शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

पाण्डवों के राजसूययज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार

 

श्रीशुक उवाच -

एकदा तु सभामध्य आस्थितो मुनिभिर्वृतः ।

 ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः भ्रातृभिश्च युधिष्ठिरः ॥ १ ॥

 आचार्यैः कुलवृद्धैश्च ज्ञातिसंबन्धिबान्धवैः ।

 श्रृण्वतामेव चैतेषां आभाष्येदमुवाच ह ॥ २ ॥

 

 श्रीयुधिष्ठिर उवाच -

क्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः ।

 यक्ष्ये विभूतीर्भवतः तत्संपादय नः प्रभो ॥ ३ ॥

 त्वत्पादुके अविरतं परि ये चरन्ति

     ध्यायन्त्यभद्रनशने शुचयो गृणन्ति ।

 विन्दन्ति ते कमलनाभ भवापवर्गम्

     आशासते यदि त आशिष ईश नान्ये ॥ ४ ॥

 तद्देवदेव भवतश्चरणारविन्द

     सेवानुभावमिह पश्यतु लोक एषः ।

 ये त्वां भजन्ति न भजन्त्युत वोभयेषां

     निष्ठां प्रदर्शय विभो कुरुसृञ्जयानाम् ॥ ५ ॥

 न ब्रह्मणः स्वपरभेदमतिस्तव स्यात्

     सर्वात्मनः समदृशः स्वसुखानुभूतेः ।

 संसेवतां सुरतरोरिव ते प्रसादः

     सेवानुरूपमुदयो न विपर्ययोऽत्र ॥ ६ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

सम्यग् व्यवसितं राजन् भवता शत्रुकर्शन ।

 कल्याणी येन ते कीर्तिः लोकान् अनुभविष्यति ॥ ७ ॥

 ऋषीणां पितृदेवानां सुहृदामपि नः प्रभो ।

 सर्वेषामपि भूतानां ईप्सितः क्रतुराडयम् ॥ ८ ॥

 विजित्य नृपतीन् सर्वान् कृत्वा च जगतीं वशे ।

 सम्भृत्य सर्वसम्भारान् आहरस्व महाक्रतुम् ॥ ९ ॥

 एते ते भ्रातरो राजन् लोकपालांशसंभवाः ।

 जितोऽस्म्यात्मवता तेऽहं दुर्जयो योऽकृतात्मभिः ॥ १० ॥

 न कश्चिन्मत्परं लोके तेजसा यशसा श्रिया ।

 विभूतिभिर्वाभिभवेद् देवोऽपि किमु पार्थिवः ॥ ११ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

निशम्य भगवद्‌गीतं प्रीतः फुल्लमुखाम्बुजः ।

 भ्रातॄन् दिग्विजयेऽयुङ्क्त विष्णुतेजोपबृंहितान् ॥ १२ ॥

 सहदेवं दक्षिणस्यां आदिशत् सह सृञ्जयैः ।

 दिशि प्रतीच्यां नकुलं उदीच्यां सव्यसाचिनम् ।

 प्राच्यां वृकोदरं मत्स्यैः केकयैः सह मद्रकैः ॥ १३ ॥

 ते विजित्य नृपान् वीरा आजह्रुर्दिग्भ्य ओजसा ।

 अजातशत्रवे भूरि द्रविणं नृप यक्ष्यते ॥ १४ ॥

 श्रुत्वाजितं जरासन्धं नृपतेर्ध्यायतो हरिः ।

 आहोपायं तमेवाद्य उद्धवो यमुवाच ह ॥ १५ ॥

 भीमसेनोऽर्जुनः कृष्णो ब्रह्मलिङ्‌गधरास्त्रयः ।

 जग्मुर्गिरिव्रजं तात बृहद्रथसुतो यतः ॥ १६ ॥

 ते गत्वाऽऽतिथ्यवेलायां गृहेषु गृहमेधिनम् ।

 ब्रह्मण्यं समयाचेरन् राजन्या ब्रह्मलिङ्‌गिनः ॥ १७ ॥

 राजन् विद्ध्यतिथीन् प्राप्तान् अर्थिनो दूरमागतान् ।

 तन्नः प्रयच्छ भद्रं ते यद्‌ वयं कामयामहे ॥ १८ ॥

 किं दुर्मर्षं तितिक्षूणां किं अकार्यं असाधुभिः ।

 किं न देयं वदान्यानां कः परः समदर्शिनाम् ॥ १९ ॥

 योऽनित्येन शरीरेण सतां गेयं यशो ध्रुवम् ।

 नाचिनोति स्वयं कल्पः स वाच्यः शोच्य एव सः ॥ २० ॥

 हरिश्चन्द्रो रन्तिदेव उञ्छवृत्तिः शिबिर्बलिः ।

 व्याधः कपोतो बहवो ह्यध्रुवेण ध्रुवं गताः ॥ २१ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

