रविवार, 20 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

द्विविद का उद्धार

 

कदर्थीकृत्य बलवान् विप्रचक्रे मदोद्धतः ।

तं तस्याविनयं दृष्ट्वा देशांश्च तदुपद्रुतान् ॥ १६ ॥

क्रुद्धो मुसलमादत्त हलं चारिजिघांसया ।

द्विविदोऽपि महावीर्यः शालमुद्यम्य पाणिना ॥ १७ ॥

अभ्येत्य तरसा तेन बलं मूर्धन्यताडयत् ।

तं तु सङ्कर्षणो मूर्ध्नि पतन्तमचलो यथा ॥ १८ ॥

प्रतिजग्राह बलवान् सुनन्देनाहनच्च तम् ।

मूषलाहतमस्तिष्को विरेजे रक्तधारया ॥ १९ ॥

गिरिर्यथा गैरिकया प्रहारं नानुचिन्तयन् ।

पुनरन्यं समुत्क्षिप्य कृत्वा निष्पत्रमोजसा ॥ २० ॥

तेनाहनत् सुसङ्क्रुद्धः तं बलः शतधाच्छिनत् ।

ततोऽन्येन रुषा जघ्ने तं चापि शतधाच्छिनत् ॥ २१ ॥

एवं युध्यन् भगवता भग्ने भग्ने पुनः पुनः ।

आकृष्य सर्वतो वृक्षान् निर्वृक्षं अकरोद् वनम् ॥ २२ ॥

ततोऽमुञ्चच्छिलावर्षं बलस्योपर्यमर्षितः ।

तत्सर्वं चूर्णयामास लीलया मुसलायुधः ॥ २३ ॥

स बाहू तालसङ्काशौ मुष्टीकृत्य कपीश्वरः ।

आसाद्य रोहिणीपुत्रं ताभ्यां वक्षस्यरूरुजत् ॥ २४ ॥

यादवेन्द्रोऽपि तं दोर्भ्यां त्यक्त्वा मुसललाङ्गले ।

जत्रावभ्यर्दयत्क्रुद्धः सोऽपतद् रुधिरं वमन् ॥ २५ ॥

चकम्पे तेन पतता सटङ्कः सवनस्पतिः ।

पर्वतः कुरुशार्दूल वायुना नौरिवाम्भसि ॥ २६ ॥

जयशब्दो नमःशब्दः साधु साध्विति चाम्बरे ।

सुरसिद्धमुनीन्द्राणां आसीत् कुसुमवर्षिणाम् ॥ २७ ॥

एवं निहत्य द्विविदं जगद्व्यतिकरावहम् ।

संस्तूयमानो भगवान् जनैः स्वपुरमाविशत् ॥ २८ ॥

 

