शुक्रवार, 12 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

 

माया, माया से पार होने के उपाय

तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण

 

श्रीराजोवाच -

 कर्मयोगं वदत नः पुरुषो येन संस्कृतः ।

 विधूयेहाशु कर्माणि नैष्कर्म्यं विन्दते परम् ॥ ४१ ॥

 एवं प्रश्नम् ऋषीन् पूर्वम् अपृच्छं पितु्रन्तिके ।

 नाब्रुवन् ब्रह्मणः पुत्राः तत्र कारणमुच्यताम् ॥ ४२ ॥

 

 श्रीआविहोत्र उवाच -

 कर्माकर्म विकर्मेति वेदवादो न लौकिकः ।

 वेदस्य चेश्वरात्मत्वात् तत्र मुह्यन्ति सूरयः ॥ ४३ ॥

 परोक्षवादो वेदोऽयं बालानामनुशासनम् ।

 कर्ममोक्षाय कर्माणि विधत्ते ह्यगदं यथा ॥ ४४ ॥

 नाचरेद् यस्तु वेदोक्तं स्वयं अज्ञोऽजितेंद्रियः ।

 विकर्मणा हि अधर्मेण मृत्योर्मृत्युमुपैति सः ॥ ४५ ॥

 वेदोक्तमेव कुर्वाणो निःसङ्‌गोऽर्पितमीश्वरे ।

 नैष्कर्म्यं लभते सिद्धिं रोचनार्था फलश्रुतिः ॥ ४६ ॥

 य आशु हृदयग्रन्थिं निर्जिहीर्षुः परात्मनः ।

 विधिनोपचरेद् देवं तन्त्रोक्तेन च केशवम् ॥ ४७ ॥

 लब्ध्वानुग्रह आचार्यात् तेन संदर्शितागमः ।

 महापुरुषमभ्यर्चेन्मूर्त्याभिमतयाऽऽत्मनः ॥ ४८ ॥

 शुचिः संमुखमासीनः प्राणसंयमनादिभिः ।

 पिण्डं विशोध्य संन्यास कृतरक्षोऽर्चयेद् हरिम् ॥ ४९ ॥

 अर्चादौ हृदये चापि यथालब्धोपचारकैः ।

 द्रव्यक्षित्यात्मलिङ्‌गानि निष्पाद्य प्रोक्ष्य चासनम् ॥ ५० ॥

 पाद्यादीन् उपकल्प्याथ सन्निधाप्य समाहितः ।

 हृदादिभिः कृतन्यासो मूलमंत्रेण चार्चयेत् ॥ ५१ ॥

 साङ्गोपाङ्गां सपार्षदां तां तां मूर्तिं स्वमन्त्रतः ।

 पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः स्नानवासोविभूषणैः ॥ ५२ ॥

 गन्धमाल्याक्षतस्रग्भिः धूपदीपोपहारकैः ।

 साङ्गं संपूज्य विधिवत् स्तवैः स्तुत्वा नमेत् हरिम् ॥ ५३ ॥

 आत्मानं तन्मयं ध्यायन् मूर्तिं संपूजयेत् हरेः ।

 शेषामाधाय शिरसा स्वधाम्न्युद्वास्य सत्कृतम् ॥ ५४ ॥

 एवमग्न्यर्कतोयादौ अतिथौ हृदये च यः ।

 यजतीश्वरमात्मानं अचिरान्मुच्यते हि सः ॥ ५५ ॥

 

राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो ! अब आपलोग हमें कर्मयोगका उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कम्र्य अर्थात् कर्तृत्व, कर्म और कर्मफलकी निवृत्ति करनेवाला ज्ञान प्राप्त करता है ॥ ४१ ॥ एक बार यही प्रश्र मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकुके सामने ब्रह्माजीके मानस पुत्र सनकादि ऋषियोंसे पूछा था, परन्तु उन्होंने सर्वज्ञ होनेपर भी मेरे प्रश्रका उत्तर न दिया। इसका क्या कारण था ? कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ ४२ ॥

