॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
छठा अध्याय..(पोस्ट०२)
देवताओं की भगवान् से स्वधाम
सिधारने के लिये प्रार्थना
तथा यादवों को प्रभासक्षेत्र जाने की
तैयारी करते देखकर
उद्धव का भगवान् के पास आना
श्रीब्रह्मोवाच
भूमेर्भारावताराय
पुरा विज्ञापितः प्रभो
त्वमस्माभिरशेषात्मन्तत्तथैवोपपादितम्
२१
धर्मश्च
स्थापितः सत्सु सत्यसन्धेषु वै त्वया
कीर्तिश्च
दिक्षु विक्षिप्ता सर्वलोकमलापहा २२
अवतीर्य
यदोर्वंशे बिभ्रद्रूपमनुत्तमम्
कर्माण्युद्दामवृत्तानि
हिताय जगतोऽकृथाः २३
यानि
ते चरितानीश मनुष्याः साधवः कलौ
शृण्वन्तः
कीर्तयन्तश्च तरिष्यन्त्यञ्जसा तमः २४
यदुवंशेऽवतीर्णस्य
भवतः पुरुषोत्तम
शरच्छतं
व्यतीयाय पञ्चविंशाधिकं प्रभो २५
नाधुना
तेऽखिलाधार देवकार्यावशेषितम्
कुलं
च विप्रशापेन नष्टप्रायमभूदिदम् २६
ततः
स्वधाम परमं विशस्व यदि मन्यसे
सलोकाल्लोकपालान्नः
पाहि वैकुण्ठकिङ्करान् २७
श्रीभगवानुवाच
अवधारितमेतन्मे
यदात्थ विबुधेश्वर
कृतं
वः कार्यमखिलं भूमेर्भारोऽवतारितः २८
तदिदं
यादवकुलं वीर्यशौर्यश्रियोद्धतम्
लोकं
जिघृक्षद्रुद्धं मे वेलयेव महार्णवः २९
यद्यसंहृत्य
दृप्तानां यदूनां विपुलं कुलम्
गन्तास्म्यनेन
लोकोऽयमुद्वेलेन विनङ्क्ष्यति ३०
इदानीं
नाश आरब्धः कुलस्य द्विजशापजः
यास्यामि
भवनं ब्रह्मन्नेतदन्ते तवानघ ३१
श्रीशुक
उवाच
इत्युक्तो
लोकनाथेन स्वयम्भूः प्रणिपत्य तम्
सह
देवगणैर्देवः स्वधाम समपद्यत ३२
अथ
तस्यां महोत्पातान्द्वारवत्यां समुत्थितान्
विलोक्य
भगवानाह यदुवृद्धान्समागतान् ३३
श्रीभगवानुवाच
एते
वै सुमहोत्पाता व्युत्तिष्ठन्तीह सर्वतः
शापश्च
नः कुलस्यासीद्ब्राह्मणेभ्यो दुरत्ययः ३४
न
वस्तव्यमिहास्माभिर्जिजीविषुभिरार्यकाः
प्रभासं
सुमहत्पुण्यं यास्यामोऽद्यैव मा चिरम् ३५
यत्र
स्नात्वा दक्षशापाद्गृहीतो यक्ष्मणोदुराट्
विमुक्तः
किल्बिषात्सद्यो भेजे भूयः कलोदयम् ३६
वयं
च तस्मिन्नाप्लुत्य तर्पयित्वा पितॄन्सुरान्
भोजयित्वोशिजो
विप्रान्नानागुणवतान्धसा ३७
तेषु
दानानि पात्रेषु श्रद्धयोप्त्वा महान्ति वै
वृजिनानि
तरिष्यामो दानैर्नौभिरिवार्णवम् ३८
श्रीशुक
उवाच
एवं
भगवतादिष्टा यादवाः कुरुनन्दन
गन्तुं
कृतधियस्तीर्थं स्यन्दनान्समयूयुजन् ३९
तन्निरीक्ष्योद्धवो
राजन्श्रुत्वा भगवतोदितम्
दृष्ट्वारिष्टानि
घोराणि नित्यं कृष्णमनुव्रतः ४०
विविक्त
उपसङ्गम्य जगतामीश्वरेश्वरम्
प्रणम्य
शिरसा पादौ प्राञ्जलिस्तमभाषत ४१
श्रीउद्धव
उवाच
देवदेवेश
योगेश पुण्यश्रवणकीर्तन
संहृत्यैतत्कुलं
नूनं लोकं सन्त्यक्ष्यते भवान्
विप्रशापं
समर्थोऽपि प्रत्यहन्न यदीश्वरः ४२
नाहं
तवाङ्घ्रिकमलं क्षणार्धमपि केशव
त्यक्तुं
समुत्सहे नाथ स्वधाम नय मामपि ४३
तव
विक्रीडितं कृष्ण नृणां परममङ्गलम्
कर्णपीयूषमासाद्य
त्यजन्त्यन्यस्पृहां जनाः ४४
शय्यासनाटनस्थान
स्नानक्रीडाशनादिषु
