मंगलवार, 8 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा

 

श्रीकालिन्द्युवाच

अहं देवस्य सवितुर्दुहिता पतिमिच्छती

विष्णुं वरेण्यं वरदं तपः परममास्थितः २०

नान्यं पतिं वृणे वीर तमृते श्रीनिकेतनम्

तुष्यतां मे स भगवान्मुकुन्दोऽनाथसंश्रयः २१

कालिन्दीति समाख्याता वसामि यमुनाजले

निर्मिते भवने पित्रा यावदच्युतदर्शनम् २२

तथावदद्गुडाकेशो वासुदेवाय सोऽपि ताम्

रथमारोप्य तद्विद्वान्धर्मराजमुपागमत् २३

यदैव कृष्णः सन्दिष्टः पार्थानां परमाद्भुतम्

कारयामास नगरं विचित्रं विश्वकर्मणा २४

भगवांस्तत्र निवसन्स्वानां प्रियचिकीर्षया

अग्नये खाण्डवं दातुमर्जुनस्याथ सारथिः २५

सोऽग्निस्तुष्टो धनुरदाद्ध्यान्श्वेतान्रथं नृप

अर्जुनायाक्षयौ तूणौ वर्म चाभेद्यमस्त्रिभिः २६

मयश्च मोचितो वह्नेः सभां सख्य उपाहरत्

यस्मिन्दुर्योधनस्यासीज्जलस्थलदृशिभ्रमः २७

स तेन समनुज्ञातः सुहृद्भिश्चानुमोदितः

आययौ द्वारकां भूयः सात्यकिप्रमुखैर्वृतः २८

अथोपयेमे कालिन्दीं सुपुण्यर्त्वृक्ष ऊर्जिते

वितन्वन्परमानन्दं स्वानां परममङ्गलः २९

विन्द्यानुविन्द्यावावन्त्यौ दुर्योधनवशानुगौ

स्वयंवरे स्वभगिनीं कृष्णे सक्तां न्यषेधताम् ३०

राजाधिदेव्यास्तनयां मित्रविन्दां पितृष्वसुः

प्रसह्य हृतवान्कृष्णो राजन्राज्ञां प्रपश्यताम् ३१

नग्नजिन्नाम कौशल्य आसीद्राजातिधार्मिकः

तस्य सत्याभवत्कन्या देवी नाग्नजिती नृप ३२

न तां शेकुर्नृपा वोढुमजित्वा सप्तगोवृषान्

तीक्ष्णशृङ्गान्सुदुर्धर्षान्वीर्यगन्धासहान्खलान् ३३

तां श्रुत्वा वृषजिल्लभ्यां भगवान्सात्वतां पतिः

जगाम कौशल्यपुरं सैन्येन महता वृतः ३४

स कोशलपतिः प्रीतः प्रत्युत्थानासनादिभिः

अर्हणेनापि गुरुणा पूजयन्प्रतिनन्दितः ३५

वरं विलोक्याभिमतं समागतं

नरेन्द्र कन्या चकमे रमापतिम्

भूयादयं मे पतिराशिषोऽमला:

करोतु सत्या यदि मे धृतो व्रतैः ३६

यत्पादपङ्कजरजः शिरसा बिभर्ति

श्रीरब्जजः सगिरिशः सह लोकपालैः

लीलातनुः स्वकृतसेतुपरीप्सयेश:

कालेऽदधत्स भगवान्मम केन तुष्येत् ३७

अर्चितं पुनरित्याह नारायण जगत्पते

आत्मानन्देन पूर्णस्य करवाणि किमल्पकः ३८

 

कालिन्दीने कहा—‘मैं भगवान्‌ सूर्यदेव की पुत्री हूँ। मैं सर्वश्रेष्ठ वरदानी भगवान्‌ विष्णु को पति के रूपमें प्राप्त करना चाहती हूँ और इसीलिये यह कठोर तपस्या कर रही हूँ ।। २० ।। वीर अर्जुन ! मैं लक्ष्मीके परम आश्रय भगवान्‌ को छोडक़र और किसीको अपना पति नहीं बना सकती। अनाथोंके एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों ।। २१ ।। मेरा नाम है कालिन्दी। यमुनाजल में मेरे पिता सूर्यने मेरे लिये एक भवन भी बनवा दिया है। उसीमें मैं रहती हूँ। जबतक भगवान्‌ का दर्शन न होगा, मैं यहीं रहूँगी।। २२ ।। अर्जुनने जाकर भगवान्‌ श्रीकृष्णसे सारी बातें कहीं। वे तो पहलेसे ही यह सब कुछ जानते थे, अब उन्होंने कालिन्दीको अपने रथपर बैठा लिया और धर्मराज युधिष्ठिरके पास ले आये ।। २३ ।।

