सोमवार, 14 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बासठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बासठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

ऊषा-अनिरुद्ध-मिलन

 

श्रीराजोवाच -

बाणस्य तनयां ऊषां उपयेमे यदूत्तमः ।

 तत्र युद्धमभूद् घोरं हरिशङ्करयोर्महत् ।

 एतत्सर्वं महायोगिन् समाख्यातुं त्वमर्हसि ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

बाणः पुत्रशतज्येष्ठो बलेरासीन् महात्मनः ।

 येन वामनरूपाय हरयेऽदायि मेदिनी ॥ २ ॥

 तस्यौरसः सुतो बानः शिवभक्तिरतः सदा ।

 मान्यो वदान्यो धीमांश्च सत्यसन्धो दृढव्रतः ॥ ३ ॥

 शोणिताख्ये पुरे रम्ये स राज्यं अकरोत्पुरा ।

 तस्य शम्भोः प्रसादेन किङ्करा इव तेऽमराः ।

 सहस्रबाहुर्वाद्येन ताण्डवेऽतोषयन्मृडम् ॥ ४ ॥

 भगवान् सर्वभूतेशः शरण्यो भक्तवत्सलः ।

 वरेण छन्दयामास स तं वव्रे पुराधिपम् ॥ ५ ॥

 स एकदाऽऽह गिरिशं पार्श्वस्थं वीर्यदुर्मदः ।

 किरीटेनार्कवर्णेन संस्पृशन् तत्पदाम्बुजम् ॥ ६ ॥

 नमस्ये त्वां महादेव लोकानां गुरुमीश्वरम् ।

 पुंसां अपूर्णकामानां कामपूरामराङ्‌घ्रिपम् ॥ ७ ॥

 दोःसहस्रं त्वया दत्तं परं भाराय मेऽभवत् ।

 त्रिलोक्यां प्रतियोद्धारं न लभे त्वदृते समम् ॥ ८ ॥

 कण्डूत्या निभृतैर्दोर्भिः युयुत्सुर्दिग्गजानहम् ।

 आद्यायां चूर्णयन्नद्रीन् भीतास्तेऽपि प्रदुद्रुवुः ॥ ९ ॥

 तत् श्रुत्वा भगवान् क्रुद्धः केतुस्ते भज्यते यदा ।

 त्वद्दर्पघ्नं भवेन्मूढ संयुगं मत्समेन ते ॥ १० ॥

 इत्युक्तः कुमतिर्हृष्टः स्वगृहं प्राविशन्नृप ।

 प्रतीक्षन् गिरिशादेशं स्ववीर्यनशनं कुधीः ॥ ११ ॥

 तस्योषा नाम दुहिता स्वप्ने प्राद्युम्निना रतिम् ।

 कन्यालभत कान्तेन प्राग् अदृष्टश्रुतेन सा ॥ १२ ॥

 सा तत्र तमपश्यन्ती क्वासि कान्तेति वादिनी ।

 सखीनां मध्य उत्तस्थौ विह्वला व्रीडिता भृशम् ॥ १३ ॥

 बाणस्य मंत्री कुम्भाण्डः चित्रलेखा च तत्सुता ।

 सख्यपृच्छत् सखीं ऊषां कौतूहलसमन्विता ॥ १४ ॥

 कं त्वं मृगयसे सुभ्रु कीदृशस्ते मनोरथः ।

 हस्तग्राहं न तेऽद्यापि राजपुत्र्युपलक्षये ॥ १५ ॥

 दृष्टः कश्चिन्नरः स्वप्ने श्यामः कमललोचनः ।

 पीतवासा बृहद् बाहुः योषितां हृदयंगमः ॥ १६ ॥

 तमहं मृगये कान्तं पाययित्वाधरं मधु ।

 क्वापि यातः स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे ॥ १७ ॥

 

