शनिवार, 26 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— तिहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

जरासन्ध के जेल से छूटे हुए राजाओं की विदाई

और भगवान्‌ का इन्द्रप्रस्थ लौट आना

 

श्रीशुक उवाच -

अयुते द्वे शतान्यष्टौ निरुद्धा युधि निर्जिताः ।

 ते निर्गता गिरिद्रोण्यां मलिना मलवाससः ॥ १ ॥

 क्षुत्क्षामाः शुष्कवदनाः संरोधपरिकर्शिताः ।

 ददृशुस्ते घनश्यामं पीतकौशेयवाससम् ॥ २ ॥

 श्रीवत्साङ्कं चतुर्बाहुं पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।

 चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥ ३ ॥

 पद्महस्तं गदाशङ्ख रथाङ्‌गैरुपलक्षितम् ।

 किरीटहारकटक कटिसूत्राङ्‌गदाञ्चितम् ॥ ४ ॥

 भ्राजद्वरमणिग्रीवं निवीतं वनमालया ।

 पिबन्त इव चक्षुर्भ्यां लिहन्त इव जिह्वया ॥ ५ ॥

 जिघ्रन्त इव नासाभ्यां रम्भन्त इव बाहुभिः ।

 प्रणेमुर्हतपाप्मानो मूर्धभिः पादयोर्हरेः ॥ ६ ॥

 कृष्णसन्दर्शनाह्लाद ध्वस्तसंरोधनक्लमाः ।

 प्रशशंसुर्हृषीकेशं गीर्भिः प्राञ्जलयो नृपाः ॥ ७ ॥

 

 राजान ऊचुः -

नमस्ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराव्यय ।

 प्रपन्ना पाहि नः कृष्ण निर्विण्णान् घोरसंसृतेः ॥ ८ ॥

 नैनं नाथानुसूयामो मागधं मधुसूदन ।

 अनुग्रहो यद्‌ भवतो राज्ञां राज्यच्युतिर्विभो ॥ ९ ॥

 राज्यैश्वर्यमदोन्नद्धो न श्रेयो विन्दते नृपः ।

 त्वन्मायामोहितोऽनित्या मन्यते सम्पदोऽचलाः ॥ १० ॥

 मृगतृष्णां यथा बाला मन्यन्त उदकाशयम् ।

 एवं वैकारिकीं मायां अयुक्ता वस्तु चक्षते ॥ ११ ॥

वयं पुरा श्रीमदनष्टदृष्टयो

     जिगीषयास्या इतरेतरस्पृधः ।

 घ्नन्तः प्रजाः स्वा अतिनिर्घृणाः प्रभो

     मृत्युं पुरस्त्वाविगणय्य दुर्मदाः ॥ १२ ॥

 त एव कृष्णाद्य गभीररंहसा

     दुरन्तवीर्येण विचालिताः श्रियः ।

 कालेन तन्वा भवतोऽनुकम्पया

     विनष्टदर्पाश्चरणौ स्मराम ते ॥ १३ ॥

 अथो न राज्यम्मृगतृष्णिरूपितं

     देहेन शश्वत् पतता रुजां भुवा ।

 उपासितव्यं स्पृहयामहे विभो

     क्रियाफलं प्रेत्य च कर्णरोचनम् ॥ १४ ॥

तं नः समादिशोपायं येन ते चरणाब्जयोः ।

 स्मृतिर्यथा न विरमेद् अपि संसरतामिह ॥ १५ ॥

 कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।

 प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः ॥ १६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जरासन्धने अनायास ही बीस हजार आठ सौ राजाओंको जीतकर पहाड़ोंकी घाटीमें एक किलेके भीतर कैद कर रखा था। भगवान्‌ श्रीकृष्णके छोड़ देनेपर जब वे वहाँसे निकले, तब उनके शरीर और वस्त्र मैले हो रहे थे ॥ १ ॥ वे भूखसे दुर्बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे। जेलमें बंद रहनेके कारण उनके शरीरका एक-एक अङ्ग ढीला पड़ गया था। वहाँसे निकलते ही उन नरपतियोंने देखा कि सामने भगवान्‌ श्रीकृष्ण खड़े हैं। वर्षाकालीन मेघके समान उनका साँवला-सलोना शरीर है और उसपर पीले रंगका रेशमी वस्त्र फहरा रहा है ॥ २ ॥ चार भुजाएँ हैंजिनमें गदा, शङ्ख, चक्र और कमल सुशोभित हैं। वक्ष:स्थलपर सुनहली रेखाश्रीवत्सका चिह्न है और कमलके भीतरी भागके समान कोमल, रतनारे नेत्र हैं। सुन्दर वदन प्रसन्नताका सदन है। कानोंमें मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे हैं। सुन्दर मुकुट, मोतियोंका हार, कड़े, करधनी और बाजूबंद अपने-अपने स्थानपर शोभा पा रहे हैं ॥ ३-४ ॥ गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है और वनमाला लटक रही है। भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखकर उन राजाओंकी ऐसी स्थिति हो गयी, मानो वे नेत्रोंसे उन्हें पी रहे हैं। जीभसे चाट रहे हैं, नासिकासे सूँघ रहे हैं और बाहुओंसे आलिङ्गन कर रहे हैं। उनके सारे पाप तो भगवान्‌के दर्शनसे ही धुल चुके थे। उन्होंने भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंपर अपना सिर रखकर प्रणाम किया ॥ ५-६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनसे उन राजाओंको इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैदमें रहनेका क्लेश बिलकुल जाता रहा। वे हाथ जोडक़र विनम्र वाणीसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे ॥ ७ ॥