परीक्षित्‌ ! जब इस प्रकार बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजीको नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताये हुए देशोंकी दुर्दशापर विचार करके उस शत्रुको मार डालनेकी इच्छासे क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान् था। उसने अपने एक ही हाथसे शालका पेड़ उखाड़ लिया और बड़े वेगसे दौडक़र बलरामजीके सिरपर उसे दे मारा। भगवान्‌ बलराम पर्वतकी तरह अविचल खड़े रहे। उन्होंने अपने हाथसे उस वृक्षको सिरपर गिरते-गिरते पकड़ लिया और अपने सुनन्द नामक मूसल से उसपर प्रहार किया। मूसल लगनेसे द्विविदका मस्तक फट गया और उससे खून की धारा बहने लगी। उस समय उसकी ऐसी शोभा हुई, मानो किसी पर्वतसे गेरूका सोता बह रहा हो। परंतु द्विविदने अपने सिर फटने की कोई परवा नहीं की। उसने कुपित होकर एक दूसरा वृक्ष उखाड़ा, उसे झाड़-झूडक़र बिना पत्तेका कर दिया और फिर उससे बलरामजी पर बड़े जोरका प्रहार किया। बलरामजी ने उस वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इसके बाद द्विविद ने बड़े क्रोधसे दूसरा वृक्ष चलाया, परंतु भगवान्‌ बलरामजी ने उसे भी शतधा छिन्न-भिन्न कर दिया ॥ १६२१ ॥ इस प्रकार वह उनसे युद्ध करता रहा। एक वृक्षके टूट जानेपर दूसरा वृक्ष उखाड़ता और उससे प्रहार करनेकी चेष्टा करता। इस तरह सब ओरसे वृक्ष उखाड़-उखाड़ कर लड़ते-लड़ते उसने सारे वनको ही वृक्षहीन कर दिया ॥ २२ ॥ वृक्ष न रहे, तब द्विविदका क्रोध और भी बढ़ गया तथा वह बहुत चिढक़र बलरामजीके उपर बड़ी-बड़ी चट्टानोंकी वर्षा करने लगा। परंतु भगवान्‌ बलरामजी ने अपने मूसल से उन सभी चट्टानों को खेल-खेलमें ही चकनाचूर कर दिया ॥ २३ ॥ अन्तमें कपिराज द्विविद अपनी ताडक़े समान लंबी बाँहोंसे घूँसा बाँधकर बलरामजीकी ओर झपटा और पास जाकर उसने उनकी छातीपर प्रहार किया ॥ २४ ॥ अब यदुवंशशिरोमणि बलरामजीने हल और मूसल अलग रख दिये तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथोंसे उसके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरतीपर गिर पड़ा ॥ २५ ॥ परीक्षित्‌ ! आँधी आनेपर जैसे जलमें डोंगी डगमगाने लगती है, वैसे ही उसके गिरनेसे बड़े-बड़े वृक्षों और चोटियोंके साथ सारा पर्वत हिल गया ॥ २६ ॥ आकाशमें देवतालोग जय-जय’, सिद्ध लोग नमो नम:और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि साधु-साधुके नारे लगाने और बलरामजीपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! द्विविद ने जगत् में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अत: भगवान्‌ बलरामजीने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारकापुरी में लौट आये। उस समय सभी पुरजन-परिजन भगवान्‌ बलराम की प्रशंसा कर रहे थे ॥ २८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विविदवधो नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६७ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सड़सठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

द्विविद का उद्धार

 

श्रीराजोवाच -

भुयोऽहं श्रोतुमिच्छामि रामस्याद्‌भुतकर्मणः ।

 अनन्तस्याप्रमेयस्य यदन्यत् कृतवान् प्रभुः ॥ १ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

