रविवार, 18 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– चौथा अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धचौथा अध्याय (पोस्ट०२)

 

चार प्रकारके प्रलय

 

 बुद्धेर्जागरणं स्वप्नः सुषुप्तिरिति चोच्यते ।

 मायामात्रमिदं राजन् नानात्वं प्रत्यगात्मनि ॥ २५ ॥

 यथा जलधरा व्योम्नि भवन्ति न भवन्ति च ।

 ब्रह्मणीदं तथा विश्वं अवयव्युदयाप्ययात् ॥ २६ ॥

 सत्यं ह्यवयवः प्रोक्तः सर्वावयविनामिह ।

 विनार्थेन प्रतीयेरन् पटस्येवाङ्‌ग तन्तवः ॥ २७ ॥

 यत्सामान्यविशेषाभ्यां उपलभ्येत स भ्रमः ।

 अन्योन्यापाश्रयात् सर्वं आद्यन्तवदवस्तु यत् ॥ २८ ॥

 विकारः ख्यायमानोऽपि प्रत्यगात्मानमन्तरा ।

 न निरूप्योऽस्त्यणुरपि स्याच्चेच्चित्सम आत्मवत् ॥ २९ ॥

 न हि सत्यस्य नानात्वं अविद्वान्यदि मन्यते ।

 नानात्वं छिद्रयोर्यद्वत् ज्योतिषोर्वातयोरिव ॥ ३० ॥

यथा हिरण्यं बहुधा समीयते

     नृभिः क्रियाभिर्व्यवहारवर्त्मसु ।

 एवं वचोभिर्भगवानधोक्षजो

     व्याख्यायते लौकिकवैदिकैर्जनैः ॥ ३१ ॥

 यथा घनोऽर्कप्रभवोऽर्कदर्शितो

     ह्यर्कांशभूतस्य च चक्षुषस्तमः ।

 एवं त्वहं ब्रह्मगुणस्तदीक्षितो

     ब्रह्मांशकस्यात्मन आत्मबन्धनः ॥ ३२ ॥

 घनो यदार्कप्रभवो विदीर्यते

     चक्षुः स्वरूपं रविमीक्षते तदा ।

 यदा ह्यहङ्‌कार उपाधिरात्मनो

     जिज्ञासया नश्यति तर्ह्यनुस्मरेत् ॥ ३३ ॥

 यदैवमेतेन विवेकहेतिना

     मायामयाहङ्‌करणात्मबन्धनम् ।

 छित्त्वाच्युतात्मानुभवोऽवतिष्ठते

     तमाहुरात्यन्तिकमङ्‌ग सम्प्लवम् ॥ ३४ ॥

नित्यदा सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां परन्तप ।

 उत्पत्तिप्रलयौ एके सूक्ष्मज्ञाः सम्प्रचक्षते ॥ ३५ ॥

 कालस्रोतोजवेनाशु ह्रियमाणस्य नित्यदा ।

 परिणामिनां अवस्थास्ता जन्मप्रलयहेतवः ॥ ३६ ॥

 अनाद्यन्तवतानेन कालेनेश्वरमूर्तिना ।

 अवस्था नैव दृश्यन्ते वियति ज्योतिषां इव ॥ ३७ ॥

 नित्यो नैमित्तिकश्चैव तथा प्राकृतिको लयः ।

 आत्यन्तिकश्च कथितः कालस्य गतिरीदृशी ॥ ३८ ॥

एताः कुरुश्रेष्ठ जगद्विधातुः

     नारायणस्याखिलसत्त्वधाम्नः ।

 लीलाकथास्ते कथिताः समासतः

     कार्त्स्न्येन नाजोऽप्यभिधातुमीशः ॥ ३९ ॥

संसारसिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षोः

     नान्यः प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य ।

 लीलाकथारसनिषेवणमन्तरेण

     पुंसो भवेद्विविधदुःखदवार्दितस्य ॥ ४० ॥

पुराणसंहितामेतां ऋषिर्नारायणोऽव्ययः ।

 नारदाय पुरा प्राह कृष्णद्वैपायनाय सः ॥ ४१ ॥

 स वै मह्यं महाराज भगवान् बादरायणः ।

 इमां भागवतीं प्रीतः संहितां वेदसम्मिताम् ॥ ४२ ॥

 इमां वक्ष्यत्यसौ सूत ऋषिभ्यो नैमिषालये ।

 दीर्घसत्रे कुरुश्रेष्ठ सम्पृष्टः शौनकादिभिः ॥ ४३ ॥

 

