रविवार, 14 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान्‌ की पूजाविधि का वर्णन

 

 श्रीराजोवाच -

 भगवन्तं हरिं प्रायो न भजन्त्यात्मवित्तमाः ।

 तेषामशान्तकामानां का निष्ठाविजितात्मनाम् ॥ १ ॥

 

 श्रीचमस उवाच -

 मुखबाहूरुपादेभ्यः पुरुषस्याश्रमैः सह ।

 चत्वारो जज्ञिरे वर्णा गुणैर्विप्रादयः पृथक् ॥ २ ॥

 य एषां पुरुषं साक्षात् आत्मप्रभवमीश्वरम् ।

 न भजन्त्यवजानन्ति स्थानाद्‍भ्रष्टाः पतन्त्यधः ॥ ३ ॥

 दूरे हरिकथाः केचिद् दूरे चाच्युतकीर्तनाः ।

 स्त्रियः शूद्रादयश्चैव तेऽनुकम्प्या भवादृशाम् ॥ ४ ॥

 विप्रो राजन्यवैश्यौ वा हरेः प्राप्ताः पदान्तिकम् ।

 श्रौतेन जन्मनाथापि मुह्यन्त्याम्नायवादिनः ॥ ५ ॥

 कर्मण्यकोविदाः स्तब्धा मूर्खाः पण्डितमानिनः ।

 वदन्ति चाटुकान् मूढा यया माध्व्या गिरोत्सुकाः ॥ ६ ॥

 रजसा घोरसङ्कल्पाः कामुका अहिमन्यवः ।

 दाम्भिका मानिनः पापा विहसन्त्यच्युतप्रियान् ॥ ७ ॥

 वदन्ति तेऽन्योन्यमुपासितस्त्रियो

     गृहेषु मैथुन्यपरेषु चाशिषः ।

 यजन्त्यसृष्टानविधानदक्षिणं

     वृत्त्यै परं घ्नन्ति पशून् अतद्विदः ॥ ८ ॥

 श्रिया विभूत्याभिजनेन विद्यया

     त्यागेन रूपेण बलेन कर्मणा ।

 जातस्मयेनान्धधियः सहेश्वरान्

     सतोऽवमन्यन्ति हरिप्रियान्खलाः ॥ ९ ॥

 सर्वेषु शश्वत् तनुभृत्स्ववस्थितं

     यथा खमात्मानमभीष्टमीश्वरम् ।

 वेदोपगीतं च न श्रृण्वतेऽबुधा

     मनोरथानां प्रवदन्ति वार्तया ॥ १० ॥

 लोके व्यवायामिषमद्यसेवा

     नित्यास्तु जन्तोर्न हि तत्र चोदना ।

 व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञ-

     सुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा ॥ ११ ॥

 धनं च धर्मैकफलं यतो वै

     ज्ञानं सविज्ञानमनुप्रशान्ति ।

 गृहेषु युञ्जन्ति कलेवरस्य

     मृत्युं न पश्यन्ति दुरन्तवीर्यम् ॥ १२ ॥

 यद् घ्राणभक्षो विहितः सुरायाः

     तथा पशोरालभनं न हिंसा ।

 एवं व्यवायः प्रजया न रत्या

     इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्मम् ॥ १३ ॥

 ये तु अनेवंविदोऽसन्तः स्तब्धाः सदभिमानिनः ।

 पशून् द्रुह्यन्ति विश्रब्धाः प्रेत्य खादन्ति ते च तान् ॥ १४ ॥

 द्विषन्तः परकायेषु स्वात्मानं हरिमीश्वरम् ।

 मृतके सानुबन्धेऽस्मिन् बद्धस्नेहाः पतन्त्यधः ॥ १५ ॥

 ये कैवल्यं असम्प्राप्ता ये चातीताश्च मूढताम् ।

 त्रैवर्गिका ह्यक्षणिका आत्मानं घातयन्ति ते ॥ १६ ॥

 एत आत्महनोऽशान्ता अज्ञाने ज्ञानमानिनः ।

 सीदन्त्यकृतकृत्या वै कालध्वस्तमनोरथाः ॥ १७ ॥

 हित्वा अत्यायारचिता गृहापत्यसुहृत् स्त्रियः ।

 तमो विशन्त्यनिच्छन्तो वासुदेवपराङ्‌मुखाः ॥ १८ ॥

 

 श्री राजोवाच -

  कस्मिन् काले स भगवान् किं वर्णः कीदृशो नृभिः ।

 नाम्ना वा केन विधिना पूज्यते तदिहोच्यताम् ॥ १९ ॥

 

