शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अक्रूरजी की व्रज-यात्रा

 

श्रीशुक उवाच -

अक्रूरोऽपि च तां रात्रिं मधुपुर्यां महामतिः ।

उषित्वा रथमास्थाय प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥ १ ॥

गच्छन् पथि महाभागो भगवत्यम्बुजेक्षणे ।

भक्तिं परामुपगत एवमेतदचिन्तयत् ॥ २ ॥

किं मयाऽऽचरितं भद्रं किं तप्तं परमं तपः ।

किं वाथाप्यर्हते दत्तं यद् द्रक्ष्याम्यद्य केशवम् ॥ ३ ॥

ममैतद् दुर्लभं मन्ये उत्तमःश्लोकदर्शनम् ।

विषयात्मनो यथा ब्रह्म कीर्तनं शूद्रजन्मनः ॥ ४ ॥

मैवं ममाधमस्यापि स्यादेवाच्युतदर्शनम् ।

ह्रियमाणः कलनद्या क्वचित्तरति कश्चन ॥ ५ ॥

ममाद्यामङ्‌गलं नष्टं फलवांश्चैव मे भवः ।

यन्नमस्ये भगवतो योगिध्येयांघ्रिपङ्‌कजम् ॥ ६ ॥

कंसो बताद्याकृत मेऽत्यनुग्रहं

द्रक्ष्येऽङ्‌घ्रिपद्मं प्रहितोऽमुना हरेः ।

कृतावतारस्य दुरत्ययं तमः

पूर्वेऽतरन् यन्नखमण्डलत्विषा ॥ ७ ॥

यदर्चितं ब्रह्मभवादिभिः सुरैः

श्रिया च देव्या मुनिभिः ससात्वतैः ।

गोचारणायानुचरैश्चरद्‌वने

यद्‍गोपिकानां कुचकुङ्‌कुमाङ्‌कितम् ॥ ८ ॥

द्रक्ष्यामि नूनं सुकपोलनासिकं

स्मितावलोकारुणकञ्जलोचनम् ।

मुखं मुकुन्दस्य गुडालकावृतं

प्रदक्षिणं मे प्रचरन्ति वै मृगाः ॥ ९ ॥

अप्यद्य विष्णोर्मनुजत्वमीयुषो

भारावताराय भुवो निजेच्छया ।

लावण्यधाम्नो भवितोपलम्भनं

मह्यं न न स्यात् फलमञ्जसा दृशः ॥ १० ॥

य ईक्षिताहंरहितोऽप्यसत्सतोः

स्वतेजसापास्ततमोभिदाभ्रमः ।

स्वमाययाऽऽत्मन् रचितैस्तदीक्षया

प्राणाक्षधीभिः सदनेष्वभीयते ॥ ११ ॥

यस्याखिलामीवहभिः सुमङ्‌गलैः

वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्मभिः ।

प्राणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति वै जगत्

यास्तद्विरक्ताः शवशोभना मताः ॥ १२ ॥

स चावतीर्णः किल सत्वतान्वये

स्वसेतुपालामरवर्यशर्मकृत् ।

यशो वितन्वन् व्रज आस्त ईश्वरो

गायन्ति देवा यदशेषमङ्‌गलम् ॥ १३ ॥

तं त्वद्य नूनं महतां गतिं गुरुं

त्रैलोक्यकान्तं दृशिमन्महोत्सवम् ।

रूपं दधानं श्रिय ईप्सितास्पदं

द्रक्ष्ये ममासन्नुषसः सुदर्शनाः ॥ १४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरापुरी में बिताकर प्रात:काल होते ही रथपर सवार हुए और नन्दबाबाके गोकुलकी ओर चल दिये ॥ १ ॥ परम भाग्यवान् अक्रूरजी व्रजकी यात्रा करते समय मार्गमें कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णकी परम प्रेममयी भक्तिसे परिपूर्ण हो गये। वे इस प्रकार सोचने लगे ॥ २ ॥ मैने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्रको ऐसा कौन-सा महत्त्वपूर्ण दान दिया है, जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शन करूँगा ॥ ३ ॥ मैं बड़ा विषयी हूँ। ऐसी स्थितिमें, बड़े-बड़े सात्त्विक पुरुष भी जिनके गुणोंका ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पातेउन भगवान्‌ के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं, ठीक वैसे ही , जैसे शूद्रकुलके बालकके लिये वेदोंका कीर्तन ॥ ४ ॥ परंतु नहीं, मुझ अधमको भी भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शन होंगे ही। क्योंकि जैसे नदीमें बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पारसे उस पार लग जाते हैं, वैसे ही समयके प्रवाहसे भी कहीं कोई इस संसारसागरको पार कर सकता है ॥ ५ ॥ अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये। आज मेरा जन्म सफल हो गया। क्योंकि आज मैं भगवान्‌के उन चरणकमलोंमें साक्षात् नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियोंके भी केवल ध्यानके ही विषय हैं ॥ ६ ॥ अहो ! कंसने तो आज मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है। उसी कंसके भेजनेसे मैं इस भूतलपर अवतीर्ण स्वयं भगवान्‌ के चरणकमलोंके दर्शन पाऊँगा। जिनके नखमण्डलकी कान्तिका ध्यान करके पहले युगोंके ऋषि-महर्षि इस अज्ञानरूप अपार अन्धकार-राशिको पार कर चुके हैं, स्वयं वही भगवान्‌ तो अवतार ग्रहण करके प्रकट हुए हैं ॥ ७ ॥ ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलोंकी उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षणके लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तोंके साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधनामें संलग्र रहते हैंभगवान्‌ के वे ही चरण-कमल गौओंको चरानेके लिये ग्वालबालोंके साथ वन-वनमें विचरते हैं। वे ही सुर-मुनि-वन्दित श्रीचरण गोपियोंके वक्ष:स्थलपर लगी हुई केसरसे रँग जाते हैं, चिह्नित हो जाते हैं ॥ ८ ॥ मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा। मरकतमणिके समान सुस्निग्ध कान्तिमान् उनके कोमल कपोल हैं, तोतेकी ठोरके समान नुकीली नासिका है, होठोंपर मन्द-मन्द मुसकान, प्रेमभरी चितवन, कमल-से-कोमल रतनारे लोचन और कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं। मैं प्रेम और मुक्तिके परम दानी श्रीमुकुन्दके उस मुखकमलका आज अवश्य दर्शन करूँगा। क्योंकि हरिन मेरी दायीं ओरसे निकल रहे हैं ॥ ९ ॥ भगवान्‌ विष्णु पृथ्वीका भार उतारनेके लिये स्वेच्छासे मनुष्यकी-सी लीला कर रहे हैं ! वे सम्पूर्ण लावण्यके धाम हैं। सौन्दर्यकी मूर्तिमान् निधि हैं। आज मुझे उन्हींका दर्शन होगा ! अवश्य होगा ! आज मुझे सहजमें ही आँखोंका फल मिल जायगा ॥ १० ॥ भगवान्‌ इस कार्य-कारणरूप जगत्के द्रष्टामात्र हैं, और ऐसा होनेपर भी द्रष्टापनका अहंकार उन्हें छूतक नहीं गया है। उनकी चिन्मयी शक्तिसे अज्ञानके कारण होनेवाला भेदभ्रम अज्ञानसहित दूरसे ही निरस्त रहता है। वे अपनी योगमायासे ही अपने-आपमें भ्रूविलास- मात्रसे प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदिके सहित अपने स्वरूपभूत जीवोंकी रचना कर लेते हैं और उनके साथ वृन्दावनकी कुञ्जोंमें तथा गोपियोंके घरोंमेे. तरह-तरहकी लीलाएँ करते हुए प्रतीत होते हैं ॥ ११ ॥ जब समस्त पापोंके नाशक उनके परम मङ्गलमय गुण, कर्म और जन्मकी लीलाओंसे युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गानसे संसारमें जीवनकी स्फूर्ति होने लगती है, शोभाका सञ्चार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुलकर पवित्रताका साम्राज्य छा जाता है; परंतु जिस वाणीसे उनके गुण, लीला और जन्मकी कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो मुर्दोंको ही शोभित करनेवाली है, होनेपर भी नहींके समानव्यर्थ है ॥ १२ ॥ जिनके गुणगानका ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान्‌ स्वयं यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं। किसलिये ? अपनी ही बनायी मर्यादाका पालन करनेवाले श्रेष्ठ देवताओंका कल्याण करनेके लिये। वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌ आज व्रजमें निवास कर रहे हैं। और वहींसे अपने यशका विस्तार कर रहे हैं। उनका यश कितना पवित्र है ! अहो, देवतालोग भी उस सम्पूर्ण मङ्गलमय यशका गान करते रहते हैं ॥ १३ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा। वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालोंके भी एकमात्र आश्रय हैं। सबके परम गुरु हैं। और उनका रूप-सौन्दर्य तीनों लोकोंके मनको मोह लेनेवाला है। जो नेत्रवाले हैं, उनके लिये वह आनन्द और रसकी चरम सीमा है। इसीसे स्वयं लक्ष्मीजी भी, जो सौन्दर्यकी अधीश्वरी हैं, उन्हें पानेके लिये ललकती रहती हैं। हाँ, तो मैं उन्हें अवश्य देखूँगा। क्योंकि आज मेरा मङ्गलप्रभात है, आज मुझे प्रात:कालसे ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

केशी और व्योमासुर का उद्धार तथा नारदजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

 

