शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

जग्राह विरथं रामो जरासन्धं महाबलम्

हतानीकावशिष्टासुं सिंहः सिंहमिवौजसा ३१

बध्यमानं हतारातिं पाशैर्वारुणमानुषैः

वारयामास गोविन्दस्तेन कार्यचिकीर्षया ३२

सा मुक्तो लोकनाथाभ्यां व्रीडितो वीरसम्मतः

तपसे कृतसङ्कल्पो वारितः पथि राजभिः ३३

वाक्यैः पवित्रार्थपदैर्नयनैः प्राकृतैरपि

स्वकर्मबन्धप्राप्तोऽयं यदुभिस्ते पराभवः ३४

हतेषु सर्वानीकेषु नृपो बार्हद्रथस्तदा

उपेक्षितो भगवता मगधान्दुर्मना ययौ ३५

मुकुन्दोऽप्यक्षतबलो निस्तीर्णारिबलार्णवः

विकीर्यमाणः कुसुमैस्त्रीदशैरनुमोदितः ३६

माथुरैरुपसङ्गम्य विज्वरैर्मुदितात्मभिः

उपगीयमानविजयः सूतमागधबन्दिभिः ३७

शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्भेरीतूर्याण्यनेकशः

वीणावेणुमृदङ्गानि पुरं प्रविशति प्रभौ ३८

सिक्तमार्गां हृष्टजनां पताकाभिरभ्यलङ्कृताम्

निर्घुष्टां ब्रह्मघोषेण कौतुकाबद्धतोरणाम् ३९

निचीयमानो नारीभिर्माल्यदध्यक्षताङ्कुरैः

निरीक्ष्यमाणः सस्नेहं प्रीत्युत्कलितलोचनैः ४०

आयोधनगतं वित्तमनन्तं वीरभूषणम्

यदुराजाय तत्सर्वमाहृतं प्रादिशत्प्रभुः ४१

 

इस प्रकार जरासन्धकी सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीरमें केवल प्राण बाकी रहे। तब भगवान्‌ श्रीबलरामजीने जैसे एक ङ्क्षसह दूसरे सिंह को पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्धको पकड़ लिया ।। ३१ ।। जरासन्धने पहले बहुत-से विपक्षी नरपतियोंका वध किया था, परंतु आज उसे बलरामजी वरुणकी फाँसी और मनुष्योंके फंदेसे बाँध रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वीका भार उतार सकेंगे, बलरामजीको रोक दिया ।। ३२ ।। बड़े-बड़े शूरवीर जरासन्धका सम्मान करते थे। इसलिये उसे इस बातपर बड़ी लज्जा मालूम हुई कि मुझे श्रीकृष्ण और बलरामने दया करके दीनकी भाँति छोड़ दिया है। अब उसने तपस्या करनेका निश्चय किया। परंतु रास्तेमें उसके साथी नरपतियोंने बहुत समझाया कि राजन् ! यदुवंशियोंमें क्या रखा है ? वे आपको बिलकुल ही पराजित नहीं कर सकते थे। आपको प्रारब्धवश ही नीचा देखना पड़ा है।उन लोगोंने भगवान्‌की इच्छा, फिर विजय प्राप्त करनेकी आशा आदि बतलाकर तथा लौकिक दृष्टान्त एवं युक्तियाँ दे-देकर यह बात समझा दी कि आपको तपस्या नहीं करनी चाहिये।। ३३-३४ ।। परीक्षित्‌ ! उस समय मगधराज जरासन्धकी सारी सेना मर चुकी थी। भगवान्‌ बलरामजीने उपेक्षापूर्वक उसे छोड़ दिया था, इससे वह बहुत उदास होकर अपने देश मगधको चला गया ।। ३५ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सेनामें किसीका बाल भी बाँका न हुआ और उन्होंने जरासन्धकी तेईस अक्षौहिणी सेनापर, जो समुद्रके समान थी, सहज ही विजय प्राप्त कर ली। उस समय बड़े-बड़े देवता उनपर नन्दनवनके पुष्पोंकी वर्षा और उनके इस महान् कार्यका अनुमोदनप्रशंसा कर रहे थे ।। ३६ ।। जरासन्धकी सेनाके पराजयसे मथुरावासी भयरहित हो गये थे और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी विजयसे उनका हृदय आनन्दसे भर रहा था। भगवान्‌ श्रीकृष्ण आकर उनमें मिल गये। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी विजयके गीत गा रहे थे ।। ३७ ।। जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया, उस समय वहाँ शङ्ख, नगारे, भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदङ्ग आदि बाजे बजने लगे थे ।। ३८ ।। मथुराकी एक-एक सडक़ और गलीमें छिडक़ाव कर दिया गया था। चारों ओर हँसते-खेलते नागरिकोंकी चहल-पहल थी। सारा नगर छोटी-छोटी झंडियों और बड़ी-बड़ी विजय-पताकाओंसे सजा दिया गया था। ब्राह्मणोंकी वेदध्वनि गूँज रही थी और सब ओर आनन्दोत्सवके सूचक बंदनवार बाँध दिये गये थे ।। ३९ ।। जिस समय श्रीकृष्ण नगरमें प्रवेश कर रहे थे, उस समय नगरकी नारियाँ प्रेम और उत्कण्ठासे भरे हुए नेत्रोंसे उन्हें स्नेहपूर्वक निहार रही थीं और फूलोंके हार, दही, अक्षत और जौ आदिके अङ्कुरोंकी उनके ऊपर वर्षा कर रही थीं ।। ४० ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण रणभूमिसे अपार धन और वीरोंके आभूषण ले आये थे। वह सब उन्होंने यदुवंशियोंके राजा उग्रसेनके पास भेज दिया ।। ४१ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




