बुधवार, 10 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वसुदेवजीके पास श्रीनारदजीका आना और उन्हें

राजा जनक तथा नौ योगीश्वरोंका संवाद सुनाना

 

 श्रीविदेह उवाच -

 मन्ये भगवतः साक्षात् पार्षदान् वो मधुद्विषः ।

 विष्णोर्भूतानि लोकानां पावनाय चरन्ति हि ॥ २८ ॥

 दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्‌गुरः ।

 तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठ-प्रियदर्शनम् ॥ २९ ॥

 अत आत्यन्तिकं क्षेमं पृच्छामो भवतोऽनघाः ।

 संसारेऽस्मिन् क्षणार्धोऽपि सत्सङ्गः शेवधिर्नृणाम् ॥ ३० ॥

 धर्मान् भागवतान् ब्रूत यदि नः श्रुतये क्षमम् ।

 यैः प्रसन्नः प्रपन्नाय, दास्यत्यात्मानमप्यजः ॥ ३१ ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

 एवं ते निमिना पृष्टा वसुदेव महत्तमाः ।

 प्रतिपूज्याब्रुवन् प्रीत्या ससदस्यर्त्विजं नृपम् ॥ ३२ ॥

 

 श्रीकविरुवाच -

 मन्येऽकुतश्चिद्भयमच्युतस्य

     पादाम्बुजोपासनमत्र नित्यम् ।

 उद्विग्नबुद्धेः असदात्मभावात्

     विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः ॥ ३३ ॥

 ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये ।

 अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान् ॥ ३४ ॥

 यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित् ।

 धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह ॥ ३५ ॥

 कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा

     बुद्ध्यात्मना वानुसृतस्वभावात् ।

 करोति यद् यत् सकलं परस्मै

     नारायणायेति समर्पयेत्तत् ॥ ३६ ॥

 भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्

     ईशात् अपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः ।

 तन्माययातो बुध आभजेत्तं

     भक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा ॥ ३७ ॥

 अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयोः

     ध्यातुर्धिया स्वप्नमनोरथौ यथा ।

 तत्कर्मसङ्कल्पविकल्पकं मनो

     बुधो निरुंध्याद् अभयं ततः स्यात् ॥ ३८ ॥

 श्रृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणेः

     जन्मानि कर्माणि च यानि लोके ।

 गीतानि नामानि तदर्थकानि

     गायन् विलज्जो विचरेदसङ्गः ॥ ३९ ॥

 एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या

     जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः ।

 हसत्यथो रोदिति रौति गाय-

     त्युन्मादवत् नृत्यति लोकबाह्यः ॥ ४० ॥

 खं वायुमग्निं सलिलं महीं च

     ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।

 सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं

     यत्किं च भूतं प्रणमेदनन्यः ॥ ४१ ॥

 भक्तिः परेशानुभवो विरक्तिः

     अन्यत्र चैष त्रिक एककालः ।

 प्रपद्यमानस्य यथाश्नतस्स्युः

     तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥ ४२ ॥

 इति अच्युताङ्‌घ्रिं भजतोऽनुवृत्त्या

     भक्तिर्विरक्तिर्भगवत्प्रबोधः ।

 भवन्ति वै भागवतस्य राजन्

     ततः परां शान्तिमुपैति साक्षात् ॥ ४३ ॥

 

 श्रीराजोवाच -

 अथ भागवतं ब्रूत यद्धर्मो यादृशो नृणाम् ।

 यथाचरति यद्‍ ब्रूते यैर्लिङ्गैः भगवत्‌प्रियः ॥ ४४ ॥

 

