बुधवार, 23 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और उनके पास

जरासन्ध के कैदी राजाओं के दूत का आना

 

तत्रैकः पुरुषो राजन् आगतोऽपूर्वदर्शनः ।

 विज्ञापितो भगवते प्रतीहारैः प्रवेशितः ॥ २२ ॥

 स नमस्कृत्य कृष्णाय परेशाय कृताञ्जलिः ।

 राज्ञामावेदयद् दुखं जरासन्धनिरोधजम् ॥ २३ ॥

 ये च दिग्विजये तस्य सन्नतिं न ययुर्नृपाः ।

 प्रसह्य रुद्धास्तेनासन् अयुते द्वे गिरिव्रजे ॥ २४ ॥

 

 राजान ऊचुः -

कृष्ण कृष्णाप्रमेयात्मन् प्रपन्नभयभञ्जन ।

 वयं त्वां शरणं यामो भवभीताः पृथग्धियः ॥ २५ ॥

लोको विकर्मनिरतः कुशले प्रमत्तः

     कर्मण्ययं त्वदुदिते भवदर्चने स्वे ।

 यस्तावदस्य बलवानिह जीविताशां

     सद्यश्छिनत्त्यनिमिषाय नमोऽस्तु तस्मै ॥ २६ ॥

 लोके भवाञ्जगदिनः कलयावतीर्णः

     सद् रक्षणाय खलनिग्रहणाय चान्यः ।

 कश्चित् त्वदीयमतियाति निदेशमीश

     किं वा जनः स्वकृतमृच्छति तन्न विद्मः ॥ २७ ॥

 स्वप्नायितं नृपसुखं परतंत्रमीश

     शश्वद्‌भयेन मृतकेन धुरं वहामः ।

 हित्वा तदात्मनि सुखं त्वदनीहलभ्यं

     क्लिश्यामहेऽतिकृपणास्तव माययेह ॥ २८ ॥

 तन्नो भवान् प्रणतशोकहराङ्‌घ्रियुग्मो

     बद्धान् वियुङ्क्ष्व मगधाह्वयकर्मपाशात् ।

 यो भूभुजोऽयुतमतङ्गजवीर्यमेको

     बिभ्रद् रुरोध भवने मृगराडिवावीः ॥ २९ ॥

 यो वै त्वया द्विनवकृत्व उदात्तचक्र

     भग्नो मृधे खलु भवन्तमनन्तवीर्यम् ।

 जित्वा नृलोकनिरतं सकृदूढदर्पो

     युष्मत्प्रजा रुजति नोऽजित तद्विधेहि ॥ ३० ॥

 

 दूत उवाच -

इति मागधसंरुद्धा भवद्दर्शनकाङ्‌क्षिणः ।

 प्रपन्नाः पादमूलं ते दीनानां शं विधीयताम् ॥ ३१ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

राजदूते ब्रुवत्येवं देवर्षिः परमद्युतिः ।

 बिभ्रत् पिङ्गजटाभारं प्रादुरासीद् यथा रविः ॥ ३२ ॥

 तं दृष्ट्वा भगवान् कृष्णः सर्वलोकेश्वरेश्वरः ।

 ववन्द उत्थितः शीर्ष्णा ससभ्यः सानुगो मुदा ॥ ३३ ॥

 सभाजयित्वा विधिवत् कृतासनपरिग्रहम् ।

 बभाषे सुनृतैर्वाक्यैः श्रद्धया तर्पयन् मुनिम् ॥ ३४ ॥

 अपि स्विदद्य लोकानां त्रयाणां अकुतोभयम् ।

 ननु भूयान् भगवतो लोकान् पर्यटतो गुणः ॥ ३५ ॥

 न हि तेऽविदितं किञ्चित् लोकेषु ईश्वर कर्तृषु ।

 अथ पृच्छामहे युष्मान् पाण्डवानां चिकीर्षितम् ॥ ३६ ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