गुरुवार, 27 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

श्रीशुक उवाच

जरासुतस्तावभिसृत्य माधवौ

महाबलौघेन बलीयसाऽऽवृणोत्

ससैन्ययानध्वजवाजिसारथी

सूर्यानलौ वायुरिवाभ्ररेणुभिः २१

सुपर्णतालध्वजचिह्नितौ रथाव्

अलक्षयन्त्यो हरिरामयोर्मृधे

स्त्रियः पुराट्टालकहर्म्यगोपुरं

समाश्रिताः सम्मुमुहुः शुचार्दितः २२

हरिः परानीकपयोमुचां मुहुः

शिलीमुखात्युल्बणवर्षपीडितम्

स्वसैन्यमालोक्य सुरासुरार्चितं

व्यस्फूर्जयच्छार्ङ्गशरासनोत्तमम् २३

गृह्णन्निशङ्गादथ सन्दधच्छरान्

विकृष्य मुञ्चन्शितबाणपूगान्

निघ्नन्रथान्कुञ्जरवाजिपत्तीन्

निरन्तरं यद्वदलातचक्रम् २४

निर्भिन्नकुम्भाः करिणो निपेतु-

रनेकशोऽश्वाः शरवृक्णकन्धराः

रथा हताश्वध्वजसूतनायकाः

पदायतश्छिन्नभुजोरुकन्धराः २५

सञ्छिद्यमानद्विपदेभवाजिना-

मङ्गप्रसूताः शतशोऽसृगापगाः

भुजाहयः पूरुषशीर्षकच्छपा

हतद्विपद्वीपहय ग्रहाकुलाः २६

करोरुमीना नरकेशशैवला

धनुस्तरङ्गायुधगुल्मसङ्कुलाः

अच्छूरिकावर्तभयानका महा-

मणिप्रवेकाभरणाश्मशर्कराः २७

प्रवर्तिता भीरुभयावहा मृधे

मनस्विनां हर्षकरीः परस्परम्

विनिघ्नतारीन्मुषलेन दुर्मदान्-

सङ्कर्षणेनापरीमेयतेजसा २८

बलं तदङ्गार्णवदुर्गभैरवं

दुरन्तपारं मगधेन्द्र पालितम्

क्षणं प्रणीतं वसुदेवपुत्रयो-

र्विक्रीडितं तज्जगदीशयो:परम् २९

स्थित्युद्भवान्तं भुवनत्रयस्य यः

समीहितेऽनन्तगुणः स्वलीलया

न तस्य चित्रं परपक्षनिग्रहस्

तथापि मर्त्यानुविधस्य वर्ण्यते ३०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जैसे वायु बादलोंसे सूर्यको और धूएँसे आगको ढक लेती है, किन्तु वास्तवमें वे ढकते नहीं, उनका प्रकाश फिर फैलता ही है; वैसे ही मगधराज जरासन्धने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामके सामने आकर अपनी बहुत बड़ी बलवान् और अपार सेनाके द्वारा उन्हें चारों ओरसे घेर लियायहाँतक कि उनकी सेना, रथ, ध्वजा, घोड़ों और सारथियोंका दीखना भी बंद हो गया ।। २१ ।। मथुरापुरीकी स्त्रियाँ अपने महलोंकी अटारियों, छज्जों और फाटकोंपर चढक़र युद्धका कौतुक देख रही थीं। जब उन्होंने देखा कि युद्ध भूमिमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी गरुड़चिह्नसे चिह्नित और बलरामजीकी तालचिह्नसे चिह्नित ध्वजावाले रथ नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोकके आवेगसे मूर्च्छित हो गयीं ।। २२ ।। जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि शत्रु-सेनाके वीर हमारी सेनापर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानीकी अनगिनत बूँदें बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीडि़त, व्यथित हो रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर-दोनोंसे