॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
अवधूतोपाख्यान—अजगर से लेकर पिङ्गला
तक नौ गुरुओं की कथा
पिङ्गला
नाम वेश्याऽऽसीद् विदेहनगरे पुरा ।
तस्या
मे शिक्षितं किञ्चित् निबोध नृपनन्दन ॥ २२ ॥
सा
स्वैरिण्येकदा कान्तं सङ्केत उपनेष्यती ।
अभूत्काले
बहिर्द्वारि बिभ्रती रूपमुत्तमम् ॥ २३ ॥
मार्ग
आगच्छतो वीक्ष्य पुरुषान् पुरुषर्षभ ।
तान् शुल्कदान् वित्तवतः कान्तान्
मेनेऽर्थकामुका ॥ २४ ॥
आगतेष्वपयातेषु सा सङ्केतोपजीविनी ।
अप्यन्यो वित्तवान् कोऽपि मामुपैष्यति भूरिदः ॥
२५ ॥
एवं दुराशया ध्वस्तनिद्रा द्वार्यवलम्बती ।
निर्गच्छन्ती प्रविशती निशीथं समपद्यत ॥ २६ ॥
तस्या वित्ताशया शुष्यद्वक्त्राया दीनचेतसः ।
निर्वेदः परमो जज्ञे चिन्ताहेतुः सुखावहः ॥ २७ ॥
तस्या निर्विण्णचित्ताया गीतं श्रृणु यथा मम ।
निर्वेद आशापाशानां पुरुषस्य यथा ह्यसिः ॥ २८ ॥
न ह्यङ्गाज्जातनिर्वेदो देहबन्धं जिहासति ।
यथा विज्ञानरहितो मनुजो ममतां नृप ॥ २९ ॥
पिङ्गलोवाच
-
अहो
मे मोहविततिं पश्यताविजितात्मनः ।
या
कान्ताद् असतः कामं कामये येन बालिशा ॥ ३० ॥
सन्तं
समीपे रमणं रतिप्रदं
वित्तप्रदं नित्यमिमं विहाय ।
अकामदं दुःखभयाधिशोक-
मोहप्रदं तुच्छमहं भजेऽज्ञा ॥ ३१ ॥
अहो मयाऽऽत्मा परितापितो वृथा
साङ्केत्यवृत्त्यातिविगर्ह्यवार्तया ।
स्त्रैणान्नराद् यार्थतृषोऽनुशोच्यात्
क्रीतेन वित्तं रतिमात्मनेच्छती ॥ ३२ ॥
यदस्थिभिर्निर्मित-वंशवंश्य-
स्थूणं त्वचा रोमनखैः पिनद्धम् ।
क्षरन्नवद्वारमगारमेतद् ।
विण्मूत्रपूर्णं मदुपैति कान्या ॥ ३३ ॥
विदेहानां
पुरे ह्यस्मिन् अहमेकैव मूढधीः ।
यान्यमिच्छन्त्यसत्यस्माद् आत्मदात्
काममच्युतात् ॥ ३४ ॥
सुहृत्प्रेष्ठतमो नाथ आत्मा चायं शरीरिणाम् ।
तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेऽनेन यथा रमा ॥ ३५ ॥
कियत् प्रियं ते व्यभजन् कामा ये कामदा नराः ।
आद्यन्तवन्तो भार्याया देवा वा कालविद्रुताः ॥
३६ ॥
नूनं मे भगवान् प्रीतो विष्णुः केनापि कर्मणा ।
निर्वेदोऽयं दुराशाया यन्मे जातः सुखावहः ॥ ३७ ॥
मैवं स्युः मन्दभाग्यायाः क्लेशा निर्वेदहेतवः ।
येनानुबन्धं निर्हृत्य पुरुषः शममृच्छति ॥ ३८ ॥
तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसङ्गताः ।
त्यक्त्वा दुराशाः शरणं व्रजामि तमधीश्वरम् ॥ ३९
॥
सन्तुष्टा श्रद्दधत्येतद् यथालाभेन जीवती ।
विहरामिमुनैवाहमात्मना रमणेन वै ॥ ४० ॥
संसारकूपे पतितं विषयैर्मुषितेक्षणम् ।
ग्रस्तं कालाहिनात्मानं कोऽन्यस्त्रातुमधीश्वरः
॥ ४१ ॥
आत्मैव ह्यात्मनो गोप्ता निर्विद्येत यदाखिलात्
।
अप्रमत्त इदं पश्येद् ग्रस्तं कालाहिना जगत् ॥
४२ ॥
श्रीब्राह्मण उवाच -
एवं
व्यवसितमतिः दुराशां कान्ततर्षजाम् ।
छित्त्वोपशममास्थाय शय्यामुपविवेश सा ॥ ४३ ॥
आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् ।
यथा सञ्छिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिङ्गला ॥
४४ ॥
नृपनन्दन ! प्राचीन कालकी बात है, विदेहनगरी मिथिलामें एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिङ्गला।
मैंने उससे जो कुछ शिक्षा ग्रहण की, वह मैं तुम्हे सुनाता हूँ;
