बुधवार, 26 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अक्रूरजीका हस्तिनापुर जाना

 

श्रीशुक उवाच -

स गत्वा हास्तिनपुरं पौरवेन्द्रयशोऽङ्‌कितम् ।

ददर्श तत्राम्बिकेयं सभीष्मं विदुरं पृथाम् ॥ १ ॥

सहपुत्रं च बाह्लीकं भारद्वाजं सगौतमम् ।

कर्णं सुयोधनं द्रौणिं पाण्डवान्सुहृदोऽपरान् ॥ २ ॥

यथावद् उपसङ्‌गम्य बन्धुभिर्गान्दिनीसुतः ।

सम्पृष्टस्तैः सुहृद्वार्तां स्वयं चापृच्छदव्ययम् ॥ ३ ॥

उवास कतिचिन्मासान् राज्ञो वृत्तविवित्सया ।

दुष्प्रजस्याल्पसारस्य खलच्छन्दानुवर्तिनः ॥ ४ ॥

तेज ओजो बलं वीर्यं प्रश्रयादींश्च सद्‍गुणान् ।

प्रजानुरागं पार्थेषु न सहद्‌भिश्चिकीर्षितम् ॥ ५ ॥

कृतं च धार्तराष्ट्रैर्यद् गरदानाद्यपेशलम् ।

आचख्यौ सर्वमेवास्मै पृथा विदुर एव च ॥ ६ ॥

पृथा तु भ्रातरं प्राप्तं अक्रूरमुपसृत्य तम् ।

उवाच जन्मनिलयं स्मरन्त्यश्रुकलेक्षणा ॥ ७ ॥

अपि स्मरन्ति नः सौम्य पितरौ भ्रातरश्च मे ।

भगिन्यौ भ्रातृपुत्राश्च जामयः सख्य एव च ॥ ८ ॥

भ्रात्रेयो भगवान् कृष्णः शरण्यो भक्तवत्सलः ।

पैतृष्वसेयान् स्मरति रामश्चाम्बुरुहेक्षणः ॥ ९ ॥

सपत्‍नमध्ये शोचन्तीं वृकानां हरिणीमिव ।

सान्त्वयिष्यति मां वाक्यैः पितृहीनांश्च बालकान् ॥ १० ॥

कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावन ।

प्रपन्नां पाहि गोविन्द शिशुभिश्चावसीदतीम् ॥ ११ ॥

नान्यत्तव पदाम्भोजात् पश्यामि शरणं नृणाम् ।

बिभ्यतां मृत्युसंसाराद् ईस्वरस्यापवर्गिकात् ॥ १२ ॥

नमः कृष्णाय शुद्धाय ब्रह्मणे परमात्मने ।

योगेश्वराय योगाय त्वामहं शरणं गता ॥ १३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गये। वहाँकी एक-एक वस्तुपर पुरुवंशी नरपतियोंकी अमरकीर्ति की छाप लग रही है। वे वहाँ पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाह्लीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट-मित्रोंसे मिले ।। १-२ ।। जब गान्दिनी- नन्दन अक्रूरजी सब इष्ट-मित्रों और सम्बन्धियोंसे भलीभाँति मिल चुके, तब उनसे उन लोगोंने अपने मथुरावासी स्वजन-सम्बन्धियोंकी कुशल-क्षेम पूछी। उनका उत्तर देकर अक्रूरजीने भी हस्तिनापुर- वासियोंके कुशलमङ्गलके सम्बन्धमें पूछताछ की ।। ३ ।। परीक्षित्‌ ! अक्रूरजी यह जाननेके लिये कि धृतराष्ट्र पाण्डवोंके साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनोंतक वहीं रहे। सच पूछो तो, धृतराष्ट्रमें अपने दुष्ट पुत्रोंकी इच्छाके विपरीत कुछ भी करनेका साहस न था। वे शकुनि आदि दुष्टोंकी सलाहके अनुसार ही काम करते थे ।। ४ ।। अक्रूरजीको कुन्ती और विदुरने यह बतलाया कि धृतराष्ट्रके लडक़े दुर्योधन आदि पाण्डवोंके प्रभाव, शस्त्रकौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद्गुण देखकर उनसे जलते रहते हैं। जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवोंसे ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवोंका अनिष्ट करनेपर उतारू हो जाते हैं। अबतक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्रके पुत्रोंने पाण्डवोंपर कई बार विषदान आदि बहुत-से अत्याचार किये हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं ।। ५-६ ।।

 