इसके बाद पाण्डवोंकी प्रार्थनासे भगवान्‌ श्रीकृष्णने पाण्डवोंके रहनेके लिये एक अत्यन्त अद्भुत और विचित्र नगर विश्वकर्माके द्वारा बनवा दिया ।। २४ ।। भगवान्‌ इस बार पाण्डवोंको आनन्द देने और उनका हित करनेके लिये वहाँ बहुत दिनोंतक रहे। इसी बीच अग्रिदेवको खाण्डव- वन दिलानेके लिये वे अर्जुनके सारथि भी बने ।। २५ ।। खाण्डव-वनका भोजन मिल जानेसे अग्रिदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुनको गाण्डीव धनुष, चार श्वेत घोड़े, एक रथ, दो अटूट बाणोंवाले तरकस और एक ऐसा कवच दिया, जिसे कोई अस्त्र-शस्त्रधारी भेद न सके ।। २६ ।। खाण्डव-दाहके समय अर्जुनने मय दानवको जलनेसे बचा लिया था। इसलिये उसने अर्जुनसे मित्रता करके उनके लिये एक परम अद्भुत सभा बना दी। उसी सभामें दुर्योधनको जलमें स्थल और स्थलमें जलका भ्रम हो गया था ।। २७ ।।

कुछ दिनोंके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण अर्जुनकी अनुमति एवं अन्य सम्बन्धियोंका अनुमोदन प्राप्त करके सात्यकि आदिके साथ द्वारका लौट आये ।। २८ ।। वहाँ आकर उन्होंने विवाहके योग्य ऋतु और ज्यौतिषशास्त्र के अनुसार प्रशंसित पवित्र लग्रमें कालिन्दीजीका पाणिग्रहण किया। इससे उनके स्वजन-सम्बन्धियोंको परम मङ्गल और परमानन्दकी प्राप्ति हुई ।। २९ ।।

अवन्ती (उज्जैन) देशके राजा थे विन्द और अनुविन्द। वे दुर्योधनके वशवर्ती तथा अनुयायी थे। उनकी बहिन मित्रविन्दाने स्वयंवरमें भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही अपना पति बनाना चाहा। परंतु विन्द और अनुविन्द ने अपनी बहिनको रोक दिया ।। ३० ।। परीक्षित्‌ ! मित्रविन्दा श्रीकृष्णकी फूआ राजाधिदेवीकी कन्या थी। भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजाओंकी भरी सभामें उसे बलपूर्वक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये ।। ३१ ।।

परीक्षित्‌ ! कोसलदेशके राजा थे नग्नजित्। वे अत्यन्त धार्मिक थे। उनकी परमसुन्दरी कन्याका नाम था सत्या; नग्नजित्  पुत्री होनेसे वह नाग्नजिती भी कहलाती थी। परीक्षित्‌ ! राजाकी प्रतिज्ञाके अनुसार सात दुर्दान्त बैलोंपर विजय प्राप्त न कर सकनेके कारण कोई राजा उस कन्यासे विवाह न कर सके। क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे और वे बैल किसी वीर पुरुषकी गन्ध भी नहीं सह सकते थे ।। ३२-३३ ।। जब यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलोंको जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे ।। ३४ ।। कोसलनरेश महाराज नग्रजित्ने बड़ी प्रसन्नतासे उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्रीसे उनका सत्कार किया। भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया ।। ३५ ।। राजा नग्नजित् की कन्या सत्याने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान्‌ श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं; तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि यदि मैंने व्रत-नियम आदिका पालन करके इन्हींका चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी विशुद्ध लालसाको पूर्ण करें।। ३६ ।। नाग्नजिती सत्या मन-ही-मन सोचने लगी—‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शङ्कर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपङ्कज का पराग अपने सिरपर धारण करते हैं और जिन प्रभुने अपनी बनायी हुई मर्यादाका पालन करनेके लिये ही समय- समयपर अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियमसे प्रसन्न होंगे ? वे तो केवल अपनी कृपासे ही प्रसन्न हो सकते हैं।। ३७ ।। परीक्षित्‌ ! राजा नग्नजित ने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी विधिपूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की—‘जगत् के एकमात्र स्वामी नारायण ! आप अपने स्वरूपभूत आनन्दसे ही परिपूर्ण हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?’ ।। ३८ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहों की कथा