 चित्रलेखोवाच -

 व्यसनं तेऽपकर्षामि त्रिलोक्यां यदि भाव्यते ।

 तं आनेष्ये वरं यस्ते मनोहर्ता तमादिश ॥ १८ ॥

 इत्युक्त्वा देवगन्धर्व सिद्धचारणपन्नगान् ।

 दैत्यविद्याधरान् यक्षान् मनुजांश्च यथालिखत् ॥ १९ ॥

 मनुजेषु च सा वृष्नीन् शूरं आनकदुन्दुभिम् ।

 व्यलिखद् रामकृष्णौ च प्रद्युम्नं वीक्ष्य लज्जिता ॥ २० ॥

 अनिरुद्धं विलिखितं वीक्ष्योषावाङ्‌मुखी ह्रिया ।

 सोऽसावसाविति प्राह स्मयमाना महीपते ॥ २१ ॥

 चित्रलेखा तमाज्ञाय पौत्रं कृष्णस्य योगिनी ।

 ययौ विहायसा राजन् द्वारकां कृष्णपालिताम् ॥ २२ ॥

 तत्र सुप्तं सुपर्यङ्के प्राद्युम्निं योगमास्थिता ।

 गृहीत्वा शोणितपुरं सख्यै प्रियमदर्शयत् ॥ २३ ॥

 सा च तं सुन्दरवरं विलोक्य मुदितानना ।

 दुष्प्रेक्ष्ये स्वगृहे पुम्भी रेमे प्राद्युम्निना समम् ॥ २४ ॥

 परार्ध्यवासःस्रग्गन्ध धूपदीपासनादिभिः ।

 पानभोजन भक्ष्यैश्च वाक्यैः शुश्रूषणार्चितः ॥ २५ ॥

 गूढः कन्यापुरे शश्वत् प्रवृद्धस्नेहया तया ।

 नाहर्गणान् स बुबुधे ऊषयापहृतेन्द्रियः ॥ २६ ॥

 तां तथा यदुवीरेण भुज्यमानां हतव्रताम् ।

 हेतुभिर्लक्षयाञ्चक्रुः आप्रीतां दुरवच्छदैः ॥ २७ ॥

 भटा आवेदयाञ्चक्रू राजंस्ते दुहितुर्वयम् ।

 विचेष्टितं लक्षयाम कन्यायाः कुलदूषणम् ॥ २८ ॥

 अनपायिभिरस्माभिः गुप्तायाश्च गृहे प्रभो ।

 कन्याया दूषणं पुम्भिः दुष्प्रेक्ष्याया न विद्महे ॥ २९ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछामहायोगसम्पन्न मुनीश्वर ! मैंने सुना है कि यदुवंशशिरोमणि अनिरुद्धजी ने बाणासुर की पुत्री ऊषा से विवाह किया था और इस प्रसङ्ग में भगवान्‌ श्रीकृष्ण और शङ्कर जी का बहुत बड़ा घमासान युद्ध हुआ था। आप कृपा करके यह वृत्तान्त विस्तार से सुनाइये ।। १ ।।

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! महात्मा बलि की कथा तो तुम सुन ही चुके हो। उन्होंने वामन- रूपधारी भगवान्‌ को सारी पृथ्वीका दान कर दिया था। उनके सौ लडक़े थे। उनमें सबसे बड़ा था बाणासुर ।। २ ।। दैत्यराज बलिका औरस पुत्र बाणासुर भगवान्‌ शिवकी भक्तिमें सदा रत रहता था। समाज में उसका बड़ा आदर था। उसकी उदारता और बुद्धिमत्ता प्रशंसनीय थी। उसकी प्रतिज्ञा अटल होती थी और सचमुच वह बातका धनी था ।। ३ ।। उन दिनों वह परम रमणीय शोणितपुर में राज्य करता था। भगवान्‌ शङ्करकी कृपासे इन्द्रादि देवता नौकर-चाकरकी तरह उसकी सेवा करते थे। उसके हजार भुजाएँ थीं। एक दिन जब भगवान्‌ शङ्कर ताण्डवनृत्य कर रहे थे, तब उसने अपने हजार हाथोंसे अनेकों प्रकारके बाजे बजाकर उन्हें प्रसन्न कर लिया ।। ४ ।। सचमुच भगवान्‌ शङ्कर बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक हैं। समस्त भूतोंके एकमात्र स्वामी प्रभुने बाणासुरसे कहा—‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।बाणासुरने कहा—‘भगवन् ! आप मेरे नगरकी रक्षा करते हुए यहीं रहा करें।। ५ ।।