सम्मानित शार्ङ्गधनुष का टङ्कार किया ।। २३ ।। इसके बाद वे तरकस में से बाण निकालने, उन्हें धनुषपर चढ़ाने और धनुषकी डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोडऩे लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्तीसे घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेगसे अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो। इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण जरासन्ध की चतुरङ्गिणीहाथी, घोड़े, रथ और पैदलसेनाका संहार करने लगे ।। २४ ।। इससे बहुत-से हाथियोंके सिर फट गये और वे मर-मरकर गिरने लगे। बाणोंकी बौछारसे अनेकों घोड़ोंके सिर धड़से अलग हो गये। घोड़े, ध्वजा, सारथि और रथियोंके नष्ट हो जानेसे बहुत-से रथ बेकाम हो गये। पैदल सेनाकी बाँहें, जाँघ और सिर आदि अंग-प्रत्यङ्ग कट-कटकर गिर पड़े ।। २५ ।। उस युद्धमें अपार तेजस्वी भगवान्‌ बलरामजीने अपने मूसलकी चोटसे बहुत-से मतवाले शत्रुओंको मार-मारकर उनके अङ्ग-प्रत्यङ्गसे निकले हुए खूनकी सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। कहीं मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं। उन नदियोंमें मनुष्योंकी भुजाएँ साँपके समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओंकी भीड़ लग गयी हो। मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहों के समान जान पड़ते। हाथ और जाँघें मछलियोंकी तरह, मनुष्योंके केश सेवारके समान, धनुष तरङ्गोंकी भाँति और अस्त्र-शस्त्र लता एवं तिनकोंके समान जान पड़ते। ढालें ऐसी मालूम पड़तीं, मानो भयानक भँवर हों। बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थरके रोड़ों तथा कंकड़ोंके समान बहे जा रहे थे। उन नदियोंको देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरोंका आपसमें खूब उत्साह बढ़ रहा था ।। २६२८ ।। परीक्षित्‌ ! जरासन्धकी वह सेना समुद्रके समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाईसे जीतनेयोग्य थी। परंतु भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने थोड़े ही समयमें उसे नष्ट कर डाला। वे सारे जगत्के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेनाका नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है ।। २९ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेलमें ही तीनों लोकोंकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओंकी सेनाका इस प्रकार बात-की-बातमें सत्यानाश कर दें। तथापि जब वे मनुष्यका-सा वेष धारण करके मनुष्यकी-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है ।। ३० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