श्रीशुक उवाच -

एवं यदुपतिं कृष्णं भागवतप्रवरो मुनिः ।

प्रणिपत्याभ्यनुज्ञातो ययौ तद्दर्शनोत्सवः ॥ २५ ॥

भगवानपि गोविन्दो हत्वा केशिनमाहवे ।

पशूनपालयत् पालैः प्रीतैर्व्रजसुखावहः ॥ २६ ॥

एकदा ते पशून् पालाःन् चारयन्तोऽद्रिसानुषु ।

चक्रुर्निलायनक्रीडाः चोरपालापदेशतः ॥ २७ ॥

तत्रासन्कतिचिच्चोराः पालाश्च कतिचिन्नृप ।

मेषायिताश्च तत्रैके विजह्रुरकुतोभयाः ॥ २८ ॥

मयपुत्रो महामायो व्योमो गोपालवेषधृक् ।

मेषायितानपोवाह प्रायश्चोरायितो बहून् ॥ २९ ॥

गिरिदर्यां विनिक्षिप्य नीतं नीतं महासुरः ।

शिलया पिदधे द्वारं चतुःपञ्चावशेषिताः ॥ ३० ॥

तस्य तत्कर्म विज्ञाय कृष्णः शरणदः सताम् ।

गोपान् नयन्तं जग्राह वृकं हरिरिवौजसा ॥ ३१ ॥

स निजं रूपमास्थाय गिरीन्द्रसदृशं बली ।

इच्छन् विमोक्तुमात्मानं नाशक्नोद् ग्रहणातुरः ॥ ३२ ॥

तं निगृह्याच्युतो दोर्भ्यां पातयित्वा महीतले ।

पश्यतां दिवि देवानां पशुमारममारयत् ॥ ३३ ॥

गुहापिधानं निर्भिद्य गोपान् निःसार्य कृच्छ्रतः ।

स्तूयमानः सुरैर्गोपैः प्रविवेश स्वगोकुलम् ॥ ३४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ के परमप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीने इस प्रकार भगवान्‌की स्तुति और प्रणाम किया। भगवान्‌ के दर्शनोंके आह्लाद से नारदजी का रोम-रोम खिल उठा। तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गये ॥ २५ ॥ इधर भगवान्‌ श्रीकृष्ण केशी को लड़ाईमें मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्नचित्त ग्वालबालोंके साथ पूर्ववत् पशुपालनके काममें लग गये तथा व्रजवासियोंको परमानन्द वितरण करने लगे ॥ २६ ॥ एक समय वे सब ग्वालबाल पहाडक़ी चोटियोंपर गाय आदि पशुओंको चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपानेकालुका-लुकीका खेल खेल रहे थे ॥ २७ ॥ राजन् ! उन लोगोंमेंसे कुछ तो चोर और कुछ रक्षक तथा कुछ भेड़ बन गये थे। इस प्रकार वे निर्भय होकर खेलमें रम गये थे ॥ २८ ॥ उसी समय ग्वालका वेष धारण करके व्योमासुर वहाँ आया। वह मायावियोंके आचार्य मयासुरका पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेलमें बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत-से बालकोंको चुराकर छिपा आता ॥ २९ ॥ वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाडक़ी गुफामें डाल देता और उसका दरवाजा एक बड़ी चट्टानसे ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालोंमें केवल चार-पाँच बालक ही बच रहे ॥ ३० ॥ भक्तवत्सल भगवान्‌ उसकी यह करतूत जान गये। जिस समय वह ग्वालबालोंको लिये जा रहा था, उसी समय उन्होंने, जैसे सिंह भेडिय़ेको दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर दबाया ॥ ३१ ॥ व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाडक़े समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपनेको छुड़ा लूँ। परंतु भगवान्‌ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजेमें फाँस लिया था कि वह अपनेको छुड़ा न सका ॥ ३२ ॥ तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने दोनों हाथोंसे जकडक़र उसे भूमिपर गिरा दिया और पशुकी भाँति गला घोंटकर मार डाला। देवतालोग विमानोंपर चढक़र उनकी यह लीला देख रहे थे ॥ ३३ ॥ अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गुफाके द्वारपर लगे हुए चट्टानोंके पिहान तोड़ डाले और ग्वालबालोंको उस संकटपूर्ण स्थानसे निकाल लिया। बड़े-बड़े देवता और ग्वालबाल उनकी स्तुति करने लगे और भगवान्‌ श्रीकृष्ण व्रजमें चले आये ॥ ३४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे व्योमासुरवधो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 6 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

केशी और व्योमासुर का उद्धार तथा नारदजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

 