नरकस्य सखा कश्चिद् द्विविदो नाम वानरः ।

 सुग्रीवसचिवः सोऽथ भ्राता मैन्दस्य वीर्यवान् ॥ २ ॥

 सख्युः सोऽपचितिं कुर्वन् वानरो राष्ट्रविप्लवम् ।

 पुरग्रामाकरान् घोषान् अदहद् वह्निमुत्सृजन् ॥ ३ ॥

 क्वचित् स शैलानुत्पाट्य तैर्देशान् समचूर्णयत् ।

 आनर्तान् सुतरामेव यत्रास्ते मित्रहा हरिः ॥ ४ ॥

 क्वचित् समुद्रमध्यस्थो दोर्भ्यां उत्क्षिप्य तज्जलम् ।

 देशान् नागायुतप्राणो वेलाकूले न्यमज्जयत् ॥ ५ ॥

 आश्रमान् ऋषिमुख्यानां कृत्वा भग्नवनस्पतीन् ।

 अदूषयत् शकृत् मूत्रैः अग्नीन् वैतानिकान् खलः ॥ ६ ॥

 पुरुषान् योषितो दृप्तः क्ष्माभृद्द्रोणीगुहासु सः ।

 निक्षिप्य चाप्यधाच्छैलैः पेशस्क्कास्कारीव कीटकम् ॥ ७ ॥

 एवं देशान् विप्रकुर्वन् दूषयंश्च कुलस्त्रियः ।

 श्रुत्वा सुललितं गीतं गिरिं रैवतकं ययौ ॥ ८ ॥

 तत्रापश्यद् यदुपतिं रामं पुष्करमालिनम् ।

 सुदर्शनीयसर्वाङ्गं ललनायूथमध्यगम् ॥ ९ ॥

 गायन्तं वारुणीं पीत्वा मदविह्वललोचनम् ।

 विभ्राजमानं वपुषा प्रभिन्नमिव वारणम् ॥ १० ॥

 दुष्टः शाखामृगः शाखां आरूढः कंपयन् द्रुमान् ।

 चक्रे किलकिलाशब्दं आत्मानं संप्रदर्शयन् ॥ ११ ॥

 तस्य धार्ष्ट्यं कपेर्वीक्ष्य तरुण्यो जातिचापलाः ।

 हास्यप्रिया विजहसुः बलदेवपरिग्रहाः ॥ १२ ॥

 ता हेलयामास कपिः भूक्षेपैः संमुखादिभिः ।

 दर्शयन् स्वगुदं तासां रामस्य च निरीक्षितः ॥ १३ ॥

 तं ग्राव्णा प्राहरत् क्रुद्धो बलः प्रहरतां वरः ।

 स वञ्चयित्वा ग्रावाणं मदिराकलशं कपिः ॥ १४ ॥

 गृहीत्वा हेलयामास धूर्तस्तं कोपयन् हसन् ।

 निर्भिद्य कलशं दुष्टो वासांस्यास्फालयद् बलम् ॥ १५ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवान्‌ बलरामजी सर्वशक्तिमान् एवं सृष्टि-प्रलय की सीमा से परे, अनन्त हैं। उनका स्वरूप, गुण, लीला आदि मन, बुद्धि और वाणीके विषय नहीं हैं। उनकी एक-एक लीला लोकमर्यादा से विलक्षण है, अलौकिक है। उन्होंने और जो कुछ अद्भुत कर्म किये हों, उन्हें मैं फिर सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! द्विविद नाम का एक वानर था। वह भौमासुर का सखा, सुग्रीव का मन्त्री और मैन्द का शक्तिशाली भाई था ॥ २ ॥ जब उसने सुना कि श्रीकृष्णने भौमासुर को मार डाला, तब वह अपने मित्रकी मित्रताके ऋणसे उऋण होनके लिये राष्ट्र-विप्लव करनेपर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गाँवों, खानों और अहीरोंकी बस्तियोंमें आग लगाकर उन्हें जलाने लगा ॥ ३ ॥ कभी वह बड़े-बड़े पहाड़ोंको उखाडक़र उनसे प्रान्त-के-प्रान्त चकनाचूर कर देता और विशेष करके ऐसा काम वह आनर्त (काठियावाड़) देशमें ही करता था। क्योंकि उसके मित्रको मारनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण उसी देशमें निवास करते थे ॥ ४ ॥ द्विविद वानरमें दस हजार हाथियोंका बल था। कभी-कभी वह दुष्ट समुद्रमें खड़ा हो जाता और हाथोंसे इतना जल उछालता कि समुद्रतटके देश डूब जाते ॥ ५ ॥ वह दुष्ट बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंके आश्रमोंकी सुन्दर-सुन्दर लता-वनस्पतियोंको तोड़-मरोडक़र चौपट कर देता और उनके यज्ञसम्बन्धी अग्रि-कुण्डोंमें मलमूत्र डालकर अग्रियोंको दूषित कर देता ॥ ६ ॥ जैसे भृङ्गी नामका कीड़ा दूसरे कीड़ोंको ले जाकर अपने बिलमें बंद कर देता है, वैसे ही वह मदोन्मत्त वानर स्त्रियों और पुरुषोंको ले जाकर पहाड़ोंकी घाटियों तथा गुफाओंमें डाल देता। फिर बाहरसे बड़ी-बड़ी चट्टानें रखकर उनका मुँह बंद कर देता ॥ ७ ॥ इस प्रकार वह देशवासियोंका तो तिरस्कार करता ही, कुलीन स्त्रियोंको भी दूषित कर देता था। एक दिन वह दुष्ट सुललित संगीत सुनकर रैवतक पर्वतपर गया ॥ ८ ॥

वहाँ उसने देखा कि यदुवंशशिरोमणि बलरामजी सुन्दर-सुन्दर युवतियोंके झुंडमें विराजमान हैं। उनका एक-एक अङ्ग अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय है और वक्ष:स्थलपर कमलोंकी माला लटक रही है ॥ ९ ॥ वे मधुपान करके मधुर संगीत गा रहे थे और उनके नेत्र आनन्दोन्मादसे विह्वल हो रहे थे। उनका शरीर इस प्रकार शोभायमान हो रहा था, मानो कोई मदमत्त गजराज हो ॥ १० ॥ वह दुष्ट वानर वृक्षोंकी शाखाओंपर चढ़ जाता और उन्हें झकझोर देता । कभी स्त्रियोंके सामने आकर किलकारी भी मारने लगता ॥ ११ ॥ युवती स्त्रियाँ स्वभावसे ही चञ्चल और हास-परिहासमें रुचि रखनेवाली होती हैं। बलरामजीकी स्त्रियाँ उस वानरकी ढिठाई देखकर हँसने लगीं ॥ १२ ॥ अब वह वानर भगवान्‌ बलरामजीके सामने ही उन स्त्रियोंकी अवहेलना करने लगा। वह उन्हें कभी अपनी गुदा दिखाता तो कभी भौंहें मटकाता, फिर कभी-कभी गरज-तरजकर मुँह बनाता, घुडक़ता ॥ १३ ॥ वीरशिरोमणि बलरामजी उसकी यह चेष्टा देखकर क्रोधित हो गये। उन्होंने उसपर पत्थरका एक टुकड़ा फेंका। परंतु द्विविद ने उससे अपनेको बचा लिया और झपटकर मधुकलश उठा लिया तथा बलरामजीकी अवहेलना करने लगा। उस धूर्तने मधुकलशको तो फोड़ ही डाला, स्त्रियोंके वस्त्र भी फाड़ डाले और अब वह दुष्ट हँस-हँसकर बलरामजीको क्रोधित करने लगा ॥ १४-१५ ॥

