सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे  
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥७॥

कायरतारूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला और धर्म के विषय में मोहित अन्त:करणवाला मैं आपसे पूछता हूँ कि जो निश्चित कल्याण करनेवाली हो,वह बात मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये।

व्याख्या—

प्रत्येक मनुष्य वास्तव में साधक है  ।  कारण कि चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए जीव को भगवान्‌ यह मनुष्य शरीर केवल अपना कल्याण करने के लिए ही प्रदान करते हैं ।  इसलिये किसी भी मनुष्य को अपने कल्याण से  निराश नहीं होना चाहिये ।  मनुष्यमात्र को परमात्मप्राप्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है । साधक होने के नाते मनुष्यमात्र अपने साध्य को प्राप्त करने में स्वतन्त्र, समर्थ, योग्य और अधिकारी है ।  सबसे पहले इस बात की  आवश्यकता है कि मनुष्य अपने उद्देश्य को पहचानकर दृढ़तापूर्वक यह स्वीकार कर ले कि मैं संसारी नहीं हूँ, प्रत्युत साधक हूँ ।

मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं शूद्र हूँ, मैं ब्रह्मचारी हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं वानप्रस्थ हूँ, मैं सन्यासी हूँ आदि मान्यताएँ केवल सांसारिक व्यवहार (मर्यादा)- के लिये तो ठीक हैं, पर परमात्म प्राप्तिमें ये बाधक है।  ये मान्यताएँ शरीर को लेकर हैं ।  परमात्मप्राप्ति शरीर को नहीं होती, प्रत्युत स्वयं साधक को होती है ।  साधक स्वयं अशरीरी ही होता है ।

अर्जुन ने अपने वास्तविक उद्देश्य को पहचान लिया है कि मुझे अपना कल्याण करना है ।  इसलिये वे युद्ध करने अथवा न करनेकी बात न पूछकर अपने कल्याणका निश्चित उपाय पूछते हैं ।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभि: प्रति योत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥ ४॥
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् 
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव 
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥ ५॥
न चैतद्विद्म: कतरन्नो गरीयो- 
यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- 
स्तेऽवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा:॥ ६॥

अर्जुन बोले—

हे मधुसूदन! मैं रणभूमिमें भीष्म और द्रोणके साथ बाणोंसे कैसे युद्ध करूँ? क्योंकि हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजाके योग्य हैं।
महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर इस लोक में मैं भिक्षाका अन्न खाना भी श्रेष्ठ समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनोंको मारकर यहाँ रक्तसे सने हुए तथा धनकी कामनाकी मुख्यतावाले भोगोंको ही तो भोगूँगा!
हम यह भी नहीं जानते कि हमलोगोंके लिये (युद्ध करना और न करना—इन) दोनोंमेंसे कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है अथवा हम उन्हें जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


रविवार, 8 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 08)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

भगवान् शंकर ने ‘राम’ नाम के प्रभाव से काशी में मुक्ति का क्षेत्र खोल दिया और इसी महामन्त्र के जप से ईश से ‘महेश’ हो गये । अब आगे गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒

महिमा जासु जान गनराऊ ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ॥
                  ………..………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ४)

सम्पूर्ण त्रिलोकी की प्रदक्षिणा करके जो सबसे पहले आ जाय, वही सबसे पहले पूजनीय हो‒देवताओंमें ऐसी शर्त होनेसे गणेशजी निराश हो गये, पर नारदजीके कहनेसे गणेशजीने ‘राम’ नाम पृथ्वीपर लिखकर उसकी परिक्रमा कर ली । इस कारण उनकी सबसे पहले परिक्रमा मानी गयी । नामकी ऐसी महिमा जाननेसे गणेशजी सर्वप्रथम पूजनीय हो गये । आगे गोस्वामीजी कहते हैं‒

जान आदिकबि नाम प्रतापू ।
भयउ सुद्ध करि उलटा जापू ॥
                   …………… (मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ५)