दृष्टा माया ते बहुशो दुरत्यया

     माया विभो विश्वसृजश्च मायिनः ।

 भूतेषु भूमंश्चरतः स्वशक्तिभिः

     वह्नेरिवच्छन्नरुचो न मेऽद्‌भुतम् ॥ ३७ ॥

 तवेहितं कोऽर्हति साधु वेदितुं

     स्वमाययेदं सृजतो नियच्छतः ।

 यद् विद्यमानात् मतयावभासते

     तस्मै नमस्ते स्वविलक्षणात्मने ॥ ३८ ॥

 जीवस्य यः संसरतो विमोक्षणं

     न जानतोऽनर्थवहाच्छरीरतः ।

 लीलावतारैः स्वयशः प्रदीपकं

     प्राज्वालयत्त्वा तमहं प्रपद्ये ॥ ३९ ॥

अथाप्याश्रावये ब्रह्म नरलोकविडम्बनम् ।

 राज्ञः पैतृष्वसेयस्य भक्तस्य च चिकीर्षितम् ॥ ४० ॥

 यक्ष्यति त्वां मखेन्द्रेण राजसूयेन पाण्डवः ।

 पारमेष्ठ्यकामो नृपतिः तद्‌भवाननुमोदताम् ॥ ४१ ॥

 तस्मिन् देव क्रतुवरे भवन्तं वै सुरादयः ।

 दिदृक्षवः समेष्यन्ति राजानश्च यशस्विनः ॥ ४२ ॥

 श्रवणात् कीर्तनाद् ध्यानात् पूयन्तेऽन्तेवसायिनः ।

 तव ब्रह्ममयस्येश किमुतेक्षाभिमर्शिनः ॥ ४३ ॥

यस्यामलं दिवि यशः प्रथितं रसायां

     भूमौ च ते भुवनमङ्गल दिग्वितानम् ।

 मन्दाकिनीति दिवि भोगवतीति चाधो

     गङ्गेति चेह चरणाम्बु पुनाति विश्वम् ॥ ४४ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

तत्र तेष्वात्मपक्षेष्व गृण्हत्सु विजिगीषया ।

 वाचः पेशैः स्मयन् भृत्यमुद्धवं प्राह केशवः ॥ ४५ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

त्वं हि नः परमं चक्षुः सुहृन् मंत्रार्थतत्त्ववित् ।

 अथात्र ब्रूह्यनुष्ठेयं श्रद्दध्मः करवाम तत् ॥ ४६ ॥

 इत्युपामंत्रितो भर्त्रा सर्वज्ञेनापि मुग्धवत् ।

 निदेशं शिरसाऽऽधाय उद्धवः प्रत्यभाषत ॥ ४७ ॥

 

एक दिनकी बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वारपर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान्‌ को उसके आने की सूचना देकर उसे सभाभवनमें उपस्थित किया ॥ २२ ॥ उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णको हाथ जोडक़र नमस्कार किया और उन राजाओंका, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजयके समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्धके बंदी बननेका दु:ख श्रीकृष्णके सामने निवेदन किया॥ २३-२४ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप मन और वाणीके अगोचर हैं। जो आपकी शरणमें आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो ! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं ॥ २५ ॥ भगवन् ! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मोंमें फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥ आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओंके साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतोंकी रक्षा करें और दुष्टोंको दण्ड दें। ऐसी अवस्थामें प्रभो ! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञाके विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझमें नहीं आती। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूपमेंउसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दु:ख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हमलोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेशसे मुक्त कीजिये ॥ २७ ॥ प्रभो! हम जानते हैं कि राजापनेका सुख प्रारब्धके अधीन एवं विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुखके समान अत्यन्त तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुखको भोगनेवाला यह शरीर भी एक प्रकारसे मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकारके भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसीके द्वारा जगत्के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अन्त:करणके निष्कामभाव और निस्सङ्कल्प स्थितिसे प्राप्त होनेवाले आत्मसुखका परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी मायाके फंदेमें फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं ॥ २८ ॥ भगवन् ! आपके चरणकमल शरणागत पुरुषोंके समस्त शोक और मोहोंको नष्ट कर देनेवाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मोंके बन्धनसे हमें छुड़ाइये। प्रभो ! यह अकेला ही दस हजार हाथियोंकी शक्ति रखता है और हमलोगोंको उसी प्रकार बंदी बनाये हुए है, जैसे सिंह भेड़ोंको घेर रखे ॥ २९ ॥ चक्रपाणे ! आपने अठारह बार जरासन्धसे युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान-मर्दन करके उसे छोड़ दिया। परन्तु एक बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। फिर भी मनुष्योंका-सा आचरण करते आप स्वयं विज्ञानानन्दघन ब्रह्म हैं। आपके श्रवण, कीर्तन और ध्यान करनेमात्रसे अन्त्यज भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जो आपका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ ४३ ॥ त्रिभुवनमङ्गल ! आपकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओंमें छा रही है तथा स्वर्ग, पृथ्वी और पातालमें व्याप्त हो रही है; ठीक वैसे ही, जैसे आपकी चरणामृतधारा स्वर्गमें मन्दाकिनी, पातालमें भोगवती और मत्र्यलोकमें गङ्गाके नामसे प्रवाहित होकर सारे विश्वको पवित्र कर रही है ॥ ४४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! सभामें जितने यदुवंशी बैठे थे, वे सब इस बातके लिये अत्यन्त उत्सुक हो रहे थे कि पहले जरासन्धपर चढ़ाई करके उसे जीत लिया जाय। अत: उन्हें नारदजीकी बात पसंद न आयी। तब ब्रह्मा आदिके शासक भगवान्‌ श्रीकृष्णने तनिक मुसकराकर बड़ी मीठी वाणीमें उद्धवजीसे कहा॥ ४५ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘उद्धव ! तुम मेरे हितैषी सुहृद् हो। शुभ सम्मति देनेवाले और कार्यके तत्त्वको भलीभाँति समझनेवाले हो, इसीलिये हम तुम्हें अपना उत्तम नेत्र मानते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि इस विषयमें हमें क्या करना चाहिये। तुम्हारी बातपर हमारी श्रद्धा है। इसलिये हम तुम्हारी सलाहके अनुसार ही काम करेंगे॥ ४६ ॥ जब उद्धवजीने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होनेपर भी अनजान की तरह सलाह पूछ रहे हैं, तब वे उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बोले ॥ ४७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे भगवद्यानविचारे नाम सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी नित्यचर्या और उनके पास