स्वरैराकृतिभिस्तांस्तु प्रकोष्ठैर्ज्याहतैरपि ।

 राजन्यबन्धून् विज्ञाय दृष्टपूर्वानचिन्तयत् ॥ २२ ॥

 राजन्यबन्धवो ह्येते ब्रह्मलिङ्‌गानि बिभ्रति ।

 ददानि भिक्षितं तेभ्य आत्मानमपि दुस्त्यजम् ॥ २३ ॥

 बलेर्नु श्रूयते कीर्तिः वितता दिक्ष्वकल्मषा ।

 ऐश्वर्याद्‌ भ्रंशितस्यापि विप्रव्याजेन विष्णुना ॥ २४ ॥

 श्रियं जिहीर्षतेन्द्रस्य विष्णवे द्विजरूपिणे ।

 जानन्नपि महीं प्रादाद्‌ वार्यमाणोऽपि दैत्यराट् ॥ २५ ॥

 जीवता ब्राह्मणार्थाय को न्वर्थः क्षत्रबन्धुना ।

 देहेन पतमानेन नेहता विपुलं यशः ॥ २६ ॥

 इत्युदारमतिः प्राह कृष्णार्जुनवृकोदरान् ।

 हे विप्रा व्रियतां कामो ददाम्यात्मशिरोऽपि वः ॥ २७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक दिन महाराज युधिष्ठिर बहुत-से मुनियों, ब्राह्मणों,क्षत्रियों, वैश्यों, भीमसेन आदि भाइयों, आचार्यों, कुलके बड़े-बूढ़ों, जाति-बन्धुओं, सम्बन्धियों एवं कुटुम्बियोंके साथ राजसभामें बैठे हुए थे। उन्होंने सबके सामने ही भगवान्‌ श्रीकृष्णको सम्बोधित करके यह बात कही ॥ १-२ ॥

