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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
एकादश स्कन्ध—
बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
तत्त्वों की संख्या और
पुरुष-प्रकृति-विवेक
श्रीउद्धव
उवाच
कति
तत्त्वानि विश्वेश सङ्ख्यातान्यृषिभिः प्रभो
नवैकादश
पञ्च त्रीण्यात्थ त्वमिह शुश्रुम १
केचित्षड्विंशतिं
प्राहुरपरे पञ्चविंशतिं
सप्तैके
नव षट्केचिच्चत्वार्येकादशापरे
केचित्सप्तदश
प्राहुः षोडशैके त्रयोदश २
एतावत्त्वं
हि सङ्ख्यानामृषयो यद्विवक्षया
गायन्ति
पृथगायुष्मन्निदं नो वक्तुमर्हसि ३
श्रीभगवानुवाच
युक्तं
च सन्ति सर्वत्र भाषन्ते ब्राह्मणा यथा
मायां
मदीयामुद्गृह्य वदतां किं नु दुर्घटम् ४
नैतदेवं
यथात्थ त्वं यदहं वच्मि तत्तथा
एवं
विवदतां हेतुं शक्तयो मे दुरत्ययाः ५
यासां
व्यतिकरादासीद्विकल्पो वदतां पदम्
प्राप्ते
शमदमेऽप्येति वादस्तमनु शाम्यति ६
परस्परानुप्रवेशात्तत्त्वानां
पुरुषर्षभ
पौर्वापर्यप्रसङ्ख्यानं
यथा वक्तुर्विवक्षितम् ७
एकस्मिन्नपि
दृश्यन्ते प्रविष्टानीतराणि च
पूर्वस्मिन्वा
परस्मिन्वा तत्त्वे तत्त्वानि सर्वशः ८
पौर्वापर्यमतोऽमीषां
प्रसङ्ख्यानमभीप्सताम्
यथा
विविक्तं यद्वक्त्रं गृह्णीमो युक्तिसम्भवात् ९
अनाद्यविद्यायुक्तस्य
पुरुषस्यात्मवेदनम्
स्वतो
न सम्भवादन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत् १०
पुरुषेश्वरयोरत्र
न वैलक्षण्यमण्वपि
तदन्यकल्पनापार्था
ज्ञानं च प्रकृतेर्गुणः ११
प्रकृतिर्गुणसाम्यं
वै प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः
सत्त्वं
रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः १२
सत्त्वं
ज्ञानं रजः कर्म तमोऽज्ञानमिहोच्यते
गुणव्यतिकरः
कालः स्वभावः सूत्रमेव च १३
उद्धवजीने कहा—प्रभो ! विश्वेश्वर !
ऋषियोंने तत्त्वोंकी संख्या कितनी बतलायी है?
आपने तो अभी (उन्नीसवें अध्याय में) नौ,
ग्यारह, पाँच और तीन अर्थात् कुल अट्ठाईस तत्त्व गिनाये हैं। यह तो हम सुन
चुके हैं ॥ १ ॥ किन्तु कुछ लोग छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं तो कुछ पचीस; कोई सात, नौ अथवा छ: स्वीकार करते हैं,
कोई चार बतलाते हैं तो कोई ग्यारह ॥ २ ॥ इसी प्रकार
किन्हीं-किन्हीं ऋषि-मुनियोंके मतमें उनकी संख्या सत्रह है, कोई सोलह और कोई तेरह बतलाते हैं। सनातन श्रीकृष्ण ! ऋषि-मुनि इतनी
भिन्न संख्याएँ किस अभिप्रायसे बतलाते हैं ?
आप कृपा करके हमें बतलाइये ॥ ३ ॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी !
वेदज्ञ ब्राह्मण इस विषयमें जो कुछ कहते हैं,
वह सभी ठीक है; क्योंकि सभी तत्त्व सबमें अन्तर्भूत हैं। मेरी मायाको स्वीकार करके
क्या कहना असम्भव है ? ॥
४ ॥ ‘जैसा तुम कहते हो, वह ठीक नहीं है, जो मैं कहता हूँ, वही यथार्थ है’—इस प्रकार जगत् के कारणके सम्बन्धमें विवाद इसलिये
होता है कि मेरी शक्तियों—सत्त्व, रज आदि गुणों और उनकी वृत्तियोंका रहस्य लोग समझ नहीं पाते; इसलिये वे अपनी-अपनी मनोवृत्तिपर ही आग्रह कर बैठते हैं ॥ ५ ॥
सत्त्व आदि गुणोंके क्षोभसे ही यह विविध कल्पनारूप प्रपञ्च—जो वस्तु नहीं केवल नाम
है—उठ खड़ा हुआ है। यही वाद-विवाद करनेवालोंके विवादका विषय है। जब इन्द्रियाँ
अपने वशमें हो जाती हैं तथा चित्त शान्त हो जाता है,
तब यह प्रपञ्च भी निवृत्त हो जाता है और उसकी निवृत्तिके साथ ही
सारे वाद-विवाद भी मिट जाते हैं ॥ ६ ॥ पुरुषशिरोमणे ! तत्त्वोंका एक-दूसरेमें
अनुप्रवेश है, इसलिये वक्ता तत्त्वोंकी जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारणको कार्यमें अथवा कार्यको कारणमें मिलाकर अपनी
इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है ॥ ७ ॥ ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्वमें
बहुत-से दूसरे तत्त्वोंका अन्तर्भाव हो गया है। इसका कोई बन्धन नहीं है कि किसका
किसमें अन्तर्भाव हो। कभी घट-पट आदि कार्य वस्तुओंका उनके कारण मिट्टी-सूत आदिमें, तो कभी मिट्टी-सूत आदिका घट-पट आदि कार्योंमें अन्तर्भाव हो जाता
है ॥ ८ ॥ इसलिये वादी-प्रतिवादियोंमेंसे जिसकी वाणीने जिस कार्यको जिस कारणमें
अथवा जिस कारणको जिस कार्यमें अन्तर्भूत करके तत्त्वोंकी जितनी संख्या स्वीकार की
है, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते हैं;
क्योंकि उनका वह उपपादन युक्तिसङ्गत ही है ॥ ९ ॥
उद्धवजी
! जिन लोगोंने छब्बीस संख्या स्वीकार की है,
वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि कालसे अविद्यासे ग्रस्त हो रहा है।
वह स्वयं अपने-आपको नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान करानेके लिये किसी अन्य
सर्वज्ञकी आवश्यकता है। (इसलिये प्रकृतिके कार्यकारणरूप चौबीस तत्त्व, पचीसवाँ पुरुष और छब्बीसवाँ ईश्वर—इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व
स्वीकार करने चाहिये) ॥ १० ॥ पचीस तत्त्व माननेवाले कहते हैं कि इस शरीरमें जीव और
ईश्वरका अणुमात्र भी अन्तर या भेद नहीं है,
इसलिये उनमें भेदकी कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञानकी बात, सो तो सत्त्वात्मिका प्रकृतिका गुण है ॥ ११ ॥ तीनों गुणोंकी
साम्यावस्था ही प्रकृति है; इसलिये सत्त्व, रज आदि गुण आत्माके नहीं, प्रकृतिके ही हैं। इन्हींके द्वारा जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं। इसलिये ज्ञान आत्माका गुण नहीं, प्रकृतिका ही गुण सिद्ध होता है ॥ १२ ॥ इस प्रसङ्गमें सत्त्वगुण ही
ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है और गुणोंमें
क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ईश्वर ही काल है और सूत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव
है। (इसलिये पचीस और छब्बीस तत्त्वोंकी—दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है) ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
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