॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
पाण्डवों के
राजसूययज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार
श्रीभगवानुवाच -
युद्धं नो देहि राजेन्द्र द्वन्द्वशो यदि मन्यसे ।
युद्धार्थिनो वयं
प्राप्ता राजन्या नान्यकाङ्क्षिणः ॥ २८ ॥
असौ वृकोदरः पार्थः
तस्य भ्रातार्जुनो ह्ययम् ।
अनयोर्मातुलेयं मां
कृष्णं जानीहि ते रिपुम् ॥ २९ ॥
एवमावेदितो राजा
जहासोच्चैः स्म मागधः ।
आह चामर्षितो मन्दा
युद्धं तर्हि ददामि वः ॥ ३० ॥
न त्वया भीरुणा
योत्स्ये युधि विक्लवतेजसा ।
मथुरां स्वपुरीं
त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतः ॥ ३१ ॥
अयं तु वयसा तुल्यो
नातिसत्त्वो न मे समः ।
अर्जुनो न भवेद्
योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम ॥ ३२ ॥
इत्युक्त्वा
भीमसेनाय प्रादाय महतीं गदाम् ।
द्वितीयां स्वयमादाय
निर्जगाम पुराद् बहिः ॥ ३३ ॥
ततः समे खले वीरौ
संयुक्तावितरेतरौ ।
जघ्नतुर्वज्रकल्पाभ्यां गदाभ्यां रणदुर्मदौ ॥ ३४
॥
मण्डलानि
विचित्राणि सव्यं दक्षिणमेव च ।
चरतोः शुशुभे
युद्धं नटयोरिव रङ्गिणोः ॥ ३५ ॥
ततश्चटचटाशब्दो
वज्रनिष्पेषसन्निभः ।
गदयोः क्षिप्तयो
राजन् दन्तयोरिव दन्तिनोः ॥ ३६ ॥
ते वै गदे भुजजवेन निपात्यमाने
अन्योन्यतोंऽसकटिपादकरोरुजत्रून् ।
चूर्णीबभूवतुरुपेत्य यथार्कशाखे
संयुध्यतोर्द्विरदयोरिव दीप्तमन्व्योः ॥ ३७ ॥
इत्थं तयोः
प्रहतयोर्गदयोर्नृवीरौ
क्रुद्धौ
स्वमुष्टिभिरयःस्परशैरपिष्टाम् ।
शब्दस्तयोः
प्रहरतोरिभयोरिवासीन्
निर्घातवज्रपरुषस्तलताडनोत्थः ॥ ३८ ॥
तयोरेवं प्रहरतोः समशिक्षाबलौजसोः ।
निर्विशेषमभूद्
युद्धं अक्षीणजवयोर्नृप ॥ ३९ ॥
एवं तयोर्महाराज
युध्यतोः सप्तविंशतिः ।
दिनानि निरगंस्तत्र
सुहृद्वन् निशि तिष्ठतोः ॥ ४० ॥
एकदा मातुलेयं वै
प्राह राजन् वृकोदरः ।
न शक्तोऽहं
जरासन्धं निर्जेतुं युधि माधव ॥ ४१ ॥
शत्रोर्जन्ममृती
विद्वान् जीवितं च जराकृतम् ।
पार्थमाप्याययन्
स्वेन तेजसाचिन्तयद्धरिः ॥ ४२ ॥
सञ्चिन्त्यारिवधोपायं भीमस्यामोघदर्शनः ।
दर्शयामास विटपं
पाटयन्निव संज्ञया ॥ ४३ ॥
तद्विज्ञाय
महासत्त्वो भीमः प्रहरतां वरः ।
गृहीत्वा पादयोः
शत्रुं पातयामास भूतले ॥ ४४ ॥
एकं पादं पदाक्रम्य
दोर्भ्यामन्यं प्रगृह्य सः ।
गुदतः पाटयामास
शाखमिव महागजः ॥ ४५ ॥
एकपादोरुवृषण
कटिपृष्ठस्तनांसके ।
एकबाह्वक्षिभ्रूकर्णे शकले ददृशुः प्रजाः ॥ ४६ ॥
हाहाकारो महानासीत्
निहते मगधेश्वरे ।
पूजयामासतुर्भीमं
परिरभ्य जयाच्यतौ ॥ ४७ ॥
सहदेवं तत्तनयं
भगवान्भूतभावनः ।
अभ्यषिञ्चदमेयात्मा
मगधानां पतिं प्रभुः ।