 श्रीहरिरुवाच -

 सर्वभूतेषु यः पश्येद्भगवद्भावमात्मनः ।

 भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः ।। ४५ ॥

 ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।

 प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥ ४६ ॥

 अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते ।

 न तद्‍भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥ ४७ ॥

 गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति ।

 विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः ॥ ४८ ॥

 देहेन्द्रिप्राणमनोधियां यो

     जन्माप्ययक्षुद्भयतर्षकृच्छ्रैः ।

 संसारधर्मैरविमुह्यमानः

     स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः ॥ ४९ ॥

न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि संभवः ।

 वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः ॥ ५० ॥

 न यस्य जन्मकर्मभ्यां न वर्णाश्रमजातिभिः ।

 सज्जतेऽस्मिन्नहं भावो देहे वै स हरेः प्रियः ॥ ५१ ॥

 न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा ।

 सर्वभूतसमश्शान्तः स वै भागवतोत्तमः ॥ ५२ ॥

त्रिभुवन-विभवहेतवेऽप्यकुण्ठ-

     स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात् ।

 न चलति भगवत्पादारविन्दात् ।

     लव निमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः ॥ ५३ ॥

 भगवत उरुविक्रमाङ्‌घ्रिशाखा-

     नखमणिचन्द्रिकया निरस्ततापे ।

 हृदि कथमुपसीदतां पुनः स

     प्रभवति चन्द्र इवोदितेऽर्कतापः ॥ ५४ ॥

 विसृजति हृदयं न यस्य साक्षाद्

     हरिः अवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः ।

 प्रणयरशनया घृताङ्‌घ्रिपद्मः

     स भवति भागवतप्रधान उक्तः ॥ ५५ ॥

 

विदेहराज निमि ने कहा—भगवन् ! मैं ऐसा समझता हूँ कि आपलोग मधुसूदन भगवान्‌ के पार्षद ही हैं, क्योंकि भगवान्‌ के पार्षद संसारी प्राणियों को पवित्र करनेके लिये विचरण किया करते हैं ॥ २८ ॥ जीवोंके लिये मनुष्य-शरीरका प्राप्त होना दुर्लभ है। यदि यह प्राप्त भी हो जाता है तो प्रतिक्षण मृत्युका भय सिरपर सवार रहता है, क्योंकि यह क्षणभङ्गुर है। इसलिये अनिश्चित मनुष्य- जीवनमें भगवान्‌के प्यारे और उनको प्यार करनेवाले भक्तजनोंका, संतोंका दर्शन तो और भी दुर्लभ है ॥ २९ ॥ इसलिये त्रिलोकपावन महात्माओ ! हम आपलोगोंसे यह प्रश्न करते हैं कि परम कल्याणका स्वरूप क्या है ? और उसका साधन क्या है ? इस संसारमें आधे क्षणका सत्सङ्ग भी मनुष्योंके लिये परम निधि है ॥ ३० ॥ योगीश्वरो ! यदि हम सुनने के अधिकारी हों तो आप कृपा करके भागवत-धर्मोंका उपदेश कीजिये; क्योंकि उनसे जन्मादि विकार से रहित, एकरस भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और उन धर्मों का पालन करने वाले शरणागत भक्तों को अपने-आप तक का दान कर डालते हैं ॥ ३१ ॥

देवर्षि नारदजीने कहा—वसुदेवजी ! जब राजा निमिने उन भगवत्प्रेमी संतोंसे यह प्रश्र किया, तब उन लोगोंने बड़े प्रेमसे उनका और उनके प्रश्रका सम्मान किया और सदस्य तथा ऋत्विजोंके साथ बैठे हुए राजा निमिसे बोले ॥ ३२ ॥

