शनिवार, 17 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– तीसरा अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धतीसरा अध्याय (पोस्ट०१)

 

राज्य, युगधर्म और कलियुग के दोषों से बचने का उपाय—नामसङ्कीर्तन

 

श्रीशुक उवाच

दृष्ट्वाऽऽत्मनि जये व्यग्रान् नृपान् हसति भूरियम् ।

अहो मा विजिगीषन्ति मृत्योः क्रीडनका नृपाः ॥ १ ॥

काम एष नरेन्द्राणां मोघः स्याद् विदुषामपि ।

येन फेनोपमे पिण्डे येऽतिविश्रम्भिता नृपाः ॥ २ ॥

पूर्वं निर्जित्य षड्वर्गं जेष्यामो राजमंत्रिणः ।

ततः सचिवपौराप्त करीन्द्रानस्य कण्टकान् ॥ ३ ॥

एवं क्रमेण जेष्यामः पृथ्वीं सागरमेखलाम् ।

इति आशाबद्ध हृदया न पश्यन्ति अन्तिकेऽन्तकम् ॥ ४ ॥

समुद्रावरणां जित्वा मां विशन्त्यब्धिमोजसा ।

कियदात्मजयस्यैतन् मुक्तिरात्मजये फलम् ॥ ५ ॥

यां विसृज्यैव मनवः तत्सुताश्च कुरूद्वह ।

गता यथागतं युद्धे तां मां जेष्यन्त्यबुद्धयः ॥ ६ ॥

मत्कृते पितृपुत्राणां भ्रातृणां चापि विग्रहः ।

जायते ह्यसतां राज्ये ममता-बद्धचेतसाम् ॥

ममैवेयं मही कृत्स्ना न ते मूढेति वादिनः ।

स्पर्धमाना मिथो घ्नन्ति म्रियन्ते मत्कृते नृपाः ॥ ८ ॥

पृथुः पुरूरवा गाधिः नहुषो भरतोऽर्जुनः ।

मान्धाता सगरो रामः खट्वाङ्‌गो धुन्धुहा रघुः ॥ ९ ॥

तृणबिन्दुर्ययातिश्च शर्यातिः शन्तनुर्गयः ।

भगीरथः कुवलयाश्वः ककुत्स्थो नैषधो नृगः ॥ १० ॥

हिरण्यकशिपुर्वृत्रो रावणो लोकरावणः ।

नमुचिः शंबरो भौमो हिरण्याक्षोऽथ तारकः ॥ ११ ॥

अन्ये च बहवो दैत्या राजानो ये महेश्वराः ।

सर्वे सर्वविदः शूराः सर्वे सर्वजितोऽजिताः ॥ १२ ॥

ममतां मय्यवर्तन्त कृत्वोच्चैर्मर्त्यधर्मिणः ।

कथावशेषाः कालेन ह्यकृतार्थाः कृता विभो ॥ १३ ॥

कथा इमास्ते कथिता महीयसां

     विताय लोकेषु यशः परेयुषाम् ।

 विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभो

     वचोविभूतीर्न तु पारमार्थ्यम् ॥ १४ ॥

यस्तु उत्तमश्लोकगुणानुवादः

     संगीगीयतेऽभीक्ष्णममंगगलघ्नः ।

 तमेव नित्यं श्रृणुयादभीक्ष्णं

     कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समानः ॥ १५ ॥

 

 श्रीराजोवाच -

 केनोपायेन भगवन् कलेर्दोषान् कलौ जनाः ।

 विधमिष्यन्ति उपचितान् तन्मे ब्रूहि यथा मुने ॥ १६ ॥

 युगानि युगधर्मांश्च मानं प्रलयकल्पयोः ।

 कालस्येश्वररूपस्य गतिं विष्णोर्महात्मनः ॥ १७ ॥

 