जब अक्रूरजी कुन्तीके घर आये, तब वह अपने भाईके पास जा बैठीं। अक्रूरजीको देखकर कुन्तीके मनमें अपने मायकेकी स्मृति जग गयी और नेत्रोंमें आँसू भर आये। उन्होंने कहा।। ७ ।। प्यारे भाई ! क्या कभी मेरे माँ-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुलकी स्त्रियाँ और सखी-सहेलियाँ मेरी याद करती हैं ? ।। ८ ।। मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान्‌ श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागत-रक्षक हैं। क्या वे कभी अपने इन फुफेरे भाइयोंको भी याद करते हैं ? ।। ९ ।। मैं शत्रुओंके बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूँ। मेरी वही दशा है, जैसे कोई हरिनी भेडिय़ोंके बीचमें पड़ गयी हो। मेरे बच्चे बिना बापके हो गये हैं। क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहाँ आकर मुझको और इन अनाथ बालकोंको सान्त्वना देंगे ? ।। १० ।। (श्रीकृष्णको अपने सामने समझकर कुन्ती कहने लगीं—) ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! तुम महायोगी हो, विश्वात्मा हो और तुम सारे विश्वके जीवनदाता हो। गोविन्द ! मैं अपने बच्चोंके साथ दु:ख-पर-दु:ख भोग रही हूँ। तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। मेरी रक्षा करो। मेरे बच्चोंको बचाओ ।। ११ ।। मेरे श्रीकृष्ण ! यह संसार मृत्युमय है और तुम्हारे चरण मोक्ष देनेवाले हैं। मैं देखती हूँ कि जो लोग इस संसारसे डरे हुए हैं, उनके लिये तुम्हारे चरणकमलोंके अतिरिक्त और कोई शरण और कोई सहारा नहीं है ।। १२ ।। श्रीकृष्ण ! तुम मायाके लेशसे रहित परम शुद्ध हो। तुम स्वयं परब्रह्म परमात्मा हो। समस्त साधनों, योगों और उपायोंके स्वामी हो तथा स्वयं योग भी हो। श्रीकृष्ण ! मैं तुम्हारी शरणमें आयी हूँ। तुम मेरी रक्षा करो।। १३ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




मंगलवार, 25 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अड़तालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ का कुब्जा और अक्रूरजी के घर जाना

 

