॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
अक्रूरजी
की व्रज-यात्रा
श्रीशुक
उवाच -
अक्रूरोऽपि
च तां रात्रिं मधुपुर्यां महामतिः ।
उषित्वा
रथमास्थाय प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥ १ ॥
गच्छन्
पथि महाभागो भगवत्यम्बुजेक्षणे ।
भक्तिं
परामुपगत एवमेतदचिन्तयत् ॥ २ ॥
किं
मयाऽऽचरितं भद्रं किं तप्तं परमं तपः ।
किं
वाथाप्यर्हते दत्तं यद् द्रक्ष्याम्यद्य केशवम् ॥ ३ ॥
ममैतद्
दुर्लभं मन्ये उत्तमःश्लोकदर्शनम् ।
विषयात्मनो
यथा ब्रह्म कीर्तनं शूद्रजन्मनः ॥ ४ ॥
मैवं
ममाधमस्यापि स्यादेवाच्युतदर्शनम् ।
ह्रियमाणः
कलनद्या क्वचित्तरति कश्चन ॥ ५ ॥
ममाद्यामङ्गलं
नष्टं फलवांश्चैव मे भवः ।
यन्नमस्ये
भगवतो योगिध्येयांघ्रिपङ्कजम् ॥ ६ ॥
कंसो
बताद्याकृत मेऽत्यनुग्रहं
द्रक्ष्येऽङ्घ्रिपद्मं
प्रहितोऽमुना हरेः ।
कृतावतारस्य
दुरत्ययं तमः
पूर्वेऽतरन्
यन्नखमण्डलत्विषा ॥ ७ ॥
यदर्चितं
ब्रह्मभवादिभिः सुरैः
श्रिया
च देव्या मुनिभिः ससात्वतैः ।
गोचारणायानुचरैश्चरद्वने
यद्गोपिकानां
कुचकुङ्कुमाङ्कितम् ॥ ८ ॥
द्रक्ष्यामि
नूनं सुकपोलनासिकं
स्मितावलोकारुणकञ्जलोचनम्
।
मुखं
मुकुन्दस्य गुडालकावृतं
प्रदक्षिणं
मे प्रचरन्ति वै मृगाः ॥ ९ ॥
अप्यद्य
विष्णोर्मनुजत्वमीयुषो
भारावताराय
भुवो निजेच्छया ।
लावण्यधाम्नो
भवितोपलम्भनं
मह्यं
न न स्यात् फलमञ्जसा दृशः ॥ १० ॥
य
ईक्षिताहंरहितोऽप्यसत्सतोः
स्वतेजसापास्ततमोभिदाभ्रमः
।
स्वमाययाऽऽत्मन्
रचितैस्तदीक्षया
प्राणाक्षधीभिः
सदनेष्वभीयते ॥ ११ ॥
यस्याखिलामीवहभिः
सुमङ्गलैः
वाचो
विमिश्रा गुणकर्मजन्मभिः ।
प्राणन्ति
शुम्भन्ति पुनन्ति वै जगत्
यास्तद्विरक्ताः
शवशोभना मताः ॥ १२ ॥
स
चावतीर्णः किल सत्वतान्वये
स्वसेतुपालामरवर्यशर्मकृत्
।
यशो
वितन्वन् व्रज आस्त ईश्वरो
गायन्ति
देवा यदशेषमङ्गलम् ॥ १३ ॥
तं
त्वद्य नूनं महतां गतिं गुरुं
त्रैलोक्यकान्तं
दृशिमन्महोत्सवम् ।
रूपं
दधानं श्रिय ईप्सितास्पदं
द्रक्ष्ये
ममासन्नुषसः सुदर्शनाः ॥ १४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! महामति अक्रूरजी भी वह रात मथुरापुरी में बिताकर प्रात:काल
होते ही रथपर सवार हुए और नन्दबाबाके गोकुलकी ओर चल दिये ॥ १ ॥ परम भाग्यवान्
अक्रूरजी व्रजकी यात्रा करते समय मार्गमें कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णकी परम
प्रेममयी भक्तिसे परिपूर्ण हो गये। वे इस प्रकार सोचने लगे ॥ २ ॥ ‘मैने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी
श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्रको ऐसा कौन-सा महत्त्वपूर्ण दान दिया है,
जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन करूँगा ॥ ३ ॥ मैं
बड़ा विषयी हूँ। ऐसी स्थितिमें, बड़े-बड़े सात्त्विक पुरुष
भी जिनके गुणोंका ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते—उन भगवान् के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं, ठीक
वैसे ही , जैसे शूद्रकुलके बालकके लिये वेदोंका कीर्तन ॥ ४ ॥
परंतु नहीं, मुझ अधमको भी भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन होंगे
ही। क्योंकि जैसे नदीमें बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पारसे उस पार लग जाते हैं,
वैसे ही समयके प्रवाहसे भी कहीं कोई इस संसारसागरको पार कर सकता है
॥ ५ ॥ अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये। आज मेरा जन्म सफल हो गया। क्योंकि
आज मैं भगवान्के उन चरणकमलोंमें साक्षात् नमस्कार करूँगा, जो
बड़े-बड़े योगी-यतियोंके भी केवल ध्यानके ही विषय हैं ॥ ६ ॥ अहो ! कंसने तो आज
मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है। उसी कंसके भेजनेसे मैं इस भूतलपर अवतीर्ण स्वयं
भगवान् के चरणकमलोंके दर्शन पाऊँगा। जिनके नखमण्डलकी कान्तिका ध्यान करके पहले