देवर्षिरुपसङ्‌गम्य भागवतप्रवरो नृप ।

कृष्णमक्लिष्टकर्माणं रहस्येतदभाषत ॥ १० ॥

कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् योगेश जगदीश्वर ।

वासुदेवाखिलावास सात्वतां प्रवर प्रभो ॥ ११ ॥

त्वमात्मा सर्वभूतानां एको ज्योतिरिवैधसाम् ।

गूढो गुहाशयः साक्षी महापुरुष ईश्वरः ॥ १२ ॥

आत्मनाऽऽत्माश्रयः पूर्वं मायया ससृजे गुणान् ।

तैरिदं सत्यसङ्‌कल्पः सृजस्यत्स्यवसीश्वरः ॥ १३ ॥

स त्वं भूधरभूतानां दैत्यप्रमथरक्षसाम् ।

अवतीर्णो विनाशाय साधुनां रक्षणाय च ॥ १४ ॥

दिष्ट्या ते निहतो दैत्यो लीलयायं हयाकृतिः ।

यस्य हेषितसन्त्रस्ताः त्यजन्त्यनिमिषा दिवम् ॥ १५ ॥

चाणूरं मुष्टिकं चैव मल्लानन्यांश्च हस्तिनम् ।

कंसं च निहतं द्रक्ष्ये परश्वोऽहनि ते विभो ॥ १६ ॥

तस्यानु शङ्‌खयवन मुराणां नरकस्य च ।

पारिजातापहरणं इन्द्रस्य च पराजयम् ॥ १७ ॥

उद्वाहं वीरकन्यानां वीर्यशुल्कादिलक्षणम् ।

नृगस्य मोक्षणं शापाद् द्वारकायां जगत्पते ॥ १८ ॥

स्यमन्तकस्य च मणेः आदानं सह भार्यया ।

मृतपुत्रप्रदानं च ब्राह्मणस्य स्वधामतः ॥ १९ ॥

पौण्ड्रकस्य वधं पश्चात् काशिपुर्याश्च दीपनम् ।

दन्तवक्रस्य निधनं चैद्यस्य च महाक्रतौ ॥ २० ॥

यानि चान्यानि वीर्याणि द्वारकामावसन् भवान् ।

कर्ता द्रक्ष्याम्यहं तानि गेयानि कविभिर्भुवि ॥ २१ ॥

अथ ते कालरूपस्य क्षपयिष्णोरमुष्य वै ।

अक्षौहिणीनां निधनं द्रक्ष्याम्यर्जुनसारथेः ॥ २२ ॥

विशुद्धविज्ञानघनं स्वसंस्थया

समाप्तसर्वार्थममोघवाञ्छितम् ।

स्वतेजसा नित्यनिवृत्तमाया

गुणप्रवाहं भगवन्तमीमहि ॥ २३ ॥

त्वामीश्वरं स्वाश्रयमात्ममायया

विनिर्मिताशेषविशेषकल्पनम् ।

क्रीडार्थमद्यात्तमनुष्यविग्रहं

नतोऽस्मि धुर्यं यदुवृष्णिसात्वताम् ॥ २४ ॥

 

परीक्षित्‌! देवर्षि नारदजी भगवान्‌ के परम प्रेमी और समस्त जीवोंके सच्चे हितैषी हैं। कंसके यहाँसे लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास आये और एकान्तमें उनसे कहने लगे॥ १० ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आपका स्वरूप मन और वाणीका विषय नहीं है। आप योगेश्वर हैं। सारे जगत्का नियन्त्रण आप ही करते हैं। आप सबके हृदयमें निवास करते हैं और सब-के-सब आपके हृदयमें निवास करते हैं। आप भक्तों के एकमात्र वाञ्छनीय, यदुवंश-शिरोमणि और हमारे स्वामी हैं ॥ ११ ॥ जैसे एक ही अग्नि सभी लकडिय़ों में व्याप्त रहती है, वैसे एक ही आप समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं। आत्माके रूपमें होनेपर भी आप अपनेको छिपाये रखते हैं; क्योंकि आप पञ्चकोशरूप गुफाओंके भीतर रहते हैं। फिर भी पुरुषोत्तमके रूपमें, सबके नियन्ताके रूपमें और सबके साक्षीके रूपमें आपका अनुभव होता ही है ॥ १२ ॥ प्रभो! आप सबके अधिष्ठान और स्वयं अधिष्ठानरहित हैं। आपने सृष्टिके प्रारम्भमें अपनी मायासे ही गुणोंकी सृष्टि की और उन गुणोंको ही स्वीकार करके आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। यह सब करनेके लिये आपको अपनेसे अतिरिक्त और किसी भी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आप सर्वशक्तिमान् और सत्यसंकल्प हैं ॥ १३ ॥ वही आप दैत्य, प्रमथ और राक्षसोंका, जिन्होंने आजकल राजाओंका वेष धारण कर रखा है, विनाश करनेके लिये तथा धर्मकी मर्यादाओंकी रक्षा करनेके लिये यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ १४ ॥ यह बड़े आनन्दकी बात है कि आपने खेल-ही-खेलमें घोड़ेके रूपमें रहनेवाले इस केशी दैत्यको मार डाला। इसकी हिनहिनाहटसे डरकर देवतालोग अपना स्वर्ग छोडक़र भाग जाया करते थे ॥ १५ ॥

 

प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंसको भी मरते देखूँगा ॥ १६ ॥ उसके बाद शङ्खासुर, कालयवन, मुर और नरकासुरका वध देखूँगा। आप स्वर्गसे कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्रके चीं-चपड़ करनेपर उनको उसका मजा चखायेंगे ॥ १७ ॥ आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदिका शुल्क देकर वीर-कन्याओंसे विवाह करेंगे, और जगदीश्वर! आप द्वारकामें रहते हुए नृगको पापसे छुड़ायेंगे ॥ १८ ॥ आप जाम्बवतीके साथ स्यमन्तक मणिको जाम्बवान्से ले आयेंगे और अपने धामसे ब्राह्मणके मरे हुए पुत्रोंको ला देंगे ॥ १९ ॥ इसके पश्चात् आप पौण्ड्रिकमिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरीको जला देंगे। युधिष्ठिरके राजसूय-यज्ञमें चेदिराज शिशुपालको और वहाँसे लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्रको नष्ट करेंगे ॥ २० ॥ प्रभो! द्वारकामें निवास करते समय आप और भी बहुत-से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वीके बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गायेंगे। मैं वह सब देखूँगा ॥ २१ ॥ इसके बाद आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये कालरूपसे अर्जुनके सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेनाका संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखोंसे देखूँगा ॥ २२ ॥