 

श्रीशुक उवाच

एकदा पाण्डवान्द्रष्टुं प्रतीतान्पुरुषोत्तमः

इन्द्रप्रस्थं गतः श्रीमान्युयुधानादिभिर्वृतः १

दृष्ट्वा तमागतं पार्था मुकुन्दमखिलेश्वरम्

उत्तस्थुर्युगपद्वीराः प्राणा मुख्यमिवागतम् २

परिष्वज्याच्युतं वीरा अङ्गसङ्गहतैनसः

सानुरागस्मितं वक्त्रं वीक्ष्य तस्य मुदं ययुः ३

युधिष्ठिरस्य भीमस्य कृत्वा पादाभिवन्दनम्

फाल्गुनं परिरभ्याथ यमाभ्यां चाभिवन्दितः ४

परमासन आसीनं कृष्णा कृष्णमनिन्दिता

नवोढा व्रीडिता किञ्चिच्छनैरेत्याभ्यवन्दत ५

तथैव सात्यकिः पार्थैः पूजितश्चाभिवन्दितः

निषसादासनेऽन्ये च पूजिताः पर्युपासत ६

पृथाम्समागत्य कृताभिवादन-

स्तयातिहार्दार्द्र दृशाभिरम्भितः

आपृष्टवांस्तां कुशलं सहस्नुषां

पितृष्वसारम्परिपृष्टबान्धवः ७

तमाह प्रेमवैक्लव्य रुद्धकण्ठाश्रुलोचना

स्मरन्ती तान्बहून्क्लेशान्क्लेशापायात्मदर्शनम् ८

तदैव कुशलं नोऽभूत्सनाथास्ते कृता वयम्

ज्ञातीन्नः स्मरता कृष्ण भ्राता मे प्रेषितस्त्वया ९

न तेऽस्ति स्वपरभ्रान्तिर्विश्वस्य सुहृदात्मनः

तथापि स्मरतां शश्वत्क्लेशान्हंसि हृदि स्थितः १०

 

