गुरुवार, 24 जून 2021

शिवसंकल्पसूक्त (कल्याणसूक्त)


 

शिवसंकल्पसूक्त (कल्याणसूक्त)

 

[मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है, परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है; क्योंकि मन सभीको नियन्त्रित करनेवाला, विलक्षण शक्तिसम्पन्न तथा सर्वाधिक प्रभावशाली है। इसकी गति सर्वत्र है, सभी कर्मेन्द्रियाँ-ज्ञानेन्द्रियाँ, सुख-दुःख मनके ही अधीन हैं। स्पष्ट है कि व्यक्तिका अभ्युदय मनके शुभ संकल्पयुक्त होनेपर निर्भर करता है, यही प्रार्थना मन्त्रद्रष्टा ऋषिने इस सूक्तमें व्यक्त की है। यह सूक्त शुक्लयजुर्वेदके ३४वें अध्यायमें पठित है। इसमें छ: मन्त्र हैं। यहाँ सूक्तको भावानुवाद के साथ दिया जा रहा है-]

 

यजाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।

दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥१॥

येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।

यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥२॥

यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।

यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ।।३।।

येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।

येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥४॥

यस्मिन्नृचः साम यजूषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।

यस्मिंश्चित्तसर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ५॥ सुषारथिरश्वानिव यन्यनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव।

हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ६ ॥

                             步步步步步步步步牙牙牙先

जो जागते हुए पुरुष का [मन] दूर चला जाता है और सोते हुए पुरुषका वैसे ही निकट आ जाता है, जो परमात्माके साक्षात्कार का प्रधान साधन है; जो भूत, भविष्य, वर्तमान, संनिकृष्ट एवं व्यवहित पदार्थोंका एकमात्र ज्ञाता है तथा जो विषयोंका ज्ञान प्राप्त करनेवाले श्रोत्र आदि इन्द्रियोंका एकमात्र प्रकाशक और प्रवर्तक है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥१॥

कर्मनिष्ठ एवं धीर विद्वान् जिसके द्वारा यज्ञिय पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके यज्ञमें कर्मोंका विस्तार करते हैं, जो इन्द्रियोंका पूर्वज अथवा आत्मस्वरूप है, जो पूज्य है और समस्त प्रजाके हृदयमें निवास करता है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥२॥

जो विशेष प्रकारके ज्ञानका कारण है, जो सामान्य ज्ञानका कारण है, जो धैर्यरूप है, जो समस्त प्रजा के हृदयमें रहकर उनकी समस्त इन्द्रियोंको प्रकाशित करता है, जो स्थूल शरीरकी मृत्यु होनेपर भी अमर रहता है और जिसके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो ॥३॥

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जिस अमृतस्वरूप मनके द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्यत्सम्बन्धी सभी वस्तुएँ ग्रहण की जाती हैं तथा जिसके द्वारा सात होतावाला अग्निष्टोम यज्ञ सम्पन्न होता है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥४॥

जिस मनमें रथचक्रकी नाभिमें अरोंके समान ऋग्वेद और सामवेद प्रतिष्ठित हैं तथा जिसमें यजुर्वेद प्रतिष्ठित है, जिसमें प्रजाका सब पदार्थों से सम्बन्ध रखनेवाला सम्पूर्ण ज्ञान ओतप्रोत है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥

श्रेष्ठ सारथि जैसे घोड़ों का संचालन और रासके द्वारा घोड़ोंका नियन्त्रण करता है, वैसे ही जो प्राणियों का संचालन तथा नियन्त्रण करनेवाला है, जो हृदयमें रहता है, जो कभी बूढ़ा नहीं होता और जो अत्यन्त वेगवान् है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो ॥६॥                                                                                   … ……….[शुक्लयजुर्वेद अ० ३४]

………......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित वैदिक सूक्त-संग्रह पुस्तक (कोड 1885) से                                             

                                                                                                                                                                                                                                                    

                                                                                                    

                                                                               



शुक्रवार, 18 जून 2021

भिक्षु गीता (पोस्ट०३)


 

|| श्रीहरि: ||

 

भिक्षु गीता  (पोस्ट०३)

 