श्रीशुक उवाच

अस्तिः प्राप्तिश्च कंसस्य महिष्यौ भरतर्षभ

मृते भर्तरि दुःखार्ते ईयतुः स्म पितुर्गृहान् १

पित्रे मगधराजाय जरासन्धाय दुःखिते

वेदयां चक्रतुः सर्वमात्मवैधव्यकारणम् २

स तदप्रियमाकर्ण्य शोकामर्षयुतो नृप

अयादवीं महीं कर्तुं चक्रे परममुद्यमम् ३

अक्षौहिणीभिर्विंशत्या तिसृभिश्चापि संवृतः

यदुराजधानीं मथुरां न्यरुधत्सर्वतो दिशम् ४

निरीक्ष्य तद्बलं कृष्ण उद्वेलमिव सागरम्

स्वपुरं तेन संरुद्धं स्वजनं च भयाकुलम् ५

चिन्तयामास भगवान्हरिः कारणमानुषः

तद्देशकालानुगुणं स्वावतारप्रयोजनम् ६

हनिष्यामि बलं ह्येतद्भुवि भारं समाहितम्

मागधेन समानीतं वश्यानां सर्वभूभुजाम् ७

अक्षौहिणीभिः सङ्ख्यातं भटाश्वरथकुञ्जरैः

मागधस्तु न हन्तव्यो भूयः कर्ता बलोद्यमम् ८

एतदर्थोऽवतारोऽयं भूभारहरणाय मे

संरक्षणाय साधूनां कृतोऽन्येषां वधाय च ९

अन्योऽपि धर्मरक्षायै देहः संभ्रियते मया

विरामायाप्यधर्मस्य काले प्रभवतः क्वचित् १०

एवं ध्यायति गोविन्द आकाशात्सूर्यवर्चसौ

रथावुपस्थितौ सद्यः ससूतौ सपरिच्छदौ ११

आयुधानि च दिव्यानि पुराणानि यदृच्छया

दृष्ट्वा तानि हृषीकेशः सङ्कर्षणमथाब्रवीत् १२

पश्यार्य व्यसनं प्राप्तं यदूनां त्वावतां प्रभो

एष ते रथ आयातो दयितान्यायुधानि च १३

यानमास्थाय जह्येतद् व्यसनात् स्वान् समुद्धर

एतदर्थं हि नौ जन्म साधूनामीश शर्मकृत् १४

त्रयोविंशत्यनीकाख्यं भूमेर्भारमपाकुरु

एवं सम्मन्त्र्य दाशार्हौ दंशितौ रथिनौ पुरात् १५

निर्जग्मतुः स्वायुधाढ्य बलेनाल्पीयसाssवृतौ

शङ्खं दध्मौ विनिर्गत्य हरिर्दारुकसारथिः१६

ततोऽभूत्परसैन्यानां हृदि वित्रासवेपथुः

तावाह मागधो वीक्ष्य हे कृष्ण पुरुषाधम १७

न त्वया योद्धुमिच्छामि बालेनैकेन लज्जया

गुप्तेन हि त्वया मन्द न योत्स्ये याहि बन्धुहन् १८

तव राम यदि श्रद्धा युध्यस्व धैर्यमुद्वह्

हित्वा वा मच्छरैश्छिन्नं देहं स्वर्याहि मां जहि १९

 

