गुरुवार, 18 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

अवधूतोपाख्यान—अजगर से लेकर पिङ्गला तक नौ गुरुओं की कथा

 

पिङ्गला नाम वेश्याऽऽसीद् विदेहनगरे पुरा ।

तस्या मे शिक्षितं किञ्चित् निबोध नृपनन्दन ॥ २२ ॥

सा स्वैरिण्येकदा कान्तं सङ्केत उपनेष्यती ।

अभूत्काले बहिर्द्वारि बिभ्रती रूपमुत्तमम् ॥ २३ ॥

मार्ग आगच्छतो वीक्ष्य पुरुषान् पुरुषर्षभ ।

 तान् शुल्कदान् वित्तवतः कान्तान् मेनेऽर्थकामुका ॥ २४ ॥

 आगतेष्वपयातेषु सा सङ्केतोपजीविनी ।

 अप्यन्यो वित्तवान् कोऽपि मामुपैष्यति भूरिदः ॥ २५ ॥

 एवं दुराशया ध्वस्तनिद्रा द्वार्यवलम्बती ।

 निर्गच्छन्ती प्रविशती निशीथं समपद्यत ॥ २६ ॥

 तस्या वित्ताशया शुष्यद्वक्त्राया दीनचेतसः ।

 निर्वेदः परमो जज्ञे चिन्ताहेतुः सुखावहः ॥ २७ ॥

 तस्या निर्विण्णचित्ताया गीतं श्रृणु यथा मम ।

 निर्वेद आशापाशानां पुरुषस्य यथा ह्यसिः ॥ २८ ॥

 न ह्यङ्गाज्जातनिर्वेदो देहबन्धं जिहासति ।

 यथा विज्ञानरहितो मनुजो ममतां नृप ॥ २९ ॥

 

पिङ्गलोवाच -

अहो मे मोहविततिं पश्यताविजितात्मनः ।

या कान्ताद् असतः कामं कामये येन बालिशा ॥ ३० ॥

सन्तं समीपे रमणं रतिप्रदं

     वित्तप्रदं नित्यमिमं विहाय ।

 अकामदं दुःखभयाधिशोक-

     मोहप्रदं तुच्छमहं भजेऽज्ञा ॥ ३१ ॥

 अहो मयाऽऽत्मा परितापितो वृथा

     साङ्केत्यवृत्त्यातिविगर्ह्यवार्तया ।

 स्त्रैणान्नराद् यार्थतृषोऽनुशोच्यात्

     क्रीतेन वित्तं रतिमात्मनेच्छती ॥ ३२ ॥

 यदस्थिभिर्निर्मित-वंशवंश्य-

     स्थूणं त्वचा रोमनखैः पिनद्धम् ।

 क्षरन्नवद्वारमगारमेतद् ।

     विण्मूत्रपूर्णं मदुपैति कान्या ॥ ३३ ॥

विदेहानां पुरे ह्यस्मिन् अहमेकैव मूढधीः ।

 यान्यमिच्छन्त्यसत्यस्माद् आत्मदात् काममच्युतात् ॥ ३४ ॥

 सुहृत्प्रेष्ठतमो नाथ आत्मा चायं शरीरिणाम् ।

 तं विक्रीयात्मनैवाहं रमेऽनेन यथा रमा ॥ ३५ ॥

 कियत् प्रियं ते व्यभजन् कामा ये कामदा नराः ।

 आद्यन्तवन्तो भार्याया देवा वा कालविद्रुताः ॥ ३६ ॥

 नूनं मे भगवान् प्रीतो विष्णुः केनापि कर्मणा ।

 निर्वेदोऽयं दुराशाया यन्मे जातः सुखावहः ॥ ३७ ॥

 मैवं स्युः मन्दभाग्यायाः क्लेशा निर्वेदहेतवः ।

 येनानुबन्धं निर्हृत्य पुरुषः शममृच्छति ॥ ३८ ॥

 तेनोपकृतमादाय शिरसा ग्राम्यसङ्गताः ।

 त्यक्त्वा दुराशाः शरणं व्रजामि तमधीश्वरम् ॥ ३९ ॥

 सन्तुष्टा श्रद्दधत्येतद् यथालाभेन जीवती ।

 विहरामिमुनैवाहमात्मना रमणेन वै ॥ ४० ॥

 संसारकूपे पतितं विषयैर्मुषितेक्षणम् ।

 ग्रस्तं कालाहिनात्मानं कोऽन्यस्त्रातुमधीश्वरः ॥ ४१ ॥

 आत्मैव ह्यात्मनो गोप्ता निर्विद्येत यदाखिलात् ।

 अप्रमत्त इदं पश्येद् ग्रस्तं कालाहिना जगत् ॥ ४२ ॥

 

 श्रीब्राह्मण उवाच -

 एवं व्यवसितमतिः दुराशां कान्ततर्षजाम् ।

 छित्त्वोपशममास्थाय शय्यामुपविवेश सा ॥ ४३ ॥

 आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम् ।

 यथा सञ्छिद्य कान्ताशां सुखं सुष्वाप पिङ्गला ॥ ४४ ॥

 

