शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

तत्त्वों की संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक

 

श्रीउद्धव उवाच

कति तत्त्वानि विश्वेश सङ्ख्यातान्यृषिभिः प्रभो

नवैकादश पञ्च त्रीण्यात्थ त्वमिह शुश्रुम १

केचित्षड्विंशतिं प्राहुरपरे पञ्चविंशतिं

सप्तैके नव षट्केचिच्चत्वार्येकादशापरे

केचित्सप्तदश प्राहुः षोडशैके त्रयोदश २

एतावत्त्वं हि सङ्ख्यानामृषयो यद्विवक्षया

गायन्ति पृथगायुष्मन्निदं नो वक्तुमर्हसि ३

 

श्रीभगवानुवाच

युक्तं च सन्ति सर्वत्र भाषन्ते ब्राह्मणा यथा

मायां मदीयामुद्गृह्य वदतां किं नु दुर्घटम् ४

नैतदेवं यथात्थ त्वं यदहं वच्मि तत्तथा

एवं विवदतां हेतुं शक्तयो मे दुरत्ययाः ५

यासां व्यतिकरादासीद्विकल्पो वदतां पदम्

प्राप्ते शमदमेऽप्येति वादस्तमनु शाम्यति ६

परस्परानुप्रवेशात्तत्त्वानां पुरुषर्षभ

पौर्वापर्यप्रसङ्ख्यानं यथा वक्तुर्विवक्षितम् ७

एकस्मिन्नपि दृश्यन्ते प्रविष्टानीतराणि च

पूर्वस्मिन्वा परस्मिन्वा तत्त्वे तत्त्वानि सर्वशः ८

पौर्वापर्यमतोऽमीषां प्रसङ्ख्यानमभीप्सताम्

यथा विविक्तं यद्वक्त्रं गृह्णीमो युक्तिसम्भवात् ९

अनाद्यविद्यायुक्तस्य पुरुषस्यात्मवेदनम्

स्वतो न सम्भवादन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत् १०

पुरुषेश्वरयोरत्र न वैलक्षण्यमण्वपि

तदन्यकल्पनापार्था ज्ञानं च प्रकृतेर्गुणः ११

प्रकृतिर्गुणसाम्यं वै प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः

सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः १२

सत्त्वं ज्ञानं रजः कर्म तमोऽज्ञानमिहोच्यते

गुणव्यतिकरः कालः स्वभावः सूत्रमेव च १३

 