अक्रूरभवनं कृष्णः सहरामोद्धवः प्रभुः ।

किञ्चित् चिकीर्षयन् प्रागाद् अक्रूरप्रीयकाम्यया ॥ १२ ॥

स तान् नरवरश्रेष्ठान् आरात् वीक्ष्य स्वबान्धवान् ।

प्रत्युत्थाय प्रमुदितः परिष्वज्याभिनन्द्य च ॥ १३ ॥

ननाम कृष्णं रामं च स तैरप्यभिवादितः ।

पूजयामास विधिवत् कृतासनपरिग्रहान् ॥ १४ ॥

पादावनेजनीरापो धारयन् शिरसा नृप ।

अर्हणेनाम्बरैर्दिव्यैः गन्धस्रग् भूषणोत्तमैः ॥ १५ ॥

अर्चित्वा शिरसानम्य पादावङ्‌कगतौ मृजन् ।

प्रश्रयावनतोऽक्रूरः कृष्णरामावभाषत ॥ १६ ॥

दिष्ट्या पापो हतः कंसः सानुगो वामिदं कुलम् ।

भवद्‍भ्यामुद्‌धृतं कृच्छ्राद् दुरन्ताच्च समेधितम् ॥ १७ ॥

युवां प्रधानपुरुषौ जगद्‌धेतू जगन्मयौ ।

भवद्‍भ्यां न विना किञ्चित् परमस्ति न चापरम् ॥ १८ ॥

आत्मसृष्टमिदं विश्वं अन्वाविश्य स्वशक्तिभिः ।

ईयते बहुधा ब्रह्मन् श्रुतप्रत्यक्षगोचरम् ॥ १९ ॥

यथा हि भूतेषु चराचरेषु

मह्यादयो योनिषु भान्ति नाना ।

एवं भवान्केवल आत्मयोनिषु

आत्मात्मतन्त्रो बहुधा विभाति ॥ २० ॥

सृजस्यथो लुम्पसि पासि विश्वं

रजस्तमःसत्त्वगुणैः स्वशक्तिभिः ।

न बध्यसे तद्‍गुणकर्मभिर्वा

ज्ञानात्मनस्ते क्व च बन्धहेतुः ॥ २१ ॥

देहाद्युपाधेरनिरूपितत्वाद्

भवो न साक्षान्न भिदात्मनः स्यात् ।

अतो न बन्धस्तव नैव मोक्षः

स्यातां निकामस्त्वयि नोऽविवेकः ॥ २२ ॥

त्वयोदितोऽयं जगतो हिताय

यदा यदा वेदपथः पुराणः ।

बाध्येत पाषण्डपथैरसद्‌भिः

तदा भवान् सन्सत्त्वगुणं बिभर्ति ॥ २३ ॥

स त्वं प्रभोऽद्य वसुदेवगृहेऽवतीर्णः

स्वांशेन भारमपनेतुमिहासि भूमेः ।

अक्षौहिणीशतवधेन सुरेतरांश

राज्ञाममुष्य च कुलस्य यशो वितन्वन् ॥ २४ ॥

अद्येश नो वसतयः खलु भूरिभागा

यः सर्वदेवपितृभूतनृदेवमूर्तिः ।

यत्पादशौचसलिलं त्रिजगय् पुनाति

स त्वं जगद्‍गुरुरधोक्षज याः प्रविष्टः ॥ २५ ॥

कः पण्डितस्त्वदपरं शरणं समीयाद्

भक्तप्रियादृतगिरः सुहृदः कृतज्ञात् ।

सर्वान् ददाति सुहृदो भजतोऽभिकामान्

आत्मानमप्युपचयापचयौ न यस्य ॥ २६ ॥

दिष्ट्या जनार्दन भवानिह नः प्रतीतो

योगेश्वरैरपि दुरापगतिः सुरेशैः ।

छिन्ध्याशु नः सुतकलत्रधनाप्तगेह

देहादिमोहरशनां भवदीयमायाम् ॥ २७ ॥

इत्यर्चितः संस्तुतश्च भक्तेन भगवान्हरिः ।

अक्रूरं सस्मितं प्राह गीर्भिः सम्मोहयन्निव ॥ २८ ॥

 

श्रीभगवानुवाच ।

त्वं नो गुरुः पितृव्यश्च श्लाघ्यो बन्धुश्च नित्यदा ।

वयं तु रक्ष्याः पोष्याश्च अनुकम्प्याः प्रजा हि वः ॥ २९ ॥

भवद्विधा महाभागा निषेव्या अर्हसत्तमाः ।

श्रेयस्कामैर्नृभिर्नित्यं देवाः स्वार्था न साधवः ॥ ३० ॥

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।

ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ३१ ॥

स भवान्सुहृदां वै नः श्रेयान् श्रेयश्चिकीर्षया ।

जिज्ञासार्थं पाण्डवानां गच्छस्व त्वं गजाह्वयम् ॥ ३२ ॥

पितर्युपरते बालाः सह मात्रा सुदुःखिताः ।

आनीताः स्वपुरं राज्ञा वसन्त इति शुश्रुम ॥ ३३ ॥

तेषु राजाम्बिकापुत्रो भ्रातृपुत्रेषु दीनधीः ।

समो न वर्तते नूनं दुष्पुत्रवशगोऽन्धदृक् ॥ ३४ ॥

गच्छ जानीहि तद्‌वृत्तं अधुना साध्वसाधु वा ।

विज्ञाय तद् विधास्यामो यथा शं सुहृदां भवेत् ॥ ३५ ॥

इत्यक्रूरं समादिश्य भगवान् हरिरीश्वरः ।

सङ्‌कर्षणोद्धवाभ्यां वै ततः स्वभवनं ययौ ॥ ३६ ॥

 