 श्रीकरभाजन उवाच -

 कृतं त्रेता द्वापरं च कलिरित्येषु केशवः ।

 नानावर्णाभिधाकारो नानैव विधिनेज्यते ॥ २० ॥

 कृते शुक्लश्चतुर्बाहुः जटिलो वल्कलाम्बरः ।

 कृष्णाजिनोपवीताक्षान् बिभ्रद् दण्डकमण्डलू ॥ २१ ॥

 मनुष्यास्तु तदा शान्ता निर्वैराः सुहृदः समाः ।

 यजन्ति तपसा देवं शमेन च दमेन च ॥ २२ ॥

 हंसः सुपर्णो वैकुण्ठो धर्मो योगेश्वरोऽमलः ।

 ईश्वरः पुरुषोऽव्यक्तः परमात्मेति गीयते ॥ २३ ॥

 त्रेतायां रक्तवर्णोऽसौ चतुर्बाहुस्त्रिमेखलः ।

 हिरण्यकेशः त्रय्यात्मा स्रुक् स्रुवाद्युपलक्षणः ॥ २४ ॥

 तं तदा मनुजा देवं सर्वदेवमयं हरिम् ।

 यजन्ति विद्यया त्रय्या धर्मिष्ठा ब्रह्मवादिनः ॥ २५ ॥

 विष्णुर्यज्ञः पृश्निगर्भः सर्वदेव उरुक्रमः ।

 वृषाकपिर्जयन्तश्च उरुगाय इतीर्यते ॥ २६ ॥

 द्वापरे भगवान् श्यामः पीतवासा निजायुधः ।

 श्रीवत्सादिभिरङ्कैश्च लक्षणैरुपलक्षितः ॥ २७ ॥

 तं तदा पुरुषं मर्त्या महाराजोपलक्षणम् ।

 यजन्ति वेदतन्त्राभ्यां परं जिज्ञासवो नृप ॥ २८ ॥

 नमस्ते वासुदेवाय नमः सङ्कर्षणाय च ।

 प्रद्युम्नायानिरुद्धाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ २९ ॥

 नारायणाय ऋषये पुरुषाय महात्मने ।

 विश्वेश्वराय विश्वाय सर्वभूतात्मने नमः ॥ ३० ॥

 

राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो ! आपलोग तो श्रेष्ठ आत्मज्ञानी और भगवान्‌के परमभक्त हैं। कृपा करके यह बतलाइये कि जिनकी कामनाएँ शान्त नहीं हुई हैं, लौकिक-पारलौकिक भोगोंकी लालसा मिटी नहीं है और मन एवं इन्द्रियाँ भी वशमें नहीं हैं तथा जो प्राय: भगवान्‌ का भजन भी नहीं करते, ऐसे लोगोंकी क्या गति होती है ? ॥ १ ॥