उद्धवजीने कहा—प्रभो ! विश्वेश्वर ! ऋषियोंने तत्त्वोंकी संख्या कितनी बतलायी है? आपने तो अभी (उन्नीसवें अध्याय में) नौ, ग्यारह, पाँच और तीन अर्थात् कुल अट्ठाईस तत्त्व गिनाये हैं। यह तो हम सुन चुके हैं ॥ १ ॥ किन्तु कुछ लोग छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं तो कुछ पचीस; कोई सात, नौ अथवा छ: स्वीकार करते हैं, कोई चार बतलाते हैं तो कोई ग्यारह ॥ २ ॥ इसी प्रकार किन्हीं-किन्हीं ऋषि-मुनियोंके मतमें उनकी संख्या सत्रह है, कोई सोलह और कोई तेरह बतलाते हैं। सनातन श्रीकृष्ण ! ऋषि-मुनि इतनी भिन्न संख्याएँ किस अभिप्रायसे बतलाते हैं ? आप कृपा करके हमें बतलाइये ॥ ३ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी ! वेदज्ञ ब्राह्मण इस विषयमें जो कुछ कहते हैं, वह सभी ठीक है; क्योंकि सभी तत्त्व सबमें अन्तर्भूत हैं। मेरी मायाको स्वीकार करके क्या कहना असम्भव है ? ॥ ४ ॥ ‘जैसा तुम कहते हो, वह ठीक नहीं है, जो मैं कहता हूँ, वही यथार्थ है’—इस प्रकार जगत् के कारणके सम्बन्धमें विवाद इसलिये होता है कि मेरी शक्तियों—सत्त्व, रज आदि गुणों और उनकी वृत्तियोंका रहस्य लोग समझ नहीं पाते; इसलिये वे अपनी-अपनी मनोवृत्तिपर ही आग्रह कर बैठते हैं ॥ ५ ॥ सत्त्व आदि गुणोंके क्षोभसे ही यह विविध कल्पनारूप प्रपञ्च—जो वस्तु नहीं केवल नाम है—उठ खड़ा हुआ है। यही वाद-विवाद करनेवालोंके विवादका विषय है। जब इन्द्रियाँ अपने वशमें हो जाती हैं तथा चित्त शान्त हो जाता है, तब यह प्रपञ्च भी निवृत्त हो जाता है और उसकी निवृत्तिके साथ ही सारे वाद-विवाद भी मिट जाते हैं ॥ ६ ॥ पुरुषशिरोमणे ! तत्त्वोंका एक-दूसरेमें अनुप्रवेश है, इसलिये वक्ता तत्त्वोंकी जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारणको कार्यमें अथवा कार्यको कारणमें मिलाकर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है ॥ ७ ॥ ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्वमें बहुत-से दूसरे तत्त्वोंका अन्तर्भाव हो गया है। इसका कोई बन्धन नहीं है कि किसका किसमें अन्तर्भाव हो। कभी घट-पट आदि कार्य वस्तुओंका उनके कारण मिट्टी-सूत आदिमें, तो कभी मिट्टी-सूत आदिका घट-पट आदि कार्योंमें अन्तर्भाव हो जाता है ॥ ८ ॥ इसलिये वादी-प्रतिवादियोंमेंसे जिसकी वाणीने जिस कार्यको जिस कारणमें अथवा जिस कारणको जिस कार्यमें अन्तर्भूत करके तत्त्वोंकी जितनी संख्या स्वीकार की है, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते हैं; क्योंकि उनका वह उपपादन युक्तिसङ्गत ही है ॥ ९ ॥

उद्धवजी ! जिन लोगोंने छब्बीस संख्या स्वीकार की है, वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि कालसे अविद्यासे ग्रस्त हो रहा है। वह स्वयं अपने-आपको नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान करानेके लिये किसी अन्य सर्वज्ञकी आवश्यकता है। (इसलिये प्रकृतिके कार्यकारणरूप चौबीस तत्त्व, पचीसवाँ पुरुष और छब्बीसवाँ ईश्वर—इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व स्वीकार करने चाहिये) ॥ १० ॥ पचीस तत्त्व माननेवाले कहते हैं कि इस शरीरमें जीव और ईश्वरका अणुमात्र भी अन्तर या भेद नहीं है, इसलिये उनमें भेदकी कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञानकी बात, सो तो सत्त्वात्मिका प्रकृतिका गुण है ॥ ११ ॥ तीनों गुणोंकी साम्यावस्था ही प्रकृति है; इसलिये सत्त्व, रज आदि गुण आत्माके नहीं, प्रकृतिके ही हैं। इन्हींके द्वारा जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं। इसलिये ज्ञान आत्माका गुण नहीं, प्रकृतिका ही गुण सिद्ध होता है ॥ १२ ॥ इस प्रसङ्गमें सत्त्वगुण ही ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है और गुणोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ईश्वर ही काल है और सूत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव है। (इसलिये पचीस और छब्बीस तत्त्वोंकी—दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है) ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

गुण-दोष-व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य

 

