॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अड़तालीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान्
का कुब्जा और अक्रूरजी के घर जाना
अक्रूरभवनं
कृष्णः सहरामोद्धवः प्रभुः ।
किञ्चित्
चिकीर्षयन् प्रागाद् अक्रूरप्रीयकाम्यया ॥ १२ ॥
स
तान् नरवरश्रेष्ठान् आरात् वीक्ष्य स्वबान्धवान् ।
प्रत्युत्थाय
प्रमुदितः परिष्वज्याभिनन्द्य च ॥ १३ ॥
ननाम
कृष्णं रामं च स तैरप्यभिवादितः ।
पूजयामास
विधिवत् कृतासनपरिग्रहान् ॥ १४ ॥
पादावनेजनीरापो
धारयन् शिरसा नृप ।
अर्हणेनाम्बरैर्दिव्यैः
गन्धस्रग् भूषणोत्तमैः ॥ १५ ॥
अर्चित्वा
शिरसानम्य पादावङ्कगतौ मृजन् ।
प्रश्रयावनतोऽक्रूरः
कृष्णरामावभाषत ॥ १६ ॥
दिष्ट्या
पापो हतः कंसः सानुगो वामिदं कुलम् ।
भवद्भ्यामुद्धृतं
कृच्छ्राद् दुरन्ताच्च समेधितम् ॥ १७ ॥
युवां
प्रधानपुरुषौ जगद्धेतू जगन्मयौ ।
भवद्भ्यां
न विना किञ्चित् परमस्ति न चापरम् ॥ १८ ॥
आत्मसृष्टमिदं
विश्वं अन्वाविश्य स्वशक्तिभिः ।
ईयते
बहुधा ब्रह्मन् श्रुतप्रत्यक्षगोचरम् ॥ १९ ॥
यथा
हि भूतेषु चराचरेषु
मह्यादयो
योनिषु भान्ति नाना ।
एवं
भवान्केवल आत्मयोनिषु
आत्मात्मतन्त्रो
बहुधा विभाति ॥ २० ॥
सृजस्यथो
लुम्पसि पासि विश्वं
रजस्तमःसत्त्वगुणैः
स्वशक्तिभिः ।
न
बध्यसे तद्गुणकर्मभिर्वा
ज्ञानात्मनस्ते
क्व च बन्धहेतुः ॥ २१ ॥
देहाद्युपाधेरनिरूपितत्वाद्
भवो
न साक्षान्न भिदात्मनः स्यात् ।
अतो
न बन्धस्तव नैव मोक्षः
स्यातां
निकामस्त्वयि नोऽविवेकः ॥ २२ ॥
त्वयोदितोऽयं
जगतो हिताय
यदा
यदा वेदपथः पुराणः ।
बाध्येत
पाषण्डपथैरसद्भिः
तदा
भवान् सन्सत्त्वगुणं बिभर्ति ॥ २३ ॥
स
त्वं प्रभोऽद्य वसुदेवगृहेऽवतीर्णः
स्वांशेन
भारमपनेतुमिहासि भूमेः ।
अक्षौहिणीशतवधेन
सुरेतरांश
राज्ञाममुष्य
च कुलस्य यशो वितन्वन् ॥ २४ ॥
अद्येश
नो वसतयः खलु भूरिभागा
यः
सर्वदेवपितृभूतनृदेवमूर्तिः ।
यत्पादशौचसलिलं
त्रिजगय् पुनाति
स
त्वं जगद्गुरुरधोक्षज याः प्रविष्टः ॥ २५ ॥
कः
पण्डितस्त्वदपरं शरणं समीयाद्
भक्तप्रियादृतगिरः
सुहृदः कृतज्ञात् ।
सर्वान्
ददाति सुहृदो भजतोऽभिकामान्
आत्मानमप्युपचयापचयौ
न यस्य ॥ २६ ॥
दिष्ट्या
जनार्दन भवानिह नः प्रतीतो
योगेश्वरैरपि
दुरापगतिः सुरेशैः ।
छिन्ध्याशु
नः सुतकलत्रधनाप्तगेह
देहादिमोहरशनां
भवदीयमायाम् ॥ २७ ॥
इत्यर्चितः
संस्तुतश्च भक्तेन भगवान्हरिः ।
अक्रूरं
सस्मितं प्राह गीर्भिः सम्मोहयन्निव ॥ २८ ॥
श्रीभगवानुवाच
।
त्वं
नो गुरुः पितृव्यश्च श्लाघ्यो बन्धुश्च नित्यदा ।
वयं
तु रक्ष्याः पोष्याश्च अनुकम्प्याः प्रजा हि वः ॥ २९ ॥
भवद्विधा
महाभागा निषेव्या अर्हसत्तमाः ।
श्रेयस्कामैर्नृभिर्नित्यं
देवाः स्वार्था न साधवः ॥ ३० ॥
न
ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते
पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ३१ ॥
स
भवान्सुहृदां वै नः श्रेयान् श्रेयश्चिकीर्षया ।
जिज्ञासार्थं
पाण्डवानां गच्छस्व त्वं गजाह्वयम् ॥ ३२ ॥
