मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बयासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बयासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण-बलराम से गोप-गोपियों की भेंट

 

भीष्मो द्रोणोऽम्बिकापुत्रो गान्धारी ससुता तथा ।

 सदाराः पाण्डवाः कुन्ती सञ्जयो विदुरः कृपः ॥ २४ ॥

 कुन्तीभोजो विराटश्च भीष्मको नग्नजिन्महान् ।

 पुरुजिद् द्रुपदः शल्यो धृष्टकेतुः सकाशिराट् ॥ २५ ॥

 दमघोषो विशालाक्षो मैथिलो मद्रकेकयौ ।

 युधामन्युः सुशर्मा च ससुता बाह्लिकादयः ॥ २६ ॥

 राजानो ये च राजेन्द्र युधिष्ठिरमनुव्रताः ।

 श्रीनिकेतं वपुः शौरेः सस्त्रीकं वीक्ष्य विस्मिताः ॥ २७ ॥

 अथ ते रामकृष्णाभ्यां सम्यक् प्राप्तसमर्हणाः ।

 प्रशशंसुर्मुदा युक्ता वृष्णीन् कृष्णपरिग्रहान् ॥ २८ ॥

 अहो भोजपते यूयं जन्मभाजो नृणामिह ।

 यत् पश्यथासकृत् कृष्णं दुर्दर्शमपि योगिनाम् ॥ २९ ॥

यद्विश्रुतिः श्रुतिनुतेदमलं पुनाति

     पादावनेजनपयश्च वचश्च शास्त्रम् ।

 भूः कालभर्जितभगापि यदङ्‌घ्रिपद्म

     स्पर्शोत्थशक्तिरभिवर्षति नोऽखिलार्थान् ॥ ३० ॥

 तद्दर्शनस्पर्शनानुपथप्रजल्प

     शय्यासनाशनसयौनसपिण्डबन्धः ।

 येषां गृहे निरयवर्त्मनि वर्ततां वः

     स्वर्गापवर्गविरमः स्वयमास विष्णुः ॥ ३१ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

नन्दस्तत्र यदून् प्राप्तान् ज्ञात्वा कृष्णपुरोगमान् ।

 तत्रागमद्वृतो गोपैः अनः स्थार्थैः दिदृक्षया ॥ ३२ ॥

 तं दृष्ट्वा वृष्णयो हृष्टाः तन्वः प्राणमिवोत्थिताः ।

 परिषस्वजिरे गाढं चिरदर्शनकातराः ॥ ३३ ॥

 वसुदेवः परिष्वज्य सम्प्रीतः प्रेमविह्वलः ।

 स्मरन् कंसकृतान् क्लेशान् पुत्रन्यासं च गोकुले ॥ ३४ ॥

 कृष्णरामौ परिष्वज्य पितरावभिवाद्य च ।

 न किञ्चनोचतुः प्रेम्णा साश्रुकण्ठौ कुरूद्वह ॥ ३५ ॥

 तावात्मासनमारोप्य बाहुभ्यां परिरभ्य च ।

 यशोदा च महाभागा सुतौ विजहतुः शुचः ॥ ३६ ॥

 रोहिणी देवकी चाथ परिष्वज्य व्रजेश्वरीम् ।

 स्मरन्त्यौ तत्कृतां मैत्रीं बाष्पकण्ठ्यौ समूचतुः ॥ ३७ ॥

 का विस्मरेत वां मैत्रीं अनिवृत्तां व्रजेश्वरि ।

 अवाप्याप्यैन्द्रमैश्वर्यं यस्या नेह प्रतिक्रिया ॥ ३८ ॥

एतावदृष्टपितरौ युवयोः स्म पित्रोः

     सम्प्रीणनाभ्युदयपोषणपालनानि ।

 प्राप्योषतुर्भवति पक्ष्म ह यद्वदक्ष्णोः

     न्यस्तावकुत्र च भयौ न सतां परः स्वः ॥ ३९ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टं

     यत्प्रेक्षणे दृशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति ।

 दृग्भिर्हृदीकृतमलं परिरभ्य सर्वाः

     तद्‌भावमापुरपि नित्ययुजां दुरापम् ॥ ४० ॥

भगवांस्तास्तथाभूता विविक्त उपसङ्गतः ।

 आश्लिष्यानामयं पृष्ट्वा प्रहसन् इदमब्रवीत् ॥ ४१ ॥

 अपि स्मरथ नः सख्यः स्वानामर्थचिकीर्षया ।

 गतांश्चिरायिताञ्छत्रु पक्षक्षपणचेतसः ॥ ४२ ॥

 अप्यवध्यायथास्मान् स्विदकृतज्ञाविशङ्कया ।

 नूनं भूतानि भगवान् युनक्ति वियुनक्ति च ॥ ४३ ॥

 वायुर्यथा घनानीकं तृणं तूलं रजांसि च ।

 संयोज्याक्षिपते भूयः तथा भूतानि भूतकृत् ॥ ४४ ॥

 मयि भक्तिर्हि भूतानां अमृतत्वाय कल्पते ।

 दिष्ट्या यदासीत् मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः ॥ ४५ ॥

 अहं हि सर्वभूतानां आदिरन्तोऽन्तरं बहिः ।

 भौतिकानां यथा खं वार्भूर्वायुर्ज्योतिरङ्गनाः ॥ ४६ ॥

 एवं ह्येतानि भूतानि भूतेष्वात्माऽऽत्मना ततः ।

 उभयं मय्यथ परे पश्यताभातमक्षरे ॥ ४७ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