कथं
त्वां प्रियमात्मानं वयं भक्तास्त्यजेम हि ४५
त्वयोपभुक्तस्रग्गन्ध
वासोऽलङ्कारचर्चिताः
उच्छिष्टभोजिनो
दासास्तव मायां जयेम हि ४६
वातरशना
य ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनः
ब्रह्माख्यं
धाम ते यान्ति शान्ताः सन्न्यासिनोऽमलाः ४७
वयं
त्विह महायोगिन्भ्रमन्तः कर्मवर्त्मसु
त्वद्वार्तया
तरिष्यामस्तावकैर्दुस्तरं तमः ४८
स्मरन्तः
कीर्तयन्तस्ते कृतानि गदितानि च
गत्युत्स्मितेक्षणक्ष्वेलि
यन्नृलोकविडम्बनम् ४९
श्रीशुक
उवाच
एवं
विज्ञापितो राजन्भगवान्देवकीसुतः
एकान्तिनं
प्रियं भृत्यमुद्धवं समभाषत ५०
ब्रह्माजीने कहा—सर्वात्मन् प्रभो !
पहले हमलोगों ने आपसे अवतार लेकर पृथ्वी का भार उतारने के लिये प्रार्थना की थी।
सो वह काम आपने हमारी प्रार्थना के अनुसार ही यथोचितरूप से पूरा कर दिया ॥ २१ ॥ आपने सत्यपरायण
साधुपुरुषों के कल्याणार्थ धर्म की स्थापना भी कर दी और दसों दिशाओंमें ऐसी कीर्ति
फैला दी, जिसे सुन-सुनाकर सब लोग अपने मनका मैल मिटा देते हैं ॥ २२ ॥ आपने
यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंशमें अवतार लिया और जगत्के हितके लिये उदारता और
पराक्रमसे भरी अनेकों लीलाएँ कीं ॥ २३ ॥ प्रभो ! कलियुगमें जो साधुस्वभाव मनुष्य
आपकी इन लीलाओंका श्रवण-कीर्तन करेंगे, वे सुगमतासे ही इस अज्ञानरूप अन्धकारसे पार हो जायँगे ॥ २४ ॥
पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान् प्रभो ! आपको यदुवंशमें अवतार ग्रहण किये एक सौ पचीस
वर्ष बीत गये हैं ॥ २५ ॥ सर्वाधार ! अब हमलोगोंका ऐसा कोई काम बाकी नहीं है, जिसे पूर्ण करनेके लिये आपके यहाँ रहनेकी आवश्यकता हो।
ब्राह्मणोंके शापके कारण आपका यह कुल भी एक प्रकारसे नष्ट हो ही चुका है ॥ २६ ॥
इसलिये वैकुण्ठनाथ ! यदि आप उचित समझें तो अपने परमधाममें पधारिये और अपने सेवक हम
लोकपालोंका तथा हमारे लोकोंका पालन-पोषण कीजिये ॥ २७ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—ब्रह्माजी
! आप जैसा कहते हैं, मैं
पहलेसे ही वैसा निश्चय कर चुका हूँ। मैंने आपलोगोंका सब काम पूरा करके पृथ्वीका
भार उतार दिया ॥ २८ ॥ परन्तु अभी एक काम बाकी है;
वह यह कि यदुवंशी बल-विक्रम,
वीरता-शूरता और धन-सम्पत्तिसे उन्मत्त हो रहे हैं। ये सारी
पृथ्वीको ग्रस लेनेपर तुले हुए हैं। इन्हें मैंने ठीक वैसे ही रोक रखा है, जैसे समुद्रको उसके तटकी भूमि ॥ २९ ॥ यदि मैं घमंडी और उच्छृङ्खल
यदुवंशियोंका यह विशाल वंश नष्ट किये बिना ही चला जाऊँगा तो ये सब मर्यादाका
उल्लङ्घन करके सारे लोकोंका संहार कर डालेंगे ॥ ३० ॥ निष्पाप ब्रह्माजी ! अब
ब्राह्मणोंके शापसे इस वंशका नाश प्रारम्भ हो चुका है। इसका अन्त हो जानेपर मैं
आपके धाममें होकर जाऊँगा ॥ ३१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् !