 

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शनिवार, 19 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छाछठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छाछठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

पौण्ड्रक और काशिराज का उद्धार

 

शिरः पतितमालोक्य राजद्वारे सकुण्डलम्

किमिदं कस्य वा वक्त्रमिति संशिशिरे जनाः २५

राज्ञः काशीपतेर्ज्ञात्वा महिष्यः पुत्रबान्धवाः

पौराश्च हा हता राजन्नाथ नाथेति प्रारुदन् २६

सुदक्षिणस्तस्य सुतः कृत्वा संस्थाविधिं पतेः

निहत्य पितृहन्तारं यास्याम्यपचितिं पितुः २७

इत्यात्मनाभिसन्धाय सोपाध्यायो महेश्वरम्

सुदक्षिणोऽर्चयामास परमेण समाधिना २८

प्रीतोऽविमुक्ते भगवांस्तस्मै वरमदाद्विभुः

पितृहन्तृवधोपायं स वव्रे वरमीप्सितम् २९

दक्षिणाग्निं परिचर ब्राह्मणैः सममृत्विजम्

अभिचारविधानेन स चाग्निः प्रमथैर्वृतः ३०

साधयिष्यति सङ्कल्पमब्रह्मण्ये प्रयोजितः

इत्यादिष्टस्तथा चक्रेकृष्णायाभिचरन्व्रती ३१

ततोऽग्निरुत्थितः कुण्डान्मूर्तिमानतिभीषणः

तप्तताम्रशिखाश्मश्रुरङ्गारोद्गारिलोचनः ३२

दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीदण्ड कठोरास्यः स्वजिह्वया

आलिहन्सृक्वणी नग्नो विधुन्वंस्त्रिशिखं ज्वलत् ३३

पद्भ्यां तालप्रमाणाभ्यां कम्पयन्नवनीतलम्

सोऽयधावद्वृतो भूतैर्द्वारकां प्रदहन्दिशः ३४

तमाभिचारदहनमायान्तं द्वारकौकसः

विलोक्य तत्रसुः सर्वे वनदाहे मृगा यथा ३५

अक्षैः सभायां क्रीडन्तं भगवन्तं भयातुराः

त्राहि त्राहि त्रिलोकेश वह्नेः प्रदहतः पुरम् ३६

श्रुत्वा तज्जनवैक्लव्यं दृष्ट्वा स्वानां च साध्वसम्

शरण्यः सम्प्रहस्याह मा भैष्टेत्यवितास्म्यहम् ३७

सर्वस्यान्तर्बहिःसाक्षी कृत्यां माहेश्वरीं विभुः

विज्ञाय तद्विघातार्थं पार्श्वस्थं चक्रमादिशत् ३८

तत्सूर्यकोटिप्रतिमं सुदर्शनं

जाज्वल्यमानं प्रलयानलप्रभम्

स्वतेजसा खं ककुभोऽथ रोदसी

चक्रं मुकुन्दास्त्रं अथाग्निमार्दयत् ३९

कृत्यानलः प्रतिहतः स रथान्गपाणेर्

अस्त्रौजसा स नृप भग्नमुखो निवृत्तः

वाराणसीं परिसमेत्य सुदक्षिणं तं

सर्त्विग्जनं समदहत्स्वकृतोऽभिचारः ४०

चक्रं च विष्णोस्तदनुप्रविष्टं

वाराणसीं साट्टसभालयापणाम्

सगोपुराट्टालककोष्ठसङ्कुलां

सकोशहस्त्यश्वरथान्नशालिनीम् ४१

दग्ध्वा वाराणसीं सर्वां विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम्