श्रीभगवानुवाच

न वै शूरा विकत्थन्ते दर्शयन्त्येव पौरुषम्

न गृह्णीमो वचो राजन्नातुरस्य मुमूर्षतः २०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभरतवंशशिरोमणि परीक्षित्‌ ! कंसकी दो रानियाँ थींअस्ति और प्राप्ति। पतिकी मृत्युसे उन्हें बड़ा दु:ख हुआ और वे अपने पिताकी राजधानीमें चली गयीं ।। १ ।। उन दोनोंका पिता था मगधराज जरासन्ध। उससे उन्होंने बड़े दु:खके साथ अपने विधवा होनेके कारणोंका वर्णन किया ।। २ ।। परीक्षित्‌ ! यह अप्रिय समाचार सुनकर पहले तो जरासन्धको बड़ा शोक हुआ, परंतु पीछे वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वीपर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूँगा, युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की ।। ३ ।। और तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया ।। ४ ।।

 भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखाजरासन्धकी सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओरसे हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं ।। ५ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही मनुष्यका-सा वेष धारण किये हुए हैं। अब उन्होंने विचार किया कि मेरे अवतारका क्या प्रयोजन है और इस समय इस स्थानपर मुझे क्या करना चाहिये ।। ६ ।। उन्होंने सोचा यह बड़ा अच्छा हुआ कि मगधराज जरासन्धने अपने अधीनस्थ नरपतियोंकी पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियोंसे युक्त कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी कर ली है। यह सब तो पृथ्वीका भार ही जुटकर मेरे पास आ पहुँचा है। मैं इसका नाश करूँगा। परंतु अभी मगधराज जरासन्धको नहीं मारना चाहिये। क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिरसे असुरोंकी बहुत-सी सेना इकट्ठी कर लायेगा ।। ७-८ ।। मेरे अवतारका यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वीका बोझ हलका कर दूँ, साधु-सज्जनोंकी रक्षा करूँ और दुष्ट-दुर्जनोंका संहार ।। ९ ।। समयसमयपर धर्म-रक्षाके लिये और बढ़ते हुए अधर्मको रोकनेके लिये मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूँ ।। १० ।।

 परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि आकाशसे सूर्यके समान चमकते हुए दो रथ आ पहुँचे। उनमें युद्धकी सारी सामग्रियाँ सुसज्जित थीं और दो सारथि उन्हें हाँक रहे थे ।। ११ ।। इसी समय भगवान्‌के दिव्य और सनातन आयुध भी अपने आप वहाँ आकर उपस्थित हो गये। उन्हें देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने बड़े भाई बलरामजीसे कहा।। १२ ।। भाईजी ! आप बड़े शक्तिशाली हैं। इस समय जो यदुवंशी आपको ही अपना स्वामी और रक्षक मानते हैं, जो आपसे ही सनाथ हैं, उनपर बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। देखिये, यह आपका रथ है और आपके प्यारे आयुध हल-मूसल भी आ पहुँचे हैं ।। १३ ।। अब आप इस रथपर सवार होकर शत्रु-सेनाका संहार कीजिये और अपने स्वजनोंको इस विपत्तिसे बचाइये। भगवन् ! साधुओंका कल्याण करनेके लिये ही हम दोनोंने अवतार ग्रहण किया है ।। १४ ।। अत: अब आप यह तेईस अक्षौहिणी सेना, पृथ्वीका यह विपुल भार नष्ट कीजिये।भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने यह सलाह करके कवच धारण किये और रथपर सवार होकर वे मथुरासे निकले। उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिये हुए थे और छोटी-सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्णका रथ हाँक रहा था दारुक। पुरीसे बाहर निकलकर उन्होंने अपना पाञ्चजन्य शङ्ख बजाया ।। १५-१६ ।। उनके शङ्ख की भयङ्कर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्षकी सेनाके वीरोंका हृदय डरके मारे थर्रा उठा। उन्हें देखकर मगधराज जरासन्धने कहा—‘पुरुषाधम कृष्ण ! तू तो अभी निरा बच्चा है। अकेले तेरे साथ लडऩेमें मुझे लाज लग रही है। इतने दिनोंतक तू न जाने कहाँ-कहाँ छिपा फिरता था। मन्द ! तू तो अपने मामाका हत्यारा है। इसलिये मैं तेरे साथ नहीं लड़ सकता। जा, मेरे सामनेसे भाग जा ।। १७-१८ ।। बलराम यदि तेरे चित्तमें यह श्रद्धा हो कि युद्धमें मरनेपर स्वर्ग मिलता है तो तू आ हिम्मत बाँधकर मुझसे लड़। मेरे बाणोंसे छिन्न-भिन्न हुए शरीरको यहाँ छोडक़र स्वर्गमें जा, अथवा यदि तुझमें शक्ति हो तो मुझे ही मार डाल।। १९ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहामगधराज ! जो शूरवीर होते हैं, वे तुम्हारी तरह डींग नहीं हाँकते, वे तो अपना बल-पौरुष ही दिखलाते हैं। देखो, अब तुम्हारी मृत्यु तुम्हारे सिरपर नाच रही है। तुम वैसे ही अकबक कर रहे हो, जैसे मरनेके समय कोई सन्निपातका रोगी करे। बक लो, मैं तुम्हारी बातपर ध्यान नहीं देता ।। २० ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