अब छठे योगीश्वर आविर्होत्रजी ने कहा—राजन् ! कर्म (शास्त्रविहित), अकर्म (निषिद्ध) और विकर्म (विहितका उल्लङ्घन)—ये तीनों एकमात्र वेदके द्वारा जाने जाते हैं, इनकी व्यवस्था लौकिक रीतिसे नहीं होती। वेद अपौरुषेय हैं—ईश्वररूप हैं; इसलिये उनके तात्पर्यका निश्चय करना बहुत कठिन है। इसीसे बड़े-बड़े विद्वान् भी उनके अभिप्रायका निर्णय करनेमें भूल कर बैठते हैं। (इसीसे तुम्हारे बचपनकी ओर देखकर—तुम्हें अनधिकारी समझकर सनकादि ऋषियोंने तुम्हारे प्रश्रका उत्तर नहीं दिया) ॥ ४३ ॥ यह वेद परोक्षवादात्मक [1] है। यह कर्मोंकी निवृत्तिके लिये कर्मका विधान करता है, जैसे बालकको मिठाई आदिका लालच देकर औषध खिलाते हैं, वैसे ही यह अनभिज्ञोंको स्वर्ग आदिका प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्ममें प्रवृत्त करता है ॥ ४४ ॥ जिसका अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, वह यदि मनमाने ढंगसे वेदोक्त कर्मोंका परित्याग कर देता है, तो वह विहित कर्मोंका आचरण न करनेके कारण विकर्मरूप अधर्म ही करता है। इसलिये वह मृत्युके बाद फिर मृत्युको प्राप्त होता है ॥ ४५ ॥ इसलिये फलकी अभिलाषा छोड़- कर और विश्वात्मा भगवान्‌को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्मका ही अनुष्ठान करता है, उसे कर्मोंकी निवृत्तिसे प्राप्त होनेवाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है। जो वेदोंमें स्वर्गादिरूप फलका वर्णन है, उसका तात्पर्य फलकी सत्यतामें नहीं है, वह तो कर्मोंमें रुचि उत्पन्न करानेके लिये है ॥ ४६ ॥

राजन् ! जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र-से-शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्माकी हृदय-ग्रन्थि—मैं और मेरे की कल्पित गाँठ खुल जाय, उसे चाहिये कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान्‌ की आराधना करे ॥ ४७ ॥ पहले सेवा आदिके द्वारा गुरुदेवकी दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठानकी विधि सीखे; अपनेको भगवान्‌    की जो मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट जान पड़े, उसीके द्वारा पुरुषोत्तम भगवान्‌ की पूजा करे ॥ ४८ ॥ पहले स्नानादिसे शरीर और सन्तोष आदिसे अन्त:करणको शुद्ध करे, इसके बाद भगवान्‌ की मूर्ति के सामने बैठकर प्राणायाम आदिके द्वारा भूतशुद्धि—नाडी-शोधन करे, तत्पश्चात् विधिपूर्वक मन्त्र, देवता आदिके न्याससे अङ्गरक्षा करके भगवान्‌की पूजा करे ॥ ४९ ॥ पहले पुष्प आदि पदार्थोंका जन्तु आदि निकालकर, पृथ्वीको सम्मार्जन आदिसे, अपनेको अव्यग्र होकर और भगवान्‌ की मूर्तिको पहलेहीकी पूजाके लगे हुए पदार्थोंके क्षालन आदिसे पूजाके योग्य बनाकर फिर आसनपर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल छिडक़कर पाद्य,  अर्घ्य आदि पात्रोंको स्थापित करे। तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर हृदय में भगवान्‌ का ध्यान करके फिर उसे सामनेकी श्रीमूर्तिमें चिन्तन करे। तदनन्तर हृदय, सिर, शिखा (हृदयाय नम:, शिरसे स्वाहा) इत्यादि मन्त्रोंसे न्यास करे और अपने इष्टदेवके मूलमन्त्रके द्वारा देश, काल आदिके अनुकूल प्राप्त पूजा-सामग्री से प्रतिमा आदिमें अथवा हृदयमें भगवान्‌की पूजा करे ॥ ५०-५१ ॥ अपने-अपने उपास्यदेवके विग्रहकी हृदयादि अङ्ग, आयुधादि उपाङ्ग और पार्षदोंसहित उसके मूलमन्त्रद्वारा पाद्य, अघ्र्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, दधि-अक्षत के [2] तिलक, माला, धूप, दीप और नैवेद्य आदिसे विधिवत् पूजा करे तथा फिर स्तोत्रोंद्वारा स्तुति करके सपरिवार भगवान्‌ श्रीहरिको नमस्कार करे ॥ ५२-५३ ॥ अपने आपको भगवन्मय ध्यान करते हुए ही भगवान्‌  की मूर्तिका पूजन करना चाहिये। निर्माल्यको अपने सिरपर रखे और आदरके साथ भगवद्विग्रह को यथास्थान स्थापित कर पूजा समाप्त करनी चाहिये ॥ ५४ ॥ इस प्रकार जो पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदय में आत्मरूप श्रीहरिकी पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ॥ ५५ ॥