 श्रीशुक उवाच -

 कृते प्रवर्तते धर्मः चतुष्पात् तज्जनैर्धृतः ।

 सत्यं दया तपो दानं इति पादा विभोर्नृप ॥ १८ ॥

 सन्तुष्टाः करुणा मैत्राः शान्ता दान्ताः तितिक्षवः ।

 आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः ॥ १९ ॥

 त्रेतायां धर्मपादानां तुर्यांशो हीयते शनैः ।

 अधर्मपादैः अनृत हिंसासंतोषविग्रहैः ॥ २० ॥

 तदा क्रियातपोनिष्ठा नातिहिंस्रा न लंपटाः ।

 त्रैवर्गिकास्त्रयीवृद्धा वर्णा ब्रह्मोत्तरा नृप ॥ २१ ॥

 तपःसत्यदयादानेषु अर्धं ह्रस्वति द्वापरे ।

 हिंसातुष्ट्यनृतद्वेषैः धर्मस्य-अधर्मलक्षणैः ॥ २२

 यशस्विनो महाशीलाः स्वाध्यायाध्ययने रताः ।

 आढ्याः कुटुम्बिनो हृष्टा वर्णाः क्षत्रद्विजोत्तराः ॥ २ ॥

 कलौ तु धर्महेतूनां तुर्यांशोऽधर्महेतुभिः ।

 एधमानैः क्षीयमाणो ह्यन्ते सोऽपि विनङ्‌क्ष्यति ॥ २४ ॥

 तस्मिन् लुब्धा दुराचारा निर्दयाः शुष्कवैरिणः ।

 दुर्भगा भूरितर्षाश्च शूद्रदासोत्तराः प्रजाः ॥ २५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! जब पृथ्वी देखती है कि राजा लोग मुझपर विजय प्राप्त करनेके लिये उतावले हो रहे है, तब वह हँसने लगती है और कहती है—‘‘कितने आश्चर्यकी बात है कि ये राजा लोग, जो स्वयं मौतके खिलौने हैं, मुझे जीतना चाहते हैं ॥ १ ॥ राजाओंसे यह बात छिपी नहीं है कि वे एक-न-एक दिन मर जायँगे, फिर भी वे व्र्यथमें ही मुझे जीतनेकी कामना करते हैं। सचमुच इस कामनासे अंधे होनेके कारण ही वे पानीके बुलबुलेके समान क्षणभङ्गुर शरीरपर विश्वास कर बैठते हैं और धोखा खाते हैं ॥ २ ॥ वे सोचते हैं कि ‘हम पहले मनके सहित अपनी पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करेंगे—अपने भीतरी शत्रुओंको वशमें करेंगे; क्योंकि इनको जीते बिना बाहरी शत्रुओंको जीतना कठिन है। उसके बाद अपने शत्रुके मन्ङ्क्षत्रयों, अमात्यों, नागरिकों, नेताओं और समस्त सेनाको भी वशमें कर लेंगे। जो भी हमारे विजय-मार्गमें काँटे बोयेगा, उसे हम अवश्य जीत लेंगे ॥ ३ ॥ इस प्रकार धीरे-धीरे क्रमसे सारी पृथ्वी हमारे अधीन हो जायगी और फिर तो समुद्र ही हमारे राज्यकी खार्ईंका काम करेगा।’ इस प्रकार वे अपने मनमें अनेकों आशाएँ बाँध लेते हैं और उन्हें यह बात बिलकुल नहीं सूझती कि उनके सिरपर काल सवार है ॥ ४ ॥

यहींतक नहीं, जब एक द्वीप उनके वशमें हो जाता है, तब वे दूसरे द्वीपपर विजय करनेके लिये बड़ी शक्ति और उत्साहके साथ समुद्रयात्रा करते हैं। अपने मनको, इन्द्रियोंको वशमें करके लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं, परन्तु ये लोग उनको वशमें करके भी थोड़ा-सा भूभाग ही प्राप्त करते हैं। इतने परिश्रम और आत्मसंयमका यह कितना तुच्छ फल है !’’ ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! पृथ्वी कहती है कि ‘बड़े-बड़े मनु और उनके वीर पुत्र मुझे ज्यों-की-त्यों छोडक़र जहाँसे आये थे, वहीं खाली हाथ लौट गये, मुझे अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूर्ख राजा मुझे युद्धमें जीतकर वशमें करना चाहते हैं ॥ ६ ॥ जिनके चित्तमें यह बात दृढ़ मूल हो गयी है कि यह पृथ्वी मेरी है, उन दुष्टोंके राज्यमें मेरे लिये पिता-पुत्र और भाई-भाई भी आपसमें लड़ बैठते हैं ॥ ७ ॥ वे परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि ‘ओ मूढ़ ! यह सारी पृथ्वी मेरी ही है, तेरी नहीं’, इस प्रकार राजालोग एक-दूसरेको कहते-सुनते हैं, एक-दूसरेसे स्पर्धा करते हैं, मेरे लिये एक-दूसरेको मारते हैं और स्वयं मर मिटते हैं ॥ ८ ॥ पृथु, पुरूरवा, गाधि, नहुष, भरत, सहस्रबाहु, अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खट्वाङ्ग, धुन्धुमार, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलयाश्व, ककुत्स्थ, नल, नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर, लोकद्रोही रावण, नमुचि, शम्बर, भौमासुर, हिरण्याक्ष और तारकासुर तथा और बहुत-से दैत्य एवं शक्तिशाली नरपति हो गये। ये सब लोग सब कुछ समझते थे, शूर थे, सभीने दिग्विजयमें दूसरोंको हरा दिया; किन्तु दूसरे लोग इन्हें न जीत सके, परन्तु सब-के-सब मृत्युके ग्रास बन गये। राजन् ! उन्होंने अपने पूरे अन्त:करणसे मुझसे ममता की और समझा कि ‘यह पृथ्वी मेरी है’। परन्तु विकराल कालने उनकी लालसा पूरी न होने दी। अब उनके बल-पौरुष और शरीर आदिका कुछ पता ही नहीं है। केवल उनकी कहानी मात्र शेष रह गयी है ॥ ९—१३ ॥

परीक्षित्‌ ! संसारमें बड़े-बड़े प्रतापी और महान् पुरुष हुए हैं। वे लोकोंमें अपने यशका विस्तार करके यहाँसे चल बसे। मैंने तुम्हें ज्ञान और वैराग्यका उपदेश करनेके लिये ही उनकी कथा सुनायी है। यह सब वाणीका विलास मात्र है। इसमें पारमार्थिक सत्य कुछ भी नहीं है ॥ १४ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णका गुणानुवाद समस्त अमङ्गलोंका नाश करनेवाला है, बड़े-बड़े महात्मा उसीका गान करते रहते हैं। जो भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्य प्रेममयी भक्तिकी लालसा रखता हो, उसे नित्य-निरन्तर भगवान्‌के दिव्य गुणानुवादका ही श्रवण करते रहना चाहिये ॥ १५ ॥