राजाओंने कहाशरणागतोंके सारे दु:ख और भय हर लेनेवाले देवदेवेश्वर ! सच्चिदानन्दस्वरूप अविनाशी श्रीकृष्ण ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपने जरासन्धके कारागारसे तो हमें छुड़ा ही दिया, अब इस जन्म-मृत्युरूप घोर संसार-चक्रसे भी छुड़ा दीजिये; क्योंकि हम संसारमें दु:खका कटु अनुभव करके उससे ऊब गये हैं और आपकी शरणमें आये हैं। प्रभो ! अब आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ ८ ॥ मधुसूदन ! हमारे स्वामी ! हम मगधराज जरासन्धका कोई दोष नहीं देखते। भगवन् ! यह तो आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है कि हम राजा कहलानेवाले लोग राज्यलक्ष्मीसे च्युत कर दिये गये ॥ ९ ॥ क्योंकि जो राजा अपने राज्य-ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हो जाता है, उसको सच्चे सुखकीकल्याणकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। वह आपकी मायासे मोहित होकर अनित्य सम्पत्तियोंको ही अचल मान बैठता है ॥ १० ॥ जैसे मूर्खलोग मृगतृष्णाके जलको ही जलाशय मान लेते हैं, वैसे ही इन्द्रियलोलुप और अज्ञानी पुरुष भी इस परिवर्तनशील मायाको सत्य वस्तु मान लेते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! पहले हमलोग धन-सम्पत्तिके नशेमें चूर होकर अंधे हो रहे थे। इस पृथ्वीको जीत लेनेके लिये एक-दूसरेकी होड़ करते थे और अपनी ही प्रजाका नाश करते रहते थे ! सचमुच हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरतासे भरा हुआ था, और हमलोग इतने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप मृत्युरूपसे हमारे सामने खड़े हैं, इस बातकी भी हम तनिक परवा नहीं करते थे ॥ १२ ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! कालकी गति बड़ी गहन है। वह इतना बलवान् है कि किसीके टाले टलता नहीं। क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने हमलोगोंको श्रीहीन, निर्धन कर दिया है। आपकी अहैतुक अनुकम्पासे हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं ॥ १३ ॥ विभो ! यह शरीर दिन-दिन क्षीण होता जा रहा है। रोगोंकी तो यह जन्मभूमि ही है। अब हमें इस शरीरसे भोगे जानेवाले राज्यकी अभिलाषा नहीं है। क्योंकि हम समझ गये हैं कि वह मृगतृष्णाके जलके समान सर्वथा मिथ्या है। यही नहीं, हमें कर्मके फल स्वर्गादि लोकोंकी भी, जो मरनेके बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुननेमें ही आकर्षक जान पड़ते हैं ॥ १४ ॥ अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलों की विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसार की किसी भी योनि में जन्म क्यों न लेना पड़े ॥ १५ ॥ प्रणाम करनेवालों के क्लेश का नाश करनेवाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्द के प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 

 



शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

पाण्डवों के राजसूययज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार

 