 

प्रभो! आप विशुद्ध विज्ञानघन हैं। आपके स्वरूपमें और किसीका अस्तित्व है ही नहीं। आप नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरूपमें स्थित रहते हैं। इसलिये सारे पदार्थ आपको नित्य प्राप्त ही हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्तिके सामने माया और मायासे होनेवाला यह त्रिगुणमय संसार-चक्र नित्यनिवृत्त हैकभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिदानन्द- स्वरूप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान्‌की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ २३ ॥ आप सबके अन्तर्यामी और नियन्ता हैं। अपने-आपमें स्थित, परम स्वतन्त्र हैं। जगत् और उसके अशेष-विशेषोंभाव- अभावरूप सारे भेद-विभेदों की कल्पना केवल आपकी माया से ही हुई है। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिये मनुष्य का-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और आप यदु,वृष्णि तथा सात्वतवंशियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥२४॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

केशी और व्योमासुर का उद्धार तथा नारदजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

 

श्रीशुक उवाच -

केशी तु कंसप्रहितः खुरैर्महीं

महाहयो निर्जरयन्मनोजवः ।

सटावधूताभ्रविमानसङ्‌कुलं

कुर्वन्नभो हेषितभीषिताखिलः ॥ १ ॥

विशालनेत्रो विकटास्यकोटरो

बृहद्‌गलो नीलमहाम्बुदोपमः ।

दुराशयः कंसहितं चिकीर्षुः

व्रजं स नम्दस्य जगाम कम्पयन् ॥ २ ॥

तं त्रासयन्तं भगवान् स्वगोकुलं

तद्धेषितैर्वालविघूर्णिताम्बुदम् ।

आत्मानमाजौ मृगयन्तमग्रणीः

उपाह्वयत् स व्यनदन् मृगेन्द्रवत् ॥ ३ ॥

स तं निशाम्याभिमुखो मखेन खं

पिबन्निवाभ्यद्रवदत्यमर्षणः ।

जघान पद्‍भ्यामरविन्दलोचनं

दुरासदश्चण्डजवो दुरत्ययः ॥ ४ ॥

तद् वञ्चयित्वा तमधोक्षजो रुषा

प्रगृह्य दोर्भ्यां परिविध्य पादयोः ।

सावज्ञमुत्सृज्य धनुःशतान्तरे

यथोरगं तार्क्ष्यसुतो व्यवस्थितः ॥ ५ ॥

सः लब्धसंज्ञः पुनरुत्थितो रुषा

व्यादाय केशी तरसाऽऽपतद्धरिम् ।

सोऽप्यस्य वक्त्रे भुजमुत्तरं स्मयन्

प्रवेशयामास यथोरगं बिले ॥ ६ ॥

दन्ता निपेतुर्भगवद्‍भुजस्पृशः

ते केशिनस्तप्तमयस्पृशो यथा ।

बाहुश्च तद्देहगतो महात्मनो

यथाऽऽमयः संववृधे उपेक्षितः ॥ ७ ॥

समेधमानेन स कृष्णबाहुना

निरुद्धवायुश्चरणांश्च विक्षिपन् ।

प्रस्विन्नगात्रः परिवृत्तलोचनः

पपात लेण्डं विसृजन् क्षितौ व्यसुः ॥ ८ ॥

तद्देहतः कर्कटिकाफलोपमाद्

व्यसोरपाकृष्य भुजं महाभुजः ।

अविस्मितोऽयत्‍नहतारिरुत्स्मयैः

प्रसूनवर्षैर्दिविषद्‌भिरीडितः ॥ ९ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कंसने जिस केशी नामक दैत्यको भेजा था, वह बड़े भारी घोड़ेके रूपमें मनके समान वेगसे दौड़ता हुआ व्रजमें आया। वह अपनी टापों से धरती खोदता आ रहा था ! उसकी गरदनके छितराये हुए बालोंके झटकेसे आकाशके बादल और विमानोंकी भीड़ तीतर-बितर हो रही थी। उसकी भयानक हिनहिनाहट से सब-के-सब भयसे काँप रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं, मुँह क्या था, मानो किसी वृक्षका खोडऱ ही हो। उसे देखनेसे ही डर लगता था। बड़ी मोटी गरदन थी। शरीर इतना विशाल था कि मालूम होता था काली-काली बादलकी घटा है। उसकी नीयतमें पाप भरा था। वह श्रीकृष्णको मारकर अपने स्वामी कंसका हित करना चाहता था। उसके चलनेसे भूकम्प होने लगता था ॥ १-२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहनेवाला गोकुल भयभीत हो रहा है और उसकी पूँछके बालोंसे बादल तितर-बितर हो रहे हैं, तथा वह लडऩेके लिये उन्हींको ढूँढ़ भी रहा हैतब वे बढक़र उसके सामने आ गये और उन्होंने सिंहके समान गरजकर उसे ललकारा ॥ ३ ॥ भगवान्‌को सामने आया देख वह और भी चिढ़ गया तथा उनकी ओर इस प्रकार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाशको पी जायगा। परीक्षित्‌ ! सचमुच केशीका वेग बड़ा प्रचण्ड था। उसपर विजय पाना तो कठिन था ही, उसे पकड़ लेना भी आसान नहीं था। उसने भगवान्‌के पास पहुँचकर दुलत्ती झाड़ी ॥ ४ ॥ परंतु भगवान्‌ने उससे अपनेको बचा लिया। भला, वह इन्द्रियातीतको कैसे मार पाता ! उन्होंने अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिये और जैसे गरुड़ साँपको पकडक़र झटक देते हैं, उसी प्रकार क्रोधसे उसे घुमाकर बड़े अपमानके साथ चार सौ हाथकी दूरीपर फेंक दिया और स्वयं अकडक़र खड़े हो गये ॥ ५ ॥ थोड़ी ही देरके बाद केशी फिर सचेत हो गया और उठ खड़ा हुआ। इसके बाद वह क्रोधसे तिलमिलाकर और मुँह फाडक़र बड़े वेगसे भगवान्‌की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान्‌ मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बायाँ हाथ उसके मुँहमें इस प्रकार डाल दिया,जैसे सर्प बिना किसी आशङ्काके अपने बिलमें घुस जाता है ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌का अत्यन्त कोमल करकमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो। उसका स्पर्श होते ही केशीके दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देनेपर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्णका भुजदण्ड उसके मुँहमें बढऩे लगा ॥ ७ ॥ अचिन्त्यशक्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णका हाथ उसके मुँहमें इतना बढ़ गया कि उसकी साँसके भी आने-जानेका मार्ग न रहा। अब तो दम घुटनेके कारण वह पैर पीटने लगा। उसका शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया, आँखोंकी पुतली उलट गयी, वह मल-त्याग करने लगा। थोड़ी ही देरमें उसका शरीर निश्चेष्ट होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये ॥ ८ ॥ उसका निष्प्राण शरीर फूला हुआ होनेके कारण गिरते ही पकी ककड़ीकी तरह फट गया। महाबाहु भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसके शरीरसे अपनी भुजा खींच ली। उन्हें इससे कुछ भी आश्चर्य या गर्व नहीं हुआ। बिना प्रयत्नके ही शत्रुका नाश हो गया। देवताओंको अवश्य ही इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे प्रसन्न हो-होकर भगवान्‌ के ऊपर पुष्प बरसाने और उनकी स्तुति करने लगे ॥ ९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



बुधवार, 5 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – छत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) छत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

अरिष्टासुर का उद्धार और कंस का श्री अक्रूरजी को व्रज में भेजना

 