पहले उन नौ योगीश्वरोंमेंसे कविजीने कहा—राजन् ! भक्तजनोंके हृदयसे कभी दूर न होनेवाले अच्युत भगवान्‌ के चरणोंकी नित्य निरन्तर उपासना ही इस संसारमें परम कल्याण—आत्यन्तिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है, ऐसा मेरा निश्चित मत है। देह, गेह आदि तुच्छ एवं असत् पदार्थोंमें अहंता एवं ममता हो जानेके कारण जिन लोगोंकी चित्तवृत्ति उद्विग्र हो रही है, उनका भय भी इस उपासनाका अनुष्ठान करनेपर पूर्णतया निवृत्त हो जाता है ॥ ३३ ॥ भगवान्‌ने भोले-भाले अज्ञानी पुरुषोंको भी सुगमतासे साक्षात् अपनी प्राप्तिके लिये जो उपाय स्वयं श्रीमुखसे बतलाये हैं, उन्हें ही ‘भागवत धर्म’ समझो ॥ ३४ ॥ राजन् ! इन भागवतधर्मोंका अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्नों से पीडि़त नहीं होता और नेत्र बंद करके दौडऩेपर भी अर्थात् विधि-विधानमें त्रुटि हो जानेपर भी न तो मार्गसे स्खलित ही होता है और न तो पतित—फलसे वञ्चित ही होता है ॥ ३५ ॥ (भागवतधर्मका पालन करनेवालेके लिये यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकारका कर्म ही करे।) वह शरीरसे, वाणीसे, मनसे, इन्द्रियोंसे, बुद्धिसे, अहङ्कारसे, अनेक जन्मों अथवा एक जन्मकी आदतोंसे स्वभाववश जो-जो करे, वह सब परमपुरुष भगवान्‌ नारायणके लिये ही है—इस भावसे उन्हें समर्पण कर दे। (यही सरल-से-सरल, सीधा-सा भागवतधर्म है) ॥ ३६ ॥ ईश्वरसे विमुख पुरुषको उनकी मायासे अपने स्वरूपकी विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृतिसे ही ‘मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ,’ इस प्रकारका भ्रम—विपर्यय हो जाता है। इस देह आदि अन्य वस्तुमें अभिनिवेश, तन्मयता होनेके कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेकों भय होते हैं। इसलिये अपने गुरुको ही आराध्यदेव परम प्रियतम मानकर अनन्य भक्तिके द्वारा उस ईश्वरका भजन करना चाहिये ॥ ३७ ॥ राजन् ! सच पूछो तो भगवान्‌के अतिरिक्त, आत्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। परन्तु न होनेपर भी इसकी प्रतीति इसका चिन्तन करनेवालेको उसके चिन्तनके कारण, उधर मन लगनेके कारण ही होती है—जैसे स्वप्नके समय स्वप्नद्रष्टाकी कल्पनासे अथवा जाग्रत् अवस्थामें नाना प्रकारके मनोरथोंसे एक विलक्षण ही सृष्टि दीखने लगती है। इसलिये विचारवान् पुरुषको चाहिये कि सांसारिक कर्मोंके सम्बन्धमें सङ्कल्प-विकल्प करनेवाले मनको रोक दे—कैद कर ले। बस, ऐसा करते ही उसे अभय पदकी, परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ॥ ३८ ॥ संसारमें भगवान्‌के जन्मकी और लीलाकी बहुत-सी मङ्गलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। उनको सुनते रहना चाहिये। उन गुणों और लीलाओंका स्मरण दिलानेवाले भगवान्‌के बहुत-से नाम भी प्रसिद्ध हैं। लाज-संकोच छोडक़र उनका गान करते रहना चाहिये। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थानमें आसक्ति न करके विचरण करते रहना चाहिये ॥ ३९ ॥ जो इस प्रकार विशुद्ध व्रत—नियम ले लेता है, उसके हृदयमें अपने परम प्रियतम प्रभुके नाम-कीर्तनसे अनुरागका, प्रेमका अङ्कुर उग आता है। उसका चित्त द्रवित हो जाता है। अब वह साधारण लोगोंकी स्थितिसे ऊपर उठ जाता है। लोगोंकी मान्यताओं, धारणाओंसे परे हो जाता है। दम्भसे नहीं, स्वभावसे ही मतवाला-सा होकर कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है तो कभी फूट-फूटकर रोने लगता है। कभी ऊँचे स्वरसे भगवान्‌को पुकारने लगता है, तो कभी मधुर स्वरसे उनके गुणोंका गान करने लगता है। कभी- कभी जब वह अपने प्रियतमको अपने नेत्रोंके सामने अनुभव करता है, तब उन्हें रिझानेके लिये नृत्य भी करने लगता है ॥ ४० ॥ राजन् ! यह आकाश, वायु, अग्रि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र—सब-के-सब भगवान्‌के शरीर हैं। सभी रूपोंमें स्वयं भगवान्‌ प्रकट हैं। ऐसा समझकर वह जो कोई भी उसके सामने आ जाता है— चाहे वह प्राणी हो या अप्राणी—उसे अनन्यभावसे भगवद्भावसे प्रणाम करता है ॥ ४१ ॥ जैसे भोजन करनेवालेको प्रत्येक ग्रासके साथ ही तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवनशक्तिका सञ्चार) और क्षुधा-निवृत्ति—ये तीनों एक साथ होते जाते हैं; वैसे ही जो मनुष्य भगवान्‌की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है, उसे भजनके प्रत्येक क्षणमें भगवान्‌के प्रति प्रेम, अपने प्रेमास्पद प्रभुके स्वरूपका अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओंमें वैराग्य—इन तीनोंकी एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है ॥ ४२ ॥ राजन् ! इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्तिके द्वारा भगवान्‌के चरणकमलोंका ही भजन करता है, उसे भगवान्‌के प्रति प्रेममयी भक्ति, संसारके प्रति वैराग्य और अपने प्रियतम भगवान्‌के स्वरूपकी स्फूर्ति—ये सब अवश्य ही प्राप्त होते हैं; वह भागवत हो जाता है और जब ये सब प्राप्त हो जाते हैं, तब वह स्वयं परम शान्तिका अनुभव करने लगता है ॥ ४३ ॥