भूयः पार्श्वमुपातिष्ठत्कृष्णस्याक्लिष्टकर्मणः ४२

य एनं श्रावयेन्मर्त्य उत्तमःश्लोकविक्रमम्

समाहितो वा शृणुयात्सर्वपापैः प्रमुच्यते ४३

 

इधर काशीमें राजमहलके दरवाजेपर एक कुण्डलमण्डित मुण्ड गिरा देखकर लोग तरह- तरहका सन्देह करने लगे और सोचने लगे कि यह क्या है, यह किसका सिर है ?’ ।। २५ ।। जब यह मालूम हुआ कि वह तो काशिनरेश का ही सिर है, तब रानियाँ, राजकुमार, राजपरिवारके लोग तथा नागरिक रो-रोकर विलाप करने लगे—‘हा नाथ ! हा राजन् ! हाय-हय ! हमारा तो सर्वनाश हो गया।। २६ ।। काशिनरेशका पुत्र था सुदक्षिण। उसने अपने पिताका अन्त्येष्टि-संस्कार करके मन-ही-मन यह निश्चय किया कि अपने पितृघातीको मारकर ही मैं पिताके ऋणसे ऊऋण हो सकूँगा। निदान वह अपने कुलपुरोहित और आचार्योंके साथ अत्यन्त एकाग्रतासे भगवान्‌ शङ्करकी आराधना करने लगा ।। २७-२८ ।। काशी नगरीमें उसकी आराधनासे प्रसन्न होकर भगवान्‌ शङ्करने वर देनेको कहा। सुदक्षिणने यह अभीष्ट वर माँगा कि मुझे मेरे पितृघातीके वधका उपाय बतलाइये ।। २९ ।। भगवान्‌ शङ्करने कहा—‘तुम ब्राह्मणोंके साथ मिलकर यज्ञके देवता ऋत्विग्भूत दक्षिणाग्नि की अभिचारविधिसे आराधना करो। इससे वह अग्रि प्रमथगणोंके साथ प्रकट होकर यदिब्राह्मणोंके अभक्तपर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हारा संकल्प सिद्ध करेगा।भगवान्‌ शङ्करकी ऐसी आज्ञा प्राप्त करके सुदक्षिणने अनुष्ठानके उपयुक्त नियम ग्रहण किये और वह भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये अभिचार (मारणका पुरश्चरण) करने लगा ।। ३०-३१ ।। अभिचार पूर्ण होते ही यज्ञकुण्डसे अति भीषण अग्नि मूर्तिमान् होकर प्रकट हुआ। उसके केश और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबेके समान लाल-लाल थे। आँखोंसे अंगारे बरस रहे थे ।। ३२ ।। उग्र दाढ़ों और टेढ़ी भृकुटियोंके कारण उसके मुखसे क्रूरता टपक रही थी। वह अपनी जीभसे मुँहके दोनों कोने चाट रहा था। शरीर नंग-धड़ंग था। हाथमें त्रिशूल लिये हुए था, जिसे वह बार-बार घुमाता जाता था और उसमेंसे अग्रिकी लपटें निकल रही थीं ।। ३३ ।। ताडक़े पेडक़े समान बड़ी-बड़ी टाँगें थीं। वह अपने वेगसे धरतीको कँपाता हुआ और ज्वालाओंसे दसों दिशाओंको दग्ध करता हुआ द्वारकाकी ओर दौड़ा और बात-की-बातमें द्वारकाके पास जा पहुँचा। उसके साथ बहुत-से भूत भी थे ।। ३४ ।। उस अभिचारकी आगको बिलकुल पास आयी हुई देख द्वारकावासी वैसे ही डर गये, जैसे जंगलमें आग लगनेपर हरिन डर जाते हैं ।। ३५ ।। वे लोग भयभीत होकर भगवान्‌के पास दौड़े हुए आये; भगवान्‌ उस समय सभामें चौसर खेल रहे थे, उन लोगोंने भगवान्‌से प्रार्थना की—‘तीनों लोकोंके एकमात्र स्वामी ! द्वारका नगरी इस आगसे भस्म होना चाहती है। आप हमारी रक्षा कीजिये। आपके सिवा इसकी रक्षा और कोई नहीं कर सकता।। ३६ ।। शरणागतवत्सल भगवान्‌ने देखा कि हमारे स्वजन भयभीत हो गये हैं और पुकार-पुकारकर विकलताभरे स्वरसे हमारी प्रार्थना कर रहे हैं; तब उन्होंने हँसकर कहा— ‘डरो मत, मैं तुमलोगोंकी रक्षा करूँगा।। ३७ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सबके बाहर-भीतरकी जाननेवाले हैं। वे जान गये कि यह काशीसे चली हुई माहेश्वरी कृत्या है। उन्होंने उसके प्रतीकारके लिये अपने पास ही विराजमान चक्रसुदर्शनको आज्ञा दी ।। ३८ ।। भगवान्‌ मुकुन्दका प्यारा अस्त्र सुदर्शनचक्र कोटि-कोटि सूर्योंके समान तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान है। उसके तेजसे आकाश, दिशाएँ और अन्तरिक्ष चमक उठे और अब उसने उस अभिचार-अग्रिको कुचल डाला ।। ३९ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णके अस्त्र सुदर्शनचक्रकी शक्तिसे कृत्यारूप आगका मुँह टूट-फूट गया, उसका तेज नष्ट हो गया, शक्ति कुण्ठित हो गयी और वह वहाँसे लौटकर काशी आ गयी तथा उसने ऋत्विज् आचार्योंके साथ सुदक्षिणको जलाकर भस्म कर दिया। इस प्रकार उसका अभिचार उसीके विनाशका कारण हुआ ।। ४० ।। कृत्याके पीछे-पीछे सुदर्शनचक्र भी काशी पहुँचा। काशी बड़ी विशाल नगरी थी। वह बड़ी-बड़ी अटारियों, सभाभवन, बाजार, नगरद्वार, द्वारोंके शिखर, चहारदीवारियों, खजाने, हाथी, घोड़े, रथ और अन्नोंके गोदामसे सुसज्जित थी। भगवान्‌ श्रीकृष्णके सुदर्शनचक्रने सारी काशी को जलाकर भस्म कर दिया और फिर वह परमानन्दमयी लीला करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास लौट आया ।। ४१-४२ ।।