युधिष्ठिर उवाच

किं न आचरितं श्रेयो न वेदाहमधीश्वर

योगेश्वराणां दुर्दर्शो यन्नो दृष्टः कुमेधसाम् ११

इति वै वार्षिकान्मासान्राज्ञा सोऽभ्यर्थितः सुखम्

जनयन्नयनानन्दमिन्द्रप्रस्थौकसां विभुः १२

एकदा रथमारुह्य विजयो वानरध्वजम्

गाण्डीवं धनुरादाय तूणौ चाक्षयसायकौ १३

साकं कृष्णेन सन्नद्धो विहर्तुं विपिनं महत्

बहुव्यालमृगाकीर्णं प्राविशत्परवीरहा १४

तत्राविध्यच्छरैर्व्याघ्रान्शूकरान्महिषान्रुरून्

शरभान्गवयान्खड्गान्हरिणान्शशशल्लकान् १५

तान्निन्युः किङ्करा राज्ञे मेध्यान्पर्वण्युपागते

तृट्परीतः परिश्रान्तो बिभत्सुर्यमुनामगात् १६

तत्रोपस्पृश्य विशदं पीत्वा वारि महारथौ

कृष्णौ ददृशतुः कन्यां चरन्तीं चारुदर्शनाम् १७

तामासाद्य वरारोहां सुद्विजां रुचिराननाम्

पप्रच्छ प्रेषितः सख्या फाल्गुनः प्रमदोत्तमाम् १८

का त्वं कस्यासि सुश्रोणि कुतो वा किं चिकीर्षसि

मन्ये त्वां पतिमिच्छन्तीं सर्वं कथय शोभने १९

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब पाण्डवोंका पता चल गया था कि वे लाक्षाभवन में जले नहीं हैं। एक बार भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनसे मिलनेके लिये इन्द्रप्रस्थ पधारे। उनके साथ सात्यकि आदि बहुत-से यदुवंशी भी थे ।। १ ।। जब वीर पाण्डवोंने देखा कि सर्वेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण पधारे हैं तो जैसे प्राणका सञ्चार होनेपर सभी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं, वैसे ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े हुए ।। २ ।। वीर पाण्डवोंने भगवान्‌ श्रीकृष्णका आलिङ्गन किया, उनके अङ्ग-सङ्ग से इनके सारे पाप-ताप धुल गये। भगवान्‌की प्रेमभरी मुसकराहटसे सुशोभित मुख-सुषमा देखकर वे आनन्दमें मग्र हो गये ।। ३ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने युधिष्ठिर और भीमसेनके चरणोंमें प्रणाम किया और अर्जुनको हृदयसे लगाया। नकुल और सहदेवने भगवान्‌ के चरणोंकी वन्दना की ।। ४ ।। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण श्रेष्ठ सिंहासनपर विराजमान हो गये; तब परमसुन्दरी श्यामवर्णा द्रौपदी, जो नवविवाहिता होनेके कारण तनिक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान्‌ श्रीकृष्ण के पास आयी और उन्हें प्रणाम किया ।। ५ ।। पाण्डवोंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण के समान ही वीर सात्यकि का भी स्वागत- सत्कार और अभिनन्दन-वन्दन किया। वे एक आसनपर बैठ गये। दूसरे यदुवंशियों का भी यथायोग्य सत्कार किया गया तथा वे भी श्रीकृष्णके चारों ओर आसनोंपर बैठ गये ।। ६ ।। इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी फूआ कुन्तीके पास गये और उनके चरणोंमें प्रणाम किया। कुन्तीजीने अत्यन्त स्नेहवश उन्हें अपने हृदयसे लगा लिया। उस समय उनके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये। कुन्तीजीने श्रीकृष्णसे अपने भाई-बन्धुओंकी कुशल-क्षेम पूछी और भगवान्‌ ने भी उनका यथोचित उत्तर देकर उनसे उनकी पुत्रवधू द्रौपदी और स्वयं उनका कुशल-मङ्गल पूछा ।। ७ ।। उस समय प्रेमकी विह्वलतासे कुन्तीजीका गला रुँध गया