शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 10)

 

ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


अधोगति---

अधःगतिको प्राप्त होनेवाले वे जीव हैं, जो अनेक प्रकारके पापोंद्वारा अपना समस्त जीवन कलङ्कित किये हुए होते हैं, उनके अन्तकालकी वासना कर्मानुसार तमोमयी ही होती है, इससे वे नीच गतिको प्राप्त होते हैं।

जो लोग अहंकार, बल, घमण्ड, काम और क्रोधादिके परायण रहते हैं, परनिन्दा करते हैं, अपने तथा पराये सभीके शरीरमें स्थित अन्तर्यामी परमात्मासे द्वेष करते हैं। ऐसे द्वेषी, पापाचारी, क्रूरकर्मी नराधम मनुष्य सृष्टिके नियन्त्रणकर्ता भगवान्‌के विधानसे बारम्बार आसुरी योनियोंमें उत्पन्न होते हैं और आगे चलकर वे उससे भी अति नीच गतिको प्राप्त होते हैं ( गीता १६ । १८ से २० )।

इस नीच गतिमें प्रधान हेतु काम, क्रोध और लोभ है। इन्हीं तीनोंसे आसुरी सम्पत्तिका संग्रह होता है। भगवान्‌ने इसीलिये इनका त्याग करनेकी आज्ञा दी है-

त्रिविधं - नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्त्था लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥
...............( गीता १६ । २१ )

काम-क्रोध तथा लोभ यह तीन प्रकारके नरकके द्वार अर्थात्‌ सब अनर्थोंके मूल और नरककी प्राप्तिमें हेतु हैं, यह आत्माका नाश करनेवाले यानी उसे अधोगतिमें ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 09)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:




ऊर्ध्व गति—

श्रुति कहती है-
‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणोयोनिं व क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाऽथ य इह कपूयचरणा अभ्यासो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरञ्श्र्वयोनिं वा सूकरयोनिं व चाण्डालयोनिं वा।’
………..( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ७ )

इनमें जिनका आचरण अच्छा होता है यानी जिनका पुण्य संचय होता है वे शीघ्र ही किसी ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्यकी रमणीय योनिको प्राप्त होता है। ऐसे ही जिनका आचरण बुरा होता है अर्थात्‌ जिनके पापका संचय होता है वे किसी श्वान, सूकर या चाण्डालकी अधम योनिको प्राप्त होते हैं।’

यह ऊर्ध्व गति के भेद और एक से वापस न आने और दूसरी से लौटकर आने का क्रम हुआ |

मध्य गति---
मध्यगति यह मनुष्यलोक को प्राप्त होनेवाले जीवोंकी रजोगुणकी वृद्धिमें मृत्यु होनेपर उनका प्राणवायु सूक्ष्मशरीर सहित समष्टि लौकिक वायुमें मिल जाता है। व्यष्टि प्राणवायुको समष्टि प्राणवायु अपनेमें मिलाकर इस लोकमें जिस योनिमें जीवको जाना चाहिये, उसीके खाद्य पदार्थमें उसे पहुंचा देता है, यह वायुदेवता ही इसके योनि परिवर्तन का प्रधान साधक होता है, जो सर्वशक्तिमान‌ ईश्वर की आज्ञा और उसके निर्भ्रान्त विधान के अनुसार जीव को उसके कर्मानुसार भिन्न भिन्न मनुष्यों के खाद्यपदार्थों द्वारा उनके पक्वाशय में पहुंचाकर उपर्युक्त प्रकार के वीर्यरूप में परिणत कर मनुष्यरूप में उत्पन्न कराता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........

................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 08)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


ऊर्ध्व गति—

वापस लौटनेका क्रम—

स्वर्गादिसे वापस लौटनेका क्रम उपनिषदोंके अनुसार यह है--

तस्मिन्यावत्सम्पातमुषित्वाऽयैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्त्तन्ते, यथैतमाकाशमाकाशाद्वायुं वायुर्भूत्वा धूमो भवति, धूमो भूत्वाऽभ्रं भवति। अभ्रं भूत्वा मेघो भवति, मेघो भूत्वा प्रवर्षति, त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमाषा इति जायन्तेऽतो वै खलु दुर्निष्प्रपतरं यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेतः सिञ्चति तद्‌भूय एव भवति।’ .......( छान्दोग्य उ० ५ । १० । ५-६ )