मोचयामास राजन्यान्
संरुद्धा मागधेन ये ॥ ४८ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—‘राजेन्द्र ! हमलोग अन्न के
इच्छुक ब्राह्मण नहीं हैं, क्षत्रिय हैं; हम आपके पास युद्धके लिये आये हैं। यदि आपकी इच्छा हो तो हमें
द्वन्द्वयुद्धकी भिक्षा दीजिये ॥ २८ ॥ देखो, ये पाण्डुपुत्र
भीमसेन हैं और यह इनका भाई अर्जुन है और मैं इन दोनोंका ममेरा भाई तथा आपका पुराना
शत्रु कृष्ण हूँ’ ॥ २९ ॥ जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार
अपना परिचय दिया, तब राजा जरासन्ध ठठाकर हँसने लगा। और चिढक़र
बोला—‘अरे मूर्खो ! यदि तुम्हें युद्धकी ही इच्छा है तो लो
मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ ॥ ३० ॥ परन्तु कृष्ण ! तुम तो बड़े डरपोक
हो। युद्धमें तुम घबरा जाते हो। यहाँतक कि मेरे डरसे तुमने अपनी नगरी मथुरा भी
छोड़ दी तथा समुद्रकी शरण ली है। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं लड़्ूँगा ॥ ३१ ॥ यह
अर्जुन भी कोई योद्धा नहीं है। एक तो अवस्थामें मुझसे छोटा, दूसरे
कोई विशेष बलवान् भी नहीं है। इसलिये यह भी मेरे जोडक़ा वीर नहीं है। मैं इसके साथ
भी नहीं लडँ़ूगा। रहे भीमसेन, ये अवश्य ही मेरे समान बलवान्
और मेरे जोडक़े हैं ॥ ३२ ॥ जरासन्धने यह कहकर भीमसेनको एक बहुत बड़ी गदा दे दी और
स्वयं दूसरी गदा लेकर नगरसे बाहर निकल आया ॥ ३३ ॥ अब दोनों रणोन्मत्त वीर
अखाड़ेमें आकर एक-दूसरेसे भिड़ गये और अपनी वज्रके समान कठोर गदाओंसे एक-दूसरेपर
चोट करने लगे ॥ ३४ ॥ वे दायें-बायें तरह-तरहके पैंतरे बदलते हुए ऐसे शोभायमान हो
रहे थे—मानो दो श्रेष्ठ नट रंगमञ्चपर युद्धका अभिनय कर रहे
हों ॥ ३५ ॥ परीक्षित् ! जब एककी गदा दूसरेकी गदासे टकराती, तब
ऐसा मालूम होता मानो युद्ध करनेवाले दो हाथियोंके दाँत आपसमें भिडक़र चटचटा रहे हों,
या बड़े जोरसे बिजली तडक़ रही हो ॥ ३६ ॥ जब दो हाथी क्रोधमें भरकर
लडऩे लगते हैं और आककी डालियाँ तोड़-तोडक़र एक-दूसरेपर प्रहार करते हैं, उस समय एक- दूसरेकी चोटसे वे डालियाँ चूर-चूर हो जाती हैं; वैसे ही जब जरासन्ध और भीमसेन बड़े वेगसे गदा चला-चलाकर एक-दूसरेके कंधों,
कमरों, पैरों, हाथों,
जाँघों और हँसलियोंपर चोट करने लगे; तब उनकी
गदाएँ उनके अङ्गोंसे टकरा-टकराकर चकनाचूर होने लगीं ॥ ३७ ॥ इस प्रकार जब गदाएँ
चूर-चूर हो गयीं, तब दोनों वीर क्रोधमें भरकर अपने घूँसोंसे
एक-दूसरेको कुचल डालनेकी चेष्टा करने लगे। उनके घूँसे ऐसी चोट करते, मानो लोहेका घन गिर रहा हो। एक-दूसरेपर खुलकर चोट करते हुए दो हाथियोंकी