परीक्षित्‌ ! जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ बुद्धिकी ही हैं। अत: इनके कारण अन्तरात्मामें जो विश्व, तैजस और प्राज्ञरूप नानात्वकी प्रतीति होती है, वह केवल मायामात्र है। बुद्धिगत नानात्वका एकमात्र सत्य आत्मासे कोई सम्बन्ध नहीं है ॥ २५ ॥ यह विश्व उत्पत्ति और प्रलयसे ग्रस्त है, इसलिये अनेक अवयवोंका समूह अवयवी है। अत: यह कभी ब्रह्ममें होता है और कभी नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे आकाशमें मेघमाला कभी होती है और कभी नहीं होती ॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! जगत्के व्यवहारमें जितने भी अवयवी पदार्थ होते हैं, उनके न होनेपर भी उनके भिन्न-भिन्न अवयव सत्य माने जाते हैं। क्योंकि वे उनके कारण हैं। जैसे वस्त्ररूप अवयवीके न होनेपर भी उसके कारणरूप सूतका अस्तित्व माना ही जाता है, उसी प्रकार कार्यरूप जगत् के अभावमें भी इस जगत् के कारणरूप अवयवकी स्थिति हो सकती है ॥ २७ ॥ परन्तु ब्रह्ममें यह कार्य-कारणभाव भी वास्तविक नहीं है। क्योंकि देखो, कारण तो सामान्य वस्तु है और कार्य विशेष वस्तु। इस प्रकारका जो भेद दिखायी देता है, वह केवल भ्रम ही है। इसका हेतु यह है कि सामान्य और विशेष भाव आपेक्षिक हैं, अन्योन्याश्रित हैं। विशेषके बिना सामान्य और सामान्यके बिना विशेषकी स्थिति नहीं हो सकती। कार्य और कारणभावका आदि और अन्त दोनों ही मिलते हैं, इसलिये भी वह स्वाप्निक भेद-भावके समान सर्वथा अवस्तु है ॥ २८ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि यह प्रपञ्चरूप विकार स्वाप्निक विकारके समान ही प्रतीत हो रहा है, तो भी यह अपने अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूप आत्मासे भिन्न नहीं है। कोई चाहे भी तो आत्मासे भिन्न रूपमें अणुमात्र भी इसका निरूपण नहीं कर सकता। यदि आत्मासे पृथक् इसकी सत्ता मानी भी जाय तो यह भी चिद्रूप आत्माके समान स्वयंप्रकाश होगा, और ऐसी स्थितिमें वह आत्माकी भाँति ही एकरूप सिद्ध होगा ॥ २९ ॥ परन्तु इतना तो सर्वथा निश्चित है कि परमार्थ-सत्य वस्तुमें नानात्व नहीं है। यदि कोई अज्ञानी परमार्थ-सत्य वस्तुमें नानात्व स्वीकार करता है, तो उसका वह मानना वैसा ही है, जैसा महाकाश और घटाकाशका, आकाशस्थित सूर्य और जलमें प्रतिबिम्बित सूर्यका तथा बाह्य वायु और आन्तर वायुका भेद मानना ॥ ३० ॥

जैसे व्यवहारमें मनुष्य एक ही सोनेको अनेकों रूपोंमें गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और वह कंगन, कुण्डल, कड़ा आदि अनेकों रूपोंमें मिलता है; इसी प्रकार व्यवहारमें निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणीके द्वारा इन्द्रियातीत आत्मस्वरूप भगवान्‌का भी अनेकों रूपोंमें वर्णन करते हैं ॥ ३१ ॥ देखो न, बादल सूर्यसे उत्पन्न होता है और सूर्यसे ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्यके ही अंश नेत्रोंके लिये सूर्यका दर्शन होनेमें बाधक बन बैठता है। इसी प्रकार अहङ्कार भी ब्रह्मसे ही उत्पन्न होता, ब्रह्मसे ही प्रकाशित होता और ब्रह्मके अंश जीवके लिये ब्रह्मस्वरूपके साक्षात्कारमें बाधक बन बैठता है ॥ ३२ ॥ जब सूर्यसे प्रकट होनेवाला बादल तितर-बितर हो जाता है, तब नेत्र अपने स्वरूप सूर्यका दर्शन करनेमें समर्थ होते हैं। ठीक वैसे ही, जब जीवके हृदयमें जिज्ञासा जगती है, तब आत्माकी उपाधि अहङ्कार नष्ट हो जाता है और उसे अपने स्वरूपका साक्षात्कार हो जाता है ॥ ३३ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! जब जीव विवेकके खड्गसे मायामय अहङ्कारका बन्धन काट देता है, तब यह अपने एकरस आत्मस्वरूपके साक्षात्कारमें स्थित हो जाता है। आत्माकी यह मायामुक्त वास्तविक स्थिति ही आत्यन्तिक प्रलय कही जाती है ॥ ३४ ॥