कर्मयोग की अवधि तक देवभोगों को भोगने के बाद वहां से गिरते समय जीव पहले आकाशरूप होता है, आकाश से वायु, वायु से धूम, धूमसे अभ्र और अभ्र से मेघ होते हैं। मेघ से जलरूप में बरसते हैं और भूमि पर्वत नदी आदि में गिरकर, खेतों में वे व्रीहि, यव, औषधि वनस्पति, तिल, आदि खाद्य पदार्थोंमें सम्बन्धित होकर पुरुषोंके द्वारा खाये जाते हैं। इसप्रकार पुरुषके शरीरमें पहुंचकर रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि आदि होते हुए अन्तमें वीर्य में सम्मिलित होकर शुक्र-सिंचनके साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं, वहां गर्भकाल की अवधि तक माता के खाये हुए अन्न जल से पालित होते हुए समय पूरा होने पर अपान वायु की प्रेरणा से मल मूत्र की तरह वेग पाकर स्थूलरूप में बाहर निकल आते हैं। कोई कोई ऐसा भी मानते हैं कि गर्भ में शरीर पूरा निर्माण हो जानेपर उसमें जीव आता है परन्तु यह बात ठीक नहीं मालूम होती। बिना चैतन्य के गर्भ में बालक का बढ़ना संभव नहीं । यह लौटकर आनेवाले जीव कर्मानुसार मनुष्य या पशु आदि योनियों को प्राप्त होते हैं।

शेष आगामी पोस्ट में ..........

................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 07)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



ऊर्ध्व गति—

ये धूम, रात्रि और अर्चि, दिन नामक भिन्न भिन्न लोकों के अभिमानी देवता हैं, जिनका रूप भी उन्हीं नामों के अनुसार है। जीव इन देवताओं के समान रूप को प्राप्तकर क्रमशः आगे बढ़ता है। इनमेंसे अर्चिमार्गवाला प्रकाशमय लोकोंके मार्गसे प्रकाशपथके अभिमानी देवताओंद्वारा ले जाया जाकर क्रमशः विद्युत लोकतक पहुंचकर अमानव पुरुषके द्वारा बड़े सम्मानके साथ भगवान्‌ के सर्वोत्तम दिव्य परमधाममें पहुंच जाता है। इसीको ब्रह्मोपासक ब्रह्मलोक का शेष भाग-सर्वोच्च गति, श्रीकृष्ण के उपासक दिव्य गोलोक, श्रीराम के उपासक दिव्य साकेतलोक, शैव शिवलोक, जैन मोक्षशिला, मुसलमान सातवाँ आसमान और ईसाई स्वर्ग कहते हैं।

इस दिव्य धाम में पहुंचने वाला महापुरुष सारे लोकों और मार्गों को लाँघता हुआ एक प्रकाशमय दिव्य स्थानमें स्थित होता है, जहां उसमें सभी सिद्धियां और सभी प्रकार की शक्तियां प्राप्त हो जाती हैं । वह कल्पपर्यन्त अर्थात्‌ ब्रह्मा के आयु तक वहां दिव्यभाव से रहकर अन्त में भगवान्‌ में मिल जाता है । अथवा भगवदिच्छा से भगवान्‌ के अवतार की ज्यों बन्धनमुक्त अवस्था में ही लोकहितार्थ संसार में आ भी सकता है। ऐसे ही महात्मा को कारक पुरुष कहते हैं ।

धूममार्ग के अभिमानी देवगण और इनके लोक भी सभी प्रकाशमय हैं, परन्तु इनका प्रकाश अर्चिमार्गवालोंकी अपेक्षा बहुत कम है तथा ये जीवको मायामय विषयभोग भोगनेवाले मार्गोंमें ले जाकर ऐसे लोकमें पहुंचाते हैं, जहांसे वापस लौटना पड़ता है, इसीसे यह अन्धकारके अभिमानी बतलाये गये हैं। इस मार्गमें भी जीव देवताओंकी तद्रूपताको प्राप्त करता हुआ चन्द्रमाकी रश्मियोंके रूपमें होकर उन देवताओंके द्वार ले जाया हुआ अन्तमें चन्द्रलोकको प्राप्त होता है और वहांसे भोग भोगकर पुण्यक्षय होते ही वापस लौट आता है।

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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


श्रीकृष्णाय वयं नुम:


नाथ ! 