श्रीभगवानुवाच -

युद्धं नो देहि राजेन्द्र द्वन्द्वशो यदि मन्यसे ।

 युद्धार्थिनो वयं प्राप्ता राजन्या नान्यकाङ्‌क्षिणः ॥ २८ ॥

 असौ वृकोदरः पार्थः तस्य भ्रातार्जुनो ह्ययम् ।

 अनयोर्मातुलेयं मां कृष्णं जानीहि ते रिपुम् ॥ २९ ॥

 एवमावेदितो राजा जहासोच्चैः स्म मागधः ।

 आह चामर्षितो मन्दा युद्धं तर्हि ददामि वः ॥ ३० ॥

 न त्वया भीरुणा योत्स्ये युधि विक्लवतेजसा ।

 मथुरां स्वपुरीं त्यक्त्वा समुद्रं शरणं गतः ॥ ३१ ॥

 अयं तु वयसा तुल्यो नातिसत्त्वो न मे समः ।

 अर्जुनो न भवेद् योद्धा भीमस्तुल्यबलो मम ॥ ३२ ॥

 इत्युक्त्वा भीमसेनाय प्रादाय महतीं गदाम् ।

 द्वितीयां स्वयमादाय निर्जगाम पुराद् बहिः ॥ ३३ ॥

 ततः समे खले वीरौ संयुक्तावितरेतरौ ।

 जघ्नतुर्वज्रकल्पाभ्यां गदाभ्यां रणदुर्मदौ ॥ ३४ ॥

 मण्डलानि विचित्राणि सव्यं दक्षिणमेव च ।

 चरतोः शुशुभे युद्धं नटयोरिव रङ्‌गिणोः ॥ ३५ ॥

 ततश्चटचटाशब्दो वज्रनिष्पेषसन्निभः ।

 गदयोः क्षिप्तयो राजन् दन्तयोरिव दन्तिनोः ॥ ३६ ॥

ते वै गदे भुजजवेन निपात्यमाने

     अन्योन्यतोंऽसकटिपादकरोरुजत्रून् ।

 चूर्णीबभूवतुरुपेत्य यथार्कशाखे

     संयुध्यतोर्द्विरदयोरिव दीप्तमन्व्योः ॥ ३७ ॥

 इत्थं तयोः प्रहतयोर्गदयोर्नृवीरौ

     क्रुद्धौ स्वमुष्टिभिरयःस्परशैरपिष्टाम् ।

 शब्दस्तयोः प्रहरतोरिभयोरिवासीन्

     निर्घातवज्रपरुषस्तलताडनोत्थः ॥ ३८ ॥

तयोरेवं प्रहरतोः समशिक्षाबलौजसोः ।

 निर्विशेषमभूद् युद्धं अक्षीणजवयोर्नृप ॥ ३९ ॥

 एवं तयोर्महाराज युध्यतोः सप्तविंशतिः ।

 दिनानि निरगंस्तत्र सुहृद्‌वन् निशि तिष्ठतोः ॥ ४० ॥

 एकदा मातुलेयं वै प्राह राजन् वृकोदरः ।

 न शक्तोऽहं जरासन्धं निर्जेतुं युधि माधव ॥ ४१ ॥

 शत्रोर्जन्ममृती विद्वान् जीवितं च जराकृतम् ।

 पार्थमाप्याययन् स्वेन तेजसाचिन्तयद्धरिः ॥ ४२ ॥

 सञ्चिन्त्यारिवधोपायं भीमस्यामोघदर्शनः ।

 दर्शयामास विटपं पाटयन्निव संज्ञया ॥ ४३ ॥

 तद्‌विज्ञाय महासत्त्वो भीमः प्रहरतां वरः ।

 गृहीत्वा पादयोः शत्रुं पातयामास भूतले ॥ ४४ ॥

 एकं पादं पदाक्रम्य दोर्भ्यामन्यं प्रगृह्य सः ।

 गुदतः पाटयामास शाखमिव महागजः ॥ ४५ ॥

 एकपादोरुवृषण कटिपृष्ठस्तनांसके ।

 एकबाह्वक्षिभ्रूकर्णे शकले ददृशुः प्रजाः ॥ ४६ ॥

 हाहाकारो महानासीत् निहते मगधेश्वरे ।

 पूजयामासतुर्भीमं परिरभ्य जयाच्यतौ ॥ ४७ ॥

 सहदेवं तत्तनयं भगवान्भूतभावनः ।

 अभ्यषिञ्चदमेयात्मा मगधानां पतिं प्रभुः ।