तरह उनके थप्पड़ों और घूँसोंका कठोर शब्द बिजलीकी कडक़ड़ाहटके समान जान पड़ता था ॥
३८ ॥ परीक्षित् ! जरासन्ध और भीमसेन दोनोंकी गदा-युद्धमें कुशलता, बल और उत्साह समान थे। दोनोंकी शक्ति तनिक भी क्षीण नहीं हो रही थी। इस
प्रकार लगातार प्रहार करते रहनेपर भी दोनोंमेंसे किसीकी जीत या हार न हुई ॥ ३९ ॥
दोनों वीर रातके समय मित्रके समान रहते और दिनमें छूटकर एक-दूसरेपर प्रहार करते और
लड़ते। महाराज ! इस प्रकार उनके लड़ते-लड़ते सत्ताईस दिन बीत गये ॥ ४० ॥
प्रिय
परीक्षित् ! अट्ठाईसवें दिन भीमसेनने अपने ममेरे भाई श्रीकृष्णसे कहा—‘श्रीकृष्ण ! मैं युद्धमें जरासन्धको जीत
नहीं सकता ॥ ४१ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण जरासन्धके जन्म और मृत्युका रहस्य जानते थे और
यह भी जानते थे कि जरा राक्षसीने जरासन्धके शरीरके दो टुकड़ोंको जोडक़र इसे
जीवन-दान दिया है। इसलिये उन्होंने भीमसेनके शरीरमें अपनी शक्तिका सञ्चार किया और
जरासन्धके वधका उपाय सोचा ॥ ४२ ॥ परीक्षित् ! भगवान्का ज्ञान अबाध है। अब
उन्होंने उसकी मृत्युका उपाय जानकर एक वृक्षकी डालीको बीचोबीचसे चीर दिया और
इशारेसे भीमसेनको दिखाया ॥ ४३ ॥ वीरशिरोमणि एवं परम शक्तिशाली भीमसेनने भगवान्
श्रीकृष्णका अभिप्राय समझ लिया और जरासन्धके पैर पकडक़र उसे धरतीपर दे मारा ॥ ४४ ॥
फिर उसके एक पैरको अपने पैरके नीचे दबाया और दूसरेको अपने दोनों हाथोंसे पकड़
लिया। इसके बाद भीमसेनने उसे गुदाकी ओरसे इस प्रकार चीर डाला, जैसे गजराज वृक्षकी डाली चीर डाले ॥ ४५ ॥ लोगोंने देखा कि जरासन्धके
शरीरके दो टुकड़े हो गये हैं, और इस प्रकार उनके एक-एक पैर,
जाँघ, अण्डकोश, कमर,
पीठ, स्तन, कंधा,
भुजा, नेत्र, भौंह और
कान अलग-अलग हो गये हैं ॥ ४६ ॥ मगधराज जरासन्धकी मृत्यु हो जानेपर वहाँकी प्रजा
बड़े जोरसे ‘हाय-हाय !’ पुकारने लगी।
भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने भीमसेनका आलिङ्गन करके उनका सत्कार किया ॥ ४७ ॥
सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूप और विचारोंको कोई समझ नहीं सकता।
वास्तवमें वे ही समस्त प्राणियोंके जीवनदाता हैं। उन्होंने जरासन्धके राजसिंहासनपर
उसके पुत्र सहदेव का अभिषेक कर दिया और जरासन्ध ने जिन राजाओं को कैदी बना रखा था,
उन्हें कारागारसे मुक्त कर दिया ॥ ४८ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे जरासन्ध वधो नाम
द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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