अध्यात्मशिक्षया गोप्य एवं कृष्णेन शिक्षिताः ।

 तदनुस्मरणध्वस्त जीवकोशास्तमध्यगन् ॥ ४८ ॥

आहुश्च ते नलिननाभ पदारविन्दं

     योगेश्वरैर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः ।

 संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं

     गेहं जुषामपि मनस्युदियात् सदा नः ॥ ४९ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधनादि पुत्रोंके साथ गान्धारी, पत्नियोंके सहित युधिष्ठिर आदि पाण्डव, कुन्ती, सृञ्जय, विदुर, कृपाचार्य, कुन्तिभोज, विराट, भीष्मक, महाराज नग्नजित्, पुरुजित्, द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु, काशी- नरेश, दमघोष, विशालाक्ष, मिथिलानरेश, मद्रनरेश, केकयनरेश, युधामन्यु, सुशर्मा, अपने पुत्रोंके साथ बाह्लीक और दूसरे भी युधिष्ठिरके अनुयायी नृपति भगवान्‌ श्रीकृष्णका परम सुन्दर श्रीनिकेतन विग्रह और उनकी रानियोंको देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये ॥ २४२७ ॥ अब वे बलरामजी तथा भगवान्‌ श्रीकृष्णसे भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके बड़े आनन्दसे श्रीकृष्णके स्वजनोंयदुवंशियोंकी प्रशंसा करने लगे ॥ २८ ॥ उन लोगोंने मुख्यतया उग्रसेनजीको सम्बोधित कर कहा— ‘भोजराज उग्रसेनजी ! सच पूछिये तो इस जगत् के मनुष्योंमें आपलोगोंका जीवन ही सफल है, धन्य है ! धन्य है ! क्योंकि जिन श्रीकृष्णका दर्शन बड़े-बड़े योगियोंके लिये भी दुर्लभ है, उन्हींको आपलोग नित्य-निरन्तर देखते रहते हैं ॥ २९ ॥ वेदोंने बड़े आदरके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कीर्तिका गान किया है। उनके चरणधोवन का जल गङ्गाजल, उनकी वाणीशास्त्र और उनकी कीर्ति इस जगत् को अत्यन्त पवित्र कर रही है। अभी हमलोगोंके जीवनकी ही बात है, समयके फेरसे पृथ्वीका सारा सौभाग्य नष्ट हो चुका था; परन्तु उनके चरणकमलोंके स्पर्शसे पृथ्वीमें फिर समस्त शक्तियोंका सञ्चार हो गया और अब वह फिर हमारी समस्त अभिलाषाओंमनोरथोंको पूर्ण करने लगी ॥ ३० ॥ उग्रसेनजी ! आपलोगोंका श्रीकृष्णके साथ वैवाहिक एवं गोत्रसम्बन्ध है। यही नहीं, आप हर समय उनका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते रहते हैं। उनके साथ चलते हैं, बोलते हैं, सोते हैं, बैठते हैं और खाते-पीते हैं। यों तो आपलोग गृहस्थीकी झंझटोंमें फँसे रहते हैंजो नरकका मार्ग है, परन्तु आपलोगोंके घर वे सर्वव्यापक विष्णुभगवान्‌ मूर्तिमान् रूपसे निवास करते हैं, जिनके दर्शनमात्रसे स्वर्ग और मोक्षतककी अभिलाषा मिट जाती है॥ ३१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब नन्दबाबाको यह बात मालूम हुई कि श्रीकृष्ण आदि यदुवंशी कुरुक्षेत्रमें आये हुए हैंतब वे गोपोंके साथ अपनी सारी सामग्री गाडिय़ोंपर लादकर अपने प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण-बलराम आदिको देखनेके लिये वहाँ आये ॥ ३२ ॥ नन्द आदि गोपोंको देखकर सब-के-सब यदुवंशी आनन्दसे भर गये। वे इस प्रकार उठ खड़े हुए, मानो मृत शरीरमें प्राणोंका सञ्चार हो गया हो। वे लोग एक-दूसरेसे मिलनेके लिये बहुत दिनोंसे आतुर हो रहे थे। इसलिये एक-दूसरेको बहुत देरतक अत्यन्त गाढ़भावसे आलिङ्गन करते रहे ॥ ३३ ॥ वसुदेवजीने अत्यन्त प्रेम और आनन्दसे विह्वल होकर नन्दजीको हृदयसे लगा लिया। उन्हें एक-एक करके सारी बातें याद हो आयींकंस किस प्रकार उन्हें सताता था और किस प्रकार उन्होंने अपने पुत्रको गोकुलमें ले जाकर नन्दजीके घर रख दिया था ॥ ३४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने माता यशोदा और पिता नन्दजीके हृदयसे लगकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। परीक्षित्‌ ! उस समय प्रेमके उद्रेकसे दोनों भाइयोंका गला रुँध गया, वे कुछ भी बोल न सके ॥ ३५ ॥ महाभाग्यवती यशोदाजी और नन्दबाबाने दोनों पुत्रोंको अपनी गोदमें बैठा लिया और भुजाओंसे उनका गाढ़ आलिङ्गन किया। उनके हृदयमें चिरकालतक न मिलनेका जो दु:ख था, वह सब मिट गया ॥ ३६ ॥ रोहिणी और देवकीजीने व्रजेश्वरी यशोदाको अपनी अँकवारमें भर लिया। यशोदाजीने उन लोगोंके साथ मित्रताका जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनोंका गला भर आया। वे यशोदाजीसे कहने लगीं॥ ३७ ॥ यशोदारानी ! आपने और व्रजेश्वर नन्दजीने हमलोगोंके साथ जो मित्रताका व्यवहार किया है, वह कभी मिटनेवाला नहीं है, उसका बदला इन्द्रका ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चुका सकतीं। नन्दरानीजी ! भला ऐसा कौन कृतघ्र है, जो आपके उस उपकारको भूल सके ? ॥ ३८ ॥ देवि ! जिस समय बलराम और श्रीकृष्णने अपने मा-बापको देखातक न था और इनके पिताने धरोहरके रूपमें इन्हें आप दोनोंके पास रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोनोंकी इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियोंकी रक्षा करती हैं। तथा आपलोगोंने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार किया और रिझाया; इनके मङ्गलके लिये अनेकों प्रकारके उत्सव मनाये। सच पूछिये, तो इनके मा-बाप आप ही लोग हैं। आपलोगोंकी देख-रेखमें इन्हें किसीकी आँचतक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे, ऐसा करना आपलोगोंके अनुरूप ही था। क्योंकि सत्पुरुषोंकी दृष्टिमें अपने-परायेका भेद-भाव नहीं रहता। नन्दरानीजी ! सचमुच आपलोग परम संत हैं ॥ ३९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! मैं कह चुका हूँ कि गोपियोंके परम प्रियतम, जीवनसर्वस्व श्रीकृष्ण ही थे। जब उनके दर्शनके समय नेत्रोंकी पलकें गिर पड़तीं, तब वे पलकोंको बनाने- वालेको ही कोसने लगतीं। उन्हीं प्रेमकी मूर्ति गोपियोंको आज बहुत दिनोंके बाद भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन हुआ। उनके मनमें इसके लिये कितनी लालसा थी, इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। उन्होंने नेत्रोंके रास्ते अपने प्रियतम श्रीकृष्णको हृदयमें ले जाकर गाढ़ आलिङ्गन किया और मन-ही-मन आलिङ्गन करते-करते तन्मय हो गयीं। परीक्षित्‌ ! कहाँतक कहूँ, वे उस भावको प्राप्त हो गयीं, जो नित्य-निरन्तर अभ्यास करनेवाले योगियोंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है ॥ ४० ॥ जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि गोपियाँ मुझसे तादात्म्यको प्राप्तएक हो रही हैं, तब वे एकान्तमें उनके पास गये, उनको हृदयसे लगाया, कुशल-मङ्गल पूछा और हँसते हुए यों बोले॥ ४१ ॥ सखियो ! हमलोग अपने स्वजन-सम्बन्धियोंका काम करनेके लिये व्रजसे बाहर चले आये और इस प्रकार तुम्हारी-जैसी प्रेयसियोंको छोडक़र हम शत्रुओंका विनाश करनेमें उलझ गये। बहुत दिन बीत गये, क्या कभी तुमलोग हमारा स्मरण भी करती हो ? ॥ ४२ ॥ मेरी प्यारी गोपियो ! कहीं तुमलोगोंके मनमें यह आशङ्का तो नहीं हो गयी है कि मैं अकृतज्ञ हूँ और ऐसा समझकर तुमलोग हमसे बुरा तो नहीं मानने लगी हो ? निस्सन्देह भगवान्‌ ही प्राणियोंके संयोग और वियोगके कारण हैं ॥ ४३ ॥ जैसे वायु बादलों, तिनकों, रूई और धूलके कणोंको एक-दूसरेसे मिला देती है, और फिर स्वच्छन्दरूपसे उन्हें अलग-अलग कर देती है, वैसे ही समस्त पदार्थोंके निर्माता भगवान्‌ भी सबका संयोग-वियोग अपनी इच्छानुसार करते रहते हैं ॥ ४४ ॥ सखियो ! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम सब लोगोंको मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है, जो मेरी ही प्राप्ति करानेवाला है। क्योंकि मेरे प्रति की हुई प्रेम-भक्ति प्राणियोंको अमृतत्व (परमानन्द-धाम) प्रदान करनेमें समर्थ है ॥ ४५ ॥ प्यारी गोपियो ! जैसे घट, पट आदि जितने भी भौतिक पदार्थ हैं, उनके आदि, अन्त और मध्यमें, बाहर और भीतर, उनके मूल कारण पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश ही ओतप्रोत हो रहे हैं, वैसे ही जितने भी पदार्थ हैं, उनके पहले, पीछे, बीचमें, बाहर और भीतर केवल मैं-ही-मैं हूँ ॥ ४६ ॥ इसी प्रकार सभी प्राणियोंके शरीरमें यही पाँचों भूत कारणरूपसे स्थित हैं और आत्मा भोक्ताके रूपसे अथवा जीवके रूपसे स्थित है। परन्तु मैं इन दोनोंसे परे अविनाशी सत्य हूँ। ये दोनों मेरे ही अंदर प्रतीत हो रहे हैं, तुमलोग ऐसा अनुभव करो ॥ ४७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार गोपियोंको अध्यात्मज्ञानकी शिक्षासे शिक्षित किया। उसी उपदेशके बार-बार स्मरणसे गोपियोंका जीवकोशलिङ्गशरीर नष्ट हो गया और वे भगवान्‌ से एक हो गयीं, भगवान्‌ को ही सदा-सर्वदाके लिये प्राप्त हो गयीं ॥ ४८ ॥ उन्होंने कहा—‘हे कमलनाभ ! अगाधबोधसम्पन्न बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयकमलमें आपके चरणकमलोंका चिन्तन करते रहते हैं। जो लोग संसारके कूएँमें गिरे हुए हैं, उन्हें उससे निकलनेके लिये आपके चरणकमल ही एकमात्र अवलम्बन हैं। प्रभो ! आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपका वह चरणकमल, घर-गृहस्थके काम करते रहनेपर भी सदा-सर्वदा हमारे हृदयमें विराजमान रहे, हम एक क्षणके लिये भी उसे न भूलें ॥ ४९ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे वृष्णीगोपसंगमो नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः ॥ ८२ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बयासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— बयासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण-बलराम से गोप-गोपियों की भेंट