जब अखिललोकाधिपति भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा,
तब ब्रह्माजीने उन्हें प्रणाम किया और देवताओंके साथ वे अपने धामको
चले गये ॥ ३२ ॥ उनके जाते ही द्वारकापुरीमें बड़े-बड़े अपशकुन, बड़े-बड़े उत्पात उठ खड़े हुए। उन्हें देखकर यदुवंशके बड़े-बूढ़े
भगवान् श्रीकृष्णके पास आये। भगवान् श्रीकृष्णने उनसे यह बात कही ॥ ३३ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—गुरुजनो !
आजकल द्वारकामें जिधर देखिये, उधर ही बड़े-बड़े अपशकुन और उत्पात हो रहे हैं। आपलोग जानते ही हैं
कि ब्राह्मणोंने हमारे वंशको ऐसा शाप दे दिया है,
जिसे टाल सकना बहुत ही कठिन है। मेरा ऐसा विचार है कि यदि हमलोग
अपने प्राणोंकी रक्षा चाहते हों तो हमें यहाँ नहीं रहना चाहिये। अब विलम्ब करनेकी
आवश्यकता नहीं है। हमलोग आज ही परम पवित्र प्रभासक्षेत्रके लिये निकल पड़ें ॥
३४-३५ ॥ प्रभासक्षेत्रकी महिमा बहुत प्रसिद्ध है। जिस समय दक्ष प्रजापतिके शापसे
चन्द्रमाको राजयक्ष्मा रोगने ग्रस लिया था,
उस समय उन्होंने प्रभासक्षेत्रमें जाकर स्नान किया और वे तत्क्षण
उस पापजन्य रोगसे छूट गये। साथ ही उन्हें कलाओंकी अभिवृद्धि भी प्राप्त हो गयी ॥
३६ ॥ हमलोग भी प्रभासक्षेत्रमें चलकर स्नान करेंगे,
देवता एवं पितरोंका तर्पण करेंगे और साथ ही अनेकों गुणवाले पकवान
तैयार करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको भोजन करायेंगे। वहाँ हमलोग उन सत्पात्र
ब्राह्मणोंको पूरी श्रद्धासे बड़ी-बड़ी दान- दक्षिणा देंगे और इस प्रकार उनके
द्वारा अपने बड़े-बड़े सङ्कटोंको वैसे ही पार कर जायँगे,
जैसे कोई जहाज के द्वारा
समुद्र पार कर जाय ! ॥ ३७-३८ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुलनन्दन !
जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार आज्ञा दी,
तब यदुवंशियोंने एक मतसे प्रभास जानेका निश्चय कर लिया और सब
अपने-अपने रथ सजाने-जोतने लगे ॥ ३९ ॥ परीक्षित् ! उद्धव जी भगवान् श्रीकृष्ण के
बड़े प्रेमी और सेवक थे। उन्होंने जब यदुवंशियोंको यात्राकी तैयारी करते देखा, भगवान्की आज्ञा सुनी और अत्यन्त घोर अपशकुन देखे, तब वे जगत् के एकमात्र अधिपति भगवान् श्रीकृष्णके पास एकान्तमें
गये, उनके चरणोंपर अपना सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोडक़र उनसे
प्रार्थना करने लगे ॥ ४०-४१ ॥
उद्धवजीने कहा—योगेश्वर ! आप
देवाधिदेवोंके भी अधीश्वर हैं। आपकी लीलाओंके श्रवण- कीर्तनसे जीव पवित्र हो जाता
है। आप सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। आप चाहते,
तो ब्राह्मणोंके शापको मिटा सकते थे। परन्तु आपने वैसा किया नहीं।
इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंशका संहार करके,
इसे समेटकर अवश्य ही इस लोकका परित्याग कर देंगे ॥ ४२ ॥ परन्तु
घुँघराली अलकोंवाले श्यामसुन्दर ! मैं आधे क्षणके लिये भी आपके चरणकमलोंके त्यागकी
बात सोच भी नहीं सकता। मेरे जीवनसर्वस्व, मेरे स्वामी ! आप मुझे भी अपने धाममें ले चलिये ॥ ४३ ॥ प्यारे
कृष्ण ! आपकी एक-एक लीला मनुष्योंके लिये परम मङ्गलमयी और कानोंके लिये अमृतस्वरूप
है। जिसे एक बार उस रसका चसका लग जाता है,
उसके मनमें फिर किसी दूसरी वस्तुके लिये लालसा ही नहीं रह जाती।
प्रभो ! हम तो उठते-बैठते, सोते-जागते, घूमते-फिरते आपके साथ रहे हैं,
हमने आपके साथ स्नान किया,
खेल खेले, भोजन किया; कहाँतक गिनावें, हमारी एक-एक चेष्टा आपके साथ होती रही। आप हमारे प्रियतम हैं; और तो क्या, आप हमारे आत्मा ही हैं। ऐसी स्थितिमें हम आपके प्रेमी भक्त आपको
कैसे छोड़ सकते हैं ? ॥
४४-४५ ॥ हमने आपकी धारण की हुई माला पहनी,
आपके लगाये हुए चन्दन लगाये,
आपके उतारे हुए वस्त्र पहने और आपके धारण किये हुए गहनोंसे
अपने-आपको सजाते रहे। हम आपकी जूठन खानेवाले सेवक हैं। इसलिये हम आपकी मायापर
अवश्य ही विजय प्राप्त कर लेंगे। (अत: प्रभो! हमें आपकी मायाका डर नहीं है, डर है तो केवल आपके वियोगका) ॥ ४६ ॥ हम जानते हैं कि मायाको पार कर
लेना बहुत ही कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि दिगम्बर रहकर और आजीवन नैष्ठिक
ब्रह्मचर्यका पालन करके अध्यात्मविद्याके लिये अत्यन्त परिश्रम करते हैं। इस
प्रकारकी कठिन साधनासे उन संन्यासियोंके हृदय निर्मल हो पाते हैं और तब कहीं वे
समस्त वृत्तियोंकी शान्तिरूप नैष्कम्र्य-अवस्थामें स्थित होकर आपके ब्रह्मनामक
धामको प्राप्त होते हैं ॥ ४७ ॥ महायोगेश्वर ! हमलोग तो कर्ममार्गमें ही भ्रम-भटक
रहे हैं ! परन्तु इतना निश्चित है कि हम आपके भक्तजनोंके साथ आपके गुणों और
लीलाओंकी चर्चा करेंगे तथा मनुष्यकी-सी लीला करते हुए आपने जो कुछ किया या कहा है, उसका स्मरण-कीर्तन करते रहेंगे। साथ ही आपकी चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और हास-परिहासकी स्मृतिमें तल्लीन हो जायँगे। केवल
इसीसे हम दुस्तर मायाको पार कर लेंगे। (इसलिये हमें मायासे पार जानेकी नहीं, आपके विरहकी चिन्ता है। आप हमें छोडिय़े नहीं, साथ ले चलिये) ॥ ४८-४९ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् !
जब उद्धवजीने देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रार्थनाकी, तब उन्होंने अपने अनन्यप्रेमी सखा एवं सेवक उद्धवजीसे कहा ॥ ५० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड
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