॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बयासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान्
श्रीकृष्ण-बलराम से गोप-गोपियों की भेंट
भीष्मो द्रोणोऽम्बिकापुत्रो गान्धारी ससुता तथा ।
सदाराः पाण्डवाः
कुन्ती सञ्जयो विदुरः कृपः ॥ २४ ॥
कुन्तीभोजो
विराटश्च भीष्मको नग्नजिन्महान् ।
पुरुजिद् द्रुपदः
शल्यो धृष्टकेतुः सकाशिराट् ॥ २५ ॥
दमघोषो विशालाक्षो
मैथिलो मद्रकेकयौ ।
युधामन्युः सुशर्मा
च ससुता बाह्लिकादयः ॥ २६ ॥
राजानो ये च
राजेन्द्र युधिष्ठिरमनुव्रताः ।
श्रीनिकेतं वपुः
शौरेः सस्त्रीकं वीक्ष्य विस्मिताः ॥ २७ ॥
अथ ते
रामकृष्णाभ्यां सम्यक् प्राप्तसमर्हणाः ।
प्रशशंसुर्मुदा
युक्ता वृष्णीन् कृष्णपरिग्रहान् ॥ २८ ॥
अहो भोजपते यूयं
जन्मभाजो नृणामिह ।
यत् पश्यथासकृत्
कृष्णं दुर्दर्शमपि योगिनाम् ॥ २९ ॥
यद्विश्रुतिः श्रुतिनुतेदमलं पुनाति
पादावनेजनपयश्च वचश्च शास्त्रम् ।
भूः कालभर्जितभगापि
यदङ्घ्रिपद्म
स्पर्शोत्थशक्तिरभिवर्षति नोऽखिलार्थान् ॥ ३० ॥
तद्दर्शनस्पर्शनानुपथप्रजल्प
शय्यासनाशनसयौनसपिण्डबन्धः ।
येषां गृहे
निरयवर्त्मनि वर्ततां वः
स्वर्गापवर्गविरमः स्वयमास विष्णुः ॥ ३१ ॥
श्रीशुक उवाच -
नन्दस्तत्र यदून् प्राप्तान् ज्ञात्वा कृष्णपुरोगमान् ।
तत्रागमद्वृतो
गोपैः अनः स्थार्थैः दिदृक्षया ॥ ३२ ॥
तं दृष्ट्वा
वृष्णयो हृष्टाः तन्वः प्राणमिवोत्थिताः ।
परिषस्वजिरे गाढं
चिरदर्शनकातराः ॥ ३३ ॥
वसुदेवः परिष्वज्य
सम्प्रीतः प्रेमविह्वलः ।
स्मरन् कंसकृतान्
क्लेशान् पुत्रन्यासं च गोकुले ॥ ३४ ॥
कृष्णरामौ
परिष्वज्य पितरावभिवाद्य च ।
न किञ्चनोचतुः
प्रेम्णा साश्रुकण्ठौ कुरूद्वह ॥ ३५ ॥
तावात्मासनमारोप्य
बाहुभ्यां परिरभ्य च ।
यशोदा च महाभागा
सुतौ विजहतुः शुचः ॥ ३६ ॥
रोहिणी देवकी चाथ
परिष्वज्य व्रजेश्वरीम् ।
स्मरन्त्यौ
तत्कृतां मैत्रीं बाष्पकण्ठ्यौ समूचतुः ॥ ३७ ॥
का विस्मरेत वां
मैत्रीं अनिवृत्तां व्रजेश्वरि ।
अवाप्याप्यैन्द्रमैश्वर्यं यस्या नेह
प्रतिक्रिया ॥ ३८ ॥
एतावदृष्टपितरौ युवयोः स्म पित्रोः
सम्प्रीणनाभ्युदयपोषणपालनानि ।
प्राप्योषतुर्भवति
पक्ष्म ह यद्वदक्ष्णोः
न्यस्तावकुत्र
च भयौ न सतां परः स्वः ॥ ३९ ॥
श्रीशुक उवाच -
गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टं
यत्प्रेक्षणे
दृशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति ।
दृग्भिर्हृदीकृतमलं
परिरभ्य सर्वाः
तद्भावमापुरपि नित्ययुजां दुरापम् ॥ ४० ॥
भगवांस्तास्तथाभूता विविक्त उपसङ्गतः ।
आश्लिष्यानामयं
पृष्ट्वा प्रहसन् इदमब्रवीत् ॥ ४१ ॥
अपि स्मरथ नः सख्यः
स्वानामर्थचिकीर्षया ।
गतांश्चिरायिताञ्छत्रु पक्षक्षपणचेतसः ॥ ४२ ॥
अप्यवध्यायथास्मान्
स्विदकृतज्ञाविशङ्कया ।
नूनं भूतानि भगवान्
युनक्ति वियुनक्ति च ॥ ४३ ॥
वायुर्यथा घनानीकं
तृणं तूलं रजांसि च ।
संयोज्याक्षिपते
भूयः तथा भूतानि भूतकृत् ॥ ४४ ॥
मयि भक्तिर्हि
भूतानां अमृतत्वाय कल्पते ।
दिष्ट्या यदासीत्
मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः ॥ ४५ ॥
अहं हि सर्वभूतानां
आदिरन्तोऽन्तरं बहिः ।