कालस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-

त्किमात्मनस्तत्र तदात्मकोऽसौ

नाग्नेर्हि तापो न हिमस्य तत्स्यात्-

क्रुध्येत कस्मै न परस्य द्वन्द्वम्   ५६

न केनचित्क्वापि कथञ्चनास्य

द्वन्द्वोपरागः परतः परस्य

यथाहमः संसृतिरूपिणः स्या-

देवं प्रबुद्धो न बिभेति भूतैः ५७

एतां स आस्थाय परात्मनिष्ठा-

मध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभिः

अहं तरिष्यामि दुरन्तपारं

तमो मुकुन्दाङ्घ्रिनिषेवयैव ५८

 

श्रीभगवानुवाच

 

निर्विद्य नष्टद्रविणे गतक्लमः

प्रव्रज्य गां पर्यटमान इत्थम्

निराकृतोऽसद्भिरपि स्वधर्मा-

दकम्पितोऽमूं मुनिराह गाथाम्   ५९

सुखदुःखप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः

मित्रोदासीनरिपवः संसारस्तमसः कृतः ६०

तस्मात्सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया

मय्यावेशितया युक्त एतावान्योगसङ्ग्रहः ६१

य एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः

धारयञ्छ्रावयञ्छृण्वन्द्वन्द्वैर्नैवाभिभूयते   ६२

 

यदि ऐसा मानें कि काल ही सुख-दु:ख का कारण है, तो आत्मापर उसका क्या प्रभाव ? क्योंकि काल तो आत्मस्वरूप ही है। जैसे आग आगको नहीं जला सकती, और बर्फ बर्फको नहीं गला सकता, वैसे ही आत्मस्वरूप काल अपने आत्माको ही सुख-दु:ख नहीं पहुँचा सकता। फिर किसपर क्रोध किया जाय ? आत्मा शीत- उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत है ॥ ५६ ॥ आत्मा प्रकृतिके स्वरूप, धर्म, कार्य, लेश, सम्बन्ध और गन्धसे भी रहित है। उसे कभी कहीं किसीके द्वारा किसी भी प्रकारसे द्वन्द्वका स्पर्श ही नहीं होता। वह तो जन्म-मृत्युके चक्र में भटकने वाले अहङ्कार को ही होता है। जो इस बात को जान लेता है, वह फिर किसी भी भय के निमित्त से भयभीत नहीं होता ॥ ५७ ॥ बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इस परमात्मनिष्ठा का आश्रय ग्रहण किया है। मैं भी इसीका आश्रय ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेमके दाता भगवान्‌ के चरणकमलों की सेवाके द्वारा ही इस दुरन्त अज्ञान-सागरको अनायास ही पार कर लूँगा ॥ ५८ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी ! उस ब्राह्मणका धन क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश ही दूर हो गया। अब वह संसारसे विरक्त हो गया था और संन्यास लेकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचर रहा था। यद्यपि दुष्टोंने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्ममें अटल रहा, तनिक भी विचलित न हुआ। उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकारका गीत गाया करता था ॥ ५९ ॥ उद्धवजी ! इस संसार में मनुष्य को कोई दूसरा सुख या दु:ख नहीं देता, यह तो उसके चित्तका भ्रममात्र है। यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रु के भेद अज्ञानकल्पित हैं ॥ ६० ॥ इसलिये प्यारे उद्धव ! अपनी वृत्तियों को मुझ  में तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति लगाकर मनको वशमें कर लो और फिर मुझमें ही नित्ययुक्त होकर स्थित हो जाओ। बस, सारे योगसाधन  का इतना ही सार-संग्रह है ॥ ६१ ॥ यह भिक्षुक का गीत क्या है, मूर्तिमान् ब्रह्मज्ञान-निष्ठा ही है। जो पुरुष एकाग्रचित्त से इसे सुनता, सुनाता और धारण करता है वह कभी सुख-दु:खादि द्वन्द्वों के वशमें नहीं होता। उनके बीचमें भी वह सिंहके समान दहाड़ता रहता है ॥ ६२ ॥

 

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1536 (स्कन्ध 11/अध्याय 23) से



भिक्षु गीता (पोस्ट०२)


 

 || श्रीहरि: ||

 

भिक्षु गीता  (पोस्ट०२)

 

