रविवार, 18 अप्रैल 2021

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वादश स्कन्ध– चौथा अध्याय (पोस्ट०१)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

द्वादश स्कन्धचौथा अध्याय (पोस्ट०१)

 

चार प्रकारके प्रलय

 

 श्रीशुक उवाच

 कालस्ते परमाण्वादिः द्विपरार्धावधिर्नृप ।

 कथितो युगमानं च श्रृणु कल्पलयावपि ॥ १ ॥

 चतुर्युगसहस्रं तु ब्रह्मणो दिनमुच्यते ।

 स कल्पो यत्र मनवः चतुर्दश विशांपते ॥ २ ॥

 तदन्ते प्रलयस्तावान् ब्राह्मी रात्रिरुदाहृता ।

 त्रयो लोका इमे तत्र कल्पन्ते प्रलयाय हि ॥ ॥

 एष नैमित्तिकः प्रोक्तः प्रलयो यत्र विश्वसृक् ।

 शेतेऽनन्तासनो विश्वं आत्मसात् कृत्य चात्मभूः ॥ ४ ॥

 द्विपरार्धे त्वतिक्रान्ते ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ।

 तदा प्रकृतयः सप्त कल्पन्ते प्रलयाय वै ॥ ५ ॥

 एष प्राकृतिको राजन् प्रलयो यत्र लीयते ।

 अण्डकोषस्तु सङ्‌घातो विघाट उपसादिते ॥ ६ ॥

 पर्जन्यः शतवर्षाणि भूमौ राजन्न वर्षति ।

 तदा निरन्ने ह्यन्योन्यं भक्ष्यमाणाः क्षुधार्दिताः ॥ ७ ॥

 क्षयं यास्यन्ति शनकैः कालेनोपद्रुताः प्रजाः ।

 सामुद्रं दैहिकं भौमं रसं सांवर्तको रविः ॥ ८ ॥

 रश्मिभिः पिबते घोरैः सर्वं नैव विमुञ्चति

 ततः संवर्तको वह्निः सङ्‌कर्षणमुखोत्थितः ॥ ९ ॥

 दहत्यनिलवेगोत्थः शून्यान् भूविवरानथ ।

 उपर्यधः समन्ताच्च शिखाभिर्वह्निसूर्ययोः ॥ १० ॥

 दह्यमानं विभात्यण्डं दग्धगोमयपिण्डवत् ।

 ततः प्रचण्डपवनो वर्षाणामधिकं शतम् ॥ ११ ॥

 परः सांवर्तको वाति धूम्रं खं रजसाऽऽवृतम् ।

 ततो मेघकुलान्यङ्‌ग चित्र वर्णान्यनेकशः ॥ १२ ॥

 शतं वर्षाणि वर्षन्ति नदन्ति रभसस्वनैः ।

 तत एकोदकं विश्वं ब्रह्माण्डविवरान्तरम् ॥ १३ ॥

 तदा भूमेर्गन्धगुणं ग्रसन्त्याप उदप्लवे ।

 ग्रस्तगन्धा तु पृथिवी प्रलयत्वाय कल्पते ॥ १४ ॥

 अपां रसमथो तेजः ता लीयन्तेऽथ नीरसाः ।

 ग्रसते तेजसो रूपं वायुस्तद्रहितं तदा ॥ १५ ॥

 लीयते चानिले तेजो वायोः खं ग्रसते गुणम् ।

 स वै विशति खं राजन् ततश्च नभसो गुणम् ॥ १६ ॥

 शब्दं ग्रसति भूतादिः नभस्तमनु लीयते ।

 तैजसश्चेन्द्रियाण्यङ्‌ग देवान्वैकारिको गुणैः ॥ १७ ॥

 महान् ग्रसत्यहङ्‌कारं गुणाः सत्त्वादयश्च तम् ।

 ग्रसतेऽव्याकृतं राजन् गुणान् कालेन चोदितम् ॥ १८ ॥

 न तस्य कालावयवैः परिणामादयो गुणाः ।

 अनाद्यनन्तं अव्यक्तं नित्यं कारणमव्ययम् ॥ १९ ॥

न यत्र वाचो न मनो न सत्त्वं

     तमो रजो वा महदादयोऽमी ।

 न प्राणबुद्धीन्द्रियदेवता वा

     न सन्निवेशः खलु लोककल्पः ॥ २० ॥

 न स्वप्नजाग्रन्न च तत्सुषुप्तं

     न खं जलं भूरनिलोऽग्निरर्कः ।

 संसुप्तवत् शून्यवदप्रतर्क्यं

     तन्मूलभूतं पदमामनन्ति ॥ २१ ॥

 लयः प्राकृतिको ह्येष पुरुषाव्यक्तयोर्यदा ।

 शक्तयः सम्प्रलीयन्ते विवशाः कालविद्रुताः ॥ २२ ॥

 बुद्धीन्द्रियार्थरूपेण ज्ञानं भाति तदाश्रयम् ।

 दृश्यत्वाव्यतिरेकाभ्यां आद्यन्तवदवस्तु यत् ॥ २३ ॥

 दीपश्चक्षुश्च रूपं च ज्योतिषो न पृथग्भवेत् ।