नृपनन्दन ! प्राचीन कालकी बात है, विदेहनगरी मिथिलामें एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिङ्गला। मैंने उससे जो कुछ शिक्षा ग्रहण की, वह मैं तुम्हे सुनाता हूँ; सावधान होकर सुनो ॥ २२ ॥ वह स्वेच्छाचारिणी तो थी ही, रूपवती भी थी। एक दिन रात्रिके समय किसी पुरुषको अपने रमणस्थानमें लानेके लिये खूब बन-ठनकर—उत्तम वस्त्राभूषणोंसे सजकर बहुत देरतक अपने घरके बाहरी दरवाजेपर खड़ी रही ॥ २३ ॥ नररत्न ! उसे पुरुषकी नहीं, धनकी कामना थी और उसके मनमें यह कामना इतनी दृढ़मूल हो गयी थी कि वह किसी भी पुरुषको उधरसे आते- जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन देकर उपभोग करनेके लिये ही आ रहा है ॥ २४ ॥ जब आने-जानेवाले आगे बढ़ जाते, तब फिर वह सङ्केतजीविनी वेश्या यही सोचती कि अवश्य ही अबकी बार कोई ऐसा धनी मेरे पास आवेगा जो मुझे बहुत-सा धन देगा ॥ २५ ॥ उसके चित्तकी यह दुराशा बढ़ती ही जाती थी। वह दरवाजेपर बहुत देरतक टँगी रही। उसकी नींद भी जाती रही। वह कभी बाहर आती, तो कभी भीतर जाती। इस प्रकार आधी रात हो गयी ॥ २६ ॥ राजन् ! सचमुच आशा और सो भी धनकी—बहुत बुरी है। धनीकी बाट जोहते- जोहते उसका मुँह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अब उसे इस वृत्तिसे बड़ा वैराग्य हुआ। उसमें दु:ख-बुद्धि हो गयी। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैराग्यका कारण चिन्ता ही थी। परन्तु ऐसा वैराग्य भी है तो सुखका ही हेतु ॥ २७ ॥ जब पिङ्गलाके चित्तमें इस प्रकार वैराग्यकी भावना जाग्रत् हुई, तब उसने एक गीत गाया। वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। राजन् ! मनुष्य आशाकी फाँसीपर लटक रहा है। इसको तलवारकी तरह काटनेवाली यदि कोई वस्तु है तो वह केवल वैराग्य है ॥ २८ ॥ प्रिय राजन् ! जिसे वैराग्य नहीं हुआ है, जो इन बखेड़ोंसे ऊबा नहीं है, वह शरीर और इसके बन्धनसे उसी प्रकार मुक्त नहीं होना चाहता, जैसे अज्ञानी पुरुष ममता छोडऩेकी इच्छा भी नहीं करता ॥ २९ ॥