युगोंके ऋषि-महर्षि इस अज्ञानरूप अपार अन्धकार-राशिको पार कर चुके हैं, स्वयं वही भगवान् तो अवतार ग्रहण करके प्रकट हुए हैं ॥ ७ ॥ ब्रह्मा,
शङ्कर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन
चरणकमलोंकी उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक
क्षणके लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तोंके
साथ बड़े-बड़े ज्ञानी भी जिनकी आराधनामें संलग्र रहते हैं—भगवान्
के वे ही चरण-कमल गौओंको चरानेके लिये ग्वालबालोंके साथ वन-वनमें विचरते हैं। वे
ही सुर-मुनि-वन्दित श्रीचरण गोपियोंके वक्ष:स्थलपर लगी हुई केसरसे रँग जाते हैं,
चिह्नित हो जाते हैं ॥ ८ ॥ मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा।
मरकतमणिके समान सुस्निग्ध कान्तिमान् उनके कोमल कपोल हैं, तोतेकी
ठोरके समान नुकीली नासिका है, होठोंपर मन्द-मन्द मुसकान,
प्रेमभरी चितवन, कमल-से-कोमल रतनारे लोचन और
कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं। मैं प्रेम और मुक्तिके परम दानी
श्रीमुकुन्दके उस मुखकमलका आज अवश्य दर्शन करूँगा। क्योंकि हरिन मेरी दायीं ओरसे
निकल रहे हैं ॥ ९ ॥ भगवान् विष्णु पृथ्वीका भार उतारनेके लिये स्वेच्छासे
मनुष्यकी-सी लीला कर रहे हैं ! वे सम्पूर्ण लावण्यके धाम हैं। सौन्दर्यकी
मूर्तिमान् निधि हैं। आज मुझे उन्हींका दर्शन होगा ! अवश्य होगा ! आज मुझे सहजमें
ही आँखोंका फल मिल जायगा ॥ १० ॥ भगवान् इस कार्य-कारणरूप जगत्के द्रष्टामात्र हैं,
और ऐसा होनेपर भी द्रष्टापनका अहंकार उन्हें छूतक नहीं गया है। उनकी
चिन्मयी शक्तिसे अज्ञानके कारण होनेवाला भेदभ्रम अज्ञानसहित दूरसे ही निरस्त रहता
है। वे अपनी योगमायासे ही अपने-आपमें भ्रूविलास- मात्रसे प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदिके सहित अपने स्वरूपभूत जीवोंकी रचना कर लेते हैं
और उनके साथ वृन्दावनकी कुञ्जोंमें तथा गोपियोंके घरोंमेे. तरह-तरहकी लीलाएँ करते
हुए प्रतीत होते हैं ॥ ११ ॥ जब समस्त पापोंके नाशक उनके परम मङ्गलमय गुण, कर्म और जन्मकी लीलाओंसे युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गानसे संसारमें जीवनकी स्फूर्ति होने लगती है, शोभाका सञ्चार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुलकर
पवित्रताका साम्राज्य छा जाता है; परंतु जिस वाणीसे उनके गुण,
लीला और जन्मकी कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो
मुर्दोंको ही शोभित करनेवाली है, होनेपर भी नहींके समान—व्यर्थ है ॥ १२ ॥ जिनके गुणगानका ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान् स्वयं यदुवंशमें अवतीर्ण हुए हैं। किसलिये ? अपनी ही बनायी मर्यादाका पालन करनेवाले श्रेष्ठ देवताओंका कल्याण करनेके
लिये। वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान् आज व्रजमें निवास कर रहे हैं। और वहींसे अपने
यशका विस्तार कर रहे हैं। उनका यश कितना पवित्र है ! अहो, देवतालोग
भी उस सम्पूर्ण मङ्गलमय यशका गान करते रहते हैं ॥ १३ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आज
मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा। वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालोंके भी एकमात्र आश्रय
हैं। सबके परम गुरु हैं। और उनका रूप-सौन्दर्य तीनों लोकोंके मनको मोह लेनेवाला
है। जो नेत्रवाले हैं, उनके लिये वह आनन्द और रसकी चरम सीमा
है। इसीसे स्वयं लक्ष्मीजी भी, जो सौन्दर्यकी अधीश्वरी हैं,
उन्हें पानेके लिये ललकती रहती हैं। हाँ, तो
मैं उन्हें अवश्य देखूँगा। क्योंकि आज मेरा मङ्गलप्रभात है, आज
मुझे प्रात:कालसे ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं ॥ १४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से