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[1] जिसमें शब्दार्थ कुछ और मालूम दे और तात्पर्यार्थ कुछ और हो—उसे परोक्षवाद कहते हैं।

[2] विष्णुभगवान्‌ की पूजा में अक्षतों का प्रयोग केवल तिलकालंकार में ही करना चाहिये, पूजा में नहीं—‘नाक्षतैरर्चयेद् विष्णुं न केतक्या महेश्वरम्।’

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

 

माया, माया से पार होने के उपाय

तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण

 

श्रीराजोवाच -

नारायणाभिधानस्य ब्रह्मणः परमात्मनः ।

निष्ठाम् अर्हथ नो वक्तुं यूयं हि ब्रह्मवित्तमाः ॥ ३४ ॥

 

श्रीपिप्पलायन उवाच -

स्थित्युद्‌भवप्रलयहेतुरहेतुरस्य

     यत् स्वप्नजागरसुषुप्तिषु सद् बहिश्च ।

 देहेन्द्रियासुहृदयानि चरन्ति येन

     सञ्जीवितानि तदवेहि परं नरेन्द्र ॥ ३५ ॥

 नैतन्मनो विशति वागुत चक्षुरात्मा

     प्राणेन्द्रियाणि च यथानलमर्चिषः स्वाः ।

 शब्दोऽपि बोधकनिषेधतयात्ममूलम्

     अर्थोक्तमाह यदृते न निषेधसिद्धिः ॥ ३६ ॥

 सत्त्वं रजस्तम इति त्रिवृदेकमादौ

     सूत्रं महानहमिति प्रवदन्ति जीवम् ।

 ज्ञानक्रियार्थफलरूपतयोरुशक्ति

     ब्रह्मैव भाति सदसच्च तयोः परं यत् ॥ ३७ ॥

 नात्मा जजान न मरिष्यति नैधतेऽसौ

     न क्षीयते सवनविद् व्यभिचारिणां हि ।

 सर्वत्र शश्वदनपाय्युपलब्धिमात्रं

     प्राणो यथेंद्रियबलेन विकल्पितं सत् ॥ ३८ ॥

 अण्डेषु पेशिषु तरुष्वविनिश्चितेषु

     प्राणो हि जीवमुपधावति तत्र तत्र ।

 सन्ने यदिन्द्रियगणेऽहमि च प्रसुप्ते

     कूटस्थ आशयमृते तदनुस्मृतिर्नः ॥ ३९ ॥

 यह्यब्जनाभचरणैषणयोरुभक्त्या

     चेतोमलानि विधमेद्‌ गुणकर्मजानि ।

 तस्मिन् विशुद्ध उपलभ्यत आत्मतत्त्वं

     साक्षाद् यथामलदृशोः सवितृप्रकाशः ॥ ४० ॥

 

राजा निमि ने पूछा—महर्षियो ! आपलोग परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जाननेवालों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये मुझे यह बतलाइये कि जिस परब्रह्म परमात्मा का ‘नारायण’ नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है ? ॥ ३४ ॥