पिङ्गलाने यह गीत गाया था—हाय ! हाय ! मैं इन्द्रियोंके अधीन हो गयी ! भला ! मेरे मोहका विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषोंसे, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, विषयसुखकी लालसा करती हूँ। कितने दु:खकी बात है ! मैं सचमुच मूर्ख हूँ ॥ ३० ॥ देखो तो सही, मेरे निकट-से-निकट हृदयमें ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान्‌ विराजमान हैं। वे वास्तविक प्रेम, सुख और परमार्थका सच्चा धन भी देनेवाले हैं। जगत्के पुरुष अनित्य हैं और वे नित्य हैं। हाय ! हाय ! मैंने उनको तो छोड़ दिया और उन तुच्छ मनुष्योंका सेवन किया, जो मेरी एक भी कामना पूरी नहीं कर सकते; उलटे दु:ख-भय, आधि-व्याधि, शोक और मोह ही देते हैं। यह मेरी मूर्खताकी हद है कि मैं उनका सेवन करती हूँ ॥ ३१ ॥ बड़े खेदकी बात है, मैंने अत्यन्त निन्दनीय आजीविका वेश्यावृत्तिका आश्रय लिया और व्यर्थमें अपने शरीर और मनको क्लेश दिया, पीड़ा पहुँचायी। मेरा यह शरीर बिक गया है। लम्पट, लोभी और निन्दनीय मनुष्योंने इसे खरीद लिया है और मैं इतनी मूर्ख हूँ कि इसी शरीरसे धन और रति-सुख चाहती हूँ। मुझे धिक्कार है ! ॥ ३२ ॥ यह शरीर एक घर है। इसमें हड्डियोंके टेढ़े-तिरछे बाँस और खंभे लगे हुए हैं; चाम, रोएँ और नाखूनोंसे यह छाया गया है। इसमें नौ दरवाजे हैं, जिनसे मल निकलते ही रहते हैं। इसमें सञ्चित सम्पत्तिके नामपर केवल मल और मूत्र है। मेरे अतिरिक्त ऐसी कौन स्त्री है, जो इस स्थूलशरीरको अपना प्रिय समझकर सेवन करेगी ॥ ३३ ॥ यों तो यह विदेहोंकी—जीवन्मुक्तोंकी नगरी है, परन्तु इसमें मैं ही सबसे मूर्ख और दुष्ट हूँ; क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी, अविनाशी एवं परमप्रियतम परमात्माको छोडक़र दूसरे पुरुषकी अभिलाषा करती हूँ ॥ ३४ ॥ मेरे हृदयमें विराजमान प्रभु, समस्त प्राणियोंके हितैषी, सुहृद्, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। अब मैं अपने-आपको देकर इन्हें खरीद लूँगी और इनके साथ वैसे ही विहार करूँगी, जैसे लक्ष्मीजी करती हैं ॥ ३५ ॥ मेरे मूर्ख चित्त ! तू बतला तो सही, जगत् के विषयभोगोंने और उनको देनेवाले पुरुषोंने तुझे कितना सुख दिया है। अरे ! वे तो स्वयं ही पैदा होते और मरते रहते हैं। मैं केवल अपनी ही बात नहीं कहती, केवल मनुष्योंकी भी नहीं; क्या देवताओंने भी भोगोंके द्वारा अपनी पत्नियोंको सन्तुष्ट किया है ? वे बेचारे तो स्वयं कालके गालमें पड़े-पड़े कराह रहे हैं ॥ ३६ ॥ अवश्य ही मेरे किसी शुभकर्मसे विष्णुभगवान्‌ मुझपर प्रसन्न हैं, तभी तो दुराशासे मुझे इस प्रकार वैराग्य हुआ है। अवश्य ही मेरा यह वैराग्य सुख देनेवाला होगा ॥ ३७ ॥ यदि मैं मन्दभागिनी होती तो मुझे ऐसे दु:ख ही न उठाने पड़ते, जिनसे वैराग्य होता है। मनुष्य वैराग्यके द्वारा ही घर आदिके सब बन्धनोंको काटकर शान्तिलाभ करता है ॥ ३८ ॥ अब मैं भगवान्‌का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुकाकर स्वीकार करती हूँ और विषयभोगोंकी दुराशा छोडक़र उन्हीं जगदीश्वरकी शरण ग्रहण करती हूँ ॥ ३९ ॥ अब मुझे प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जायगा, उसीसे निर्वाह कर लूँगी और बड़े सन्तोष तथा श्रद्धाके साथ रहूँगी। मैं अब किसी दूसरे पुरुषकी ओर न ताककर अपने हृदयेश्वर, आत्मस्वरूप प्रभुके साथ ही विहार करूँगी ॥ ४० ॥ यह जीव संसारके कूएँमें गिरा हुआ है। विषयोंने इसे अंधा बना दिया है, कालरूपी अजगरने इसे अपने मुँहमें दबा रखा है। अब भगवान्‌को छोडक़र इसकी रक्षा करनेमें दूसरा कौन समर्थ है ॥ ४१ ॥ जिस समय जीव समस्त विषयोंसे विरक्त हो जाता है, उस समय वह स्वयं ही अपनी रक्षा कर लेता है। इसलिये बड़ी सावधानीके साथ यह देखते रहना चाहिये कि सारा जगत् कालरूपी अजगरसे ग्रस्त है ॥ ४२ ॥

अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं—राजन् ! पिङ्गला वेश्याने ऐसा निश्चय करके अपने प्रिय धनियों  की दुराशा, उनसे मिलनेकी लालसाका परित्याग कर दिया और शान्तभावसे जाकर वह अपनी सेज पर सो रही ॥ ४३ ॥ सचमुच आशा ही सबसे बड़ा दु:ख है और निराशा ही सबसे बड़ा सुख है; क्योंकि पिङ्गला वेश्या ने जब पुरुषकी आशा त्याग दी, तभी वह सुखसे सो सकी ॥ ४४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां एकादशस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

अवधूतोपाख्यान—अजगर से लेकर पिङ्गला तक नौ गुरुओं की कथा

 