मनोवशेऽन्ये ह्यभवन्स्म देवा

मनश्च नान्यस्य वशं समेति

भीष्मो हि देवः सहसः सहीया-

न्युञ्ज्याद्वशे तं स हि देवदेवः ४८

तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेग-

मरुन्तुदं तन्न विजित्य केचित्

कुर्वन्त्यसद्विग्रहमत्र मर्त्यै-

र्मित्राण्युदासीनरिपून्विमूढाः ४९

देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा

ममाहमित्यन्धधियो मनुष्याः

एषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेण

दुरन्तपारे तमसि भ्रमन्ति ५०

जनस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-

त्किमात्मनश्चात्र हि भौमयोस्तत्

जिह्वां क्वचित्सन्दशति स्वदद्भि-

स्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत्   ५१

दुःखस्य हेतुर्यदि देवतास्तु

किमात्मनस्तत्र विकारयोस्तत्

यदङ्गमङ्गेन निहन्यते क्वचित्-

क्रुध्येत कस्मै पुरुषः स्वदेहे ५२

आत्मा यदि स्यात्सुखदुःखहेतुः

किमन्यतस्तत्र निजस्वभावः

न ह्यात्मनोऽन्यद्यदि तन्मृषा स्या-

त्क्रुध्येत कस्मान्न सुखं न दुःखम् ५३

ग्रहा निमित्तं सुखदुःखयोश्चे-

त्किमात्मनोऽजस्य जनस्य ते वै

ग्रहैर्ग्रहस्यैव वदन्ति पीडां

क्रुध्येत कस्मै पुरुषस्ततोऽन्यः ५४

कर्मास्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-

त्किमात्मनस्तद्धि जडाजडत्वे

देहस्त्वचित्पुरुषोऽयं सुपर्णः

क्रुध्येत कस्मै न हि कर्म मूलम्   ५५

 

सभी इन्द्रियाँ मनके वशमें हैं । मन किसी भी इन्द्रियके वशमें नहीं है। यह मन बलवान् से भी बलवान्, अत्यन्त भयङ्कर देव है। जो इसको अपने वशमें कर लेता है, वही देव-देव—इन्द्रियोंका विजेता है ॥ ४८ ॥ सचमुच मन बहुत बड़ा शत्रु है। इसका आक्रमण असह्य है। यह बाहरी शरीर को ही नहीं, हृदयादि मर्मस्थानों को भी बेधता रहता है। इसे जीतना बहुत ही कठिन है। मनुष्यों को चाहिये कि सबसे पहले इसी शत्रुपर विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीतनेका प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्योंसे झूठमूठ झगड़ा-बखेड़ा करते रहते हैं और इस जगत् के लोगोंको ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं ॥ ४९ ॥ साधारणत: मनुष्योंकी बुद्धि अंधी हो रही है। तभी तो वे इस मन:कल्पित शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान बैठते हैं और फिर इस भ्रमके फंदेमें फँस जाते हैं कि ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा।’ इसका परिणाम यह होता है कि वे इस अनन्त अज्ञानान्धकार में ही भटकते रहते हैं ॥ ५० ॥