पितर्युपरते
बालाः सह मात्रा सुदुःखिताः ।
आनीताः
स्वपुरं राज्ञा वसन्त इति शुश्रुम ॥ ३३ ॥
तेषु
राजाम्बिकापुत्रो भ्रातृपुत्रेषु दीनधीः ।
समो
न वर्तते नूनं दुष्पुत्रवशगोऽन्धदृक् ॥ ३४ ॥
गच्छ
जानीहि तद्वृत्तं अधुना साध्वसाधु वा ।
विज्ञाय
तद् विधास्यामो यथा शं सुहृदां भवेत् ॥ ३५ ॥
इत्यक्रूरं
समादिश्य भगवान् हरिरीश्वरः ।
सङ्कर्षणोद्धवाभ्यां
वै ततः स्वभवनं ययौ ॥ ३६ ॥
तदनन्तर
एक दिन सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी और उद्धवजीके साथ अक्रूरजी की
अभिलाषा पूर्ण करने और उनसे कुछ काम लेनेके लिये उनके घर गये ।। १२ ।। अक्रूरजीने
दूरसे ही देख लिया कि हमारे परम बन्धु मनुष्यलोकशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण और
बलरामजी आदि पधार रहे हैं। वे तुरंत उठकर आगे गये तथा आनन्दसे भरकर उनका अभिनन्दन
और आलिङ्गन किया ।। १३ ।। अक्रूरजीने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको नमस्कार किया
तथा उद्धवजीके साथ उन दोनों भाइयोंने भी उन्हें नमस्कार किया। जब सब लोग आरामसे
आसनोंपर बैठ गये,
तब अक्रूरजी उन लोगोंकी विधिवत् पूजा करने लगे ।। १४ ।। परीक्षित्
! उन्होंने पहले भगवान्के चरण धोकर चरणोदक सिरपर धारण किया और फिर अनेकों
प्रकारकी पूजा-सामग्री, दिव्य वस्त्र, गन्ध
माला और श्रेष्ठ आभूषणोंसे उनका पूजन किया, सिर झुकाकर उन्हें
प्रणाम किया और उनके चरणों- को अपनी गोदमें लेकर दबाने लगे। उसी समय उन्होंने
विनयावनत होकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीसे कहा—।। १५-१६
।। ‘भगवन् ! यह बड़े ही आनन्द और सौभाग्यकी बात है कि पापी
कंस अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। उसे मारकर आप दोनोंने युदवंशको बहुत बड़े
संकटसे बचा लिया है तथा उन्नत और समृद्ध किया है ।। १७ ।। आप दोनों जगत्के कारण और
जगत्रूप, आदिपुरुष हैं। आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है,
न कारण और न तो कार्य ।। १८ ।। परमात्मन् ! आपने ही अपनी शक्तिसे
इसकी रचना की है और आप ही अपनी काल, माया आदि शक्तियोंसे
इसमें प्रविष्ट होकर जितनी भी वस्तुएँ देखी और सुनी जाती हैं, उनके रूपमें प्रतीत हो रहे हैं ।। १९ ।। जैसे पृथ्वी आदि कारणतत्त्वोंसे
ही उनके कार्य स्थावर-जङ्गम शरीर बनते हैं; वे उनमें
अनुप्रविष्ट-से होकर अनेक रूपोंमें प्रतीत होते हैं, परंतु
वास्तवमें वे कारणरूप ही हैं। इसी प्रकार हैं तो केवल आप ही, परंतु अपने कार्यरूप जगत्में स्वेच्छासे अनेक रूपोंमें प्रतीत होते हैं।
यह भी आपकी एक लीला ही है ।। २० ।। प्रभो ! आप रजोगुण, सत्त्वगुण
और तमोगुणरूप अपनी शक्तियोंसे क्रमश: जगत्की रचना, पालन और
संहार करते हैं; किन्तु आप उन गुणोंसे अथवा उनके द्वारा
होनेवाले कर्मोंसे बन्धनमें नहीं पड़ते, क्योंकि आप शुद्ध
ज्ञानस्वरूप हैं। ऐसी स्थितिमें आपके लिये बन्धनका कारण ही क्या हो सकता है ?