श्रीब्राह्मण उवाच -

सुखम् ऐन्द्रियकं राजन् स्वर्गे नरक एव च ।

देहिनां यद् यथा दुःखं तस्मान् नेच्छेत तद्‍बुधः ॥ १ ॥

ग्रासं सुमृष्टं विरसं महान्तं स्तोकमेव वा ।

यदृच्छयैवापतितं ग्रसेत् आजगरोऽक्रियः ॥ २ ॥

शयीताहानि भूरीणि निराहारोऽनुपक्रमः ।

 यदि नोपनमेद् ग्रासो महाहिरिव दिष्टभुक् ॥ ३ ॥

 ओजःसहोबलयुतं बिभ्रद् देहमकर्मकम् ।

 शयानो वीतनिद्रश्च नेहेतेन्द्रियवानपि ॥ ४ ॥

 मुनिः प्रसन्नगम्भीरो दुर्विगाह्यो दुरत्ययः ।

 अनन्तपारो ह्यक्षोभ्यः स्तिमितोद इवार्णवः ॥ ५ ॥

 समृद्धकामो हीनो वा नारायणपरो मुनिः ।

 नोत्सर्पेत न शुष्येत सरिद्‌भिरिव सागरः ॥ ६ ॥

 दृष्ट्वा स्त्रियं देवमायां तद्‌भावैरजितेन्द्रियः ।

 प्रलोभितः पतत्यन्धे तमस्यग्नौ पतङ्गवत् ॥ ७ ॥

 योषिद्धिरण्याभरणाम्बरादि

     द्रव्येषु मायारचितेषु मूढः ।

 प्रलोभितात्मा ह्युपभोगबुद्ध्या

     पतङ्गवत् नश्यति नष्टदृष्टिः ॥ ८ ॥

स्तोकं स्तोकं ग्रसेद् ग्रासं देहो वर्तेत यावता ।

 गृहान् अहिंसन् आतिष्ठेद् वृत्तिं माधुकरीं मुनिः ॥ ९ ॥

 अणुभ्यश्च महद्‍भ्यश्च शास्त्रेभ्यः कुशलो नरः ।

 सर्वतः सारमादद्यात् पुष्पेभ्य इव षट्पदः ॥ १० ॥

 सायन्तनं श्वस्तनं वा न सङ्गृह्णीत भिक्षितम् ।

 पाणिपात्रोदरामत्रो मक्षिकेव न सङ्ग्रही ॥ ११ ॥

 सायन्तनं श्वस्तनं वा न सङ्गृह्णीत भिक्षुकः ।

 मक्षिका इव सङ्गृह्णन् सह तेन विनश्यति ॥ १२ ॥

 पदापि युवतीं भिक्षुः न स्पृशेद् दारवीमपि ।

 स्पृशन् करीव बध्येत करिण्या अङ्गसङ्गतः ॥ १३ ॥

 नाधिगच्छेत् स्त्रियं प्राज्ञः कर्हिचित् मृत्युमात्मनः ।

 बलाधिकैः स हन्येत गजैरन्यैर्गजो यथा ॥ १४ ॥

 न देयं नोपभोग्यं च लुब्धैर्यद् दुःखसञ्चितम् ।

 भुङ्क्ते तदपि तच्चान्यो मधुहेवार्थविन्मधु ॥ १५ ॥

 सुदुःखोपार्जितैः वित्तैः आशासानां गृहाशिषः ।

 मधुहेवाग्रतो भुङ्क्ते यतिर्वै गृहमेधिनाम् ॥ १६ ॥

 ग्राम्यगीतं न श्रृणुयाद् यतिर्वनचरः क्वचित् ।

 शिक्षेत हरिणाद् बद्धान् मृगयोर्गीतमोहितात् ॥ १७ ॥

 नृत्यवादित्रगीतानि जुषन् ग्राम्याणि योषिताम् ।

 आसां क्रीडनको वश्य ऋष्यश्रृङ्गो मृगीसुतः ॥ १८ ॥

 जिह्वयातिप्रमाथिन्या जनो रसविमोहितः ।

 मृत्युम् ऋच्छत्यसद्‍बुधिः मीनस्तु बडिशैर्यथा ॥ १९ ॥

 इन्द्रियाणि जयन्त्याशु निराहारा मनीषिणः ।

 वर्जयित्वा तु रसनं तन्निरन्नस्य वर्धते ॥ २० ॥

 तावत् जितेन्द्रियो न स्याद् विजितान्येन्द्रियः पुमान् ।

 न जयेद् रसनं यावत् जितं सर्वं जिते रसे ॥ २१ ॥

 

अवधूत दत्तात्रेयजी कहते हैं—राजन् ! प्राणियोंको जैसे बिना इच्छाके, बिना किसी प्रयत्नके, रोकनेकी चेष्टा करनेपर भी पूर्वकर्मानुसार दु:ख प्राप्त होते हैं, वैसे ही स्वर्गमें या नरकमें—कहीं भी रहें, उन्हें इन्द्रियसम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं। इसलिये सुख और दु:खका रहस्य जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि इनके लिये इच्छा अथवा किसी प्रकारका प्रयत्न न करे ॥ १ ॥ बिना माँगे, बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाय—वह चाहे रूखा-सूखा हो, चाहे बहुत मधुर और स्वादिष्ट, अधिक हो या थोड़ा—बुद्धिमान् पुरुष अजगरके समान उसे ही खाकर जीवन- निर्वाह कर ले और उदासीन रहे ॥ २ ॥ यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध-भोग समझकर किसी प्रकारकी चेष्टा न करे, बहुत दिनोंतक भूखा ही पड़ा रहे। उसे चाहिये कि अजगरके समान केवल प्रारब्धके अनुसार प्राप्त हुए भोजनमें ही सन्तुष्ट रहे ॥ ३ ॥ उसके शरीरमें मनोबल, इन्द्रियबल और देहबल तीनों हों तब भी वह निश्चेष्ट ही रहे। निद्रारहित होनेपर भी सोया हुआ-सा रहे और कर्मेन्द्रियोंके होनेपर भी उनसे कोई चेष्टा न करे। राजन् ! मैंने अजगरसे यही शिक्षा ग्रहण की है ॥ ४ ॥