था, नेत्रोंसे आँसू बह रहे थे। भगवान्‌ के पूछनेपर उन्हें अपने पहलेके कलेश-पर-कलेश याद आने लगे और वे अपनेको बहुत सँभालकर, जिनका दर्शन समस्त कलेशोंका अन्त करनेके लिये ही हुआ करता है, उन भगवान्‌ श्रीकृष्णसे कहने लगीं।। ८ ।। श्रीकृष्ण ! जिस समय तुमने हमलोगोंको अपना कुटुम्बी, सम्बन्धी समझकर स्मरण किया और हमारा कुशल-मङ्गल जाननेके लिये भाई अक्रूरको भेजा, उसी समय हमारा कल्याण हो गया, हम अनाथोंको तुमने सनाथ कर दिया ।। ९ ।। मैं जानती हूँ कि तुम सम्पूर्ण जगत्के परम हितैषी सुहृद् और आत्मा हो। यह अपना है और यह पराया, इस प्रकारकी भ्रान्ति तुम्हारे अंदर नहीं है। ऐसा होनेपर भी, श्रीकृष्ण ! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके हृदयमें आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी कलेश-परम्पराको सदाके लिये मिटा देते हो।। १० ।।

युधिष्ठिरजीने कहा—‘सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ! हमें इस बातका पता नहीं है कि हमने अपने पूर्वजन्मोंमें या इस जन्ममें कौन-सा कल्याण-साधन किया है ? आपका दर्शन बड़े-बड़े योगेश्वर भी बड़ी कठिनतासे प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियोंको घर बैठे ही आपके दर्शन हो रहे हैं।। ११ ।। राजा युधिष्ठिरने इस प्रकार भगवान्‌ का खूब सम्मान किया और कुछ दिन वहीं रहनेकी प्रार्थना की। इसपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थके नर-नारियोंको अपनी रूपमाधुरीसे नयनानन्दका दान करते हुए बरसातके चार महीनोंतक सुखपूर्वक वहीं रहे ।। १२ ।। परीक्षित्‌ ! एक बार वीरशिरोमणि अर्जुनने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाणवाले दो तरकस लिये तथा भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ कवच पहनकर अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर वानर-चिह्नसे चिह्नित ध्वजा लगी हुई थी। इसके बाद विपक्षी वीरोंका नाश करनेवाले अर्जुन उस गहन वनमें शिकार खेलने गये, जो बहुतसे ङ्क्षसह, बाघ आदि भयङ्कर जानवरोंसे भरा हुआ था ।। १३-१४ ।। वहाँ उन्होंने बहुतसे बाघ, सूअर, भैंसे, काले हरिन, शरभ, गवय (नीलापन लिये हुए भूरे रंगका एक बड़ा हिरन), गैंडे, हरिन, खरगोश और शल्लक (साही) आद पशुओंपर अपने बाणोंका निशाना लगाया ।। १५ ।। उनमेंसे जो यज्ञके योग्य थे, उन्हें सेवकगण पर्वका समय जानकर राजा युधिष्ठिरके पास ले गये। अर्जुन शिकार खेलते-खेलते थक गये थे। अब वे प्यास लगनेपर यमुनाजीके किनारे गये ।। १६ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महारथियोंने यमुनाजीमें हाथ-पैर धोकर उनका निर्मल जल पिया और देखा कि एक परमसुन्दरी कन्या वहाँ तपस्या कर रही है ।। १७ ।। उस श्रेष्ठ सुन्दरीकी जंघा, दाँत और मुख अत्यन्त सुन्दर थे। अपने प्रिय मित्र श्रीकृष्णके भेजनेपर अर्जुनने उसके पास जाकर पूछा।। १८ ।। सुन्दरी ! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? कहाँसे आयी हो ? और क्या करना चाहती हो ? मैं ऐसा समझता हूँ कि तुम अपने योग्य पति चाह रही हो। हे कल्याणि ! तुम अपनी सारी बात बतलाओ।। १९ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