राजा परीक्षित्‌ने पूछा—भगवन् ! मुझे तो कलियुगमें राशि-राशि दोष ही दिखायी दे रहे हैं। उस समय लोग किस उपायसे उन दोषोंका नाश करेंगे। इसके अतिरिक्त युगोंका स्वरूप, उनके धर्म, कल्पकी स्थिति और प्रलयकालके मान एवं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान्‌के कालरूपका भी यथावत् वर्णन कीजिये ॥ १६-१७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! सत्ययुगमें धर्मके चार चरण होते हैं; वे चरण हैं—सत्य, दया, तप और दान। उस समयके लोग पूरी निष्ठाके साथ अपने-अपने धर्मका पालन करते हैं। धर्म स्वयं भगवान्‌का स्वरूप है ॥ १८ ॥ सत्ययुगके लोग बड़े सन्तोषी और दयालु होते हैं। वे सबसे मित्रताका व्यवहार करते और शान्त रहते हैं। इन्द्रियाँ और मन उनके वशमें रहते हैं और सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंको वे समान भावसे सहन करते हैं। अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्माराम होते हैं और बाकी लोग स्वरूपस्थितिके लिये अभ्यासमें तत्पर रहते हैं ॥ १९ ॥ परीक्षित्‌ ! धर्मके समान अधर्मके भी चार चरण हैं—असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह। त्रेतायुगमें इनके प्रभावसे धीरे-धीरे धर्मके सत्य आदि चरणोंका चतुर्थांश क्षीण हो जाता है ॥ २० ॥ राजन् ! उस समय वर्णोंमें ब्राह्मणोंकी प्रधानता अक्षुण्ण रहती है। लोगोंमें अत्यन्त हिंसा और लम्पटताका अभाव रहता है। सभी लोग कर्मकाण्ड और तपस्यामें निष्ठा रखते हैं और अर्थ, धर्म एवं कामरूप त्रिवर्गका सेवन करते हैं। अधिकांश लोग कर्मप्रतिपादक वेदोंके पारदर्शी विद्वान् होते हैं ॥ २१ ॥ द्वापरयुगमें हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष—अधर्मके इन चरणोंकी वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्मके चारों चरण—तपस्या, सत्य, दया और दान आधे-आधे क्षीण हो जाते हैं ॥ २२ ॥ उस समयके लोग बड़े यशस्वी, कर्मकाण्डी और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े तत्पर होते हैं। लोगोंके कुटुम्ब बड़े-बड़े होते हैं, प्राय: लोग धनाढ्य एवं सुखी होते हैं। उस समय वर्णोंमें क्षत्रिय और ब्राह्मण दो वर्णोंकी प्रधानता रहती है ॥ २३ ॥ कलियुगमें तो अधर्मके चारों चरण अत्यन्त बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्मके चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश ही बच रहता है। अन्तमें तो उस चतुर्थांशका भी लोप हो जाता है ॥ २४ ॥ कलियुगमें लोग लोभी, दुराचारी और कठोरहृदय होते हैं। वे झूठमूठ एक-दूसरेसे वैर मोल ले लेते हैं, एवं लालसा-तृष्णाकी तरङ्गोंमें बहते रहते हैं। उस समयके अभागे लोगोंमें शूद्र, केवट आदिकी ही प्रधानता रहती है ॥ २५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– दूसरा अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धदूसरा अध्याय (पोस्ट०२)

 

कलियुग के धर्म

 

अथ तेषां भविष्यन्ति मनांसि विशदानि वै ।

 वासुदेवाङ्‌गरागाति पुण्यगंधानिलस्पृशाम् ।

 पौरजानपदानां वै हतेष्वखिलदस्युषु ॥ २१ ॥

 तेषां प्रजाविसर्गश्च स्थविष्ठः संभविष्यति ।

 वासुदेवे भगवति सत्त्वमूर्तौ हृदि स्थिते ॥ २२ ॥

 यदावतीर्णो भगवान् कल्किर्धर्मपतिर्हरिः ।

 कृतं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्च सात्त्विकी ॥ २३ ॥

 यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती ।

 एकराशौ समेष्यन्ति भविष्यति तदा कृतम् ॥ २४ ॥

 येऽतीता वर्तमाना ये भविष्यन्ति च पार्थिवाः ।

 ते ते उद्देशतः प्रोक्ता वंशीयाः सोमसूर्ययोः ॥ २५ ॥

 आरभ्य भवतो जन्म यावत् नन्दाभिषेचनम् ।

 एतद् वर्षसहस्रं तु शतं पञ्चदशोत्तरम् ॥ २६ ॥

 सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते उदितौ दिवि ।

 तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत्समं निशि ॥ २७ ॥

 तेनैव ऋषयो युक्ताः तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम् ।

 ते त्वदीये द्विजाः काले अधुना चाश्रिता मघाः ॥ २८ ॥

 विष्णोर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसौ दिवं गतः ।

 तदाविशत् कलिर्लोकं पापे यद् रमते जनः ॥ २९ ॥

 यावत् स पादपद्माभ्यां स्पृशनास्ते रमापतिः ।

 तावत् कलिर्वै पृथिवीं पराक्रान्तुं न चाशकत् ॥ ३० ॥

 यदा देवर्षयः सप्त मघासु विचरन्ति हि ।

 तदा प्रवृत्तस्तु कलिः द्वादशाब्द शतात्मकः ॥ ३१ ॥

 यदा मघाभ्यो यास्यन्ति पूर्वाषाढां महर्षयः ।

 तदा नन्दात् प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिं गमिष्यति ॥ ३२ ॥