एक दिन बल-पौरुषके घमंडमें चूर बाणासुरने अपने समीप ही स्थित भगवान्‌ शङ्कर के चरण- कमलोंको सूर्यके समान चमकीले मुकुटसे छूकर प्रणाम किया और कहा।। ६ ।। देवाधिदेव ! आप समस्त चराचर जगत् के गुरु और ईश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जिन लोगोंके मनोरथ अबतक पूरे नहीं हुए हैं, उनको पूर्ण करनेके लिये आप कल्पवृक्ष हैं ।। ७ ।। भगवन् ! आपने मुझे एक हजार भुजाएँ दी हैं, परंतु वे मेरे लिये केवल भाररूप हो रही हैं। क्योंकि त्रिलोकीमें आपको छोडक़र मुझे अपनी बराबरीका कोई वीर-योद्धा ही नहीं मिलता, जो मुझसे लड़ सके ।। ८ ।। आदिदेव ! एक बार मेरी बाहोंमें लडऩेके लिये इतनी खुजलाहट हुई कि मैं दिग्गजों की ओर चला। परंतु वे भी डरके मारे भाग खड़े हुए। उस समय मार्गमें अपनी बाहोंकी चोटसे मैंने बहुतसे पहाड़ोंको तोड़-फोड़ डाला था।। ९ ।। बाणासुरकी यह प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शङ्कर ने तनिक क्रोधसे कहा—‘रे मूढ़ ! जिस समय तेरी ध्वजा टूटकर गिर जायगी, उस समय मेरे ही समान योद्धासे तेरा युद्ध होगा और वह युद्ध तेरा घमंड चूर-चूर कर देगा।। १० ।। परीक्षित्‌ ! बाणासुरकी बुद्धि इतनी बिगड़ गयी थी कि भगवान्‌ शङ्करकी बात सुनकर उसे बड़ा हर्ष हुआ और वह अपने घर लौट गया। अब वह मूर्ख भगवान्‌ शङ्करके आदेशानुसार उस युद्धकी प्रतीक्षा करने लगा, जिसमें उसके बल-वीर्यका नाश होनेवाला था ।। ११ ।।

परीक्षित्‌ ! बाणासुरकी एक कन्या थी, उसका नाम था ऊषा। अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्नमें उसने देखा कि परम सुन्दर अनिरुद्धजीके साथ मेरा समागम हो रहा है।आश्चर्यकी बात तो यह थी कि उसने अनिरुद्धजीको न तो कभी देखा था और न सुना ही था ।। १२ ।। स्वप्नमें ही उन्हें न देखकर वह बोल उठी—‘प्राणप्यारे ! तुम कहाँ हो ?’ और उसकी नींद टूट गयी। वह अत्यन्त विह्वलताके साथ उठ बैठी और यह देखकर कि मैं सखियोंके बीचमें हूँ, बहुत ही लज्जित हुई ।। १३ ।। परीक्षित्‌ ! बाणासुरके मन्त्रीका नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक कन्या थी, जिसका नाम था चित्रलेखा। ऊषा और चित्रलेखा एक-दूसरेकी सहेलियाँ थीं। चित्रलेखाने ऊषासे कौतूहलवश पूछा।। १४ ।। सुन्दरी ! राजकुमारी ! मैं देखती हूँ कि अभीतक किसीने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है। फिर तुम किसे ढूँढ़ रही हो और तुम्हारे मनोरथका क्या स्वरूप है ?।। १५ ।।

ऊषाने कहासखी ! मैंने स्वप्नमें एक बहुत ही सुन्दर नवयुवकको देखा है। उसके शरीरका रंग साँवला-साँवला-सा है। नेत्र कमलदलके समान हैं। शरीरपर पीला-पीला पीताम्बर फहरा रहा है। भुजाएँ लंबी-लंबी हैं और वह स्त्रियोंका चित्त चुरानेवाला है ।। १६ ।। उसने पहले तो अपने अधरोंका मधुर मधु मुझे पिलाया, परंतु मैं उसे अघाकर पी ही न पायी थी कि वह मुझे दु:खके सागरमें डालकर न जाने कहाँ चला गया। मैं तरसती ही रह गयी। सखी ! मैं अपने उसी प्राणवल्लभको ढूँढ़ रही हूँ ।। १७ ।।

चित्रलेखाने कहा—‘सखी ! यदि तुम्हारा चित्तचोर त्रिलोकीमें कहीं भी होगा, और उसे तुम पहचान सकोगी, तो मैं तुम्हारी विरह-व्यथा अवश्य शान्त कर दूँगी। मैं चित्र बनाती हूँ, तुम अपने चित्तचोर प्राणवल्लभको पहचानकर बतला दो। फिर वह चाहे कहीं भी होगा, मैं उसे तुम्हारे पास ले आऊँगी।। १८ ।। यों कहकर चित्रलेखाने बात-की-बातमें बहुत-से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्योंके चित्र बना दिये ।। १९ ।। मनुष्योंमें उसने वृष्णिवंशी वसुदेवजीके पिता शूर, स्वयं वसुदेवजी, बलरामजी और भगवान्‌ श्रीकृष्ण आदिके चित्र बनाये। प्रद्युम्रका चित्र देखते ही ऊषा लज्जित हो गयी ।। २० ।। परीक्षित्‌ ! जब उसने अनिरुद्धका चित्र देखा, तब तो लज्जाके मारे उसका सिर नीचा हो गया। फिर मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसने कहा—‘मेरा वह प्राणवल्लभ यही है, यही है।। २१ ।।