अरिष्टे निहते दैत्ये कृष्णेनाद्‍भुतकर्मणा ।

कंसायाथाह भगवान् नारदो देवदर्शनः ॥ १६ ॥

यशोदायाः सुतां कन्यां देवक्याः कृष्णमेव च ।

रामं च रोहिणीपुत्रं वसुदेवेन बिभ्यता ॥ १७ ॥

न्यस्तौ स्वमित्रे नन्दे वै याभ्यां ते पुरुषा हताः ।

निशम्य तद्‍भोजपतिः कोपात् प्रचलितेन्द्रियः ॥ १८ ॥

निशातमसिमादत्त वसुदेवजिघांसया

निवारितो नारदेन तत्सुतौ मृत्युमात्मनः ॥ १९ ॥

ज्ञात्वा लोहमयैः पाशैः बबन्ध सह भार्यया ।

प्रतियाते तु देवर्षौ कंस आभाष्य केशिनम् ॥ २० ॥

प्रेषयामास हन्येतां भवता रामकेशवौ ।

ततो मुष्टिकचाणूर शलतोशलकादिकान् ॥ २१ ॥

अमात्यान् हस्तिपांश्चैव समाहूयाह भोजराट् ।

भो भो निशम्यतामेतद् वीरचाणूरमुष्टिकौ ॥ २२ ॥

नन्दव्रजे किलासाते सुतावानकदुन्दुभेः ।

रामकृष्णौ ततो मह्यं मृत्युः किल निदर्शितः ॥ २३ ॥

भवद्‍भ्यामिह सम्प्राप्तौ हन्येतां मल्ललीलया ।

मञ्चाः क्रियन्तां विविधा मल्लरङ्‌गपरिश्रिताः ।

पौरा जानपदाः सर्वे पश्यन्तु स्वैरसंयुगम् ॥ २४ ॥

महामात्र त्वया भद्र रङ्‌गद्वार्युपनीयताम् ।

द्विपः कुवलयापीडो जहि तेन ममाहितौ ॥ २५ ॥

आरभ्यतां धनुर्यागः चतुर्दश्यां यथाविधि ।

विशसन्तु पशून् मेध्यान् भूतराजाय मीढुषे ॥ २६ ॥

इत्याज्ञाप्यार्थतन्त्रज्ञ आहूय यदुपुङ्‌गवम् ।

गृहीत्वा पाणिना पाणिं ततोऽक्रूरमुवाच ह ॥ २७ ॥

भो भो दानपते मह्यं क्रियतां मैत्रमादृतः ।

नान्यस्त्वत्तो हिततमो विद्यते भोजवृष्णिषु ॥ २८ ॥

अतस्त्वामाश्रितः सौम्य कार्यगौरवसाधनम् ।

यथेन्द्रो विष्णुमाश्रित्य स्वार्थमध्यगमद् विभुः ॥ २९ ॥

गच्छ नन्दव्रजं तत्र सुतौ आवानकदुन्दुभेः ।

आसाते तौ इहानेन रथेनानय मा चिरम् ॥ ३० ॥

निसृष्टः किल मे मृत्युः देवैर्वैकुण्ठसंश्रयैः ।

तावानय समं गोपैः नन्दाद्यैः साभ्युपायनैः ॥ ३१ ॥

घातयिष्य इहानीतौ कालकल्पेन हस्तिना ।

यदि मुक्तौ ततो मल्लैः घातये वैद्युतोपमैः ॥ ३२ ॥

तयोर्निहतयोस्तप्तान् वसुदेवपुरोगमान् ।

तद्‍बन्धून् निहनिष्यामि वृष्णिभोजदशार्हकान् ॥ ३३ ॥

उग्रसेनं च पितरं स्थविरं राज्यकामुकम् ।

तद्‍भ्रातरं देवकं च ये चान्ये विद्विषो मम ॥ ३४ ॥

ततश्चैषा मही मित्र भवित्री नष्टकण्टका ।

जरासन्धो मम गुरुः द्विविदो दयितः सखा ॥ ३५ ॥

शम्बरो नरको बाणो मय्येव कृतसौहृदाः ।

तैरहं सुरपक्षीयान् हत्वा भोक्ष्ये महीं नृपान् ॥ ३६ ॥

एतज्ज्ञात्वाऽनय क्षिप्रं रामकृष्णाविहार्भकौ ।

धनुर्मखनिरीक्षार्थं द्रष्टुं यदुपुरश्रियम् ॥ ३७ ॥

 

श्रीअक्रूर उवाच -

राजन् मनीषितं सध्र्यक् तव स्वावद्यमार्जनम् ।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समं कुर्याद् दैवं हि फलसाधनम् ॥ ३८ ॥