तदनन्तर एक दिन सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजी और उद्धवजीके साथ अक्रूरजी की अभिलाषा पूर्ण करने और उनसे कुछ काम लेनेके लिये उनके घर गये ।। १२ ।। अक्रूरजीने दूरसे ही देख लिया कि हमारे परम बन्धु मनुष्यलोकशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि पधार रहे हैं। वे तुरंत उठकर आगे गये तथा आनन्दसे भरकर उनका अभिनन्दन और आलिङ्गन किया ।। १३ ।। अक्रूरजीने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीको नमस्कार किया तथा उद्धवजीके साथ उन दोनों भाइयोंने भी उन्हें नमस्कार किया। जब सब लोग आरामसे आसनोंपर बैठ गये, तब अक्रूरजी उन लोगोंकी विधिवत् पूजा करने लगे ।। १४ ।। परीक्षित्‌ ! उन्होंने पहले भगवान्‌के चरण धोकर चरणोदक सिरपर धारण किया और फिर अनेकों प्रकारकी पूजा-सामग्री, दिव्य वस्त्र, गन्ध माला और श्रेष्ठ आभूषणोंसे उनका पूजन किया, सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और उनके चरणों- को अपनी गोदमें लेकर दबाने लगे। उसी समय उन्होंने विनयावनत होकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीसे कहा।। १५-१६ ।। भगवन् ! यह बड़े ही आनन्द और सौभाग्यकी बात है कि पापी कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। उसे मारकर आप दोनोंने युदवंशको बहुत बड़े संकटसे बचा लिया है तथा उन्नत और समृद्ध किया है ।। १७ ।। आप दोनों जगत्के कारण और जगत्रूप, आदिपुरुष हैं। आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है, न कारण और न तो कार्य ।। १८ ।। परमात्मन् ! आपने ही अपनी शक्तिसे इसकी रचना की है और आप ही अपनी काल, माया आदि शक्तियोंसे इसमें प्रविष्ट होकर जितनी भी वस्तुएँ देखी और सुनी जाती हैं, उनके रूपमें प्रतीत हो रहे हैं ।। १९ ।। जैसे पृथ्वी आदि कारणतत्त्वोंसे ही उनके कार्य स्थावर-जङ्गम शरीर बनते हैं; वे उनमें अनुप्रविष्ट-से होकर अनेक रूपोंमें प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तवमें वे कारणरूप ही हैं। इसी प्रकार हैं तो केवल आप ही, परंतु अपने कार्यरूप जगत्में स्वेच्छासे अनेक रूपोंमें प्रतीत होते हैं। यह भी आपकी एक लीला ही है ।। २० ।। प्रभो ! आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणरूप अपनी शक्तियोंसे क्रमश: जगत्की रचना, पालन और संहार करते हैं; किन्तु आप उन गुणोंसे अथवा उनके द्वारा होनेवाले कर्मोंसे बन्धनमें नहीं पड़ते, क्योंकि आप शुद्ध ज्ञानस्वरूप हैं। ऐसी स्थितिमें आपके लिये बन्धनका कारण ही क्या हो सकता है ? ।। २१ ।। प्रभो ! स्वयं आत्मवस्तु में स्थूलदेह, सूक्ष्मदेह आदि उपाधियाँ न होनेके कारण न तो उसमें जन्म-मृत्यु है और न किसी प्रकारका भेदभाव। यही कारण है कि न आपमें बन्धन है और न मोक्ष ! आपमें अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार बन्धन या मोक्षकी जो कुछ कल्पना होती है, उसका कारण केवल हमारा अविवेक ही है।। २२ ।। आपने जगत्के कल्याणके लिये यह सनातन वेदमार्ग प्रकट किया है। जब-जब इसे पाखण्ड-पथसे चलने- वाले दुष्टोंके द्वारा क्षति पहुँचती है, तब-तब आप शुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण करते हैं ।। २३ ।। प्रभो ! वही आप इस समय अपने अंश श्रीबलरामजीके साथ पृथ्वीका भार दूर करनेके लिये यहाँ वसुदेवजीके घर अवतीर्ण हुए हैं। आप असुरोंके अंशसे उत्पन्न नाममात्रके शासकोंकी सौ-सौ अक्षौहिणी सेनाका संहार करेंगे और यदुवंशके यशका विस्तार करेंगे ।। २४ ।। इन्द्रियातीत परमात्मन् ! सारे देवता, पितर, भूतगण और राजा आपकी मूर्ति हैं। आपके चरणोंकी धोवन गङ्गाजी तीनों लोकोंको पवित्र करती हैं। आप सारे जगत्के एकमात्र पिता और शिक्षक हैं। वही