॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वादश स्कन्ध– तीसरा अध्याय (पोस्ट०२)
राज्य, युगधर्म और
कलियुग के दोषों से बचने का उपाय—नामसङ्कीर्तन
सत्त्वं रजस्तम इति
दृश्यन्ते पुरुषे गुणाः ।
कालसञ्चोदितास्ते
वै परिवर्तन्त आत्मनि ॥ २६ ॥
प्रभवन्ति यदा
सत्त्वे मनोबुद्धीन्द्रियाणि च ।
तदा कृतयुगं
विद्यात् ज्ञाने तपसि यद् रुचिः ॥ २७ ॥
यदा धर्मार्थ
कामेषु भक्तिर्यशसि देहिनाम् ।
तदा त्रेता
रजोवृत्तिः इति जानीहि बुद्धिमन् ॥ २८ ॥
यदा लोभस्तु
असन्तोषो मानो दम्भोऽथ मत्सरः ।
कर्मणां चापि
काम्यानां द्वापरं तद् रजस्तमः ॥ २९ ॥
यदा मायानृतं
तन्द्रा निद्रा हिंसा विषादनम् ।
शोकमोहौ भयं दैन्यं
स कलिस्तामसः स्मृतः ॥ ३० ॥
यस्मात् क्षुद्रदृशो
मर्त्याः क्षुद्रभाग्या महाशनाः ।
कामिनो
वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्च स्त्रियोऽसतीः ॥ ३१ ॥
दस्यूत्कृष्टा
जनपदा वेदाः पाषण्डदूषिताः ।
राजानश्च
प्रजाभक्षाः शिश्नोदरपरा द्विजाः ॥ ३२ ॥
अव्रता वटवोऽशौचा
भिक्षवश्च कुटुम्बिनः ।
तपस्विनो ग्रामवासा
न्यासिनोऽत्यर्थलोलुपाः ॥ ३३ ॥
ह्रस्वकाया महाहारा
भूर्यपत्या गतह्रियः ।
शश्वत्कटुकभाषिण्यः
चौर्यमायोरुसाहसाः ॥ ३४ ॥
पणयिष्यन्ति वै
क्षुद्राः किराटाः कूटकारिणः ।
अनापद्यपि
मंस्यन्ते वार्तां साधु जुगुप्सिताम् ॥ ३५ ॥
पतिं त्यक्ष्यन्ति
निर्द्रव्यं भृत्या अप्यखिलोत्तमम् ।
भृत्यं विपन्नं
पतयः कौलं गाश्चापयस्विनीः ॥ ३६ ॥
पितृभ्रातृसुहृत्
ज्ञातीन् हित्वा सौरतसौहृदाः ।
ननान्दृश्यालसंवादा
दीनाः स्त्रैणाः कलौ नराः ॥ ३७ ॥
शूद्राः
प्रतिग्रहीष्यन्ति तपोवेषोपजीविनः ।
धर्मं वक्ष्यन्ति
अधर्मज्ञा अधिरुह्योत्तमासनम् ॥ ३८ ॥
नित्यं
उद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरकर्शिताः ।
निरन्ने भूतले
राजन् अनावृष्टिभयातुराः ॥ ३९ ॥
वासोऽन्नपानशयन
व्यवायस्नानभूषणैः ।
हीनाः
पिशाचसन्दर्शा भविष्यन्ति कलौ प्रजाः ॥ ४० ॥
कलौ
काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः ।
त्यक्ष्यन्ति च
प्रियान्प्राणान् हनिष्यन्ति स्वकानपि ॥ ४१ ॥
न रक्षिष्यन्ति
मनुजाः स्थविरौ पितरौ अपि ।
पुत्रान् सर्वार्थ
कुशलान् क्षुद्राः शिश्नोदरंभराः ॥ ४२ ॥
कलौ न राजन् जगतां परं गुरुं
त्रिलोकनाथानतपादपङ्कजम् ।
प्रायेण मर्त्या
भगवन्तमच्युतं
यक्ष्यन्ति
पाषण्डविभिन्नचेतसः ॥ ४३ ॥
यन्नामधेयं
म्रियमाण आतुरः
पतन् स्खलन् वा
विवशो गृणन् पुमान् ।
विमुक्तकर्मार्गल
उत्तमां गतिं
प्राप्नोति
यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः ॥ ४४ ॥
पुंसां कलिकृतान् दोषान् द्रव्यदेशात्मसंभवान् ।
सर्वान् हरति
चित्तस्थो भगवान् पुरुषोत्तमः ॥ ४५ ॥
श्रुतः सङ्कीर्तितो
ध्यातः पूजितश्चादृतोऽपि वा ।
नृणां धुनोति
भगवान् हृत्स्थो जन्मायुताशुभम् ॥ ४६ ॥
यथा हेम्नि स्थितो
वह्निः दुर्वर्णं हन्ति धातुजम् ।
एवं आत्मगतो
विष्णुः योगिनां अशुभाशयम् ॥ ४७ ॥
विद्यातपःप्राणनिरोधमैत्री
तीर्थाभिषेक
व्रतदानजप्यैः ।
नात्यन्तशुद्धिं
लभतेऽन्तरात्मा
यथा हृदिस्थे
भगवत्यनन्ते ॥ ४८ ॥
तस्मात् सर्वात्मना राजन् हृदिस्थं कुरु केशवम् ।
म्रियमाणो हि
अवहितः ततो यासि परां गतिम् ॥ ४९ ॥
म्रियमाणैरभिध्येयो
भगवान् परमेश्वरः ।
आत्मभावं नयत्यङ्ग
सर्वात्मा सर्वसंश्रयः ॥ ५० ॥