अब आठवें योगीश्वर चमस जी ने कहा—राजन् ! विराट् पुरुषके मुखसे सत्त्वप्रधान ब्राह्मण, भुजाओंसे सत्त्व-रजप्रधान क्षत्रिय, जाँघोंसे रज-तमप्रधान वैश्य और चरणोंसे तम:प्रधान शूद्रकी उत्पत्ति हुई है। उन्हींकी जाँघोंसे गृहस्थाश्रम, हृदयसे ब्रह्मचर्य, वक्ष:स्थलसे वानप्रस्थ और मस्तकसे संन्यास—ये चार आश्रम प्रकट हुए हैं। इन चारों वर्णों और आश्रमोंके जन्मदाता स्वयं भगवान्‌ ही हैं। वही इनके स्वामी, नियन्ता और आत्मा भी हैं। इसलिये इन वर्ण और आश्रममें रहनेवाला जो मनुष्य भगवान्‌ का भजन नहीं करता, बल्कि उलटा उनका अनादर करता है, वह अपने स्थान, वर्ण, आश्रम और मनुष्य-योनिसे भी च्युत हो जाता है; उसका अध:पतन हो जाता है ॥ २-३ ॥ बहुत-सी स्त्रियाँ और शूद्र आदि भगवान्‌ की कथा और उनके नामकीर्तन आदिसे कुछ दूर पड़ गये हैं। वे आप-जैसे भगवद्भक्तोंकी दयाके पात्र हैं। आपलोग उन्हें कथा-कीर्तनकी सुविधा देकर उनका उद्धार करें ॥ ४ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जन्मसे, वेदाध्ययनसे तथा यज्ञोपवीत आदि संस्कारों  से भगवान्‌ के चरणोंके निकटतक पहुँच चुके हैं। फिर भी वे वेदोंका असली तात्पर्य न समझकर अर्थवादमें लगकर मोहित हो जाते हैं ॥ ५ ॥ उन्हें कर्मका रहस्य मालूम नहीं है। मूर्ख होनेपर भी वे अपनेको पण्डित मानते हैं और अभिमानमें अकड़े रहते हैं। वे मीठी-मीठी बातोंमें भूल जाते हैं और केवल वस्तु-शून्य शब्द-माधुरीके मोहमें पडक़र चटकीली-भडक़ीली बातें कहा करते हैं ॥ ६ ॥ रजोगुणकी अधिकताके कारण उनके सङ्कल्प बड़े घोर होते हैं। कामनाओंकी तो सीमा ही नहीं रहती, उनका क्रोध भी ऐसा होता है जैसे साँपका, बनावट और घमंडसे उन्हें प्रेम होता है। वे पापीलोग भगवान्‌के प्यारे भक्तोंकी हँसी उड़ाया करते हैं ॥ ७ ॥ वे मूर्ख बड़े-बूढ़ोंकी नहीं, स्त्रियोंकी उपासना करते हैं। यही नहीं, वे परस्पर इकट्ठे होकर उस घर-गृहस्थीके सम्बन्धमें ही बड़े-बड़े मनसूबे बाँधते हैं, जहाँका सबसे बड़ा सुख स्त्री-सहवासमें ही सीमित है। वे यदि कभी यज्ञ भी करते हैं तो अन्न-दान नहीं करते, विधिका उल्लङ्घन करते और दक्षिणातक नहीं देते। वे कर्मका रहस्य न जाननेवाले मूर्ख केवल अपनी जीभको सन्तुष्ट करने और पेटकी भूख मिटाने—शरीरको पुष्ट करनेके लिये बेचारे पशुओंकी हत्या करते हैं ॥ ८ ॥ धन-वैभव, कुलीनता, विद्या, दान, सौन्दर्य, बल और कर्म आदिके घमंडसे अंधे हो जाते हैं तथा वे दुष्ट उन भगवत्प्रेमी संतों तथा ईश्वर  का भी अपमान करते रहते हैं ॥ ९ ॥ राजन् ! वेदोंने इस बातको बार-बार दुहराया है कि भगवान्‌ आकाशके समान नित्य-निरन्तर समस्त शरीरधारियोंमें स्थित हैं। वे ही अपने आत्मा और प्रियतम हैं। परन्तु वे मूर्ख इस वेदवाणीको तो सुनते ही नहीं और केवल बड़े-बड़े मनोरथोंकी बात आपसमें कहते-सुनते रहते हैं ॥ १० ॥ (वेद विधिके रूपमें ऐसे ही कर्मोंके करनेकी आज्ञा देता है कि जिनमें मनुष्यकी स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती।) संसारमें देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्यकी ओर प्राणीकी स्वाभाविक प्रवृति हो जाती है। तब उसे उसमें प्रवृत्त करनेके लिये विधान तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थितिमें विवाह, यज्ञ और सौत्रामणि यज्ञके द्वारा ही जो उनके सेवनकी व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगोंकी उच्छृङ्खल प्रवृत्तिका नियन्त्रण, उनका मर्यादामें स्थापन। वास्तवमें उनकी ओरसे लोगोंको हटाना ही श्रुतिको अभीष्ट है ॥ ११ ॥ धनका एकमात्र फल है धर्म; क्योंकि धर्मसे ही परमतत्त्वका ज्ञान और उसकी निष्ठा—अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है, और निष्ठामें ही परम शान्ति है। परन्तु यह कितने खेदकी बात है कि लोग उस धनका उपयोग घर-गृहस्थीके स्वार्थोंमें या कामभोगमें ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्युका शिकार है और वह मृत्यु किसी प्रकार भी टाली नहीं जा सकती ॥ १२ ॥ सौत्रामणि यज्ञमें भी सुरा को सूँघने  का ही विधान है, पीने का नहीं। यज्ञमें पशुका आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं। इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नीके साथ मैथुनकी आज्ञा भी विषयभोगके लिये नहीं, धार्मिक परम्पराकी रक्षाके निमित्त सन्तान उत्पन्न करनेके लिये ही दी गयी है। परन्तु जो लोग अर्थवादके वचनोंमें फँसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्मको जानते ही नहीं ॥ १३ ॥ जो इस विशुद्ध धर्मको नहीं जानते, वे घमंडी वास्तवमें तो दुष्ट हैं, परन्तु समझते हैं अपनेको श्रेष्ठ। वे धोखेमें पड़े हुए लोग पशुओंकी हिंसा करते हैं और मरनेके बाद वे पशु ही उन मारनेवालोंको खाते हैं ॥ १४ ॥ यह शरीर मृतक-शरीर है। इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं। जो लोग इस शरीरसे तो प्रेमकी गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरोंमें रहनेवाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान्‌से द्वेष करते हैं, उन मूर्खोंका अध:पतन निश्चित है ॥ १५ ॥ जिन लोगोंने आत्मज्ञान सम्पादन करके कैवल्य-मोक्ष नहीं प्राप्त किया है और जो पूरे-पूरे मूढ़ भी नहीं हैं, वे अधूरे न इधरके हैं और न उधरके। वे अर्थ, धर्म, काम—इन तीनों पुरुषार्थोंमें फँसे रहते हैं, एक क्षणके लिये भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। वे अपने हाथों अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मार रहे हैं। ऐसे ही लोगोंको आत्मघाती कहते हैं ॥ १६ ॥ अज्ञानको ही ज्ञान माननेवाले इन आत्मघातियोंको कभी शान्ति नहीं मिलती, इनके कर्मोंकी परम्परा कभी शान्त नहीं होती। कालभगवान्‌ सदा-सर्वदा इनके मनोरथोंपर पानी फेरते रहते हैं। इनके हृदयकी जलन, विषाद कभी मिटनेका नहीं ॥ १७ ॥ राजन् ! जो लोग अन्तर्यामी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन-सम्पत्ति इकट्ठी करते हैं; परन्तु उन्हें अन्तमें सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहनेपर भी विवश होकर घोर नरकमें जाना पड़ता है। (भगवान्‌का भजन न करनेवाले विषयी पुरुषोंकी यही गति होती है) ॥ १८ ॥

राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो ! आपलोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान्‌ किस समय किस रंगका, कौन-सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियोंसे उनकी उपासना करते हैं ॥ १९ ॥

अब नवें योगीश्वर करभाजनजीने कहा—राजन् ! चार युग हैं—सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि। इन युगोंमें भगवान्‌के अनेकों रंग, नाम और आकृतियाँ होती हैं तथा विभिन्न विधियोंसे उनकी पूजा की जाती है ॥ २० ॥ सत्ययुगमें भगवान्‌के श्रीविग्रहका रंग होता है श्वेत। उनके चार भुजाएँ और सिरपर जटा होती है, तथा वे वल्कलका ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृगका चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्षकी माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं ॥ २१ ॥ सत्ययुगके मनुष्य बड़े शान्त,परस्पर वैररहित, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं। वे लोग इन्द्रियों और मनको वशमें रखकर ध्यानरूप तपस्याके द्वारा सबके प्रकाशक परमात्माकी आराधना करते हैं ॥ २२ ॥ वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामोंके द्वारा भगवान्‌  के गुण, लीला आदिका गान करते हैं ॥ २३ ॥ राजन् ! त्रेतायुगमें भगवान्‌ के श्रीविग्रहका रंग होता है लाल। चार भुजाएँ होती हैं और कटिभागमें वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञके रूपमें रहकर स्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रोंको धारण किया करते हैं ॥ २४ ॥ उस युगके मनुष्य अपने धर्ममें बड़ी निष्ठा रखनेवाले और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदत्रयीके द्वारा सर्वदेवस्वरूप देवाधिदेव भगवान्‌ श्रीहरिकी आराधना करते हैं ॥ २५ ॥ त्रेतायुगमें अधिकांश लोग, विष्णु, यज्ञ, पृष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामोंसे उनके गुण और लीला आदिका कीर्तन करते हैं ॥ २६ ॥ राजन् ! द्वापरयुगमें भगवान्‌के श्रीविग्रहका रंग होता है साँवला। वे पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, भृगुलता, कौस्तुभ- मणि आदि लक्षणोंसे वे पहचाने जाते हैं ॥ २७ ॥ राजन् ! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजोंके चिह्न छत्र, चँवर आदिसे युक्त परमपुरुष भगवान्‌की वैदिक और तान्त्रिक विधिसे आराधना करते हैं ॥ २८ ॥ वे लोग इस प्रकार भगवान्‌की स्तुति करते हैं—‘हे ज्ञानस्वरूप भगवान्‌ वासुदेव एवं क्रियाशक्तिरूप सङ्कर्षण ! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। भगवान्‌ प्रद्युम्र और अनिरुद्धके रूपमें हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान्‌ को हम नमस्कार करते हैं ॥ २९-३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 13 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

 

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

 

