दुखी हो गये तथा हाय-हाय ! बड़ा अनर्थ हो गया।यों कहकर विलाप करने लगे ॥ २७३० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

वृत्रासुरका वध

निगीर्णोऽप्यसुरेन्द्रेण न ममारोदरं गतः ।
महापुरुषसन्नद्धो योगमायाबलेन च ॥ ३१ ॥
भित्त्वा वज्रेण तत्कुक्षिं निष्क्रम्य बलभिद् विभुः ।
उच्चकर्त शिरः शत्रोः गिरिश्रृङ्‌गमिवौजसा ॥ ३२ ॥
वज्रस्तु तत्कन्धरमाशुवेगः
     कृन्तन् समन्तात् परिवर्तमानः ।
न्यपातयत् तावदहर्गणेन
     यो ज्योतिषामयने वार्त्रहत्ये ॥ ३३ ॥
तदा च खे दुन्दुभयो विनेदुः
     गन्धर्वसिद्धाः समहर्षिसङ्‌घाः ।
वार्त्रघ्नलिङ्‌गैस्तमभिष्टुवाना
     मन्त्रैर्मुदा कुसुमैरभ्यवर्षन् ॥ ३४ ॥
वृत्रस्य देहान् निष्क्रान्तं आत्मज्योतिररिन्दम ।
पश्यतां सर्वदेवानां अलोकं समपद्यत ॥ ३५ ॥

बल दैत्य का संहार करने वाले देवराज इन्द्र ने महापुरुष-विद्या (नारायणकवच) से अपने को सुरक्षित कर रखा था और उनके पास योगमाया का बल था ही। इसलिये वृत्रासुर के निगल लेने परउसके पेट में पहुँचकर भी वे मरे नहीं ॥३१॥ उन्होंने अपने वज्र से उसकी कोख फाड़ डाली और उसके पेट से निकलकर बड़े वेग से उसका पर्वत-शिखर के समान उँचा सिर काट डाला ॥३२॥ सूर्यादि ग्रहों की उत्तरायण-दक्षिणायनरूप गति में जितना समय लगता है, उतने दिनों में अर्थात् एक वर्ष में वृत्रवध का योग उपस्थित होनेपर घूमते हुए उस तीव्र वेगशाली वज्र ने उसकी गरदन को सब ओर से काटकर भूमिपर गिरा दिया ॥३३॥उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। महर्षियों के साथ गन्धर्व, सिद्ध आदि वृत्रघाती इन्द्र का पराक्रम सूचित करनेवाले मन्त्रों से उनकी स्तुति करके बड़े आनन्द के साथ उनपर पुष्पों की वर्षा करने लगे ॥ ३४ ॥ शत्रुदमन परीक्षित्‌ ! उस समय वृत्रासुर के शरीर से उसकी आत्मज्योति बाहर निकली और इन्द्र आदि सब लोगों के देखते-देखते सर्वलोकातीत भगवान्‌ के स्वरूप में लीन हो गयी ॥ ३५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे वृत्रोवधो नाम द्वादशोऽध्या‍यः ॥ १२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...