॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
जरासन्ध से
युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण
जग्राह विरथं रामो जरासन्धं महाबलम्
हतानीकावशिष्टासुं सिंहः सिंहमिवौजसा ३१
बध्यमानं हतारातिं पाशैर्वारुणमानुषैः
वारयामास गोविन्दस्तेन कार्यचिकीर्षया ३२
सा मुक्तो लोकनाथाभ्यां व्रीडितो वीरसम्मतः
तपसे कृतसङ्कल्पो वारितः पथि राजभिः ३३
वाक्यैः पवित्रार्थपदैर्नयनैः प्राकृतैरपि
स्वकर्मबन्धप्राप्तोऽयं यदुभिस्ते पराभवः ३४
हतेषु सर्वानीकेषु नृपो बार्हद्रथस्तदा
उपेक्षितो भगवता मगधान्दुर्मना ययौ ३५
मुकुन्दोऽप्यक्षतबलो निस्तीर्णारिबलार्णवः
विकीर्यमाणः कुसुमैस्त्रीदशैरनुमोदितः ३६
माथुरैरुपसङ्गम्य विज्वरैर्मुदितात्मभिः
उपगीयमानविजयः सूतमागधबन्दिभिः ३७
शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्भेरीतूर्याण्यनेकशः
वीणावेणुमृदङ्गानि पुरं प्रविशति प्रभौ ३८
सिक्तमार्गां हृष्टजनां पताकाभिरभ्यलङ्कृताम्
निर्घुष्टां ब्रह्मघोषेण कौतुकाबद्धतोरणाम् ३९
निचीयमानो नारीभिर्माल्यदध्यक्षताङ्कुरैः
निरीक्ष्यमाणः सस्नेहं प्रीत्युत्कलितलोचनैः ४०
आयोधनगतं वित्तमनन्तं वीरभूषणम्
यदुराजाय तत्सर्वमाहृतं प्रादिशत्प्रभुः ४१
इस प्रकार
जरासन्धकी सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीरमें केवल प्राण बाकी रहे। तब
भगवान् श्रीबलरामजीने जैसे एक ङ्क्षसह दूसरे सिंह को पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्धको पकड़
लिया ।। ३१ ।। जरासन्धने पहले बहुत-से विपक्षी नरपतियोंका वध किया था, परंतु आज उसे बलरामजी वरुणकी फाँसी और मनुष्योंके फंदेसे बाँध रहे थे।
भगवान् श्रीकृष्णने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके
लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वीका भार उतार सकेंगे, बलरामजीको
रोक दिया ।। ३२ ।। बड़े-बड़े शूरवीर जरासन्धका सम्मान करते थे। इसलिये उसे इस
बातपर बड़ी लज्जा मालूम हुई कि मुझे श्रीकृष्ण और बलरामने दया करके दीनकी भाँति
छोड़ दिया है। अब उसने तपस्या करनेका निश्चय किया। परंतु रास्तेमें उसके साथी
नरपतियोंने बहुत समझाया कि ‘राजन् ! यदुवंशियोंमें क्या रखा
है ? वे आपको बिलकुल ही पराजित नहीं कर सकते थे। आपको
प्रारब्धवश ही नीचा देखना पड़ा है।’ उन लोगोंने भगवान्की
इच्छा, फिर विजय प्राप्त करनेकी आशा आदि बतलाकर तथा लौकिक
दृष्टान्त एवं युक्तियाँ दे-देकर यह बात समझा दी कि आपको तपस्या नहीं करनी
चाहिये।। ३३-३४ ।। परीक्षित् ! उस समय मगधराज जरासन्धकी सारी सेना मर चुकी थी।
भगवान् बलरामजीने उपेक्षापूर्वक उसे छोड़ दिया था, इससे वह
बहुत उदास होकर अपने देश मगधको चला गया ।। ३५ ।।
परीक्षित्
! भगवान् श्रीकृष्णकी सेनामें किसीका बाल भी बाँका न हुआ और उन्होंने जरासन्धकी
तेईस अक्षौहिणी सेनापर, जो समुद्रके समान थी,
सहज ही विजय प्राप्त कर ली। उस समय बड़े-बड़े देवता उनपर नन्दनवनके
पुष्पोंकी वर्षा और उनके इस महान् कार्यका अनुमोदन— प्रशंसा
कर रहे थे ।। ३६ ।। जरासन्धकी सेनाके पराजयसे मथुरावासी भयरहित हो गये थे और
भगवान् श्रीकृष्णकी विजयसे उनका हृदय आनन्दसे भर रहा था। भगवान् श्रीकृष्ण आकर
उनमें मिल गये। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी विजयके गीत गा रहे
थे ।। ३७ ।। जिस समय भगवान् श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया, उस समय वहाँ शङ्ख, नगारे, भेरी,
तुरही, वीणा, बाँसुरी और
मृदङ्ग आदि बाजे बजने लगे थे ।। ३८ ।। मथुराकी एक-एक सडक़ और गलीमें छिडक़ाव कर दिया
गया था। चारों ओर हँसते-खेलते नागरिकोंकी चहल-पहल थी। सारा नगर छोटी-छोटी झंडियों
और बड़ी-बड़ी विजय-पताकाओंसे सजा दिया गया था। ब्राह्मणोंकी वेदध्वनि गूँज रही थी
और सब ओर आनन्दोत्सवके सूचक बंदनवार बाँध दिये गये थे ।। ३९ ।। जिस समय श्रीकृष्ण
नगरमें प्रवेश कर रहे थे, उस समय नगरकी नारियाँ प्रेम और
उत्कण्ठासे भरे हुए नेत्रोंसे उन्हें स्नेहपूर्वक निहार रही थीं और फूलोंके हार,
दही, अक्षत और जौ आदिके अङ्कुरोंकी उनके ऊपर
वर्षा कर रही थीं ।। ४० ।। भगवान् श्रीकृष्ण रणभूमिसे अपार धन और वीरोंके आभूषण
ले आये थे। वह सब उन्होंने यदुवंशियोंके राजा उग्रसेनके पास भेज दिया ।। ४१ ।।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से