॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
पाण्डवों के
राजसूययज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार
श्रीशुक उवाच -
एकदा तु सभामध्य आस्थितो मुनिभिर्वृतः ।
ब्राह्मणैः
क्षत्रियैर्वैश्यैः भ्रातृभिश्च युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
आचार्यैः
कुलवृद्धैश्च ज्ञातिसंबन्धिबान्धवैः ।
श्रृण्वतामेव
चैतेषां आभाष्येदमुवाच ह ॥ २ ॥
श्रीयुधिष्ठिर उवाच
-
क्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः ।
यक्ष्ये विभूतीर्भवतः
तत्संपादय नः प्रभो ॥ ३ ॥
त्वत्पादुके अविरतं
परि ये चरन्ति
ध्यायन्त्यभद्रनशने शुचयो गृणन्ति ।
विन्दन्ति ते
कमलनाभ भवापवर्गम्
आशासते यदि त
आशिष ईश नान्ये ॥ ४ ॥
तद्देवदेव
भवतश्चरणारविन्द
सेवानुभावमिह
पश्यतु लोक एषः ।
ये त्वां भजन्ति न
भजन्त्युत वोभयेषां
निष्ठां
प्रदर्शय विभो कुरुसृञ्जयानाम् ॥ ५ ॥
न ब्रह्मणः
स्वपरभेदमतिस्तव स्यात्
सर्वात्मनः
समदृशः स्वसुखानुभूतेः ।
संसेवतां सुरतरोरिव
ते प्रसादः
सेवानुरूपमुदयो
न विपर्ययोऽत्र ॥ ६ ॥
श्रीभगवानुवाच -
सम्यग् व्यवसितं राजन् भवता शत्रुकर्शन ।
कल्याणी येन ते
कीर्तिः लोकान् अनुभविष्यति ॥ ७ ॥
ऋषीणां पितृदेवानां
सुहृदामपि नः प्रभो ।
सर्वेषामपि भूतानां
ईप्सितः क्रतुराडयम् ॥ ८ ॥
विजित्य नृपतीन्
सर्वान् कृत्वा च जगतीं वशे ।
सम्भृत्य
सर्वसम्भारान् आहरस्व महाक्रतुम् ॥ ९ ॥
एते ते भ्रातरो
राजन् लोकपालांशसंभवाः ।
जितोऽस्म्यात्मवता
तेऽहं दुर्जयो योऽकृतात्मभिः ॥ १० ॥
न कश्चिन्मत्परं
लोके तेजसा यशसा श्रिया ।
विभूतिभिर्वाभिभवेद् देवोऽपि किमु पार्थिवः ॥ ११
॥
श्रीशुक उवाच -
निशम्य भगवद्गीतं प्रीतः फुल्लमुखाम्बुजः ।
भ्रातॄन् दिग्विजयेऽयुङ्क्त
विष्णुतेजोपबृंहितान् ॥ १२ ॥
सहदेवं दक्षिणस्यां
आदिशत् सह सृञ्जयैः ।
दिशि प्रतीच्यां
नकुलं उदीच्यां सव्यसाचिनम् ।
प्राच्यां वृकोदरं
मत्स्यैः केकयैः सह मद्रकैः ॥ १३ ॥
ते विजित्य नृपान्
वीरा आजह्रुर्दिग्भ्य ओजसा ।
अजातशत्रवे भूरि
द्रविणं नृप यक्ष्यते ॥ १४ ॥
श्रुत्वाजितं
जरासन्धं नृपतेर्ध्यायतो हरिः ।
आहोपायं तमेवाद्य
उद्धवो यमुवाच ह ॥ १५ ॥
भीमसेनोऽर्जुनः
कृष्णो ब्रह्मलिङ्गधरास्त्रयः ।
जग्मुर्गिरिव्रजं
तात बृहद्रथसुतो यतः ॥ १६ ॥
ते
गत्वाऽऽतिथ्यवेलायां गृहेषु गृहमेधिनम् ।
ब्रह्मण्यं समयाचेरन् राजन्या ब्रह्मलिङ्गिनः ॥ १७ ॥
राजन्
विद्ध्यतिथीन् प्राप्तान् अर्थिनो दूरमागतान् ।
तन्नः प्रयच्छ
भद्रं ते यद् वयं कामयामहे ॥ १८ ॥
किं दुर्मर्षं
तितिक्षूणां किं अकार्यं असाधुभिः ।
किं न देयं
वदान्यानां कः परः समदर्शिनाम् ॥ १९ ॥
योऽनित्येन शरीरेण
सतां गेयं यशो ध्रुवम् ।
नाचिनोति स्वयं
कल्पः स वाच्यः शोच्य एव सः ॥ २० ॥
हरिश्चन्द्रो
रन्तिदेव उञ्छवृत्तिः शिबिर्बलिः ।
व्याधः कपोतो बहवो
ह्यध्रुवेण ध्रुवं गताः ॥ २१ ॥