भौतिकानां यथा खं
वार्भूर्वायुर्ज्योतिरङ्गनाः ॥ ४६ ॥
एवं ह्येतानि
भूतानि भूतेष्वात्माऽऽत्मना ततः ।
उभयं मय्यथ परे
पश्यताभातमक्षरे ॥ ४७ ॥
श्रीशुक उवाच -
अध्यात्मशिक्षया गोप्य एवं कृष्णेन शिक्षिताः ।
तदनुस्मरणध्वस्त
जीवकोशास्तमध्यगन् ॥ ४८ ॥
आहुश्च ते नलिननाभ पदारविन्दं
योगेश्वरैर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः ।
संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं
गेहं जुषामपि
मनस्युदियात् सदा नः ॥ ४९ ॥
परीक्षित् !
भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधनादि पुत्रोंके साथ गान्धारी,
पत्नियोंके सहित युधिष्ठिर आदि पाण्डव, कुन्ती,
सृञ्जय, विदुर, कृपाचार्य,
कुन्तिभोज, विराट, भीष्मक,
महाराज नग्नजित्, पुरुजित्, द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु,
काशी- नरेश, दमघोष, विशालाक्ष,
मिथिलानरेश, मद्रनरेश, केकयनरेश,
युधामन्यु, सुशर्मा, अपने
पुत्रोंके साथ बाह्लीक और दूसरे भी युधिष्ठिरके अनुयायी नृपति भगवान् श्रीकृष्णका
परम सुन्दर श्रीनिकेतन विग्रह और उनकी रानियोंको देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये ॥
२४—२७ ॥ अब वे बलरामजी तथा भगवान् श्रीकृष्णसे भलीभाँति
सम्मान प्राप्त करके बड़े आनन्दसे श्रीकृष्णके स्वजनों— यदुवंशियोंकी
प्रशंसा करने लगे ॥ २८ ॥ उन लोगोंने मुख्यतया उग्रसेनजीको सम्बोधित कर कहा—
‘भोजराज उग्रसेनजी ! सच पूछिये तो इस जगत् के मनुष्योंमें आपलोगोंका
जीवन ही सफल है, धन्य है ! धन्य है ! क्योंकि जिन
श्रीकृष्णका दर्शन बड़े-बड़े योगियोंके लिये भी दुर्लभ है, उन्हींको
आपलोग नित्य-निरन्तर देखते रहते हैं ॥ २९ ॥ वेदोंने बड़े आदरके साथ भगवान्
श्रीकृष्णकी कीर्तिका गान किया है। उनके चरणधोवन का जल गङ्गाजल, उनकी वाणी—शास्त्र और उनकी कीर्ति इस जगत् को
अत्यन्त पवित्र कर रही है। अभी हमलोगोंके जीवनकी ही बात है, समयके
फेरसे पृथ्वीका सारा सौभाग्य नष्ट हो चुका था; परन्तु उनके
चरणकमलोंके स्पर्शसे पृथ्वीमें फिर समस्त शक्तियोंका सञ्चार हो गया और अब वह फिर
हमारी समस्त अभिलाषाओं—मनोरथोंको पूर्ण करने लगी ॥ ३० ॥
उग्रसेनजी ! आपलोगोंका श्रीकृष्णके साथ वैवाहिक एवं गोत्रसम्बन्ध है। यही नहीं,
आप हर समय उनका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते रहते हैं। उनके साथ
चलते हैं, बोलते हैं, सोते हैं,
बैठते हैं और खाते-पीते हैं। यों तो आपलोग गृहस्थीकी झंझटोंमें फँसे
रहते हैं—जो नरकका मार्ग है, परन्तु
आपलोगोंके घर वे सर्वव्यापक विष्णुभगवान् मूर्तिमान् रूपसे निवास करते हैं,
जिनके दर्शनमात्रसे स्वर्ग और मोक्षतककी अभिलाषा मिट जाती है’
॥ ३१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब नन्दबाबाको
यह बात मालूम हुई कि श्रीकृष्ण आदि यदुवंशी कुरुक्षेत्रमें आये हुए हैं’ तब वे गोपोंके साथ अपनी सारी सामग्री गाडिय़ोंपर लादकर अपने प्रिय पुत्र
श्रीकृष्ण-बलराम आदिको देखनेके लिये वहाँ आये ॥ ३२ ॥ नन्द आदि गोपोंको देखकर
