मंगलवार, 11 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट११)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

लुब्धको विपिने कश्चित्पक्षिणां निर्मितोऽन्तकः ।
वितत्य जालं विदधे तत्र तत्र प्रलोभयन् ॥ ५०॥
कुलिङ्गमिथुनं तत्र विचरत्समदृश्यत ।
तयोः कुलिङ्गी सहसा लुब्धकेन प्रलोभिता ॥ ५१॥
आसज्जत सिचस्तन्त्र्यां महिष्यः कालयन्त्रिता ।
कुलिङ्गस्तां तथापन्नां निरीक्ष्य भृशदुःखितः ।
स्नेहादकल्पः कृपणः कृपणां पर्यदेवयत् ॥ ५२॥
अहो अकरुणो देवः स्त्रियाकरुणया विभुः ।
कृपणं मामनुशोचन्त्या दीनया किं करिष्यति ॥ ५३॥
कामं नयतु मां देवः किमर्धेनात्मनो हि मे ।
दीनेन जीवता दुःखमनेन विधुरायुषा ॥ ५४॥
कथं त्वजातपक्षांस्तान्मातृहीनान् बिभर्म्यहम् ।
मन्दभाग्याः प्रतीक्षन्ते नीडे मे मातरं प्रजाः ॥ ५५॥
एवं कुलिङ्गं विलपन्तमारा-
त्प्रियावियोगातुरमश्रुकण्ठम् ।
स एव तं शाकुनिकः शरेण
विव्याध कालप्रहितो विलीनः ॥ ५६॥
एवं यूयमपश्यन्त्य आत्मापायमबुद्धयः ।
नैनं प्राप्स्यथ शोचन्त्यः पतिं वर्षशतैरपि ॥ ५७॥

किसी जंगल में एक बहेलिया रहता था। वह बहेलिया क्या था, विधाता ने मानो उसे पक्षियों के कालरूप में ही रच रखा था। जहाँ-कहीं भी वह जाल फैला देता और ललचाकर चिडिय़ों को फँसा लेता ॥ ५० ॥ एक दिन उसने कुलिङ्ग पक्षी के एक जोड़े को चारा चुगते देखा। उनमें से उस बहेलिये ने मादा पक्षी को तो शीघ्र ही फँसा लिया ॥ ५१ ॥ कालवश वह जाल के फंदोंमें फँस गयी। नर पक्षी को अपनी मादाकी विपत्ति को देखकर बड़ा दु:ख हुआ। वह बेचारा उसे छुड़ा तो सकता न था, स्नेहसे उस बेचारीके लिये विलाप करने लगा ॥ ५२ ॥ उसने कहा—‘यों तो विधाता सब कुछ कर सकता है। परंतु है वह बड़ा निर्दयी। यह मेरी सहचरी एक तो स्त्री है, दूसरे मुझ अभागे के लिये शोक करती हुई बड़ी दीनता से छटपटा रही है। इसे लेकर वह करेगा क्या ॥ ५३ ॥ उसकी मौज हो तो मुझे ले जाय। इसके बिना मैं अपना यह अधूरा विधुर जीवन, जो दीनता और दु:खसे भरा हुआ है, लेकर क्या करूँगा ॥ ५४ ॥ अभी मेरे अभागे बच्चों के पर भी नहीं जमे हैं। स्त्री के मर जानेपर उन मातृहीन बच्चोंको मैं कैसे पालूँगा ? ओह ! घोंसले में वे अपनी मा की बाट देख रहे होंगे॥ ५५ ॥ इस तरह वह पक्षी बहुत-सा विलाप करने लगा। अपनी सहचरी के वियोग से वह आतुर हो रहा था। आँसुओं के मारे उसका गला रुँध गया था। तबतक काल की प्रेरणा से पास ही छिपे हुए उसी बहेलिये ने ऐसा बाण मारा कि वह भी वहीं पर लोट गया ॥ ५६ ॥ मूर्ख रानियो ! तुम्हारी भी यही दशा होनेवाली है। तुम्हें अपनी मृत्यु तो दीखती नहीं और इसके लिये रो-पीट रही हो ! यदि तुमलोग सौ बरस तक इसी तरह शोकवश छाती पीटती रहो, तो भी अब तुम इसे नहीं पा सकोगी ॥ ५७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट१०)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

वितथाभिनिवेशोऽयं यद्गुणेष्वर्थदृग्वचः ।
यथा मनोरथः स्वप्नः सर्वमैन्द्रियकं मृषा ॥ ४८॥
अथ नित्यमनित्यं वा नेह शोचन्ति तद्विदः ।
नान्यथा शक्यते कर्तुं स्वभावः शोचतामिति ॥ ४९॥