  



सोमवार, 7 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

स्यमन्तक-हरण, शतधन्वा का उद्धार और अक्रूरजी को फिर से द्वारका बुलाना

 

गरुडध्वजमारुह्य रथं रामजनार्दनौ

अन्वयातां महावेगैरश्वै राजन्गुरुद्रुहम् १९

मिथिलायामुपवने विसृज्य पतितं हयम्

पद्भ्यामधावत्सन्त्रस्तः कृष्णोऽप्यन्वद्रवद्रुषा २०

पदातेर्भगवांस्तस्य पदातिस्तिग्मनेमिना

चक्रेण शिर उत्कृत्य वाससोर्व्यचिनोन्मणिम् २१

अलब्धमणिरागत्य कृष्ण आहाग्रजान्तिकम्

वृथा हतः शतधनुर्मणिस्तत्र न विद्यते २२

तत आह बलो नूनं स मणिः शतधन्वना

कस्मिंश्चित्पुरुषे न्यस्तस्तमन्वेष पुरं व्रज २३

अहं वैदेहमिच्छामि द्रष्टुं प्रियतमं मम

इत्युक्त्वा मिथिलां राजन्विवेश यदुनन्दनः २४

तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय मैथिलः प्रीतमानसः

अर्हयां आस विधिवदर्हणीयं समर्हणैः २५

उवास तस्यां कतिचिन्मिथिलायां समा विभुः

मानितः प्रीतियुक्तेन जनकेन महात्मना

ततोऽशिक्षद्गदां काले धार्तराष्ट्रः सुयोधनः २६

केशवो द्वारकामेत्य निधनं शतधन्वनः

अप्राप्तिं च मणेः प्राह प्रियायाः प्रियकृद्विभुः २७

ततः स कारयामास क्रिया बन्धोर्हतस्य वै

साकं सुहृद्भिर्भगवान्या याः स्युः साम्परायिकीः २८

अक्रूरः कृतवर्मा च श्रुत्वा शतधनोर्वधम्

व्यूषतुर्भयवित्रस्तौ द्वारकायाः प्रयोजकौ २९

अक्रूरे प्रोषितेऽरिष्टान्यासन्वै द्वारकौकसाम्

शारीरा मानसास्तापा मुहुर्दैविकभौतिकाः ३०

इत्यङ्गोपदिशन्त्येके विस्मृत्य प्रागुदाहृतम्

मुनिवासनिवासे किं घटेतारिष्टदर्शनम् ३१

देवेऽवर्षति काशीशः श्वफल्कायागताय वै

स्वसुतां गान्दिनीं प्रादात्ततोऽवर्षत्स्म काशिषु ३२

तत्सुतस्तत्प्रभावोऽसावक्रूरो यत्र यत्र ह

देवोऽभिवर्षते तत्र नोपतापा न मारिकाः ३३

इति वृद्धवचः श्रुत्वा नैतावदिह कारणम्

इति मत्वा समानाय्य प्राहाक्रूरं जनार्दनः ३४

पूजयित्वाभिभाष्यैनं कथयित्वा प्रियाः कथाः

विज्ञताखिलचित्तज्ञः स्मयमान उवाच ह ३५

ननु दानपते न्यस्तस्त्वय्यास्ते शतधन्वना

स्यमन्तको मणिः श्रीमान्विदितः पूर्वमेव नः ३६

सत्राजितोऽनपत्यत्वाद्गृह्णीयुर्दुहितुः सुताः

दायं निनीयापः पिण्डान्विमुच्यर्णं च शेषितम् ३७

तथापि दुर्धरस्त्वन्यैस्त्वय्यास्तां सुव्रते मणिः

किन्तु मामग्रजः सम्यङ्न प्रत्येति मणिं प्रति ३८

दर्शयस्व महाभाग बन्धूनां शान्तिमावह

अव्युच्छिन्ना मखास्तेऽद्य वर्तन्ते रुक्मवेदयः ३९

एवं सामभिरालब्धः श्वफल्कतनयो मणिम्

आदाय वाससाच्छन्नः ददौ सूर्यसमप्रभम् ४०

स्यमन्तकं दर्शयित्वा ज्ञातिभ्यो रज आत्मनः

विमृज्य मणिना भूयस्तस्मै प्रत्यर्पयत्प्रभुः ४१

यस्त्वेतद्भगवत ईश्वरस्य विष्णोर्

वीर्याढ्यं वृजिनहरं सुमङ्गलं च

आख्यानं पठति शृणोत्यनुस्मरेद्वा

दुष्कीर्तिं दुरितमपोह्य याति शान्तिम् ४२

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथपर सवार हुए, जिसपर गरुड़चिह्न से चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वशुर सत्राजित् को मारनेवाले शतधन्वा का पीछा किया ।। १९ ।। मिथिलापुरीके निकट एक उपवनमें शतधन्वा का घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोडक़र पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े ।। २० ।। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान्‌ने भी पैदल ही दौडक़र अपने तीक्ष्ण धारवाले चक्रसे उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रोंमें स्यमन्तकमणिको ढूँढ़ा ।। २१ ।। परंतु जब मणि मिली नहीं तब भगवान्‌ श्रीकृष्णने बड़े भाई बलरामजीके पास आकर कहा—‘हमने शतधन्वाको व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमन्तकमणि तो है ही नहीं।। २२ ।। बलरामजीने कहा—‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वाने स्यमन्तकमणिको किसी-न-किसीके पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ ।। २३ ।। मैं विदेहराजसे मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।परीक्षित्‌ ! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलरामजी मिथिला नगरीमें चले गये ।। २४ ।। जब मिथिलानरेशने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्दसे भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसनसे उठकर अनेक सामग्रियोंसे उनकी पूजा की ।। २५ ।। इसके बाद भगवान्‌ बलरामजी कई वर्षोंतक मिथिलापुरीमें ही रहे। महात्मा जनकने बड़े प्रेम और सम्मानसे उन्हें रखा। इसके बाद समयपर धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनने बलरामजीसे गदायुद्धकी शिक्षा ग्रहण की ।। २६ ।। अपनी प्रिया सत्यभामाका प्रिय कार्य करके भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वाको मार डाला गया, परंतु स्यमन्तकमणि उसके पास न मिली ।। २७ ।। इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओंके साथ अपने श्वशुर सत्राजित्की वे सब औध्र्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणीका परलोक सुधरता है ।। २८ ।।