हे शत्रुदमन ! तत्त्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक जितने प्राणी या पदार्थ हैं, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात् नित्यरूपसे उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है ॥ ३५ ॥ संसारके परिणामी पदार्थ नदी-प्रवाह और दीप-शिखा आदि क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। उनकी बदलती हुई अवस्थाओंको देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी कालरूप सोतेके वेगमें बहते-बदलते जा रहे हैं। इसलिये क्षण-क्षणमें उनकी उत्पत्ति और प्रलय हो रहा है ॥ ३६ ॥ जैसे आकाशमें तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परन्तु उनकी गति स्पष्टरूपसे नहीं दिखायी पड़ती, वैसे ही भगवान्‌के स्वरूपभूत अनादि-अनन्त कालके कारण प्राणियोंकी प्रतिक्षण होनेवाली उत्पत्ति और प्रलयका भी पता नहीं चलता ॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! मैंने तुमसे चार प्रकारके प्रलयका वर्णन किया; उनके नाम हैं—नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तवमें कालकी सूक्ष्म गति ऐसी ही है ॥ ३८ ॥

हे कुरुश्रेष्ठ ! विश्व-विधाता भगवान्‌ नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियोंके आश्रय हैं। जो कुछ मैंने संक्षेपसे कहा है, वह सब उन्हींकी लीला-कथा है। भगवान्‌की लीलाओंका पूर्ण वर्णन तो स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते ॥ ३९ ॥ जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागरसे पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकारके दु:ख-दावानलसे दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पुषोत्तम भगवान्‌की लीला-कथारूप रसके सेवनके अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौका नहीं है। ये केवल लीला-रसायनका सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं ॥ ४० ॥ जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद्भागवतपुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायणने पहले देवर्षि नारदको सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कृष्णद्वैपायनको ॥ ४१ ॥ महाराज ! उन्हीं बदरीवनविहारी भगवान्‌ श्रीकृष्णद्वैपायनने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य श्रीभागवतसंहिताका उपदेश किया ॥ ४२ ॥ कुरुश्रेष्ठ ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य क्षेत्रमें बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके प्रश्र करनेपर पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी उन लोगोंको इस संहिताका श्रवण करायेंगे ॥ ४३ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– चौथा अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धचौथा अध्याय (पोस्ट०१)

 

चार प्रकारके प्रलय

 