यदि मान लें कि मनुष्य ही सुख-दु:खका कारण है, तो भी उनसे आत्माका क्या सम्बन्ध ? क्योंकि सुख-दु:ख पहुँचानेवाला भी मिट्टीका शरीर है और भोगनेवाला भी। कभी भोजन आदिके समय यदि अपने दाँतोंसे ही अपनी जीभ कट जाय और उससे पीड़ा होने लगे, तो मनुष्य किसपर क्रोध करेगा ? ॥ ५१ ॥ यदि ऐसा मान लें कि देवता ही दु:खके कारण हैं, तो भी इस दु:खसे आत्माकी क्या हानि ? क्योंकि यदि दु:खके कारण देवता हैं, तो इन्द्रियाभिमानी देवताओंके रूपमें उनके भोक्ता भी तो वे ही हैं। और देवता सभी शरीरोंमें एक हैं; जो देवता एक शरीरमें हैं; वे ही दूसरेमें भी हैं। ऐसी दशामें यदि अपने ही शरीरके किसी एक अङ्गसे दूसरे अङ्गको चोट लग जाय तो भला, किसपर क्रोध किया जायगा ? ॥ ५२ ॥ यदि ऐसा मानें कि आत्मा ही सुख-दु:खका कारण है तो वह तो अपना आप ही है, कोई दूसरा नहीं; क्योंकि आत्मासे भिन्न कुछ और है ही नहीं। यदि दूसरा कुछ प्रतीत होता है, तो वह मिथ्या है। इसलिये न सुख है, न दु:ख; फिर क्रोध कैसा ? क्रोधका निमित्त ही क्या ? ॥ ५३ ॥ यदि ग्रहोंको सुख-दु:खका निमित्त मानें, तो उनसे भी अजन्मा आत्माकी क्या हानि ? उनका प्रभाव भी जन्म-मृत्युशील शरीरपर ही होता है। ग्रहोंकी पीड़ा तो उनका प्रभाव ग्रहण करनेवाले शरीरको ही होती है और आत्मा उन ग्रहों और शरीरोंसे सर्वथा परे है। तब भला वह किसपर क्रोध करे ? ॥ ५४ ॥ यदि कर्मोंको ही सुख-दु:खका कारण मानें, तो उनसे आत्माका क्या प्रयोजन ? क्योंकि वे तो एक पदार्थके जड और चेतन—उभयरूप होनेपर ही हो सकते हैं। (जो वस्तु विकारयुक्त और अपना हिताहित जाननेवाली होती है, उसीसे कर्म हो सकते हैं; अत: वह विकारयुक्त होनेके कारण जड होनी चाहिये और हिताहित का ज्ञान रखने के कारण चेतन) किन्तु देह तो अचेतन है और उसमें पक्षीरूपसे रहनेवाला आत्मा सर्वथा निर्विकार और साक्षीमात्र है। इस प्रकार कर्मोंका तो कोई आधार ही सिद्ध नहीं होता। फिर क्रोध किस  पर करें ? ॥ ५५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1536 (स्कन्ध 11/अध्याय 23) से



गुरुवार, 17 जून 2021

भिक्षु गीता (पोस्ट०१)


 

|| श्रीहरि: ||

 

भिक्षु गीता  (पोस्ट०१)

 

द्विज उवाच

 

नायं जनो मे सुखदुःखहेतु-

र्न देवतात्मा ग्रहकर्मकालाः

मनः परं कारणमामनन्ति

संसारचक्रं परिवर्तयेद्यत्   ४३

मनो गुणान्वै सृजते बलीय-

स्ततश्च कर्माणि विलक्षणानि

शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानि

तेभ्यः सवर्णाः सृतयो भवन्ति   ४४

अनीह आत्मा मनसा समीहता

हिरण्मयो मत्सख उद्विचष्टे

मनः स्वलिङ्गं परिगृह्य कामान्-

जुषन्निबद्धो गुणसङ्गतोऽसौ   ४५

दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च

श्रुतं च कर्माणि च सद्व्रतानि

सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः

परो हि योगो मनसः समाधिः ४६

समाहितं यस्य मनः प्रशान्तं

दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम्

असंयतं यस्य मनो विनश्यद्-

दानादिभिश्चेदपरं किमेभिः ४७

 

(ब्राह्मण कहता है-) मेरे सुख अथवा दु:ख  का कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं। श्रुतियाँ और महात्माजन मन को ही इसका परम कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसारचक्र को चला रहा है ॥ ४३ ॥ सचमुच यह मन बहुत बलवान् है। इसी ने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वृत्तियों की सृष्टि की है। उन वृत्तियों के अनुसार ही सात्त्विक, राजस और तामस—अनेकों प्रकार के कर्म होते हैं और कर्मोंके अनुसार ही जीवकी विविध गतियाँ होती हैं ॥ ४४ ॥ मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है। उसके साथ रहनेपर भी आत्मा निष्क्रिय ही है। वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीवका सनातन सखा है और अपने अलुप्त ज्ञान से सब कुछ देखता रहता है। मनके द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। जब वह मन को स्वीकार करके उसके द्वारा विषयों का भोक्ता बन बैठता है, तब कर्मोंके साथ आसक्ति होने के कारण वह उनसे बँध जाता है ॥ ४५ ॥ दान, अपने धर्म का पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत—इन सबका अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान्‌ में लग जाय। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है ॥ ४६ ॥ जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मोंका फल प्राप्त हो चुका है। अब उनसे कुछ लेना बाकी नहीं है। और जिसका मन चञ्चल है अथवा आलस्यसे अभिभूत हो रहा है, उसको इन दानादि शुभकर्मों से अबतक कोई लाभ नहीं हुआ ॥ ४७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1536 (स्कन्ध 11/अध्याय 23) से