 मोचयामास राजन्यान् संरुद्धा मागधेन ये ॥ ४८ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘राजेन्द्र ! हमलोग अन्न के इच्छुक ब्राह्मण नहीं हैं, क्षत्रिय हैं; हम आपके पास युद्धके लिये आये हैं। यदि आपकी इच्छा हो तो हमें द्वन्द्वयुद्धकी भिक्षा दीजिये ॥ २८ ॥ देखो, ये पाण्डुपुत्र भीमसेन हैं और यह इनका भाई अर्जुन है और मैं इन दोनोंका ममेरा भाई तथा आपका पुराना शत्रु कृष्ण हूँ॥ २९ ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब राजा जरासन्ध ठठाकर हँसने लगा। और चिढक़र बोला—‘अरे मूर्खो ! यदि तुम्हें युद्धकी ही इच्छा है तो लो मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ ॥ ३० ॥ परन्तु कृष्ण ! तुम तो बड़े डरपोक हो। युद्धमें तुम घबरा जाते हो। यहाँतक कि मेरे डरसे तुमने अपनी नगरी मथुरा भी छोड़ दी तथा समुद्रकी शरण ली है। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं लड़्ूँगा ॥ ३१ ॥ यह अर्जुन भी कोई योद्धा नहीं है। एक तो अवस्थामें मुझसे छोटा, दूसरे कोई विशेष बलवान् भी नहीं है। इसलिये यह भी मेरे जोडक़ा वीर नहीं है। मैं इसके साथ भी नहीं लडँ़ूगा। रहे भीमसेन, ये अवश्य ही मेरे समान बलवान् और मेरे जोडक़े हैं ॥ ३२ ॥ जरासन्धने यह कहकर भीमसेनको एक बहुत बड़ी गदा दे दी और स्वयं दूसरी गदा लेकर नगरसे बाहर निकल आया ॥ ३३ ॥ अब दोनों रणोन्मत्त वीर अखाड़ेमें आकर एक-दूसरेसे भिड़ गये और अपनी वज्रके समान कठोर गदाओंसे एक-दूसरेपर चोट करने लगे ॥ ३४ ॥ वे दायें-बायें तरह-तरहके पैंतरे बदलते हुए ऐसे शोभायमान हो रहे थेमानो दो श्रेष्ठ नट रंगमञ्चपर युद्धका अभिनय कर रहे हों ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! जब एककी गदा दूसरेकी गदासे टकराती, तब ऐसा मालूम होता मानो युद्ध करनेवाले दो हाथियोंके दाँत आपसमें भिडक़र चटचटा रहे हों, या बड़े जोरसे बिजली तडक़ रही हो ॥ ३६ ॥ जब दो हाथी क्रोधमें भरकर लडऩे लगते हैं और आककी डालियाँ तोड़-तोडक़र एक-दूसरेपर प्रहार करते हैं, उस समय एक- दूसरेकी चोटसे वे डालियाँ चूर-चूर हो जाती हैं; वैसे ही जब जरासन्ध और भीमसेन बड़े वेगसे गदा चला-चलाकर एक-दूसरेके कंधों, कमरों, पैरों, हाथों, जाँघों और हँसलियोंपर चोट करने लगे; तब उनकी गदाएँ उनके अङ्गोंसे टकरा-टकराकर चकनाचूर होने लगीं ॥ ३७ ॥ इस प्रकार जब गदाएँ चूर-चूर हो गयीं, तब दोनों वीर क्रोधमें भरकर अपने घूँसोंसे एक-दूसरेको कुचल डालनेकी चेष्टा करने लगे। उनके घूँसे ऐसी चोट करते, मानो लोहेका घन गिर रहा हो। एक-दूसरेपर खुलकर चोट करते हुए दो हाथियोंकी तरह उनके थप्पड़ों और घूँसोंका कठोर शब्द बिजलीकी कडक़ड़ाहटके समान जान पड़ता था ॥ ३८ ॥ परीक्षित्‌ ! जरासन्ध और भीमसेन दोनोंकी गदा-युद्धमें कुशलता, बल और उत्साह समान थे। दोनोंकी शक्ति तनिक भी क्षीण नहीं हो रही थी। इस प्रकार लगातार प्रहार करते रहनेपर भी दोनोंमेंसे किसीकी जीत या हार न हुई ॥ ३९ ॥ दोनों वीर रातके समय मित्रके समान रहते और दिनमें छूटकर एक-दूसरेपर प्रहार करते और लड़ते। महाराज ! इस प्रकार उनके लड़ते-लड़ते सत्ताईस दिन बीत गये ॥ ४० ॥