सबसे पहले श्रीवाल्मीकिजीने ‘रामायण’ लिखी है, इसलिये वे ‘आदिकवि’माने जाते हैं । उलटा नाम ( मरा-मरा) जप करके वाल्मीकिजी एकदम शुद्ध हो गये । उनके विषयमें ऐसी बात सुनी है कि वे लुटेरे थे । रास्तेमें जो कोई मिलता,उसको लूट लेते और मार भी देते । एक बार संयोगवश देवर्षि नारद उधर आ गये । उनको भी लूटना चाहा तो देवर्षिने कहा‒‘तुम क्यों लूट-मार करते हो ? यह तो बड़ा पाप है ।’ वह बोला‒‘मैं अकेला थोड़े ही हूँ, घरवाले सभी मेरी कमाई खाते हैं । सभी पापके भागीदार बनेंगे ।’ देवर्षिने कहा‒‘भाई, पाप करनेवालेको ही पाप लगता है । सुखके, पुण्यके, धनके भागी बननेको तो सभी तैयार हो जाते हैं; परंतु बदलेमें कोई भी पापका भागी बननेके लिये तैयार नहीं होगा । तू अपने माँ-बाप,स्त्री-बच्चोंसे पूछ तो आ ।’ वह अपने घर गया । उसके पूछनेपर माँ बोली‒‘तेरेको पाल-पोसकर बड़ा किया, अब भी तू हमें पाप ही देगा क्या ?’ उसने कहा‒‘माँ ! मैं आप लोंगोंके लिये ही तो पाप करता हूँ ।’ सब घरवाले बोले‒‘हम तो पापके भागीदार नहीं बनेंगे ।’

तब वह जाकर देवर्षिके चरणोंमें गिर गया और बोला‒‘महाराज ! मेरे पापका कोई भी भागीदार बननेको तैयार नहीं हैं ।’ देवर्षिने कहा‒‘भाई ! तुम भजन करो, भगवान्‌का नाम लो’, परंतु भयंकर पापी होनेके कारण मुँहसे प्रयास करनेपर भी ‘राम’ नाम उच्चारण नहीं कर सका । उसने कहा‒‘यह मरा, मरा, मरा । ऐसा मेरा अभ्यास है, इसलिये  ‘मरा’ तो मैं कह सकता हूँ ।’ देवर्षिने कहा कि ‘अच्छा, ऐसा ही तुम कहो ।’ तो  ‘मरा-मरा’ करने लगा । इस प्रकार उलटा नाम जपनेसे भी वे सिद्ध हो गये, महात्मा बन गये, आदिकवि बन गये । ‘राम’ नाम महामन्त्र है, उसे ठीक सुलटा जपनेसे तो पुण्य होता ही है, पर उलटे जपसे भी पुण्य होता है ।

उलटा नामु जपत जगु जाना ।
बालमीकि भए ब्रह्म समाना ॥
                          ………….. (मानस, अयोध्याकाण्ड, दोहा १९४ । ८)

राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में  नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.०१)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

सञ्जय उवाच

तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदन:॥ १॥

श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्ति करमर्जुन ॥ २॥
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥ ३॥

संजय बोले—

वैसी कायरतासे व्याप्त हुए उन अर्जुनके प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं और आँसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखनेकी शक्ति अवरुद्ध हो रही है,भगवान् मधुसूदन यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।

श्रीभगवान् बोले—

हे अर्जुन! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्त हुई, जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्गको देनेवाली नहीं है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं है। हे पृथानन्दन अर्जुन ! इस नपुंसकता को मत प्राप्त हो; क्योंकि तुम्हारे में यह उचित नहीं है। हे परन्तप ! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता का त्याग करके (युद्धके लिये) खड़े हो जाओ।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.१३)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥ ४४॥
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यता:॥ ४५॥
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणय:।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥ ४६॥

सञ्जय उवाच

एवमुक्त्वार्जुन: सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस:॥ ४७॥

हे जनार्दन ! जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं, उन मनुष्यों का बहुत काल तक नरकों में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं। यह बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है कि हमलोग बड़ा भारी पाप करनेका निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुखके लोभसे अपने स्वजनोंको मारनेके लिये तैयार हो गये हैं।  अगर ये हाथोंमें शस्त्र-अस्त्र लिये हुए धृतराष्ट्र के पक्षपाती लोग युद्धभूमि में सामना न करनेवाले तथा  शस्त्ररहित मुझे मार भी दें तो वह मेरे लिये बड़ा ही हितकारक होगा। 