परीक्षित्‌ ! चित्रलेखा योगिनी थी। वह जान गयी कि ये भगवान्‌ श्रीकृष्णके पौत्र हैं। अब वह आकाशमार्गसे रात्रिमें ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरीमें पहुँची ।। २२ ।। वहाँ अनिरुद्धजी बहुत ही सुन्दर पलँगपर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धिके प्रभावसे उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आयी और अपनी सखी ऊषाको उसके प्रियतमका दर्शन करा दिया ।। २३ ।। अपने परम सुन्दर प्राणवल्लभको पाकर आनन्दकी अधिकतासे उसका मुखकमल प्रफुल्लित हो उठा और वह अनिरुद्धजीके साथ अपने महलमें विहार करने लगी। परीक्षित्‌ ! उसका अन्त:पुर इतना सुरक्षित था कि उसकी ओर कोई पुरुष झाँकतक नहीं सकता था ।। २४ ।। ऊषाका प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था। वह बहुमूल्य वस्त्र, पुष्पोंके हार, इत्र-फुलेल, धूप-दीप, आसन आदि सामग्रियोंसे, सुमधुर पेय (पीनेयोग्य पदार्थदूध, शरबत आदि), भोज्य (चबाकर खानेयोग्य) और भक्ष्य (निगल जानेयोग्य) पदार्थोंसे तथा मनोहर वाणी एवं सेवा-शुश्रूषासे अनिरुद्धजीका बड़ा सत्कार करती। ऊषाने अपने प्रेमसे उनके मनको अपने वशमें कर लिया। अनिरुद्धजी उस कन्याके अन्त:पुरमें छिपे रहकर अपने-आपको भूल गये। उन्हें इस बातका भी पता न चला कि मुझे यहाँ आये कितने दिन बीत गये ।। २५-२६ ।।

परीक्षित्‌ ! यदुकुमार अनिरुद्धजीके सहवाससे ऊषाका कुआँरपन नष्ट हो चुका था। उसके शरीरपर ऐसे चिह्न प्रकट हो गये, जो स्पष्ट इस बातकी सूचना दे रहे थे और जिन्हें किसी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता था। ऊषा बहुत प्रसन्न भी रहने लगी। पहरेदारोंने समझ लिया कि इसका किसी-न-किसी पुरुषसे सम्बन्ध अवश्य हो गया है। उन्होंने जाकर बाणासुरसे निवेदन किया— ‘राजन् ! हमलोग आपकी अविवाहिता राजकुमारीका जैसा रंग-ढंग देख रहे हैं, वह आपके कुलपर बट्टा लगानेवाला है ।। २७-२८ ।। प्रभो ! इसमें सन्देह नहीं कि हमलोग बिना क्रम टूटे, रात-दिन महलका पहरा देते रहते हैं। आपकी कन्याको बाहरके मनुष्य देख भी नहीं सकते। फिर भी वह कलङ्कित कैसे हो गयी ? इसका कारण हमारी समझमें नहीं आ रहा है।। २९ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



रविवार, 13 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ की सन्तति का वर्णन तथा

अनिरुद्ध के विवाह में रुक्मी का मारा जाना

 