श्रीशुक उवाच -
स्वरैराकृतिभिस्तांस्तु प्रकोष्ठैर्ज्याहतैरपि ।
राजन्यबन्धून्
विज्ञाय दृष्टपूर्वानचिन्तयत् ॥ २२ ॥
राजन्यबन्धवो
ह्येते ब्रह्मलिङ्गानि बिभ्रति ।
ददानि भिक्षितं
तेभ्य आत्मानमपि दुस्त्यजम् ॥ २३ ॥
बलेर्नु श्रूयते
कीर्तिः वितता दिक्ष्वकल्मषा ।
ऐश्वर्याद्
भ्रंशितस्यापि विप्रव्याजेन विष्णुना ॥ २४ ॥
श्रियं
जिहीर्षतेन्द्रस्य विष्णवे द्विजरूपिणे ।
जानन्नपि महीं
प्रादाद् वार्यमाणोऽपि दैत्यराट् ॥ २५ ॥
जीवता
ब्राह्मणार्थाय को न्वर्थः क्षत्रबन्धुना ।
देहेन पतमानेन
नेहता विपुलं यशः ॥ २६ ॥
इत्युदारमतिः प्राह
कृष्णार्जुनवृकोदरान् ।
हे विप्रा व्रियतां
कामो ददाम्यात्मशिरोऽपि वः ॥ २७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! एक दिन महाराज
युधिष्ठिर बहुत-से मुनियों, ब्राह्मणों,क्षत्रियों, वैश्यों, भीमसेन
आदि भाइयों, आचार्यों, कुलके
बड़े-बूढ़ों, जाति-बन्धुओं, सम्बन्धियों
एवं कुटुम्बियोंके साथ राजसभामें बैठे हुए थे। उन्होंने सबके सामने ही भगवान्
श्रीकृष्णको सम्बोधित करके यह बात कही ॥ १-२ ॥
धर्मराज
युधिष्ठिरने कहा—गोविन्द ! मैं सर्वश्रेष्ठ
राजसूययज्ञके द्वारा आपका और आपके परम पावन विभूतिस्वरूप देवताओंका यजन करना चाहता
हूँ। प्रभो ! आप कृपा करके मेरा यह सङ्कल्प पूरा कीजिये ॥ ३ ॥ कमलनाभ ! आपके चरणकमलोंकी
पादुकाएँ समस्त अमङ्गलोंको नष्ट करनेवाली हैं। जो लोग निरन्तर उनकी सेवा करते हैं,
ध्यान और स्तुति करते हैं, वास्तवमें वे ही
पवित्रात्मा हैं। वे जन्म-मृत्युके चक्करसे छुटकारा पा जाते हैं। और यदि वे
सांसारिक विषयोंकी अभिलाषा करें, तो उन्हें उनकी भी प्राप्ति
हो जाती है। परन्तु जो आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण नहीं करते, उन्हें मुक्ति तो मिलती ही नहीं, सांसारिक भोग भी
नहीं मिलते ॥ ४ ॥ देवताओंके भी आराध्यदेव ! मैं चाहता हूँ कि संसारी लोग आपके
चरणकमलोंकी सेवाका प्रभाव देखें। प्रभो ! कुरुवंशी और सृञ्जयवंशी नरपतियोंमें जो
लोग आपका भजन करते हैं, और जो नहीं करते, उनका अन्तर आप जनताको दिखला दीजिये ॥ ५ ॥ प्रभो ! आप सबके आत्मा, समदर्शी और स्वयं आत्मानन्दके साक्षात्कार हैं, स्वयं
ब्रह्म हैं। आपमें ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा, यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकारका भेदभाव नहीं
है। फिर भी जो आपकी सेवा करते हैं, उन्हें उनकी भावनाके
अनुसार फल मिलता ही है—ठीक वैसे ही, जैसे
कल्पवृक्षकी सेवा करनेवालेको। उस फलमें जो न्यूनाधिकता होती है, वह तो न्यूनाधिक सेवाके अनुरूप ही होती है। इससे आपमें विषमता या निर्दयता
आदि दोष नहीं आते ॥ ६ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—शत्रु-विजयी धर्मराज ! आपका
निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय यज्ञ करनेसे समस्त लोकोंमें आपकी मङ्गलमयी