अक्रूर और कृतवर्माने शतधन्वाको सत्राजित्के वधके लिये उत्तेजित किया था। इसलिये जब उन्होंने सुना कि भगवान्‌ श्रीकृष्णने शतधन्वाको मार डाला है, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर द्वारकासे भाग खड़े हुए ।। २९ ।। परीक्षित्‌ ! कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अक्रूरके द्वारकासे चले जानेपर द्वारका-वासियोंको बहुत प्रकारके अनिष्टों और अरिष्टोंका सामना करना पड़ा। दैविक और भौतिक निमित्तोंसे बार-बार वहाँके नागरिकोंको शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना पड़ा। परंतु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातोंको भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान्‌ श्रीकृष्णमें समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारकामें उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय ।। ३०-३१ ।। उस समय नगरके बड़े-बूढ़े लोगोंने कहा—‘एक बार काशी-नरेशके राज्यमें वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्यमें आये हुए अक्रूरके पिता श्वफल्कको अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेशमें वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्कके ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकारका कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।परीक्षित्‌ ! उन लोगोंकी बात सुनकर भगवान्‌ने सोचा कि इस उपद्रवका यही कारण नहीं है, यह जानकर भी भगवान्‌ ने दूत भेजकर अक्रूरजी को ढुँढ़वाया और आनेपर उनसे बातचीत की ।। ३२३४ ।। भगवान्‌ ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेमकी बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सबके चित्तका एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूरसे कहा।। ३५ ।। चाचाजी ! आप दान-धर्मके पालक हैं। हमें यह बात पहलेसे ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तकमणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देनेवाली है ।। ३६ ।। आप जानते ही हैं कि सत्राजित् के कोई पुत्र नहीं है। इसलिये उनकी लडक़ी के लडक़ेउनके नाती ही उन्हें तिलाञ्जलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे ।। ३७ ।। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टिसे यद्यपि स्यमन्तकमणि हमारे पुत्रोंको ही मिलनी चाहिये, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरोंके लिये उस मणिको रखना अत्यन्त कठिन भी है। परंतु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणिके सम्बन्धमें मेरी बातका पूरा विश्वास नहीं करते ।। ३८ ।। इसलिये महाभाग्यवान् अक्रूरजी ! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्रबलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवतीका सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदयमें शान्तिका सञ्चार कीजिये। हमें पता है कि उसी मणिके प्रतापसे आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिनमें सोनेकी वेदियाँ बनती हैं।। ३९ ।। परीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूरजीने वस्त्रमें लपेटी हुई सूर्यके समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान्‌ श्रीकृष्णको दे दी ।। ४० ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने वह स्यमन्तकमणि अपने जाति-भाइयोंको दिखाकर अपना कलङ्क दूर किया और उसे अपने पास रखनेमें समर्थ होनेपर भी पुन: अक्रूरजीको लौटा दिया ।। ४१ ।।

सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान्‌ श्रीकृष्णके पराक्रमोंसे परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलङ्कोंका मार्जन करनेवाला तथा परम मङ्गलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापोंसे छूटकर शान्ति का अनुभव करता है ।। ४२ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

  



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

स्यमन्तक-हरण, शतधन्वा का उद्धार और अक्रूरजी को फिर से द्वारका बुलाना

 