बुधवार, 26 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

अक्रूरजीका हस्तिनापुर जाना

 

श्रीशुक उवाच -

इत्यनुस्मृत्य स्वजनं कृष्णं च जगदीश्वरम् ।

प्रारुदद् दुखिता राजन् भवतां प्रपितामही ॥ १४ ॥

समदुःखसुखोऽक्रूरो विदुरश्च महायशाः ।

सान्त्वयामासतुः कुन्तीं तत्पुत्रोत्पत्तिहेतुभिः ॥ १५ ॥

यास्यन् राजानमभ्येत्य विषमं पुत्रलालसम् ।

अवदत्सुहृदां मध्ये बन्धुभिः सौहृदोदितम् ॥ १६ ॥

 

अक्रूर उवाच -

भो भो वैचित्रवीर्य त्वं कुरूणां कीर्तिवर्धन ।

भ्रातर्युपरते पाण्डौ अधुनाऽऽसनमास्थितः ॥ १७ ॥

धर्मेण पालयन् उर्वीं प्रजाः शीलेन रञ्जयन् ।

वर्तमानः समः स्वेषु श्रेयः कीर्तिमवाप्स्यसि ॥ १८ ॥

अन्यथा त्वाचरँल्लोके गर्हितो यास्यसे तमः ।

तस्मात्समत्वे वर्तस्व पाण्डवेष्वात्मजेषु च ॥ १९ ॥

नेह चात्यन्तसंवासः कस्यचित् केनचित् सह ।

राजन् स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभिः ॥ २० ॥

एकः प्रसूयते जन्तुः एक एव प्रलीयते ।

एकोऽनुभुङ्‌क्ते सुकृतं एक एव च दुष्कृतम् ॥ २१ ॥

अधर्मोपचितं वित्तं हरन्त्यन्येऽल्पमेधसः ।

सम्भोजनीयापदेशैः जलानीव जलौकसः ॥ २२ ॥

पुष्णाति यानधर्मेण स्वबुद्ध्या तमपण्डितम् ।

तेऽकृतार्थं प्रहिण्वन्ति प्राणा रायः सुतादयः ॥ २३ ॥

स्वयं किल्बिषमादाय तैस्त्यक्तो नार्थकोविदः ।

असिद्धार्थो विशत्यन्धं स्वधर्मविमुखस्तमः ॥ २४ ॥

तस्माल्लोकमिमं राजन् स्वप्नमायामनोरथम् ।

वीक्ष्यायम्यात्मनात्मानं समः शान्तो भव प्रभो ॥ २५ ॥

 