कीर्तिका विस्तार होगा ॥ ७ ॥ राजन् ! आपका यह महायज्ञ ऋषियों, पितरों, देवताओं, सगे-सम्बन्धियों,
हमें—और कहाँतक कहें, समस्त
प्राणियोंको अभीष्ट है ॥ ८ ॥ महाराज ! पृथ्वीके समस्त नरपतियोंको जीतकर, सारी पृथ्वीको अपने वशमें करके और यज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके
फिर इस महायज्ञका अनुष्ठान कीजिये ॥ ९ ॥ महाराज ! आपके चारों भाई वायु, इन्द्र आदि लोकपालोंके अंशसे पैदा हुए हैं। वे सब-के-सब बड़े वीर हैं। आप
तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आपलोगोंने अपने सद्गुणोंसे मुझे अपने वशमें कर
लिया है। जिन लोगोंने अपनी इन्द्रियों और मनको वशमें नहीं किया है, वे मुझे अपने वशमें नहीं कर सकते ॥ १० ॥ संसारमें कोई बड़े-से-बड़ा देवता
भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदिके द्वारा मेरे भक्तका तिरस्कार नहीं कर सकता। फिर
कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इसकी तो सम्भावना ही क्या है ?
॥ ११ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् की बात
सुनकर महाराज युधिष्ठिरका हृदय आनन्दसे भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब
उन्होंने अपने भाइयोंको दिग्विजय करनेका आदेश दिया। भगवान् श्रीकृष्णने
पाण्डवोंमें अपनी शक्तिका सञ्चार करके उनको अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया था ॥ १२ ॥
धर्मराज युधिष्ठिरने सृञ्जयवंशीवीरोंके साथ सहदेवको दक्षिण दिशामें दिग्विजय
करनेके लिये भेजा। नकुलको मत्स्यदेशीय वीरोंके साथ पश्चिममें, अर्जुनको केकयदेशीय वीरोंके साथ उत्तरमें और भीमसेनको मद्रदेशीय वीरोंके
साथ पूर्व दिशामें दिग्विजय करनेका आदेश दिया ॥ १३ ॥ परीक्षित् ! उन भीमसेन आदि
वीरोंने अपने बल-पौरुष से सब ओरके नरपतियोंको जीत लिया और यज्ञ करनेके लिये उद्यत
महाराज युधिष्ठिरको बहुत-सा धन लाकर दिया ॥ १४ ॥ जब महाराज युधिष्ठिरने यह सुना कि
अबतक जरासन्धपर विजय नहीं प्राप्त की जा सकी, तब वे
चिन्तामें पड़ गये। उस समय भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें वही उपाय कह सुनाया,
जो उद्धवजीने बतलाया था ॥ १५ ॥ परीक्षित् ! इसके बाद भीमसेन,
अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण—ये तीनों ही
ब्राह्मणका वेष धारण करके गिरिव्रज गये। वही जरासन्धकी राजधानी थी ॥ १६ ॥ राजा
जरासन्ध ब्राह्मणोंका भक्त और गृहस्थोचित धर्मोंका पालन करनेवाला था। उपर्युक्त
तीनों क्षत्रिय ब्राह्मणका वेष धारण करके अतिथि-अभ्यागतोंके सत्कारके समय
जरासन्धके पास गये और उससे इस प्रकार याचना की— ॥ १७ ॥ ‘राजन् ! आपका कल्याण हो। हम तीनों आपके अतिथि हैं और बहुत दूरसे आ रहे
हैं। अवश्य ही हम यहाँ किसी विशेष प्रयोजनसे ही आये हैं। इसलिये हम आपसे जो कुछ