फलश्रुतिरियं नॄणां न श्रेयो रोचनं परम्

श्रेयोविवक्षया प्रोक्तं यथा भैषज्यरोचनम् २३

उत्पत्त्यैव हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च

आसक्तमनसो मर्त्या आत्मनोऽनर्थहेतुषु २४

न तानविदुषः स्वार्थं भ्राम्यतो वृजिनाध्वनि

कथं युञ्ज्यात्पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुधः २५

एवं व्यवसितं केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः

फलश्रुतिं कुसुमितां न वेदज्ञा वदन्ति हि २६

कामिनः कृपणा लुब्धाः पुष्पेषु फलबुद्धयः

अग्निमुग्धा धूमतान्ताः स्वं लोकं न विदन्ति ते २७

न ते मामङ्ग जानन्ति हृदिस्थं य इदं यतः

उक्थशस्त्रा ह्यसुतृपो यथा नीहारचक्षुषः २८

ते मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः

हिंसायां यदि रागः स्याद्यज्ञ एव न चोदना २९

हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया

यजन्ते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन्खलाः ३०

स्वप्नोपमममुं लोकमसन्तं श्रवणप्रियम्

आशिषो हृदि सङ्कल्प्य त्यजन्त्यर्थान्यथा वणिक् ३१

रजःसत्त्वतमोनिष्ठा रजःसत्त्वतमोजुषः

उपासत इन्द्र मुख्यान्देवादीन्न यथैव माम् ३२

इष्ट्वेह देवता यज्ञैर्गत्वा रंस्यामहे दिवि

तस्यान्त इह भूयास्म महाशाला महाकुलाः ३३

एवं पुष्पितया वाचा व्याक्षिप्तमनसां नृणाम्

मानिनां चातिलुब्धानां मद्वार्तापि न रोचते ३४

वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे

परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियम् ३५

शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम्

अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत् ३६

मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना

भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते ३७

यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात्

आकाशाद्घोषवान्प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा ३८

छन्दोमयोऽमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः

ॐकाराद्व्यञ्जितस्पर्श स्वरोष्मान्तस्थभूषिताम् ३९

विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः

अनन्तपारां बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम् ४०

गायत्र्युष्णिगनुष्टुप्च बृहती पङ्क्तिरेव च

त्रिष्टुब्जगत्यतिच्छन्दो ह्यत्यष्ट्यतिजगद्विराट् ४१

किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्

इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद्वेद कश्चन ४२

मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम्

एतावान्सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्

मायामात्रमनूद्यान्ते प्रतिषिध्य प्रसीदति ४३

 

उद्धवजी ! यह स्वर्गादिरूप फलका वर्णन करनेवाली श्रुति मनुष्योंके लिये उन-उन लोकोंको परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती, परन्तु बहिर्मुख पुरुषोंके लिये अन्त:करणशुद्धिके द्वारा परम कल्याणमय मोक्षकी विवक्षासे ही कर्मोंमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये वैसा वर्णन करती है। जैसे बच्चोंसे औषधिमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये रोचक वाक्य कहे जाते हैं। (बेटा ! प्रेमसे गिलोयका काढ़ा पी लो तो तुम्हारी चोटी बढ़ जायगी) ॥ २३ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि संसारके विषयभोगोंमें, प्राणोंमें और सगे-सम्बन्धियोंमें सभी मनुष्य जन्मसे ही आसक्त हैं और उन वस्तुओंकी आसक्ति उनकी आत्मोन्नतिमें बाधक एवं अनर्थका कारण है ॥ २४ ॥ वे अपने परम पुरुषार्थको नहीं जानते, इसलिये स्वर्गादिका जो वर्णन मिलता है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य है—ऐसा विश्वास करके देवादि योनियोंमें भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियोंके घोर अन्धकारमें आ पड़ते हैं। ऐसी अवस्थामें कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिरसे उन्हें उन्हीं विषयोंमें क्यों प्रवृत्त करेगा ? ॥ २५ ॥ दुर्बुद्धिलोग (कर्मवादी) वेदोंका यह अभिप्राय न समझकर कर्मासक्तिवश पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकोंका वर्णन देखते हैं और उन्हींको परम फल मानकर भटक जाते हैं। परन्तु वेदवेत्ता लोग श्रुतियोंका ऐसा तात्पर्य नहीं बतलाते ॥ २६ ॥ विषय-वासनाओंमें फँसे हुए दीन-हीन, लोभी पुरुष रंग-बिरंगे पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकों को ही सब कुछ समझ बैठते हैं, अग्नि के द्वारा सिद्ध होनेवाले यज्ञ-यागादि कर्मोंमें ही मुग्ध हो जाते हैं। उन्हें अन्त  में देवलोक, पितृलोक आदि की ही प्राप्ति होती है। दूसरी ओर भटक जाने  के कारण उन्हें अपने निजधाम आत्मपद का पता नहीं लगता ॥ २७ ॥ प्यारे उद्धव ! उनके पास साधना है तो केवल कर्मकी और उसका कोई फल है तो इन्द्रियोंकी तृप्ति। उनकी आँखें धुँधली हो गयी हैं; इसीसे वे यह बात नहीं जानते कि जिससे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है, जो स्वयं इस जगत् के रूपमें है, वह परमात्मा मैं उनके हृदयमें ही हूँ ॥ २८ ॥ यदि हिंसा और उसके फल मांस-भक्षण में राग ही हो, उसका त्याग न किया जा सकता हो, तो यज्ञमें ही करे— यह परिसंख्या विधि है, स्वाभाविक प्रवृत्तिका संकोच है, सन्ध्यावन्दनादि के समान अपूर्व विधि नहीं है। इस प्रकार मेरे परोक्ष अभिप्रायको न जानकर विषयलोलुप पुरुष हिंसा का खिलवाड़ खेलते हैं और दुष्टतावश अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये वध किये हुए पशुओं के मांस से यज्ञ करके देवता, पितर तथा भूतपतियों के यजन का ढोंग करते हैं ॥२९-३०॥