प्रकृति के गुणों और उनसे बनी हुई वस्तुओं को सत्य समझना अथवा कहना झूठमूठ का दुराग्रह है। मनोरथ के समय की कल्पित और स्वप्न के समय की दीख पडऩेवाली वस्तुओं के समान इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, सब मिथ्या है ॥ ४८ ॥ इसलिये शरीर और आत्मा का तत्त्व जाननेवाले पुरुष न तो अनित्य शरीर के लिये शोक करते हैं और न नित्य आत्मा के लिये ही। परंतु ज्ञान की दृढ़ता न होनेके कारण जो लोग शोक करते रहते हैं, उनका स्वभाव बदलना बहुत कठिन है ॥ ४९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 10 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

न श्रोता नानुवक्तायं मुख्योऽप्यत्र महानसुः ।
यस्त्विहेन्द्रियवानात्मा स चान्यः प्राणदेहयोः ॥ ४५॥
भूतेन्द्रियमनोलिङ्गान् देहानुच्चावचान् विभुः ।
भजत्युत्सृजति ह्यन्यस्तच्चापि स्वेन तेजसा ॥ ४६॥
यावल्लिङ्गान्वितो ह्यात्मा तावत्कर्मनिबन्धनम् ।
ततो विपर्ययः क्लेशो मायायोगोऽनुवर्तते ॥ ४७॥

(तुम्हारी यह मान्यता कि प्राण ही बोलने या सुननेवाला था, सो निकल गयामूर्खतापूर्ण है; क्योंकि सुषुप्ति के समय प्राण तो रहता है, पर न वह बोलता है न सुनता है।) शरीर में सब इन्द्रियों की चेष्टा का हेतुभूत जो महाप्राण है, वह प्रधान होनेपर भी बोलने या सुननेवाला नहीं है; क्योंकि वह जड है। देह और इन्द्रियों के द्वारा सब पदार्थों का द्रष्टा जो आत्मा है, वह शरीर और प्राण दोनों से पृथक् है ॥ ४५ ॥ यद्यपि वह परिच्छिन्न नहीं है, व्यापक हैफिर भी पञ्चभूत, इन्द्रिय और मनसे युक्त नीचे-ऊँचे (देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) शरीरों को ग्रहण करता और अपने विवेकबल से मुक्त भी हो जाता है। वास्तव में वह इन सबसे अलग है ॥ ४६ ॥ जबतक वह पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मनइन सत्रह तत्त्वोंसे  बने हुए लिङ्गशरीर से युक्त रहता है, तभीतक कर्मों से बँधा रहता है और इस बन्धन के कारण ही माया से होनेवाले मोह और क्लेश बराबर उसके पीछे पड़े रहते हैं ॥ ४७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

पथि च्युतं तिष्ठति दिष्टरक्षितं
गृहे स्थितं तद्विहतं विनश्यति ।
जीवत्यनाथोऽपि तदीक्षितो वने
गृहेऽभिगुप्तोऽस्य हतो न जीवति ॥ ४०॥
भूतानि तैस्तैर्निजयोनिकर्मभि-
र्भवन्ति काले न भवन्ति सर्वशः ।
न तत्र हात्मा प्रकृतावपि स्थित-
स्तस्या गुणैरन्यतमो हि बध्यते ॥ ४१॥
इदं शरीरं पुरुषस्य मोहजं
यथा पृथग्भौतिकमीयते गृहम् ।
यथौदकैः पार्थिवतैजसैर्जनः
कालेन जातो विकृतो विनश्यति ॥ ४२॥
यथानलो दारुषु भिन्न ईयते
यथानिलो देहगतः पृथक्स्थितः ।
यथा नभः सर्वगतं न सज्जते
तथा पुमान् सर्वगुणाश्रयः परः ॥ ४३॥
सुयज्ञो नन्वयं शेते मूढा यमनुशोचथ ।
यः श्रोता योऽनुवक्तेह स न दृश्येत कर्हिचित् ॥ ४४॥