प्रिय परीक्षित्‌ ! अट्ठाईसवें दिन भीमसेनने अपने ममेरे भाई श्रीकृष्णसे कहा—‘श्रीकृष्ण ! मैं युद्धमें जरासन्धको जीत नहीं सकता ॥ ४१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण जरासन्धके जन्म और मृत्युका रहस्य जानते थे और यह भी जानते थे कि जरा राक्षसीने जरासन्धके शरीरके दो टुकड़ोंको जोडक़र इसे जीवन-दान दिया है। इसलिये उन्होंने भीमसेनके शरीरमें अपनी शक्तिका सञ्चार किया और जरासन्धके वधका उपाय सोचा ॥ ४२ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌का ज्ञान अबाध है। अब उन्होंने उसकी मृत्युका उपाय जानकर एक वृक्षकी डालीको बीचोबीचसे चीर दिया और इशारेसे भीमसेनको दिखाया ॥ ४३ ॥ वीरशिरोमणि एवं परम शक्तिशाली भीमसेनने भगवान्‌ श्रीकृष्णका अभिप्राय समझ लिया और जरासन्धके पैर पकडक़र उसे धरतीपर दे मारा ॥ ४४ ॥ फिर उसके एक पैरको अपने पैरके नीचे दबाया और दूसरेको अपने दोनों हाथोंसे पकड़ लिया। इसके बाद भीमसेनने उसे गुदाकी ओरसे इस प्रकार चीर डाला, जैसे गजराज वृक्षकी डाली चीर डाले ॥ ४५ ॥ लोगोंने देखा कि जरासन्धके शरीरके दो टुकड़े हो गये हैं, और इस प्रकार उनके एक-एक पैर, जाँघ, अण्डकोश, कमर, पीठ, स्तन, कंधा, भुजा, नेत्र, भौंह और कान अलग-अलग हो गये हैं ॥ ४६ ॥ मगधराज जरासन्धकी मृत्यु हो जानेपर वहाँकी प्रजा बड़े जोरसे हाय-हाय !पुकारने लगी। भगवान्‌ श्रीकृष्ण और अर्जुनने भीमसेनका आलिङ्गन करके उनका सत्कार किया ॥ ४७ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णके स्वरूप और विचारोंको कोई समझ नहीं सकता। वास्तवमें वे ही समस्त प्राणियोंके जीवनदाता हैं। उन्होंने जरासन्धके राजसिंहासनपर उसके पुत्र सहदेव का अभिषेक कर दिया और जरासन्ध ने जिन राजाओं को कैदी बना रखा था, उन्हें कारागारसे मुक्त कर दिया ॥ ४८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे जरासन्ध वधो नाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बहत्तरवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

पाण्डवों के राजसूययज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार

 

श्रीशुक उवाच -

एकदा तु सभामध्य आस्थितो मुनिभिर्वृतः ।

 ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः भ्रातृभिश्च युधिष्ठिरः ॥ १ ॥

 आचार्यैः कुलवृद्धैश्च ज्ञातिसंबन्धिबान्धवैः ।

 श्रृण्वतामेव चैतेषां आभाष्येदमुवाच ह ॥ २ ॥

 

 श्रीयुधिष्ठिर उवाच -

क्रतुराजेन गोविन्द राजसूयेन पावनीः ।

 यक्ष्ये विभूतीर्भवतः तत्संपादय नः प्रभो ॥ ३ ॥

 त्वत्पादुके अविरतं परि ये चरन्ति

     ध्यायन्त्यभद्रनशने शुचयो गृणन्ति ।

 विन्दन्ति ते कमलनाभ भवापवर्गम्

     आशासते यदि त आशिष ईश नान्ये ॥ ४ ॥

 तद्देवदेव भवतश्चरणारविन्द

     सेवानुभावमिह पश्यतु लोक एषः ।

 ये त्वां भजन्ति न भजन्त्युत वोभयेषां

     निष्ठां प्रदर्शय विभो कुरुसृञ्जयानाम् ॥ ५ ॥

 न ब्रह्मणः स्वपरभेदमतिस्तव स्यात्

     सर्वात्मनः समदृशः स्वसुखानुभूतेः ।

 संसेवतां सुरतरोरिव ते प्रसादः

     सेवानुरूपमुदयो न विपर्ययोऽत्र ॥ ६ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

सम्यग् व्यवसितं राजन् भवता शत्रुकर्शन ।

 कल्याणी येन ते कीर्तिः लोकान् अनुभविष्यति ॥ ७ ॥

 ऋषीणां पितृदेवानां सुहृदामपि नः प्रभो ।

 सर्वेषामपि भूतानां ईप्सितः क्रतुराडयम् ॥ ८ ॥

 विजित्य नृपतीन् सर्वान् कृत्वा च जगतीं वशे ।

 सम्भृत्य सर्वसम्भारान् आहरस्व महाक्रतुम् ॥ ९ ॥

 एते ते भ्रातरो राजन् लोकपालांशसंभवाः ।

 जितोऽस्म्यात्मवता तेऽहं दुर्जयो योऽकृतात्मभिः ॥ १० ॥

 न कश्चिन्मत्परं लोके तेजसा यशसा श्रिया ।

 विभूतिभिर्वाभिभवेद् देवोऽपि किमु पार्थिवः ॥ ११ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