अब पाँचवें योगीश्वर पिप्पलायनजी  ने कहा—राजन् ! जो इस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका निमित्त-कारण और उपादान-कारण दोनों ही है, बननेवाला भी है और बनानेवाला भी— परन्तु स्वयं कारणरहित है; जो स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्थाओंमें उनके साक्षीके रूपमें विद्यमान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधिमें भी ज्यों-का-त्यों एकरस रहता है; जिसकी सत्तासे ही सत्तावान् होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्त:करण अपना-अपना काम करनेमें समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तुको आप ‘नारायण’ समझिये ॥ ३५ ॥ जैसे चिनगारियाँ न तो अग्नि को प्रकाशित ही कर सकती हैं और न जला ही सकती हैं, वैसे ही उस परमतत्त्व में—आत्मस्वरूपमें न तो मनकी गति है और न वाणीकी, नेत्र उसे देख नहीं सकते और बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इन्द्रियाँ तो उसके पासतक नहीं फटक पातीं। ‘नेति-नेति’—इत्यादि श्रुतियों के शब्द भी वह यह है—इस रूपमें उसका वर्णन नहीं करते, बल्कि उसको बोध करानेवाले जितने भी साधन हैं, उनका निषेध करके तात्पर्यरूप  से अपना मूल—निषेधका मूल लक्षित करा देते हैं; क्योंकि यदि निषेध के आधारकी, आत्माकी सत्ता न हो तो निषेध कौन कर रहा है, निषेध की वृत्ति किसमें है—

इन प्रश्नों  का कोई उत्तर ही न रहे, निषेधकी ही सिद्धि न हो ॥ ३६ ॥ जब सृष्टि नहीं थी, तब केवल एक वही था। सृष्टिका निरूपण करनेके लिये उसीको त्रिगुण (सत्त्व-रज-तम) मयी प्रकृति कहकर वर्णन किया गया। फिर उसीको ज्ञानप्रधान होनेसे महत्तत्त्व, क्रियाप्रधान होनेसे सूत्रात्मा और जीवकी उपाधि होनेसे अहङ्कार के रूपमें वर्णन किया गया। वास्तवमें जितनी भी शक्तियाँ हैं—चाहे वे इन्द्रियोंके अधिष्ठातृदेवताओं के रूपमें हों, चाहे इन्द्रियोंके, उनके विषयोंके अथवा विषयोंके प्रकाश के रूपमें हों—सब-का-सब वह ब्रह्म ही है; क्योंकि ब्रह्मकी शक्ति अनन्त है। कहाँतक कहूँ? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है—सब कुछ ब्रह्म है। इनसे परे जो कुछ है, वह भी ब्रह्म ही है ॥ ३७ ॥ वह ब्रह्मस्वरूप आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता है। वह न तो बढ़ता है और न घटता ही है। जितने भी परिवर्तनशील पदार्थ हैं—चाहे वे क्रिया, सङ्कल्प और उनके अभाव के रूपमें ही क्यों न हों—सबकी भूत, भविष्यत् और वर्तमान सत्ताका वह साक्षी है। सबमें है। देश, काल और वस्तुसे अपरिच्छिन्न है, अविनाशी है। वह उपलब्धि करनेवाला अथवा उपलब्धिका विषय नहीं है। केवल उपलब्धिस्वरूप—ज्ञानस्वरूप है। जैसे प्राण तो एक ही रहता है, परन्तु स्थानभेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं—वैसे ही ज्ञान एक होनेपर भी इन्द्रियोंके सहयोगसे उसमें अनेकताकी कल्पना हो जाती है ॥ ३८ ॥ जगत्में चार प्रकारके जीव होते हैं—अंडा फोडक़र पैदा होनेवाले पक्षी-साँप आदि, नाल में बँधे पैदा होनेवाले पशु-मनुष्य, धरती फोडक़र निकलनेवाले वृक्ष-वनस्पति और पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले खटमल आदि। इन सभी जीव-शरीरोंमें प्राणशक्ति जीवके पीछे लगी रहती है। शरीरोंके भिन्न-भिन्न होनेपर भी प्राण एक ही रहता है। सुषुप्ति-अवस्थामें जब इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं, अहङ्कार भी सो जाता है—लीन हो जाता है, अर्थात् लिङ्गशरीर नहीं रहता, उस समय यदि कूटस्थ आत्मा भी न हो तो इस बातकी पीछे से स्मृति ही कैसे हो कि मैं सुख से सोया था । पीछे होनेवाली यह स्मृति ही उस समय आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करती है ॥ ३९ ॥ जब भगवान्‌ कमलनाभ के चरणकमलों को प्राप्त करनेकी इच्छासे तीव्र भक्ति की जाती है तब वह भक्ति ही अग्रिकी भाँति गुण और कर्मोंसे उत्पन्न हुए चित्तके सारे मलोंको जला डालती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्त्वका साक्षात्कार हो जाता है—जैसे नेत्रोंके निर्विकार हो जानेपर सूर्यके प्रकाशकी प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है ॥ ४० ॥