 श्रीशुक उवाच

 कालस्ते परमाण्वादिः द्विपरार्धावधिर्नृप ।

 कथितो युगमानं च श्रृणु कल्पलयावपि ॥ १ ॥

 चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते ।

 स कल्पो यत्र मनवः चतुर्दश विशांपते ॥ २ ॥

 तदन्ते प्रलयस्तावान् ब्राह्मी रात्रिरुदाहृता ।

 त्रयो लोका इमे तत्र कल्पन्ते प्रलयाय हि ॥ ॥

 एष नैमित्तिकः प्रोक्तः प्रलयो यत्र विश्वसृक् ।

 शेतेऽनन्तासनो विश्वं आत्मसात् कृत्य चात्मभूः ॥ ४ ॥

 द्विपरार्धे त्वतिक्रान्ते ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।

 तदा प्रकृतयः सप्त कल्पन्ते प्रलयाय वै ॥ ५ ॥

 एष प्राकृतिको राजन् प्रलयो यत्र लीयते ।

 अण्डकोषस्तु सङ्‌घातो विघाट उपसादिते ॥ ६ ॥

 पर्जन्यः शतवर्षाणि भूमौ राजन्न वर्षति ।

 तदा निरन्ने ह्यन्योन्यं भक्ष्यमाणाः क्षुधार्दिताः ॥ ७ ॥

 क्षयं यास्यन्ति शनकैः कालेनोपद्रुताः प्रजाः ।

 सामुद्रं दैहिकं भौमं रसं सांवर्तको रविः ॥ ८ ॥

 रश्मिभिः पिबते घोरैः सर्वं नैव विमुञ्चति

 ततः संवर्तको वह्निः सङ्‌कर्षणमुखोत्थितः ॥ ९ ॥

 दहत्यनिलवेगोत्थः शून्यान् भूविवरानथ ।

 उपर्यधः समन्ताच्च शिखाभिर्वह्निसूर्ययोः ॥ १० ॥

 दह्यमानं विभात्यण्डं दग्धगोमयपिण्डवत् ।

 ततः प्रचण्डपवनो वर्षाणामधिकं शतम् ॥ ११ ॥

 परः सांवर्तको वाति धूम्रं खं रजसाऽऽवृतम् ।

 ततो मेघकुलान्यङ्‌ग चित्र वर्णान्यनेकशः ॥ १२ ॥

 शतं वर्षाणि वर्षन्ति नदन्ति रभसस्वनैः ।

 तत एकोदकं विश्वं ब्रह्माण्डविवरान्तरम् ॥ १३ ॥

 तदा भूमेर्गन्धगुणं ग्रसन्त्याप उदप्लवे ।

 ग्रस्तगन्धा तु पृथिवी प्रलयत्वाय कल्पते ॥ १४ ॥

 अपां रसमथो तेजः ता लीयन्तेऽथ नीरसाः ।

 ग्रसते तेजसो रूपं वायुस्तद्रहितं तदा ॥ १५ ॥

 लीयते चानिले तेजो वायोः खं ग्रसते गुणम् ।

 स वै विशति खं राजन् ततश्च नभसो गुणम् ॥ १६ ॥

 शब्दं ग्रसति भूतादिः नभस्तमनु लीयते ।

 तैजसश्चेन्द्रियाण्यङ्‌ग देवान्वैकारिको गुणैः ॥ १७ ॥

 महान् ग्रसत्यहङ्‌कारं गुणाः सत्त्वादयश्च तम् ।

 ग्रसतेऽव्याकृतं राजन् गुणान् कालेन चोदितम् ॥ १८ ॥

 न तस्य कालावयवैः परिणामादयो गुणाः ।

 अनाद्यनन्तं अव्यक्तं नित्यं कारणमव्ययम् ॥ १९ ॥

न यत्र वाचो न मनो न सत्त्वं

     तमो रजो वा महदादयोऽमी ।

 न प्राणबुद्धीन्द्रियदेवता वा

     न सन्निवेशः खलु लोककल्पः ॥ २० ॥

 न स्वप्नजाग्रन्न च तत्सुषुप्तं

     न खं जलं भूरनिलोऽग्निरर्कः ।

 संसुप्तवत् शून्यवदप्रतर्क्यं

     तन्मूलभूतं पदमामनन्ति ॥ २१ ॥

 लयः प्राकृतिको ह्येष पुरुषाव्यक्तयोर्यदा ।

 शक्तयः सम्प्रलीयन्ते विवशाः कालविद्रुताः ॥ २२ ॥

 बुद्धीन्द्रियार्थरूपेण ज्ञानं भाति तदाश्रयम् ।

 दृश्यत्वाव्यतिरेकाभ्यां आद्यन्तवदवस्तु यत् ॥ २३ ॥

 दीपश्चक्षुश्च रूपं च ज्योतिषो न पृथग्भवेत् ।

 एवं धीः खानि मात्राश्च न स्युरन्यतमादृतात् ॥ २४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! (तीसरे स्कन्ध में) परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त कालका स्वरूप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षोंका होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूँ। अब तुम कल्पकी स्थिति और उसके प्रलयका वर्णन भी सुनो ॥ १ ॥ राजन् ! एक हजार चतुर्युगीका ब्रह्माका एक दिन होता है। ब्रह्माके इस दिनको ही कल्प भी कहते हैं। एक कल्पमें चौदह मनु होते हैं ॥ २ ॥ कल्पके अन्तमें उतने ही समयतक प्रलय भी रहता है। प्रलयको ही ब्रह्माकी रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उनका प्रलय हो जाता है ॥ ३ ॥ इसका नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलयके अवसरपर सारे विश्वको अपने अंदर समेटकर—लीन कर ब्रह्मा और तत्पश्चात् शेषशायी भगवान्‌ नारायण भी शयन कर जाते हैं ॥ ४ ॥ इस प्रकार रातके बाद दिन और दिनके बाद रात होते-होते जब ब्रह्माजीकी अपने मानसे सौ वर्षकी और मनुष्योंकी दृष्टिमें दो पराद्र्धकी आयु समाप्त हो जाती है, तब महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृतिमें लीन हो जाती हैं ॥ ५ ॥ राजन् ! इसीका नाम प्राकृतिक प्रलय है। इस प्रलयमें प्रलयका कारण उपस्थित होनेपर पञ्चभूतोंके मिश्रणसे बना हुआ ब्रह्माण्ड अपना स्थूल रूप छोडक़र कारणरूपमें स्थित हो जाता है, घुल-मिल जाता है ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! प्रलयका समय आनेपर सौ वर्षतक मेघ पृथ्वीपर वर्षा नहीं करते। किसीको अन्न नहीं मिलता। उस समय प्रजा भूख-प्याससे व्याकुल होकर एक-दूसरेको खाने लगती है ॥ ७ ॥ इस प्रकार कालके उपद्रवसे पीडि़त होकर धीरे-धीरे सारी प्रजा क्षीण हो जाती है। प्रलयकालीन सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समुद्र, प्राणियोंके शरीर और पृथ्वीका सारा रस खींच-खींचकर सोख जाते हैं और फिर उन्हें सदाकी भाँति पृथ्वीपर बरसाते नहीं। उस समय सङ्कर्षण भगवान्‌के मुखसे प्रलयकालीन संवर्तक अग्रि प्रकट होती है ॥ ८-९ ॥ वायुके वेगसे वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आदि सातों नीचेके लोकोंको भस्म कर देती है। वहाँके प्राणी तो पहले ही मर चुके होते हैं नीचेसे आगकी करारी लपटें और ऊपरसे सूर्यकी प्रचण्ड गरमी ! उस समय ऊपर-नीचे, चारों ओर यह ब्रह्माण्ड जलने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबरका उपला जलकर अंगारेके रूपमें दहक रहा हो। इसके बाद प्रलयकालीन अत्यन्त-प्रचण्ड सांवर्तक वायु सैकड़ों वर्षोंतक चलती रहती है। उस समयका आकाश धूएँ और धूलसे तो भरा ही रहता है, उसके बाद असंख्यों रंग-बिरंगे बादल आकाशमें मँडराने लगते हैं और बड़ी भयङ्करताके साथ गरज-गरजकर सैकड़ों वर्षोंतक वर्षा करते रहते हैं। उस समय ब्रह्माण्डके भीतरका सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सब कुछ जलमग्र हो जाता है ॥ १०—१३ ॥

इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वीके विशेष गुण गन्धको ग्रस लेता है— अपनेमें लीन कर लेता है। गन्ध गुणके जलमें लीन हो जानेपर पृथ्वीका प्रलय हो जाता है, वह जलमें घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है ॥ १४ ॥ राजन् ! इसके बाद जलके गुण रसको तेजस्तत्त्व ग्रस लेता है और जल नीरस होकर तेजमें समा जाता है। तदनन्तर वायु तेजके गुण रूपको ग्रस लेता है और तेज रूपरहित होकर वायुमें लीन हो जाता है। अब आकाश वायुके गुण स्पर्शको अपनेमें मिला लेता है और वायु स्पर्शहीन होकर आकाशमें शान्त हो जाता है। इसके बाद तामस अहङ्कार आकाशके गुण शब्दको ग्रस लेता है और आकाश शब्दहीन होकर तामस अहङ्कारमें लीन हो जाता है। इसी प्रकार तैजस अहङ्कार इन्द्रियोंको और वैकारिक (सात्त्विक) अहङ्कार इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवता और इन्द्रियवृत्तियोंको अपनेमें लीन कर लेता है ॥ १५—१७ ॥ तत्पश्चात् महत्तत्त्व अहङ्कारको और सत्त्व आदि गुण महत्तत्त्वको ग्रस लेते हैं। परीक्षित्‌ ! यह सब कालकी महिमा है। उसीकी प्रेरणासे अव्यक्त प्रकृति गुणोंको ग्रस लेती है और तब केवल प्रकृति-ही-प्रकृत शेष रह जाती है ॥ १८ ॥ वही चराचर जगत्का मूल कारण है। वह अव्यक्त, अनादि, अनन्त, नित्य और अविनाशी है। जब वह अपने कार्योंको लीन करके प्रलयके समय साम्यावस्थाको प्राप्त हो जाती है, तब कालके अवयव वर्ष, मास, दिन-रात क्षण आदिके कारण उसमें परिणाम, क्षय, वृद्धि आदि किसी प्रकारके विकार नहीं होते ॥ १९ ॥ उस समय प्रकृतिमें स्थूल अथवा सूक्ष्मरूपसे वाणी, मन, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, महत्तत्त्व आदि विकार, प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय और उनके देवता आदि कुछ नहीं रहते। सृष्टिके समय रहनेवाले लोकोंकी कल्पना और उनकी स्थिति भी नहीं रहती ॥ २० ॥ उस समय स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति—ये तीन अवस्थाएँ नहीं रहतीं। आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्रि और सूर्य भी नहीं रहते। सब कुछ सोये हुएके समान शून्य-सा रहता है। उस अवस्थाका तर्कके द्वारा अनुमान करना भी असम्भव है। उस अव्यक्तको ही जगत्का मूलभूत तत्त्व कहते हैं ॥ २१ ॥ इसी अवस्थाका नाम ‘प्राकृत प्रलय’ है। उस समय पुरुष और प्रकृति दोनोंकी शक्तियाँ कालके प्रभावसे क्षीण हो जाती हैं और विवश होकर अपने मूल-स्वरूपमें लीन हो जाती हैं ॥ २२ ॥

परीक्षित्‌ ! (अब आत्यन्तिक प्रलय अर्थात् मोक्षका स्वरूप बतलाया जाता है।) बुद्धि, इन्द्रिय और उनके विषयोंके रूपमें उनका अधिष्ठान, ज्ञानस्वरूप वस्तु ही भासित हो रही है। उन सबका तो आदि भी है और अन्त भी। इसलिये वे सब सत्य नहीं हैं। वे दृश्य हैं और अपने अधिष्ठानसे भिन्न उनकी सत्ता भी नहीं है। इसलिये वे सर्वथा मिथ्या—-मायामात्र हैं ॥ २३ ॥ जैसे दीपक, नेत्र और रूप—ये तीनों तेजसे भिन्न नहीं हैं, वैसे ही बुद्धि इन्द्रिय और इनके विषय तन्मात्राएँ भी अपने अधिष्ठान स्वरूप ब्रह्मसे भिन्न नहीं हैं यद्यपि वह इनसे सर्वथा भिन्न है; (जैसे रज्जुरूप अधिष्ठानमें अध्यस्त सर्प अपने अधिष्ठानसे पृथक् नहीं है, परन्तु अध्यस्त सर्पसे अधिष्ठानका कोई सम्बन्ध नहीं है) ॥ २४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शनिवार, 17 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– तीसरा अध्याय (पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धतीसरा अध्याय (पोस्ट०२)

 