सब-के-सब यदुवंशी आनन्दसे भर गये। वे इस प्रकार उठ खड़े हुए, मानो मृत शरीरमें प्राणोंका सञ्चार हो गया हो। वे लोग एक-दूसरेसे मिलनेके
लिये बहुत दिनोंसे आतुर हो रहे थे। इसलिये एक-दूसरेको बहुत देरतक अत्यन्त
गाढ़भावसे आलिङ्गन करते रहे ॥ ३३ ॥ वसुदेवजीने अत्यन्त प्रेम और आनन्दसे विह्वल
होकर नन्दजीको हृदयसे लगा लिया। उन्हें एक-एक करके सारी बातें याद हो आयीं—कंस किस प्रकार उन्हें सताता था और किस प्रकार उन्होंने अपने पुत्रको गोकुलमें
ले जाकर नन्दजीके घर रख दिया था ॥ ३४ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने माता यशोदा
और पिता नन्दजीके हृदयसे लगकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। परीक्षित् ! उस समय
प्रेमके उद्रेकसे दोनों भाइयोंका गला रुँध गया, वे कुछ भी
बोल न सके ॥ ३५ ॥ महाभाग्यवती यशोदाजी और नन्दबाबाने दोनों पुत्रोंको अपनी गोदमें
बैठा लिया और भुजाओंसे उनका गाढ़ आलिङ्गन किया। उनके हृदयमें चिरकालतक न मिलनेका
जो दु:ख था, वह सब मिट गया ॥ ३६ ॥ रोहिणी और देवकीजीने
व्रजेश्वरी यशोदाको अपनी अँकवारमें भर लिया। यशोदाजीने उन लोगोंके साथ मित्रताका
जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनोंका गला भर आया। वे
यशोदाजीसे कहने लगीं— ॥ ३७ ॥ ‘यशोदारानी
! आपने और व्रजेश्वर नन्दजीने हमलोगोंके साथ जो मित्रताका व्यवहार किया है,
वह कभी मिटनेवाला नहीं है, उसका बदला इन्द्रका
ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चुका सकतीं। नन्दरानीजी ! भला ऐसा कौन कृतघ्र
है, जो आपके उस उपकारको भूल सके ? ॥ ३८
॥ देवि ! जिस समय बलराम और श्रीकृष्णने अपने मा-बापको देखातक न था और इनके पिताने
धरोहरके रूपमें इन्हें आप दोनोंके पास रख छोड़ा था, उस समय
आपने इन दोनोंकी इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियोंकी
रक्षा करती हैं। तथा आपलोगोंने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार
किया और रिझाया; इनके मङ्गलके लिये अनेकों प्रकारके उत्सव
मनाये। सच पूछिये, तो इनके मा-बाप आप ही लोग हैं। आपलोगोंकी
देख-रेखमें इन्हें किसीकी आँचतक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे,
ऐसा करना आपलोगोंके अनुरूप ही था। क्योंकि सत्पुरुषोंकी दृष्टिमें
अपने-परायेका भेद-भाव नहीं रहता। नन्दरानीजी ! सचमुच आपलोग परम संत हैं ॥ ३९ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! मैं कह चुका हूँ
कि गोपियोंके परम प्रियतम, जीवनसर्वस्व श्रीकृष्ण ही थे। जब
उनके दर्शनके समय नेत्रोंकी पलकें गिर पड़तीं, तब वे पलकोंको
बनाने- वालेको ही कोसने लगतीं। उन्हीं प्रेमकी मूर्ति गोपियोंको आज बहुत दिनोंके
बाद भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन हुआ। उनके मनमें इसके लिये कितनी लालसा थी, इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। उन्होंने नेत्रोंके रास्ते अपने
प्रियतम श्रीकृष्णको हृदयमें ले जाकर गाढ़ आलिङ्गन किया और मन-ही-मन आलिङ्गन
करते-करते तन्मय हो गयीं। परीक्षित् ! कहाँतक कहूँ, वे उस
भावको प्राप्त हो गयीं, जो नित्य-निरन्तर अभ्यास करनेवाले
योगियोंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ॥ ४० ॥ जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि
गोपियाँ मुझसे तादात्म्यको प्राप्त—एक हो रही हैं, तब वे एकान्तमें उनके पास गये, उनको हृदयसे लगाया,
कुशल-मङ्गल पूछा और हँसते हुए यों बोले— ॥ ४१
॥ ‘सखियो ! हमलोग अपने स्वजन-सम्बन्धियोंका काम करनेके लिये
व्रजसे बाहर चले आये और इस प्रकार तुम्हारी-जैसी प्रेयसियोंको छोडक़र हम शत्रुओंका
विनाश करनेमें उलझ गये। बहुत दिन बीत गये, क्या कभी तुमलोग
हमारा स्मरण भी करती हो ? ॥ ४२ ॥ मेरी प्यारी गोपियो ! कहीं
तुमलोगोंके मनमें यह आशङ्का तो नहीं हो गयी है कि मैं अकृतज्ञ हूँ और ऐसा समझकर
तुमलोग हमसे बुरा तो नहीं मानने लगी हो ? निस्सन्देह भगवान्
ही प्राणियोंके संयोग और वियोगके कारण हैं ॥ ४३ ॥ जैसे वायु बादलों, तिनकों, रूई और धूलके कणोंको एक-दूसरेसे मिला देती
है, और फिर स्वच्छन्दरूपसे उन्हें अलग-अलग कर देती है,
वैसे ही समस्त पदार्थोंके निर्माता भगवान् भी सबका संयोग-वियोग
अपनी इच्छानुसार करते रहते हैं ॥ ४४ ॥ सखियो ! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम सब
लोगोंको मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है, जो मेरी ही
प्राप्ति करानेवाला है। क्योंकि मेरे प्रति की हुई प्रेम-भक्ति प्राणियोंको
अमृतत्व (परमानन्द-धाम) प्रदान करनेमें समर्थ है ॥ ४५ ॥ प्यारी गोपियो ! जैसे घट,
पट आदि जितने भी भौतिक पदार्थ हैं, उनके आदि,
अन्त और मध्यमें, बाहर और भीतर, उनके मूल कारण पृथ्वी, जल, वायु,
अग्नि तथा आकाश ही ओतप्रोत हो रहे हैं, वैसे
ही जितने भी पदार्थ हैं, उनके पहले, पीछे,
बीचमें, बाहर और भीतर केवल मैं-ही-मैं हूँ ॥
४६ ॥ इसी प्रकार सभी प्राणियोंके शरीरमें यही पाँचों भूत कारणरूपसे स्थित हैं और
आत्मा भोक्ताके रूपसे अथवा जीवके रूपसे स्थित है। परन्तु मैं इन दोनोंसे परे
अविनाशी सत्य हूँ। ये दोनों मेरे ही अंदर प्रतीत हो रहे हैं, तुमलोग ऐसा अनुभव करो ॥ ४७ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्णने इस प्रकार गोपियोंको अध्यात्मज्ञानकी शिक्षासे शिक्षित किया। उसी
उपदेशके बार-बार स्मरणसे गोपियोंका जीवकोश—लिङ्गशरीर नष्ट हो
गया और वे भगवान् से एक हो गयीं, भगवान् को ही
सदा-सर्वदाके लिये प्राप्त हो गयीं ॥ ४८ ॥ उन्होंने कहा—‘हे
कमलनाभ ! अगाधबोधसम्पन्न बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयकमलमें आपके चरणकमलोंका
चिन्तन करते रहते हैं। जो लोग संसारके कूएँमें गिरे हुए हैं, उन्हें उससे निकलनेके लिये आपके चरणकमल ही एकमात्र अवलम्बन हैं। प्रभो !
आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपका वह चरणकमल, घर-गृहस्थके काम करते
रहनेपर भी सदा-सर्वदा हमारे हृदयमें विराजमान रहे, हम एक
क्षणके लिये भी उसे न भूलें ॥ ४९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे वृष्णीगोपसंगमो नाम
द्व्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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