उद्धवजी ! स्वर्गादि परलोक स्वप्न के दृश्योंके समान हैं, वास्तवमें वे असत् हैं, केवल उनकी बातें सुननेमें बहुत मीठी लगती हैं। सकाम पुरुष वहाँके भोगोंके लिये मन-ही-मन अनेकों प्रकारके संकल्प कर लेते हैं और जैसे व्यापारी अधिक लाभकी आशासे मूलधनको भी खो बैठता है, वैसे ही वे सकाम यज्ञोंद्वारा अपने धनका नाश करते हैं ॥ ३१ ॥ वे स्वयं रजोगुण, सत्त्वगुण या तमोगुणमें स्थित रहते हैं और रजोगुणी, सत्त्वगुणी अथवा तमोगुणी इन्द्रादि देवताओंकी उपासना करते हैं। वे उन्हीं सामग्रियोंसे उतने ही परिश्रमसे मेरी पूजा नहीं करते ॥ ३२ ॥ वे जब इस प्रकारकी पुष्पिता वाणी—रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें सुनते हैं कि ‘हमलोग इस लोकमें यज्ञोंके द्वारा देवताओंका यजन करके स्वर्गमें जायँगे और वहाँ दिव्य आनन्द भोगेंगे, उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा, तब हम बड़े कुलीन परिवारमें पैदा होंगे, हमारे बड़े-बड़े महल होंगे और हमारा कुटुम्ब बहुत सुखी और बहुत बड़ा होगा’ तब उनका चित्त क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जतानेवाले घमंडियोंको मेरे सम्बन्धकी बातचीत भी अच्छी नहीं लगती ॥ ३३-३४ ॥