क्षुत्तृट् त्रिकालगुणमारुत जैह्वशैश्यान्

     अस्मान् अपारजलधीन् अतितीर्य केचित् ।

 क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे गोः

     मज्जन्ति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजन्ति ॥ ११ ॥

इति प्रगृणतां तेषां स्त्रियोऽत्यद्‌भुतदर्शनाः ।

 दर्शयामास शुश्रूषां स्वर्चिताः कुर्वतीर्विभुः ॥ १२ ॥

 ते देवानुचरा दृष्ट्वा स्त्रियः श्रीरिव रूपिणीः ।

 गन्धेन मुमुहुस्तासां रूपौदार्यहतश्रियः ॥ १३ ॥

 तानाह देवदेवेशः प्रणतान् प्रहसन्निव ।

 आसां एकतमां वृङ्ध्वं सवर्णां स्वर्गभूषणाम् ॥ १४ ॥

 ओमित्यादेशमादाय नत्वा तं सुरवन्दिनः ।

 उर्वशीम् अप्सरःश्रेष्ठां पुरस्कृत्य दिवं ययुः ॥ १५ ॥

 इन्द्रायानम्य सदसि शृण्वतां त्रिदिवौकसाम् ।

 ऊचुर्नारायणबलं शक्रः तत्रास विस्मितः ॥ १६ ॥

 हंसस्वरूप्यवददच्युत आत्मयोगं

     दत्तः कुमार ऋषभो भगवान् पिता नः ।

 विष्णुः शिवाय जगतां कलयावतिर्णः

     तेनाहृता मधुभिदा श्रुतयो हयास्ये ॥ १७ ॥

 गुप्तोऽप्यये मनुरिलौषधयश्च मात्स्ये

     क्रौडे हतो दितिज उद्धरताम्भसः क्ष्माम् ।

 कौर्मे धृतोऽद्रिः अमृतोन्मथने स्वपृष्ठे

     ग्राहात् प्रपन्नमिभराजममुञ्चदार्तम् ॥ १८ ॥

 संस्तुन्वतो निपतितान् श्रमणान् ऋषींश्च

     शक्रं च वृत्रवधतस्तमसि प्रविष्टम् ।

 देवस्त्रियोऽसुरगृहे पिहिता अनाथा

     जघ्नेऽसुरेन्द्रमभयाय सतां नृसिंहे ॥ १९ ॥

 देवासुरे युधि च दैत्यपतीन् सुरार्थे

     हत्वान्तरेषु भुवनानि अदधात् कलाभिः ।

 भूत्वाथ वामन इमामहरद् बलेः क्ष्मां

     याच्ञाच्छलेन समदाद् अदितेः सुतेभ्यः ॥ २० ॥

 निःक्षत्रियामकृत गां च त्रिसप्तकृत्वो

     रामस्तु हैहयकुलापि अयभार्गवाग्निः ।

 सोऽब्धिं बबन्ध दशवक्त्रमहन् सलङ्कं

     सीतापतिर्जयति लोकमलघ्नकीर्तिः ॥ २१ ॥

 भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा

     जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि ।

 वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान्

     शूद्रान् कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते ॥ २२ ॥

एवंविधानि जन्मानि कर्माणि च जगत्पतेः ।

 भूरीणि भूरियशसो वर्णितानि महाभुज ॥ २३ ॥

 

बहुत-से लोग तो ऐसे होते हैं जो भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी एवं आँधी-पानीके कष्टोंको तथा रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रियके वेगोंको, जो अपार समुद्रोंके समान हैं, सह लेते हैं—पार कर जाते हैं। परन्तु फिर भी वे उस क्रोधके वशमें हो जाते हैं, जो गायके खुरसे बने गड्ढेके समान है और जिससे कोई लाभ नहीं है—आत्मनाशक है। और प्रभो ! वे इस प्रकार अपनी कठिन तपस्या को खो बैठते हैं ॥ ११ ॥ जब कामदेव, वसन्त आदि देवताओं ने इस प्रकार स्तुति की तब सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ ने अपने योगबल से उनके सामने बहुत-सी ऐसी रमणियाँ प्रकट करके दिखलायीं, जो अद्भुत रूप-लावण्य से सम्पन्न और विचित्र वस्त्रालङ्कारों से सुसज्जित थीं तथा भगवान्‌ की सेवा कर रही थीं ॥ १२ ॥ जब देवराज इन्द्रके अनुचरों ने उन लक्ष्मीजी के समान रूपवती स्त्रियोंको देखा, तब उनके महान् सौन्दर्य के सामने उनका चेहरा फीका पड़ गया, वे श्रीहीन होकर उनके शरीरसे निकलनेवाली दिव्य सुगन्धसे मोहित हो गये ॥ १३ ॥ अब उनका सिर झुक गया। देवदेवेश भगवान्‌ नारायण हँसते हुए-से उनसे बोले—‘तुमलोग इनमेंसे किसी एक स्त्रीको, जो तुम्हारे अनुरूप हो, ग्रहण कर लो। वह तुम्हारे स्वर्गलोककी शोभा बढ़ानेवाली होगी ॥ १४ ॥ देवराज इन्द्रके अनुचरोंने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान्‌के आदेशको स्वीकार किया तथा उन्हें नमस्कार किया। फिर उनके द्वारा बनायी हुई स्त्रियोंमेंसे श्रेष्ठ अप्सरा उर्वशीको आगे करके वे स्वर्गलोकमें गये ॥ १५ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने इन्द्रको नमस्कार किया तथा भरी सभामें देवताओंके सामने भगवान्‌ नर-नारायणके बल और प्रभावका वर्णन किया। उसे सुनकर देवराज इन्द्र अत्यन्त भयभीत और चकित हो गये ॥१६॥