श्रीशुक उवाच

वृतः स्वयंवरे साक्षादनङ्गोऽङ्गयुतस्तया

राज्ञः समेतान्निर्जित्य जहारैकरथो युधि २२

यद्यप्यनुस्मरन्वैरं रुक्मी कृष्णावमानितः

व्यतरद्भागिनेयाय सुतां कुर्वन्स्वसुः प्रियम् २३

रुक्मिण्यास्तनयां राजन्कृतवर्मसुतो बली

उपयेमे विशालाक्षीं कन्यां चारुमतीं किल २४

दौहित्रायानिरुद्धाय पौत्रीं रुक्म्याददाद्धरेः

रोचनां बद्धवैरोऽपि स्वसुः प्रियचिकीर्षया

जानन्नधर्मं तद्यौनं स्नेहपाशानुबन्धनः २५

तस्मिन्नभ्युदये राजन्रुक्मिणी रामकेशवौ

पुरं भोजकटं जग्मुः साम्बप्रद्युम्नकादयः २६

तस्मिन्निवृत्त उद्वाहे कालिङ्गप्रमुखा नृपाः

दृप्तास्ते रुक्मिणं प्रोचुर्बलमक्षैर्विनिर्जय २७

अनक्षज्ञो ह्ययं राजन्नपि तद्व्यसनं महत्

इत्युक्तो बलमाहूय तेनाक्षैर्रुक्म्यदीव्यत २८

शतं सहस्रमयुतं रामस्तत्राददे पणम्

तं तु रुक्म्यजयत्तत्र कालिङ्गः प्राहसद्बलम्

दन्तान्सन्दर्शयन्नुच्चैर्नामृष्यत्तद्धलायुधः २९

ततो लक्षं रुक्म्यगृह्णाद्ग्लहं तत्राजयद्बलः

जितवानहमित्याह रुक्मी कैतवमाश्रितः ३०

मन्युना क्षुभितः श्रीमान्समुद्र इव पर्वणि

जात्यारुणाक्षोऽतिरुषा न्यर्बुदं ग्लहमाददे ३१

तं चापि जितवान्रामो धर्मेण छलमाश्रितः

रुक्मी जितं मयात्रेमे वदन्तु प्राश्निका इति ३२

तदाब्रवीन्नभोवाणी बलेनैव जितो ग्लहः

धर्मतो वचनेनैव रुक्मी वदति वै मृषा ३३

तामनादृत्य वैदर्भो दुष्टराजन्यचोदितः

सङ्कर्षणं परिहसन्बभाषे कालचोदितः ३४

नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचराः

अक्षैर्दीव्यन्ति राजानो बाणैश्च न भवादृशाः ३५

रुक्मिणैवमधिक्षिप्तो राजभिश्चोपहासितः

क्रुद्धः परिघमुद्यम्य जघ्ने तं नृम्णसंसदि ३६

कलिङ्गराजं तरसा गृहीत्वा दशमे पदे

दन्तानपातयत्क्रुद्धो योऽहसद्विवृतैर्द्विजैः ३७

अन्ये निर्भिन्नबाहूरु शिरसो रुधिरोक्षिताः

राजानो दुद्रवुर्भीता बलेन परिघार्दिताः ३८

निहते रुक्मिणि श्याले नाब्रवीत्साध्वसाधु वा

रक्मिणीबलयो राजन्स्नेहभङ्गभयाद्धरिः ३९

ततोऽनिरुद्धं सह सूर्यया वरं

रथं समारोप्य ययुः कुशस्थलीम्

रामादयो भोजकटाद्दशार्हाः

सिद्धाखिलार्था मधुसूदनाश्रयाः ४०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! प्रद्युम्न जी मूर्तिमान् कामदेव थे। उनके सौन्दर्य और गुणोंपर रीझकर रुक्मवती ने स्वयंवर में उन्हीं को वरमाला पहना दी। प्रद्युम्रजीने युद्धमें अकेले ही वहाँ इकट्ठे हुए नरपतियों को जीत लिया और रुक्मवती को हर लाये ।। २२ ।। यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्णसे अपमानित होनेके कारण रुक्मीके हृदयकी क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई थी, वह अब भी उनसे वैर गाँठे हुए था, फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपने भानजे प्रद्युम्न को अपनी बेटी ब्याह दी ।। २३ ।। परीक्षित्‌ ! दस पुत्रोंके अतिरिक्त रुक्मिणीजीके एक परम सुन्दरी बड़े-बड़े नेत्रोंवाली कन्या थी। उसका नाम था चारुमती। कृतवर्माके पुत्र बलीने उसके साथ विवाह किया ।। २४ ।।