जो मनुष्य पुण्यकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्ण के इस चरित्र को एकाग्रता के साथ सुनता या सुनाता है, वह सारे पापोंसे छूट जाता है ।। ४३ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पौण्ड्रकादिवधो नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छाछठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छाछठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

पौण्ड्रक और काशिराज का उद्धार

 

श्रीशुक उवाच

नन्दव्रजं गते रामे करूषाधिपतिर्नृप

वासुदेवोऽहमित्यज्ञो दूतं कृष्णाय प्राहिणोत् १

त्वं वासुदेवो भगवानवतीऋनो जगत्पतिः

इति प्रस्तोभितो बालैर्मेन आत्मानमच्युतम् २

दूतं च प्राहिणोन्मन्दः कृष्णायाव्यक्तवर्त्मने

द्वारकायां यथा बालो नृपो बालकृतोऽबुधः ३

दूतस्तु द्वारकामेत्य सभायामास्थितं प्रभुम्

कृष्णं कमलपत्राक्षं राजसन्देशमब्रवीत् ४

वासुदेवोऽवतीर्णोहमेक एव न चापरः

भूतानामनुकम्पार्थं त्वं तु मिथ्याभिधां त्यज ५

यानि त्वमस्मच्चिह्नानि मौढ्याद्बिभर्षि सात्वत

त्यक्त्वैहि मां त्वं शरणं नो चेद्देहि ममाहवम् ६

 