समुद्रसे मैंने यह सीखा है कि साधकको सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये, उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्तसे उसे क्षोभ न होना चाहिये। उसे ठीक वैसे ही रहना चाहिये, जैसे ज्वार-भाटे और तरङ्गों से रहित शान्त समुद्र ॥ ५ ॥ देखो, समुद्र वर्षाऋतु में नदियों की बाढक़े कारण बढ़ता नहीं और न ग्रीष्म-ऋतुमें घटता ही है; वैसे ही भगवत्परायण साधक  को भी सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिसे प्रफुल्लित न होना चाहिये और न उनके घटनेसे उदास ही होना चाहिये ॥ ६ ॥

राजन् ! मैंने पङ्क्षतगेसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह रूपपर मोहित होकर आगमें कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला पुरुष जब स्त्रीको देखता है तो उसके हाव-भावपर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकारमें, नरकमें गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है। सचमुच स्त्री देवताओंकी वह माया है, जिससे जीव भगवान्‌ या मोक्षकी प्राप्तिसे वञ्चित रह जाता है ॥ ७ ॥ जो मूढ़ कामिनी-कञ्चन, गहने-कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थोंमें फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोगके लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेकबुद्धि खोकर पतंगे के समान नष्ट हो जाता है ॥ ८ ॥

राजन् ! संन्यासी को चाहिये कि गृहस्थोंको किसी प्रकारका कष्ट न देकर भौंरे  की तरह अपना जीवन-निर्वाह करे। वह अपने शरीरके लिये उपयोगी रोटीके कुछ टुकड़े कई घरोंसे माँग ले [1] ॥ ९ ॥ जिस प्रकार भौंरा विभिन्न पुष्पोंसे—चाहे वे छोटे हों या बड़े—उनका सार संग्रह करता है, वैसे ही बुद्धिमान् पुरुष  को चाहिये कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रोंसे उनका सार—उनका रस निचोड़ ले ॥ १० ॥ राजन् ! मैंने मधुमक्खी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सायङ्काल अथवा दूसरे दिन के लिये भिक्षा का संग्रह न करना चाहिये। उसके पास भिक्षा लेनेको कोई पात्र हो तो केवल हाथ और रखनेके लिये कोई बर्तन हो तो पेट। वह कहीं संग्रह न कर बैठे, नहीं तो मधुमक्खियोंके समान उसका जीवन ही दूभर हो जायगा ॥ ११ ॥ यह बात खूब समझ लेनी चाहिये कि संन्यासी सबेरे शाम के लिये किसी प्रकारका संग्रह न करे; यदि संग्रह करेगा, तो मधुमक्खियों के समान अपने संग्रह के साथ ही जीवन भी गँवा बैठेगा ॥ १२ ॥

राजन् ! मैंने हाथी से यह सीखा कि संन्यासी को कभी पैर  से भी काठकी बनी हुई स्त्रीका भी स्पर्श न करना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनीके अङ्ग-सङ्गसे हाथी बँध जाता है, वैसे ही वह भी बँध जायगा [2] ॥ १३ ॥ विवेकी पुरुष किसी भी स्त्रीको कभी भी भोग्यरूपसे स्वीकार न करे; क्योंकि यह उसकी मूर्तिमती मृत्यु है। यदि वह स्वीकार करेगा तो हाथियोंसे हाथीकी तरह अधिक बलवान् अन्य पुरुषोंके द्वारा मारा जायगा ॥ १४ ॥

मैंने मधु निकालनेवाले पुरुषसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसारके लोभी पुरुष बड़ी कठिनाईसे धनका सञ्चय तो करते रहते हैं, किन्तु वह सञ्चित धन न किसीको दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग ही करते हैं। बस, जैसे मधु निकालनेवाला मधुमक्खियोंद्वारा सञ्चित रसको निकाल ले जाता है, वैसे ही उनके सञ्चित धनको भी उसकी टोह रखनेवाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है ॥ १५ ॥ तुम देखते हो न कि मधुहारी मधुमक्खियोंका जोड़ा हुआ मधु उनके खानेसे पहले ही साफ कर जाता है; वैसे ही गृहस्थोंके बहुत कठिनाईसे सञ्चित किये पदार्थोंको, जिनसे वे सुखभोगकी अभिलाषा रखते हैं, उनसे भी पहले संन्यासी और ब्रह्मचारी भोगते हैं। क्योंकि गृहस्थ तो पहले अतिथि-अभ्यागतोंको भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करेगा ॥ १६ ॥