 

श्रीशुक उवाच -

अथैकदा द्वारवत्यां वसतो रामकृष्णयोः ।

 सूर्योपरागः सुमहानासीत्कल्पक्षये यथा ॥ १ ॥

 तं ज्ञात्वा मनुजा राजन्पुरस्तादेव सर्वतः ।

 समन्तपञ्चकं क्षेत्रं ययुः श्रेयोविधित्सया ॥ २ ॥

 निःक्षत्रियां महीं कुर्वन्रामः शस्त्रभृतां वरः ।

 नृपाणां रुधिरौघेण यत्र चक्रे महाह्रदान् ॥ ३ ॥

 ईजे च भगवान्रामो यत्रास्पृष्टोऽपि कर्मणा ।

 लोकं सङ्ग्राहयन्नीशो यथान्योऽघापनुत्तये ॥ ४ ॥

 महत्यां तीर्थयात्रायां तत्रागन्भारतीः प्रजाः ।

 वृष्णयश्च तथाक्रूर वसुदेवाहुकादयः ॥ ५ ॥

 ययुर्भारत तत्क्षेत्रं स्वमघं क्षपयिष्णवः ।

 गदप्रद्युम्नसाम्बाद्याः सुचन्द्रशुकसारणैः ॥ ६ ॥

 आस्तेऽनिरुद्धो रक्षायां कृतवर्मा च यूथपः ।

 ते रथैर्देवधिष्ण्याभैः हयैश्च तरलप्लवैः ॥ ७ ॥

 गजैर्नदद्‌भिरभ्राभैः नृभिर्विद्याधरद्युभिः ।

 व्यरोचन्त महातेजाः पथि काञ्चनमालिनः ॥ ८ ॥

 दिव्यस्रग्वस्त्रसन्नाहाः कलत्रैः खेचरा इव ।

 तत्र स्नात्वा महाभागा उपोष्य सुसमाहिताः ॥ ९ ॥

 ब्राह्मणेभ्यो ददुर्धेनूः वासःस्रग्‌रुक्ममालिनीः ।

 रामह्रदेषु विधिवत् पुनराप्लुत्य वृष्णयः ॥ १० ॥

 ददुः स्वन्नं द्विजाग्र्येभ्यः कृष्णे नो भक्तिरस्त्विति ।

 स्वयं च तदनुज्ञाता वृष्णयः कृष्णदेवताः ॥ ११ ॥

 भुक्त्वोपविविशुः कामं स्निग्धच्छायाङ्‌घ्रिपाङ्‌घ्रिषु ।

 तत्रागतांस्ते ददृशुः सुहृत्संबन्धिनो नृपान् ॥ १२ ॥

 मत्स्योशीनरकौशल्य विदर्भकुरुसृञ्जयान् ।

 काम्बोजकैकयान् मद्रान् कुन्तीनानर्तकेरलान् ॥ १३ ॥

 अन्यांश्चैवात्मपक्षीयान् परांश्च शतशो नृप ।

 नन्दादीन् सुहृदो गोपान् गोपीश्चोत्कण्ठिताश्चिरम् ॥ १४ ॥

अन्योन्यसन्दर्शनहर्षरंहसा

     प्रोत्फुल्लहृद्वक्त्रसरोरुहश्रियः ।

 आश्लिष्य गाढं नयनैः स्रवज्जला

     हृष्यत्त्वचो रुद्धगिरो ययुर्मुदम् ॥ १५ ॥

 स्त्रियश्च संवीक्ष्य मिथोऽतिसौहृद

     स्मितामलापाङ्गदृशोऽभिरेभिरे ।

 स्तनैः स्तनान् कुङ्कुमपङ्करूषितान्

     निहत्य दोर्भिः प्रणयाश्रुलोचनाः ॥ १६ ॥

ततोऽभिवाद्य ते वृद्धान् यविष्ठैरभिवादिताः ।

 स्वागतं कुशलं पृष्ट्वा चक्रुः कृष्णकथा मिथः ॥ १७ ॥

 पृथा भ्रातॄन् स्वसॄर्वीक्ष्य तत्पुत्रान् पितरावपि ।

 भ्रातृपत्‍नीर्मुकुन्दं च जहौ सङ्कथया शुचः ॥ १८ ॥

 

 कुन्त्युवाच -

आर्य भ्रातरहं मन्ये आत्मानमकृताशिषम् ।

 यद्वा आपत्सु मद्वार्तां नानुस्मरथ सत्तमाः ॥ १९ ॥

 सुहृदो ज्ञातयः पुत्रा भ्रातरः पितरावपि ।

 नानुस्मरन्ति स्वजनं यस्य दैवमदक्षिणम् ॥ २० ॥

 

 श्रीवसुदेव उवाच -

अम्ब मास्मानसूयेथा दैवक्रीडनकान् नरान् ।

 ईशस्य हि वशे लोकः कुरुते कार्यतेऽथ वा ॥ २१ ॥

 कंसप्रतापिताः सर्वे वयं याता दिशं दिशम् ।

 एतर्ह्येव पुनः स्थानं दैवेनासादिताः स्वसः ॥ २२ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

वसुदेवोग्रसेनाद्यैः यदुभिस्तेऽर्चिता नृपाः ।

 आसन् अच्युतसन्दर्श परमानन्दनिर्वृताः ॥ २३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इसी प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी द्वारकामें निवास कर रहे थे। एक बार सर्वग्रास सूर्यग्रहण लगा, जैसा कि प्रलयके समय लगा करता है ॥ १ ॥ परीक्षित्‌ ! मनुष्योंको ज्योतिषियोंके द्वारा उस ग्रहणका पता पहलेसे ही चल गया था, इसलिये सब लोग अपने-अपने कल्याणके उद्देश्यसे पुण्य आदि उपार्जन करनेके लिये समन्तपञ्चक-तीर्थ कुरुक्षेत्रमें आये ॥ २ ॥ समन्तपञ्चक क्षेत्र वह है, जहाँ शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने सारी पृथ्वीको क्षत्रियहीन करके राजाओंकी रुधिरधारासे पाँच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिये थे ॥ ३ ॥ जैसे कोई साधारण मनुष्य अपने पापकी निवृत्तिके लिये प्रायश्चित्त करता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ परशुरामने अपने साथ कर्मका कुछ सम्बन्ध न होनेपर भी लोकमर्यादाकी रक्षाके लिये वहींपर यज्ञ किया था ॥ ४ ॥