 यस्मिन् कृष्णो दिवं यातः तस्मिन् एव तदाहनि ।

 प्रतिपन्नं कलियुगं इति प्राहुः पुराविदः ॥ ३३ ॥

 दिव्याब्दानां सहस्रान्ते चतुर्थे तु पुनः कृतम् ।

 भविष्यति तदा नॄणां मन आत्मप्रकाशकम् ॥ ३४ ॥

 इत्येष मानवो वंशो यथा सङ्‌ख्यायते भुवि ।

 तथा विट्शूद्रविप्राणां तास्ता ज्ञेया युगे युगे ॥ ३५ ॥

 एतेषां नामलिङ्‌गानां पुरुषाणां महात्मनाम् ।

 कथामात्रावशिष्टानां कीर्तिरेव स्थिता भुवि ॥ ३६ ॥

 देवापिः शान्तनोर्भ्राता मरुश्चेक्ष्वाकुवंशजः ।

 कलापग्राम आसाते महायोगबलान्वितौ ॥ ३७ ॥

 ताविहैत्य कलेरन्ते वासुदेवानुशिक्षितौ ।

 वर्णाश्रमयुतं धर्मं पूर्ववत् प्रथयिष्यतः ॥ ३८ ॥

 कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।

 अनेन क्रमयोगेन भुवि प्राणिषु वर्तते ॥ ३९ ॥

 राजन् एते मया प्रोक्ता नरदेवास्तथापरे ।

 भूमौ ममत्वं कृत्वान्ते हित्वेमां निधनं गताः ॥ ४० ॥

 कृमिविड् भस्मसंज्ञान्ते राजनाम्नोऽपि यस्य च ।

 भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः ॥ ४१ ॥

 कथं सेयमखण्डा भूः पूर्वैर्मे पुरुषैर्धृता ।

 मत्पुत्रस्य च पौत्रस्य मत्पूर्वा वंशजस्य वा ॥ ४२ ॥

 तेजोऽबन्नमयं कायं गृहीत्वाऽऽत्मतयाबुधाः ।

 महीं ममतया चोभौ हित्वान्तेऽदर्शनं गताः ॥ ४३ ॥

 ये ये भूपतयो राजन् भुंजते भुवमोजसा ।

 कालेन ते कृताः सर्वे कथामात्राः कथासु च ॥ ४४ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! जब सब डाकुओंका संहार हो चुकेगा, तब नगरकी और देशकी सारी प्रजाका हृदय पवित्रतासे भर जायगा; क्योंकि भगवान्‌ कल्किके शरीरमें लगे हुए अङ्गरागका स्पर्श पाकर अत्यन्त पवित्र हुई वायु उनका स्पर्श करेगी और इस प्रकार वे भगवान्‌के श्रीविग्रहकी दिव्य गन्ध प्राप्त कर सकेंगे ॥ २१ ॥ उनके पवित्र हृदयोंमें सत्त्वमूर्ति भगवान्‌ वासुदेव विराजमान होंगे और फिर उनकी सन्तान पहलेकी भाँति हृष्ट-पुष्ट और बलवान् होने लगेगी ॥ २२ ॥ प्रजाके नयन-मनोहारी हरि ही धर्मके रक्षक और स्वामी हैं। वे ही भगवान्‌ जब कल्किके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ हो जायगा और प्रजाकी सन्तान-परम्परा स्वयं ही सत्त्वगुणसे युक्त हो जायगी ॥ २३ ॥ जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्रके प्रथम पलमें प्रवेश करते हैं, एक राशिपर आते हैं, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ होता है ॥ २४ ॥

परीक्षित्‌ ! चन्द्रवंश और सूर्यवंशमें जितने राजा हो गये हैं या होंगे, उन सबका मैंने संक्षेपसे वर्णन कर दिया ॥ २५ ॥ तुम्हारे जन्मसे लेकर राजा नन्दके अभिषेकतक एक हजार एक सौ पंद्रह वर्षका समय लगेगा ॥ २६ ॥ जिस समय आकाशमें सप्तर्षियोंका उदय होता है, उस समय पहले उनमेंसे दो ही तारे दिखायी पड़ते हैं। उनके बीचमें दक्षिणोत्तर रेखापर समभागमें अश्विनी आदि नक्षत्रोंमेंसे एक नक्षत्र दिखायी पड़ता है ॥ २७ ॥ उस नक्षत्रके साथ सप्तर्षिगण मनुष्योंकी गणनासे सौ वर्षतक रहते हैं। वे तुम्हारे जन्मके समय और इस समय भी मघा नक्षत्रपर स्थित हैं ॥ २८ ॥

स्वयं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ ही शुद्ध सत्त्वमय विग्रहके साथ श्रीकृष्णके रूपमें प्रकट हुए थे। वे जिस समय अपनी लीला संवरण करके परमधामको पधार गये, उसी समय कलियुगने संसारमें प्रवेश किया। उसीके कारण मनुष्योंकी मति-गति पापकी ओर ढुलक गयी ॥ २९ ॥ जबतक लक्ष्मीपति भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीका स्पर्श करते रहे, तबतक कलियुग पृथ्वीपर अपना पैर न जमा सका ॥ ३० ॥ परीक्षित्‌ ! जिस समय सप्तर्षि मघा-नक्षत्रपर विचरण करते रहते हैं, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ होता है। कलियुगकी आयु देवताओंकी वर्षगणनासे बारह सौ वर्षोंकी अर्थात् मनुष्योंकी गणनाके अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्षकी है ॥ ३१ ॥ जिस समय सप्तर्षि मघासे चलकर पूर्वाषाढ़ा-नक्षत्रमें जा चुके होंगे, उस समय राजा नन्दका राज्य रहेगा। तभीसे कलियुगकी वृद्धि शुरू होगी ॥ ३२ ॥ पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंका कहना है कि जिस दिन भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने परम-धामको प्रयाण किया, उसी दिन, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ हो गया ॥ ३३ ॥ परीक्षित्‌ ! जब देवताओंकी वर्षगणनाके अनुसार एक हजार वर्ष बीत चुकेंगे, तब कलियुगके अन्तिम दिनोंमें फिरसे कल्किभगवान्‌की कृपासे मनुष्योंके मनमें सात्त्विकताका सञ्चार होगा, लोग अपने वास्तविक स्वरूपको जान सकेंगे और तभीसे सत्ययुगका प्रारम्भ भी होगा ॥ ३४ ॥