परीक्षित्‌ ! रुक्मीका भगवान्‌ श्रीकृष्ण के साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणीको प्रसन्न करनेके लिये उसने अपनी पौत्री रोचनाका विवाह रुक्मिणीके पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्धके साथ कर दिया। यद्यपि रुक्मी को इस बातका पता था कि इस प्रकारका विवाह-सम्बन्ध धर्मके अनुकूल नहीं है, फिर भी स्नेह-बन्धनमें बँधकर उसने ऐसा कर दिया।। २५ ।। परीक्षित्‌ ! अनिरुद्धके विवाहोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये भगवान्‌ श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगरमें पधारे ।। २६ ।। जब विवाहोत्सव निर्विघ्र समाप्त हो गया, तब कलिङ्गनरेश आदि घमंडी नरपतियोंने रुक्मीसे कहा कि तुम बलरामजीको पासोंके खेलमें जीत लो ।। २७ ।। राजन् ! बलरामजीको पासे डालने तो आते नहीं, परंतु उन्हें खेलनेका बहुत बड़ा व्यसन है।उन लोगोंके बहकानेसे रुक्मीने बलरामजीको बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा ।। २८ ।। बलरामजीने पहले सौ, फिर हजार और इसके बाद दस हजार मुहरोंका दाँव लगाया। उन्हें रुक्मीने जीत लिया। रुक्मीकी जीत होनेपर कलिङ्गनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहाका मारकर बलरामजीकी हँसी उड़ाने लगा। बलरामजीसे वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये ।। २९ ।। इसके बाद रुक्मीने एक लाख मुहरोंका दाँव लगाया। उसे बलरामजीने जीत लिया। परंतु रुक्मी धूर्ततासे यह कहने लगा कि मैंने जीता है।। ३० ।। इसपर श्रीमान् बलरामजी क्रोधसे तिलमिला उठे। उनके हृदयमें इतना क्षोभ हुआ, मानो पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार आ गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभावसे ही लाल-लाल थे, दूसरे अत्यन्त क्रोधके मारे वे और भी दहक उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरोंका दाँव रखा ।। ३१ ।। इस बार भी द्यूतनियमके अनुसार बलरामजीकी ही जीत हुई। परंतु रुक्मीने छल करके कहा—‘मेरी जीत है। इस विषयके विशेषज्ञ कलिङ्गनरेश आदि सभासद् इसका निर्णय कर दें।। ३२ ।। उस समय आकाशवाणीने कहा—‘यदि धर्मपूर्वक कहा जाय, तो बलरामजीने ही यह दाँव जीता है। रुक्मीका यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है।। ३३ ।। एक तो रुक्मीके सिरपर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओंने भी उसे उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणीपर कोई ध्यान न दिया और बलरामजीकी हँसी उड़ाते हुए कहा।। ३४ ।। बलरामजी ! आखिर आपलोग वन- वन भटकनेवाले ग्वाले ही तो ठहरे ! आप पासा खेलना क्या जानें ? पासों और बाणोंसे तो केवल राजालोग ही खेला करते हैं, आप-जैसे नहीं।। ३५ ।। रुक्मीके इस प्रकार आक्षेप और राजाओंके उपहास करनेपर बलरामजी क्रोधसे आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस माङ्गलिक सभामें ही रुक्मीको मार डाला ।। ३६ ।। पहले कलिङ्गनरेश दाँत दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंगमें भंग देखकर वहाँसे भागा; परंतु बलरामजी ने दस ही कदम पर उसे पकड़ लिया और क्रोधसे उसके दाँत तोड़ डाले ।। ३७ ।। बलरामजी ने अपने मुद्गरकी चोटसे दूसरे राजाओं की भी बाँह, जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खूनसे लथपथ और भयभीत होकर वहाँसे भागते बने ।। ३८ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह सोचकर कि बलरामजी का समर्थन करनेसे रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मीके वधको बुरा बतलानेसे बलरामजी रुष्ट होंगे, अपने साले रुक्मीकी मृत्युपर भला-बुरा कुछ भी न कहा ।। ३९ ।। इसके बाद अनिरुद्धजीका विवाह और शत्रुका वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जानेपर भगवान्‌के आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुलहिन रोचनाके साथ अनिरुद्धजीको श्रेष्ठ रथपर चढ़ाकर भोजकट नगरसे द्वारकापुरीको चले आये ।। ४० ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे अनिरुद्धविवाहे रुक्मिवधो नामैकषष्टितमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकसठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ की सन्तति का वर्णन तथा

अनिरुद्ध के विवाह में रुक्मी का मारा जाना

 

