॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— अट्ठावनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान्
श्रीकृष्णके अन्यान्य विवाहोंकी कथा
श्रीकालिन्द्युवाच
अहं देवस्य सवितुर्दुहिता पतिमिच्छती
विष्णुं वरेण्यं वरदं तपः परममास्थितः २०
नान्यं पतिं वृणे वीर तमृते श्रीनिकेतनम्
तुष्यतां मे स भगवान्मुकुन्दोऽनाथसंश्रयः २१
कालिन्दीति समाख्याता वसामि यमुनाजले
निर्मिते भवने पित्रा यावदच्युतदर्शनम् २२
तथावदद्गुडाकेशो वासुदेवाय सोऽपि ताम्
रथमारोप्य तद्विद्वान्धर्मराजमुपागमत् २३
यदैव कृष्णः सन्दिष्टः पार्थानां परमाद्भुतम्
कारयामास नगरं विचित्रं विश्वकर्मणा २४
भगवांस्तत्र निवसन्स्वानां प्रियचिकीर्षया
अग्नये खाण्डवं दातुमर्जुनस्याथ सारथिः २५
सोऽग्निस्तुष्टो धनुरदाद्ध्यान्श्वेतान्रथं नृप
अर्जुनायाक्षयौ तूणौ वर्म चाभेद्यमस्त्रिभिः २६
मयश्च मोचितो वह्नेः सभां सख्य उपाहरत्
यस्मिन्दुर्योधनस्यासीज्जलस्थलदृशिभ्रमः २७
स तेन समनुज्ञातः सुहृद्भिश्चानुमोदितः
आययौ द्वारकां भूयः सात्यकिप्रमुखैर्वृतः २८
अथोपयेमे कालिन्दीं सुपुण्यर्त्वृक्ष ऊर्जिते
वितन्वन्परमानन्दं स्वानां परममङ्गलः २९
विन्द्यानुविन्द्यावावन्त्यौ दुर्योधनवशानुगौ
स्वयंवरे स्वभगिनीं कृष्णे सक्तां न्यषेधताम् ३०
राजाधिदेव्यास्तनयां मित्रविन्दां पितृष्वसुः
प्रसह्य हृतवान्कृष्णो राजन्राज्ञां प्रपश्यताम् ३१
नग्नजिन्नाम कौशल्य आसीद्राजातिधार्मिकः
तस्य सत्याभवत्कन्या देवी नाग्नजिती नृप ३२
न तां शेकुर्नृपा वोढुमजित्वा सप्तगोवृषान्
तीक्ष्णशृङ्गान्सुदुर्धर्षान्वीर्यगन्धासहान्खलान् ३३
तां श्रुत्वा वृषजिल्लभ्यां भगवान्सात्वतां पतिः
जगाम कौशल्यपुरं सैन्येन महता वृतः ३४
स कोशलपतिः प्रीतः प्रत्युत्थानासनादिभिः
अर्हणेनापि गुरुणा पूजयन्प्रतिनन्दितः ३५
वरं विलोक्याभिमतं समागतं
नरेन्द्र कन्या चकमे रमापतिम्
भूयादयं मे पतिराशिषोऽमला:
करोतु सत्या यदि मे धृतो व्रतैः ३६
यत्पादपङ्कजरजः शिरसा बिभर्ति
श्रीरब्जजः सगिरिशः सह लोकपालैः
लीलातनुः स्वकृतसेतुपरीप्सयेश:
कालेऽदधत्स भगवान्मम केन तुष्येत् ३७
अर्चितं पुनरित्याह नारायण जगत्पते
आत्मानन्देन पूर्णस्य करवाणि किमल्पकः ३८
कालिन्दीने
कहा—‘मैं भगवान् सूर्यदेव की
पुत्री हूँ। मैं सर्वश्रेष्ठ वरदानी भगवान् विष्णु को पति के रूपमें प्राप्त करना
चाहती हूँ और इसीलिये यह कठोर तपस्या कर रही हूँ ।। २० ।। वीर अर्जुन ! मैं
लक्ष्मीके परम आश्रय भगवान् को छोडक़र और किसीको अपना पति नहीं बना सकती। अनाथोंके
एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण
मुझपर प्रसन्न हों ।। २१ ।। मेरा नाम है कालिन्दी। यमुनाजल में मेरे पिता सूर्यने
मेरे लिये एक भवन भी बनवा दिया है। उसीमें मैं रहती हूँ। जबतक भगवान् का दर्शन न
होगा, मैं यहीं रहूँगी’ ।। २२ ।।
अर्जुनने जाकर भगवान् श्रीकृष्णसे सारी बातें कहीं। वे तो पहलेसे ही यह सब कुछ
जानते थे, अब उन्होंने कालिन्दीको अपने रथपर बैठा लिया और
धर्मराज युधिष्ठिरके पास ले आये ।। २३ ।।
इसके बाद
पाण्डवोंकी प्रार्थनासे भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवोंके रहनेके लिये एक अत्यन्त
अद्भुत और विचित्र नगर विश्वकर्माके द्वारा बनवा दिया ।। २४ ।। भगवान् इस बार
पाण्डवोंको आनन्द देने और उनका हित करनेके लिये वहाँ बहुत दिनोंतक रहे। इसी बीच
अग्रिदेवको खाण्डव- वन दिलानेके लिये वे अर्जुनके सारथि भी बने ।। २५ ।।
खाण्डव-वनका भोजन मिल जानेसे अग्रिदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुनको
गाण्डीव धनुष, चार श्वेत घोड़े, एक रथ, दो अटूट बाणोंवाले तरकस और एक ऐसा कवच दिया,
जिसे कोई अस्त्र-शस्त्रधारी भेद न सके ।। २६ ।। खाण्डव-दाहके समय
अर्जुनने मय दानवको जलनेसे बचा लिया था। इसलिये उसने अर्जुनसे मित्रता करके उनके
लिये एक परम अद्भुत सभा बना दी। उसी सभामें दुर्योधनको जलमें स्थल और स्थलमें जलका
भ्रम हो गया था ।। २७ ।।
कुछ दिनोंके
बाद भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनकी अनुमति एवं अन्य सम्बन्धियोंका अनुमोदन प्राप्त
करके सात्यकि आदिके साथ द्वारका लौट आये ।। २८ ।। वहाँ आकर उन्होंने विवाहके योग्य
ऋतु और ज्यौतिषशास्त्र के अनुसार प्रशंसित पवित्र लग्रमें कालिन्दीजीका पाणिग्रहण
किया। इससे उनके स्वजन-सम्बन्धियोंको परम मङ्गल और परमानन्दकी प्राप्ति हुई ।। २९
।।
अवन्ती
(उज्जैन) देशके राजा थे विन्द और अनुविन्द। वे दुर्योधनके वशवर्ती तथा अनुयायी थे।
उनकी बहिन मित्रविन्दाने स्वयंवरमें भगवान् श्रीकृष्णको ही अपना पति बनाना चाहा।
परंतु विन्द और अनुविन्द ने अपनी बहिनको रोक दिया ।। ३० ।। परीक्षित् !
मित्रविन्दा श्रीकृष्णकी फूआ राजाधिदेवीकी कन्या थी। भगवान् श्रीकृष्ण राजाओंकी
भरी सभामें उसे बलपूर्वक हर ले गये,
सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये ।। ३१ ।।
परीक्षित् !
कोसलदेशके राजा थे नग्नजित्। वे अत्यन्त धार्मिक थे। उनकी परमसुन्दरी कन्याका नाम
था सत्या; नग्नजित् पुत्री होनेसे वह नाग्नजिती भी कहलाती थी।
परीक्षित् ! राजाकी प्रतिज्ञाके अनुसार सात दुर्दान्त बैलोंपर विजय प्राप्त न कर
सकनेके कारण कोई राजा उस कन्यासे विवाह न कर सके। क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे
और वे बैल किसी वीर पुरुषकी गन्ध भी नहीं सह सकते थे ।। ३२-३३ ।। जब यदुवंशशिरोमणि
भगवान् श्रीकृष्णने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलोंको जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना
लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे ।। ३४ ।। कोसलनरेश महाराज नग्रजित्ने बड़ी प्रसन्नतासे
उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्रीसे उनका सत्कार किया।
भगवान् श्रीकृष्णने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया ।। ३५ ।। राजा नग्नजित् की
कन्या सत्याने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं;
तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि ‘यदि मैंने
व्रत-नियम आदिका पालन करके इन्हींका चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी
विशुद्ध लालसाको पूर्ण करें’ ।। ३६ ।। नाग्नजिती सत्या
मन-ही-मन सोचने लगी—‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा,
शङ्कर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपङ्कज का पराग अपने सिरपर धारण
करते हैं और जिन प्रभुने अपनी बनायी हुई मर्यादाका पालन करनेके लिये ही समय- समयपर
अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म,
व्रत अथवा नियमसे प्रसन्न होंगे ? वे तो केवल
अपनी कृपासे ही प्रसन्न हो सकते हैं’ ।। ३७ ।। परीक्षित् ! राजा
नग्नजित ने भगवान् श्रीकृष्णकी विधिपूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की—‘जगत् के एकमात्र स्वामी नारायण ! आप अपने स्वरूपभूत आनन्दसे ही परिपूर्ण
हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?’ ।। ३८ ।।
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गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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