परीक्षित्‌ ! मैंने तो तुमसे केवल मनुवंशका, सो भी संक्षेपसे वर्णन किया है। जैसे मनुवंशकी गणना होती है, वैसे ही प्रत्येक युगमें ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रोंकी भी वंशपरम्परा समझनी चाहिये ॥ ३५ ॥ राजन् ! जिन पुरुषों और महात्माओंका वर्णन मैंने तुमसे किया है, अब केवल नामसे ही उनकी पहचान होती है। अब वे नहीं हैं, केवल उनकी कथा रह गयी है। अब उनकी कीर्ति ही पृथ्वीपर जहाँ-तहाँ सुननेको मिलती है ॥ ३६ ॥ भीष्मपितामहके पिता राजा शन्तनुके भाई देवापि और इक्ष्वाकुवंशी मरु इस समय कलाप-ग्राममें स्थित हैं। वे बहुत बड़े योगबलसे युक्त हैं ॥ ३७ ॥ कलियुगके अन्तमें कल्किभगवान्‌की आज्ञासे वे फिर यहाँ आयँगे और पहलेकी भाँति ही वर्णाश्रमधर्मका विस्तार करेंगे ॥ ३८ ॥ सत्ययुग, त्रेता द्वापर और कलियुग—ये ही चार युग हैं; ये पूर्वोक्त क्रमके अनुसार अपने-अपने समयमें पृथ्वीके प्राणियोंपर अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! मैंने तुमसे जिन राजाओंका वर्णन किया है, वे सब और उनके अतिरिक्त दूसरे राजा भी इस पृथ्वीको ‘मेरी-मेरी’ करते रहे, परन्तु अन्तमें मरकर धूलमें मिल गये ॥ ४० ॥ इस शरीरको भले ही कोई राजा कह ले; परन्तु अन्तमें यह कीड़ा, विष्ठा अथवा राखके रूपमें ही परिणत होगा, राख ही होकर रहेगा। इसी शरीरके या इसके सम्बन्धियोंके लिये जो किसी भी प्राणीको सताता है, वह न तो अपना स्वार्थ जानता है और न तो परमार्थ। क्योंकि प्राणियोंको सताना तो नरकका द्वार है ॥ ४१ ॥ वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे दादा-परदादा इस अखण्ड भूमण्डलका शासन करते थे; अब यह मेरे अधीन किस प्रकार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज किस प्रकार इसका उपभोग करें ॥ ४२ ॥ वे मूर्ख इस आग, पानी और मिट्टीके शरीरको अपना आपा मान बैठते हैं और बड़े अभिमानके साथ डींग हाँकते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। अन्तमें वे शरीर और पृथ्वी दोनोंको छोडक़र स्वयं ही अदृश्य हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! जो-जो नरपति बड़े उत्साह और बल-पौरुषसे इस पृथ्वीके उपभोगमें लगे रहे, उन सबको कालने अपने विकराल गालमें धर दबाया। अब केवल इतिहासमें उनकी कहानी ही शेष रह गयी है ॥ ४४ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– दूसरा अध्याय (पोस्ट०१)


 


 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धदूसरा अध्याय (पोस्ट०१)

 

कलियुग के धर्म

 

श्रीशुक उवाच

ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया ।

 कालेन बलिना राजन् नङ्‌क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः ॥ १ ॥

 वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः ।

 धर्मन्याय व्यवस्थायां कारणं बलमेव हि ॥ २ ॥

 दाम्पत्येऽभिरुचिर्हेतुः मायैव व्यावहारिके ।

 स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिः विप्रत्वे सूत्रमेव हि ॥ ३ ॥

 लिङ्‌गं एवाश्रमख्यातौ अन्योन्यापत्ति कारणम् ।

 अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वचः ॥ ४ ॥

 अनाढ्यतैव असाधुत्वे साधुत्वे दंभ एव तु ।

 स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम् ॥ ५ ॥

 दूरे वार्ययनं तीर्थं लावण्यं केशधारणम् ।

 उदरंभरता स्वार्थः सत्यत्वे धार्ष्ट्यमेव हि ॥ ६ ॥

 दाक्ष्यं कुटुंबभरणं यशोऽर्थे धर्मसेवनम् ।

 एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिः आकीर्णे क्षितिमण्डले ॥ ७ ॥