कलेर्दोषनिधे राजन्
अस्ति ह्येको महान् गुणः ।
कीर्तनात् एव
कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥ ५१ ॥
कृते यद् ध्यायतो
विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।
द्वापरे
परिचर्यायां कलौ तद् हरिकीर्तनात् ॥ ५२ ॥
सभी प्राणियोंमें तीन गुण होते हैं—सत्त्व, रज और तम। कालकी प्रेरणासे समय-समयपर शरीर, प्राण और
मनमें उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है ॥ २६ ॥ जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्त्वगुणमें स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती
हैं, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्त्वगुणकी प्रधानता के
समय मनुष्य ज्ञान और तपस्यासे अधिक प्रेम करने लगता है ॥ २७ ॥ जिस समय मनुष्यों की
प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-पारलौकिक सुख-भोगोंकी
ओर होती है तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुणमें स्थित
होकर काम करने लगती हैं—बुद्धिमान् परीक्षित् ! समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग
अपना काम कर रहा है ॥ २८ ॥ जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषोंका बोलबाला हो और
मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचिके साथ सकाम कर्मोंमें लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझना चाहिये। अवश्य ही रजोगुण और तमोगुणकी मिश्रित
प्रधानताका नाम ही द्वापरयुग है ॥ २९ ॥ जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा,
हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय
और दीनताकी प्रधानता हो, उसे तमोगुण- प्रधान कलियुग समझना
चाहिये ॥ ३० ॥ जब कलियुगका राज्य होता है, तब लोगोंकी दृष्टि
क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन,
परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और
चित्तमें कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियोंमें दुष्टता और कुलटापनकी
वृद्धि हो जाती है ॥ ३१ ॥ सारे देशमें, गाँव-गाँवमें
लुटेरोंकी प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर
मनमाने ढंगसे वेदोंका तात्पर्य निकालने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते
हैं। राजा कहलानेवाले लोग प्रजाकी सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं।
ब्राह्मणनामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रियको तृप्त करनेमें ही लग जाते हैं ॥ ३२
॥ ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यव्रतसे रहित और अपवित्र रहने लगते हैं। गृहस्थ
दूसरोंको भिक्षा देनेके बदले स्वयं भीख माँगने लगते हैं, वानप्रस्थी
गाँवोंमें बसने लगते हैं और संन्यासी धनके अत्यन्त लोभी—अर्थपिशाच हो जाते हैं ॥
३३ ॥ स्त्रियोंका आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती
है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपनी कुल मर्यादाका उल्लङ्घन करके
लाज-हया—जो उनका भूषण है—छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं
और चोरी तथा कपटमें बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी बहुत बढ़ जाता है ॥ ३४