 



मंगलवार, 15 जून 2021

पुरुषसूक्त


 


|| श्रीहरि: ||


पुरुषसूक्त

(शुक्लयजुर्वेदीय)


वेदों में प्राप्त सूक्तों में  ‘पुरुषसूक्त' का अत्यन्त महनीय स्थान है। आध्यात्मिक तथा दार्शनिक दृष्टिसे इस सूक्त का बड़ा महत्व है। इसीलिये यह सूक्त ऋग्वेद (१०वें मण्डल का ९०वाँ सूक्त), यजुर्वेद (३१वाँ अध्याय), अथर्ववेद (१९वें काण्डका छठा सूक्त), तैत्तिरीयसंहिता, शतपथब्राह्मण तथा तैत्तिरीय आरण्यक आदिमें किंचित् शब्दान्तर के साथ प्राय: यथावत् प्राप्त होता है। मुद्गलोपनिषद् में भी पुरुषसूक्त प्राप्त हैं, जिसमें दो मन्त्र अतिरिक्त हैं। पुरुषसूक्त में सोलह मन्त्र हैं। ऋग्वेदीय पुरुषसूक्त के ऋषि नारायण तथा देवता 'पुरुष' हैं। वेदोक्त पूजा-अर्चा में पुरुषसूक्त के सोलह मन्त्रों का प्रयोग भगवान् के षोडशोपचार-पूजन तथा यजन में सर्वत्र होता है। इस सूक्त में विराट् पुरुष परमात्माकी महिमा निरूपित है और सृष्टि-निरूपणकी प्रक्रिया बतायी गयी है। उस विराट् पुरुषको अनन्त सिर, नेत्र और चरणवाला बताया गया है 'सहस्रशीर्षा पुरुषः।' इस सूक्तमें बताया गया है कि यह सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड उनको एकपाद्विभूति है अर्थात् चतुर्थांश है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ,कैलास,साकेत आदि) हैं। इस सूक्त में यज्ञपुरुष नारायण की यज्ञद्वारा यजनकी प्रक्रिया भी बतायी गयी है। यहाँपर शुक्लयजुर्वेदीय तथा मुद्गलोपनिषद में प्राप्त पुरुषसूक्त का भावार्थ दिया जा रहा है—


हरिः ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।

स भूमिꣳ सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ १॥

पुरुष एवेदꣳ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ २॥

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ ३॥

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत् पुनः ।

ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥ ४॥

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुषः ।

स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥ ५॥

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।

पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥ ६॥

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे ।

छन्दाꣳसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥ ७॥

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।

गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः ॥ ८॥

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।

तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥ ९॥

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।

मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥ १०॥

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याꣳ शूद्रो अजायत ॥ ११॥

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।

श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ॥ १२॥

नाभ्या आसीदन्तरिक्षᳫ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।

पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँऽकल्पयन् ॥ १३॥

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।

वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥ १४॥

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।

देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन् पुरुषं पशुम् ॥ १५॥

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।

ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥ १६॥

                                    .........[शु०यजु० ३१।१–१६]