जरासन्ध के कैदी राजाओं के दूत का आना

 

श्रीशुक उवाच -

अथोषस्युपवृत्तायां कुक्कुटान् कूजतोऽशपन् ।

 गृहीतकण्ठ्यः पतिभिः भाधव्यो विरहातुराः ॥ १ ॥

 वयांस्यरूरुवन् कृष्णं बोधयन्तीव वन्दिनः ।

 गायत्स्वलिष्वनिद्राणि मन्दारवनवायुभिः ॥ २ ॥

 मुहूर्तं तं तु वैदर्भी नामृष्यद् अतिशोभनम् ।

 परिरम्भणविश्लेषात् प्रियबाह्वन्तरं गता ॥ ३ ॥

 ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय वार्युपस्पृश्य माधवः ।

 दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ॥ ४ ॥

एकं स्वयंज्योतिरनन्यमव्ययं

     स्वसंस्थया नित्यनिरस्तकल्मषम् ।

 ब्रह्माख्यमस्योद्‌भवनाशहेतुभिः

     स्वशक्तिभिर्लक्षितभावनिर्वृतिम् ॥ ५ ॥

 अथाप्लुतोऽम्भस्यमले यथाविधि

     क्रियाकलापं परिधाय वाससी ।

 चकार सन्ध्योपगमादि सत्तमो

     हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग्यतः ॥ ६ ॥

उपस्थायार्कमुद्यन्तं तर्पयित्वात्मनः कलाः ।

 देवान् ऋषीन् पितॄन् वृद्धान् विप्रानभ्यर्च्य चात्मवान् ॥ ७ ॥

 धेनूनां रुक्मश्रृङ्गीणां साध्वीनां मौक्तिकस्रजाम् ।

 पयस्विनीनां गृष्टीनां सवत्सानां सुवाससाम् ॥ ८ ॥

 ददौ रूप्यखुराग्राणां क्षौमाजिनतिलैः सह ।

 अलङ्कृतेभ्यो विप्रेभ्यो बद्वं बद्वं दिने दिने ॥ ९ ॥

 गोविप्रदेवतावृद्ध गुरून् भूतानि सर्वशः ।

 नमस्कृत्यात्मसंभूतीः मङ्गलानि समस्पृशत् ॥ १० ॥

 आत्मानं भूषयामास नरलोकविभूषणम् ।

 वासोभिर्भूषणैः स्वीयैः दिव्यस्रग् अनुलेपनैः ॥ ११ ॥

 अवेक्ष्याज्यं तथाऽऽदर्शं गोवृषद्विजदेवताः ।

 कामांश्च सर्ववर्णानां पौरान्तःपुरचारिणाम् ।

 प्रदाप्य प्रकृतीः कामैः प्रतोष्य प्रत्यनन्दत ॥ १२ ॥

 संविभज्याग्रतो विप्रान् स्रक्‌ताम्बूलानुलेपनैः ।

 सुहृदः प्रकृतीर्दारान् उपायुङ्क्त ततः स्वयम् ॥ १३ ॥

 तावत् सूत उपानीय स्यन्दनं परमाद्‌भुतम् ।

 सुग्रीवाद्यैर्हयैर्युक्तं प्रणम्यावस्थितोऽग्रतः ॥ १४ ॥

 गृहीत्वा पाणिना पाणी सारथेस्तमथारुहत् ।

 सात्यक्युद्धवसंयुक्तः पूर्वाद्रिमिव भास्करः ॥ १५ ॥

 ईक्षितोऽन्तःपुरस्त्रीणां सव्रीडप्रेमवीक्षितैः ।

 कृच्छ्राद् विसृष्टो निरगात् जातहासो हरन् मनः ॥ १६ ॥

 सुधर्माख्यां सभां सर्वैः वृष्णिभिः परिवारितः ।

 प्राविशद् यन्निविष्टानां न सन्त्यङ्ग षडूर्मयः ॥ १७ ॥

तत्रोपविष्टः परमासने विभुः

     बभौ स्वभासा ककुभोऽवभासयन् ।

 वृतो नृसिंहैर्यदुभिर्यदूत्तमो

     यथोडुराजो दिवि तारकागणैः ॥ १८ ॥

तत्रोपमंत्रिणो राजन् नानाहास्यरसैर्विभुम् ।

 उपतस्थुर्नटाचार्या नर्तक्यस्ताण्डवैः पृथक् ॥ १९ ॥

 मृदङ्गवीणामुरज वेणुतालदरस्वनैः ।

 ननृतुर्जगुस्तुष्टुवुश्च सूतमागधवन्दिनः ॥ २० ॥

 तत्राहुर्ब्राह्मणाः केचित् आसीना ब्रह्मवादिनः ।

 पूर्वेषां पुण्ययशसां राज्ञां चाकथयन् कथाः ॥ २१ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब सबेरा होने लगता, कुक्कुट (मुरगे) बोलने लगते, तब वे श्रीकृष्ण-पत्नियाँ, जिनके कण्ठमें श्रीकृष्णने अपनी भुजा डाल रखी है, उनके विछोहकी आशङ्का से व्याकुल हो जातीं और उन मुरगोंको कोसने लगतीं ॥ १ ॥ उस समय पारिजातकी सुगन्धसे सुवासित भीनी-भीनी वायु बहने लगती। भौंरे तालस्वरसे अपनी सङ्गीतकी तान छेड़ देते। पक्षियोंकी नींद उचट जाती और वे वंदीजनोंकी भाँति भगवान्‌ श्रीकृष्णको जगानेके लिये मधुर स्वरसे कलरव करने लगते ॥ २ ॥ रुक्मिणीजी अपने प्रियतमके भुजपाशसे बँधी रहनेपर भी आलिङ्गन छूट जानेकी आशङ्कासे अत्यन्त सुहावने और पवित्र ब्राह्ममुहूर्तको भी असह्य समझने लगती थीं ॥ ३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्राह्ममुहूर्तमें ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूपका ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठता था ॥ ४ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌का वह आत्मस्वरूप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित एक, अखण्ड है। क्योंकि उसमें किसी प्रकारकी उपाधि या उपाधिके कारण होनेवाला अन्य वस्तुका अस्तित्व नहीं है। और यही कारण है कि वह अविनाशी सत्य है। जैसे चन्द्रमा-सूर्य आदि नेत्र-इन्द्रियके द्वारा और नेत्र-इन्द्रिय चन्द्रमा-सूर्य आदिके द्वारा प्रकाशित होती है, वैसे वह आत्म- स्वरूप दूसरेके द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश है। इसका कारण यह है कि अपने स्वरूपमें ही सदा-सर्वदा और कालकी सीमाके परे भी एकरस स्थित रहनेके कारण अविद्या उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती। इसीसे प्रकाश्य-प्रकाशकभाव उसमें नहीं है। जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और नाशकी कारणभूता ब्रह्मशक्ति, विष्णुशक्ति और रुद्रशक्तियोंके द्वारा केवल इस बातका अनुमान हो सकता है कि वह स्वरूप एकरस सत्तारूप और आनन्द-स्वरूप है। उसीको समझानेके लिये ब्रह्मनामसे कहा जाता है। भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने उसी आत्मस्वरूपका प्रतिदिन ध्यान करते ॥ ५ ॥ इसके बाद वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जलमें स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढक़र यथाविधि नित्यकर्म सन्ध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्रीका जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषोंके पात्र आदर्श जो हैं ॥ ६ ॥ इसके बाद सूर्योदय होनेके समय सूर्योपस्थान करते और अपने कलास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरोंका तर्पण करते। फिर कुलके बड़े-बूढ़ों और ब्राह्मणोंकी विधिपूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधारू, पहले-पहल ब्यायी हुई, बछड़ोंवाली सीधी-शान्त गौओंका दान करते। उस समय उन्हें सुन्दर वस्त्र और मोतियोंकी माला पहना दी जाती । सींगमें सोना और खुरोंमें चाँदी मढ़ दी जाती । वे ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित करके रेशमी वस्त्र, मृगचर्म और तिलके साथ प्रतिदिन तेरह हजार चौरासी गौएँ इस प्रकार दान करते ॥ ७९ ॥ तदनन्तर अपनी विभूतिरूप गौ, ब्राह्मण, देवता, कुलके बड़े-बूढ़े, गुरुजन और समस्त प्राणियोंको प्रणाम करके माङ्गलिक वस्तुओंका स्पर्श करते ॥ १० ॥ परीक्षित्‌ ! यद्यपि भगवान्‌के शरीरका सहज सौन्दर्य ही मनुष्य-लोकका अलङ्कार है, फिर भी वे अपने पीताम्बरादि दिव्य वस्त्र, कौस्तुभादि आभूषण, पुष्पोंके हार और चन्दनादि दिव्य अङ्गरागसे अपनेको आभूषित करते ॥ ११ ॥ इसके बाद वे घी और दर्पणमें अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राह्मण और देव-प्रतिमाओंका दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्त:पुरमें रहनेवाले चारों वर्णोंके लोगोंकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी) प्रजाकी कामनापूर्ति करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सबको प्रसन्न देखकर स्वयं बहुत ही आनन्दित होते ॥ १२ ॥ वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन और अङ्गराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राह्मण, स्वजन- सम्बन्धी, मन्त्री और रानियोंको बाँट देते; और उनसे बची हुई स्वयं अपने काममें लाते ॥ १३ ॥ भगवान्‌ यह सब करते होते, तबतक दारुक नामका सारथि सुग्रीव आदि घोड़ोंसे जुता हुआ अत्यन्त अद्भुत रथ ले आता और प्रणाम करके भगवान्‌ के सामने खड़ा हो जाता ॥ १४ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण सात्यकि और उद्धवजीके साथ अपने हाथसे सारथिका हाथ पकडक़र रथपर सवार होतेठीक वैसे ही जैसे भुवनभास्कर भगवान्‌ सूर्य उदयाचलपर आरूढ़ होते हैं ॥ १५ ॥ उस समय रनिवासकी स्त्रियाँ लज्जा एवं प्रेमसे भरी चितवनसे उन्हें निहारने लगतीं और बड़े कष्टसे उन्हें विदा करतीं। भगवान्‌ मुसकराकर उनके चित्तको चुराते हुए महलसे निकलते ॥ १६ ॥