॥ व्यापारियोंके हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी—कौड़ीसे लिपटे रहते
और छदाम-छदामके लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या—आपत्तिकाल न होनेपर तथा
धनी होनेपर भी वे निम्र-श्रेणीके व्यापारोंको, जिनकी
सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझने और अपनाने लगते हैं ॥
३५ ॥ स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों—जब सेवकलोग देखते हैं कि इसके पास
धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोडक़र भाग जाते हैं। सेवक चाहे
कितना ही पुराना क्यों न हो—परन्तु जब वह किसी विपत्तिमें पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं,। और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं—दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं ॥ ३६ ॥
प्रिय परीक्षित् ! कलियुगके मनुष्य बड़े ही लम्पट हो
जाते हैं, वे अपनी कामवासनाको तृप्त करनेके लिये ही किसीसे प्रेम करते
हैं। वे विषयवासनाके वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रोंको भी छोडक़र केवल अपनी साली और सालोंसे ही सलाह लेने
लगते हैं ॥ ३७ ॥ शूद्र तपस्वियोंका वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं।
जिन्हें धर्मका रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचे सिंहासनपर
विराजमान होकर धर्मका उपदेश करने लगते हैं ॥ ३८ ॥ प्रिय परीक्षित् ! कलियुगकी
प्रजा सूखा पडऩेके कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुॢभक्ष और दूसरे
शासकोंकी कर-वृद्धि ! प्रजाके शरीरमें केवल अस्थिपञ्जर और मनमें केवल उद्वेग शेष
रह जाता है। प्राण रक्षाके लिये रोटीका टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है ॥ ३९ ॥
कलियुगमें प्रजा शरीर ढकनेके लिये वस्त्र और पेटकी ज्वाला शान्त करनेके लिये रोटी,
पीनेके लिये पानी और सोनेके लिये दो हाथ जमीनसे भी वञ्चित हो जाती
है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहननेतककी सुविधा
नहीं रहती। लोगोंकी आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचोंकी-सी
हो जाती हैं ॥ ४० ॥ कलियुगमें लोग, अधिक धनकी तो बात ही क्या,
कुछ कौडिय़ोंके लिये आपसमें वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनोंके
सद्भाव तथा मित्रताको तिलाञ्जलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे
दमड़ी-दमड़ीके लिये अपने सगे-सम्बन्धियोंतककी हत्या कर बैठते और अपने प्रिय
प्राणोंसे भी हाथ धो बैठते हैं ॥ ४१ ॥ परीक्षित् ! कलियुगके क्षुद्र प्राणी केवल
कामवासनाकी पूर्ति और पेट भरनेकी धुनमें ही लगे रहते हैं। पुत्र अपने बूढ़े
मा-बापकी भी रक्षा—पालन-पोषण नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर
देते हैं और पिता अपने निपुण-से-निपुण, सब कामोंमें योग्य
पुत्रोंकी भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं ॥ ४२ ॥
परीक्षित् ! श्रीभगवान् ही चराचर जगत्के परम पिता और परम गुरु हैं।
इन्द्र-ब्रह्मा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलोंमें अपना सिर झुकाकर सर्वस्व
समर्पण करते रहते हैं। उनका ऐश्वर्य अनन्त है और वे एकरस अपने स्वरूपमें स्थित
हैं। परन्तु कलियुगमें लोगोंमें इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाखण्डियोंके