परीक्षित्‌ ! इस महान् तीर्थयात्राके अवसरपर भारतवर्षके सभी प्रान्तोंकी जनता कुरुक्षेत्र आयी थी। उनमें अक्रूर, वसुदेव, उग्रसेन आदि बड़े-बूढ़े तथा गद, प्रद्युम्र, साम्ब आदि अन्य यदुवंशी भी अपने-अपने पापोंका नाश करनेके लिये कुरुक्षेत्र आये थे। प्रद्युम्रनन्दन अनिरुद्ध और यदुवंशी सेनापति कृतवर्माये दोनों सुचन्द्र, शुक, सारण आदिके साथ नगरकी रक्षाके लिये द्वारकामें रह गये थे। यदुवंशी एक तो स्वभावसे ही परम तेजस्वी थे; दूसरे गलेमें सोनेकी माला, दिव्य पुष्पोंके हार, बहुमूल्य वस्त्र और कवचोंसे सुसज्जित होनेके कारण उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। वे तीर्थयात्राके पथमें देवताओंके विमानके समान रथों, समुद्रकी तरङ्गके समान चलनेवाले घोड़ों, बादलोंके समान विशालकाय एवं गर्जना करते हुए हाथियों तथा विद्याधरोंके समान मनुष्योंके द्वारा ढोयी जानेवाली पालकियोंपर अपनी पत्नियोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वर्गके देवता ही यात्रा कर रहे हों। महाभाग्यवान् यदुवंशियोंने कुरुक्षेत्रमें पहुँचकर एकाग्रचित्तसे संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहणके उपलक्ष्यमें निश्चित कालतक उपवास किया ॥ ५९ ॥ उन्होंने ब्राह्मणोंको गोदान किया। ऐसी गौओंका दान किया जिन्हें वस्त्रोंकी सुन्दर-सुन्दर झूलें, पुष्पमालाएँ एवं सोनेकी जंजीरें पहना दी गयी थीं। इसके बाद ग्रहणका मोक्ष हो जानेपर परशुरामजीके बनाये हुए कुण्डोंमें यदुवंशियोंने विधिपूर्वक स्नान किया और सत्पात्र ब्राह्मणोंको सुन्दर-सुन्दर पकवानोंका भोजन कराया। उन्होंने अपने मनमें यह सङ्कल्प किया था कि भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें हमारी प्रेमभक्ति बनी रहे। भगवान्‌ श्रीकृष्णको ही अपना आदर्श और इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियोंने ब्राह्मणोंसे अनुमति लेकर तब स्वयं भोजन किया और फिर घनी एवं ठंडी छायावाले वृक्षोंके नीचे अपनी-अपनी इच्छाके अनुसार डेरा डालकर ठहर गये। परीक्षित्‌ ! विश्राम कर लेनेके बाद यदुवंशियोंने अपने सुहृद् और सम्बन्धी राजाओंसे मिलना-भेंटना शुरू किया ॥ १०१२ ॥ वहाँ मत्स्य, उशीनर, कोसल, विदर्भ, कुरु, सृञ्जय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ति, आनर्त, केरल एवं दूसरे अनेकों देशोंकेअपने पक्षके तथा शत्रुपक्षकेसैकड़ों नरपति आये हुए थे। परीक्षित्‌ ! इनके अतिरिक्त यदुवंशियोंके परम हितैषी बन्धु नन्द आदि गोप तथा भगवान्‌के दर्शनके लिये चिरकालसे उत्कण्ठित गोपियाँ भी वहाँ आयी हुई थीं। यादवोंने इन सबको देखा ॥ १३-१४ ॥ परीक्षित्‌ ! एक-दूसरेके दर्शन, मिलन और वार्तालापसे सभीको बड़ा आनन्द हुआ। सभीके हृदय- कमल एवं मुख-कमल खिल उठे। सब एक-दूसरेको भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगाते, उनके नेत्रोंसे आँसुओंकी झड़ी लग जाती, रोम-रोम खिल उठता, प्रेमके आवेगसे बोली बंद हो जाती और सब-के-सब आनन्द-समुद्रमें डूबने-उतराने लगते ॥ १५ ॥ पुरुषोंकी भाँति स्त्रियाँ भी एक-दूसरेको देखकर प्रेम और आनन्दसे भर गयीं। वे अत्यन्त सौहार्द, मन्द-मन्द मुसकान, परम पवित्र तिरछी चितवनसे देख-देखकर परस्पर भेंट-अँकवार भरने लगीं। वे अपनी भुजाओंमें भरकर केसर लगे हुए वक्ष:स्थलोंको दूसरी स्त्रियोंके वक्ष:स्थलोंसे दबातीं और अत्यन्त आनन्दका अनुभव करतीं। उस समय उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू छलकने लगते ॥ १६ ॥ अवस्था आदिमें छोटोंने बड़े-बूढ़ोंको प्रणाम किया और उन्होंने अपनेसे छोटोंका प्रणाम स्वीकार किया। वे एक-दूसरेका स्वागत करके तथा कुशल-मङ्गल आदि पूछकर फिर श्रीकृष्णकी मधुर लीलाएँ आपसमें कहने-सुनने लगे ॥ १७ ॥

परीक्षित्‌ ! कुन्ती वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता, भाभियों और भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा दु:ख भूल गयीं ॥ १८ ॥

कुन्तीने वसुदेवजीसे कहाभैया ! मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप-जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्तिके समय मेरी सुधि भी न लें, इससे बढक़र दु:खकी बात क्या होगी ? ॥ १९ ॥ भैया ! विधाता जिसके बाँयें हो जाता है उसे स्वजन-सम्बन्धी, पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आपलोगोंका कोई दोष नहीं ॥ २० ॥