श्रीबादरायणिरुवाच

विज्ञातार्थोऽपि गोविन्दो दग्धानाकर्ण्य पाण्डवान्

कुन्तीं च कुल्यकरणे सहरामो ययौ कुरून् १

भीष्मं कृपं स विदुरं गान्धारीं द्रोणमेव च

तुल्यदुःखौ च सङ्गम्य हा कष्टमिति होचतुः २

लब्ध्वैतदन्तरं राजन्शतधन्वानमूचतुः

अक्रूरकृतवर्माणौ मणिः कस्मान्न गृह्यते ३

योऽस्मभ्यं सम्प्रतिश्रुत्य कन्यारत्नं विगर्ह्य नः

कृष्णायादान्न सत्राजित्कस्माद्भ्रातरमन्वियात् ४

एवं भिन्नमतिस्ताभ्यां सत्राजितमसत्तमः

शयानमवधील्लोभात्स पापः क्षीणजीवितः ५

स्त्रीणां विक्रोशमानानां क्रन्दन्तीनामनाथवत्

हत्वा पशून्सौनिकवन्मणिमादाय जग्मिवान् ६

सत्यभामा च पितरं हतं वीक्ष्य शुचार्पिता

व्यलपत्तात तातेति हा हतास्मीति मुह्यती ७

तैलद्रोण्यां मृतं प्रास्य जगाम गजसाह्वयम्

कृष्णाय विदितार्थाय तप्ताऽऽचख्यौ पितुर्वधम् ८

तदाकर्ण्येश्वरौ राजन्ननुसृत्य नृलोकताम्

अहो नः परमं कष्टमित्यस्राक्षौ विलेपतुः ९

आगत्य भगवांस्तस्मात्सभार्यः साग्रजः पुरम्

शतधन्वानमारेभे हन्तुं हर्तुं मणिं ततः १०

सोऽपि कृतोद्यमं ज्ञात्वा भीतः प्राणपरीप्सया

साहाय्ये कृतवर्माणमयाचत स चाब्रवीत् ११

नाहमीश्वरयोः कुर्यां हेलनं रामकृष्णयोः

को नु क्षेमाय कल्पेत तयोर्वृजिनमाचरन् १२

कंसः सहानुगोऽपीतो यद्द्वेषात्त्याजितः श्रिया

जरासन्धः सप्तदश संयुगाद्विरथो गतः १३

प्रत्याख्यातः स चाक्रूरं पार्ष्णिग्राहमयाचत

सोऽप्याह को विरुध्येत विद्वानीश्वरयोर्बलम् १४

य इदं लीलया विश्वं सृजत्यवति हन्ति च

चेष्टां विश्वसृजो यस्य न विदुर्मोहिताजया १५

यः सप्तहायनः शैलमुत्पाट्यैकेन पाणिना

दधार लीलया बाल उच्छिलीन्ध्रमिवार्भकः १६

नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाद्भुतकर्मणे

अनन्तायादिभूताय कूटस्थायात्मने नमः १७

प्रत्याख्यातः स तेनापि शतधन्वा महामणिम्

तस्मिन्न्यस्याश्वमारुह्य शतयोजनगं ययौ १८

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्ण को इस बातका पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँका नहीं हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल-परम्परोचित व्यवहार करनेके लिये वे बलरामजी के साथ हस्तिनापुर गये ।। १ ।। वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्यसे मिलकर उनके साथ समवेदनासहानुभूति प्रकट की और उन लोगोंसे कहने लगे—‘हाय-हाय ! यह तो बड़े ही दु:खकी बात हुई।। २ ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णके हस्तिनापुर चले जानेसे द्वारकामें अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा—‘तुम सत्राजित्से मणि क्यों नहीं छीन लेते ? ।। ३ ।। सत्राजित् ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामा का विवाह हमसे करनेका वचन दिया था और अब उसने हमलोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्णके साथ व्याह दिया है। अब सत्राजित् भी अपने भाई प्रसेनकी तरह क्यों न यमपुरीमें जाय ?’ ।। ४ ।। शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिरपर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्माके इस प्रकार बहकानेपर शतधन्वा उनकी बातोंमें आ गया और उस महादुष्टने लोभवश सोये हुए सत्राजित्को मार डाला ।। ५ ।। इस समय स्त्रियाँ अनाथके समान रोने चिल्लाने लगीं; परंतु शतधन्वाने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया; जैसे कसाई पशुओंकी हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित् को मारकर और मणि लेकर वहाँसे चम्पत हो गया ।। ६ ।।

सत्यभामाजी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे हाय पिताजी ! हाय पिताजी ! मैं मारी गयी’—इस प्रकार पुकार-पुकारकर विलाप करने लगीं। बीच- बीचमें वे बेहोश हो जातीं और होशमें आनेपर फिर विलाप करने लगतीं ।। ७ ।। इसके बाद उन्होंने अपने पिताके शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर को गयीं। उन्होंने बड़े दु:खसे भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपने पिताकी हत्याका वृत्तान्त सुनायायद्यपि इन बातोंको भगवान्‌ श्रीकृष्ण पहलेसे ही जानते थे ।। ८ ।। परीक्षित्‌ ! सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने सब सुनकर मनुष्योंकी-सी लीला करते हुए अपनी आँखोंमें आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि अहो ! हम लोगोंपर तो यह बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी !।। ९ ।। इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजीके साथ हस्तिनापुरसे द्वारका लौट आये और शतधन्वाको मारने तथा उससे मणि छीननेका उद्योग करने लगे ।। १० ।।

जब शतधन्वाको यह मालूम हुआ कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुझे मारनेका उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचानेके लिये उसने कृतवर्मासे सहायता माँगी। तब कृतवर्माने कहा।। ११ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी सर्वशक्तिमान् ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके ? ।। १२ ।। तुम जानते हो कि कंस उन्हींसे द्वेष करनेके कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियोंके साथ मारा गया। जरासन्ध-जैसे शूरवीरको भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हारकर बिना रथके ही अपनी राजधानीमें लौट जाना पड़ा था।। १३ ।। जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टकत्ता-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वाने सहायताके लिये अक्रूरजीसे प्रार्थना की। उन्होंने कहा—‘भाई ! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान् भगवान्‌का बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने। जो भगवान्‌ खेल-खेलमें ही इस विश्वकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैंइस बातको मायासे मोहित ब्रह्मा आदि विश्व-विधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्होंने सात वर्षकी अवस्थामेंजब वे निरे बालक थे, एक हाथसे ही गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्तेको उखाडक़र हाथमें रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेलमें सात दिनोंतक उसे उठाये रखा; मैं तो उन भगवान्‌ श्रीकृष्णको नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अद्भुत हैं। वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।। १४१७ ।। जब इस प्रकार अक्रूरजीने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तकमणि उन्हींके पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलनेवाले घोड़ेपर सवार होकर वहाँसे बड़ी फुर्तीसे भागा ।। १८ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...