मैंने हरिनसे यह सीखा है कि वनवासी संन्यासीको कभी विषय-सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिये। वह इस बातकी शिक्षा उस हरिनसे ग्रहण करे, जो व्याधके गीतसे मोहित होकर बँध जाता है ॥ १७ ॥ तुम्हें इस बातका पता है कि हरिनीके गर्भसे पैदा हुए ऋष्यशृङ्ग मुनि स्त्रियोंका विषय-सम्बन्धी गाना-बजाना, नाचना आदि देख-सुनकर उनके वशमें हो गये थे और उनके हाथकी कठपुतली बन गये थे ॥ १८ ॥

अब मैं तुम्हें मछलीकी सीख सुनाता हूँ। जैसे मछली काँटेमें लगे हुए मांसके टुकड़ेके लोभसे अपने प्राण गँवा देती है, वैसे ही स्वादका लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य भी मनको मथकर व्याकुल कर देनेवाली अपनी जिह्वाके वशमें हो जाता है और मारा जाता है ॥ १९ ॥ विवेकी पुरुष भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियोंपर तो बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इससे उनकी रसना-इन्द्रिय वशमें नहीं होती। वह तो भोजन बंद कर देनेसे और भी प्रबल हो जाती है ॥ २० ॥ मनुष्य और सब इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर लेनेपर भी तबतक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता, जबतक रसनेन्द्रियको अपने वशमें नहीं कर लेता। और यदि रसनेन्द्रियको वशमें कर लिया, तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ वशमें हो गयीं ॥ २१ ॥

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[1] नहीं तो एक ही कमलके गन्धमें आसक्त हुआ भ्रमर जैसे रात्रिके समय उसमें बंद हो जानेसे नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार स्वादवासनासे एक ही गृहस्थका अन्न खानेसे उसके सांसॢगक मोहमें फँसकर यति भी नष्ट हो जायगा।

[2] हाथी पकडऩेवाले तिनकोंसे ढके हुए गड्ढेपर कागजकी हथिनी खड़ी कर देते हैं। उसे देखकर हाथी वहाँ आता है और गड्ढेमें गिरकर फँस जाता है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



बुधवार, 17 मार्च 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

अवधूतोपाख्यान—पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा

 

