॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— चौरासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
वसुदेव जी का
यज्ञोत्सव
श्रीशुक उवाच -
श्रुत्वा पृथा सुबलपुत्र्यथ याज्ञसेनी
माधव्यथ
क्षितिपपत्न्य उत स्वगोप्यः ।
कृष्णेऽखिलात्मनि
हरौ प्रणयानुबन्धं
सर्वा
विसिस्म्युरलमश्रुकलाकुलाक्ष्यः ॥ १ ॥
इति सम्भाषमाणासु स्त्रीभिः स्त्रीषु नृभिर्नृषु ।
आययुर्मुनयस्तत्र
कृष्णरामदिदृक्षया ॥ २ ॥
द्वैपायनो नारदश्च
च्यवनो देवलोऽसितः ।
विश्वामित्रः
शतानन्दो भरद्वाजोऽथ गौतमः ॥ ३ ॥
रामः सशिष्यो
भगवान् वसिष्ठो गालवो भृगुः ।
पुलस्त्यः
कश्यपोऽत्रिश्च मार्कण्डेयो बृहस्पतिः ॥ ४ ॥
द्वितस्त्रितश्चैकतश्च ब्रह्मपुत्रास्तथाङ्गिराः
।
अगस्त्यो
याज्ञवल्क्यश्च वामदेवादयोऽपरे ॥ ५ ॥
तान्दृष्ट्वा
सहसोत्थाय प्रागासीना नृपादयः ।
पाण्डवाः कृष्णरामौ
च प्रणेमुर्विश्ववन्दितान् ॥ ६ ॥
तान् आनर्चुर्यथा
सर्वे सहरामोऽच्युतोऽर्चयत् ।
स्वागतासनपाद्यार्घ्य माल्यधूपानुलेपनैः ॥ ७ ॥
उवाच सुखमासीनान्
भगवान् धर्मगुप्तनुः ।
सदसस्तस्य महतो
यतवाचोऽनुश्रृण्वतः ॥ ८ ॥
श्रीभगवानुवाच -
अहो वयं जन्मभृतो लब्धं कार्त्स्न्येन तत्फलम् ।
देवानामपि
दुष्प्रापं यद् योगेश्वरदर्शनम् ॥ ९ ॥
किं स्वल्पतपसां
नॄणां अर्चायां देवचक्षुषाम् ।
दर्शनस्पर्शनप्रश्न
प्रह्वपादार्चनादिकम् ॥ १० ॥
न ह्यम्मयानि
तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः ।
ते
पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः ॥ ११ ॥
नाग्निर्न सूर्यो न च चन्द्रतारका
न भूर्जलं खं
श्वसनोऽथ वाङ्मनः ।
उपासिता भेदकृतो
हरन्त्यघं
विपश्चितो
घ्नन्ति मुहूर्तसेवया ॥ १२ ॥
यस्यात्मबुद्धिः
कुणपे त्रिधातुके
स्वधीः
कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।
यत्तीर्थबुद्धिः
सलिले न कर्हिचित्
जनेष्वभिज्ञेषु
स एव गोखरः ॥ १३ ॥
श्रीशुक उवाच -
निशम्येत्थं भगवतः कृष्णस्याकुण्थमेधसः ।
वचो दुरन्वयं
विप्राः तूष्णीमासन् भ्रमद्धियः ॥ १४ ॥
चिरं विमृश्य मुनय
ईश्वरस्येशितव्यताम् ।
जनसङ्ग्रह इत्यूचुः
स्मयन्तस्तं जगद्गुरुम् ॥ १५ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! सर्वात्मा
भक्तभयहारी भगवान् श्रीकृष्णके प्रति उनकी पत्नियों का कितना प्रेम है—यह बात कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी,
सुभद्रा, दूसरी राजपत्नियों और भगवान् की
प्रियतमा गोपियोंने भी सुनी। सब-की-सब उनका यह अलौकिक प्रेम देखकर अत्यन्त मुग्ध,
अत्यन्त विस्मित हो गयीं। सबके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये ॥ १
॥ इस प्रकार जिस समय स्त्रियोंसे स्त्रियाँ और पुरुषोंसे पुरुष बातचीत कर रहे थे,
उसी समय बहुत-से ऋषि-मुनि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीका दर्शन
करनेके लिये वहाँ आये ॥ २ ॥ उनमें प्रधान ये थे—श्रीकृष्ण-
द्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद, च्यवन,
देवल, असित, विश्वामित्र,
शतानन्द, भरद्वाज, गौतम,
अपने शिष्योंके सहित भगवान् परशुराम, वसिष्ठ,
गालव, भृगु, पुलस्त्य,
कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय,
बृहस्पति, द्वित, त्रित,
एकत, सनक, सनन्दन,
सनातन, सनत्कुमार, अङ्गिरा,
अगस्त्य, याज्ञवल्क्य और वामदेव इत्यादि ॥ ३—५ ॥ ऋषियोंको देखकर पहलेसे बैठे हुए नरपतिगण, युधिष्ठिर