धर्मराज युधिष्ठिरने कहागोविन्द ! मैं सर्वश्रेष्ठ राजसूययज्ञके द्वारा आपका और आपके परम पावन विभूतिस्वरूप देवताओंका यजन करना चाहता हूँ। प्रभो ! आप कृपा करके मेरा यह सङ्कल्प पूरा कीजिये ॥ ३ ॥ कमलनाभ ! आपके चरणकमलोंकी पादुकाएँ समस्त अमङ्गलोंको नष्ट करनेवाली हैं। जो लोग निरन्तर उनकी सेवा करते हैं, ध्यान और स्तुति करते हैं, वास्तवमें वे ही पवित्रात्मा हैं। वे जन्म-मृत्युके चक्करसे छुटकारा पा जाते हैं। और यदि वे सांसारिक विषयोंकी अभिलाषा करें, तो उन्हें उनकी भी प्राप्ति हो जाती है। परन्तु जो आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण नहीं करते, उन्हें मुक्ति तो मिलती ही नहीं, सांसारिक भोग भी नहीं मिलते ॥ ४ ॥ देवताओंके भी आराध्यदेव ! मैं चाहता हूँ कि संसारी लोग आपके चरणकमलोंकी सेवाका प्रभाव देखें। प्रभो ! कुरुवंशी और सृञ्जयवंशी नरपतियोंमें जो लोग आपका भजन करते हैं, और जो नहीं करते, उनका अन्तर आप जनताको दिखला दीजिये ॥ ५ ॥ प्रभो ! आप सबके आत्मा, समदर्शी और स्वयं आत्मानन्दके साक्षात्कार हैं, स्वयं ब्रह्म हैं। आपमें यह मैं हूँ और यह दूसरा, यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकारका भेदभाव नहीं है। फिर भी जो आपकी सेवा करते हैं, उन्हें उनकी भावनाके अनुसार फल मिलता ही हैठीक वैसे ही, जैसे कल्पवृक्षकी सेवा करनेवालेको। उस फलमें जो न्यूनाधिकता होती है, वह तो न्यूनाधिक सेवाके अनुरूप ही होती है। इससे आपमें विषमता या निर्दयता आदि दोष नहीं आते ॥ ६ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाशत्रु-विजयी धर्मराज ! आपका निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय यज्ञ करनेसे समस्त लोकोंमें आपकी मङ्गलमयी कीर्तिका विस्तार होगा ॥ ७ ॥ राजन् ! आपका यह महायज्ञ ऋषियों, पितरों, देवताओं, सगे-सम्बन्धियों, हमेंऔर कहाँतक कहें, समस्त प्राणियोंको अभीष्ट है ॥ ८ ॥ महाराज ! पृथ्वीके समस्त नरपतियोंको जीतकर, सारी पृथ्वीको अपने वशमें करके और यज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके फिर इस महायज्ञका अनुष्ठान कीजिये ॥ ९ ॥ महाराज ! आपके चारों भाई वायु, इन्द्र आदि लोकपालोंके अंशसे पैदा हुए हैं। वे सब-के-सब बड़े वीर हैं। आप तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आपलोगोंने अपने सद्गुणोंसे मुझे अपने वशमें कर लिया है। जिन लोगोंने अपनी इन्द्रियों और मनको वशमें नहीं किया है, वे मुझे अपने वशमें नहीं कर सकते ॥ १० ॥ संसारमें कोई बड़े-से-बड़ा देवता भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदिके द्वारा मेरे भक्तका तिरस्कार नहीं कर सकता। फिर कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इसकी तो सम्भावना ही क्या है ? ॥ ११ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिरका हृदय आनन्दसे भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब उन्होंने अपने भाइयोंको दिग्विजय करनेका आदेश दिया। भगवान्‌ श्रीकृष्णने पाण्डवोंमें अपनी शक्तिका सञ्चार करके उनको अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया था ॥ १२ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरने सृञ्जयवंशीवीरोंके साथ सहदेवको दक्षिण दिशामें दिग्विजय करनेके लिये भेजा। नकुलको मत्स्यदेशीय वीरोंके साथ पश्चिममें, अर्जुनको केकयदेशीय वीरोंके साथ उत्तरमें और भीमसेनको मद्रदेशीय वीरोंके साथ पूर्व दिशामें दिग्विजय करनेका आदेश दिया ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! उन भीमसेन आदि वीरोंने अपने बल-पौरुष से सब ओरके नरपतियोंको जीत लिया और यज्ञ करनेके लिये उद्यत महाराज युधिष्ठिरको बहुत-सा धन लाकर दिया ॥ १४ ॥ जब महाराज युधिष्ठिरने यह सुना कि अबतक जरासन्धपर विजय नहीं प्राप्त की जा सकी, तब वे चिन्तामें पड़ गये। उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें वही उपाय कह सुनाया, जो उद्धवजीने बतलाया था ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! इसके बाद भीमसेन, अर्जुन और भगवान्‌ श्रीकृष्णये तीनों ही ब्राह्मणका वेष धारण करके गिरिव्रज गये। वही जरासन्धकी राजधानी थी ॥ १६ ॥ राजा जरासन्ध ब्राह्मणोंका भक्त और गृहस्थोचित धर्मोंका पालन करनेवाला था। उपर्युक्त तीनों क्षत्रिय ब्राह्मणका वेष धारण करके अतिथि-अभ्यागतोंके सत्कारके समय जरासन्धके पास गये और उससे इस प्रकार याचना की॥ १७ ॥ राजन् ! आपका कल्याण हो। हम तीनों आपके अतिथि हैं और बहुत दूरसे आ रहे हैं। अवश्य ही हम यहाँ किसी विशेष प्रयोजनसे ही आये हैं। इसलिये हम आपसे जो कुछ चाहते हैं, वह आप हमें अवश्य दीजिये ॥ १८ ॥ तितिक्षु पुरुष क्या नहीं सह सकते। दुष्ट पुरुष बुरा-से-बुरा क्या नहीं कर सकते। उदार पुरुष क्या नहीं दे सकते और समदर्शीके लिये पराया कौन है ? ॥ १९ ॥ जो पुरुष स्वयं समर्थ होकर भी इस नाशवान् शरीरसे ऐसे अविनाशी यशका संग्रह नहीं करता, जिसका बड़े-बड़े सत्पुरुष भी गान करें; सच पूछिये तो उसकी जितनी निन्दा की जाय, थोड़ी है। उसका जीवन शोक करने-योग्य है ॥ २० ॥ राजन् ! आप तो जानते ही होंगेराजा हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, केवल अन्नके दाने बीन-चुनकर निर्वाह करनेवाले महात्मा मुद्गल, शिबि, बलि, व्याध और कपोत आदि बहुत-से व्यक्ति अतिथिको अपना सर्वस्व देकर इस नाशवान् शरीरके द्वारा अविनाशी पदको प्राप्त हो चुके हैं। इसलिये आप भी हमलोगोंको निराश मत कीजिये ॥ २१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जरासन्धने उन लोगोंकी आवाज, सूरत-शकल और कलाइयोंपर पड़े हुए धनुषकी प्रत्यञ्चाकी रगडक़े चिह्नोंको देखकर पहचान लिया कि ये तो ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय हैं। अब वह सोचने लगा कि मैंने कहीं-न-कहीं इन्हें देखा भी अवश्य है ॥ २२ ॥ फिर उसने मन-ही-मन यह विचार किया कि ये क्षत्रिय होनेपर भी मेरे भयसे ब्राह्मणका वेष बनाकर आये हैं। जब ये भिक्षा माँगनेपर ही उतारू हो गये हैं, तब चाहे जो कुछ माँग लें, मैं इन्हें दूँगा। याचना करनेपर अपना अत्यन्त प्यारा और दुस्त्यज शरीर देनेमें भी मुझे हिचकिचाहट न होगी ॥ २३ ॥ विष्णुभगवान्‌ ने ब्राह्मणका वेष धारण करके बलिका धन, ऐश्वर्यसब कुछ छीन लिया; फिर भी बलिकी पवित्र कीर्ति सब ओर फैली हुई है और आज भी लोग बड़े आदरसे उसका गान करते हैं ॥ २४ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि विष्णुभगवान्‌ने देवराज इन्द्रकी राज्यलक्ष्मी बलिसे छीनकर उन्हें लौटानेके लिये ही ब्राह्मणरूप धारण किया था। दैत्यराज बलिको यह बात मालूम हो गयी थी और शुक्राचार्यने उन्हें रोका भी; परन्तु उन्होंने पृथ्वीका दान कर ही दिया ॥ २५ ॥ मेरा तो यह पक्का निश्चय है कि यह शरीर नाशवान् है। इस शरीर से जो विपुल यश नहीं कमाता और जो क्षत्रिय ब्राह्मणके लिये ही जीवन नहीं धारण करता, उसका जीना व्यर्थ है॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! सचमुच जरासन्ध की बुद्धि बड़ी उदार थी। उपर्युक्त विचार करके उसने ब्राह्मण-वेषधारी श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन से कहा—‘ब्राह्मणो ! आप लोग मन-चाही वस्तु माँग लें, आप चाहें तो मैं आप लोगों को अपना सिर भी दे सकता हूँ॥ २७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



गुरुवार, 24 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्णभगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ पधारना

 