आज आप हमारे घर पधारे। इसमें सन्देह नहीं कि आज हमारे घर धन्य-धन्य हो गये। उनके सौभाग्यकी सीमा न रही ।। २५ ।। प्रभो ! आप प्रेमी भक्तोंके परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हतिू और कृतज्ञ हैंजरा-सी सेवाको भी मान लेते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष है जो आपको छोडक़र किसी दूसरेकी शरणमें जायगा ? आप अपना भजन करनेवाले प्रेमी भक्तकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। यहाँतक कि जिसकी कभी क्षति और वृद्धि नहीं होतीजो एकरस है, अपने उस आत्माका भी आप दान कर देते हैं ।। २६ ।। भक्तोंके कष्ट मिटानेवाले और जन्म-मृत्युके बन्धनसे छुड़ानेवाले प्रभो ! बड़े-बड़े योगिराज और देवराज भी आपके स्वरूपको नहीं जान सकते। परंतु हमें आपका साक्षात् दर्शन हो गया, यह कितने सौभाग्यकी बात है। प्रभो ! हम स्त्री, पुत्र, धन, स्वजन, गेह और देह आदिके मोहकी रस्सीसे बँधे हुए हैं। अवश्य ही यह आपकी मायाका खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े बन्धनको शीघ्र काट दीजिये।। २७ ।।

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार भक्त अक्रूरजीने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पूजा और स्तुति की। इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने मुसकराकर अपनी मधुर वाणीसे उन्हें मानो मोहित करते हुए कहा ।। २८ ।।

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘तात ! आप हमारे गुरुहितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे वंशमें अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदाके हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा ही आपकी रक्षा, पालन और कृपाके पात्र हैं ।। २९ ।। अपना परम कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंको आप-जैसे परम पूजनीय और महाभाग्यवान् संतोंकी सर्वदा सेवा करनी चाहिये। आप-जैसे संत देवताओंसे भी बढ़- कर हैं; क्योंकि देवताओंमें तो स्वार्थ रहता है, परंतु संतोंमें नहीं ।। ३० ।। केवल जलके तीर्थ (नदी, सरोवर आदि) ही तीर्थ नहीं हैं, केवल मृत्तिका और शिला आदिकी बनी हुई मूॢतयाँ ही देवता नहीं हैं। चाचाजी ! उनकी तो बहुत दिनोंतक श्रद्धासे सेवा की जाय, तब वे पवित्र करते हैं। परंतु संतपुरुष तो अपने दर्शनमात्रसे पवित्र कर देते हैं ।। ३१ ।। चाचाजी ! आप हमारे हितैषी सुहृदोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये आप पाण्डवोंका हित करनेके लिये तथा उनका कुशल-मङ्गल जाननेके लिये हस्तिनापुर जाइये ।। ३२ ।। हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डुके मर जानेपर अपनी माता कुन्तीके साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दु:खमें पड़ गये थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुरमें ले आये हैं और वे वहीं रहते हैं ।। ३३ ।। आप जानते ही हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबलकी भी कमी है। उनका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होनेके कारण वे पाण्डवों- के साथ अपने पुत्रों-जैसासमान व्यवहार नहीं कर पाते ।। ३४ ।। इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उनका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे उन सुहृदोंको सुख मिले।। ३५ ।। सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्ण अक्रूरजी- को इस प्रकार आदेश देकर बलरामजी और उद्धवजीके साथ वहाँसे अपने घर लौट आये ।। ३६ ।।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अड़तालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ का कुब्जा और अक्रूरजी के घर जाना