कारण लोगोंका चित्त इतना भटक जाता है कि प्राय: लोग अपने कर्म और भावनाओंके द्वारा
भगवान्की पूजासे भी विमुख हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ मनुष्य मरनेके समय आतुरताकी
स्थितिमें अथवा गिरते या फिसलते समय विवश होकर भी यदि भगवान्के किसी एक नामका
उच्चारण कर ले, तो उसके सारे कर्मबन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते
हैं और उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती है। परन्तु हाय रे कलियुग ! कलियुगसे
प्रभावित होकर लोग उन भगवान् की आराधनासे भी विमुख हो जाते हैं ॥ ४४ ॥
परीक्षित् ! कलियुगके अनेकों दोष हैं। कुल वस्तुएँ
दूषित हो जाती हैं, स्थानोंमें भी दोषकी प्रधानता हो जाती है। सब दोषोंका मूल
स्रोत तो अन्त:करण है ही, परन्तु जब पुरुषोत्तम भगवान्
हृदयमें आ विराजते हैं, तब उनकी सन्निधिमात्रसे ही सब-के-सब
दोष नष्ट हो जाते हैं ॥ ४५ ॥ भगवान् के रूप, गुण, लीला, धाम और नामके श्रवण, सङ्कीर्तन,
ध्यान, पूजन और आदरसे वे मनुष्यके हृदयमें आकर
विराजमान हो जाते हैं। और एक-दो जन्मके पापोंकी तो बात ही क्या, हजारों जन्मोंके पापके ढेर-के-ढेर भी क्षणभरमें भस्म कर देते हैं ॥ ४६ ॥
जैसे सोनेके साथ संयुक्त होकर अग्नि उसके धातुसम्बन्धी मलिनता आदि दोषोंको नष्ट कर
देती है, वैसे ही साधकोंके हृदयमें स्थित होकर भगवान्
विष्णु उनके अशुभ संस्कारोंको सदाके लिये मिटा देते हैं ॥ ४७ ॥ परीक्षित् ! विद्या,
तपस्या, प्राणायाम, समस्त
प्राणियोंके प्रति मित्रभाव, तीर्थस्नान, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधनसे मनुष्यके
अन्त:करणकी वैसी वास्तविक शुद्धि नहीं होती, जैसी शुद्धि
भगवान् पुरुषोत्तमके हृदयमें विराजमान हो जानेपर होती है ॥ ४८ ॥
परीक्षित् ! अब तुम्हारी मृत्युका समय निकट आ गया
है। अब सावधान हो जाओ। पूरी शक्तिसे और अन्त:करणकी सारी वृत्तियोंसे भगवान्
श्रीकृष्णको अपने हृदयसिंहासनपर बैठा लो। ऐसा करनेसे अवश्य ही तुम्हें परमगतिकी
प्राप्ति होगी ॥ ४९ ॥ जो लोग मृत्युके निकट पहुँच रहे हैं, उन्हें सब प्रकारसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्का ही ध्यान करना चाहिये।
प्यारे परीक्षित् ! सबके परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान् अपना ध्यान करनेवालेको
अपने स्वरूपमें लीन कर लेते हैं, उसे अपना स्वरूप बना लेते
हैं ॥ ५० ॥ परीक्षित् ! यों तो कलियुग दोषोंका खजाना है, परन्तु
इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह गुण यही है कि कलियुगमें केवल भगवान् श्रीकृष्णका
सङ्कीर्तन करने- मात्रसे ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्माकी प्राप्ति
हो जाती है ॥ ५१ ॥ सत्ययुग में भगवान् का ध्यान करनेसे, त्रेतामें
बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करनेसे और द्वापर में विधिपूर्वक उनकी
पूजा-सेवासे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवन्नाम का कीर्तन करनेसे ही प्राप्त हो जाता है ॥ ५२ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां द्वादशस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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