सावधान होकर सुनो ॥ २२ ॥ वह स्वेच्छाचारिणी तो थी ही, रूपवती भी थी। एक दिन रात्रिके समय किसी पुरुषको अपने रमणस्थानमें
लानेके लिये खूब बन-ठनकर—उत्तम वस्त्राभूषणोंसे सजकर बहुत देरतक अपने घरके बाहरी
दरवाजेपर खड़ी रही ॥ २३ ॥ नररत्न ! उसे पुरुषकी नहीं,
धनकी कामना थी और उसके मनमें यह कामना इतनी दृढ़मूल हो गयी थी कि
वह किसी भी पुरुषको उधरसे आते- जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन
देकर उपभोग करनेके लिये ही आ रहा है ॥ २४ ॥ जब आने-जानेवाले आगे बढ़ जाते, तब फिर वह सङ्केतजीविनी वेश्या यही सोचती कि अवश्य ही अबकी बार कोई
ऐसा धनी मेरे पास आवेगा जो मुझे बहुत-सा धन देगा ॥ २५ ॥ उसके चित्तकी यह दुराशा
बढ़ती ही जाती थी। वह दरवाजेपर बहुत देरतक टँगी रही। उसकी नींद भी जाती रही। वह
कभी बाहर आती, तो कभी भीतर जाती। इस प्रकार आधी रात हो गयी ॥ २६ ॥ राजन् ! सचमुच
आशा और सो भी धनकी—बहुत बुरी है। धनीकी बाट जोहते- जोहते उसका मुँह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अब उसे इस वृत्तिसे बड़ा वैराग्य हुआ। उसमें
दु:ख-बुद्धि हो गयी। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैराग्यका कारण चिन्ता ही थी। परन्तु
ऐसा वैराग्य भी है तो सुखका ही हेतु ॥ २७ ॥ जब पिङ्गलाके चित्तमें इस प्रकार
वैराग्यकी भावना जाग्रत् हुई, तब उसने एक गीत गाया। वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। राजन् ! मनुष्य
आशाकी फाँसीपर लटक रहा है। इसको तलवारकी तरह काटनेवाली यदि कोई वस्तु है तो वह
केवल वैराग्य है ॥ २८ ॥ प्रिय राजन् ! जिसे वैराग्य नहीं हुआ है, जो इन बखेड़ोंसे ऊबा नहीं है,
वह शरीर और इसके बन्धनसे उसी प्रकार मुक्त नहीं होना चाहता, जैसे अज्ञानी पुरुष ममता छोडऩेकी इच्छा भी नहीं करता ॥ २९ ॥
पिङ्गलाने यह गीत गाया था—हाय ! हाय
! मैं इन्द्रियोंके अधीन हो गयी ! भला ! मेरे मोहका विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषोंसे, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है,
विषयसुखकी लालसा करती हूँ। कितने दु:खकी बात है ! मैं सचमुच मूर्ख
हूँ ॥ ३० ॥ देखो तो सही, मेरे निकट-से-निकट हृदयमें ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान् विराजमान
हैं। वे वास्तविक प्रेम, सुख और परमार्थका सच्चा धन भी देनेवाले हैं। जगत्के पुरुष अनित्य
हैं और वे नित्य हैं। हाय ! हाय ! मैंने उनको तो छोड़ दिया और उन तुच्छ मनुष्योंका
सेवन किया, जो मेरी एक भी कामना पूरी नहीं कर सकते;
उलटे दु:ख-भय, आधि-व्याधि, शोक और मोह ही देते हैं। यह मेरी मूर्खताकी हद है कि मैं उनका सेवन
करती हूँ ॥ ३१ ॥ बड़े खेदकी बात है, मैंने अत्यन्त निन्दनीय आजीविका वेश्यावृत्तिका आश्रय लिया और
व्यर्थमें अपने शरीर और मनको क्लेश दिया, पीड़ा पहुँचायी। मेरा यह शरीर बिक गया है। लम्पट, लोभी और निन्दनीय मनुष्योंने इसे खरीद लिया है और मैं इतनी मूर्ख
हूँ कि इसी शरीरसे धन और रति-सुख चाहती हूँ। मुझे धिक्कार है ! ॥ ३२ ॥ यह शरीर एक