 ब्रह्मविट्क्षत्रशूद्राणां यो बली भविता नृपः ।

 प्रजा हि लुब्धै राजन्यैः निर्घृणैः दस्युधर्मभिः ॥ ८ ॥

 आच्छिन्नदारद्रविणा यास्यन्ति गिरिकाननम् ।

 शाकमूलामिषक्षौद्र फलपुष्पाष्टिभोजनाः ॥ ९ ॥

 अनावृष्ट्या विनङ्‌क्ष्यन्ति दुर्भिक्षकरपीडिताः

 शीतवातातपप्रावृड् हिमैरन्योन्यतः प्रजाः ॥ १० ॥

 क्षुत्तृड्भ्यां व्याधिभिश्चैव संतप्स्यन्ते च चिन्तया ।

 त्रिंशद्विंशति वर्षाणि परमायुः कलौ नृणाम् ॥ ११ ॥

 क्षीयमाणेषु देहेषु देहिनां कलिदोषतः ।

 वर्णाश्रमवतां धर्मे नष्टे वेदपथे नृणाम् ॥ १२ ॥

 पाषण्डप्रचुरे धर्मे दस्युप्रायेषु राजसु ।

 चौर्यानृतवृथाहिंसा नानावृत्तिषु वै नृषु ॥ १३ ॥

 शूद्रप्रायेषु वर्णेषु च्छागप्रायासु धेनुषु ।

 गृहप्रायेष्वाश्रमेषु यौनप्रायेषु बन्धुषु ॥ १४ ॥

 अणुप्रायास्वोषधीषु शमीप्रायेषु स्थास्नुषु ।

 विद्युत्प्रायेषु मेघेषु शून्यप्रायेषु सद्मसु ॥ १५ ॥

 इत्थं कलौ गतप्राये जनेतु खरधर्मिणि ।

 धर्मत्राणाय सत्त्वेन भगवान् अवतरिष्यति ॥ १६ ॥

 चराचर गुरोर्विष्णोः ईश्वरस्याखिलात्मनः ।

 धर्मत्राणाय साधूनां जन्म कर्मापनुत्तये ॥ १७ ॥

 संभलग्राम मुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः ।

 भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति ॥ १८ ॥

 अश्वं आशुगमारुह्य देवदत्तं जगत्पतिः ।

 असिनासाधुदमनं अष्टैश्वर्य गुणान्वितः ॥ १९ ॥

 विचरन् आशुना क्षौण्यां हयेनाप्रतिमद्युतिः ।

 नृपलिङ्‌गच्छदो दस्यून् कोटिशो निहनिष्यति ॥ २० ॥

 

कहते हैं—परीक्षित्‌ ! समय बड़ा बलवान् है; ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्तिका लोप होता जायगा ॥ १ ॥ कलियुग में जिसके पास धन होगा, उसीको लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथमें शक्ति होगी वही धर्म और न्यायकी व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा ॥ २ ॥ विवाह-सम्बन्धके लिये कुल-शील-योग्यता आदिकी परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवतीकी पारस्परिक रुचिसे ही सम्बन्ध हो जायगा। व्यवहारकी निपुणता, सच्चाई और ईमानदारीमें नहीं रहेगी; जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहारकुशल माना जायगा। स्त्री और पुरुषकी श्रेष्ठताका आधार उनका शील-संयम न होकर केवल रतिकौशल ही रहेगा। ब्राह्मणकी पहचान उसके गुण-स्वभावसे नहीं यज्ञोपवीतसे हुआ करेगी ॥ ३ ॥ वस्त्र, दण्ड- कमण्डलु आदिसे ही ब्रह्मचारी, संन्यासी आदि आश्रमियोंकी पहचान होगी और एक-दूसरेका चिह्न स्वीकार कर लेना ही एकसे दूसरे आश्रममें प्रवेशका स्वरूप होगा। जो घूस देने या धन खर्च करनेमें असमर्थ होगा, उसे अदालतोंसे ठीक-ठीक न्याय न मिल सकेगा। जो बोल-चालमें जितना चालाक होगा, उसे उतना ही बड़ा पण्डित माना जायगा ॥ ४ ॥ असाधुताकी—दोषी होनेकी एक ही पहचान रहेगी—गरीब होना। जो जितना अधिक दम्भ-पाखण्ड कर सकेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु समझा जायगा। विवाहके लिये एक-दूसरेकी स्वीकृति ही पर्याप्त होगी, शास्त्रीय विधि-विधानकी— संस्कार आदिकी कोई आवश्यकता न समझी जायगी। बाल आदि सँवारकर कपड़े-लत्तेसे लैस हो जाना ही स्नान समझा जायगा ॥ ५ ॥ लोग दूरके तालाबको तीर्थ मानेंगे और निकटके तीर्थ गङ्गा- गोमती, माता-पिता आदिकी उपेक्षा करेंगे। सिरपर बड़े-बड़े बाल—काकुल रखाना ही शारीरिक सौन्दर्यका चिह्न समझा जायगा और जीवनका सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा—अपना पेट भर लेना। जो जितनी ढिठाईसे बात कर सकेगा, उसे उतना ही सच्चा समझा जायगा ॥ ६ ॥ योग्यता चतुराईका सबसे बड़ा लक्षण यह होगा कि मनुष्य अपने कुटुम्बका पालन कर ले। धर्मका सेवन यशके लिये किया जायगा। इस प्रकार जब सारी पृथ्वीपर दुष्टोंका बोलबाला हो जायगा, तब राजा होनेका कोई नियम न रहेगा; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रोंमें जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा। उस समयके नीच राजा अत्यन्त निर्दय एवं क्रूर होंगे; लोभी तो इतने होंगे कि उनमें और लुटेरोंमें कोई अन्तर न किया जा सकेगा। वे प्रजाकी पूँजी एवं पत्नियोंतकको छीन लेंगे। उनसे डरकर प्रजा पहाड़ों और जंगलोंमें भाग जायगी। उस समय प्रजा तरह-तरहके शाक, कन्द-मूल, मांस, मधु, फल-फूल और बीज-गुठली आदि खा-खाकर अपना पेट भरेगी ॥ ७—९ ॥ कभी वर्षा न होगी—सूखा पड़ जायगा; तो कभी कर-पर-कर लगाये जायँगे। कभी कड़ाकेकी सर्दी पड़ेगी, तो कभी पाला पड़ेगा, कभी आँधी चलेगी, कभी गरमी पड़ेगी, तो कभी बाढ़ आ जायगी। इन उत्पातोंसे तथा आपसके सङ्घर्षसे प्रजा अत्यन्त पीडि़त होगी, नष्ट हो जायगी ॥ १० ॥ लोग भूख- प्यास तथा नाना प्रकारकी चिन्ताओंसे दुखी रहेंगे। रोगोंसे तो उन्हें छुटकारा ही न मिलेगा। कलियुगमें मनुष्योंकी परमायु केवल बीस या तीस वर्षकी होगी ॥ ११ ॥