उन परम पुरुषके सहस्रों (अनन्त) मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों चरण हैं। वे इस सम्पूर्ण विश्वको समस्त भूमि (पूरे स्थान)-को सब ओरसे व्याप्त करके इससे दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्डमें व्यापक होते हुए उससे परे भी हैं ॥१॥ यह जो इस समय वर्तमान (जगत्) है, जो बीत गया और जो आगे होनेवाला है, वह सब वे परम पुरुष ही हैं। इसके अतिरिक्त वे देवताओंके तथा जो अन्नसे (भोजनद्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर (अधीश्वर--शासक) हैं ॥ २ ॥ यह भूत, भविष्य, वर्तमानसे सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुषका वैभव है। वे अपने इस विभूति-विस्तारसे भी महान् हैं। उन परमेश्वरकी एकपाद्विभूति (चतुर्थांश)-में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है। उनकी शेष त्रिपाद्विभूतिमें शाश्वत दिव्यलोक (वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि) हैं ॥३॥ वे परम पुरुष स्वरूपतः इस मायिक जगत् से परे त्रिपाद्विभूति में प्रकाशमान हैं (वहाँ माया का प्रवेश न होनेसे उनका स्वरूप नित्य प्रकाशमान है)। इस विश्वके रूपमें उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है अर्थात् एक पादसे वे ही विश्वरूप भी हैं, इसलिये वे ही सम्पूर्ण जड एवं चेतनमय उभयात्मक जगत् को परिव्याप्त किये हुए हैं।॥ ४॥ उन्हीं आदिपुरुष से विराट् (ब्रह्माण्ड) उत्पन्न हुआ। वे परम पुरुष ही विराट् के अधिपुरुष-अधिदेवता (हिरण्यगर्भ)-रूपसे उत्पन्न होकर अत्यन्त प्रकाशित हुए। बादमें उन्होंने भूमि (लोकादि) तथा शरीर (देव, मानव, तिर्यक् आदि) उत्पन्न किये॥५॥ जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञपुरुषसे उसीने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायुमें, वनमें एवं ग्राममें रहनेयोग्य पशु उत्पन्न किये॥६॥ उसी सर्वहुत यज्ञपुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसीसे यजुर्वेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसीसे सभी छन्द भी उत्पन्न हुए॥७॥उसीसे घोड़े उत्पन्न हुए, उसीसे गायें उत्पन्न हुईं और उसीसे भेड़ बकरियाँ उत्पन्न हुईं। वे दोनों ओर दाँतोंवाले हैं॥८॥ देवताओं, साध्यों तथा ऋषियोंने सर्वप्रथम उत्पन्न हुए उस यज्ञ पुरुषको कुशापर अभिषिक्त किया और उसीसे उसका यजन किया॥९॥ पुरुष का जब विभाजन हुआ तो उसमें कितनी विकल्पनाएँ की गयीं? उसका मुख क्या था? उसके बाहु क्या थे? उसके जंघे क्या थे? और उसके पैर क्या कहे जाते हैं? ॥१०॥ ब्राह्मण इसका मुख था (मुखसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए)। क्षत्रिय दोनों भुजाएँ बने (दोनों भुजाओंसे क्षत्रिय उत्पन्न हुए)। इस पुरुषकी जो दोनों जंघाएँ थीं, वे ही वैश्य हुईं अर्थात् उनसे वैश्य उत्पन्न हुए और पैरोंसे शूद्रवर्ण प्रकट हुआ॥११॥ इस परम पुरुषके मनसे चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रोंसे सूर्य प्रकट हुए, कानोंसे वायु और प्राण तथा मुखसे अग्नि की उत्पत्ति हुई ॥१२॥ उन्हीं परम पुरुषकी नाभि से अन्तरिक्षलोक उत्पन्न हुआ, मस्तक से स्वर्ग प्रकट हुआ, पैरों से पृथिवी, कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुषमें ही कल्पित हुए।।। १३ ।। जिस पुरुषरूप हविष्य से देवोंने यज्ञका विस्तार किया, वसन्त उसका घी था, ग्रीष्म काष्ठ एवं शरद हवि थी॥१४॥ देवताओं ने जब यज्ञ करते समय (संकल्पसे) पुरुषरूप पशुका बन्धन किया, तब सात समुद्र इसकी परिधि (मेखलाएँ) थे। इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकारसे) समिधाएँ बनीं ॥ १५ ॥ देवताओंने (पूर्वोक्त रूपसे) यज्ञके द्वारा यज्ञस्वरूप परम पुरुषका यजन (आराधन) किया। इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए। उन धर्मो के आचरण से वे देवता महान् महिमावाले होकर उस स्वर्गलोकका सेवन करते हैं, जहाँ प्राचीन साध्यदेवता निवास करते हैं। अतः हम सभी सर्वव्यापी जड-चेतनात्मकरूप विराट् पुरुष की करबद्ध स्तुति करते हैं। ॥ १६॥


                         .....गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित वैदिक सूक्त-संग्रह पुस्तक (कोड 1885) से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...