आप स्वरूप से निष्क्रिय होनेपर भी माया के द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलानेवाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करनेवाले पर भी समस्त अभिलषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ 

तं त्वानुभूत्योपरतक्रियार्थं
     स्वमायया वर्तितलोकतन्त्रम् ।
नमाम्यभीक्ष्णं नमनीयपाद
     सरोजमल्पीयसि कामवर्षम् ॥ २१ ॥

(श्रीमद्भागवत ३|२१|२१)


बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 06)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



ऊर्ध्व गति—

श्रुति कहती है-
‘ते य एवमेतद्विदुः ये चामी अरण्ये श्रद्धाँ सत्यमुपासते तेऽर्च्चिरभिसम्भवन्ति, अर्चिषोऽहरह्न, आपूर्य्यमाणपक्षमापूर्य्यमाणपक्षाद्यान्‌ षण्मासानुदड्‌ङादित्य एति मासेभ्यो देवलोकं देवलोकादादित्यमादित्याद्वेद्युतं, तान्‌ वैद्युतान्‌ पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकान्‌ गमयति ते ते ब्रह्मलोकेषु पराः। परावतो वसन्ति तेषां न पुनरावृत्तिः॥’
………( बृहदारण्य उ० २ । ६ )

‘जिनको ज्ञान होता है, जो अरण्य में श्रद्धायुक्त होकर सत्य की उपासना करते हैं, वे अर्चिरूप होते हैं, अर्चि से दिन रूप होते हैं, दिन से शुक्लपक्षरूप होते हैं, शुक्लपक्ष से उत्तरायणरूप होते हैं, उत्तरायण से देवलोकरूप होते हैं, देवलोक से आदित्यरूप होते हैं, आदित्य से विद्युतरूप होते हैं, यहां से अमानव पुरुष उन्हें ब्रह्मलोक में ले जाते हैं। वहां अनन्त वर्षों तक वह रहते हैं, उनको वापस नहीं लौटना पड़ता ।’ यह देवयान मार्ग है । एवं--

‘अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसम्भवन्ति धूमाद्रात्रिँ रात्रेरपक्षीयमाणपक्षमपक्षीयमाणपक्षाद्यान्‌ षण्मासान्‌ दक्षिणाऽऽदित्य एति मासेभ्यः पितृलोकं पितृलोकाञ्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति ताँस्तत्र देवा यथा सोमँराजाननाप्यायस्वापक्षीयस्त्वेत्येवमनाँस्तत्र भक्षयन्ति.....।’
……..( बृहदारण्यक उ० २ । ६ )

जो सकाम भाव से यज्ञ-दान तथा तपद्वारा लोकों पर विजय प्राप्त करते हैं, वे धूम को प्राप्त होते हैं, धूम से रात्रिरूप होते हैं, रात्रि से कृष्णपक्षरूप होते हैं, कृष्णपक्ष से दक्षिणायन को प्राप्त होते हैं, दक्षिणायन से पितृलोक को और वहां से चन्द्रलोक को प्राप्त होते हैं। चन्द्रलोक प्राप्त होनेपर वे अन्नरूप होते हैं...और देवता उनको भक्षण करते हैं।’ यहां ‘अन्न’ होने और ‘भक्षण’ करनेसे यह मतलब है कि वे देवताओं की खाद्य वस्तु में प्रविष्ट होकर उनके द्वारा खाये जाते हैं और फिर उनसे देवरूप में उत्पन्न होते हैं। अथवा ‘अन्न’ शब्द से उन जीवों को देवताओं का आश्रयी समझना चाहिये। नौकर को भी अन्न कहते हैं, सेवा करने वाले पशुओं को भी अन्न कहते हैं-- "पशवः अन्नम्‌" आदि वाक्यों से यह सिद्ध है। वे देवताओं के नौकर होने से अपने सुखों से वञ्चित नहीं हो सकते। यह पितृयान मार्ग है।

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................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 05)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


ऊर्ध्व गति—

भगवान्‌ कहते हैं-
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्ल षण्मासा उत्तरायणम‌्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥
धूमो रात्रिस्तया कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्‌।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥
.....................( गीता ८ । २४ से २६ )