।। २१ ।। प्रभो ! स्वयं आत्मवस्तु में स्थूलदेह, सूक्ष्मदेह आदि उपाधियाँ न होनेके कारण न तो उसमें जन्म-मृत्यु है और न
किसी प्रकारका भेदभाव। यही कारण है कि न आपमें बन्धन है और न मोक्ष ! आपमें
अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार बन्धन या मोक्षकी जो कुछ कल्पना होती है, उसका कारण केवल हमारा अविवेक ही है।। २२ ।। आपने जगत्के कल्याणके लिये यह
सनातन वेदमार्ग प्रकट किया है। जब-जब इसे पाखण्ड-पथसे चलने- वाले दुष्टोंके द्वारा
क्षति पहुँचती है, तब-तब आप शुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण करते
हैं ।। २३ ।। प्रभो ! वही आप इस समय अपने अंश श्रीबलरामजीके साथ पृथ्वीका भार दूर
करनेके लिये यहाँ वसुदेवजीके घर अवतीर्ण हुए हैं। आप असुरोंके अंशसे उत्पन्न
नाममात्रके शासकोंकी सौ-सौ अक्षौहिणी सेनाका संहार करेंगे और यदुवंशके यशका
विस्तार करेंगे ।। २४ ।। इन्द्रियातीत परमात्मन् ! सारे देवता, पितर, भूतगण और राजा आपकी मूर्ति हैं। आपके चरणोंकी
धोवन गङ्गाजी तीनों लोकोंको पवित्र करती हैं। आप सारे जगत्के एकमात्र पिता और
शिक्षक हैं। वही आज आप हमारे घर पधारे। इसमें सन्देह नहीं कि आज हमारे घर
धन्य-धन्य हो गये। उनके सौभाग्यकी सीमा न रही ।। २५ ।। प्रभो ! आप प्रेमी भक्तोंके
परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हतिू और
कृतज्ञ हैं— जरा-सी सेवाको भी मान लेते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष है जो आपको छोडक़र किसी दूसरेकी शरणमें जायगा ?
आप अपना भजन करनेवाले प्रेमी भक्तकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते
हैं। यहाँतक कि जिसकी कभी क्षति और वृद्धि नहीं होती—जो एकरस
है, अपने उस आत्माका भी आप दान कर देते हैं ।। २६ ।। भक्तोंके
कष्ट मिटानेवाले और जन्म-मृत्युके बन्धनसे छुड़ानेवाले प्रभो ! बड़े-बड़े योगिराज
और देवराज भी आपके स्वरूपको नहीं जान सकते। परंतु हमें आपका साक्षात् दर्शन हो गया,
यह कितने सौभाग्यकी बात है। प्रभो ! हम स्त्री, पुत्र, धन, स्वजन, गेह और देह आदिके मोहकी रस्सीसे बँधे हुए हैं। अवश्य ही यह आपकी मायाका
खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े बन्धनको शीघ्र काट दीजिये’ ।।
२७ ।।
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इस प्रकार भक्त अक्रूरजीने भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा और
स्तुति की। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने मुसकराकर अपनी मधुर वाणीसे उन्हें मानो
मोहित करते हुए कहा ।। २८ ।।
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—‘तात ! आप हमारे गुरु—हितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे
वंशमें अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदाके हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा
ही आपकी रक्षा, पालन और कृपाके पात्र हैं ।। २९ ।। अपना परम
कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंको आप-जैसे परम पूजनीय और महाभाग्यवान् संतोंकी सर्वदा
सेवा करनी चाहिये। आप-जैसे संत देवताओंसे भी बढ़- कर हैं; क्योंकि
देवताओंमें तो स्वार्थ रहता है, परंतु संतोंमें नहीं ।। ३०
।। केवल जलके तीर्थ (नदी, सरोवर आदि) ही तीर्थ नहीं हैं,
केवल मृत्तिका और शिला आदिकी बनी हुई मूॢतयाँ ही देवता नहीं हैं।
चाचाजी ! उनकी तो बहुत दिनोंतक श्रद्धासे सेवा की जाय, तब वे
पवित्र करते हैं। परंतु संतपुरुष तो अपने दर्शनमात्रसे पवित्र कर देते हैं ।। ३१
।। चाचाजी ! आप हमारे हितैषी सुहृदोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये आप पाण्डवोंका
हित करनेके लिये तथा उनका कुशल-मङ्गल जाननेके लिये हस्तिनापुर जाइये ।। ३२ ।। हमने
ऐसा सुना है कि राजा पाण्डुके मर जानेपर अपनी माता कुन्तीके साथ युधिष्ठिर आदि
पाण्डव बड़े दु:खमें पड़ गये थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुरमें
ले आये हैं और वे वहीं रहते हैं ।। ३३ ।। आप जानते ही हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक
तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबलकी भी कमी है। उनका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है
और उसके अधीन होनेके कारण वे पाण्डवों- के साथ अपने पुत्रों-जैसा—समान व्यवहार नहीं कर पाते ।। ३४ ।। इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये
कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उनका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय
करूँगा, जिससे उन सुहृदोंको सुख मिले’ ।।
३५ ।। सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण अक्रूरजी- को इस प्रकार आदेश देकर बलरामजी
और उद्धवजीके साथ वहाँसे अपने घर लौट आये ।। ३६ ।।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४८ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से