आनर्तसौवीरमरून् तीर्त्वा विनशनं हरिः ।

गिरीन् नदीरतीयाय पुरग्रामव्रजाकरान् ॥ २१ ॥

ततो दृषद्‌वतीं तीर्त्वा मुकुन्दोऽथ सरस्वतीम् ।

पञ्चालानथ मत्स्यांश्च शक्रप्रस्थमथागमत् ॥ २२ ॥

तमुपागतमाकर्ण्य प्रीतो दुर्दर्शनं नृणाम् ।

अजातशत्रुर्निरगात् सोपाध्यायः सुहृद्‌वृतः ॥ २३ ॥

गीतवादित्रघोषेण ब्रह्मघोषेण भूयसा ।

अभ्ययात् स हृषीकेशं प्राणाः प्राणमिवादृतः ॥ २४ ॥

दृष्ट्वा विक्लिन्नहृदयः कृष्णं स्नेहेन पाण्डवः ।

चिराद् दृष्टं प्रियतमं सस्वजेऽथ पुनः पुनः ॥ २५ ॥

दोर्भ्यां परिष्वज्य रमामलालयं

     मुकुन्दगात्रं नृपतिर्हताशुभः ।

 लेभे परां निर्वृतिमश्रुलोचनो

     हृष्यत्तनुर्विस्मृत लोकविभ्रमः ॥ २६ ॥

 तं मातुलेयं परिरभ्य निर्वृतो

     भीमः स्मयन् प्रेमजलाकुलेन्द्रियः ।

 यमौ किरीटी च सुहृत्तमं मुदा

     प्रवृद्धबाष्पाः परिरेभिरेऽच्युतम् ॥ २७ ॥

अर्जुनेन परिष्वक्तो यमाभ्यामभिवादितः ।

 ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य वृद्धेभ्यश्च यथार्हतः ॥ २८ ॥

 मानिनो मानयामास कुरुसृञ्जयकैकयान् ।

 सूतमागधगन्धर्वा वन्दिनश्चोपमंत्रिणः ॥ २९ ॥

 मृदङ्‌गशङ्खपटह वीणापणवगोमुखैः ।

 ब्राह्मणाश्चारविन्दाक्षं तुष्टुवुर्ननृतुर्जगुः ॥ ३० ॥

 एवं सुहृद्‌भिः पर्यस्तः पुण्यश्लोकशिखामणिः ।

 संस्तूयमानो भगवान् विवेशालङ्कृतं पुरम् ॥ ३१ ॥

संसिक्तवर्त्म करिणां मदगन्धतोयैः

     चित्रध्वजैः कनकतोरणपूर्णकुम्भैः ।

 मृष्टात्मभिर्नवदुकूलविभूषणस्रग्

     गन्धैर्नृभिर्युवतिभिश्च विराजमानम् ॥ ३२ ॥

 उद्दीप्तदीपबलिभिः प्रतिसद्म जाल

     निर्यातधूपरुचिरं विलसत्पताकम् ।

 मूर्धन्यहेमकलशै रजतोरुशृङ्‌गैः

     जुष्टं ददर्श भवनैः कुरुराजधाम ॥ ३३ ॥

 प्राप्तं निशम्य नरलोचनपानपात्रम्

     औत्सुक्यविश्लथितकेश दुकूलबन्धाः ।

 सद्यो विसृज्य गृहकर्म पतींश्च तल्पे

     द्रष्टुं ययुर्युवतयः स्म नरेन्द्रमार्गे ॥ ३४ ॥

 तस्मिन् सुसङ्कुल इभाश्वरथद्‌विपद्‌भिः

     कृष्णंसभार्यमुपलभ्य गृहाधिरूढाः ।

 नार्यो विकीर्य कुसुमैर्मनसोपगुह्य

     सुस्वागतं विदधुरुत्स्मयवीक्षितेन ॥ ३५ ॥

 ऊचुः स्त्रियः पथि निरीक्ष्य मुकुन्दपत्‍नीः

     तारा यथोडुपसहाः किमकार्यमूभिः ।

 यच्चक्षुषां पुरुषमौलिरुदारहास

 लीलावलोककलयोत्सवमातनोति ॥ ३६ ॥

 तत्र तत्रोपसङ्‌गम्य पौरा मङ्‌गलपाणयः ।

चक्रुः सपर्यां कृष्णाय श्रेणीमुख्या हतैनसः ॥ ३७ ॥

 अन्तःपुरजनैः प्रीत्या मुकुन्दः फुल्ललोचनैः ।

 ससम्भ्रमैरभ्युपेतः प्राविशद् राजमन्दिरम् ॥ ३८ ॥

 पृथा विलोक्य भ्रात्रेयं कृष्णं त्रिभुवनेश्वरम् ।

 प्रीतात्मोत्थाय पर्यङ्कात् सस्नुषा परिषस्वजे ॥ ३९ ॥

 गोविन्दं गृहमानीय देवदेवेशमादृतः ।

 पूजायां नाविदत् कृत्यं प्रमोदोपहतो नृपः ॥ ४० ॥

 पितृस्वसुर्गुरुस्त्रीणां कृष्णश्चक्रेऽभिवादनम् ।

 स्वयं च कृष्णया राजन् भगिन्या चाभिवन्दितः ॥ ४१ ॥

 श्वश्र्वा सञ्चोदिता कृष्णा कृष्णपत्‍नीश्च सर्वशः ।

 आनर्च रुक्मिणीं सत्यां भद्रां जाम्बवतीं तथा ॥ ४२ ॥

 कालिन्दीं मित्रविन्दां च शैब्यां नाग्नजितीं सतीम् ।

 अन्याश्चाभ्यागता यास्तु वासःस्रङ्‌मण्डनादिभिः ॥ ४३ ॥

 सुखं निवासयामास धर्मराजो जनार्दनम् ।

 ससैन्यं सानुगामत्यं सभार्यं च नवं नवम् ॥ ४४ ॥

 तर्पयित्वा खाण्डवेन वह्निं फाल्गुनसंयुतः ।

 मोचयित्वा मयं येन राज्ञे दिव्या सभा कृता ॥ ४५ ॥

 उवास कतिचिन् मासान् राज्ञः प्रियचिकीर्षया ।

 विहरन् रथमारुह्य फाल्गुनेन भटैर्वृतः ॥ ४६ ॥

 