परीक्षित्‌ ! तदनन्तर भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त यदुवंशियोंके साथ सुधर्मा नामकी सभामें प्रवेश करते। उस सभाकी ऐसी महिमा है कि जो लोग उस सभामें जा बैठते हैं, उन्हें भूख-प्यास, शोक- मोह और जरा मृत्युये छ: ऊर्मियाँ नहीं सतातीं ॥ १७ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण सब रानियोंसे अलग-अलग विदा होकर एक ही रूपमें सुधर्मा-सभामें प्रवेश करते और वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासनपर विराज जाते। उनकी अङ्गकान्ति से दिशाएँ प्रकाशित होती रहतीं। उस समय यदुवंशी वीरोंके बीचमें यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ऐसी शोभा होती, जैसे आकाशमें तारोंसे घिरे हुए चन्द्रदेव शोभायमान होते हैं ॥ १८ ॥ परीक्षित्‌ ! सभामें विदूषकलोग विभिन्न प्रकारके हास्य- विनोदसे, नटाचार्य अभिनयसे और नर्तकियाँ कलापूर्ण नृत्योंसे अलग-अलग अपनी टोलियोंके साथ भगवान्‌की सेवा करतीं ॥ १९ ॥ उस समय मृदङ्ग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शङ्ख बजने लगते और सूत, मागध तथा वंदीजन नाचते-गाते और भगवान्‌ की स्तुति करते ॥ २० ॥ कोई-कोई व्याख्याकुशल ब्राह्मण वहाँ बैठकर वेदमन्त्रों की व्याख्या करते और कोई पूर्वकालीन पवित्रकीर्ति नरपतियोंके चरित्र कह-कहकर सुनाते ॥ २१ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



मंगलवार, 22 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— उनहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

देवर्षि नारदजी का भगवान्‌ की गृहचर्या देखना

 

