॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वादश स्कन्ध– चौथा अध्याय (पोस्ट०२)
चार प्रकारके प्रलय
बुद्धेर्जागरणं
स्वप्नः सुषुप्तिरिति चोच्यते ।
मायामात्रमिदं
राजन् नानात्वं प्रत्यगात्मनि ॥ २५ ॥
यथा जलधरा व्योम्नि
भवन्ति न भवन्ति च ।
ब्रह्मणीदं तथा
विश्वं अवयव्युदयाप्ययात् ॥ २६ ॥
सत्यं ह्यवयवः
प्रोक्तः सर्वावयविनामिह ।
विनार्थेन
प्रतीयेरन् पटस्येवाङ्ग तन्तवः ॥ २७ ॥
यत्सामान्यविशेषाभ्यां उपलभ्येत स भ्रमः ।
अन्योन्यापाश्रयात्
सर्वं आद्यन्तवदवस्तु यत् ॥ २८ ॥
विकारः
ख्यायमानोऽपि प्रत्यगात्मानमन्तरा ।
न
निरूप्योऽस्त्यणुरपि स्याच्चेच्चित्सम आत्मवत् ॥ २९ ॥
न हि सत्यस्य नानात्वं
अविद्वान्यदि मन्यते ।
नानात्वं
छिद्रयोर्यद्वत् ज्योतिषोर्वातयोरिव ॥ ३० ॥
यथा हिरण्यं बहुधा समीयते
नृभिः
क्रियाभिर्व्यवहारवर्त्मसु ।
एवं
वचोभिर्भगवानधोक्षजो
व्याख्यायते
लौकिकवैदिकैर्जनैः ॥ ३१ ॥
यथा
घनोऽर्कप्रभवोऽर्कदर्शितो
ह्यर्कांशभूतस्य
च चक्षुषस्तमः ।
एवं त्वहं
ब्रह्मगुणस्तदीक्षितो
ब्रह्मांशकस्यात्मन आत्मबन्धनः ॥ ३२ ॥
घनो यदार्कप्रभवो
विदीर्यते
चक्षुः स्वरूपं
रविमीक्षते तदा ।
यदा ह्यहङ्कार
उपाधिरात्मनो
जिज्ञासया
नश्यति तर्ह्यनुस्मरेत् ॥ ३३ ॥
यदैवमेतेन
विवेकहेतिना
मायामयाहङ्करणात्मबन्धनम्
।
छित्त्वाच्युतात्मानुभवोऽवतिष्ठते
तमाहुरात्यन्तिकमङ्ग सम्प्लवम् ॥ ३४ ॥
नित्यदा सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां परन्तप ।
उत्पत्तिप्रलयौ एके
सूक्ष्मज्ञाः सम्प्रचक्षते ॥ ३५ ॥
कालस्रोतोजवेनाशु
ह्रियमाणस्य नित्यदा ।
परिणामिनां
अवस्थास्ता जन्मप्रलयहेतवः ॥ ३६ ॥
अनाद्यन्तवतानेन
कालेनेश्वरमूर्तिना ।
अवस्था नैव
दृश्यन्ते वियति ज्योतिषां इव ॥ ३७ ॥
नित्यो
नैमित्तिकश्चैव तथा प्राकृतिको लयः ।
आत्यन्तिकश्च कथितः
कालस्य गतिरीदृशी ॥ ३८ ॥
एताः कुरुश्रेष्ठ जगद्विधातुः
नारायणस्याखिलसत्त्वधाम्नः ।
लीलाकथास्ते कथिताः
समासतः
कार्त्स्न्येन
नाजोऽप्यभिधातुमीशः ॥ ३९ ॥
संसारसिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षोः
नान्यः प्लवो
भगवतः पुरुषोत्तमस्य ।
लीलाकथारसनिषेवणमन्तरेण
पुंसो
भवेद्विविधदुःखदवार्दितस्य ॥ ४० ॥
पुराणसंहितामेतां ऋषिर्नारायणोऽव्ययः ।
नारदाय पुरा प्राह
कृष्णद्वैपायनाय सः ॥ ४१ ॥
स वै मह्यं महाराज
भगवान् बादरायणः ।
इमां भागवतीं
प्रीतः संहितां वेदसम्मिताम् ॥ ४२ ॥
इमां वक्ष्यत्यसौ
सूत ऋषिभ्यो नैमिषालये ।
दीर्घसत्रे
कुरुश्रेष्ठ सम्पृष्टः शौनकादिभिः ॥ ४३ ॥
परीक्षित् ! जाग्रत्, स्वप्न
और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ बुद्धिकी ही हैं। अत: इनके कारण अन्तरात्मामें जो
विश्व, तैजस और प्राज्ञरूप नानात्वकी प्रतीति होती है,
वह केवल मायामात्र है। बुद्धिगत नानात्वका एकमात्र सत्य आत्मासे कोई
सम्बन्ध नहीं है ॥ २५ ॥ यह विश्व उत्पत्ति और प्रलयसे ग्रस्त है, इसलिये अनेक अवयवोंका समूह अवयवी है। अत: यह कभी ब्रह्ममें होता है और कभी
नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे आकाशमें मेघमाला कभी होती है और
कभी नहीं होती ॥ २६ ॥ परीक्षित् ! जगत्के व्यवहारमें जितने भी अवयवी पदार्थ होते
हैं, उनके न होनेपर भी उनके भिन्न-भिन्न अवयव सत्य माने जाते
हैं। क्योंकि वे उनके कारण हैं। जैसे वस्त्ररूप अवयवीके न होनेपर भी उसके कारणरूप
सूतका अस्तित्व माना ही जाता है, उसी प्रकार कार्यरूप जगत् के
अभावमें भी इस जगत् के कारणरूप अवयवकी स्थिति हो सकती है ॥ २७ ॥ परन्तु ब्रह्ममें
यह कार्य-कारणभाव भी वास्तविक नहीं है। क्योंकि देखो, कारण
तो सामान्य वस्तु है और कार्य विशेष वस्तु। इस प्रकारका जो भेद दिखायी देता है,
वह केवल भ्रम ही है। इसका हेतु यह है कि सामान्य और विशेष भाव आपेक्षिक
हैं, अन्योन्याश्रित हैं। विशेषके बिना सामान्य और सामान्यके
बिना विशेषकी स्थिति नहीं हो सकती। कार्य और कारणभावका आदि और अन्त दोनों ही मिलते
हैं, इसलिये भी वह स्वाप्निक भेद-भावके समान सर्वथा अवस्तु
है ॥ २८ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि यह प्रपञ्चरूप विकार स्वाप्निक विकारके समान ही
प्रतीत हो रहा है, तो भी यह अपने अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूप
आत्मासे भिन्न नहीं है। कोई चाहे भी तो आत्मासे भिन्न रूपमें अणुमात्र भी इसका
निरूपण नहीं कर सकता। यदि आत्मासे पृथक् इसकी सत्ता मानी भी जाय तो यह भी चिद्रूप
आत्माके समान स्वयंप्रकाश होगा, और ऐसी स्थितिमें वह आत्माकी
भाँति ही एकरूप सिद्ध होगा ॥ २९ ॥ परन्तु इतना तो सर्वथा निश्चित है कि
परमार्थ-सत्य वस्तुमें नानात्व नहीं है। यदि कोई अज्ञानी परमार्थ-सत्य वस्तुमें
नानात्व स्वीकार करता है, तो उसका वह मानना वैसा ही है,
जैसा महाकाश और घटाकाशका, आकाशस्थित सूर्य और
जलमें प्रतिबिम्बित सूर्यका तथा बाह्य वायु और आन्तर वायुका भेद मानना ॥ ३० ॥
जैसे व्यवहारमें मनुष्य एक ही सोनेको अनेकों रूपोंमें
गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और वह कंगन, कुण्डल,
कड़ा आदि अनेकों रूपोंमें मिलता है; इसी
प्रकार व्यवहारमें निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणीके द्वारा इन्द्रियातीत
आत्मस्वरूप भगवान्का भी अनेकों रूपोंमें वर्णन करते हैं ॥ ३१ ॥ देखो न, बादल सूर्यसे उत्पन्न होता है और सूर्यसे ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्यके
ही अंश नेत्रोंके लिये सूर्यका दर्शन होनेमें बाधक बन बैठता है। इसी प्रकार
अहङ्कार भी ब्रह्मसे ही उत्पन्न होता, ब्रह्मसे ही प्रकाशित
होता और ब्रह्मके अंश जीवके लिये ब्रह्मस्वरूपके साक्षात्कारमें बाधक बन बैठता है
॥ ३२ ॥ जब सूर्यसे प्रकट होनेवाला बादल तितर-बितर हो जाता है, तब नेत्र अपने स्वरूप सूर्यका दर्शन करनेमें समर्थ होते हैं। ठीक वैसे ही,
जब जीवके हृदयमें जिज्ञासा जगती है, तब
आत्माकी उपाधि अहङ्कार नष्ट हो जाता है और उसे अपने स्वरूपका साक्षात्कार हो जाता
है ॥ ३३ ॥ प्रिय परीक्षित् ! जब जीव विवेकके खड्गसे मायामय अहङ्कारका बन्धन काट