राज्य, युगधर्म और कलियुग के दोषों से बचने का उपाय—नामसङ्कीर्तन

 

 सत्त्वं रजस्तम इति दृश्यन्ते पुरुषे गुणाः ।

 कालसञ्चोदितास्ते वै परिवर्तन्त आत्मनि ॥ २६ ॥

 प्रभवन्ति यदा सत्त्वे मनोबुद्धीन्द्रियाणि च ।

 तदा कृतयुगं विद्यात् ज्ञाने तपसि यद् रुचिः ॥ २७ ॥

 यदा धर्मार्थ कामेषु भक्तिर्यशसि देहिनाम् ।

 तदा त्रेता रजोवृत्तिः इति जानीहि बुद्धिमन् ॥ २८ ॥

 यदा लोभस्तु असन्तोषो मानो दम्भोऽथ मत्सरः ।

 कर्मणां चापि काम्यानां द्वापरं तद् रजस्तमः ॥ २९ ॥

 यदा मायानृतं तन्द्रा निद्रा हिंसा विषादनम् ।

 शोकमोहौ भयं दैन्यं स कलिस्तामसः स्मृतः ॥ ३० ॥

 यस्मात् क्षुद्रदृशो मर्त्याः क्षुद्रभाग्या महाशनाः ।

 कामिनो वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्च स्त्रियोऽसतीः ॥ ३१ ॥