ततोऽन्यदाविशद्‌ गेहं कृष्णपत्‍न्याः स नारदः ।

 योगेश्वरेश्वरस्याङ्ग योगमायाविवित्सया ॥ १९ ॥

 दीव्यन्तमक्षैस्तत्रापि प्रियया चोद्धवेन च ।

 पूजितः परया भक्त्या प्रत्युत्थानासनादिभिः ॥ २० ॥

 पृष्टश्चाविदुषेवासौ कदाऽऽयातो भवानिति ।

 क्रियते किं नु पूर्णानां अपूर्णैरस्मदादिभिः ॥ २१ ॥

 अथापि ब्रूहि नो ब्रह्मन् जन्मैतच्छोभनं कुरु ।

 स तु विस्मित उत्थाय तूष्णीमन्यदगाद्‌ गृहम् ॥ २२ ॥

 तत्राप्यचष्ट गोविन्दं लालयन्तं सुतान् शिशून् ।

 ततोऽन्यस्मिन्गृहेऽपश्यन् मज्जनाय कृतोद्यमम् ॥ २३ ॥

 जुह्वन्तं च वितानाग्नीन् यजन्तं पञ्चभिर्मखैः ।

 भोजयन्तं द्विजान् क्वापि भुञ्जानमवशेषितम् ॥ २४ ॥

 क्वापि सन्ध्यामुपासीनं जपन्तं ब्रह्म वाग्यतम् ।

 एकत्र चासिचर्माभ्यां चरन्तमसिवर्त्मसु ॥ २५ ॥

 अश्वैर्गजै रथैः क्वापि विचरन्तं गदाग्रजम् ।

 क्वचिच्छयानं पर्यङ्के स्तूयमानं च वन्दिभिः ॥ २६ ॥

 मंत्रयन्तं च कस्मिंश्चित् मंत्रिभिश्चोद्धवादिभिः ।

 जलक्रीडारतं क्वापि वारमुख्याबलावृतम् ॥ २७ ॥

 कुत्रचिद्द्विजमुख्येभ्यो ददतं गाः स्वलङ्कृताः ।

 इतिहासपुराणानि श्रृण्वन्तं मङ्गलानि च ॥ २८ ॥

 हसन्तं हासकथया कदाचित् प्रियया गृहे ।

 क्वापि धर्मं सेवमानं अर्थकामौ च कुत्रचित् ॥ २९ ॥

 ध्यायन्तमेकमासीनं पुरुषं प्रकृतेः परम् ।

 शुश्रूषन्तं गुरून् क्वापि कामैर्भोगैः सपर्यया ॥ ३० ॥

 कुर्वन्तं विग्रहं कैश्चित् सन्धिं चान्यत्र केशवम् ।

 कुत्रापि सह रामेण चिन्तयन्तं सतां शिवम् ॥ ३१ ॥

 पुत्राणां दुहितॄणां च काले विध्युपयापनम् ।

 दारैर्वरैस्तत्सदृशैः कल्पयन्तं विभूतिभिः ॥ ३२ ॥

 प्रस्थापनोपनयनैः अपत्यानां महोत्सवान् ।

 वीक्ष्य योगेश्वरेशस्य येषां लोका विसिस्मिरे ॥ ३३ ॥

 यजन्तं सकलान् देवान् क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः ।

 पूर्तयन्तं क्वचिद् धर्मं कूर्पाराममठादिभिः ॥ ३४ ॥

 चरन्तं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम् ।

 घ्नन्तं तत्र पशून् मेध्यान् परीतं यदुपुङ्गवैः ॥ ३५ ॥

 अव्यक्तलिङ्गं प्रकृतिषु अन्तःपुरगृहादिषु ।

 क्वचिच्चरन्तं योगेशं तत्तद्‌भावबुभुत्सया ॥ ३६ ॥

 अथोवाच हृषीकेशं नारदः प्रहसन्निव ।

 योगमायोदयं वीक्ष्य मानुषीं ईयुषो गतिम् ॥ ३७ ॥

 विदाम योगमायास्ते दुर्दर्शा अपि मायिनाम् ।

 योगेश्वरात्मन् निर्भाता भवत्पादनिषेवया ॥ ३८ ॥

 अनुजानीहि मां देव लोकांस्ते यशसाऽऽप्लुतान् ।

 पर्यटामि तवोद्‌गायन् लीला भुवनपावनीम् ॥ ३९ ॥

 

 श्रीभगवानुवाच -

ब्रह्मन्धन्नस्य वक्ताहं कर्ता तदनुमोदिता ।

 तच्छिक्षयन्लोकमिमं आस्थितः पुत्र मा खिदः ॥ ४० ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