वसुदेवजीने कहाबहिन ! उलाहना मत दो। हमसे बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैवके खिलौने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वरके वशमें रहकर कर्म करता है, और उसका फल भोगता है ॥ २१ ॥ बहिन ! कंससे सताये जाकर हमलोग इधर-उधर अनेक दिशाओंमें भगे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए, ईश्वरकृपासे हम सब पुन: अपना स्थान प्राप्त कर सके हैं ॥ २२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! वहाँ जितने भी नरपति आये थेवसुदेव, उग्रसेन आदि यदुवंशियोंने उनका खूब सम्मान-सत्कार किया। वे सब भगवान्‌ श्रीकृष्णका दर्शन पाकर परमानन्द और शान्तिका अनुभव करने लगे ॥ २३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

सुदामा जी को ऐश्वर्यकी प्राप्ति

 

पत्‍नीं वीक्ष्य विस्फुरन्तीं देवीं वैमानिकीमिव ।

दासीनां निष्ककण्ठीनां मध्ये भान्तीं स विस्मितः ॥ २७ ॥

प्रीतः स्वयं तया युक्तः प्रविष्टो निजमन्दिरम् ।

मणिस्तम्भशतोपेतं महेन्द्रभवनं यथा ॥ २८ ॥

पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।

पर्यङ्का हेमदण्डानि चामरव्यजनानि च ॥ २९ ॥

आसनानि च हैमानि मृदूपस्तरणानि च ।

मुक्तादामविलम्बीनि वितानानि द्युमन्ति च ॥ ३० ॥

स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।

रत्‍नदीपा भ्राजमानान् ललना रत्‍नसंयुताः ॥ ३१ ॥

विलोक्य ब्राह्मणस्तत्र समृद्धीः सर्वसम्पदाम् ।

तर्कयामास निर्व्यग्रः स्वसमृद्धिमहैतुकीम् ॥ ३२ ॥

नूनं बतैतन्मम दुर्भगस्य

     शश्वद् दरिद्रस्य समृद्धिहेतुः ।

 महाविभूतेरवलोकतोऽन्यो

     नैवोपपद्येत यदूत्तमस्य ॥ ३३ ॥

 नन्वब्रुवाणो दिशते समक्षं

     याचिष्णवे भूर्यपि भूरिभोजः ।

 पर्जन्यवत्तत् स्वयमीक्षमाणो

     दाशार्हकाणामृषभः सखा मे ॥ ३४ ॥

 किञ्चित्करोत्युर्वपि यत् स्वदत्तं

     सुहृत्कृतं फल्ग्वपि भूरिकारी ।

 मयोपणीतं पृथुकैकमुष्टिं

     प्रत्यग्रहीत् प्रीतियुतो महात्मा ॥ ३५ ॥

 तस्यैव मे सौहृदसख्यमैत्री

     दास्यं पुनर्जन्मनि जन्मनि स्यात् ।

 महानुभावेन गुणालयेन

     विषज्जतः तत्पुरुषप्रसङ्गः ॥ ३६ ॥

भक्ताय चित्रा भगवान् हि सम्पदो

     राज्यं विभूतीर्न समर्थयत्यजः ।

 अदीर्घबोधाय विचक्षणः स्वयं

     पश्यन् निपातं धनिनां मदोद्‌भवम् ॥ ३७ ॥

इत्थं व्यवसितो बुद्ध्या भक्तोऽतीव जनार्दने ।

विषयान्जायया त्यक्ष्यन् बुभुजे नातिलम्पटः ॥ ३८ ॥

तस्य वै देवदेवस्य हरेर्यज्ञपतेः प्रभोः ।

ब्राह्मणाः प्रभवो दैवं न तेभ्यो विद्यते परम् ॥ ३९ ॥

एवं स विप्रो भगवत्सुहृत्तदा

     दृष्ट्वा स्वभृत्यैरजितं पराजितम् ।

 तद्ध्यानवेगोद्‌ग्रथितात्मबन्धनः

     तद्धाम लेभेऽचिरतः सतां गतिम् ॥ ४० ॥

 एतद् ब्रह्मण्यदेवस्य श्रुत्वा ब्रह्मण्यतां नरः ।

 लब्धभावो भगवति कर्मबन्धाद् विमुच्यते ॥ ४१ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! ब्राह्मणपत्नी सोने का हार पहनी हुई दासियों के बीच में विमानस्थित देवाङ्गना के समान अत्यन्त शोभायमान एवं देदीप्यमान हो रही थी। उसे इस रूपमें देखकर वे विस्मित हो गये ॥ २७ ॥ उन्होंने अपनी पत्नीके साथ बड़े प्रेमसे अपने महलमें प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मानो देवराज इन्द्र का निवासस्थान। इसमें मणियोंके सैकड़ों खंभे खड़े थे ॥ २८ ॥ हाथीके दाँत के बने हुए और सोने के पात से मँढ़े हुए पलंगों पर दूध के फेन की तरह श्वेत और कोमल बिछौने बिछ रहे थे। बहुत-से चँवर वहाँ रखे हुए थे, जिनमें सोने की डंडियाँ लगी हुई थीं ॥ २९ ॥ सोनेके सिंहासन शोभायमान हो रहे थे, जिनपर बड़ी कोमल-कोमल गद्दियाँ लगी हुई थीं ! ऐसे चँदोवे भी झिलमिला रहे थे जिनमें मोतियोंकी लडिय़ाँ लटक रही थीं ॥ ३० ॥ स्फटिकमणिकी स्वच्छ भीतोंपर पन्नेकी पच्चीकारी की हुई थी। रत्ननिर्मित स्त्रीमूर्तियोंके हाथोंमें रत्नोंके दीपक जगमगा रहे थे ॥ ३१ ॥ इस प्रकार समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गम्भीरतासे ब्राह्मणदेवता विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँसे आ गयी ॥ ३२ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे—‘मैं जन्मसे ही भाग्यहीन और दरिद्र हूँ। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धिका कारण क्या है ? अवश्य ही परमैश्वर्यशाली यदुवंशशिरोमणि भगवान्‌ श्रीकृष्णके कृपाकटाक्षके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता ॥ ३३ ॥ यह सब कुछ उनकी करुणाकी ही देन है। स्वयं भगवान्‌ श्रीकृष्ण पूर्णकाम और लक्ष्मीपति होनेके कारण अनन्त भोगसामग्रियों से युक्त हैं। इसलिये वे याचक भक्त को उसके मनका भाव जानकर बहुत कुछ दे देते हैं, परन्तु उसे समझते हैं बहुत थोड़ा; इसलिये सामने कुछ कहते नहीं। मेरे यदुवंशशिरोमणि सखा श्यामसुन्दर सचमुच उस मेघसे भी बढक़र उदार हैं, जो समुद्रको भर देनेकी शक्ति रखनेपर भी किसान के सामने न बरसकर उसके सो जानेपर रातमें बरसता है और बहुत बरसनेपर भी थोड़ा ही समझता है ॥ ३४ ॥ मेरे प्यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत, पर उसे मानते हैं बहुत थोड़ा ! और उनका प्रेमी भक्त यदि उनके लिये कुछ भी कर दे, तो वे उसको बहुत मान लेते हैं। देखो तो सही ! मैंने उन्हें केवल एक मुट्ठी चिउड़ा भेंट किया था, पर उदार-शिरोमणि श्रीकृष्णने उसे कितने प्रेमसे स्वीकार किया ॥ ३५ ॥ मुझे जन्म- जन्म उन्हींका प्रेम, उन्हींकी हितैषिता, उन्हींकी मित्रता और उन्हींकी सेवा प्राप्त हो। मुझे सम्पत्तिकी आवश्यकता नहीं, सदा-सर्वदा उन्हीं गुणोंके एकमात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरा अनुराग बढ़ता जाय और उन्हींके प्रेमी भक्तोंका सत्सङ्ग प्राप्त हो ॥ ३६ ॥ अजन्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदिके दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनियोंका धन और ऐश्वर्यके मदसे पतन हो जाता है। इसलिये वे अपने अदूरदर्शी भक्तको उसके माँगते रहनेपर भी तरह-तरहकी सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते। यह उनकी बड़ी कृपा है॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! अपनी बुद्धिसे इस प्रकार निश्चय करके वे ब्राह्मणदेवता त्यागपूर्वक अनासक्तभावसे अपनी पत्नीके साथ भगवत्प्रसादस्वरूप विषयोंको ग्रहण करने लगे और दिनोंदिन उनकी प्रेम-भक्ति बढऩे लगी ॥ ३८ ॥

प्रिय परीक्षित्‌ ! देवताओंके भी आराध्यदेव भक्त-भयहारी यज्ञपति सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ स्वयं ब्राह्मणों को अपना प्रभु, अपना इष्टदेव मानते हैं। इसलिये ब्राह्मणोंसे बढक़र और कोई भी प्राणी जगत् में नहीं है ॥ ३९ ॥ इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे सखा उस ब्राह्मणने देखा कि यद्यपि भगवान्‌ अजित हैं, किसीके अधीन नहीं हैं; फिर भी वे अपने सेवकोंके अधीन हो जाते हैं, उनसे पराजित हो जाते हैं;’ अब वे उन्हींके ध्यानमें तन्मय हो गये। ध्यानके आवेगसे उनकी अविद्याकी गाँठ कट गयी और उन्होंने थोड़े ही समयमें भगवान्‌ का धाम, जो कि संतोंका एकमात्र आश्रय है, प्राप्त किया ॥ ४० ॥ परीक्षित्‌ ! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस ब्राह्मणभक्तिको जो सुनता है, उसे भगवान्‌ के चरणोंमें प्रेमभाव प्राप्त हो जाता है और वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ ४१ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पृथुकोपाख्यानं नाम एकशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



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