चाहते हैं, वह आप हमें अवश्य दीजिये ॥ १८ ॥ तितिक्षु पुरुष
क्या नहीं सह सकते। दुष्ट पुरुष बुरा-से-बुरा क्या नहीं कर सकते। उदार पुरुष क्या
नहीं दे सकते और समदर्शीके लिये पराया कौन है ? ॥ १९ ॥ जो
पुरुष स्वयं समर्थ होकर भी इस नाशवान् शरीरसे ऐसे अविनाशी यशका संग्रह नहीं करता,
जिसका बड़े-बड़े सत्पुरुष भी गान करें; सच
पूछिये तो उसकी जितनी निन्दा की जाय, थोड़ी है। उसका जीवन
शोक करने-योग्य है ॥ २० ॥ राजन् ! आप तो जानते ही होंगे—राजा
हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, केवल अन्नके
दाने बीन-चुनकर निर्वाह करनेवाले महात्मा मुद्गल, शिबि,
बलि, व्याध और कपोत आदि बहुत-से व्यक्ति
अतिथिको अपना सर्वस्व देकर इस नाशवान् शरीरके द्वारा अविनाशी पदको प्राप्त हो चुके
हैं। इसलिये आप भी हमलोगोंको निराश मत कीजिये ॥ २१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जरासन्धने उन
लोगोंकी आवाज, सूरत-शकल और कलाइयोंपर पड़े हुए धनुषकी
प्रत्यञ्चाकी रगडक़े चिह्नोंको देखकर पहचान लिया कि ये तो ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय हैं। अब वह सोचने लगा कि मैंने कहीं-न-कहीं इन्हें देखा भी अवश्य
है ॥ २२ ॥ फिर उसने मन-ही-मन यह विचार किया कि ‘ये क्षत्रिय
होनेपर भी मेरे भयसे ब्राह्मणका वेष बनाकर आये हैं। जब ये भिक्षा माँगनेपर ही उतारू
हो गये हैं, तब चाहे जो कुछ माँग लें, मैं
इन्हें दूँगा। याचना करनेपर अपना अत्यन्त प्यारा और दुस्त्यज शरीर देनेमें भी मुझे
हिचकिचाहट न होगी ॥ २३ ॥ विष्णुभगवान् ने ब्राह्मणका वेष धारण करके बलिका धन,
ऐश्वर्य—सब कुछ छीन लिया; फिर भी बलिकी पवित्र कीर्ति सब ओर फैली हुई है और आज भी लोग बड़े आदरसे
उसका गान करते हैं ॥ २४ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि विष्णुभगवान्ने देवराज इन्द्रकी
राज्यलक्ष्मी बलिसे छीनकर उन्हें लौटानेके लिये ही ब्राह्मणरूप धारण किया था।
दैत्यराज बलिको यह बात मालूम हो गयी थी और शुक्राचार्यने उन्हें रोका भी; परन्तु उन्होंने पृथ्वीका दान कर ही दिया ॥ २५ ॥ मेरा तो यह पक्का निश्चय
है कि यह शरीर नाशवान् है। इस शरीर से जो विपुल यश नहीं कमाता और जो क्षत्रिय
ब्राह्मणके लिये ही जीवन नहीं धारण करता, उसका जीना व्यर्थ
है’ ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! सचमुच जरासन्ध की बुद्धि बड़ी उदार
थी। उपर्युक्त विचार करके उसने ब्राह्मण-वेषधारी श्रीकृष्ण, अर्जुन
और भीमसेन से कहा—‘ब्राह्मणो ! आप लोग मन-चाही वस्तु माँग
लें, आप चाहें तो मैं आप लोगों को अपना सिर भी दे सकता हूँ’
॥ २७ ॥
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द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
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