राजा निमिने पूछा—योगीश्वर ! अब आप कृपा करके भगवद्भक्तका लक्षण वर्णन कीजिये। उसके क्या धर्म हैं ? और कैसा स्वभाव होता है ? वह मनुष्योंके साथ व्यवहार करते समय कैसा आचरण करता है ? क्या बोलता है ? और किन लक्षणोंके कारण भगवान्‌ का प्यारा होता है ? ॥ ४४ ॥

अब नौ योगीश्वरों में से दूसरे हरिजी बोले—राजन् ! आत्मस्वरूप भगवान्‌ समस्त प्राणियोंमें आत्मारूपसे—नियन्तारूपसे स्थित हैं। जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ताको ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान्‌में ही आधेयरूपसे अथवा अध्यस्तरूपसे स्थित हैं, अर्थात् वास्तवमें भगवत्स्वरूप ही हैं—इस प्रकारका जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान्‌का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिये ॥ ४५ ॥ जो भगवान्‌ से प्रेम, उनके भक्तोंसे मित्रता, दुखी और अज्ञानियोंपर कृपा तथा भगवान्‌ से द्वेष करनेवालोंकी उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटिका भागवत है ॥ ४६ ॥ और जो भगवान्‌ के अर्चा-विग्रह—मूर्ति आदिकी पूजा तो श्रद्धासे करता है, परन्तु भगवान्‌के भक्तों या दूसरे लोगोंकी विशेष सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह साधारण श्रेणीका भगवद्भक्त है ॥ ४७ ॥ जो श्रोत्र-नेत्र आदि इन्द्रियोंके द्वारा शब्द-रूप आदि विषयोंका ग्रहण तो करता है; परन्तु अपनी इच्छाके प्रतिकूल विषयोंसे द्वेष नहीं करता और अनुकूल विषयोंके मिलनेपर हर्षित नहीं होता—उसकी यह दृष्टि बनी रहती है कि यह सब हमारे भगवान्‌ की माया है—वह पुरुष उत्तम भागवत है ॥ ४८ ॥ संसारके धर्म हैं—जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट, भय और तृष्णा। ये क्रमश: शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिको प्राप्त होते ही रहते हैं। जो पुरुष भगवान्‌ की स्मृतिमें इतना तन्मय रहता है कि इनके बार-बार होते-जाते रहनेपर भी उनसे मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, वह उत्तम भागवत है ॥ ४९ ॥ जिसके मनमें विषय-भोगकी इच्छा, कर्म-प्रवृत्ति और उनके बीज वासनाओंका उदय नहीं होता और जो एकमात्र भगवान्‌ वासुदेवमें ही निवास करता है, वह उत्तम भगवद्भक्त है ॥ ५० ॥ जिनका इस शरीरमें न तो सत्कुलमें जन्म, तपस्या आदि कर्मसे तथा न वर्ण, आश्रम एवं जातिसे ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही भगवान्‌का प्यारा है ॥ ५१ ॥ जो धन-सम्पत्ति अथवा शरीर आदिमें ‘यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकारका भेद-भाव नहीं रखता, समस्त पदार्थोंमें समस्वरूप परमात्माको देखता रहता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा सङ्कल्पसे विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान्‌ का उत्तम भक्त है ॥ ५२ ॥ राजन् ! बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्त:करणको भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढ़ते रहते हैं—भगवान्‌ के ऐसे चरणकमलोंसे आधे क्षण, आधे पलके लिये भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणोंकी सन्निधि और सेवामें ही संलग्र रहता है; यहाँतक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवनकी राज्य- लक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृतिका तार नहीं तोड़ता, उस राज्यलक्ष्मीकी ओर ध्यान ही नहीं देता; वही पुरुष वास्तवमें भगवद्भक्त वैष्णवोंमें अग्रगण्य है, सबसे श्रेष्ठ है ॥ ५३ ॥ रासलीलाके अवसरपर नृत्य-गतिसे भाँति-भाँतिके पाद-विन्यास करनेवाले निखिल सौन्दर्य-माधुर्य-निधि भगवान्‌के चरणोंके अङ्गुलि-नखकी मणि-चन्द्रिकासे जिन शरणागत भक्तजनोंके हृदयका विरहजन्य संताप एक बार दूर हो चुका है, उनके हृदयमें वह फिर कैसे आ सकता है, जैसे चन्द्रोदय होनेपर सूर्यका ताप नहीं लग सकता ॥ ५४ ॥ विवशतासे नामोच्चारण करनेपर भी सम्पूर्ण अघ-राशिको नष्ट कर देनेवाले स्वयं भगवान्‌ श्रीहरि जिसके हृदय को क्षणभरके लिये भी नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उसने प्रेमकी रस्सीसे उनके चरण-कमलोंको बाँध रखा है, वास्तवमें ऐसा पुरुष ही भगवान्‌ के भक्तोंमें प्रधान है ॥ ५५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वसुदेवजीके पास श्रीनारदजीका आना और उन्हें

राजा जनक तथा नौ योगीश्वरोंका संवाद सुनाना

 

श्रीशुक उवाच -

 

गोविन्दभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह ।

 अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः ॥ १ ॥

 को नु राजन्निन्द्रियवान् मुकन्दचरणम्बुजम् ।

 न भजेत् सर्वतोमृत्युः उपास्यममरोत्तमैः ॥ २ ॥

 तमेकदा तु देवर्षिं वसुदेवो गृहागतम् ।

 अर्चितं सुखमासीनमभिवाद्येदमब्रवीत् ॥ ३ ॥

 

 श्रीवसुदेव उवाच

 भगवन् भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम् ।

 कृपणानां यथा पित्रोः उत्तमश्लोकवर्त्मनाम् ॥ ४ ॥

 भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च ।

 सुखायैव हि साधूनां त्वादृशामच्युतात्मनाम् ॥ ५ ॥

 भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान् ।

 छायेव कर्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः ॥ ६ ॥

 ब्रह्मन् तथापि पृच्छामो धर्मान् भागवतांस्तव ।

 यान् श्रुत्वा श्रद्धया मर्त्यो मुच्यते सर्वतो भयात् ॥ ७ ॥

 अहं किल पुरानन्तं प्रजार्थो भुवि मुक्तिदम् ।

 अपूजयं न मोक्षाय मोहितो देवमायया ॥ ८ ॥

 यथा विचित्रव्यसनाद् भवद्‌भिः विश्वतोभयात् ।

 मुच्येम ह्यञ्जसैवाद्धा तथा नः शाधि सुव्रत ॥ ९ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