 दस्यूत्कृष्टा जनपदा वेदाः पाषण्डदूषिताः ।

 राजानश्च प्रजाभक्षाः शिश्नोदरपरा द्विजाः ॥ ३२ ॥

 अव्रता वटवोऽशौचा भिक्षवश्च कुटुम्बिनः ।

 तपस्विनो ग्रामवासा न्यासिनोऽत्यर्थलोलुपाः ॥ ३३ ॥

 ह्रस्वकाया महाहारा भूर्यपत्या गतह्रियः ।

 शश्वत्कटुकभाषिण्यः चौर्यमायोरुसाहसाः ॥ ३४ ॥

 पणयिष्यन्ति वै क्षुद्राः किराटाः कूटकारिणः ।

 अनापद्यपि मंस्यन्ते वार्तां साधु जुगुप्सिताम् ॥ ३५ ॥

 पतिं त्यक्ष्यन्ति निर्द्रव्यं भृत्या अप्यखिलोत्तमम् ।

 भृत्यं विपन्नं पतयः कौलं गाश्चापयस्विनीः ॥ ३६ ॥

 पितृभ्रातृसुहृत् ज्ञातीन् हित्वा सौरतसौहृदाः ।

 ननान्दृश्यालसंवादा दीनाः स्त्रैणाः कलौ नराः ॥ ३७ ॥

 शूद्राः प्रतिग्रहीष्यन्ति तपोवेषोपजीविनः ।

 धर्मं वक्ष्यन्ति अधर्मज्ञा अधिरुह्योत्तमासनम् ॥ ३८ ॥

 नित्यं उद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरकर्शिताः ।

 निरन्ने भूतले राजन् अनावृष्टिभयातुराः ॥ ३९ ॥

 वासोऽन्नपानशयन व्यवायस्नानभूषणैः ।

 हीनाः पिशाचसन्दर्शा भविष्यन्ति कलौ प्रजाः ॥ ४० ॥

 कलौ काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः ।

 त्यक्ष्यन्ति च प्रियान्प्राणान् हनिष्यन्ति स्वकानपि ॥ ४१ ॥

 न रक्षिष्यन्ति मनुजाः स्थविरौ पितरौ अपि ।

 पुत्रान् सर्वार्थ कुशलान् क्षुद्राः शिश्नोदरंभराः ॥ ४२ ॥

कलौ न राजन् जगतां परं गुरुं

     त्रिलोकनाथानतपादपङ्‌कजम् ।

 प्रायेण मर्त्या भगवन्तमच्युतं

     यक्ष्यन्ति पाषण्डविभिन्नचेतसः ॥ ४३ ॥

 यन्नामधेयं म्रियमाण आतुरः

     पतन् स्खलन् वा विवशो गृणन् पुमान् ।

 विमुक्तकर्मार्गल उत्तमां गतिं

     प्राप्नोति यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः ॥ ४४ ॥

पुंसां कलिकृतान् दोषान् द्रव्यदेशात्मसंभवान् ।

 सर्वान् हरति चित्तस्थो भगवान् पुरुषोत्तमः ॥ ४५ ॥

 श्रुतः सङ्‌कीर्तितो ध्यातः पूजितश्चादृतोऽपि वा ।

 नृणां धुनोति भगवान् हृत्स्थो जन्मायुताशुभम् ॥ ४६ ॥

 यथा हेम्नि स्थितो वह्निः दुर्वर्णं हन्ति धातुजम् ।

 एवं आत्मगतो विष्णुः योगिनां अशुभाशयम् ॥ ४७ ॥

विद्यातपःप्राणनिरोधमैत्री

     तीर्थाभिषेक व्रतदानजप्यैः ।

 नात्यन्तशुद्धिं लभतेऽन्तरात्मा

     यथा हृदिस्थे भगवत्यनन्ते ॥ ४८ ॥

 तस्मात् सर्वात्मना राजन् हृदिस्थं कुरु केशवम् ।

 म्रियमाणो हि अवहितः ततो यासि परां गतिम् ॥ ४९ ॥

 म्रियमाणैरभिध्येयो भगवान् परमेश्वरः ।

 आत्मभावं नयत्यङ्‌ग सर्वात्मा सर्वसंश्रयः ॥ ५० ॥

 कलेर्दोषनिधे राजन् अस्ति ह्येको महान् गुणः ।

 कीर्तनात् एव कृष्णस्य मुक्तसङ्‌गः परं व्रजेत् ॥ ५१ ॥

 कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।

 द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद् हरिकीर्तनात् ॥ ५२ ॥

 

सभी प्राणियोंमें तीन गुण होते हैं—सत्त्व, रज और तम। कालकी प्रेरणासे समय-समयपर शरीर, प्राण और मनमें उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है ॥ २६ ॥ जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्त्वगुणमें स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती हैं, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्त्वगुणकी प्रधानता के समय मनुष्य ज्ञान और तपस्यासे अधिक प्रेम करने लगता है ॥ २७ ॥ जिस समय मनुष्यों की प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-पारलौकिक सुख-भोगोंकी ओर होती है तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुणमें स्थित होकर काम करने लगती हैं—बुद्धिमान् परीक्षित्‌ ! समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है ॥ २८ ॥ जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषोंका बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचिके साथ सकाम कर्मोंमें लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझना चाहिये। अवश्य ही रजोगुण और तमोगुणकी मिश्रित प्रधानताका नाम ही द्वापरयुग है ॥ २९ ॥ जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनताकी प्रधानता हो, उसे तमोगुण- प्रधान कलियुग समझना चाहिये ॥ ३० ॥ जब कलियुगका राज्य होता है, तब लोगोंकी दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्तमें कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियोंमें दुष्टता और कुलटापनकी वृद्धि हो जाती है ॥ ३१ ॥ सारे देशमें, गाँव-गाँवमें लुटेरोंकी प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंगसे वेदोंका तात्पर्य निकालने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलानेवाले लोग प्रजाकी सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं। ब्राह्मणनामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रियको तृप्त करनेमें ही लग जाते हैं ॥ ३२ ॥ ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यव्रतसे रहित और अपवित्र रहने लगते हैं। गृहस्थ दूसरोंको भिक्षा देनेके बदले स्वयं भीख माँगने लगते हैं, वानप्रस्थी गाँवोंमें बसने लगते हैं और संन्यासी धनके अत्यन्त लोभी—अर्थपिशाच हो जाते हैं ॥ ३३ ॥ स्त्रियोंका आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपनी कुल मर्यादाका उल्लङ्घन करके लाज-हया—जो उनका भूषण है—छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं और चोरी तथा कपटमें बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी बहुत बढ़ जाता है ॥ ३४ ॥ व्यापारियोंके हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी—कौड़ीसे लिपटे रहते और छदाम-छदामके लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या—आपत्तिकाल न होनेपर तथा धनी होनेपर भी वे निम्र-श्रेणीके व्यापारोंको, जिनकी सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझने और अपनाने लगते हैं ॥ ३५ ॥ स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों—जब सेवकलोग देखते हैं कि इसके पास धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोडक़र भाग जाते हैं। सेवक चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो—परन्तु जब वह किसी विपत्तिमें पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं,। और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं—दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं ॥ ३६ ॥