 

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गुरुवार, 11 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध—तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

 

माया, माया से पार होने के उपाय

तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण

 

श्रीराजोवाच -

यथेताम् ऐश्वरीं मायां दुस्तरामकृतात्मभिः ।

तरन्त्यञ्जः स्थूलधियो महर्ष इदमुच्यताम् ॥ १७ ॥

 

 श्रीप्रबुद्ध उवाच -

 कर्माण्यारभमाणानां दुःखहत्यै सुखाय च ।

 पश्येत्पाकविपर्यासं मिथुनीचारिणां नृणाम् ॥ १८ ॥

 नित्यार्तिदेन वित्तेन दुर्लभेनात्ममृत्युना ।

 गृहापत्याप्तपशुभिः का प्रीतिः साधितैश्चलैः ॥ १९ ॥

 एवं लोकं परं विद्यात् नश्वरं कर्मनिर्मितम् ।

 सतुल्यातिशयध्वंसं यथा मण्डलवर्तिनाम् ॥ २० ॥

 तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम् ।

 शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ॥ २१ ॥

 तत्र भागवतान् धर्मान् शिक्षेद् गुर्वात्मदैवतः ।

 अमाययानुवृत्त्या यैः तुष्येदात्माऽऽत्मदो हरिः ॥ २२ ॥

 सर्वतो मनसोऽसङ्‌गमादौ सङ्गं च साधुषु ।

 दयां मैत्रीं प्रश्रयं च भूतेष्वद्धा यथोचितम् ॥ २३ ॥

 शौचं तपस्तितिक्षां च मौनं स्वाध्यायमार्जवम् ।

 ब्रह्मचर्यमहिंसां च समत्वं द्वन्द्वसंज्ञयोः ॥ २४ ॥

 सर्वत्रात्मेश्वरान्वीक्षां कैवल्यमनिकेतताम् ।

 विविक्तचीरवसनं सन्तोषं येन केनचित् ॥ २५ ॥

 श्रद्धां भागवते शास्त्रेऽनिन्दामन्यत्र चापि हि ।

 मनोवाक्कर्मदण्डं च सत्यं शमदमावपि ॥ २६ ॥

 श्रवणं कीर्तनं ध्यानं हरेरद्भुतकर्मणः ।

 जन्मकर्मगुणानां च तदर्थेऽखिलचेष्टितम् ॥ २७ ॥

 इष्टं दत्तं तपो जप्तं वृत्तं यच्चात्मनः प्रियम् ।

 दारान् सुतान् गृहान् प्राणान् यत्परस्मै निवेदनम् ॥ २८ ॥

 एवं कृष्णात्मनाथेषु मनुष्येषु च सौहृदम् ।

 परिचर्यां चोभयत्र महत्सु नृषु साधुषु ॥ २९ ॥

 परस्परानुकथनं पावनं भगवद्यशः ।

 मिथो रतिर्मिथस्तुष्टिः निवृत्तिर्मिथ आत्मनः ॥ ३० ॥

 स्मरन्तः स्मारन्तश्च मिथोऽघौघहरं हरिम् ।

 भक्त्या सञ्जातया भक्त्या बिभ्रत्युत्पुलकां तनुम् ॥ ३१ ॥

 क्वचिद् रुदन्त्यच्युतचिन्तया क्वचिद्

     हसन्ति नन्दन्ति वदन्त्यलौकिकाः ।

 नृत्यन्ति गायन्त्यनुशीलयन्त्यजं

     भवन्ति तूष्णीं परमेत्य निर्वृताः ॥ ३२ ॥

इति भागवतान् धर्मान् शिक्षन् भक्त्या तदुत्थया ।

नारायणपरो मायां अञ्जस्तरति दुस्तराम् ॥ ३३ ॥

 

राजा निमिने पूछा—महर्षिजी ! इस भगवान्‌की मायाको पार करना उन लोगोंके लिये तो बहुत ही कठिन है, जो अपने मनको वशमें नहीं कर पाये हैं। अब आप कृपा करके यह बताइये कि जो लोग शरीर आदिमें आत्मबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी समझ मोटी है, वे भी अनायास ही इसे कैसे पार कर सकते हैं ? ॥ १७ ॥