श्रीशुक उवाच

एकैकशस्ताः कृष्णस्य पुत्रान्दश दशाबलाः

अजीजनन्ननवमान्पितुः सर्वात्मसम्पदा १

गृहादनपगं वीक्ष्य राजपुत्र्योऽच्युतं स्थितम्

प्रेष्ठं न्यमंसत स्वं स्वं न तत्तत्त्वविदः स्त्रियः २

चार्वब्जकोशवदनायतबाहुनेत्र

सप्रेमहासरसवीक्षितवल्गुजल्पैः

सम्मोहिता भगवतो न मनो विजेतुं

स्वैर्विभ्रमैः समशकन्वनिता विभूम्नः ३

स्मायावलोकलवदर्शितभावहारि

भ्रूमण्डलप्रहितसौरतमन्त्रशौण्डैः

पत्न्यस्तु षोडशसहस्रमनङ्गबाणैर्

यस्येन्द्रियं विमथितुं करणैर्न शेकुः ४

इत्थं रमापतिमवाप्य पतिं स्त्रियस्ता

ब्रह्मादयोऽपि न विदुः पदवीं यदीयाम्

भेजुर्मुदाविरतमेधितयानुराग

हासावलोकनवसङ्गमलालसाद्यम् ५

प्रत्युद्गमासनवरार्हणपादशौच

ताम्बूलविश्रमणवीजनगन्धमाल्यैः

केशप्रसारशयनस्नपनोपहार्यैः

दासीशता अपि विभोर्विदधुः स्म दास्यम् ६

तासां या दशपुत्राणां कृष्णस्त्रीणां पुरोदिताः

अष्टौ महिष्यस्तत्पुत्रान्प्रद्युम्नादीन्गृणामि ते ७

चारुदेष्णः सुदेष्णश्च चारुदेहश्च वीर्यवान्

सुचारुश्चारुगुप्तश्च भद्रचारुस्तथापरः ८

चारुचन्द्रो विचारुश्च चारुश्च दशमो हरेः

प्रद्युम्नप्रमुखा जाता रुक्मिण्यां नावमाः पितुः ९

भानुः सुभानुः स्वर्भानुः प्रभानुर्भानुमांस्तथा

चन्द्र भानुर्बृहद्भानुरतिभानुस्तथाष्टमः १०

श्रीभानुः प्रतिभानुश्च सत्यभामात्मजा दश

साम्बः सुमित्रः पुरुजिच्छतजिच्च सहस्रजित् ११

विजयश्चित्रकेतुश्च वसुमान्द्रविडः क्रतुः

जाम्बवत्याः सुता ह्येते साम्बाद्याः पितृसम्मताः १२

वीरश्चन्द्रो ऽश्वसेनश्च चित्रगुर्वेगवान्वृषः

आमः शङ्कुर्वसुः श्रीमान्कुन्तिर्नाग्नजितेः सुताः १३

श्रुतः कविर्वृषो वीरः सुबाहुर्भद्र एकलः

शान्तिर्दर्शः पूर्णमासः कालिन्द्याः सोमकोऽवरः १४

प्रघोषो गात्रवान्सिंहो बलः प्रबल ऊर्ध्वगः

माद्र्याः पुत्रा महाशक्तिः सह ओजोऽपराजितः १५

वृको हर्षोऽनिलो गृध्रो वर्धनोऽन्नाद एव च

महाशः पावनो वह्निर्मित्रविन्दात्मजाः क्षुधिः १६

सङ्ग्रामजिद्बृहत्सेनः शूरः प्रहरणोऽरिजित्

जयः सुभद्रो भद्राया वाम आयुश्च सत्यकः १७

दीप्तिमांस्ताम्रतप्ताद्या रोहिण्यास्तनया हरेः

प्रद्युम्नाच्चानिरुद्धोऽभूद्रुक्मवत्यां महाबलः

पुत्र्यां तु रुक्मिणो राजन्नाम्ना भोजकटे पुरे १८

एतेषां पुत्रपौत्राश्च बभूवुः कोटिशो नृप

मातरः कृष्णजातीनां सहस्राणि च षोडश १९

 

श्रीराजोवाच

कथं रुक्म्यरिपुत्राय प्रादाद्दुहितरं युधि

कृष्णेन परिभूतस्तं हन्तुं रन्ध्रं प्रतीक्षते

एतदाख्याहि मे विद्वन्द्विषोर्वैवाहिकं मिथः २०

अनागतमतीतं च वर्तमानमतीन्द्रियम्

विप्रकृष्टं व्यवहितं सम्यक्पश्यन्ति योगिनः २१

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रत्येक पत्नीके गर्भसे दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए। वे रूप, बल आदि गुणोंमें अपने पिता भगवान्‌ श्रीकृष्णसे किसी बातमें कम न थे ।। १ ।। राजकुमारियाँ देखतीं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण हमारे महलसे कभी बाहर नहीं जाते। सदा हमारे ही पास बने रहते हैं। इससे वे यही समझतीं कि श्रीकृष्णको मैं ही सबसे प्यारी हूँ। परीक्षित्‌ ! सच पूछो तो वे अपने पति भगवान्‌ श्रीकृष्णका तत्त्वउनकी महिमा नहीं समझती थीं ।। २ ।। वे सुन्दरियाँ अपने आत्मानन्द में एकरस स्थित भगवान्‌ श्रीकृष्ण के कमल-कलीके समान सुन्दर मुख, विशाल बाहु, कर्णस्पर्शी नेत्र, प्रेमभरी मुसकान, रसमयी चितवन और मधुर वाणीसे स्वयं ही मोहित रहती थीं। वे अपने शृङ्गारसम्बन्धी हावभावोंसे उनके मनको अपनी ओर खींचनेमें समर्थ न हो सकीं ।। ३ ।। वे सोलह हजार से अधिक थीं। अपनी मन्द-मन्द मुसकान और तिरछी चितवनसे युक्त मनोहर भौंहोंके इशारेसे ऐसे प्रेमके बाण चलाती थीं, जो काम-कलाके भावोंसे परिपूर्ण होते थे, परंतु किसी भी प्रकारसे, किन्हीं साधनोंके द्वारा वे भगवान्‌ के मन एवं इन्द्रियोंमें चञ्चलता नहीं उत्पन्न कर सकीं ।। ४ ।। परीक्षित्‌ ! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान्‌ के वास्तविक स्वरूपको या उनकी प्राप्तिके मार्गको नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान्‌ श्रीकृष्णको उन स्त्रियोंने पतिके रूपमें प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्दकी अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागमकी लालसा आदिसे भगवान्‌ की सेवा करती रहती थीं ।। ५ ।। उनमेंसे सभी पत्नियोंके साथ सेवा करनेके लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं। फिर भी जब उनके महलमें भगवान्‌ पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसनपर बैठातीं, उत्तम सामग्रियोंसे उनकी पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलोंके हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकारके भोजन कराकर अपने हाथों भगवान्‌की सेवा करतीं ।। ६ ।।