‘दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि अभिमानी देवता, दिनका अभिमानी देवता, शुक्लपक्ष का अभिमानी देवता और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है। उस मार्ग में मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता अर्थात्‌ परमेश्वर की उपासना से परमेश्वर को परोक्षभाव से जानने वाले योगीजन उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गये हुए ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।’ तथा जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता, रात्रि अभिमानी देवता, कृष्णपक्ष का अभिमानी देवता और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्गसे मरकर गया हुआ सकाम कर्मयोगी उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर, स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है। जगत्‌ के यह शुक्ल और कृष्ण नामक दो मार्ग सनातन माने गये हैं। इनमेंसे एक ( शुक्ल मार्ग ) द्वारा गया हुआ वापस न लौटनेवाली परम गतिको प्राप्त होता है और दूसरे ( कृष्ण मार्ग ) के द्वारा गया हुआ वापस आता है, अर्थात्‌ जन्म मृत्युको प्राप्त होता है।

शुक्ल-अर्चि या देवयान मार्गसे गये हुए योगी नहीं लौटते और कृष्ण-धूम या पितृयान मार्गसे गये हुए योगियों को लौटना पड़ता है।

शेष आगामी पोस्ट में ..........

................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 04)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:


तीन प्रकारकी गति

जब साधक ध्यान करने बैठता है--कुछ समय स्वस्थ और एकान्त चित्त से परमात्मा का चिन्तन करना चाहता है, तब यह देखा जाता है कि पूर्व के अभ्यास के कारण उसे प्रायः उन्हीं कार्यों या भावों की स्फुरणा होती है, जैसे कार्यों में वह सदा लगा रहता है। वह साधक बार बार मन को विषयोंसे हटाने का प्रयत्न करता है, उसे धिक्कारता है, बहुत पश्चाताप भी करता है तथापि पूर्व का अभ्यास उसकी वृत्तियों को सदाके कार्यों की ओर खींच ले जाता है। जब मनुष्य सावधान अवस्थामें भी मन की साधना को सहसा अपनी इच्छानुसार नहीं बना सकता, तब जीवनभर के अभ्यास के विरुद्ध मृत्युकाल में हमारी वासना अनायास ही शुभ हो जायगी, यह समझना भ्रमके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। भगवान्‌ भी कहते हैं--सदा तद्भावभावितः।’

यदि ऐसा ही होता तो शनैः शनैः उपरामताको प्राप्त करने और बुद्धिद्वारा मन को परमात्मा में लगाने की आज्ञा भगवान्‌ कैसे देते? ( गीता ६ । २५ )। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्यके कर्मोंके अनुसार ही उसकी भावना होती है, जैसी अन्तकालकी भावना होती है--जिस गुणमें उसकी स्थिति होती है, उसीके अनुसार परवश होकर जीवको कर्मफल भोगनेके लिये दूसरी योनि में जाना पड़ता है !

ऊर्ध्वगति के दो भेद-इस ऊर्ध्व गति के दो भेद हैं। एक ऊर्ध्व गति से वापस लौटकर आना पड़ता है। इसी को गीता में शुक्लकृष्ण गति और उपनिषदों में देवयान पितॄयान कहा है। सकाम भावसे वेदोक्त कर्म करने वाले, स्वर्ग-प्राप्तिके प्रतिबन्धक देव ऋणरूप पापसे छूटे हुए पुण्यात्मा पुरुष धूममार्ग से पुण्यलोकों को प्राप्त होकर वहां दिव्य देवताओं के विशाल भोग भोगकर , पुण्य क्षीण होते ही पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं और निष्कामभाव से भगवद्भक्ति या ईश्वरार्पण बुद्धिसे भेदज्ञानयुक्त श्रौत-स्मार्त कर्म करनेवाले-परोक्षभाव से परमेश्वर को जानने वाले योगीजन क्रम से ब्रह्म को प्राप्त होजाते हैं।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 03)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:



तीन प्रकारकी गति

यहां यह प्रश्न होता है कि यदि वासना के अनुसार ही अच्छे बुरे लोकों की प्राप्ति होती है तो कोई मनुष्य अशुभ वासना ही क्यों करेगा ? सभी कोई उत्तम लोकों को पाने के लिये उत्तम वासना ही करेंगे ? इसका उत्तर यह है कि अन्तकाल की वासना या कामना अपने आप नहीं होती, वह प्रायः उसके तात्कालिक कर्मों के अनुसार ही हुआ करती है। आयु के शेष काल में या अन्तकाल के समय मनुष्य जैसे कर्मों में लिप्त रहता है, करीब करीब उन्हीं के अनुसार उसकी मरण-काल की वासना होती है। मृत्यु का कोई पता नहीं, कब आ जाय, इससे मनुष्य को सदा सर्वदा उत्तम कर्मों में ही लगे रहना चाहिये। सर्वदा शुभ कर्मों में लगे रहनेसे वासना भी शुद्ध रहेगी, सर्वथा शुद्ध वासना रहना ही सत्त्वगुणी स्थिति है क्योंकि देह के सभी द्वारों में चेतनता और बोध-शक्ति का उत्पन्न होना ही सत्त्वगुण की वृद्धि का लक्ष्ण है ( गीता १४ । ११ ) और इस स्थिति में होनेवाली मृत्यु ही ऊर्ध्वलोकों की प्राप्ति का कारण है।
जो लोग ऐसा समझते हैं कि अन्तकालमें सात्त्विक वासना कर ली जायगी, अभी से उसकी क्या आवश्यकता है ? वे बड़ी भूल करते हैं । अन्तकाल में वही वासना होगी, जैसी पहले से होती रही होगी ।

शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


सोमवार, 13 फ़रवरी 2023

जीवसम्बन्धी प्रश्नोत्तर (पोस्ट 02)


 ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:  

जीव अपनी पूर्वकी योनिसे, योनिके अनुसार साधनोंद्वारा प्रारब्ध कर्मका फल भोगनेके लिये पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मराशि के अनन्त संस्कारोंको साथ लेकर सूक्ष्म शरीरसहित परवश नयी योनिमें आता है। गर्भसे पैदा होनेवाला जीव अपनी योनिका गर्भकाल पूरा होनेपर प्रसूतिरूप अपान वायुकी प्रेरणासे बाहर निकलता है और प्राण निकलनेपर सूक्ष्म शरीर और शुभाशुभ कर्मराशिके संस्कारोंसहित कर्मानुसार भिन्न भिन्न साधनों और मार्गों द्वारा मरणकाल की कर्मजन्य वासना के अनुसार परवशता से भिन्न भिन्न गतियोंको प्राप्त होता है। संक्षेपमें यही सिद्धान्त है। परन्तु इतने शब्दोंसे ही यह बात ठीक समझमें नहीं आती ।
शास्त्रोंके विविध प्रसंगोंमें भिन्न भिन्न वर्णन पढ़कर भ्रमसा हो जाता है, इसलिये कुछ विस्तार से विवेचन किया जाता है-
तीन प्रकारकी गति
भगवान्‌ने श्रीगीताजीमें मनुष्यकी तीन गतियां बतलायी हैं।---अधः, मध्य और ऊर्ध्व । तमोगुणसे नीची, रजोगुणसे बीचकी और सतोगुणसे ऊंची गति प्राप्त होती है। भगवान्‌ने कहा है-
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥
……………( गीता १४ । १८ )
‘सत्त्वगुणमें स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकोंको जाते हैं, रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मध्यमें अर्थात्‌ मनुष्य लोकमें ही रहते हैं एवं तमोगुणके कार्यरूप निद्रा प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित हुए तामस पुरुष, अधोगति अर्थात्‌ कीट, पशु आदि नीच योनियोंको प्राप्त होते हैं।’ यह स्मरण रखना चाहिये कि, तीनों गुणोंमेंसे किसी एक या दो का सर्वथा नाश नहीं होता , संग और कर्मोंके अनुसार कोईसा एक गुण बढ़कर शेष दोनों गुणोंको दबा लेता है। तमोगुणी पुरुषोंकी संगति और तमोगुणी कार्योंसे तमोगुण बढ़कर रज और सत्त्वको दबाता है, रजोगुणी संगति और कार्योंसे रजोगुण बढ़कर तम और सत्त्वको दबा लेता है तथा इसीप्रकार सतोगुणी संगति और कार्योंसे सत्त्वगुण बढ़कर रज और तमको दबा लेता है ( गीता १४ । १० )। जिस समय जो गुण बढ़ा हुआ होता है, उसीमें मनुष्यकी स्थिति समझी जाती है और जिस स्थितिमें मृत्यु होती है, उसीके अनुसार उसकी गति होती है। यह नियम है कि अन्तकालमें मनुष्य जिस भावका स्मरण करता हुआ शरीरका त्याग करता है, उसीप्रकारके भावको वह प्राप्त होता है। ( गीता ८ । ६ )। सतोगुणमें स्थिति होनेसे ही अन्तकालमें शुभ भावना या वासना होती है। शुभ वासनामें सत्त्वगुणकी वृद्धिमें मृत्यु होनेसे मनुष्य निर्मल ऊर्ध्वके लोकोंको जाता है।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...