परीक्षित्‌ ! कलिकालके दोषसे प्राणियोंके शरीर छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेंगे। वर्ण और आश्रमोंका धर्म बतलानेवाला वेद-मार्ग नष्टप्राय हो जायगा ॥ १२ ॥ धर्ममें पाखण्डकी प्रधानता हो जायगी। राजे-महाराजे डाकू-लुटेरोंके समान हो जायँगे। मनुष्य चोरी, झूठ तथा निरपराध हिंसा आदि नाना प्रकारके कुकर्मोंसे जीविका चलाने लगेंगे ॥ १३ ॥ चारों वर्णोंके लोग शूद्रोंके समान हो जायँगे। गौएँ बकरियोंकी तरह छोटी-छोटी और कम दूध देनेवाली हो जायँगी। वानप्रस्थी और संन्यासी आदि विरक्त आश्रमवाले भी घर-गृहस्थी जुटाकर गृहस्थोंका-सा व्यापार करने लगेंगे। जिनसे वैवाहिक सम्बन्ध है, उन्हींको अपना सम्बन्धी माना जायगा ॥ १४ ॥ धान, जौ, गेहूँ आदि धान्योंके पौधे छोटे-छोटे होने लगेंगे। वृक्षोंमें अधिकांश शमीके समान छोटे और कँटीले वृक्ष ही रह जायँगे। बादलोंमें बिजली तो बहुत चमकेगी, परन्तु वर्षा कम होगी। गृहस्थोंके घर अतिथि-सत्कार या वेदध्वनिसे रहित होनेके कारण अथवा जनसंख्या घट जानेके कारण सूने- सूने हो जायँगे ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! अधिक क्या कहें—कलियुगका अन्त होते-होते मनुष्योंका स्वभाव गधों-जैसा दु:सह बन जायगा, लोग प्राय: गृहस्थीका भार ढोनेवाले और विषयी हो जायँगे। ऐसी स्थितिमें धर्मकी रक्षा करनेके लिये सत्त्वगुण स्वीकार करके स्वयं भगवान्‌ अवतार ग्रहण करेंगे ॥ १६ ॥

प्रिय परीक्षित्‌ ! सर्वव्यापक भगवान्‌ विष्णु सर्वशक्तिमान् हैं। वे सर्वस्वरूप होनेपर भी चराचर जगत्के सच्चे शिक्षक—सद्गुरु हैं। वे साधु—सज्जन पुरुषोंके धर्मकी रक्षाके लिये, उनके कर्मका बन्धन काटकर उन्हें जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेके लिये अवतार ग्रहण करते हैं ॥ १७ ॥ उन दिनों शम्भल-ग्राममें विष्णुयश नामके एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होंगे। उनका हृदय बड़ा उदार एवं भगवद्भक्तिसे पूर्ण होगा। उन्हींके घर कल्किभगवान्‌ अवतार ग्रहण करेंगे ॥ १८ ॥ श्रीभगवान्‌ ही अष्टसिद्धियोंके और समस्त सद्गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। समस्त चराचर जगत्के वे ही रक्षक और स्वामी हैं। वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोड़ेपर सवार होकर दुष्टोंको तलवारके घाट उतारकर ठीक करेंगे ॥ १९ ॥ उनके रोम-रोमसे अतुलनीय तेजकी किरणें छिटकती होंगी। वे अपने शीघ्रगामी घोड़ेसे पृथ्वीपर सर्वत्र विचरण करेंगे और राजाके वेषमें छिपकर रहनेवाले कोटि-कोटि डाकुओंका संहार करेंगे ॥ २० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करणपुस्तककोड 1535 से

 

 

 



गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– पहला अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धपहला अध्याय (पोस्ट०२)

 

कलियुग  के राजवंशों का वर्णन

 