अब चौथे योगीश्वर प्रबुद्धजी बोले—राजन् ! स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध आदि बन्धनोंमें बँधे हुए संसारी मनुष्य सुखकी प्राप्ति और दु:खकी निवृत्तिके लिये बड़े-बड़े कर्म करते रहते हैं। जो पुरुष मायाके पार जाना चाहता है, उसको विचार करना चाहिये कि उनके कर्मोंका फल किस प्रकार विपरीत होता जाता है। वे सुखके बदले दु:ख पाते हैं और दु:ख-निवृत्तिके स्थानपर दिनोंदिन दु:ख बढ़ता ही जाता है ॥ १८ ॥ एक धनको ही लो। इससे दिन-पर-दिन दु:ख बढ़ता ही है, इसको पाना भी कठिन है और यदि किसी प्रकार मिल भी जाय तो आत्माके लिये तो यह मृत्युस्वरूप ही है। जो इसकी उलझनोंमें पड़ जाता है, वह अपने-आपको भूल जाता है। इसी प्रकार घर, पुत्र, स्वजन- सम्बन्धी, पशुधन आदि भी अनित्य और नाशवान् ही हैं; यदि कोई इन्हें जुटा भी ले तो इनसे क्या सुख-शान्ति मिल सकती है ? ॥ १९ ॥ इसी प्रकार जो मनुष्य मायासे पार जाना चाहता है, उसे यह भी समझ लेना चाहिये कि मरनेके बाद प्राप्त होनेवाले लोक-परलोक भी ऐसे ही नाशवान् हैं।