मनोरथान् करोत्युच्चैः जनो दैवहतानपि ।

युज्यते हर्षशोकाभ्यां तथाप्याज्ञां करोमि ते ॥ ३९ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवमादिश्य चाक्रूरं मन्त्रिणश्च विषृज्य सः ।

प्रविवेश गृहं कंसः तथाक्रूरः स्वमालयम् ॥ ४० ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ की लीला अत्यन्त अद्भुत है। इधर जब उन्होंने अरिष्टासुरको मार डाला, तब भगवन्मय नारद, जो लोगोंको शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्‌का दर्शन कराते रहते हैं, कंसके पास पहुँचे। उन्होंने उससे कहा॥ १६ ॥ कंस ! जो कन्या तुम्हारे हाथसे छूटकर आकाशमें चली गयी, वह तो यशोदाकी पुत्री थी। और व्रजमें जो श्रीकृष्ण हैं, वे देवकीके पुत्र हैं। वहाँ जो बलरामजी हैं, वे रोहिणीके पुत्र हैं। वसुदेवने तुमसे डरकर अपने मित्र नन्दके पास उन दोनोंको रख दिया है। उन्होंने ही तुम्हारे अनुचर दैत्योंका वध किया है।यह बात सुनते ही कंसकी एक-एक इन्द्रिय क्रोधके मारे काँप उठी ॥ १७-१८ ॥ उसने वसुदेवजीको मार डालनेके लिये तुरंत तीखी तलवार उठा ली, परंतु नारदजीने रोक दिया। जब कंसको यह मालूम हो गया कि वसुदेवके लडक़े ही हमारी मृत्युके कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव दोनों ही पति-पत्नीको हथकड़ी और बेड़ीसे जकडक़र फिर जेलमें डाल दिया। जब देवर्षि नारद चले गये, तब कंसने केशीको बुलाया और कहा—‘तुम व्रजमें जाकर बलराम और कृष्णको मार डालो।वह चला गया। इसके बाद कंसने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल, आदि पहलवानों, मन्ङ्क्षत्रयों और महावतोंको बुलाकर कहा— ‘वीरवर चाणूर और मुष्टिक! तुमलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो ॥ १९२२ ॥ वसुदेवके दो पुत्र बलराम और कृष्ण नन्दके व्रजमें रहते हैं। उन्हींके हाथसे मेरी मृत्यु बतलायी जाती है ॥ २३ ॥ अत: जब वे यहाँ आवें, तब तुमलोग उन्हें कुश्ती लडऩे-लड़ानेके बहाने मार डालना। अब तुमलोग भाँति- भाँतिके मंच बनाओ और उन्हें अखाड़ेके चारों ओर गोल-गोल सजा दो। उनपर बैठकर नगरवासी और देशकी दूसरी प्रजा इस स्वच्छन्द दंगलको देखें ॥ २४ ॥ महावत! तुम बड़े चतुर हो। देखो भाई! तुम दंगलके घेरेके फाटकपर ही अपने कुवलयापीड हाथीको रखना और जब मेरे शत्रु उधरसे निकलें, तब उसीके द्वारा उन्हें मरवा डालना ॥ २५ ॥ इसी चतुर्दशीको विधिपूर्वक धनुषयज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलताके लिये वरदानी भूतनाथ भैरवको बहुत-से पवित्र पशुओंकी बलि चढ़ाओ ॥ २६ ॥