सप्ताभीरा आवभृत्या दश गर्दभिनो नृपाः

कङ्काः षोडश भूपाला भविष्यन्त्यतिलोलुपाः २९

ततोऽष्टौ यवना भाव्याश्चतुर्दश तुरुष्ककाः

भूयो दश गुरुण्डाश्च मौला एकादशैव तु ३०

एते भोक्ष्यन्ति पृथिवीं दश वर्षशतानि च

नवाधिकां च नवतिं मौला एकादश क्षितिम् ३१

भोक्ष्यन्त्यब्दशतान्यङ्ग त्रीणि तैः संस्थिते ततः

किलकिलायां नृपतयो भूतनन्दोऽथ वङ्गिरिः ३२

शिशुनन्दिश्च तद्भ्राता यशोनन्दिः प्रवीरकः

इत्येते वै वर्षशतं भविष्यन्त्यधिकानि षट् ३३

तेषां त्रयोदश सुता भवितारश्च बाह्लिकाः

पुष्पमित्रोऽथ राजन्यो दुर्मित्रोऽस्य तथैव च ३४

एककाला इमे भूपाः सप्तान्ध्राः सप्त कौशलाः

विदूरपतयो भाव्या निषधास्तत एव हि ३५

मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जिः पुरञ्जयः

करिष्यत्यपरो वर्णान्पुलिन्दयदुमद्र कान् ३६

प्रजाश्चाब्रह्मभूयिष्ठाः स्थापयिष्यति दुर्मतिः

वीर्यवान्क्षत्रमुत्साद्य पद्मवत्यां स वै पुरि

अनुगङ्गमाप्रयागं गुप्तां भोक्ष्यति मेदिनीम् ३७

सौराष्ट्रावन्त्याभीराश्च शूरा अर्बुदमालवाः

व्रात्या द्विजा भविष्यन्ति शूद्र प्राया जनाधिपाः ३८

सिन्धोस्तटं चन्द्रभागां कौन्तीं काश्मीरमण्डलम्

भोक्ष्यन्ति शूद्रा व्रात्याद्या म्लेच्छाश्चाब्रह्मवर्चसः ३९

तुल्यकाला इमे राजन्म्लेच्छप्रायाश्च भूभृतः

एतेऽधर्मानृतपराः फल्गुदास्तीव्रमन्यवः ४०

स्त्रीबालगोद्विजघ्नाश्च परदारधनादृताः

उदितास्तमितप्राया अल्पसत्त्वाल्पकायुषः ४१

असंस्कृताः क्रियाहीना रजसा तमसावृताः

प्रजास्ते भक्षयिष्यन्ति म्लेच्छा राजन्यरूपिणः ४२

तन्नाथास्ते जनपदास्तच्छीलाचारवादिनः

अन्योन्यतो राजभिश्च क्षयं यास्यन्ति पीडिताः ४३

 

परीक्षित्‌ ! इसके पश्चात् अवभृति-नगरीके सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कङ्क पृथ्वीका राज्य करेंगे। ये सब-के-सब बड़े लोभी होंगे ॥ २९ ॥ इनके बाद आठ यवन और चौदह तुर्क राज्य करेंगे। इसके बाद दस गुरुण्ड और ग्यारह मौन नरपति होंगे ॥ ३० ॥ मौनोंके अतिरिक्त ये सब एक हजार निन्यानबे वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे। तथा ग्यारह मौन नरपति तीन सौ वर्षतक पृथ्वीका शासन करेंगे। जब उनका राज्यकाल समाप्त हो जायगा, तब किलिकिला नामकी नगरीमें भूतनन्द नामका राजा होगा। भूतनन्दका वङ्गिरि, वङ्गिरिका भाई शिशुनन्दि तथा यशोनन्दि और प्रवीरक—ये एक सौ छ: वर्षतक राज्य करेंगे ॥ ३१—३३ ॥ इनके तेरह पुत्र होंगे और वे सब-के-सब बाह्लिक कहलायेंगे। उनके पश्चात् पुष्पमित्र नामक क्षत्रिय और उसके पुत्र दुॢमत्रका राज्य होगा ॥ ३४ ॥ परीक्षित्‌ ! बाह्लिकवंशी नरपति एक साथ ही विभिन्न प्रदेशोंमें राज्य करेंगे। उनमें सात अन्ध्रदेशके तथा सात ही कोसलदेशके अधिपति होंगे, कुछ विदूर-भूमिके शासक और कुछ निषधदेशके स्वामी होंगे ॥ ३५ ॥

इनके बाद मगध देशका राजा होगा विश्वस्फूर्जि । यह पूर्वोक्त पुरञ्जयके अतिरिक्त द्वितीय पुरञ्जय कहलायेगा। यह ब्राह्मणादि उच्च वर्णोंको पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियोंके रूपमें परिणत कर देगा ॥ ३६ ॥ इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका नाश करके शूद्रप्राय जनताकी रक्षा करेगा। यह अपने बल-वीर्यसे क्षत्रियोंको उजाड़ देगा और पद्मवती पुरीको राजधानी बनाकर हरिद्वारसे लेकर प्रयागपर्यन्त सुरक्षित पृथ्वीका राज्य करेगा ॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालवदेशके ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जायँगे तथा राजालोग भी शूद्रतुल्य हो जायँगे ॥ ३८ ॥ सिन्धुतट, चन्द्रभागाका तटवर्ती प्रदेश, कौन्तीपुरी और काश्मीर- मण्डलपर प्राय: शूद्रोंका, संस्कार एवं ब्रह्मतेजसे हीन नाममात्रके द्विजोंका और म्लेच्छोंका राज्य होगा ॥ ३९ ॥

परीक्षित्‌ ! ये सब-के-सब राजा आचार-विचारमें म्लेच्छप्राय होंगे। ये सब एक ही समय भिन्न-भिन्न प्रान्तोंमें राज्य करेंगे। ये सब-के-सब परले सिरेके झूठे, अधार्मिक और स्वल्प दान करनेवाले होंगे। छोटी-छोटी बातोंको लेकर ही ये क्रोधके मारे आगबबूला हो जाया करेंगे ॥ ४० ॥ ये दुष्ट लोग स्त्री, बच्चों, गौओं, ब्राह्मणोंको मारनेमें भी नहीं हिचकेंगे। दूसरेकी स्त्री और धन हथिया लेनेके लिये ये सर्वदा उत्सुक रहेंगे। न तो इन्हें बढ़ते देर लगेगी और न तो घटते। क्षणमें रुष्ट तो क्षणमें तुष्ट। इनकी शक्ति और आयु थोड़ी होगी ॥ ४१ ॥ इनमें परम्परागत संस्कार नहीं होंगे। ये अपने कर्तव्य-कर्मका पालन नहीं करेंगे। रजोगुण और तमोगुणसे अंधे बने रहेंगे। राजाके वेषमें वे म्लेच्छ ही होंगे। वे लूट-खसोटकर अपनी प्रजाका खून चूसेंगे ॥ ४२ ॥ जब ऐसे लोगोंका शासन होगा, तो देशकी प्रजामें भी वैसे ही स्वभाव, आचरण और भाषणकी वृद्धि हो जायगी। राजालोग तो उनका शोषण करेंगे ही, वे आपसमें भी एक-दूसरेको उत्पीडि़त करेंगे और अन्तत: सब-के-सब नष्ट हो जायँगे ॥ ४३ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...