निशम्य भगवद्‌गीतं प्रीतः फुल्लमुखाम्बुजः ।

 भ्रातॄन् दिग्विजयेऽयुङ्क्त विष्णुतेजोपबृंहितान् ॥ १२ ॥

 सहदेवं दक्षिणस्यां आदिशत् सह सृञ्जयैः ।

 दिशि प्रतीच्यां नकुलं उदीच्यां सव्यसाचिनम् ।

 प्राच्यां वृकोदरं मत्स्यैः केकयैः सह मद्रकैः ॥ १३ ॥

 ते विजित्य नृपान् वीरा आजह्रुर्दिग्भ्य ओजसा ।

 अजातशत्रवे भूरि द्रविणं नृप यक्ष्यते ॥ १४ ॥

 श्रुत्वाजितं जरासन्धं नृपतेर्ध्यायतो हरिः ।

 आहोपायं तमेवाद्य उद्धवो यमुवाच ह ॥ १५ ॥

 भीमसेनोऽर्जुनः कृष्णो ब्रह्मलिङ्‌गधरास्त्रयः ।

 जग्मुर्गिरिव्रजं तात बृहद्रथसुतो यतः ॥ १६ ॥

 ते गत्वाऽऽतिथ्यवेलायां गृहेषु गृहमेधिनम् ।

 ब्रह्मण्यं समयाचेरन् राजन्या ब्रह्मलिङ्‌गिनः ॥ १७ ॥

 राजन् विद्ध्यतिथीन् प्राप्तान् अर्थिनो दूरमागतान् ।

 तन्नः प्रयच्छ भद्रं ते यद्‌ वयं कामयामहे ॥ १८ ॥

 किं दुर्मर्षं तितिक्षूणां किं अकार्यं असाधुभिः ।

 किं न देयं वदान्यानां कः परः समदर्शिनाम् ॥ १९ ॥

 योऽनित्येन शरीरेण सतां गेयं यशो ध्रुवम् ।

 नाचिनोति स्वयं कल्पः स वाच्यः शोच्य एव सः ॥ २० ॥

 हरिश्चन्द्रो रन्तिदेव उञ्छवृत्तिः शिबिर्बलिः ।

 व्याधः कपोतो बहवो ह्यध्रुवेण ध्रुवं गताः ॥ २१ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

स्वरैराकृतिभिस्तांस्तु प्रकोष्ठैर्ज्याहतैरपि ।

 राजन्यबन्धून् विज्ञाय दृष्टपूर्वानचिन्तयत् ॥ २२ ॥

 राजन्यबन्धवो ह्येते ब्रह्मलिङ्‌गानि बिभ्रति ।

 ददानि भिक्षितं तेभ्य आत्मानमपि दुस्त्यजम् ॥ २३ ॥

 बलेर्नु श्रूयते कीर्तिः वितता दिक्ष्वकल्मषा ।

 ऐश्वर्याद्‌ भ्रंशितस्यापि विप्रव्याजेन विष्णुना ॥ २४ ॥

 श्रियं जिहीर्षतेन्द्रस्य विष्णवे द्विजरूपिणे ।

 जानन्नपि महीं प्रादाद्‌ वार्यमाणोऽपि दैत्यराट् ॥ २५ ॥

 जीवता ब्राह्मणार्थाय को न्वर्थः क्षत्रबन्धुना ।

 देहेन पतमानेन नेहता विपुलं यशः ॥ २६ ॥

 इत्युदारमतिः प्राह कृष्णार्जुनवृकोदरान् ।

 हे विप्रा व्रियतां कामो ददाम्यात्मशिरोऽपि वः ॥ २७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक दिन महाराज युधिष्ठिर बहुत-से मुनियों, ब्राह्मणों,क्षत्रियों, वैश्यों, भीमसेन आदि भाइयों, आचार्यों, कुलके बड़े-बूढ़ों, जाति-बन्धुओं, सम्बन्धियों एवं कुटुम्बियोंके साथ राजसभामें बैठे हुए थे। उन्होंने सबके सामने ही भगवान्‌ श्रीकृष्णको सम्बोधित करके यह बात कही ॥ १-२ ॥