 

परीक्षित्‌! कंस तो केवल स्वार्थ-साधनका सिद्धान्त जानता था। इसलिये उसने मन्त्री, पहलवान और महावतको इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूरको बुलवाया और उनका हाथ अपने हाथमें लेकर बोला॥ २७ ॥ अक्रूरजी! आप तो बड़े उदार दानी हैं। सब तरहसे मेरे आदरणीय हैं। आज आप मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिये; क्योंकि भोजवंशी और वृष्णिवंशी यादवोंमें आपसे बढक़र मेरी भलाई करनेवाला दूसरा कोई नहीं है ॥ २८ ॥ यह काम बहुत बड़ा है, इसलिये मेरे मित्र! मैंने आपका आश्रय लिया है। ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र समर्थ होनेपर भी विष्णुका आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है ॥ २९ ॥ आप नन्दरायके व्रजमें जाइये। वहाँ वसुदेवजीके दो पुत्र हैं। उन्हें इसी रथपर चढ़ाकर यहाँ ले आइये। बस, अब इस काममें देर नहीं होनी चाहिये ॥ ३० ॥ सुनते हैं, विष्णुके भरोसे जीनेवाले देवताओंने उन दोनोंको मेरी मृत्युका कारण निश्चित किया है। इसलिये आप उन दोनोंको तो ले ही आइये, साथ ही नन्द आदि गोपोंको भी बड़ी-बड़ी भेटोंके साथ ले आइये ॥ ३१ ॥ यहाँ आनेपर मैं उन्हें अपने कालके समान कुवलयापीड हाथीसे मरवा डालूँगा। यद िवे कदाचित् उस हाथीसे बच गये, तो मैं अपने वज्रके सामन मजबूत और फुर्तीले पहलवान मुष्टिक-चाणूर आदिसे उन्हें मरवा डालूँगा ॥ ३२ ॥ उनके मारे जानेपर वसुदेव आदि वृष्णि, भोज और दशाहर्वंशी उनके भाई-बन्धु शोकाकुल हो जायँगे। फिर उन्हें मैं अपने हाथों मार डालूँगा ॥ ३३ ॥ मेरा पिता उग्रसेन यों तो बूढ़ा हो गया है, परंतु अभी उसको राज्यका लोभ बना हुआ है। यह सब कर चुकनेके बाद मैं उसको, उसके भाई देवकको और दूसरे भी जो-जो मुझसे द्वेष करनेवाले हैंउन सबको तलवारके घाट उतार दूँगा ॥ ३४ ॥ मेरे मित्र अक्रूरजी! फिर तो मैं होऊँगा और आप होंगे तथा होगा इस पृथ्वीका अकण्टक राज्य। जरासन्ध हमारे बड़े-बूढ़े ससुर हैं और वानरराज द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं ॥ ३५ ॥ शम्बरासुर, नरकासुर और बाणासुरये तो मुझसे मित्रता करते ही हैं, मेरा मुँह देखते रहते हैं; इन सबकी सहायतासे मैं देवताओंके पक्षपाती नरपतियोंको मारकर पृथ्वीका अकण्टक राज्य भोगूँगा ॥ ३६ ॥ यह सब अपनी गुप्त बातें मैंने आपको बतला दीं। अब आप जल्दी-से-जल्दी बलराम और कृष्णको यहाँ ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालनेमें क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुषयज्ञके दर्शन और यदुवंशियोंकी राजधानी मथुराकी शोभा देखनेके लिये यहाँ आ जायँ॥ ३७ ॥

 

अक्रूरजीने कहामहाराज ! आप अपनी मृत्यु, अपना अरिष्ट दूर करना चाहते हैं, इसलिये आपका ऐसा सोचना ठीक ही है। मनुष्यको चाहिये कि चाहे सफलता हो या असफलता, दोनोंके प्रति समभाव रखकर अपना काम करता जाय। फल तो प्रयत्नसे नहीं, दैवी प्रेरणासे मिलते हैं ॥ ३८ ॥ मनुष्य बड़े-बड़े मनोरथोंके पुल बाँधता रहता है, परंतु वह यह नहीं जानता कि दैवने, प्रारब्धने इसे पहलेसे ही नष्ट कर रखा है। यही कारण है कि कभी प्रारब्धके अनुकूल होनेपर प्रयत्न सफल हो जाता है, तो वह हर्षसे फूल उठता है और प्रतिकूल होनेपर विफल हो जाता है तो शोकग्रस्त हो जाता है। फिर भी मैं आपकी आज्ञाका पालन तो कर ही रहा हूँ ॥ ३९ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंकंसने मन्त्रियों और अक्रूरजीको इस प्रकारकी आज्ञा देकर सबको विदा कर दिया। तदनन्तर वह अपने महलमें चला गया और अक्रूरजी अपने घर लौट आये ॥ ४० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अक्रूरसंप्रेषणं नाम षट्‌त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...