श्रीशुक उवाच

कत्थनं तदुपाकर्ण्य पौण्ड्रकस्याल्पमेधसः

उग्रसेनादयः सभ्या उच्चकैर्जहसुस्तदा ७

उवाच दूतं भगवान्परिहासकथामनु

उत्स्रक्ष्ये मूढ चिह्नानि यैस्त्वमेवं विकत्थसे ८

मुखं तदपिधायाज्ञ कङ्कगृध्रवटैर्वृतः

शयिष्यसे हतस्तत्र भविता शरणं शुनाम् ९

इति दूतस्तमाक्षेपं स्वामिने सर्वमाहरत्

कृष्णोऽपि रथमास्थाय काशीमुपजगाम ह १०

पौण्ड्रकोऽपि तदुद्योगमुपलभ्य महारथः

अक्षौहिणीभ्यां संयुक्तो निश्चक्राम पुराद्द्रुतम् ११

तस्य काशीपतिर्मित्रं पार्ष्णिग्राहोऽन्वयान्नृप

अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत्पौण्ड्रकं हइः! १२

शङ्खार्यसिगदाशार्ङ्ग श्रीवत्साद्युपलक्षितम्

बिभ्राणं कौस्तुभमणिं वनमालाविभूषितम् १३

कौशेयवाससी पीते वसानं गरुडध्वजम्

अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् १४

दृष्ट्वा तमात्मनस्तुल्यं वेषं कृत्रिममास्थितम्

यथा नटं रङ्गगतं विजहास भृशं हरीः १५

शुलैर्गदाभिः परिघैः शक्त्यृष्टिप्रासतोमरैः

असिभिः पट्टिशैर्बाणैः प्राहरन्नरयो हरिम् १६

कृष्णस्तु तत्पौण्ड्रककाशिराजयोर्

बलं गजस्यन्दनवाजिपत्तिमत्

गदासिचक्रेषुभिरार्दयद्भृशं

यथा युगान्ते हुतभुक्पृथक्प्रजाः १७

आयोधनं तद्र थवाजिकुञ्जर

द्विपत्खरोष्ट्रैररिणावखण्डितैः

बभौ चितं मोदवहं मनस्विना-

माक्रीडनं भूतपतेरिवोल्बणम् १८

अथाह पौण्ड्रकं शौरिर्भो भो पौण्ड्रक यद्भवान्

दूतवाक्येन मामाह तान्यस्त्रण्युत्सृजामि ते १९

त्याजयिष्येऽभिधानं मे यत्त्वयाज्ञ मृषा धृतम्

व्रजामि शरणं तेऽद्य यदि नेच्छामि संयुगम् २०

इति क्षिप्त्वा शितैर्बाणैर्विरथीकृत्य पौण्ड्रकम्

शिरोऽवृश्चद्रथाङ्गेन वज्रेणेन्द्रो यथा गिरेः २१

तथा काशीपतेः कायाच्छिर उत्कृत्य पत्रिभिः

न्यपातयत्काशीपुर्यां पद्मकोशमिवानिलः २२

एवं मत्सरिणम्हत्वा पौण्ड्रकं ससखं हरिः

द्वारकामाविशत्सिद्धैर्गीयमानकथामृतः २३

स नित्यं भगवद्ध्यान प्रध्वस्ताखिलबन्धनः

बिभ्राणश्च हरे राजन्स्वरूपं तन्मयोऽभवत् २४

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ बलरामजी नन्दबाबा के व्रजमें गये हुए थे, तब पीछेसे करूष देशके अज्ञानी राजा पौण्ंड्रक ने भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि भगवान्‌ वासुदेव मैं हूँ।। १ ।। मूर्खलोग उसे बहकाया करते थे कि आप ही भगवान्‌ वासुदेव हैं और जगत् की रक्षाके लिये पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं।इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपनेको ही भगवान्‌ मान बैठा ।। २ ।। जैसे बच्चे आपसमें खेलते समय किसी बालकको ही राजा मान लेते हैं और वह राजाकी तरह उनके साथ व्यवहार करने लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ंड्रक ने अचिन्त्यगति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीला और रहस्य न जानकर द्वारकामें उनके पास दूत भेज दिया ।। ३ ।। पौण्ंड्रक का दूत द्वारका आया और राजसभामें बैठे हुए कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णको उसने अपने राजा का यह सन्देश कह सुनाया।। ४ ।। एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है। प्राणियोंपर कृपा करनेके लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो ।। ५ ।। यदुवंशी ! तुमने मूर्खतावश मेरे चिह्न धारण कर रखे हैं। उन्हें छोडक़र मेरी शरणमें आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझसे युद्ध करो।। ६ ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मन्दमति पौण्ंड्रककी यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद् जोर-जोरसे हँसने लगे ।। ७ ।। उन लोगोंकी हँसी समाप्त होनेके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने दूतसे कहा—‘तुम जाकर अपने राजासे कह देना कि रे मूढ़ ! मैं अपने चक्र आदि चिह्न यों नहीं छोडूँगा। इन्हें मैं तुझ पर छोडूंगा और केवल तुझपर ही नहीं, तेरे उन सब साथियों पर भी, जिनके बहकाने से तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख ! तू अपना मुँह छिपाकरऔंधे मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियों से घिरकर सो जायगा, और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तों की शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथकर खा जायँगे ।। ८-९ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ का यह तिरस्कारपूर्ण संवाद लेकर पौण्ंड्रक का दूत अपने स्वामी के पास गया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी रथपर सवार होकर काशीपर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करूषका राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराजके पास रहता था) ।। १० ।।