भगवान्‌ विष्णुने अपने स्वरूपमें एकरस स्थित रहते हुए भी सम्पूर्ण जगत् के कल्याणके लिये बहुत-से कलावतार ग्रहण किये हैं। विदेहराज ! हंस, दत्तात्रेय, सनक-सनन्दन-सनातन-सनत्कुमार और हमारे पिता ऋषभके रूपमें अवतीर्ण होकर उन्होंने आत्मसाक्षात्कारके साधनोंका उपदेश किया है। उन्होंने ही हयग्रीव-अवतार लेकर मधु-कैटभ नामक असुरोंका संहार करके उन लोगोंके द्वारा चुराये हुए वेदोंका उद्धार किया है ॥ १७ ॥ प्रलयके समय मत्स्यावतार लेकर उन्होंने भावी मनु सत्यव्रत, पृथ्वी और ओषधियोंकी—धान्यादि की रक्षा की और वराहावतार ग्रहण करके पृथ्वीका रसातलसे उद्धार करते समय हिरण्याक्षका संहार किया। कूर्मावतार ग्रहण करके उन्हीं भगवान्‌ने अमृत-मन्थनका कार्य सम्पन्न करनेके लिये अपनी पीठपर मन्दराचल धारण किया और उन्हीं भगवान्‌ विष्णुने अपने शरणागत एवं आर्त भक्त गजेन्द्रको ग्राहसे छुड़ाया ॥ १८ ॥ एक बार वालखिल्य ऋषि तपस्या करते-करते अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। वे जब कश्यप ऋषिके लिये समिधा ला रहे थे, तो थककर गायके खुरसे बने हुए गड्ढेमें गिर पड़े, मानो समुद्रमें गिर गये हों। उन्होंने जब स्तुति की, तब भगवान्‌ने अवतार लेकर उनका उद्धार किया। वृत्रासुरको मारनेके कारण जब इन्द्रको ब्रह्महत्या लगी और वे उसके भयसे भागकर छिप गये, तब भगवान्‌ने उस हत्यासे इन्द्रकी रक्षा की; और जब असुरोंने अनाथ देवाङ्गनाओंको बंदी बना लिया, तब भी भगवान्‌ने ही उन्हें असुरोंके चंगुलसे छुड़ाया। जब हिरण्यकशिपुके कारण प्रह्लाद आदि संत पुरुषोंको भय पहुँचने लगा, तब उनको निर्भय करनेके लिये भगवान्‌ने नृसिंहावतार ग्रहण किया और हिरण्यकशिपुको मार डाला ॥ १९ ॥ उन्होंने देवताओंकी रक्षाके लिये देवासुर संग्राममें दैत्यपतियोंका वध किया और विभिन्न मन्वन्तरोंमें अपनी शक्तिसे अनेकों कलावतार धारण करके त्रिभुवनकी रक्षा की। फिर वामन-अवतार ग्रहण करके उन्होंने याचनाके बहाने इस पृथ्वीको दैत्यराज बलिसे छीन लिया और अदितिनन्दन देवताओंको दे दिया ॥ २० ॥ परशुराम-अवतार ग्रहण करके उन्होंने ही पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियहीन किया। परशुरामजी तो हैहयवंश  का प्रलय करनेके लिये मानो भृगुवंशमें अग्नि रूपसे ही अवतीर्ण हुए थे। उन्हीं भगवान्‌ ने रामावतार में समुद्रपर पुल बाँधा एवं रावण और उसकी राजधानी लङ्का को मटियामेट कर दिया। उनकी कीर्ति समस्त लोकोंके मलको नष्ट करनेवाली है। सीतापति भगवान्‌ राम सदा-सर्वदा, सर्वत्र विजयी-ही-विजयी हैं ॥ २१ ॥ राजन् ! अजन्मा होनेपर भी पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही भगवान्‌ यदुवंशमें जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते। फिर आगे चलकर भगवान्‌ ही बुद्धके रूपमें प्रकट होंगे और यज्ञके अनधिकारियोंको यज्ञ करते देखकर अनेक प्रकारके तर्क-वितर्कोंसे मोहित कर लेंगे और कलियुगके अन्तमें कल्कि-अवतार लेकर वे ही शूद्र राजाओंका वध करेंगे ॥ २२ ॥ महाबाहु विदेहराज ! भगवान्‌की कीर्ति अनन्त है। महात्माओंने जगत्पति भगवान्‌के ऐसे-ऐसे अनेकों जन्म और कर्मोंका प्रचुरतासे गान भी किया है ॥ २३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