परीक्षित्‌ ! अब भगवान्‌ श्रीकृष्ण आनर्त, सौवीर, मरु, कुरुक्षेत्र और उनके बीचमें पडऩेवाले पर्वत, नदी, नगर, गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ तथा खानोंको पार करते हुए आगे बढऩे लगे ॥ २१ ॥ भगवान्‌ मुकुन्द मार्गमें दृषद्वती एवं सरस्वती नदी पार करके पाञ्चाल और मत्स्य देशोंमें होते हुए इन्द्रप्रस्थ जा पहुँचे ॥ २२ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। जब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरको यह समाचार मिला कि भगवान्‌ श्रीकृष्ण पधार गये हैं, तब उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठा। वे अपने आचार्यों और स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ भगवान्‌ की अगवानी करनेके लिये नगरसे बाहर आये ॥ २३ ॥ मङ्गल-गीत गाये जाने लगे, बाजे बजने लगे, बहुत-से ब्राह्मण मिलकर ऊँचे स्वरसे वेदमन्त्रोंका उच्चारण करने लगे। इस प्रकार वे बड़े आदरसे हृषीकेश भगवान्‌का स्वागत करनेके लिये चले, जैसे इन्द्रियाँ मुख्य प्राणसे मिलने जा रही हों ॥ २४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखकर राजा युधिष्ठिरका हृदय स्नेहातिरेकसे गद्गद हो गया। उन्हें बहुत दिनोंपर अपने प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अत: वे उन्हें बार-बार अपने हृदयसे लगाने लगे ॥ २५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णका श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मीजीका पवित्र और एकमात्र निवासस्थान है। राजा युधिष्ठिर अपनी दोनों भुजाओंसे उसका आलिङ्गन करके समस्त पाप-तापोंसे छुटकारा पा गये । वे सर्वतोभावेन परमानन्दके समुद्रमें मग्र हो गये। नेत्रोंमें आँसू छलक आये, अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो गया, उन्हें इस विश्व-प्रपञ्चके भ्रमका तनिक भी स्मरण न रहा ॥ २६ ॥ तदनन्तर भीमसेनने मुसकराकर अपने ममेरे भाई श्रीकृष्णका आलिङ्गन किया। इससे उन्हें बड़ा आनन्द मिला। उस समय उनके हृदयमें इतना प्रेम उमड़ा कि उन्हें बाह्य विस्मृति-सी हो गयी। नकुल, सहदेव और अर्जुनने भी अपने परम प्रियतम और हितैषी भगवान्‌ श्रीकृष्णका बड़े आनन्दसे आलिङ्गन प्राप्त किया। उस समय उनके नेत्रोंमें आँसुओंकी बाढ़-सी आ गयी थी ॥ २७ ॥ अर्जुनने पुन: भगवान्‌ श्रीकृष्णका आलिङ्गन किया, नकुल और सहदेवने अभिवादन किया और स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णने ब्राह्मणों और कुरुवंशी वृद्धोंको यथायोग्य नमस्कार किया ॥ २८ ॥ कुरु, सृञ्जय और केकय देशके नरपतियोंने भगवान्‌ श्रीकृष्णका सम्मान किया और भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी उनका यथोचित सत्कार किया। सूत, मागध, वंदीजन और ब्राह्मण भगवान्‌की स्तुति करने लगे तथा गन्धर्व, नट, विदूषक आदि मृदङ्ग, शङ्ख, नगारे, वीणा, ढोल और नरसिंगे बजा-बजाकर कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये नाचने-गाने लगे ॥ २९-३० ॥ इस प्रकार परमयशस्वी भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने सुहृद्-स्वजनोंके साथ सब प्रकारसे सुसज्जित इन्द्रप्रस्थ नगरमें प्रवेश किया। उस समय लोग आपसमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रशंसा करते चल रहे थे ॥ ३१ ॥