धर्मराज युधिष्ठिरने कहागोविन्द ! मैं सर्वश्रेष्ठ राजसूययज्ञके द्वारा आपका और आपके परम पावन विभूतिस्वरूप देवताओंका यजन करना चाहता हूँ। प्रभो ! आप कृपा करके मेरा यह सङ्कल्प पूरा कीजिये ॥ ३ ॥ कमलनाभ ! आपके चरणकमलोंकी पादुकाएँ समस्त अमङ्गलोंको नष्ट करनेवाली हैं। जो लोग निरन्तर उनकी सेवा करते हैं, ध्यान और स्तुति करते हैं, वास्तवमें वे ही पवित्रात्मा हैं। वे जन्म-मृत्युके चक्करसे छुटकारा पा जाते हैं। और यदि वे सांसारिक विषयोंकी अभिलाषा करें, तो उन्हें उनकी भी प्राप्ति हो जाती है। परन्तु जो आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण नहीं करते, उन्हें मुक्ति तो मिलती ही नहीं, सांसारिक भोग भी नहीं मिलते ॥ ४ ॥ देवताओंके भी आराध्यदेव ! मैं चाहता हूँ कि संसारी लोग आपके चरणकमलोंकी सेवाका प्रभाव देखें। प्रभो ! कुरुवंशी और सृञ्जयवंशी नरपतियोंमें जो लोग आपका भजन करते हैं, और जो नहीं करते, उनका अन्तर आप जनताको दिखला दीजिये ॥ ५ ॥ प्रभो ! आप सबके आत्मा, समदर्शी और स्वयं आत्मानन्दके साक्षात्कार हैं, स्वयं ब्रह्म हैं। आपमें यह मैं हूँ और यह दूसरा, यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकारका भेदभाव नहीं है। फिर भी जो आपकी सेवा करते हैं, उन्हें उनकी भावनाके अनुसार फल मिलता ही हैठीक वैसे ही, जैसे कल्पवृक्षकी सेवा करनेवालेको। उस फलमें जो न्यूनाधिकता होती है, वह तो न्यूनाधिक सेवाके अनुरूप ही होती है। इससे आपमें विषमता या निर्दयता आदि दोष नहीं आते ॥ ६ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहाशत्रु-विजयी धर्मराज ! आपका निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय यज्ञ करनेसे समस्त लोकोंमें आपकी मङ्गलमयी कीर्तिका विस्तार होगा ॥ ७ ॥ राजन् ! आपका यह महायज्ञ ऋषियों, पितरों, देवताओं, सगे-सम्बन्धियों, हमेंऔर कहाँतक कहें, समस्त प्राणियोंको अभीष्ट है ॥ ८ ॥ महाराज ! पृथ्वीके समस्त नरपतियोंको जीतकर, सारी पृथ्वीको अपने वशमें करके और यज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके फिर इस महायज्ञका अनुष्ठान कीजिये ॥ ९ ॥ महाराज ! आपके चारों भाई वायु, इन्द्र आदि लोकपालोंके अंशसे पैदा हुए हैं। वे सब-के-सब बड़े वीर हैं। आप तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आपलोगोंने अपने सद्गुणोंसे मुझे अपने वशमें कर लिया है। जिन लोगोंने अपनी इन्द्रियों और मनको वशमें नहीं किया है, वे मुझे अपने वशमें नहीं कर सकते ॥ १० ॥ संसारमें कोई बड़े-से-बड़ा देवता भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदिके द्वारा मेरे भक्तका तिरस्कार नहीं कर सकता। फिर कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इसकी तो सम्भावना ही क्या है ? ॥ ११ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिरका हृदय आनन्दसे भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब उन्होंने अपने भाइयोंको दिग्विजय करनेका आदेश दिया। भगवान्‌ श्रीकृष्णने पाण्डवोंमें अपनी शक्तिका सञ्चार करके उनको अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया था ॥ १२ ॥ धर्मराज युधिष्ठिरने सृञ्जयवंशीवीरोंके साथ सहदेवको दक्षिण दिशामें दिग्विजय करनेके लिये भेजा। नकुलको मत्स्यदेशीय वीरोंके साथ पश्चिममें, अर्जुनको केकयदेशीय वीरोंके साथ उत्तरमें और भीमसेनको मद्रदेशीय वीरोंके साथ पूर्व दिशामें दिग्विजय करनेका आदेश दिया ॥ १३ ॥ परीक्षित्‌ ! उन भीमसेन आदि वीरोंने अपने बल-पौरुष से सब ओरके नरपतियोंको जीत लिया और यज्ञ करनेके लिये उद्यत महाराज युधिष्ठिरको बहुत-सा धन लाकर दिया ॥ १४ ॥ जब महाराज युधिष्ठिरने यह सुना कि अबतक जरासन्धपर विजय नहीं प्राप्त की जा सकी, तब वे चिन्तामें पड़ गये। उस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने उन्हें वही उपाय कह सुनाया, जो उद्धवजीने बतलाया था ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! इसके बाद भीमसेन, अर्जुन और भगवान्‌ श्रीकृष्णये तीनों ही ब्राह्मणका वेष धारण करके गिरिव्रज गये। वही जरासन्धकी राजधानी थी ॥ १६ ॥ राजा जरासन्ध ब्राह्मणोंका भक्त और गृहस्थोचित धर्मोंका पालन करनेवाला था। उपर्युक्त तीनों क्षत्रिय ब्राह्मणका वेष धारण करके अतिथि-अभ्यागतोंके सत्कारके समय जरासन्धके पास गये और उससे इस प्रकार याचना की॥ १७ ॥ राजन् ! आपका कल्याण हो। हम तीनों आपके अतिथि हैं और बहुत दूरसे आ रहे हैं। अवश्य ही हम यहाँ किसी विशेष प्रयोजनसे ही आये हैं। इसलिये हम आपसे जो कुछ चाहते हैं, वह आप हमें अवश्य दीजिये ॥ १८ ॥ तितिक्षु पुरुष क्या नहीं सह सकते। दुष्ट पुरुष बुरा-से-बुरा क्या नहीं कर सकते। उदार पुरुष क्या नहीं दे सकते और समदर्शीके लिये पराया कौन है ? ॥ १९ ॥ जो पुरुष स्वयं समर्थ होकर भी इस नाशवान् शरीरसे ऐसे अविनाशी यशका संग्रह नहीं करता, जिसका बड़े-बड़े सत्पुरुष भी गान करें; सच पूछिये तो उसकी जितनी निन्दा की जाय, थोड़ी है। उसका जीवन शोक करने-योग्य है ॥ २० ॥ राजन् ! आप तो जानते ही होंगेराजा हरिश्चन्द्र, रन्तिदेव, केवल अन्नके दाने बीन-चुनकर निर्वाह करनेवाले महात्मा मुद्गल, शिबि, बलि, व्याध और कपोत आदि बहुत-से व्यक्ति अतिथिको अपना सर्वस्व देकर इस नाशवान् शरीरके द्वारा अविनाशी पदको प्राप्त हो चुके हैं। इसलिये आप भी हमलोगोंको निराश मत कीजिये ॥ २१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जरासन्धने उन लोगोंकी आवाज, सूरत-शकल और कलाइयोंपर पड़े हुए धनुषकी प्रत्यञ्चाकी रगडक़े चिह्नोंको देखकर पहचान लिया कि ये तो ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय हैं। अब वह सोचने लगा कि मैंने कहीं-न-कहीं इन्हें देखा भी अवश्य है ॥ २२ ॥ फिर उसने मन-ही-मन यह विचार किया कि ये क्षत्रिय होनेपर भी मेरे भयसे ब्राह्मणका वेष बनाकर आये हैं। जब ये भिक्षा माँगनेपर ही उतारू हो गये हैं, तब चाहे जो कुछ माँग लें, मैं इन्हें दूँगा। याचना करनेपर अपना अत्यन्त प्यारा और दुस्त्यज शरीर देनेमें भी मुझे हिचकिचाहट न होगी ॥ २३ ॥ विष्णुभगवान्‌ ने ब्राह्मणका वेष धारण करके बलिका धन, ऐश्वर्यसब कुछ छीन लिया; फिर भी बलिकी पवित्र कीर्ति सब ओर फैली हुई है और आज भी लोग बड़े आदरसे उसका गान करते हैं ॥ २४ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि विष्णुभगवान्‌ने देवराज इन्द्रकी राज्यलक्ष्मी बलिसे छीनकर उन्हें लौटानेके लिये ही ब्राह्मणरूप धारण किया था। दैत्यराज बलिको यह बात मालूम हो गयी थी और शुक्राचार्यने उन्हें रोका भी; परन्तु उन्होंने पृथ्वीका दान कर ही दिया ॥ २५ ॥ मेरा तो यह पक्का निश्चय है कि यह शरीर नाशवान् है। इस शरीर से जो विपुल यश नहीं कमाता और जो क्षत्रिय ब्राह्मणके लिये ही जीवन नहीं धारण करता, उसका जीना व्यर्थ है॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! सचमुच जरासन्ध की बुद्धि बड़ी उदार थी। उपर्युक्त विचार करके उसने ब्राह्मण-वेषधारी श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन से कहा—‘ब्राह्मणो ! आप लोग मन-चाही वस्तु माँग लें, आप चाहें तो मैं आप लोगों को अपना सिर भी दे सकता हूँ॥ २७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...