 

श्रीशुक उवाच -

अथ विज्ञाय भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः ।

सैरन्ध्र्याः कामतप्तायाः प्रियमिच्छन् गृहं ययौ ॥ १ ॥

महार्होपस्करैराढ्यं कामोपायोपबृंहितम् ।

मुक्तादामपताकाभिः वितानशयनासनैः ।

धूपैः सुरभिभिर्दीपैः स्रग् गन्धैरपि मण्डितम् ॥ २ ॥

गृहं तमायान्तमवेक्ष्य सासनात्

सद्यः समुत्थाय हि जातसम्भ्रमा ।

यथोपसङ्‌गम्य सखीभिरच्युतं

सभाजयामास सत्-आसनादिभिः ॥ ३ ॥

तथोद्धवः साधुतयाभिपूजितो

न्यषीददुर्व्यामभिमृश्य चासनम् ।

कृष्णोऽपि तूर्णं शयनं महाधनं

विवेश लोकाचरितान्यनुव्रतः ॥ ४ ॥

सा मज्जनालेपदुकूलभूषण

स्रग्गन्धताम्बूलसुधासवादिभिः ।

प्रसाधितात्मोपससार माधवं

सव्रीडलीलोत्स्मितविभ्रमेक्षितैः ॥ ५ ॥

आहूय कान्तां नवसङ्‌गमह्रिया

विशङ्‌कितां कङ्‌कणभूषिते करे ।

प्रगृह्य शय्यामधिवेश्य रामया

रेमेऽनुलेपार्पणपुण्यलेशया ॥ ६ ॥

सानङ्‌गतप्तकुचयोरुरसस्तथाक्ष्णोः

जिघ्रन्त्यनन्तचरणेन रुजो मृजन्ती ।

दोर्भ्यां स्तनान्तरगतं परिरभ्य कान्तम्

आनन्दमूर्तिमजहादतिदीर्घतापम् ॥ ७ ॥

सैवं कैवल्यनाथं तं प्राप्य दुष्प्राप्यमीश्वरम् ।

अङ्‌गरागार्पणेनाहो दुर्भगेदमयाचत ॥ ८ ॥

आहोष्यतामिह प्रेष्ठ दिनानि कतिचिन्मया ।

रमस्व नोत्सहे त्यक्तुं सङ्‌गं तेऽम्बुरुहेक्षण ॥ ९ ॥

तस्यै कामवरं दत्त्वा मानयित्वा च मानदः ।

सहोद्धवेन सर्वेशः स्वधामागमदर्चितम् ॥ १० ॥

दुरार्ध्यं समाराध्य विष्णुं सर्वेश्वरेश्वरम् ।

यो वृणीते मनोग्राह्यं असत्त्वात् कुमनीष्यसौ ॥ ११ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! तदनन्तर सबके आत्मा तथा सब कुछ देखने वाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनेसे मिलनकी आकाङ्क्षा रखकर व्याकुल हुई कुब्जा का प्रिय करनेउसे सुख देनेकी इच्छासे उसके घर गये ।। १ ।। कुब्जाका घर बहुमूल्य सामग्रियों से सम्पन्न था। उसमें श्ृंगार-रसका उद्दीपन करनेवाली बहुत-सी साधन-सामग्री भी भरी हुई थी। मोतीकी झालरें और स्थान-स्थानपर झंडियाँ भी लगी हुई थीं। चँदोवे तने हुए थे। सेजें बिछायी हुई थीं और बैठनेके लिये बहुत सुन्दर-सुन्दर आसन लगाये हुए थे। धूपकी सुगन्ध फैल रही थी। दीपककी शिखाएँ जगमगा रही थीं। स्थान-स्थानपर फूलोंके हार और चन्दन रखे हुए थे ।। २ ।। भगवान्‌ को अपने घर आते देख कुब्जा तुरंत हड़बड़ाकर अपने आसनसे उठ खड़ी हुई और सखियोंके साथ आगे बढक़र उसने विधिपूर्वक भगवान्‌का स्वागत-सत्कार किया। फिर श्रेष्ठ आसन आदि देकर विविध उपचारोंसे उनकी विधिपूर्वक पूजा की ।। ३ ।। कुब्जाने भगवान्‌ के परमभक्त उद्धवजीकी भी समुचित रीतिसे पूजा की; परंतु वे उसके सम्मानके लिये उसका दिया हुआ आसन छूकर धरतीपर ही बैठ गये। (अपने स्वामीके सामने उन्होंने आसनपर बैठना उचित न समझा।) भगवान्‌ श्रीकृष्ण सच्चिदानन्द- स्वरूप होनेपर भी लोकाचारका अनुकरण करते हुए तुरंत उसकी बहुमूल्य सेजपर जा बैठे ।। ४ ।। तब कुब्जा स्नान, अङ्गराग, वस्त्र, आभूषण, हार, गन्ध (इत्र आदि), ताम्बूल और सुधासव आदिसे अपनेको खूब सजाकर लीलामयी लजीली मुसकान तथा हाव-भावके साथ भगवान्‌की ओर देखती हुई उनके पास आयी ।। ५ ।। कुब्जा नवीन मिलनके संकोचसे कुछ झिझक रही थी। तब श्यासुन्दर श्रीकृष्णने उसे अपने पास बुला लिया और उसकी कङ्कणसे सुशोभित कलाई पकडक़र अपने पास बैठा लिया और उसके साथ क्रीडा करने लगे। परीक्षित्‌ ! कुब्जाने इस जन्ममें केवल भगवान्‌ को अङ्गराग अॢपत किया था, उसी एक शुभकर्मके फलस्वरूप उसे ऐसा अनुपम अवसर मिला ।। ६ ।। कुब्जा भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंको अपने काम-संतप्त हृदय, वक्ष:स्थल और नेत्रोंपर रखकर उनकी दिव्य सुगन्ध लेने लगी और इस प्रकार उसने अपने हृदयकी सारी आधि-व्याधि शान्त कर ली। वक्ष:स्थल से सटे हुए आनन्दमूर्ति प्रियतम श्यामसुन्दरका अपनी दोनों भुजाओं से गाढ़ आलिङ्गन करके कुब्जाने दीर्घकालसे बढ़े हुए वरिहतापको शान्त किया ।। ७ ।। परीक्षित्‌ ! कुब्जाने केवल अङ्गराग समॢपत किया था। उतनेसे ही उसे उन सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ की प्राप्ति हुई, जो कैवल्यमोक्षके अधीश्वर हैं और जिनकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परंतु उस दुर्भगा ने उन्हें प्राप्त करके भी व्रजगोपियोंकी भाँति सेवा न माँगकर यही माँगा।। ८ ।। प्रियतम ! आप कुछ दिन यहीं रहकर मेरे साथ क्रीडा कीजिये। क्योंकि हे कमलनयन ! मुझसे आपका साथ नहीं छोड़ा जाता।। ९ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबका मान रखनेवाले और सर्वेश्वर हैं। उन्होंने अभीष्ट वर देकर उसकी पूजा स्वीकार की और फिर अपने प्यारे भक्त उद्धवजीके साथ अपने सर्वसम्मानित घरपर लौट आये ।। १० ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ ब्रह्मा आदि समस्त ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनको प्रसन्न कर लेना भी जीवके लिये बहुत ही कठिन है। जो कोई उन्हें प्रसन्न करके उनसे विषय-सुख माँगता है, वह निश्चय ही दुर्बुद्धि है; क्योंकि वास्तवमें विषय-सुख अत्यन्त तुच्छनहीं के बराबर है ।। ११ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




सोमवार, 24 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सैंतालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

उद्धव तथा गोपियों की बातचीत और भ्रमरगीत

 