आदि पाण्डव, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सहसा उठकर खड़े हो
गये और सबने उन विश्ववन्दित ऋषियोंको प्रणाम किया ॥ ६ ॥ इसके बाद स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, पुष्पमाला, धूप और चन्दन आदिसे सब राजाओंने तथा
बलरामजीके साथ स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने उन सब ऋषियोंकी विधिपूर्वक पूजा की ॥ ७ ॥
जब सब ऋषि-मुनि आरामसे बैठ गये, तब धर्मरक्षाके लिये अवतीर्ण
भगवान् श्रीकृष्णने उनसे कहा। उस समय वह बहुत बड़ी सभा चुपचाप भगवान् का भाषण
सुन रही थी ॥ ८ ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—धन्य है ! हमलोगोंका जीवन सफल
हो गया, आज जन्म लेनेका हमें पूरा-पूरा फल मिल गया; क्योंकि जिन योगेश्वरोंका दर्शन बड़े-बड़े देवताओंके लिये भी अत्यन्त
दुर्लभ है, उन्हींका दर्शन हमें प्राप्त हुआ है ॥ ९ ॥
जिन्होंने बहुत थोड़ी तपस्या की है और जो लोग अपने इष्टदेवको समस्त प्राणियोंके
हृदयमें न देखकर केवल मूर्तिविशेषमें ही उनका दर्शन करते हैं, उन्हें आपलोगोंके दर्शन, स्पर्श, कुशल-प्रश्न, प्रणाम और पादपूजन आदिका सुअवसर भला कब
मिल सकता है ? ॥ १० ॥ केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते
और केवल मिट्टी या पत्थरकी प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं; संत
पुरुष ही वास्तवमें तीर्थ और देवता हैं; क्योंकि उनका बहुत
समयतक सेवन किया जाय, तब वे पवित्र करते हैं; परंतु संत पुरुष तो दर्शनमात्रसे ही कृतार्थ कर देते हैं ॥ ११ ॥ अग्नि,
सूर्य, चन्द्रमा, तारे,
पृथ्वी, जल, आकाश,
वायु, वाणी और मनके अधिष्ठातृ-देवता उपासना
करनेपर भी पापका पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी
उपासनासे भेद-बुद्धिका नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है।
परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषोंकी सेवा की जाय तो वे सारे पाप-ताप
मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धिके विनाशक हैं ॥ १२ ॥
महात्माओ और सभासदो ! जो मनुष्य वात, पित्त और कफ—इन तीन धातुओंसे बने हुए शवतुल्य शरीरको ही आत्मा—अपना
‘मैं’, स्त्री-पुत्र आदिको ही अपना और
मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव
विकारोंको ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जलको ही तीर्थ समझता है— ज्ञानी महापुरुषोंको नहीं, वह मनुष्य होनेपर भी
पशुओंमें भी नीच गधा ही है ॥ १३ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान्
श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञानसम्पन्न हैं। उनका यह गूढ़ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋषि-मुनि चुप
रह गये। उनकी बुद्धि चक्करमें पड़ गयी, वे समझ न सके कि
भगवान् यह क्या कह रहे हैं ॥ १४ ॥ उन्होंने बहुत देरतक विचार करनेके बाद यह
निश्चय किया कि भगवान् सर्वेश्वर होनेपर भी जो इस प्रकार सामान्य, कर्म-परतन्त्र जीवकी भाँति व्यवहार कर रहे हैं—यह
केवल लोकसंग्रहके लिये ही है। ऐसा समझकर वे मुसकराते हुए जगद्गुरु भगवान्
श्रीकृष्णसे कहने लगे ॥ १५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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