इत्याचरन्तं सद्धर्मान् पावनान् गृहमेधिनाम् ।

 तमेव सर्वगेहेषु सन्तमेकं ददर्श ह ॥ ४१ ॥

 कृष्णस्यानन्तवीर्यस्य योगमायामहोदयम् ।

 मुहुर्दृष्ट्वा ऋषिरभूद् विस्मितो जातकौतुकः ॥ ४२ ॥

 इत्यर्थकामधर्मेषु कृष्णेन श्रद्धितात्मना ।

 सम्यक् सभाजितः प्रीतः तमेवानुस्मरन् ययौ ॥ ४३ ॥

एवं मनुष्यपदवीमनुवर्तमानो

     नारायणोऽखिलभवाय गृहीतशक्तिः ।

 रेमेऽङ्ग षोडशसहस्रवराङ्गनानां

     सव्रीडसौहृदनिरीक्षणहासजुष्टः ॥ ४४ ॥

 यानीह विश्वविलयोद्‌भववृत्तिहेतुः

     कर्माण्यनन्यविषयाणि हरीश्चकार

 यस्त्वङ्ग गायति श्रृणोत्यनुमोदते वा

     भक्तिर्भवेद्‌भगवति ह्यपवर्गमार्गे ॥ ४५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इसके बाद देवर्षि नारदजी योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी योगमायाका रहस्य जाननेके लिये उनकी दूसरी पत्नीके महलमें गये ॥ १९ ॥ वहाँ उन्होंने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया और उद्धवजी के साथ चौसर खेल रहे हैं। वहाँ भी भगवान्‌ ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसनपर बैठाया और विविध सामग्रियों द्वारा बड़ी भक्तिसे उनकी अर्चा-पूजा की ॥ २० ॥ इसके बाद भगवान्‌ ने नारदजीसे अनजान की तरह पूछा—‘आप यहाँ कब पधारे ! आप तो परिपूर्ण आत्मारामआप्तकाम हैं और हमलोग हैं अपूर्ण। ऐसी अवस्थामें भला हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं ॥ २१ ॥ फिर भी ब्रह्मस्वरूप नारदजी ! आप कुछ-न-कुछ आज्ञा अवश्य कीजिये और हमें सेवाका अवसर देकर हमारा जन्म सफल कीजिये।नारदजी यह सब देख-सुनकर चकित और विस्मित हो रहे थे। वे वहाँसे उठकर चुपचाप दूसरे महलमें चले गये ॥ २२ ॥ उस महलमें भी देवर्षि नारदने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने नन्हें-नन्हें बच्चोंको दुलार रहे हैं। वहाँसे फिर दूसरे महलमें गये तो क्या देखते हैं कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्नानकी तैयारी कर रहे हैं ॥ २३ ॥ (इस प्रकार देवर्षि नारदने विभिन्न महलोंमें भगवान्‌को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा।) कहीं वे यज्ञ-कुण्डोंमें हवन कर रहे हैं तो कहीं पञ्चमहायज्ञोंसे देवता आदिकी आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राह्मणोंको भोजन करा रहे हैं, तो कहीं यज्ञका अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं ॥ २४ ॥ कहीं सन्ध्या कर रहे हैं, तो कहीं मौन होकर गायत्रीका जप कर रहे हैं। कहीं हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनको चलानेके पैंतरे बदल रहे हैं ॥ २५ ॥ कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथपर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंगपर सो रहे हैं, तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं ॥ २६ ॥ किसी महलमें उद्धव आदि मन्त्रियोंके साथ किसी गम्भीर विषयपर परामर्श कर रहे हैं, तो कहीं उत्तमोत्तम वाराङ्गनाओंसे घिरकर जलक्रीडा कर रहे हैं ॥ २७ ॥ कहीं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको वस्त्राभूषणसे सुसज्जित गौओंका दान कर रहे हैं, तो कहीं मङ्गलमय इतिहास- पुराणोंका श्रवण कर रहे हैं ॥ २८ ॥ कहीं किसी पत्नीके महलमें अपनी प्राणप्रियाके साथ हास्य-विनोदकी बातें करके हँस रहे हैं। तो कहीं धर्मका सेवन कर रहे हैं। कहीं अर्थका सेवन कर रहे हैंधन-संग्रह और धनवृद्धिके कार्यमें लगे हुए हैं, तो कहीं धर्मानुकूल गृहस्थोचित विषयोंका उपभोग कर रहे हैं ॥ २९ ॥ कहीं एकान्तमें बैठकर प्रकृतिसे अतीत पुराण-पुरुषका ध्यान कर रहे हैं, तो कहीं गुरुजनोंको इच्छित भोग-सामग्री समर्पित करके उनकी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं ॥ ३० ॥ देवर्षि नारदने देखा कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण किसीके साथ युद्धकी बात कर रहे हैं, तो किसीके साथ सन्धिकी। कहीं भगवान्‌ बलरामजीके साथ बैठकर सत्पुरुषोंके कल्याणके बारेमें विचार कर रहे हैं ॥ ३१ ॥ कहीं उचित समयपर पुत्र और कन्याओंका उनके सदृश पत्नी और वरोंके साथ बड़ी धूमधामसे विधिवत् विवाह कर रहे हैं ॥ ३२ ॥ कहीं घरसे कन्याओंको विदा कर रहे हैं, तो कहीं बुलानेकी तैयारीमें लगे हुए हैं। योगेश्वरेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णके इन विराट् उत्सवोंको देखकर सभी लोग विस्मित-चकित हो जाते थे ॥ ३३ ॥ कहीं बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा अपनी कलारूप देवताओंका यजन-पूजन और कहीं कूएँ, बगीचे तथा मठ आदि बनवाकर इष्टापूर्त धर्मका आचरण कर रहे हैं ॥ ३४ ॥ कहीं श्रेष्ठ यादवोंसे घिरे हुए सिन्धुदेशीय घोड़ेपर चढक़र मृगया कर रहे हैं, और उसमें यज्ञके लिये मेध्य पशुओंका ही वध कर रहे हैं ॥ ३५ ॥ और कहीं प्रजामें तथा अन्त:पुरके महलोंमें वेष बदलकर छिपे रूपसे सबका अभिप्राय जाननेके लिये विचरण कर रहे हैं। क्यों न हो, भगवान्‌ योगेश्वर जो हैं ॥ ३६ ॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार मनुष्यकी-सी लीला करते हुए हृषीकेश भगवान्‌ श्रीकृष्णकी योगमायाका वैभव देखकर देवर्षि नारदजीने मुसकराते हुए उनसे कहा॥ ३७ ॥ योगेश्वर ! आत्मदेव ! आपकी योगमाया ब्रह्माजी आदि बड़े-बड़े मायावियोंके लिये भी अगम्य है। परन्तु हम आपकी योगमायाका रहस्य जानते हैं; क्योंकि आपके चरणकमलोंकी सेवा करनेसे वह स्वयं ही हमारे सामने प्रकट हो गयी है ॥ ३८ ॥ देवताओंके भी आराध्यदेव भगवन् ! चौदहों भुवन आपके सुयशसे परिपूर्ण हो रहे हैं। अब मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी त्रिभुवनपावनी लीलाका गान करता हुआ उन लोकोंमें विचरण करूँ॥ ३९ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहादेवर्षि नारदजी ! मैं ही धर्मका उपदेशक, पालन करनेवाला और उसका अनुष्ठान करनेवालोंका अनुमोदनकर्ता भी हूँ। इसलिये संसारको धर्मकी शिक्षा देनेके उद्देश्यसे ही मैं इस प्रकार धर्मका आचरण करता हूँ। मेरे प्यारे पुत्र ! तुम मेरी यह योगमाया देखकर मोहित मत होना ॥ ४० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंइस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण गृहस्थोंको पवित्र करनेवाले श्रेष्ठ धर्मोंका आचरण कर रहे थे। यद्यपि वे एक ही हैं, फिर भी देवर्षि नारदजीने उनको उनकी प्रत्येक पत्नीके महलमें अलग-अलग देखा ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। उनकी योगमायाका परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारदके विस्मय और कौतूहलकी सीमा न रही ॥ ४२ ॥ द्वारकामें भगवान्‌ श्रीकृष्ण गृहस्थकी भाँति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थोंमें उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारदका बहुत सम्मान किया। वे अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान्‌का स्मरण करते हुए वहाँसे चले गये ॥ ४३ ॥ राजन् ! भगवान्‌ नारायण सारे जगत्के कल्याणके लिये अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाको स्वीकार करते हैं और इस प्रकार मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं। द्वारकापुरीमें सोलह हजारसे भी अधिक पत्नियाँ अपनी सलज्ज एवं प्रेमभरी चितवन तथा मन्द-मन्द मुसकानसे उनकी सेवा करती थीं और वे उनके साथ विहार करते थे ॥ ४४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने जो लीलाएँ की हैं, उन्हें दूसरा कोई नहीं कर सकता। परीक्षित्‌ ! वे विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण हैं। जो उनकी लीलाओंका गान, श्रवण और गान-श्रवण करनेवालोंका अनुमोदन करता है, उसे मोक्षके मार्गस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें परम प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥ ४५ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णगार्हस्थ्यदर्शनं नाम एकोनसप्ततिमोऽध्यायः ॥ ६९ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...