श्रीशुक उवाच

ततस्ताः कृष्णसन्देशैर्व्यपेतविरहज्वराः

उद्धवं पूजयांचक्रुर्ज्ञात्वात्मानमधोक्षजम् ५३

उवास कतिचिन्मासान्गोपीनां विनुदन्शुचः

कृष्णलीलाकथां गायन्रमयामास गोकुलम् ५४

यावन्त्यहानि नन्दस्य व्रजेऽवात्सीत्स उद्धवः

व्रजौकसां क्षणप्रायाण्यासन्कृष्णस्य वार्तया ५५

सरिद्वनगिरिद्रो णीर्वीक्षन्कुसुमितान्द्रु मान्

कृष्णं संस्मारयन्रेमे हरिदासो व्रजौकसाम् ५६

दृष्ट्वैवमादि गोपीनां कृष्णावेशात्मविक्लवम्

उद्धवः परमप्रीतस्ता नमस्यन्निदं जगौ ५७

एताः परं तनुभृतो भुवि गोपवध्वो

गोविन्द एव निखिलात्मनि रूढभावाः

वाञ्छन्ति यद्भवभियो मुनयो वयं च

किं ब्रह्मजन्मभिरनन्तकथारसस्य ५८

क्वेमाः स्त्रियो वनचरीर्व्यभिचारदुष्टाः

कृष्णे क्व चैष परमात्मनि रूढभावः

नन्वीश्वरोऽनुभजतोऽविदुषोऽपि साक्षाच्

छ्रेयस्तनोत्यगदराज इवोपयुक्तः ५९

नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्तरतेः प्रसादः

स्वर्योषितां नलिनगन्धरुचां कुतोऽन्याः

रासोत्सवेऽस्य भुजदण्डगृहीतकण्ठ

लब्धाशिषां य उदगाद्व्रजवल्लभीनाम् ६०

आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां

वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्

या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा

भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ६१

या वै श्रियार्चितमजादिभिराप्तकामैर्

योगेश्वरैरपि यदात्मनि रासगोष्ठ्याम्

कृष्णस्य तद्भगवतः चरणारविन्दं

न्यस्तं स्तनेषु विजहुः परिरभ्य तापम् ६२

वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः

यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ६३

 

श्रीशुक उवाच

अथ गोपीरनुज्ञाप्य यशोदां नन्दमेव च

गोपानामन्त्र्य दाशार्हो यास्यन्नारुरुहे रथम् ६४

तं निर्गतं समासाद्य नानोपायनपाणयः

नन्दादयोऽनुरागेण प्रावोचन्नश्रुलोचनाः ६५

मनसो वृत्तयो नः स्युः कृष्ण पादाम्बुजाश्रयाः

वाचोऽभिधायिनीर्नाम्नां कायस्तत्प्रह्वणादिषु ६६

कर्मभिर्भ्राम्यमाणानां यत्र क्वापीश्वरेच्छया

मङ्गलाचरितैर्दानै रतिर्नः कृष्ण ईश्वरे ६७

एवं सभाजितो गोपैः कृष्णभक्त्या नराधिप

उद्धवः पुनरागच्छन्मथुरां कृष्णपालिताम् ६८

कृष्णाय प्रणिपत्याह भक्त्युद्रे कं व्रजौकसाम्

वसुदेवाय रामाय राज्ञे चोपायनान्यदात् ६९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंप्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्रिय सन्देश सुनकर गोपियों के विरह की व्यथा शान्त हो गयी थी। वे इन्द्रियातीत भगवान्‌ श्रीकृष्ण को अपने आत्मा के रूप में सर्वत्र स्थित समझ चुकी थीं। अब वे बड़े प्रेम और आदर से उद्धव जी का सत्कार करने लगीं ॥५३ ॥ उद्धवजी गोपियोंकी विरह-व्यथा मिटानेके लिये कई महीनों तक वहीं रहे। वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ और बातें सुना-सुनाकर व्रजवासियोंको आनन्दित करते रहते ॥ ५४ ॥ नन्दबाबाके व्रजमें जितने दिनोंतक उद्धवजी रहे, उतने दिनोंतक भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाकी चर्चा होते रहनेके कारण व्रजवासियोंको ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही क्षण हुआ हो ॥ ५५ ॥ भगवान्‌ के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी कभी नदीतटपर जाते, कभी वनोंमें विहरते और कभी गिरिराजकी घाटियोंमें विचरते। कभी रंग-बिरंगे फूलोंसे लदे हुए वृक्षोंमें ही रम जाते और यहाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णने कौन-सी लीला की है, यह पूछ-पूछकर व्रजवासियोंको भगवान्‌ श्रीकृष्ण और उनकी लीलाके स्मरणमें तन्मय कर देते ॥ ५६ ॥

 