घर है। इसमें हड्डियोंके टेढ़े-तिरछे बाँस और खंभे लगे हुए हैं; चाम, रोएँ
और नाखूनोंसे यह छाया गया है। इसमें नौ दरवाजे हैं,
जिनसे मल निकलते ही रहते हैं। इसमें सञ्चित सम्पत्तिके नामपर केवल
मल और मूत्र है। मेरे अतिरिक्त ऐसी कौन स्त्री है,
जो इस स्थूलशरीरको अपना प्रिय समझकर सेवन करेगी ॥ ३३ ॥ यों तो यह
विदेहोंकी—जीवन्मुक्तोंकी नगरी है, परन्तु इसमें मैं ही सबसे मूर्ख और दुष्ट हूँ; क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी,
अविनाशी एवं परमप्रियतम परमात्माको छोडक़र दूसरे पुरुषकी अभिलाषा
करती हूँ ॥ ३४ ॥ मेरे हृदयमें विराजमान प्रभु,
समस्त प्राणियोंके हितैषी,
सुहृद्, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। अब मैं अपने-आपको देकर इन्हें खरीद लूँगी और
इनके साथ वैसे ही विहार करूँगी, जैसे लक्ष्मीजी करती हैं ॥ ३५ ॥ मेरे मूर्ख चित्त ! तू बतला तो सही, जगत् के विषयभोगोंने और उनको देनेवाले पुरुषोंने तुझे कितना सुख
दिया है। अरे ! वे तो स्वयं ही पैदा होते और मरते रहते हैं। मैं केवल अपनी ही बात
नहीं कहती, केवल मनुष्योंकी भी नहीं; क्या देवताओंने भी भोगोंके द्वारा अपनी पत्नियोंको सन्तुष्ट किया
है ? वे बेचारे तो स्वयं कालके गालमें पड़े-पड़े कराह रहे हैं ॥ ३६ ॥
अवश्य ही मेरे किसी शुभकर्मसे विष्णुभगवान् मुझपर प्रसन्न हैं, तभी तो दुराशासे मुझे इस प्रकार वैराग्य हुआ है। अवश्य ही मेरा यह
वैराग्य सुख देनेवाला होगा ॥ ३७ ॥ यदि मैं मन्दभागिनी होती तो मुझे ऐसे दु:ख ही न
उठाने पड़ते, जिनसे वैराग्य होता है। मनुष्य वैराग्यके द्वारा ही घर आदिके सब
बन्धनोंको काटकर शान्तिलाभ करता है ॥ ३८ ॥ अब मैं भगवान्का यह उपकार आदरपूर्वक
सिर झुकाकर स्वीकार करती हूँ और विषयभोगोंकी दुराशा छोडक़र उन्हीं जगदीश्वरकी शरण
ग्रहण करती हूँ ॥ ३९ ॥ अब मुझे प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जायगा, उसीसे निर्वाह कर लूँगी और बड़े सन्तोष तथा श्रद्धाके साथ रहूँगी।
मैं अब किसी दूसरे पुरुषकी ओर न ताककर अपने हृदयेश्वर,
आत्मस्वरूप प्रभुके साथ ही विहार करूँगी ॥ ४० ॥ यह जीव संसारके
कूएँमें गिरा हुआ है। विषयोंने इसे अंधा बना दिया है,
कालरूपी अजगरने इसे अपने मुँहमें दबा रखा है। अब भगवान्को छोडक़र
इसकी रक्षा करनेमें दूसरा कौन समर्थ है ॥ ४१ ॥ जिस समय जीव समस्त विषयोंसे विरक्त
हो जाता है, उस समय वह स्वयं ही अपनी रक्षा कर लेता है। इसलिये बड़ी सावधानीके
साथ यह देखते रहना चाहिये कि सारा जगत् कालरूपी अजगरसे ग्रस्त है ॥ ४२ ॥
अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं—राजन्
! पिङ्गला वेश्याने ऐसा निश्चय करके अपने प्रिय धनियों की दुराशा,
उनसे मिलनेकी लालसाका परित्याग कर दिया और शान्तभावसे जाकर वह अपनी
सेज पर सो रही ॥ ४३ ॥ सचमुच आशा ही सबसे बड़ा दु:ख है और निराशा ही सबसे बड़ा सुख
है; क्योंकि पिङ्गला वेश्या ने जब पुरुषकी आशा त्याग दी, तभी वह सुखसे सो सकी ॥ ४४ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
एकादशस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से