देता है, तब यह अपने एकरस आत्मस्वरूपके साक्षात्कारमें स्थित
हो जाता है। आत्माकी यह मायामुक्त वास्तविक स्थिति ही आत्यन्तिक प्रलय कही जाती है
॥ ३४ ॥
हे शत्रुदमन ! तत्त्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रह्मासे
लेकर तिनकेतक जितने प्राणी या पदार्थ हैं, सभी हर समय
पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात् नित्यरूपसे उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता
है ॥ ३५ ॥ संसारके परिणामी पदार्थ नदी-प्रवाह और दीप-शिखा आदि क्षण-क्षण बदलते
रहते हैं। उनकी बदलती हुई अवस्थाओंको देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी
कालरूप सोतेके वेगमें बहते-बदलते जा रहे हैं। इसलिये क्षण-क्षणमें उनकी उत्पत्ति
और प्रलय हो रहा है ॥ ३६ ॥ जैसे आकाशमें तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परन्तु उनकी गति स्पष्टरूपसे नहीं दिखायी पड़ती, वैसे
ही भगवान्के स्वरूपभूत अनादि-अनन्त कालके कारण प्राणियोंकी प्रतिक्षण होनेवाली
उत्पत्ति और प्रलयका भी पता नहीं चलता ॥ ३७ ॥ परीक्षित् ! मैंने तुमसे चार
प्रकारके प्रलयका वर्णन किया; उनके नाम हैं—नित्य प्रलय,
नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और
आत्यन्तिक प्रलय। वास्तवमें कालकी सूक्ष्म गति ऐसी ही है ॥ ३८ ॥
हे कुरुश्रेष्ठ ! विश्व-विधाता भगवान् नारायण ही
समस्त प्राणियों और शक्तियोंके आश्रय हैं। जो कुछ मैंने संक्षेपसे कहा है, वह सब उन्हींकी लीला-कथा है। भगवान्की लीलाओंका पूर्ण वर्णन तो स्वयं
ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते ॥ ३९ ॥ जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागरसे पार जाना
चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकारके दु:ख-दावानलसे दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पुषोत्तम भगवान्की लीला-कथारूप रसके सेवनके अतिरिक्त और कोई
साधन, कोई नौका नहीं है। ये केवल लीला-रसायनका सेवन करके ही
अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं ॥ ४० ॥ जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद्भागवतपुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायणने पहले देवर्षि नारदको
सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कृष्णद्वैपायनको ॥ ४१ ॥ महाराज ! उन्हीं
बदरीवनविहारी भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायनने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य
श्रीभागवतसंहिताका उपदेश किया ॥ ४२ ॥ कुरुश्रेष्ठ ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि
नैमिषारण्य क्षेत्रमें बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके
प्रश्र करनेपर पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी उन लोगोंको इस संहिताका श्रवण करायेंगे ॥
४३ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से