विसर्गाद्याः श्मशानान्ता भावा देहस्य नात्मनः

कलानामिव चन्द्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना ४८

कालेन ह्योघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ

नित्यावपि न दृश्येते आत्मनोऽग्नेर्यथार्चिषाम् ४९

गुणैर्गुणानुपादत्ते यथाकालं विमुञ्चति

न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इव गोपतिः ५०

बुध्यते स्वे न भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः

लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोऽर्कवत् ५१

नातिस्नेहः प्रसङ्गो वा कर्तव्यः क्वापि केनचित्

कुर्वन्विन्देत सन्तापं कपोत इव दीनधीः ५२

कपोतः कश्चनारण्ये कृतनीडो वनस्पतौ

कपोत्या भार्यया सार्धमुवास कतिचित्समाः ५३

कपोतौ स्नेहगुणितहृदयौ गृहधर्मिणौ

दृष्टिं दृष्ट्याङ्गमङ्गेन बुद्धिं बुद्ध्या बबन्धतुः ५४

शय्यासनाटनस्थानवार्ताक्रीडाशनादिकम्

मिथुनीभूय विश्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु ५५

यं यं वाञ्छति सा राजन्तर्पयन्त्यनुकम्पिता

तं तं समनयत्कामं कृच्छ्रेणाप्यजितेन्द्रियः ५६

कपोती प्रथमं गर्भं गृह्णती काल आगते

अण्डानि सुषुवे नीडे स्वपत्युः सन्निधौ सती ५७

तेषु काले व्यजायन्त रचितावयवा हरेः

शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभिः कोमलाङ्गतनूरुहाः ५८

प्रजाः पुपुषतुः प्रीतौ दम्पती पुत्रवत्सलौ

शृण्वन्तौ कूजितं तासां निर्वृतौ कलभाषितैः ५९

तासां पतत्रैः सुस्पर्शैः कूजितैर्मुग्धचेष्टितैः

प्रत्युद्गमैरदीनानां पितरौ मुदमापतुः ६०

स्नेहानुबद्धहृदयावन्योन्यं विष्णुमायया

विमोहितौ दीनधियौ शिशून्पुपुषतुः प्रजाः ६१

एकदा जग्मतुस्तासामन्नार्थं तौ कुटुम्बिनौ

परितः कानने तस्मिन्नर्थिनौ चेरतुश्चिरम् ६२

दृष्ट्वा तान्लुब्धकः कश्चिद्यदृच्छातो वनेचरः

जगृहे जालमातत्य चरतः स्वालयान्तिके ६३

कपोतश्च कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ

गतौ पोषणमादाय स्वनीडमुपजग्मतुः ६४

कपोती स्वात्मजान्वीक्ष्य बालकान्जालसंवृतान्

तानभ्यधावत्क्रोशन्ती क्रोशतो भृशदुःखिता ६५

सासकृत्स्नेहगुणिता! दीनचित्ताजमायया

स्वयं चाबध्यत शिचा बद्धान्पश्यन्त्यपस्मृतिः ६६

कपोतः स्वात्मजान्बद्धानात्मनोऽप्यधिकान्प्रियान्

भार्यां चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखितः ६७

अहो मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः

अतृप्तस्याकृतार्थस्य गृहस्त्रैवर्गिको हतः ६८

अनुरूपानुकूला च यस्य मे पतिदेवता

शून्ये गृहे मां सन्त्यज्य पुत्रैः स्वर्याति साधुभिः ६९

सोऽहं शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रजः

जिजीविषे किमर्थं वा विधुरो दुःखजीवितः ७०

तांस्तथैवावृतान् शिग्भिर्मृत्युग्रस्तान्विचेष्टतः

स्वयं च कृपणः शिक्षु पश्यन्नप्यबुधोऽपतत् ७१

तं लब्ध्वा लुब्धकः क्रूरः कपोतं गृहमेधिनम्

कपोतकान्कपोतीं च सिद्धार्थः प्रययौ गृहम् ७२

एवं कुटुम्ब्यशान्तात्मा द्वन्द्वारामः पतत्रिवत्

पुष्णन्कुटुम्बं कृपणः सानुबन्धोऽवसीदति ७३

यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारमपावृतम्

गृहेषु खगवत्सक्तस्तमारूढच्युतं विदुः ७४

 

मैंने चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस कालके प्रभावसे चन्द्रमाकी कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही जन्मसे लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीरकी हैं, आत्मासे उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है ॥ ४८ ॥ जैसे आगकी लपट अथवा दीपककी लौ क्षण-क्षणमें उत्पन्न और नष्ट होती रहती है—उनका यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, परन्तु दीख नहीं पड़ता—वैसे ही जलप्रवाहके समान वेगवान् कालके द्वारा क्षण-क्षणमें प्राणियोंके शरीरकी उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, परन्तु अज्ञानवश वह दिखायी नहीं पड़ता ॥ ४९ ॥

राजन् ! मैंने सूर्यसे यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणोंसे पृथ्वीका जल खींचते और समयपर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियोंके द्वारा समयपर विषयोंका ग्रहण करता है और समय आनेपर उनका त्याग—उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रियके किसी भी विषयमें आसक्ति नहीं होती ॥ ५० ॥ स्थूलबुद्धि पुरुषोंको जलके विभिन्न पात्रोंमें प्रतिबिम्बित हुआ सूर्य उन्हींमें प्रविष्ट-सा होकर भिन्न-भिन्न दिखायी पड़ता है। परन्तु इससे स्वरूपत: सूर्य अनेक नहीं हो जाता; वैसे ही चल-अचल उपाधियोंके भेदसे ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्तिमें आत्मा अलग-अलग है। परन्तु जिनको ऐसा मालूम होता है, उनकी बुद्धि मोटी है। असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्यके समान एक ही है। स्वरूपत: उसमें कोई भेद नहीं है ॥ ५१ ॥