उद्धवजी ! वेदोंमें तीन काण्ड हैं—कर्म, उपासना और ज्ञान। इन तीनों काण्डोंके द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्माकी एकता; सभी मन्त्र और मन्त्रद्रष्टा ऋषि इस विषयको खोलकर नहीं, गुप्तभावसे बतलाते हैं और मुझे भी इस बातको गुप्तरूपसे कहना ही अभीष्ट है[*] ॥ ३५ ॥ वेदोंका नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूर्ति हैं, इसीसे उनका रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है। वह शब्दब्रह्म परा, पश्यन्ती और मध्यमा वाणीके रूपमें प्राण, मन और इन्द्रियमय है। समुद्रके समान सीमारहित और गहरा है। उसकी थाह लगाना अत्यन्त कठिन है। (इसीसे जैमिनि आदि बड़े- बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्यका ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते) ॥ ३६ ॥ उद्धव ! मैं अनन्तशक्ति- सम्पन्न एवं स्वयं अनन्त ब्रह्म हूँ। मैंने ही वेदवाणीका विस्तार किया है। जैसे कमलनालमें पतला-सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियोंके अन्त:करणमें अनाहतनादके रूपमें प्रकट होती है ॥ ३७ ॥ भगवान्‌ हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं। उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्दके द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई है। जैसे मकड़ी अपने हृदयसे मुखद्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णोंका संकल्प करनेवाले मनरूप निमित्त-कारणके द्वारा हृदयाकाशसे अनन्त अपार अनेकों मार्गोंवाली वैखरीरूप वेदवाणीको स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते है। वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकारके द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-२५), स्वर ( ‘अ’ से ‘औ’ तक-९), ऊष्मा (श, , , ह) और अन्त:स्थ (य, , , व)—इन वर्णोंसे विभूषित है। उसमें ऐसे छन्द हैं, जिनमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषाके रूपमें वह विस्तृत हुई है ॥ ३८—४० ॥ (चार-चार अधिक वर्णोंवाले छन्दोंमेंसे कुछ ये हैं—) गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिच्छन्द, अत्यष्टि, अतिजगती और विराट् ॥ ४१ ॥ वह वेदवाणी कर्मकाण्डमें क्या विधान करती है, उपासनाकाण्डमें किन देवताओंका वर्णन करती है और ज्ञानकाण्डमें किन प्रतीतियोंका अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकारके विकल्प करती है—इन बातोंको इस सम्बन्धमें श्रुतिके रहस्यको मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ॥ ४२ ॥ मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी श्रुतियाँ कर्मकाण्डमें मेरा ही विधान करती हैं। उपासना काण्डमें उपास्य देवताओंके रूपमें वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञान- काण्डमें आकाशादिरूपसे मुझमें ही अन्य वस्तुओंका आरोप करके उनका निषेध कर देती हैं। सम्पूर्ण श्रुतियोंका बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेदका आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्तमें सबका निषेध करके मुझमें ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठानरूपसे मैं ही शेष रह जाता हूँ ॥ ४३ ॥

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[*] क्योंकि सब लोग इसके अधिकारी नहीं हैं, अन्त:करण शुद्ध होने  पर ही यह बात समझ में आती है।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

एकादश स्कन्ध— इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गुण-दोष-व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य

 

