॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
द्विविद का
उद्धार
कदर्थीकृत्य बलवान् विप्रचक्रे मदोद्धतः ।
तं तस्याविनयं दृष्ट्वा देशांश्च तदुपद्रुतान् ॥ १६ ॥
क्रुद्धो मुसलमादत्त हलं चारिजिघांसया ।
द्विविदोऽपि महावीर्यः शालमुद्यम्य पाणिना ॥ १७ ॥
अभ्येत्य तरसा तेन बलं मूर्धन्यताडयत् ।
तं तु सङ्कर्षणो मूर्ध्नि पतन्तमचलो यथा ॥ १८ ॥
प्रतिजग्राह बलवान् सुनन्देनाहनच्च तम् ।
मूषलाहतमस्तिष्को विरेजे रक्तधारया ॥ १९ ॥
गिरिर्यथा गैरिकया प्रहारं नानुचिन्तयन् ।
पुनरन्यं समुत्क्षिप्य कृत्वा निष्पत्रमोजसा ॥ २० ॥
तेनाहनत् सुसङ्क्रुद्धः तं बलः शतधाच्छिनत् ।
ततोऽन्येन रुषा जघ्ने तं चापि शतधाच्छिनत् ॥ २१ ॥
एवं युध्यन् भगवता भग्ने भग्ने पुनः पुनः ।
आकृष्य सर्वतो वृक्षान् निर्वृक्षं अकरोद् वनम् ॥ २२ ॥
ततोऽमुञ्चच्छिलावर्षं बलस्योपर्यमर्षितः ।
तत्सर्वं चूर्णयामास लीलया मुसलायुधः ॥ २३ ॥
स बाहू तालसङ्काशौ मुष्टीकृत्य कपीश्वरः ।
आसाद्य रोहिणीपुत्रं ताभ्यां वक्षस्यरूरुजत् ॥ २४ ॥
यादवेन्द्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुसललाङ्गले ।
जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्धः सोऽपतद् रुधिरं वमन् ॥ २५ ॥
चकम्पे तेन पतता सटङ्कः सवनस्पतिः ।
पर्वतः कुरुशार्दूल वायुना नौरिवाम्भसि ॥ २६ ॥
जयशब्दो नमःशब्दः साधु साध्विति चाम्बरे ।
सुरसिद्धमुनीन्द्राणां आसीत् कुसुमवर्षिणाम् ॥ २७ ॥
एवं निहत्य द्विविदं जगद्व्यतिकरावहम् ।
संस्तूयमानो भगवान् जनैः स्वपुरमाविशत् ॥ २८ ॥
परीक्षित् !
जब इस प्रकार बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजीको नीचा दिखाने तथा उनका घोर
तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई
देखकर और उसके द्वारा सताये हुए देशोंकी दुर्दशापर विचार करके उस शत्रुको मार
डालनेकी इच्छासे क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान् था। उसने
अपने एक ही हाथसे शालका पेड़ उखाड़ लिया और बड़े वेगसे दौडक़र बलरामजीके सिरपर उसे
दे मारा। भगवान् बलराम पर्वतकी तरह अविचल खड़े रहे। उन्होंने अपने हाथसे उस
वृक्षको सिरपर गिरते-गिरते पकड़ लिया और अपने सुनन्द नामक मूसल से उसपर प्रहार
किया। मूसल लगनेसे द्विविदका मस्तक फट गया और उससे खून की धारा बहने लगी। उस समय
उसकी ऐसी शोभा हुई, मानो किसी पर्वतसे गेरूका सोता बह रहा
हो। परंतु द्विविदने अपने सिर फटने की कोई परवा नहीं की। उसने कुपित होकर एक दूसरा
वृक्ष उखाड़ा, उसे झाड़-झूडक़र बिना पत्तेका कर दिया और फिर
उससे बलरामजी पर बड़े जोरका प्रहार किया। बलरामजी ने उस वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े
कर दिये। इसके बाद द्विविद ने बड़े क्रोधसे दूसरा वृक्ष चलाया, परंतु भगवान् बलरामजी ने उसे भी शतधा छिन्न-भिन्न कर दिया ॥ १६—२१ ॥ इस प्रकार वह उनसे युद्ध करता रहा। एक वृक्षके टूट जानेपर दूसरा
वृक्ष उखाड़ता और उससे प्रहार करनेकी चेष्टा करता। इस तरह सब ओरसे वृक्ष
उखाड़-उखाड़ कर लड़ते-लड़ते उसने सारे वनको ही वृक्षहीन कर दिया ॥ २२ ॥ वृक्ष न
रहे, तब द्विविदका क्रोध और भी बढ़ गया तथा वह बहुत चिढक़र
बलरामजीके उपर बड़ी-बड़ी चट्टानोंकी वर्षा करने लगा। परंतु भगवान् बलरामजी ने
अपने मूसल से उन सभी चट्टानों को खेल-खेलमें ही चकनाचूर कर दिया ॥ २३ ॥ अन्तमें
कपिराज द्विविद अपनी ताडक़े समान लंबी बाँहोंसे घूँसा बाँधकर बलरामजीकी ओर झपटा और
पास जाकर उसने उनकी छातीपर प्रहार किया ॥ २४ ॥ अब यदुवंशशिरोमणि बलरामजीने हल और
मूसल अलग रख दिये तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथोंसे उसके जत्रुस्थान (हँसली) पर
प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरतीपर गिर पड़ा ॥ २५ ॥ परीक्षित् !
आँधी आनेपर जैसे जलमें डोंगी डगमगाने लगती है, वैसे ही उसके
गिरनेसे बड़े-बड़े वृक्षों और चोटियोंके साथ सारा पर्वत हिल गया ॥ २६ ॥ आकाशमें
देवतालोग ‘जय-जय’, सिद्ध लोग ‘नमो नम:’ और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि ‘साधु-साधु’ के नारे लगाने और बलरामजीपर फूलोंकी
वर्षा करने लगे ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! द्विविद ने जगत् में बड़ा उपद्रव मचा रखा था,
अत: भगवान् बलरामजीने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे
द्वारकापुरी में लौट आये। उस समय सभी पुरजन-परिजन भगवान् बलराम की प्रशंसा कर रहे
थे ॥ २८ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विविदवधो नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः
॥ ६७ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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