राजन् ! कहीं किसीके साथ अत्यन्त स्नेह अथवा आसक्ति न करनी चाहिये, अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्र्य खोकर दीन हो जायगी और उसे कबूतरकी तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ेगा ॥ ५२ ॥ राजन् ! किसी जंगलमें एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़पर अपना घोंसला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरीके साथ वह कई वर्षोंतक उसी घोंसलेमें रहा ॥ ५३ ॥ उस कबूतरके जोड़ेके हृदयमें निरन्तर एक-दूसरेके प्रति स्नेहकी वृद्धि होती जाती थी। वे गृहस्थधर्ममें इतने आसक्त हो गये थे कि उन्होंने एक-दूसरेकी दृष्टि-से-दृष्टि, अङ्ग-से-अङ्ग और बुद्धि-से-बुद्धिको बाँध रखा था ॥ ५४ ॥ उनका एक-दूसरेपर इतना विश्वास हो गया था कि वे नि:शङ्क होकर वहाँकी वृक्षावलीमें एक साथ सोते, बैठते, घूमते-फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे ॥ ५५ ॥ राजन् ! कबूतरीपर कबूतरका इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े-से-बड़ा कष्ट उठाकर उसकी कामना पूर्ण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक पतिकी कामनाएँ पूर्ण करती ॥ ५६ ॥ समय आनेपर कबूतरीको पहला गर्भ रहा। उसने अपने पतिके पास ही घोंसलेमें अंडे दिये ॥ ५७ ॥ भगवान्‌की अचिन्त्य शक्तिसे समय आनेपर वे अंडे फूट गये और उनमेंसे हाथ-पैरवाले बच्चे निकल आये। उनका एक-एक अङ्ग और रोएँ अत्यन्त कोमल थे ॥ ५८ ॥ अब उन कबूतर-कबूतरीकी आँखें अपने बच्चोंपर लग गयीं, वे बड़े प्रेम और आनन्दसे अपने बच्चोंका लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गूँ सुन-सुनकर आनन्दमग्र हो जाते ॥ ५९ ॥ बच्चे तो सदा-सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं; वे जब अपने सुकुमार पंखोंसे माँ-बापका स्पर्श करते, कूजते, भोली-भाली चेष्टाएँ करते और फुदक-फुदककर अपने माँ-बापके पास दौड़ आते तब कबूतर-कबूतरी आनन्दमग्र हो जाते ॥ ६० ॥ राजन् ! सच पूछो तो वे कबूतर- कबूतरी भगवान्‌की मायासे मोहित हो रहे थे। उनका हृदय एक-दूसरेके स्नेहबन्धनसे बँध रहा था। वे अपने नन्हें-नन्हें बच्चोंके पालन-पोषणमें इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन-दुनिया, लोक-परलोककी याद ही न आती ॥ ६१ ॥ एक दिन दोनों नर-मादा अपने बच्चोंके लिये चारा लाने जंगलमें गये हुए थे। क्योंकि अब उनका कुटुम्ब बहुत बढ़ गया था। वे चारेके लिये चिरकालतक जंगलमें चारों ओर विचरते रहे ॥ ६२ ॥ इधर एक बहेलिया घूमता-घूमता संयोगवश उनके घोंसलेकी ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसलेके आस-पास कबूतरके बच्चे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया ॥ ६३ ॥ कबूतर-कबूतरी बच्चोंको खिलाने-पिलानेके लिये हर समय उत्सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घोंसलेके पास आये ॥ ६४ ॥ कबूतरीने देखा कि उसके नन्हें-नन्हें बच्चे, उनके हृदयके टुकड़े जालमें फँसे हुए हैं और दु:खसे चें-चें कर रहे हैं। उन्हें ऐसी स्थितिमें देखकर कबूतरीके दु:खकी सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी ॥ ६५ ॥ भगवान्‌की मायासे उसका चित्त अत्यन्त दीन-दुखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेहकी रस्सीसे जकड़ी हुई थी; अपने बच्चोंको जालमें फँसा देखकर उसे अपने शरीरकी भी सुध- बुध न रही। और वह स्वयं ही जाकर जालमें फँस गयी ॥ ६६ ॥ जब कबूतरने देखा कि मेरे प्राणोंसे भी प्यारे बच्चे जालमें फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशामें पहुँच गयी, तब वह अत्यन्त दु:खित होकर विलाप करने लगा। सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी ॥ ६७ ॥ ‘मैं अभागा हूँ, दुर्मति हूँ। हाय, हाय ! मेरा तो सत्यानाश हो गया। देखो, देखो, न मुझे अभी तृप्ति हुई और न मेरी आशाएँ ही पूरी हुर्ईं। तबतक मेरा धर्म, अर्थ और कामका मूल यह गृहस्थाश्रम ही नष्ट हो गया ॥ ६८ ॥ हाय ! मेरी प्राणप्यारी मुझे ही अपना इष्टदेव समझती थी; मेरी एक-एक बात मानती थी, मेरे इशारेपर नाचती थी, सब तरहसे मेरे योग्य थी। आज वह मुझे सूने घरमें छोडक़र हमारे सीधे-सादे निश्छल बच्चोंके साथ स्वर्ग सिधार रही है ॥ ६९ ॥ मेरे बच्चे मर गये। मेरी पत्नी जाती रही। मेरा अब संसारमें क्या काम है ? मुझ दीनका यह विधुर जीवन— बिना गृहिणीका जीवन जलन का—व्यथा  का जीवन है। अब मैं इस सूने घरमें किसके लिये जीऊँ ? ॥ ७० ॥ राजन् ! कबूतर के बच्चे जाल में फँसकर तडफ़ड़ा रहे थे, स्पष्ट दीख रहा था कि वे मौत के पंजेमें हैं, परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान- बूझकर जालमें कूद पड़ा ॥ ७१ ॥ राजन् ! वह बहेलिया बड़ा क्रूर था। गृहस्थाश्रमी कबूतर-कबूतरी और उनके बच्चोंके मिल जानेसे उसे बड़ी प्रसन्नता हुई; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें लेकर चलता बना ॥ ७२ ॥ जो कुटुम्बी है विषयों और लोगोंके सङ्ग-साथमें ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण   में ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा है, उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुम्ब के साथ कष्ट पाता है ॥ ७३ ॥ यह मनुष्य-शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतरकी तरह अपनी घरगृहस्थी में ही फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचेतक चढक़र गिर रहा है। शास्त्र की भाषा में वह ‘आरूढ़च्युत’ है ॥ ७४ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...