उद्धवजीने व्रजमें रहकर गोपियोंकी इस प्रकारकी प्रेम-विकलता तथा और भी बहुत-सी प्रेम- चेष्टाएँ देखीं। उनकी इस प्रकार श्रीकृष्णमें तन्मयता देखकर वे प्रेम और आनन्दसे भर गये। अब वे गोपियोंको नमस्कार करते हुए इस प्रकार गान करने लगे॥ ५७ ॥ इस पृथ्वीपर केवल इन गोपियोंका ही शरीर धारण करना श्रेष्ठ एवं सफल है; क्योंकि ये सर्वात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णके परम प्रेममय दिव्य महाभावमें स्थित हो गयी हैं। प्रेमकी यह ऊँची-से-ऊँची स्थिति संसारके भयसे भीत मुमुक्षुजनोंके लिये ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियोंमुक्त पुरुषों तथा हम भक्तजनोंके लिये भी अभी वाञ्छनीय ही है। हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी। सत्य है, जिन्हें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीला- कथा के रस का चसका लग गया है, उन्हें कुलीनता की, द्विजातिसमुचित संस्कारकी और बड़े-बड़े यज्ञ-यागोंमें दीक्षित होनेकी क्या आवश्यकता है ? अथवा यदि भगवान्‌ की कथाका रस नहीं मिला, उसमें रुचि नहीं हुई, तो अनेक महाकल्पोंतक बार-बार ब्रह्मा होनेसे ही क्या लाभ? ॥ ५८ ॥ कहाँ ये वनचरी आचार, ज्ञान और जातिसे हीन गाँवकी गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानन्दघन भगवान्‌ श्रीकृष्णमें यह अनन्य परम प्रेम ! अहो, धन्य है ! धन्य है ! इससे सिद्ध होता है कि यदि कोई भगवान्‌के स्वरूप और रहस्यको न जानकर भी उनसे प्रेम करे, उनका भजन करे, तो वे स्वयं अपनी शक्तिसे अपनी कृपासे उसका परम कल्याण कर देते हैं; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अनजानमें भी अमृत पी ले तो वह अपनी वस्तु-शक्तिसे ही पीनेवालेको अमर बना देता है ॥ ५९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने रासोत्सवके समय इन व्रजाङ्गनाओंके गलेमें बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूर्ण किये। इन्हें भगवान्‌ने जिस कृपा-प्रसादका वितरण किया, इन्हें जैसा प्रेमदान किया, वैसा भगवान्‌की परमप्रेमवती नित्यसङ्गिनी वक्ष:स्थलपर विराजमान लक्ष्मीजीको भी नहीं प्राप्त हुआ। कमलकी-सी सुगन्ध और कान्तिसे युक्त देवाङ्गनाओंको भी नहीं मिला। फिर दूसरी स्त्रियोंकी तो बात ही क्या करें ? ॥ ६० ॥ मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावनधाममें कोई झाड़ी, लता अथवा ओषधिजड़ी-बूटी ही बन जाऊँ ! अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझे इन व्रजाङ्गनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करनेके लिये मिलती रहेगी। इनकी चरण- रजमें स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ। देखो तो सही, जिनको छोडऩा अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों तथा लोक-वेदकी आर्य-मर्यादाका परित्याग करके इन्होंने भगवान्‌की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया हैऔरोंकी तो बात ही क्याभगवद्वाणी, उनकी नि:श्वासरूप समस्त श्रुतियाँ, उपनिषदें भी अबतक भगवान्‌के परम प्रेममय स्वरूपको ढूँढ़ती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं ॥ ६१ ॥ स्वयं भगवती लक्ष्मीजी जिनकी पूजा करती रहती हैं; ब्रह्मा, शङ्कर आदि परम समर्थ देवता, पूर्णकाम, आत्माराम और बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयमें जिनका चिन्तन करते रहते हैं, भगवान्‌ श्रीकृष्णके उन्हीं चरणारविन्दोंको रास-लीलाके समय गोपियोंने अपने वक्ष:स्थलपर रखा और उनका आलिङ्गन करके अपने हृदयकी जलन, विरह-व्यथा शान्त की ॥ ६२ ॥ नन्दबाबाके व्रजमें रहनेवाली गोपाङ्गनाओंकी चरणधूलिको मैं बारंबार प्रणाम करता हूँउसे सिरपर चढ़ाता हूँ। अहा ! इन गोपियोंने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाकथाके सम्बन्धमें जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोकोंको पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा॥ ६३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार कई महीनोंतक व्रजमें रहकर उद्धवजीने अब मथुरा जानेके लिये गोपियोंसे, नन्दबाबा और यशोदा मैयासे आज्ञा प्राप्त की। ग्वालबालोंसे विदा लेकर वहाँसे यात्रा करनेके लिये वे रथपर सवार हुए ॥ ६४ ॥ जब उनका रथ व्रजसे बाहर निकला, तब नन्दबाबा आदि गोपगण बहुत-सी भेंटकी सामग्री लेकर उनके पास आये और आँखोंमें आँसू भरकर उन्होंने बड़े प्रेमसे कहा॥ ६५ ॥ उद्धवजी ! अब हम यही चाहते हैं कि हमारे मनकी एक-एक वृत्ति, एक-एक संकल्प श्रीकृष्णके चरणकमलोंके ही आश्रित रहे। उन्हींकी सेवाके लिये उठे और उन्हींमें लगी भी रहे। हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हींके नामोंका उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हींको प्रणाम करने, उन्हींकी आज्ञा-पालन और सेवामें लगा रहे ॥ ६६ ॥ उद्धवजी ! हम सच कहते हैं, हमें मोक्षकी इच्छा बिलकुल नहीं है। हम भगवान्‌की इच्छासे अपने कर्मोंके अनुसार चाहे जिस योनिमें जन्म लेंवहाँ शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्णमें हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती रहे॥ ६७ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! नन्दबाबा आदि गोपोंने इस प्रकार श्रीकृष्ण-भक्तिके द्वारा उद्धवजीका सम्मान किया। अब वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित मथुरापुरीमें लौट आये ॥ ६८ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णको प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियोंकी प्रेममयी भक्तिका उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया। इसके बाद नन्दबाबाने भेंटकी जो-जो सामग्री दी थी वह उनको, वसुदेवजी, बलरामजी और राजा उग्रसेन को दे दी ॥ ६९ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे उद्धवप्रतियाने सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 




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