भगवान्‌ श्रीकृष्णके आक्रमणका समाचार पाकर महारथी पौण्ंड्रक भी दो अक्षौहिणी सेनाके साथ शीघ्र ही नगरसे बाहर निकल आया ।। ११ ।। काशीका राजा पौण्ंड्रकका मित्र था। अत: वह भी उसकी सहायता करनेके लिये तीन अक्षौहिणी सेनाके साथ उसके पीछे-पीछे आया। परीक्षित्‌ ! अब भगवान्‌ श्रीकृष्णने पौण्ंड्रकको देखा ।। १२ ।। पौण्ंड्रकने भी शङ्ख, चक्र, तलवार, गदा, शार्ङ्गधनुष और श्रीवत्सचिह्न आदि धारणकर रखे थे। उसके वक्ष:स्थलपर बनावटी कौस्तुभमणि और वनमाला भी लटक रही थी ।। १३ ।। उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथकी ध्वजापर गरुडक़ा चिह्न भी लगा रखा था। उसके सिरपर अमूल्य मुकुट था और कानोंमें मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे ।। १४ ।। उसका यह सारा-का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंचपर अभिनय करनेके लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँसने लगे ।। १५ ।। अब शत्रुओंने भगवान्‌ श्रीकृष्णपर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पट्टिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे प्रहार किया ।। १६ ।। प्रलयके समय जिस प्रकार आग सभी प्रकारके प्राणियोंको जला देती है, वैसे ही भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी गदा, तलवार, चक्र और बाण आदि शस्त्रास्त्रों से पौण्ंड्रक तथा काशिराज के हाथी, रथ, घोड़े और पैदलकी चतुरङ्गिणी सेनाको तहस-नहस कर दिया ।। १७ ।। वह रणभूमि भगवान्‌ के चक्रसे खण्ड-खण्ड हुए रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य, गधे और ऊँटोंसे पट गयी। उस समय ऐसा मालूम हो रहा था, मानो वह भूतनाथ शङ्कर की भयङ्कर क्रीडास्थली हो। उसे देख-देखकर शूरवीरों का उत्साह और भी बढ़ रहा था ।। १८ ।।

अब भगवान्‌ श्रीकृष्णने पौण्ंड्रक से कहा—‘रे पौण्ंड्रक ! तूने दूतके द्वारा कहलाया था कि मेरे चिह्न अस्त्र-शस्त्रादि छोड़ दो। सो अब मैं उन्हें तुझपर छोड़ रहा हूँ ।। १९ ।। तूने झूठमूठ मेरा नाम रख लिया है। अत: मूर्ख ! अब मैं तुझसे उन नामोंको भी छुड़ाकर रहूँगा। रही तेरे शरणमें आनेकी बात; सो यदि मैं तुझसे युद्ध न कर सकूँगा तो तेरी शरण ग्रहण करूँगा।। २० ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार पौण्ंड्रक का तिरस्कार करके अपने तीखे बाणोंसे उसके रथको तोड़-फोड़ डाला और चक्रसे उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे इन्द्रने अपने वज्रसे पहाडक़ी चोटियोंको उड़ा दिया था ।। २१ ।। इसी प्रकार भगवान्‌ ने अपने बाणोंसे काशिनरेशका सिर भी धड़से ऊपर उड़ाकर काशीपुरीमें गिरा दिया, जैसे वायु कमलका पुष्प गिरा देती है ।। २२ ।। इस प्रकार अपने साथ डाह करनेवाले पौण्ंड्रकको और उसके सखा काशिनरेशको मारकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी राजधानी द्वारकामें लौट आये। उस समय सिद्धगण भगवान्‌की अमृतमयी कथाका गान कर रहे थे ।। २३ ।। परीक्षित्‌ ! पौण्ंड्रक भगवान्‌ के रूपका, चाहे वह किसी भावसे हो, सदा चिन्तन करता रहता था। इससे उसके सारे बन्धन कट गये। वह भगवान्‌ का बनावटी वेष धारण किये रहता था, इससे बार-बार उसीका स्मरण होनेके कारण वह भगवान्‌ के सारूप्यको ही प्राप्त हुआ ।। २४ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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