क्योंकि इस लोककी वस्तुओंके समान वे भी कुछ सीमित कर्मोंके सीमित फलमात्र हैं। वहाँ भी पृथ्वीके छोटे-छोटे राजाओंके समान बराबरवालोंसे होड़ अथवा लाग-डाँट रहती है, अधिक ऐश्वर्य और सुखवालोंके प्रति छिद्रान्वेषण तथा ईर्ष्या-द्वेषका भाव रहता है, कम सुख और ऐश्वर्यवालोंके प्रति घृणा रहती है एवं कर्मोंका फल पूरा हो जानेपर वहाँसे पतन तो होता ही है। उसका नाश निश्चित है। नाशका भय वहाँ भी नहीं छूट पाता ॥ २० ॥ इसलिये जो परम कल्याणका जिज्ञासु हो , उसे गुरुदेवकी शरण लेनी चाहिये। गुरुदेव ऐसे हों, जो शब्दब्रह्म—वेदोंके पारदर्शी विद्वान् हों, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें; और साथ ही परब्रह्ममें परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों, ताकि अपने अनुभवके द्वारा प्राप्त हुई रहस्यकी बातोंको बता सकें। उनका चित्त शान्त हो, व्यवहारके प्रपञ्चमें विशेष प्रवृत्त न हो ॥ २१ ॥ जिज्ञासुको चाहिये कि गुरुको ही अपना परम प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने। उनकी निष्कपटभावसे सेवा करे और उनके पास रहकर भागवतधर्मकी—भगवान्‌- को प्राप्त करानेवाले भक्तिभावके साधनोंकी क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे। इन्हीं साधनोंसे सर्वात्मा एवं भक्तको अपने आत्माका दान करनेवाले भगवान्‌ प्रसन्न होते हैं ॥ २२ ॥ पहले शरीर, सन्तान आदिमें मनकी अनासक्ति सीखे। फिर भगवान्‌के भक्तोंसे प्रेम कैसा करना चाहिये—यह सीखे। इसके पश्चात् प्राणियोंके प्रति यथायोग्य दया, मैत्री और विनयकी निष्कपट भावसे शिक्षा ग्रहण करे ॥ २३ ॥ मिट्टी, जल आदिसे बाह्य शरीरकी पवित्रता, छल-कपट आदिके त्यागसे भीतरकी पवित्रता, अपने धर्मका अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा शीत-उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें हर्ष-विषादसे रहित होना सीखे ॥ २४ ॥ सर्वत्र अर्थात् समस्त देश, काल और वस्तुओंमें चेतनरूपसे आत्मा और नियन्तारूपसे ईश्वरको देखना, एकान्तसेवन, ‘यही मेरा घर है’—ऐसा भाव न रखना, गृहस्थ हो तो पवित्र वस्त्र पहनना और त्यागी हो तो फटे- पुराने पवित्र चिथड़े, जो कुछ प्रारब्धके अनुसार मिल जाय, उसीमें सन्तोष करना सीखे ॥ २५ ॥ भगवान्‌की प्राप्तिका मार्ग बतलानेवाले शास्त्रोंमें श्रद्धा और दूसरे किसी भी शास्त्रकी निन्दा न करना, प्राणायामके द्वारा मनका, मौनके द्वारा वाणीका और वासनाहीनताके अभ्याससे कर्मोंका संयम करना, सत्य बोलना, इन्द्रियोंको अपने-अपने गोलकोंमें स्थिर रखना और मनको कहीं बाहर न जाने देना सीखे ॥ २६ ॥ राजन् ! भगवान्‌की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हींका श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीरसे जितनी भी चेष्टाएँ हों, सब भगवान्‌के लिये करना सीखे ॥ २७ ॥ यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचारका पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपनेको प्रिय लगता हो—सब-का-सब भगवान्‌के चरणोंमें निवेदन करना उन्हें सौंप देना सीखे ॥ २८ ॥ जिन संत पुरुषोंने सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णका अपने आत्मा और स्वामीके रूपमें साक्षात्कार कर लिया हो, उनसे प्रेम और स्थावर, जङ्गम दोनों प्रकारके प्राणियोंकी सेवा; विशेष करके मनुष्योंकी, मनुष्योंमें भी परोपकारी सज्जनोंकी और उनमें भी भगवत्प्रेमी संतोंकी करना सीखे ॥ २९ ॥ भगवान्‌के परम पावन यशके सम्बन्धमें ही एक-दूसरेसे बातचीत करना और इस प्रकारके साधकोंका इकट्ठेहोकर आपसमें प्रेम करना, आपसमें सन्तुष्ट रहना और प्रपञ्चसे निवृत्त होकर आपसमें ही आध्यात्मिक शान्तिका अनुभव करना सीखे ॥ ३० ॥ राजन् ! श्रीकृष्ण राशि-राशि पापोंको एक क्षणमें भस्म कर देते हैं। सब उन्हींका स्मरण करें और एक-दूसरेको स्मरण करावें। इस प्रकार साधन-भक्तिका अनुष्ठान करते-करते प्रेम- भक्तिका उदय हो जाता है और वे प्रेमोद्रेकसे पुलकित-शरीर धारण करते हैं ॥ ३१ ॥ उनके हृदयकी बड़ी विलक्षण स्थिति होती है। कभी-कभी वे इस प्रकार चिन्ता करने लगते हैं कि अबतक भगवान्‌ नहीं मिले, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किससे पूछूँ, कौन मुझे उनकी प्राप्ति करावे ? इस तरह सोचते- सोचते वे रोने लगते हैं तो कभी भगवान्‌की लीलाकी स्फूर्ति हो जानेसे ऐसा देखकर कि परमैश्वर्य- शाली भगवान्‌ गोपियोंके डरसे छिपे हुए हैं, खिलखिलाकर हँसने लगते हैं। कभी-कभी उनके प्रेम और दर्शनकी अनुभूतिसे आनन्दमग्र हो जाते हैं तो कभी लोकातीत भावमें स्थित होकर भगवान्‌ के साथ बातचीत करने लगते हैं । कभी मानो उन्हें सुना रहे हों, इस प्रकार उनके गुणोंका गान छेड़ देते हैं और कभी नाच-नाचकर उन्हें रिझाने लगते हैं। कभी-कभी उन्हें अपने पास न पाकर इधर-उधर ढूँढऩे लगते हैं तो कभी-कभी उनसे एक होकर, उनकी सन्निधि में स्थित होकर परम शान्तिका अनुभव करते और चुप हो जाते हैं ॥ ३२ ॥ राजन् ! जो इस प्रकार भागवतधर्मों की शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्तिकी प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान्‌ नारायण के परायण होकर उस माया को अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजे से निकलना बहुत ही कठिन है ॥ ३३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९) धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका  ...