धृतराष्ट्र उवाच -

यथा वदति कल्याणीं वाचं दानपते भवान् ।

तथानया न तृप्यामि मर्त्यः प्राप्य यथामृतम् ॥ २६ ॥

तथापि सूनृता सौम्य हृदि न स्थीयते चले ।

पुत्रानुरागविषमे विद्युत् सौदामनी यथा ॥ २७ ॥

ईश्वरस्य विधिं को नु विधुनोत्यन्यथा पुमान् ।

भूमेर्भारावताराय योऽवतीर्णो यदोः कुले ॥ २८ ॥

यो दुर्विमर्शपथया निजमाययेदं

सृष्ट्वा गुणान् विभजते तदनुप्रविष्टः ।

तस्मै नमो दुरवबोधविहारतन्त्र

संसारचक्रगतये परमेश्वराय ॥ २९ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इत्यभिप्रेत्य नृपतेः अभिप्रायं स यादवः ।

सुहृद्‌भिः समनुज्ञातः पुनर्यदुपुरीमगात् ॥ ३० ॥

शशंस रामकृष्णाभ्यां धृतराष्ट्रविचेष्टितम् ।

पाण्डवान् प्रति कौरव्य यदर्थं प्रेषितः स्वयम् ॥ ३१ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! तुम्हारी परदादी कुन्ती इस प्रकार अपने सगे-सम्बन्धियों और अन्तमें जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णको स्मरण करके अत्यन्त दु:खित हो गयीं और फफक-फफककर रोने लगीं ।। १४ ।। अक्रूरजी और विदुरजी दोनों ही सुख और दु:खको समान दृष्टिसे देखते थे। दोनों यशस्वी महात्माओंने कुन्तीको उसके पुत्रोंके जन्मदाता धर्म, वायु आदि देवताओंकी याद दिलायी और यह कहकर कि, तुम्हारे पुत्र अधर्मका नाश करनेके लिये ही पैदा हुए हैं, बहुत कुछ समझाया-बुझाया और सान्त्वना दी ।। १५ ।। अक्रूरजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्रके पास आये। अबतक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रोंका पक्षपात करते हैं और भतीजोंके साथ अपने पुत्रोंका-सा बर्ताव नहीं करते। अब अक्रूरजीने कौरवोंकी भरी सभामें श्रीकृष्ण और बलरामजी आदिका हितैषितासे भरा सन्देश कह सुनाया ।। १६ ।।

 