भाग्य अनुकूल हो तो रास्ते में गिरी हुई वस्तु भी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है। परन्तु भाग्य के प्रतिकूल होनेपर घर के भीतर तिजोरी में रखी हुई वस्तु भी खो जाती है। जीव बिना किसी सहारे के दैव की दयादृष्टि से जंगल में भी बहुत दिनों तक जीवित रहता है, परंतु दैव के विपरीत होनेपर घर में सुरक्षित रहनेपर भी मर जाता है ॥ ४० ॥
रानियो ! सभी प्राणियोंकी मृत्यु अपने पूर्वजन्मों की कर्मवासना के अनुसार समयपर होती है और उसी के अनुसार उनका जन्म भी होता है। परंतु आत्मा शरीरसे अत्यन्त भिन्न है, इसलिये वह उसमें रहनेपर भी उसके जन्म-मृत्यु आदि धर्मोंसे अछूता ही रहता है ॥ ४१ ॥ जैसे मनुष्य अपने मकानको अपनेसे अलग और मिट्टीका समझता है, वैसे ही यह शरीर भी अलग और मिट्टीका है। मोहवश वह इसे अपना समझ बैठता है। जैसे बुलबुले आदि पानीके विकार, घड़े आदि मिट्टीके विकार और गहने आदि स्वर्णके विकार समयपर बनते हैं, रूपान्तरित होते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही इन्हीं तीनोंके विकारसे बना हुआ यह शरीर भी समयपर बन-बिगड़ जाता है ॥ ४२ ॥ जैसे काठमें रहनेवाली व्यापक अग्नि स्पष्ट ही उससे अलग है, जैसे देह में रहनेपर भी वायु का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, जैसे आकाश सब जगह एक-सा रहनेपर भी किसी के दोष-गुण से लिप्त नहीं होतावैसे ही समस्त देहेन्द्रियों में रहनेवाला और उनका आश्रय आत्मा भी उनसे अलग और  निर्लिप्त है ॥ ४३ ॥
मूर्खो ! जिसके लिये तुम सब शोक कर रहे हो, वह सुयज्ञ नामका शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है। तुमलोग इसीको देखते थे। इसमें जो सुननेवाला और बोलनेवाला था, वह तो कभी किसीको नहीं दिखायी पड़ता था। फिर आज भी नहीं दिखायी दे रहा है, तो शोक क्यों ? ॥ ४४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 9 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०७)

हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु
का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना

एवं विलपतीनां वै परिगृह्य मृतं पतिम् ।
अनिच्छतीनां निर्हारमर्कोऽस्तं सन्न्यवर्तत ॥ ३५॥
तत्र ह प्रेतबन्धूनामाश्रुत्य परिदेवितम् ।
आह तान् बालको भूत्वा यमः स्वयमुपागतः ॥ ३६॥

श्री यम उवाच
अहो अमीषां वयसाधिकानां  
विपश्यतां लोकविधिं विमोहः ।
यत्रागतस्तत्र गतं मनुष्यं
स्वयं सधर्मा अपि शोचन्त्यपार्थम् ॥ ३७॥
अहो वयं धन्यतमा यदत्र
त्यक्ताः पितृभ्यां न विचिन्तयामः ।
अभक्ष्यमाणा अबला वृकादिभिः
स रक्षिता रक्षति यो हि गर्भे ॥ ३८॥
य इच्छयेशः सृजतीदमव्ययो
य एव रक्षत्यवलुम्पते च यः ।
तस्याबलाः क्रीडनमाहुरीशितु-
श्चराचरं निग्रहसङ्ग्रहे प्रभुः ॥ ३९॥

वे (उशीनर नरेश की रानियां) अपने पति की लाश पकडक़र इसी प्रकार विलाप करती रहीं। उस मुर्दे को वहाँ से दाहके लिये जाने देने की उनकी इच्छा नहीं होती थी। इतने में ही सूर्यास्त हो गया ॥ ३५ ॥ उस समय उशीनरराजा के सम्बन्धियों ने जो विलाप किया था, उसे सुनकर वहाँ स्वयं यमराज बालक के वेष में आये और उन्होंने उन लोगोंसे कहा॥ ३६ ॥
यमराज बोलेबड़े आश्चर्यकी बात है ! ये लोग तो मुझसे सयाने हैं। बराबर लोगों का मरना- जीना देखते हैं, फिर भी इतने मूढ़ हो रहे हैं। अरे ! यह मनुष्य जहाँ से आया था, वहीं चला गया। इन लोगों को भी एक-न-एक दिन वहीं जाना है। फिर झूठमूठ ये लोग इतना शोक क्यों करते हैं ? ॥ ३७ ॥ हम तो तुमसे लाखगुने अच्छे हैं, परम धन्य हैं; क्योंकि हमारे माँ-बाप ने हमें छोड़ दिया है। हमारे शरीरमें पर्याप्त बल भी नहीं है, फिर भी हमें कोई चिन्ता नहीं है। भेडिय़े आदि हिंसक जन्तु हमारा बाल भी बाँका नहीं कर पाते। जिसने गर्भ में रक्षा की थी, वही इस जीवन में भी हमारी रक्षा करता रहता है ॥ ३८ ॥ देवियो ! जो अविनाशी ईश्वर अपनी मौज से इस जगत् को बनाता है, रखता है और बिगाड़ देता हैउस प्रभु का यह एक खिलौनामात्र है। वह इस चराचर जगत् को  दण्ड या पुरस्कार देनेमें समर्थ है ॥ ३९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...