 

भगवान्‌ के अवतारों का वर्णन

 

श्रीराजोवाच -

यानि यानीह कर्माणि यैर्यैः स्वच्छन्दजन्मभिः ।

चक्रे करोति कर्ता वा हरिस्तानि ब्रुवन्तु नः ॥ १ ॥

 

श्रीद्रुमिल उवाच -

यो वा अनन्तस्य गुणान् अनन्तान्

     अनुक्रमिष्यन् स तु बालबुद्धिः ।

 रजांसि भूमेर्गणयेत् कथञ्चित्

     कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्नः ॥ २ ॥

 भूतैर्यदा पञ्चभिरात्मसृष्टैः ।

     पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन् ।

 स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधानम् ।

     अवाप नारायण आदिदेवः ॥ ३ ॥

यत्काय एष भुवनत्रयसन्निवेशो

     यस्येन्द्रियैस्तनुभृतामुभयेन्द्रियाणि ।

 ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहा

     सत्त्वादिभिः स्थितिलयोद्‌भव आदिकर्ता ॥ ४ ॥

 आदौ अभूत् शतधृती रजसास्य सर्गे

     विष्णुः स्थित्तौ क्रतुपतिः द्विजधर्मसेतुः ।

 रुद्रोऽप्ययाय तमसा पुरुषः स आद्य

     इत्युद्‌भवस्थितिलयाः सततं प्रजासु ॥ ५ ॥

 धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां

     नारायणो नर ऋषिप्रवरः प्रशान्तः ।

 नैष्कर्म्यलक्षणमुवाच चचार कर्म

     योऽद्यापि चास्त ऋषिवर्यनिषेविताङ्‌घ्रिः ॥ ६ ॥

 इन्द्रो विशङ्क्य मम धाम जिघृक्षतीति

     कामं न्ययुङ्क्त सगणं स बदर्युपाख्यम् ।

 गत्वाप्सरोगणवसन्त सुमन्दवातैः

     स्त्रीप्रेक्षणेषुभिरविध्यदतन्महिज्ञः ॥ ७ ॥

 विज्ञाय शक्रकृतमक्रममादिदेवः

     प्राह प्रहस्य गतविस्मय एजमानान् ।

 मा भैर्विभो मदन मारुत देववध्वो

     गृह्णीत नो बलिमशून्यमिमं कुरुध्वम् ॥ ८ ॥

 इत्थं ब्रुवत्यभयदे नरदेव देवाः

     सव्रीडनम्रशिरसः सघृणं तमूचुः ।

 नैतद्विभो त्वयि परेऽविकृते विचित्रं

     स्वारामधीरनिकरा नतपादपद्मे ॥ ९ ॥

 त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तरायाः

     स्वौकः विलङ्घ्य परमं व्रजतां पदं ते ।

 नान्यस्य बर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान्

     धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूर्ध्नि ॥ १० ॥

 

राजा निमि ने पूछा—योगीश्वरो ! भगवान्‌ स्वतन्त्रता से अपने भक्तों   की भक्ति के वश होकर अनेकों प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और अनेकों लीलाएँ करते हैं। आपलोग कृपा करके भगवान्‌ की उन लीलाओं का वर्णन कीजिये, जो वे अबतक कर चुके हैं,कर रहे हैं या करेंगे ॥ १ ॥

अब सातवें योगीश्वर द्रुमिलजी ने कहा—राजन् ! भगवान्‌ अनन्त हैं। उनके गुण भी अनन्त हैं। जो यह सोचता है कि मैं उनके गुणोंको गिन लूँगा, वह मूर्ख है, बालक है। यह तो सम्भव है कि कोई किसी प्रकार पृथ्वीके धूलि-कणोंको गिन ले, परन्तु समस्त शक्तियोंके आश्रय भगवान्‌ के अनन्त गुणोंका कोई कभी किसी प्रकार पार नहीं पा सकता ॥ २ ॥ भगवान्‌ ने ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश—इन पाँच भूतों की अपने-आपसे अपने-आप में सृष्टि की है। जब वे इनके द्वारा विराट् शरीर, ब्रह्माण्ड  का निर्माण करके उसमें लीला से अपने अंश अन्तर्यामीरूप से प्रवेश करते हैं, (भोक्तारूप से नहीं, क्योंकि भोक्ता तो अपने पुण्यों के फलस्वरूप जीव ही होता है) तब उन आदिदेव नारायणको ‘पुरुष’ नामसे कहते हैं, यही उनका पहला अवतार है ॥ ३ ॥ उन्हींके इस विराट् ब्रह्माण्ड शरीरमें तीनों लोक स्थित हैं। उन्हींकी इन्द्रियोंसे समस्त देहधारियोंकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ बनी हैं। उनके स्वरूपसे ही स्वत:सिद्ध ज्ञानका सञ्चार होता है। उनके श्वास-प्रश्वाससे सब शरीरोंमें बल आता है तथा इन्द्रियोंमें ओज (इन्द्रियोंकी शक्ति) और कर्म करनेकी शक्ति प्राप्त होती है। उन्हींके सत्त्व आदि गुणोंसे संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय होते हैं। इस विराट् शरीरके जो शरीरी हैं, वे ही आदिकर्ता नारायण हैं ॥ ४ ॥ पहले-पहल जगत् की उत्पत्तिके लिये उनके रजोगुणके अंशसे ब्रह्मा हुए, फिर वे आदिपुरुष ही संसारकी स्थितिके लिये अपने सत्त्वांशसे धर्म तथा ब्राह्मणोंके रक्षक यज्ञपति विष्णु बन गये। फिर वे ही तमोगुणके अंशसे जगत्के संहारके लिये रुद्र बने। इस प्रकार निरन्तर उन्हींसे परिवर्तनशील प्रजाकी उत्पत्ति-स्थिति और संहार होते रहते हैं ॥ ५ ॥