 राजन्नेवं कृतप्रश्नो वसुदेवेन धीमता ।

 प्रीतस्तमाह देवर्षिः हरेः संस्मारितो गुणैः ॥ १० ॥

 

 श्रीनारद उवाच -

 सम्यगेतद्व्यवसितं भवता सात्वतर्षभ ।

 यत् पृच्छसे भागवतान् धर्मान् त्वं विश्वभावनान् ॥ ११ ॥

 श्रुतोऽनुपठितो ध्यात आदृतो वानुमोदितः ।

 सद्यः पुनाति सद्धर्मो देव विश्वद्रुहोऽपि हि ॥ १२ ॥

 त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।

 स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम ॥ १३ ॥

 अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम् ।

 आर्षभाणां च संवादं विदेहस्य महात्मनः ॥ १४ ॥

 प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः ।

 तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिः ऋषभस्तत्सुतस्स्मृतः ॥ १५ ॥

 तमाहुः वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया ।

 अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् ॥ १६ ॥

 तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः ।

 विख्यातं वर्षमेतद्यत् नाम्ना भारतमद्‍भुतम् ॥ १७ ॥

 स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम् ।

 उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः ॥ १८ ॥

 तेषां नव नवद्वीप-पतयोऽस्य समन्ततः ।

 कर्मतन्त्रप्रणेतार एकाशीतिर्द्विजातयः ॥ १९ ॥

 नवाभवन् महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसिनः ।

 श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदाः ॥ २० ॥

 कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः ।

 आविहोत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः ॥ २१ ॥

 त एते भगवद्‌रूपं विश्वं सदसदात्मकम् ।

 आत्मनोऽव्यतिरेकेण पश्यन्तो व्यचरन् महीम् ॥ २२ ॥

 अव्याहतेष्टगतयः सुरसिद्धसाध्य-

 गन्धर्वयक्षनरकिन्नरनागलोकान् ।

 मुक्ताश्चरन्ति मुनि-चारण-भूतनाथ-

 विद्याधर-द्विज-गवां भुवनानि कामम् ॥ २३ ॥

 त एकदा निमेः सत्रं उपजग्मुः यदृच्छया ।

 वितायमानं ऋषिभिः अजनाभेर्महात्मनः ॥ २४ ॥

 तान् दृष्ट्वा सूर्यसङ्काशान् महाभागवतान् नृप ।

 यजमानोऽग्नयो विप्राः सर्व एवोपतस्थिरे ॥ २५ ॥

 विदेहस्तानभिप्रेत्य नारायणपरायणान् ।

 प्रीतः संपूजयाञ्चक्रे आसनस्थान् यथार्हतः ॥ २६ ॥

 तान् रोचमानान् स्वरुचा ब्रह्मपुत्रोपमान् नव ।

 पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नृपः ॥ २७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुरुनन्दन ! देवर्षि नारदके मनमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सन्निधिमें रहनेकी बड़ी लालसा थी। इसलिये वे श्रीकृष्णके निज बाहुओंसे सुरक्षित द्वारकामें—जहाँ दक्ष आदिके शापका कोई भय नहीं था, विदा कर देनेपर भी पुन:-पुन: आकर प्राय: रहा ही करते थे ॥ १ ॥ राजन् ! ऐसा कौन प्राणी है, जिसे इन्द्रियाँ तो प्राप्त हों और वह भगवान्‌के ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवताओंके भी उपास्य चरणकमलोंकी दिव्य गन्ध, मधुर मकरन्द-रस, अलौकिक रूपमाधुरी, सुकुमार स्पर्श और मङ्गलमय ध्वनिका सेवन करना न चाहे ? क्योंकि यह बेचारा प्राणी सब ओरसे मृत्युसे ही घिरा हुआ है ॥ २ ॥ एक दिनकी बात है, देवर्षि नारद वसुदेवजीके यहाँ पधारे। वसुदेवजीने उनका अभिवादन किया तथा आरामसे बैठ जानेपर विधिपूर्वक उनकी पूजा की और इसके बाद पुन: प्रणाम करके उनसे यह बात कही ॥ ३ ॥