परीक्षित्‌ ! मैं कह चुका हूँ कि भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रत्येक पत्नीके दस-दस पुत्र थे। उन रानियोंमें आठ पटरानियाँ थीं, जिनके विवाहका वर्णन मैं पहले कर चुका हूँ। अब उनके प्रद्युम्र आदि पुत्रोंका वर्णन करता हूँ ।। ७ ।। रुक्मिणीके गर्भसे दस पुत्र हुएप्रद्युम्र, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, पराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारु और दसवाँ चारु। ये अपने पिता भगवान्‌ श्रीकृष्णसे किसी बातमें कम न थे ।। ८-९ ।। सत्यभामाके भी दस पुत्र थेभानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान्, चन्द्रभानु, बृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु। जाम्बवतीके भी साम्ब आदि दस पुत्र थेसाम्ब, सुमित्र, पुरुजित्, शतजित्, सहस्रजित्, विजय, चित्रकेतु, वसुमान्, द्रविड और क्रतु। ये सब श्रीकृष्णको बहुत प्यारे थे ।। १०१२ ।। नाग्रजिती सत्याके भी दस पुत्र हुएवीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान्, वृष, आम, शङ्कु, वसु और परम तेजस्वी कुन्ति ।। १३ ।। कालिन्दीके दस पुत्र ये थेश्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शान्ति, दर्श, पूर्णमास और सबसे छोटा सोमक ।। १४ ।। मद्रदेशकी राजकुमारी लक्ष्मणाके गर्भसे प्रघोष, गात्रवान्, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजितका जन्म हुआ ।। १५ ।। मित्रविन्दा के पुत्र थेवृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महाश, पावन, वह्नि और क्षुधि ।। १६ ।। भद्राके पुत्र थेसंग्रामजित्, बृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित्, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक ।। १७ ।। इन पटरानियोंके अतिरिक्त भगवान्‌की रोहिणी आदि सोलह हजार एक सौ और भी पत्नियाँ थीं। उनके दीप्तिमान् और ताम्रतप्त आदि दस-दस पुत्र हुए। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नका मायावती रतिके अतिरिक्त भोजकट-नगरनिवासी रुक्मीकी पुत्री रुक्मवतीसे भी विवाह हुआ था। उसीके गर्भसे परम बलशाली अनिरुद्धका जन्म हुआ। परीक्षित्‌ ! श्रीकृष्णके पुत्रोंकी माताएँ ही सोलह हजारसे अधिक थीं। इसलिये उनके पुत्र-पौत्रोंकी संख्या करोड़ों तक पहुँच गयी ।। १८-१९ ।।

राजा परीक्षित्‌ ने पूछापरम ज्ञानी मुनीश्वर ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने रणभूमिमें रुक्मीका बड़ा तिरस्कार किया था। इसलिये वह सदा इस बातकी घातमें रहता था कि अवसर मिलते ही श्रीकृष्णसे उसका बदला लूँ और उनका काम तमाम कर डालूँ। ऐसी स्थितिमें उसने अपनी कन्या रुक्मवती अपने शत्रुके पुत्र प्रद्युम्नजीको कैसे ब्याह दी ? कृपा करके बतलाइये ! दो शत्रुओंमेंश्रीकृष्ण और रुक्मीमें फिरसे परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ ? ।। २० ।। आपसे कोई बात छिपी नहीं है। क्योंकि योगीजन भूत, भविष्य और वर्तमानकी सभी बातें भलीभाँति जानते हैं। उनसे ऐसी बातें भी छिपी नहीं रहतीं; जो इन्द्रियोंसे परे हैं, बहुत दूर हैं अथवा बीचमें किसी वस्तुकी आड़ होनेके कारण नहीं दीखतीं ।। २१ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

  



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