॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥७॥
कायरतारूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित अन्त:करणवाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित कल्याण करनेवाली हो,वह बात मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये।
व्याख्या—
प्रत्येक मनुष्य वास्तव में साधक है । कारण कि चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए जीव को भगवान् यह मनुष्य शरीर केवल अपना कल्याण करने के लिए ही प्रदान करते हैं । इसलिये किसी भी मनुष्य को अपने कल्याण से निराश नहीं होना चाहिये । मनुष्यमात्र को परमात्मप्राप्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है । साधक होने के नाते मनुष्यमात्र अपने साध्य को प्राप्त करने में स्वतन्त्र, समर्थ, योग्य और अधिकारी है । सबसे पहले इस बात की आवश्यकता है कि मनुष्य अपने उद्देश्य को पहचानकर दृढ़तापूर्वक यह स्वीकार कर ले कि मैं संसारी नहीं हूँ, प्रत्युत साधक हूँ ।
मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं शूद्र हूँ, मैं ब्रह्मचारी हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं वानप्रस्थ हूँ, मैं सन्यासी हूँ आदि मान्यताएँ केवल सांसारिक व्यवहार (मर्यादा)- के लिये तो ठीक हैं, पर परमात्म प्राप्तिमें ये बाधक है। ये मान्यताएँ शरीर को लेकर हैं । परमात्मप्राप्ति शरीर को नहीं होती, प्रत्युत स्वयं साधक को होती है । साधक स्वयं अशरीरी ही होता है ।
अर्जुन ने अपने वास्तविक उद्देश्य को पहचान लिया है कि मुझे अपना कल्याण करना है । इसलिये वे युद्ध करने अथवा न करनेकी बात न पूछकर अपने कल्याणका निश्चित उपाय पूछते हैं ।
ॐ तत्सत् !
शेष आगामी पोस्ट में .........