वसुदेवजीने कहा—संसारमें माता-पिताका आगमन पुत्रोंके लिये और भगवान्‌की ओर अग्रसर होनेवाले साधु-संतोंका पदार्पण प्रपञ्चमें उलझे हुए दीन-दुखियोंके लिये बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मङ्गलमय होता है। परन्तु भगवन् ! आप तो स्वयं भगवन्मय, भगवत्स्वरूप हैं। आपका चलना- फिरना तो समस्त प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होता है ॥ ४ ॥ देवताओंके चरित्र भी कभी प्राणियोंके लिये दु:खके हेतु, तो कभी सुखके हेतु बन जाते हैं। परन्तु जो आप-जैसे भगवत्प्रेमी पुरुष हैं—जिनका हृदय, प्राण, जीवन, सब कुछ भगवन्मय हो गया है—उनकी तो प्रत्येक चेष्टा समस्त प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होती है ॥ ५ ॥ जो लोग देवताओंका जिस प्रकार भजन करते हैं, देवता भी परछार्ईंके समान ठीक उसी रीतिसे भजन करनेवालोंको फल देते हैं; क्योंकि देवता कर्मके मन्त्री हैं, अधीन हैं। परन्तु सत्पुरुष दीनवत्सल होते हैं अर्थात् जो सांसारिक सम्पत्ति एवं साधनसे भी हीन हैं, उन्हें अपनाते हैं ॥ ६ ॥ ब्रह्मन् ! (यद्यपि हम आपके शुभागमन और शुभ दर्शनसे ही कृतकृत्य हो गये हैं) तथापि आपसे उन धर्मोंके—साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्र कर रहे हैं, जिनको मनुष्य श्रद्धासे सुन भर ले तो इस सब ओरसे भयदायक संसारसे मुक्त हो जाय ॥ ७ ॥ पहले जन्ममें मैंने मुक्ति देनेवाले भगवान्‌की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिये नहीं कि मुझे मुक्ति मिले। मेरी आराधनाका उद्देश्य था कि वे मुझे पुत्ररूपमें प्राप्त हों। उस समय मैं भगवान्‌की लीलासे मुग्ध हो रहा था ॥ ८ ॥ सुव्रत ! अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसारसे—जिसमें दु:ख भी सुखका विचित्र और मोहक रूप धारण करके सामने आते हैं—अनायास ही पार हो जाऊँ ॥ ९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! बुद्धिमान् वसुदेवजीने भगवान्‌के स्वरूप और गुण आदिके श्रवणके अभिप्रायसे ही यह प्रश्र किया था। देवर्षि नारद उनका प्रश्र सुनकर भगवान्‌के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणोंके स्मरणमें तन्मय हो गये और प्रेम एवं आनन्दमें भरकर वसुदेवजीसे बोले ॥ १० ॥