प्रिय परीक्षित्‌ ! कलियुगके मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासनाको तृप्त करनेके लिये ही किसीसे प्रेम करते हैं। वे विषयवासनाके वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रोंको भी छोडक़र केवल अपनी साली और सालोंसे ही सलाह लेने लगते हैं ॥ ३७ ॥ शूद्र तपस्वियोंका वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्मका रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचे सिंहासनपर विराजमान होकर धर्मका उपदेश करने लगते हैं ॥ ३८ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! कलियुगकी प्रजा सूखा पडऩेके कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुॢभक्ष और दूसरे शासकोंकी कर-वृद्धि ! प्रजाके शरीरमें केवल अस्थिपञ्जर और मनमें केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राण रक्षाके लिये रोटीका टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है ॥ ३९ ॥ कलियुगमें प्रजा शरीर ढकनेके लिये वस्त्र और पेटकी ज्वाला शान्त करनेके लिये रोटी, पीनेके लिये पानी और सोनेके लिये दो हाथ जमीनसे भी वञ्चित हो जाती है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहननेतककी सुविधा नहीं रहती। लोगोंकी आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचोंकी-सी हो जाती हैं ॥ ४० ॥ कलियुगमें लोग, अधिक धनकी तो बात ही क्या, कुछ कौडिय़ोंके लिये आपसमें वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनोंके सद्भाव तथा मित्रताको तिलाञ्जलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे दमड़ी-दमड़ीके लिये अपने सगे-सम्बन्धियोंतककी हत्या कर बैठते और अपने प्रिय प्राणोंसे भी हाथ धो बैठते हैं ॥ ४१ ॥ परीक्षित्‌ ! कलियुगके क्षुद्र प्राणी केवल कामवासनाकी पूर्ति और पेट भरनेकी धुनमें ही लगे रहते हैं। पुत्र अपने बूढ़े मा-बापकी भी रक्षा—पालन-पोषण नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने निपुण-से-निपुण, सब कामोंमें योग्य पुत्रोंकी भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं ॥ ४२ ॥ परीक्षित्‌ ! श्रीभगवान्‌ ही चराचर जगत्के परम पिता और परम गुरु हैं। इन्द्र-ब्रह्मा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलोंमें अपना सिर झुकाकर सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं। उनका ऐश्वर्य अनन्त है और वे एकरस अपने स्वरूपमें स्थित हैं। परन्तु कलियुगमें लोगोंमें इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाखण्डियोंके कारण लोगोंका चित्त इतना भटक जाता है कि प्राय: लोग अपने कर्म और भावनाओंके द्वारा भगवान्‌की पूजासे भी विमुख हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ मनुष्य मरनेके समय आतुरताकी स्थितिमें अथवा गिरते या फिसलते समय विवश होकर भी यदि भगवान्‌के किसी एक नामका उच्चारण कर ले, तो उसके सारे कर्मबन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती है। परन्तु हाय रे कलियुग ! कलियुगसे प्रभावित होकर लोग उन भगवान्‌ की आराधनासे भी विमुख हो जाते हैं ॥ ४४ ॥

परीक्षित्‌ ! कलियुगके अनेकों दोष हैं। कुल वस्तुएँ दूषित हो जाती हैं, स्थानोंमें भी दोषकी प्रधानता हो जाती है। सब दोषोंका मूल स्रोत तो अन्त:करण है ही, परन्तु जब पुरुषोत्तम भगवान्‌ हृदयमें आ विराजते हैं, तब उनकी सन्निधिमात्रसे ही सब-के-सब दोष नष्ट हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ भगवान्‌ के रूप, गुण, लीला, धाम और नामके श्रवण, सङ्कीर्तन, ध्यान, पूजन और आदरसे वे मनुष्यके हृदयमें आकर विराजमान हो जाते हैं। और एक-दो जन्मके पापोंकी तो बात ही क्या, हजारों जन्मोंके पापके ढेर-के-ढेर भी क्षणभरमें भस्म कर देते हैं ॥ ४६ ॥ जैसे सोनेके साथ संयुक्त होकर अग्नि उसके धातुसम्बन्धी मलिनता आदि दोषोंको नष्ट कर देती है, वैसे ही साधकोंके हृदयमें स्थित होकर भगवान्‌ विष्णु उनके अशुभ संस्कारोंको सदाके लिये मिटा देते हैं ॥ ४७ ॥ परीक्षित्‌ ! विद्या, तपस्या, प्राणायाम, समस्त प्राणियोंके प्रति मित्रभाव, तीर्थस्नान, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधनसे मनुष्यके अन्त:करणकी वैसी वास्तविक शुद्धि नहीं होती, जैसी शुद्धि भगवान्‌ पुरुषोत्तमके हृदयमें विराजमान हो जानेपर होती है ॥ ४८ ॥

परीक्षित्‌ ! अब तुम्हारी मृत्युका समय निकट आ गया है। अब सावधान हो जाओ। पूरी शक्तिसे और अन्त:करणकी सारी वृत्तियोंसे भगवान्‌ श्रीकृष्णको अपने हृदयसिंहासनपर बैठा लो। ऐसा करनेसे अवश्य ही तुम्हें परमगतिकी प्राप्ति होगी ॥ ४९ ॥ जो लोग मृत्युके निकट पहुँच रहे हैं, उन्हें सब प्रकारसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्‌का ही ध्यान करना चाहिये। प्यारे परीक्षित्‌ ! सबके परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान्‌ अपना ध्यान करनेवालेको अपने स्वरूपमें लीन कर लेते हैं, उसे अपना स्वरूप बना लेते हैं ॥ ५० ॥ परीक्षित्‌ ! यों तो कलियुग दोषोंका खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह गुण यही है कि कलियुगमें केवल भगवान्‌ श्रीकृष्णका सङ्कीर्तन करने- मात्रसे ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ॥ ५१ ॥ सत्ययुग में भगवान्‌ का ध्यान करनेसे, त्रेतामें बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करनेसे और द्वापर में विधिपूर्वक उनकी पूजा-सेवासे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवन्नाम  का कीर्तन करनेसे ही प्राप्त हो जाता है ॥ ५२ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां द्वादशस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

 

 हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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