इन्द्रप्रस्थ नगरकी सडक़ें और गलियाँ मतवाले हाथियोंके मदसे तथा सुगन्धित जलसे सींच दी गयी थीं। जगह-जगह रंग-बिरंगी झंडियाँ लगा दी गयी थीं। सुनहले तोरन बाँधे हुए थे और सोनेके जलभरे कलश स्थान-स्थानपर शोभा पा रहे थे। नगरके नर-नारी नहा-धोकर तथा नये वस्त्र, आभूषण, पुष्पोंके हार, इत्र-फुलेल आदिसे सज-धजकर घूम रहे थे ॥ ३२ ॥ घर-घरमें ठौर-ठौरपर दीपक जलाये गये थे, जिनसे दीपावलीकी-सी छटा हो रही थी। प्रत्येक घरके झरोखोंसे धूपका धूआँ निकलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था। सभी घरोंके ऊपर पताकाएँ फहरा रही थीं तथा सोनेके कलश और चाँदीके शिखर जगमगा रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण इस प्रकारके महलोंसे परिपूर्ण पाण्डवोंकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ नगरको देखते हुए आगे बढ़ रहे थे ॥ ३३ ॥ जब युवतियोंने सुना कि मानव-नेत्रोंके पानपात्र अर्थात् अत्यन्त दर्शनीय भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजपथपर आ रहे हैं, तब उनके दर्शनकी उत्सुकताके आवेगसे उनकी चोटियों और साडिय़ोंकी गाँठें ढीली पड़ गयीं। उन्होंने घरका काम-काज तो छोड़ ही दिया, सेजपर सोये हुए अपने पतियोंको भी छोड़ दिया और भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये राजपथपर दौड़ आयीं ॥ ३४ ॥ सडक़पर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेनाकी भीड़ लग रही थी। उन स्त्रियोंने अटारियोंपर चढक़र रानियोंके सहित भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन किया, उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा की और मन-ही-मन आलिङ्गन किया तथा प्रेम- भरी मुसकान एवं चितवनसे उनका सुस्वागत किया ॥ ३५ ॥ नगरकी स्त्रियाँ राजपथपर चन्द्रमाके साथ विराजमान ताराओंके समान श्रीकृष्णकी पत्नियोंको देखकर आपसमें कहने लगीं—‘सखी ! इन बड़भागिनी रानियोंने न जाने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिसके कारण पुरुषशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने उन्मुक्त हास्य और विलासपूर्ण कटाक्षसे उनकी ओर देखकर उनके नेत्रोंको परम आनन्द प्रदान करते हैं ॥ ३६ ॥ इसी प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजपथसे चल रहे थे। स्थान-स्थानपर बहुत-से निष्पाप धनी-मानी और शिल्पजीवी नागरिकोंने अनेकों माङ्गलिक वस्तुएँ ला-लाकर उनकी पूजा-अर्चा और स्वागत-सत्कार किया ॥ ३७ ॥

अन्त:पुरकी स्त्रियाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखकर प्रेम और आनन्दसे भर गयीं। उन्होंने अपने प्रेमविह्वल और आनन्दसे खिले नेत्रोंके द्वारा भगवान्‌का स्वागत किया और श्रीकृष्ण उनका स्वागत- सत्कार स्वीकार करते हुए राजमहलमें पधारे ॥ ३८ ॥ जब कुन्तीने अपने त्रिभुवनपति भतीजे श्रीकृष्णको देखा, तब उनका हृदय प्रेमसे भर आया। वे पलंगसे उठकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदी के साथ आगे गयीं और भगवान्‌ श्रीकृष्ण को हृदयसे लगा लिया ॥ ३९ ॥ देवदेवेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण को राजमहलके अंदर लाकर राजा युधिष्ठिर आदरभाव और आनन्दके उद्रेकसे आत्मविस्मृत हो गये; उन्हें इस बातकी भी सुधि न रही कि किस क्रमसे भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये ॥ ४० ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपनी फूआ कुन्ती और गुरुजनोंकी पत्नियोंका अभिवादन किया। उनकी बहिन सुभद्रा और द्रौपदीने भगवान्‌को नमस्कार किया ॥ ४१ ॥ अपनी सास कुन्तीकी प्रेरणासे द्रौपदीने वस्त्र, आभूषण, माला आदिके द्वारा रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रविन्दा, लक्ष्मणा और परम साध्वी सत्याभगवान्‌ श्रीकृष्णकी इन पटरानियों का तथा वहाँ आयी हुई श्रीकृष्णकी अन्यान्य रानियों का भी यथायोग्य सत्कार किया ॥ ४२-४३ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान्‌ श्रीकृष्णको उनकी सेना, सेवक, मन्त्री और पत्नियोंके साथ ऐसे स्थानमें ठहराया जहाँ उन्हें नित्य नयी-नयी सुखकी सामग्रियाँ प्राप्त हों ॥ ४४ ॥ अर्जुनके साथ रहकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने खाण्डव वनका दाह करवाकर अग्नि को तृप्त किया था और मयासुरको उससे बचाया था। परीक्षित्‌ ! उस मयासुरने ही धर्मराज युधिष्ठिरके लिये भगवान्‌ की आज्ञासे एक दिव्य सभा तैयार कर दी ॥ ४५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण राजा युधिष्ठिरको आनन्दित करनेके लिये कई महीनों तक इन्द्रप्रस्थमें ही रहे। वे समय-समयपर अर्जुन के साथ रथपर सवार होकर विहार करनेके लिये इधर- उधर चले जाया करते थे। उस समय बड़े-बड़े वीर सैनिक भी उनकी सेवा के लिये साथ-साथ जाते ॥ ४६ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे कृष्णस्य इंद्रप्रस्थगमनं नाम एकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इकहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण भगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ पधारना

 

श्रीशुक उवाच -

इत्युदीरितमाकर्ण्य देवऋषेरुद्धवोऽब्रवीत् ।

 सभ्यानां मतमाज्ञाय कृष्णस्य च महामतिः ॥ १ ॥  

 