नारदजीने कहा—यदुवंशशिरोमणे ! तुम्हारा यह निश्चय बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि यह भागवत धर्मके सम्बन्धमें है, जो सारे विश्वको जीवन-दान देनेवाला है, पवित्र करनेवाला है ॥ ११ ॥ वसुदेवजी ! यह भागवतधर्म एक ऐसी वस्तु है, जिसे कानोंसे सुनने, वाणीसे उच्चारण करने, चित्तसे स्मरण करने, हृदयसे स्वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा रहा हो तो उसका अनुमोदन करनेसे ही मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो जाता है—चाहे वह भगवान्‌का एवं सारे संसारका द्रोही ही क्यों न हो ॥ १२ ॥ जिनके गुण, लीला और नाम आदिका श्रवण तथा कीर्तन पतितोंको भी पावन करनेवाला है, उन्हीं परम कल्याणस्वरूप मेरे आराध्यदेव भगवान्‌ नारायणका तुमने आज मुझे स्मरण कराया है ॥ १३ ॥ वसुदेवजी ! तुमने मुझसे जो प्रश्र किया है, इसके सम्बन्धमें संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास है—ऋषभके पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेहका शुभ संवाद ॥ १४ ॥ तुम जानते ही हो कि स्वायम्भुव मनुके एक प्रसिद्ध पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रतके आग्रीध्र, आग्रीध्रके नाभि और नाभिके पुत्र हुए ऋषभ ॥ १५ ॥ शास्त्रोंने उन्हें भगवान्‌ वासुदेवका अंश कहा है। मोक्षधर्मका उपदेश करनेके लिये उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब-के-सब वेदोंके पारदर्शी विद्वान् थे ॥ १६ ॥ उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। वे भगवान्‌ नारायणके परम प्रेमी भक्त थे। उन्हींके नामसे यह भूमिखण्ड, जो पहले ‘अजनाभवर्ष’ कहलाता था,‘भारतवर्ष’ कहलाया। यह भारतवर्ष भी एक अलौकिक स्थान है ॥ १७ ॥ राजर्षि भरतने सारी पृथ्वीका राज्य-भोग किया, परन्तु अन्तमें इसे छोडक़र वनमें चले गये। वहाँ उन्होंने तपस्याके द्वारा भगवान्‌ की उपासना की और तीन जन्मोंमें वे भगवान्‌को प्राप्त हुए ॥ १८ ॥ भगवान्‌ ऋषभदेवजीके शेष निन्यानबे पुत्रोंमें नौ पुत्र तो इस भारतवर्षके सब ओर स्थित नौ द्वीपोंके अधिपति हुए और इक्यासी पुत्र कर्मकाण्डके रचयिता ब्राह्मण हो गये ॥ १९ ॥ शेष नौ संन्यासी हो गये। वे बड़े ही भाग्यवान् थे। उन्होंने आत्मविद्याके सम्पादनमें बड़ा परिश्रम किया था और वास्तवमें वे उसमें बड़े निपुण थे। वे प्राय: दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियोंको परमार्थ-वस्तुका उपदेश किया करते थे। उनके नाम थे—कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन ॥ २०-२१ ॥ वे इस कार्य-कारण और व्यक्त-अव्यक्त भगवद्रूप जगत्को अपने आत्मासे अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वीपर स्वच्छन्द विचरण करते थे ॥ २२ ॥ उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। देवता, सिद्ध, साध्य-गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नागोंके लोकोंमें तथा मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओंके स्थानोंमें वे स्वछन्द विचरते थे। वसुदेवजी ! वे सब-के-सब जीवन्मुक्त थे ॥ २३ ॥

एक बारकी बात है, इस अजनाभ (भारत) वर्षमें विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियोंके द्वारा एक महान् यज्ञ करा रहे थे। पूर्वोक्त नौ योगीश्वर स्वच्छन्द विचरण करते हुए उनके यज्ञमें जा पहुँचे ॥ २४ ॥ वसुदेवजी ! वे योगीश्वर भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त और सूर्यके समान तेजस्वी थे। उन्हें देखकर राजा निमि, आहवनीय आदि मूर्तिमान् अग्रि और ऋत्विज् आदि ब्राह्मण सब-के-सब उनके स्वागतमें खड़े हो गये ॥ २५ ॥ विदेहराज निमिने उन्हें भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त जानकर यथायोग्य आसनोंपर बैठाया और प्रेम तथा आनन्दसे भरकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ॥ २६ ॥ वे नवों योगीश्वर अपने अङ्गोंकी कान्तिसे इस प्रकार चमक रहे थे, मानो साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्र सनकादि मुनीश्वर ही हों। राजा निमि  ने विनयसे झुककर परम प्रेमके साथ उनसे प्रश्न किया ॥ २७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१) विराट् शरीर की उत्पत्ति ऋषिरुवाच - इति तासां स्वशक्तीना...