 एवं धीः खानि मात्राश्च न स्युरन्यतमादृतात् ॥ २४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्‌ ! (तीसरे स्कन्ध में) परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त कालका स्वरूप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षोंका होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूँ। अब तुम कल्पकी स्थिति और उसके प्रलयका वर्णन भी सुनो ॥ १ ॥ राजन् ! एक हजार चतुर्युगीका ब्रह्माका एक दिन होता है। ब्रह्माके इस दिनको ही कल्प भी कहते हैं। एक कल्पमें चौदह मनु होते हैं ॥ २ ॥ कल्पके अन्तमें उतने ही समयतक प्रलय भी रहता है। प्रलयको ही ब्रह्माकी रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उनका प्रलय हो जाता है ॥ ३ ॥ इसका नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलयके अवसरपर सारे विश्वको अपने अंदर समेटकर—लीन कर ब्रह्मा और तत्पश्चात् शेषशायी भगवान्‌ नारायण भी शयन कर जाते हैं ॥ ४ ॥ इस प्रकार रातके बाद दिन और दिनके बाद रात होते-होते जब ब्रह्माजीकी अपने मानसे सौ वर्षकी और मनुष्योंकी दृष्टिमें दो पराद्र्धकी आयु समाप्त हो जाती है, तब महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा—ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृतिमें लीन हो जाती हैं ॥ ५ ॥ राजन् ! इसीका नाम प्राकृतिक प्रलय है। इस प्रलयमें प्रलयका कारण उपस्थित होनेपर पञ्चभूतोंके मिश्रणसे बना हुआ ब्रह्माण्ड अपना स्थूल रूप छोडक़र कारणरूपमें स्थित हो जाता है, घुल-मिल जाता है ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! प्रलयका समय आनेपर सौ वर्षतक मेघ पृथ्वीपर वर्षा नहीं करते। किसीको अन्न नहीं मिलता। उस समय प्रजा भूख-प्याससे व्याकुल होकर एक-दूसरेको खाने लगती है ॥ ७ ॥ इस प्रकार कालके उपद्रवसे पीडि़त होकर धीरे-धीरे सारी प्रजा क्षीण हो जाती है। प्रलयकालीन सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समुद्र, प्राणियोंके शरीर और पृथ्वीका सारा रस खींच-खींचकर सोख जाते हैं और फिर उन्हें सदाकी भाँति पृथ्वीपर बरसाते नहीं। उस समय सङ्कर्षण भगवान्‌के मुखसे प्रलयकालीन संवर्तक अग्रि प्रकट होती है ॥ ८-९ ॥ वायुके वेगसे वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आदि सातों नीचेके लोकोंको भस्म कर देती है। वहाँके प्राणी तो पहले ही मर चुके होते हैं नीचेसे आगकी करारी लपटें और ऊपरसे सूर्यकी प्रचण्ड गरमी ! उस समय ऊपर-नीचे, चारों ओर यह ब्रह्माण्ड जलने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबरका उपला जलकर अंगारेके रूपमें दहक रहा हो। इसके बाद प्रलयकालीन अत्यन्त-प्रचण्ड सांवर्तक वायु सैकड़ों वर्षोंतक चलती रहती है। उस समयका आकाश धूएँ और धूलसे तो भरा ही रहता है, उसके बाद असंख्यों रंग-बिरंगे बादल आकाशमें मँडराने लगते हैं और बड़ी भयङ्करताके साथ गरज-गरजकर सैकड़ों वर्षोंतक वर्षा करते रहते हैं। उस समय ब्रह्माण्डके भीतरका सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सब कुछ जलमग्र हो जाता है ॥ १०—१३ ॥

इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वीके विशेष गुण गन्धको ग्रस लेता है— अपनेमें लीन कर लेता है। गन्ध गुणके जलमें लीन हो जानेपर पृथ्वीका प्रलय हो जाता है, वह जलमें घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है ॥ १४ ॥ राजन् ! इसके बाद जलके गुण रसको तेजस्तत्त्व ग्रस लेता है और जल नीरस होकर तेजमें समा जाता है। तदनन्तर वायु तेजके गुण रूपको ग्रस लेता है और तेज रूपरहित होकर वायुमें लीन हो जाता है। अब आकाश वायुके गुण स्पर्शको अपनेमें मिला लेता है और वायु स्पर्शहीन होकर आकाशमें शान्त हो जाता है। इसके बाद तामस अहङ्कार आकाशके गुण शब्दको ग्रस लेता है और आकाश शब्दहीन होकर तामस अहङ्कारमें लीन हो जाता है। इसी प्रकार तैजस अहङ्कार इन्द्रियोंको और वैकारिक (सात्त्विक) अहङ्कार इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवता और इन्द्रियवृत्तियोंको अपनेमें लीन कर लेता है ॥ १५—१७ ॥ तत्पश्चात् महत्तत्त्व अहङ्कारको और सत्त्व आदि गुण महत्तत्त्वको ग्रस लेते हैं। परीक्षित्‌ ! यह सब कालकी महिमा है। उसीकी प्रेरणासे अव्यक्त प्रकृति गुणोंको ग्रस लेती है और तब केवल प्रकृति-ही-प्रकृत शेष रह जाती है ॥ १८ ॥ वही चराचर जगत्का मूल कारण है। वह अव्यक्त, अनादि, अनन्त, नित्य और अविनाशी है। जब वह अपने कार्योंको लीन करके प्रलयके समय साम्यावस्थाको प्राप्त हो जाती है, तब कालके अवयव वर्ष, मास, दिन-रात क्षण आदिके कारण उसमें परिणाम, क्षय, वृद्धि आदि किसी प्रकारके विकार नहीं होते ॥ १९ ॥ उस समय प्रकृतिमें स्थूल अथवा सूक्ष्मरूपसे वाणी, मन, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, महत्तत्त्व आदि विकार, प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय और उनके देवता आदि कुछ नहीं रहते। सृष्टिके समय रहनेवाले लोकोंकी कल्पना और उनकी स्थिति भी नहीं रहती ॥ २० ॥ उस समय स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति—ये तीन अवस्थाएँ नहीं रहतीं। आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्रि और सूर्य भी नहीं रहते। सब कुछ सोये हुएके समान शून्य-सा रहता है। उस अवस्थाका तर्कके द्वारा अनुमान करना भी असम्भव है। उस अव्यक्तको ही जगत्का मूलभूत तत्त्व कहते हैं ॥ २१ ॥ इसी अवस्थाका नाम ‘प्राकृत प्रलय’ है। उस समय पुरुष और प्रकृति दोनोंकी शक्तियाँ कालके प्रभावसे क्षीण हो जाती हैं और विवश होकर अपने मूल-स्वरूपमें लीन हो जाती हैं ॥ २२ ॥

परीक्षित्‌ ! (अब आत्यन्तिक प्रलय अर्थात् मोक्षका स्वरूप बतलाया जाता है।) बुद्धि, इन्द्रिय और उनके विषयोंके रूपमें उनका अधिष्ठान, ज्ञानस्वरूप वस्तु ही भासित हो रही है। उन सबका तो आदि भी है और अन्त भी। इसलिये वे सब सत्य नहीं हैं। वे दृश्य हैं और अपने अधिष्ठानसे भिन्न उनकी सत्ता भी नहीं है। इसलिये वे सर्वथा मिथ्या—-मायामात्र हैं ॥ २३ ॥ जैसे दीपक, नेत्र और रूप—ये तीनों तेजसे भिन्न नहीं हैं, वैसे ही बुद्धि इन्द्रिय और इनके विषय तन्मात्राएँ भी अपने अधिष्ठान स्वरूप ब्रह्मसे भिन्न नहीं हैं यद्यपि वह इनसे सर्वथा भिन्न है; (जैसे रज्जुरूप अधिष्ठानमें अध्यस्त सर्प अपने अधिष्ठानसे पृथक् नहीं है, परन्तु अध्यस्त सर्पसे अधिष्ठानका कोई सम्बन्ध नहीं है) ॥ २४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



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