श्रीउद्धव उवाच -

यदुक्तं ऋषिणा देव साचिव्यं यक्ष्यतस्त्वया ।

 कार्यं पैतृष्वसेयस्य रक्षा च शरणैषिणाम् ॥ २ ॥

 यष्टव्यम्राजसूयेन दिक् चक्रजयिना विभो ।

 अतो जरासुतजय उभयार्थो मतो मम ॥ ३ ॥

 अस्माकं च महानर्थो ह्येतेनैव भविष्यति ।

 यशश्च तव गोविन्द राज्ञो बद्धान् विमुञ्चतः ॥ ४ ॥

 स वै दुर्विषहो राजा नागायुतसमो बले ।

 बलिनामपि चान्येषां भीमं समबलं विना ॥ ५ ॥

 द्‌वैरथे स तु जेतव्यो मा शताक्षौहिणीयुतः ।

 ब्रह्मण्योऽभ्यर्थितो विप्रैः न प्रत्याख्याति कर्हिचित् ॥ ६ ॥

 ब्रह्मवेषधरो गत्वा तं भिक्षेत वृकोदरः ।

 हनिष्यति न सन्देहो द्‌वैरथे तव सन्निधौ ॥ ७ ॥

 निमित्तं परमीशस्य विश्वसर्गनिरोधयोः ।

 हिरण्यगर्भः शर्वश्च कालस्यारूपिणस्तव ॥ ८ ॥

गायन्ति ते विशदकर्म गृहेषु देव्यो

     राज्ञां स्वशत्रुवधमात्मविमोक्षणं च ।

 गोप्यश्च कुञ्जरपतेर्जनकात्मजायाः

     पित्रोश्च लब्धशरणा मुनयो वयं च ॥ ९ ॥

जरासन्धवधः कृष्ण भूर्यर्थायोपकल्पते ।

 प्रायः पाकविपाकेन तव चाभिमतः क्रतुः ॥ १० ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इत्युद्धव वचो राजन् सर्वतोभद्रमच्युतम् ।

 देवर्षिर्यदुवृद्धाश्च कृष्णश्च प्रत्यपूजयन् ॥ ११ ॥

 अथादिशत् प्रयाणाय भगवान् देवकीसुतः ।

 भृत्यान् दारुकजैत्रादीन् अनुज्ञाप्य गुरून् विभुः ॥ १२ ॥

 निर्गमय्यावरोधान् स्वान् ससुतान् सपरिच्छदान् ।

 सङ्कर्षणमनुज्ञाप्य यदुराजं च शत्रुहन् ।

 सूतोपनीतं स्वरथं आरुहद् गरुडध्वजम् ॥ १३ ॥

ततो रथद्‌विपभटसादिनायकैः

     करालया परिवृत आत्मसेनया ।

 मृदङ्‌ग भेर्यानक शङ्खगोमुखैः

     प्रघोषघोषितककुभो निराक्रमत् ॥ १४ ॥

 नृवाजिकाञ्चन शिबिकाभिरच्युतं

     सहात्मजाः पतिमनु सुव्रता ययुः ।

 वरांबराभरणविलेपनस्रजः

     सुसंवृता नृभिरसिचर्मपाणिभिः ॥ १५ ॥

 नरोष्ट्रगोमहिषखराश्वतर्यनः

     करेणुभिः परिजनवारयोषितः ।

 स्वलङ्कृताः कटकुटिकम्बलाम्बराद्

     उपस्करा ययुरधियुज्य सर्वतः ॥ १६ ॥

 बलं बृहद्ध्वजपटछत्रचामरैः

     वरायुधाभरणकिरीटवर्मभिः ।

 दिवांशुभिस्तुमुलरवं बभौ रवेः

     यथार्णवः क्षुभिततिमिङ्‌गिलोर्मिभिः ॥ १७ ॥

 अथो मुनिर्यदुपतिना सभाजितः

     प्रणम्य तं हृदि विदधद् विहायसा ।

 निशम्य तद्‌व्यवसितमाहृतार्हणो

     मुकुन्दसन्दर्शननिर्वृतेन्द्रियः ॥ १८ ॥

राजदूतमुवाचेदं भगवान् प्रीणयन् गिरा ।

 मा भैष्ट दूत भद्रं वो घातयिष्यामि मागधम् ॥ १९ ॥

 इत्युक्तः प्रस्थितो दूतो यथावद् अवदन् नृपान् ।

 तेऽपि सन्दर्शनं शौरेः प्रत्यैक्षन् यन्मुमुक्षवः ॥ २० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णके वचन सुनकर महामति उद्धवजी ने देवर्षि नारद, सभासद् और भगवान्‌ श्रीकृष्ण के मतपर विचार किया और फिर वे कहने लगे ॥ १ ॥