दक्ष प्रजापतिकी एक कन्याका नाम था मूर्ति। वह धर्मकी पत्नी थी। उसके गर्भसे भगवान्‌ ने ऋषिश्रेष्ठ शान्तात्मा ‘नर’ और ‘नारायण’ के रूपमें अवतार लिया । उन्होंने आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करानेवाले उस भगवदाराधनरूप कर्मका उपदेश किया, जो वास्तवमें कर्मबन्धनसे छुड़ानेवाला और नैष्कर्म्य स्थिति को प्राप्त करानेवाला है। उन्होंने स्वयं भी वैसे ही कर्मका अनुष्ठान किया। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं। वे आज भी बदरिकाश्रममें उसी कर्मका आचरण करते हुए विराजमान हैं ॥ ६ ॥ ये अपनी घोर तपस्याके द्वारा मेरा धाम छीनना चाहते हैं—इन्द्रने ऐसी आशंका करके स्त्री, वसन्त आदि दल-बलके साथ कामदेवको उनकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये भेजा। कामदेवको भगवान्‌  की महिमाका ज्ञान न था; इसलिये वह अप्सरागण, वसन्त तथा मन्द-सुगन्ध वायुके साथ बदरिकाश्रममें जाकर स्त्रियोंके कटाक्ष बाणोंसे उह्े. घायल करनेकी चेष्टा करने लगा ॥ ७ ॥ आदिदेव नर-नारायणने यह जानकर कि यह इन्द्रका कुचक्र है, भयसे काँपते हुए काम आदिकोंसे हँसकर कहा—उस समय उनके मनमें किसी प्रकारका अभिमान या आश्चर्य नहीं था। ‘कामदेव, मलयमारुत और देवाङ्गनाओ ! तुमलोग डरो मत; हमारा आतिथ्य स्वीकार करो। अभी यहीं ठहरो, हमारा आश्रम सूना मत करो’ ॥ ८ ॥ राजन् ! जब नर-नारायण ऋषिने उन्हें अभयदान देते हुए इस प्रकार कहा, तब कामदेव आदिके सिर लज्जासे झुक गये। उन्होंने दयालु भगवान्‌ नर-नारायणसे कहा—‘प्रभो ! आपके लिये यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि आप मायासे परे और निर्विकार हैं। बड़े-बड़े आत्माराम और धीर पुरुष निरन्तर आपके चरणकमलोंमें प्रणाम करते रहते हैं ॥ ९ ॥ आपके भक्त आपकी भक्तिके प्रभावसे देवताओंकी राजधानी अमरावतीका उल्लङ्घन करके आपके परमपदको प्राप्त होते हैं। इसलिये जब वे भजन करने लगते हैं, तब देवतालोग तरह-तरहसे उनकी साधनामें विघ्र डालते हैं। किन्तु जो लोग केवल कर्मकाण्डमें लगे रहकर यज्ञादिके द्वारा देवताओंको बलिके रूपमें उनका भाग देते रहते हैं, उन लोगोंके मार्गमें वे किसी प्रकारका विघ्र नहीं डालते। परन्तु प्रभो ! आपके भक्तजन उनके द्वारा उपस्थित की हुई विघ्र-बाधाओंसे गिरते नहीं। बल्कि आपके कर-कमलोंकी छत्रछायामें रहते हुए वे विघ्नों के सिरपर पैर रखकर आगे बढ़ जाते हैं, अपने लक्ष्यसे च्युत नहीं होते ॥ १० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९) धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका  ...