श्रीभगवानुवाच

य एतान्मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान्

क्षुद्रान्कामांश्चलैः प्राणैर्जुषन्तः संसरन्ति ते १

स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः

विपर्ययस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः २

शुद्ध्यशुद्धी विधीयेते समानेष्वपि वस्तुषु

द्रव्यस्य विचिकित्सार्थं गुणदोषौ शुभाशुभौ

धर्मार्थं व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चानघ ३

दर्शितोऽयं मयाचारोधर्ममुद्वहतां धुरम् ४

भूम्यम्ब्वग्न्यनिलाकाशा भूतानां पञ्चधातवः

आब्रह्मस्थावरादीनां शारीरा आत्मसंयुताः ५

वेदेन नामरूपाणि विषमाणि समेष्वपि

धातुषूद्धव कल्प्यन्त एतेषां स्वार्थसिद्धये ६

देशकालादिभावानां वस्तूनां मम सत्तम

गुणदोषौ विधीयेते नियमार्थं हि कर्मणाम् ७

अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योऽशुचिर्भवेत्

कृष्णसारोऽप्यसौवीर कीकटासंस्कृतेरिणम् ८

कर्मण्यो गुणवान्कालो द्रव्यतः स्वत एव वा

यतो निवर्तते कर्म स दोषोऽकर्मकः स्मृतः ९

द्रव्यस्य शुद्ध्यशुद्धी च द्रव्येण वचनेन च

संस्कारेणाथ कालेन महत्वाल्पतयाथ वा १०

शक्त्याशक्त्याथ वा बुद्ध्या समृद्ध्या च यदात्मने

अघं कुर्वन्ति हि यथा देशावस्थानुसारतः ११

धान्यदार्वस्थितन्तूनां रसतैजसचर्मणाम्

कालवाय्वग्निमृत्तोयैः पार्थिवानां युतायुतैः १२

अमेध्यलिप्तं यद्येन गन्धलेपं व्यपोहति

भजते प्रकृतिं तस्य तच्छौचं तावदिष्यते १३

स्नानदानतपोऽवस्था वीर्यसंस्कारकर्मभिः

मत्स्मृत्या चात्मनः शौचं शुद्धः कर्माचरेद्द्विजः १४

मन्त्रस्य च परिज्ञानं कर्मशुद्धिर्मदर्पणम्

धर्मः सम्पद्यते षड्भिरधर्मस्तु विपर्ययः १५

क्वचिद्गुणोऽपि दोषः स्याद्दोषोऽपि विधिना गुणः

गुणदोषार्थनियमस्तद्भिदामेव बाधते १६

समानकर्माचरणं पतितानां न पातकम्

औत्पत्तिको गुणः सङ्गो न शयानः पतत्यधः १७

यतो यतो निवर्तेत विमुच्येत ततस्ततः

एष धर्मो नृणां क्षेमः शोकमोहभयापहः १८

विषयेषु गुणाध्यासात्पुंसः सङ्गस्ततो भवेत्

सङ्गात्तत्र भवेत्कामः कामादेव कलिर्नृणाम् १९

कलेर्दुर्विषहः क्रोधस्तमस्तमनुवर्तते

तमसा ग्रस्यते पुंसश्चेतना व्यापिनी द्रुतम् २०

तया विरहितः साधो जन्तुः शून्याय कल्पते

ततोऽस्य स्वार्थविभ्रंशो मूर्च्छितस्य मृतस्य च २१

विषयाभिनिवेशेन नात्मानं वेद नापरम्

वृक्ष जीविकया जीवन्व्यर्थं भस्त्रेव यः श्वसन् २२

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव ! मेरी प्राप्तिके तीन मार्ग हैं—भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग। जो इन्हें छोडक़र चञ्चल इन्द्रियोंके द्वारा क्षुद्र भोग भोगते रहते हैं, वे बार-बार जन्म- मृत्युरूप संसारके चक्करमें भटकते रहते हैं ॥ १ ॥ अपने-अपने अधिकारके अनुसार धर्ममें दृढ़ निष्ठा रखना ही गुण कहा गया है और इसके विपरीत अनधिकार चेष्टा करना दोष है। तात्पर्य यह कि गुण और दोष दोनोंकी व्यवस्था अधिकारके अनुसार की जाती है, किसी वस्तुके अनुसार नहीं ॥ २ ॥ वस्तुओंके समान होनेपर भी शुद्धि-अशुद्धि, गुण-दोष और शुभ-अशुभ आदिका जो विधान किया जाता है, उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थका ठीक-ठीक निरीक्षण-परीक्षण हो सके और उनमें सन्देह उत्पन्न करके ही यह योग्य है कि अयोग्य, स्वाभाविक प्रवृत्तिको नियन्ङ्क्षत्रत— संकुचित किया जा सके ॥ ३ ॥ उनके द्वारा धर्म-सम्पादन कर सके, समाजका व्यवहार ठीक-ठीक चला सके और अपने व्यक्तिगत जीवनके निर्वाहमें भी सुविधा हो। इससे यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासनामूलक सहज प्रवृत्तियोंके द्वारा इनके जालमें न फँसकर शास्त्रानुसार अपने जीवनको नियन्त्रित और मनको वशीभूत कर लेता है। निष्पाप उद्धव ! यह आचार मैंने ही मनु आदिका रूप धारण करके धर्मका भार ढोनेवाले कर्मजडोंके लिये उपदेश किया है ॥ ४ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश—ये पञ्चभूत ही ब्रह्मासे लेकर पर्वत-वृक्षपर्यन्त सभी प्राणियोंके शरीरोंके मूलकारण हैं। इस तरह वे सब शरीरकी दृष्टिसे तो समान हैं ही, सबका आत्मा भी एक ही है ॥ ५ ॥ प्रिय उद्धव ! यद्यपि सबके शरीरोंके पञ्चभूत समान हैं; फिर भी वेदोंने इनके वर्णाश्रम आदि अलग- अलग नाम और रूप इसलिये बना दिये हैं कि ये अपनी वासना-मूलक प्रवृत्तियोंको संकुचित करके—नियन्त्रित करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंको सिद्ध कर सकें ॥ ६ ॥ साधुश्रेष्ठ ! देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओंके गुण-दोषोंका विधान भी मेरे द्वारा इसीलिये किया गया है कि कर्मोंमें लोगोंकी उच्छृङ्खल प्रवृत्ति न हो, मर्यादाका भङ्ग न होने पावे ॥ ७ ॥ देशोंमें वह देश अपवित्र है, जिसमें कृष्णसार मृग न हों और जिसके निवासी ब्राह्मणभक्त न हों। कृष्णसार मृगके होनेपर भी, केवल उन प्रदेशोंको छोडक़र जहाँ संत पुरुष रहते हैं, कीकट देश अपवित्र ही है। संस्काररहित और ऊसर आदि स्थान भी अपवित्र ही होते हैं ॥ ८ ॥ समय वही पवित्र है, जिसमें कर्म करनेयोग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म भी हो सके। जिसमें कर्म करनेकी सामग्री न मिले आगन्तुक दोषोंसे अथवा स्वाभाविक दोषके कारण जिसमें कर्म ही न हो सके, वह समय अशुद्ध है ॥ ९ ॥ पदार्थोंकी शुद्धि और अशुद्धि द्रव्य, वचन, संस्कार, काल, महत्त्व अथवा अल्पत्वसे भी होती है। (जैसे कोई पात्र जलसे शुद्ध और मूत्रादिसे अशुद्ध हो जाता है। किसी वस्तुकी शुद्धि अथवा अशुद्धिमें शंका होनेपर ब्राह्मणोंके वचनसे वह शुद्ध हो जाती है अन्यथा अशुद्ध रहती है। पुष्पादि जल छिडक़नेसे शुद्ध और सूँघने से अशुद्ध माने जाते हैं। तत्कालका पकाया हुआ अन्न शुद्ध और बासी अशुद्ध माना जाता है। बड़े सरोवर और नदी आदिका जल शुद्ध और छोटे गड्ढोंका अशुद्ध माना जाता है। इस प्रकार क्रमसे समझ लेना चाहिये।) ॥ १० ॥ शक्ति, अशक्ति, बुद्धि और वैभवके अनुसार भी पवित्रता और अपवित्रताकी व्यवस्था होती है। उसमें भी स्थान और उपयोग करनेवालेकी आयुका विचार करते हुए ही अशुद्ध वस्तुओंके व्यवहारका दोष ठीक तरहसे आँका जाता है। (जैसे धनी-दरिद्र, बलवान्-निर्बल, बुद्धिमान्-मूर्ख, उपद्रवपूर्ण और सुखद देश तथा तरुण एवं वृद्धावस्थाके भेदसे शुद्धि और अशुद्धिकी व्यवस्थामें अन्तर पड़ जाता है।) ॥ ११ ॥ अनाज, लकड़ी, हाथीदाँत आदि हड्डी, सूत, मधु, नमक, तेल, घी आदि रस, सोना- पारा आदि तैजस पदार्थ, चाम और घड़ा आदि मिट्टीके बने पदार्थ समयपर अपने-आप हवा लगनेसे, आगमें जलानेसे, मिट्टी लगानेसे अथवा जलमें धोनेसे शुद्ध हो जाते हैं। देश, काल और अवस्थाके अनुसार कहीं जल-मिट्टी आदि शोधक सामग्रीके संयोगसे शुद्धि करनी पड़ती है तो कहीं-कहीं एक-एकसे भी शुद्धि हो जाती है ॥ १२ ॥ यदि किसी वस्तुमें कोई अशुद्ध पदार्थ लग गया हो तो छीलनेसे या मिट्टी आदि मलनेसे जब उस पदार्थकी गन्ध और लेप न रहे और वह वस्तु अपने पूर्वरूपमें आ जाय, तब उसको शुद्ध समझना चाहिये ॥ १३ ॥ स्नान, दान, तपस्या, वय, सामथ्र्य, संस्कार, कर्म और मेरे स्मरणसे चित्तकी शुद्धि होती है। इनके द्वारा शुद्ध होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको विहित कर्मोंका आचरण करना चाहिये ॥ १४ ॥ गुरुमुखसे सुनकर भलीभाँति हृदयङ्गम कर लेनेसे मन्त्रकी और मुझे समर्पित कर देनेसे कर्मकी शुद्धि होती है। उद्धवजी ! इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म—इन छहोंके शुद्ध होनेसे धर्म और अशुद्ध होनेसे अधर्म होता है ॥ १५ ॥ कहीं-कहीं शास्त्रविधिसे गुण दोष हो जाता है और दोष गुण। (जैसे ब्राह्मणके लिये सन्ध्या-वन्दन, गायत्री-जप आदि गुण हैं; परन्तु शूद्रके लिये दोष हैं। और दूध आदिका व्यापार वैश्यके लिये विहित है; परन्तु ब्राह्मणके लिये अत्यन्त निषिद्ध है।) एक ही वस्तुके विषयमें किसीके लिये गुण और किसीके लिये दोषका विधान गुण और दोषोंकी वास्तविकताका खण्डन कर देता है और इससे यह निश्चय होता है कि गुण-दोषका यह भेद कल्पित है ॥ १६ ॥ जो लोग पतित हैं, वे पतितोंका-सा आचरण करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता, जब कि श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये वह सर्वथा त्याज्य होता है। जैसे गृहस्थोंके लिये स्वाभाविक होनेके कारण अपनी पत्नीका सङ्ग पाप नहीं है; परन्तु संन्यासीके लिये घोर पाप है। उद्धवजी ! बात तो यह है कि जो नीचे सोया हुआ है, वह गिरेगा कहाँ ? वैसे ही जो पहलेसे ही पतित हैं, उनका अब और पतन क्या होगा ? ॥ १७ ॥ जिन-जिन दोषों और गुणोंसे मनुष्यका चित्त उपरत हो जाता है, उन्हीं वस्तुओंके बन्धनसे वह मुक्त हो जाता है। मनुष्योंके लिये यह निवृत्तिरूप धर्म ही परम कल्याणका साधन है; क्योंकि यही शोक, मोह और भयको मिटानेवाला है ॥ १८ ॥