उद्धवजीने कहाभगवन् ! देवर्षि नारदजीने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवोंके राजसूय यज्ञमें सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतोंकी रक्षा अवश्यकर्तव्य है ॥ २ ॥ प्रभो ! जब हम इस दृष्टिसे विचार करते हैं कि राजसूय यज्ञ वही कर सकता है, जो दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त कर ले, तब हम इस निर्णयपर बिना किसी दुविधाके पहुँच जाते हैं कि पाण्डवोंके यज्ञ और शरणागतोंकी रक्षा दोनों कामोंके लिये जरासन्धको जीतना आवश्यक है ॥ ३ ॥ प्रभो ! केवल जरासन्धको जीत लेनेसे ही हमारा महान् उद्देश्य सफल हो जायगा, साथ ही उससे बंदी राजाओंकी मुक्ति और उसके कारण आपको सुयशकी भी प्राप्ति हो जायगी ॥ ४ ॥ राजा जरासन्ध बड़े-बड़े लोगोंके भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योंकि दस हजार हाथियोंका बल उसे प्राप्त है। उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं ॥ ५ ॥ उसे आमने-सामनेके युद्धमें एक वीर जीत ले, यही सबसे अच्छा है। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्धके लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा। जरासन्ध बहुत बड़ा ब्राह्मणभक्त है। यदि ब्राह्मण उससे किसी बातकी याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता ॥ ६ ॥ इसलिये भीमसेन ब्राह्मणके वेषमें जायँ और उससे युद्धकी भिक्षा माँगें। भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थितिमें भीमसेन और जरासन्धका द्वन्द्वयुद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे ॥ ७ ॥ प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान्, रूपरहित कालस्वरूप हैं। विश्वकी सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्तिसे होता है। ब्रह्मा और शङ्कर तो उसमें निमित्तमात्र हैं। (इसी प्रकार जरासन्धका वध तो होगा आपकी शक्तिसे, भीमसेन केवल उसमें निमित्तमात्र बनेंगे) ॥ ८ ॥ जब इस प्रकार आप जरासन्धका वध कर डालेंगे, तब कैदमें पड़े हुए राजाओंकी रानियाँ अपने महलोंमें आपकी इस विशुद्ध लीलाका गान करेंगी कि आपने उनके शत्रुका नाश कर दिया और उनके प्राणपतियोंको छुड़ा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शङ्खचूड़से छुड़ानेकी लीलाका, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकीजीके उद्धारकी लीलाका तथा हमलोग आपके माता-पिताको कंसके कारागारसे छुड़ानेकी लीलाका गान करते हैं ॥ ९ ॥ इसलिये प्रभो ! जरासन्धका वध स्वयं ही बहुत-से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियोंके पुण्य-परिणामसे अथवा जरासन्धके पाप-परिणामसे सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञका होना ही पसंद करते हैं (इसलिये पहले आप वहीं पधारिये) ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उद्धवजीकी यह सलाह सब प्रकारसे हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंशके बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी उनकी बातका समर्थन किया ॥ ११ ॥ अब अन्तर्यामी भगवान्‌ श्रीकृष्णने वसुदेव आदि गुरुजनोंसे अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकोंको इन्द्रप्रस्थ जानेकी तैयारी करनेके लिये आज्ञा दी ॥ १२ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णने यदुराज उग्रसेन और बलरामजीसे आज्ञा लेकर बाल-बच्चोंके साथ रानियों और उनके सब सामानोंको आगे चला दिया और फिर दारुक के लाये हुए गरुड़ध्वज रथपर स्वयं सवार हुए ॥ १३ ॥ इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलोंकी बड़ी भारी सेनाके साथ उन्होंने प्रस्थान किया। उस समय मृदङ्ग, नगारे, ढोल, शङ्ख और नरसिंगोंकी ऊँची ध्वनिसे दसों दिशाएँ गूँज उठीं ॥ १४ ॥ सतीशिरोमणि रुक्मिणीजी आदि सहस्रों श्रीकृष्ण-पत्नियाँ अपनी सन्तानोंके साथ सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण, चन्दन,अङ्गराग और पुष्पोंके हार आदिसे सज-धजकर डोलियों, रथों और सोनेकी बनी हुई पालकियोंमें चढक़र अपने पतिदेव भगवान्‌ श्रीकृष्णके पीछे-पीछे चलीं। पैदल सिपाही हाथोंमें ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे ॥ १५ ॥ इसी प्रकार अनुचरोंकी स्त्रियाँ और वाराङ्गनाएँ भलीभाँति शृङ्गार करके खस आदिकी झोपडिय़ों, भाँति-भाँतिके तंबुओं, कनातों, कम्बलों और ओढऩे-बिछाने आदिकी सामग्रियोंको बैलों, भैंसों, गधों और खच्चरोंपर लादकर तथा स्वयं पालकी, ऊँट, छकड़ों और हथिनियोंपर सवार होकर चलीं ॥ १६ ॥ जैसे मगरमच्छों और लहरोंकी उछल-कूदसे क्षुब्ध समुद्रकी शोभा होती है, ठीक वैसे ही अत्यन्त कोलाहलसे परिपूर्ण, फहराती हुई बड़ी-बड़ी पताकाओं, छत्रों, चँवरों, श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों, वस्त्राभूषणों, मुकुटों, कवचों और दिनके समय उनपर पड़ती हुई सूर्यकी किरणोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सेना अत्यन्त शोभायमान हुई ॥ १७ ॥ देवर्षि नारदजी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे सम्मानित होकर और उनके निश्चयको सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। भगवान्‌के दर्शनसे उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्दमें मग्र हो गयीं। विदा होनेके समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने उनका नाना प्रकारकी सामग्रियों से पूजन किया । अब देवर्षि नारद ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्तिको हृदय में धारण करके आकाशमार्ग से प्रस्थान किया ॥ १८ ॥ इसके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के बंदी नरपतियोंके दूतको अपनी मधुर वाणीसे आश्वासन देते हुए कहा—‘दूत ! तुम अपने राजाओंसे जाकर कहनाडरो मत ! तुम लोगोंका कल्याण हो। मैं जरासन्ध को मरवा डालूँगा॥ १९ ॥ भगवान्‌ की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णका सन्देश ज्यों-का-त्यों सुना दिया। वे राजा भी कारागार से छूटनेके लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान्‌ के शुभ दर्शनकी बाट जोहने लगे ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...