अक्रूरजीने कहामहाराज धृतराष्ट्रजी ! आप कुरुवंशियोंकी उज्ज्वल कीर्ति को और भी बढ़ाइये। आपको यह काम विशेषरूपसे इसलिये भी करना चाहिये कि अपने भाई पाण्डुके परलोक सिधार जानेपर अब आप राज्यङ्क्षसहासनके अधिकारी हुए हैं ।। १७ ।। आप धर्मसे पृथ्वीका पालन कीजिये। अपने सद्व्यवहारसे प्रजाको प्रसन्न रखिये और अपने स्वजनोंके साथ समान बर्ताव कीजिये। ऐसा करनेसे ही आपको लोकमें यश और परलोकमें सद्गति प्राप्त होगी ।। १८ ।। यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोकमें आपकी निन्दा होगी और मरनेके बाद आपको नरकमें जाना पड़ेगा। इसलिये अपने पुत्रों और पाण्डवोंके साथ समानताका बर्ताव कीजिये ।। १९ ।। आप जानते ही हैं कि इस संसारमें कभी कहीं कोई किसीके साथ सदा नहीं रह सकता। जिनसे जुड़े हुए हैं, उनसे एक दिन बिछुडऩा पड़ेगा ही। राजन् ! यह बात अपने शरीरके लिये भी सोलहों आने सत्य है। फिर स्त्री, पुत्र, धन आदिको छोडक़र जाना पड़ेगा, इसके विषयमें तो कहना ही क्या है ।। २० ।। जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरकर जाता है। अपनी करनी-धरनीका, पाप-पुण्यका फल भी अकेला ही भुगतता है ।। २१ ।। जिन स्त्री-पुत्रोंको हम अपना समझते हैं, वे तो हम तुम्हारे अपने हैं, हमारा भरण-पोषण करना तुम्हारा धर्म है’—इस प्रकारकी बातें बनाकर मूर्ख प्राणीके अधर्मसे इक_े किये हुए धनको लूट लेते हैं, जैसे जलमें रहनेवाले जन्तुओंके सर्वस्व जलको उन्हींके सम्बन्धी चाट जाते हैं ।। २२ ।। यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता-पोसता है, वे ही प्राण, धन और पुत्र आदि इस जीवको असन्तुष्ट छोडक़र ही चले जाते हैं ।। २३ ।। जो अपने धर्मसे विमुख हैसच पूछिये, तो वह अपना लौकिक स्वार्थ भी नहीं जानता। जिनके लिये वह अधर्म करता है, वे तो उसे छोड़ ही देंगे; उसे कभी सन्तोषका अनुभव न होगा और वह अपने पापोंकी गठरी सिरपर लादकर स्वयं घोर नरकमें जायगा ।। २४ ।। इसलिये महाराज ! यह बात समझ लीजिये कि यह दुनिया चार दिनकी चाँदनी है, सपनेका खिलवाड़ है, जादूका तमाशा है और है मनोराज्यमात्र ! आप अपने प्रयत्नसे, अपनी शक्तिसे चित्तको रोकिये; ममतावश पक्षपात न कीजिये। आप समर्थ हैं, समत्वमें स्थित हो जाइये और इस संसारकी ओरसे उपरामशान्त हो जाइये ।। २५ ।।

 

राजा धृतराष्ट्रने कहादानपते अक्रूरजी ! आप मेरे कल्याणकी, भलेकी बात कह रहे हैं, जैसे मरनेवालेको अमृत मिल जाय तो वह उससे तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही मैं भी आपकी इन बातोंसे तृप्त नहीं हो रहा हूँ ।। २६ ।। फिर भी हमारे हितैषी अक्रूरजी ! मेरे चञ्चल चित्तमें आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है; क्योंकि मेरा हृदय पुत्रोंकी ममताके कारण अत्यन्त विषम हो गया है। जैसे स्फटिक पर्वतके शिखरपर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्तर्धान हो जाती है, वही दशा आपके उपदेशोंकी है ।। २७ ।। अक्रूरजी ! सुना है कि सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतीर्ण हुए हैं । ऐसा कौन पुरुष है, जो उनके विधानमें उलट-फेर कर सके । उनकी जैसी इच्छा होगी, वही होगा ।। २८ ।। भगवान्‌की मायाका मार्ग अचिन्त्य है । उसी मायाके द्वारा इस संसारकी सृष्टि करके वे इसमें प्रवेश करते हैं और कर्म तथा कर्मफलोंका विभाजन कर देते हैं । इस संसार-चक्रकी बेरोक-टोक चालमें उनकी अचिन्त्य लीलाशक्तिके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है । मैं उन्हीं परमैश्वर्यशक्तिशाली प्रभुको नमस्कार करता हूँ ।। २९ ।।

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंइस प्रकार अक्रूरजी महाराज धृतराष्ट्रका अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन सम्बन्धियोंसे प्रेमपूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आये ।। ३० ।। परीक्षित्‌ ! उन्होंने वहाँ भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके सामने धृतराष्ट्रका वह सारा व्यवहार-बर्ताव, जो वे पाण्डवोंके साथ करते थे, कह सुनाया, क्योंकि उनको हस्तिनापुर भेजनेका वास्तवमें उद्देश्य भी यही था ।। ३१ ।।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोनपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ४९ ॥

इति दशम स्कन्ध पूर्वार्ध समाप्त

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




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