उद्धवजी ! विषयोंमें कहीं भी गुणोंका आरोप करनेसे उस वस्तुके प्रति आसक्ति हो जाती है। आसक्ति होनेसे उसे अपने पास रखनेकी कामना हो जाती है और इस कामनाकी पूर्तिमें किसी प्रकारकी बाधा पडऩेपर लोगोंमें परस्पर कलह होने लगता है ॥ १९ ॥ कलहसे असह्य क्रोधकी उत्पत्ति होती है और क्रोधके समय अपने हित-अहितका बोध नहीं रहता, अज्ञान छा जाता है। इस अज्ञानसे शीघ्र ही मनुष्यकी कार्याकार्यका निर्णय करने-वाली व्यापक चेतनाशक्ति लुप्त हो जाती है ॥ २० ॥ साधो ! चेतनाशक्ति अर्थात् स्मृतिके लुप्त हो जानेपर मनुष्यमें मनुष्यता नहीं रह जाती, पशुता आ जाती है और वह शून्यके समान अस्तित्वहीन हो जाता है। अब उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसे कोई मूचर्छित या मुर्दा हो। ऐसी स्थितिमें न तो उसका स्वार्थ बनता है और न तो परमार्थ ॥ २१ ॥ विषयोंका चिन्तन करते-करते वह विषयरूप हो जाता है। उसका जीवन वृक्षोंके समान जड हो जाता है। उसके शरीरमें उसी प्रकार व्यर्थ श्वास चलता रहता है, जैसे लुहारकी धौंकनीकी हवा। उसे न अपना ज्ञान रहता है और न किसी दूसरेका। वह सर्वथा आत्मवञ्चित हो जाता है ॥ २२ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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