संजय बोले—

ऐसा कहकर शोकाकुल मनवाले अर्जुन बाणसहित धनुष का त्याग करके युद्धभूमि में रथ के मध्यभाग में बैठ गये।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम
प्रथमोऽध्याय:॥ १॥

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


शनिवार, 7 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.१२)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रिय:।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्कर:॥ ४१॥
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:॥ ४२॥
दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकै:।
उत्साद्यन्ते जातिधर्मा: कुलधर्माश्च शाश्वता:॥ ४३॥

हे कृष्ण ! अधर्म के अधिक बढ़ जानेसे कुलकी स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं, और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियोंके दूषित होनेपर वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं। वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरकमें ले जानेवाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण न मिलनेसे इन कुलघातियों के पितर भी (अपने स्थानसे) गिर जाते हैं। इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषों से कुलघातियों के सदा से चलते आये कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट..07)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

 काशीमें ‘वरुणा’ और ‘असी’ दोनों नदियां गंगामें आकर मिलती हैं । उनके बीचका क्षेत्र ‘वाराणसी’ है । इस क्षेत्रमें ‘मण्डूकमतस्याः कृमयोऽपि काश्यां त्यक्त्वा शरीरं शिवमाप्नुवन्ति ।’ मछली हो या मेढक हो या अन्य कोई जीव-जन्तु हों,आकाशमें रहनेवाले हों या जलमें रहनेवाले हों या थलमें रहनेवाले जीव हों,उनको भगवान् शंकर मुक्ति देते हैं । यह है काशीवासकी महिमा ! काशीकी महिमा बहुत विशेष मानी गयी है । यहाँ रहनेवाले यमराजकी फाँसीसे दूर हो जायँ, इसके लिये शंकरभगवान् हरदम सजग रहते हैं । मेरी प्रजाको कालका दण्ड न मिले‒ऐसा विचार हृदयमें रखते हैं ।

अध्यात्मरामायणमें भगवान् श्रीरामकी स्तुति करते हुए भगवान् शंकर कहते है‒जीवोंकी मुक्तिके लिये आपका ‘राम’ नामरूपी जो स्तवन है, अन्त समयमें मैं इसे उन्हें सुना देता हूँ, जिससे उन जीवोंकी मुक्ति हो जाती है‒‘अहं हि काश्यां....दिशामि मन्त्रं तव रामनाम ॥’

जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं ।
अंत राम  कहि  आवत  नाहीं ॥

अन्त समयमें ‘राम’ कहनेसे वह फिर जन्मता-मरता नहीं । ऐसा ‘राम’ नाम है । भगवान्‌ने ऐसा मुक्तिका क्षेत्र खोल दिया । कोई भी अन्नका क्षेत्र खोले तो पासमें पूँजी चाहिये । बिना पूँजीके अन्न कैसे देगा ? भगवान् शंकर कहते हैं‒‘हमारे पास ‘राम’ नामकी पूँजी है । इससे जो चाहे मुक्ति ले लो ।’

मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अध हानि कर ।
जहँ  बस  संभु भवानि  सो  कासी  सेइअ  कस  न ॥

यह काशी भगवान् शंकर का मुक्ति-क्षेत्र है । यह  ‘राम’ नामकी पूँजी ऐसी है कि कम होती ही नहीं । अनन्त जीवोंकी मुक्ति कर देनेपर भी इसमें कमी नहीं आती । आवे भी तो कहोंसे ! वह अपार है, असीम है । नामकी महिमा कहते-कहते गोस्वामीजी महाराज हद ही कर देते हैं । वे कहते हैं‒

कहीं कहाँ लगि  नाम  बड़ाई ।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई ॥
                                                …….(मानस, बालकाण्ड, दोहा २६ । ८)

भगवान् श्रीराम भी नामका गुण नहीं गा सकते । इतने गुण ‘राम’ नाममें हैं । ‘महामंत्र जोइ जपत महेसू’‒इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि यह महामन्त्र इतना विलक्षण है कि महामन्त्र ‘राम’ नाम जपनेसे ‘ईश’ भी महेश हो गये । महामन्त्रका जप करनेसे आप भी महेशके समान हो सकते हैं । इसलिये बहिनों, माताओं एवं भाइयोंसे कहना है कि रात-दिन, उठते-बैठते, चलते-फिरते हरदम, ‘राम’ नाम लेते ही रहिये । भगवान्‌का नाम है तो सीधा-सादा; परन्तु इससे स्थिति बड़ी विलक्षण हो जाती है ।

राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में  नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.११)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतस:।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥ ३८॥
कथं न ज्ञेयमस्माभि: पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥ ३९॥
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥ ४०॥

यद्यपि लोभके कारण जिनका विवेक-विचार लुप्त हो गया है, ऐसे ये (दुर्योधन आदि) कुलका नाश करनेसे होनेवाले दोषको और मित्रोंके साथ द्वेष करनेसे होनेवाले पापको नहीं देखते, तो भी हे जनार्दन! कुलका नाश करनेसे होनेवाले दोषको ठीक-ठीक जाननेवाले हमलोग इस पापसे निवृत्त होनेका विचार क्यों न करें? कुलका क्षय होनेपर सदासे चलते आये कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्मका नाश होनेपर बचे हुए सम्पूर्ण कुलको अधर्म दबा लेता है।

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट..06)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||


‘गुन निधान सो’ यह ‘नाम’ गुणोंका खजाना है, मानो ‘राम’ नाम लेनेसे कोई गुण बाकी नहीं रहता । बिना जाने ही उसमें सद्‌गुण, सदाचार अपने-आप आ जाते हैं ।‘राम’ नाम जपनेवाले जितने सन्त महात्मा हुए हैं । आप विचार करके देखो ! उनमें कितनी ऋद्धि-सिद्धि, कितनी अलौकिक विलक्षणता आ गयी थी !‘राम’ नाम जपमें अलौकिकता है, तब न उनमें आयी ? नहीं तो कहाँसे आती ?इसलिये यह ‘राम’ नाम गुणोंका खजाना है । यह सत्त्व, रज और तमसे रहित है और गुणोंके सहित भी है एवं व्यापक भी है । यहाँ इस प्रकार ‘राम’ नाम में ‘र’, ‘आ’ और ‘म’ इन तीन अक्षरोंकी महिमाका वर्णन हुआ और तीनोंकी महिमा कहकर उनकी विलक्षणता बतलायी । यहाँतक ‘राम’ नामके अवयवोंका एक प्रकरण हुआ । अब गोस्वामीजी ‘राम’ नामकी महिमा कहना प्रारम्भ करते हैं‒

महामन्त्रकी महिमा

महामंत्र जोइ जपत महेसू ।
कासीं मुकुति हेतु उपदेसू ॥
                           ……………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा १९ । ३)

यह ‘राम’ नाम महामन्त्र है, जिसे ‘महेश्वर’‒ भगवान् शंकर जपते हैं और उनके द्वारा यह ‘राम’ नाम-उपदेश काशीमें मुक्तिका कारण है । ‘र’, ‘आ’ और ‘म’‒इन तीन अक्षरोंके मिलनेसे यह ‘राम’ नाम तो हुआ ‘महामन्त्र’ और बाकी दूसरे सभी नाम हुए साधारण मन्त्र ।

सप्तकोट्यो महामन्त्राश्चित्तविभ्रमकारकाः ।
एक एव  परो  मन्त्रो ‘राम’ इत्यक्षरद्वयम् ॥

सात करोड़ मन्त्र हैं, वे चित्तको भ्रमित करनेवाले हैं । यह दो अक्षरोंवाला‘राम’ नाम परम मन्त्र है । यह सब मन्त्रोंमें श्रेष्ठ मन्त्र है । सब मन्त्र इसके अन्तर्गत आ जाते हैं । कोई भी मन्त्र बाहर नहीं रहता । सब शक्तियाँ इसके अन्तर्गत हैं ।
यह ‘राम’ नाम काशीमें मरनेवालोंकी मुक्तिका हेतु है । भगवान् शंकर मरनेवालोंके कानमें यह ‘राम’ नाम सुनाते हैं और इसको सुननेसे काशीमें उन जीवोंकी मुक्ति हो जाती है । एक सज्जन कह रहे थे कि काशीमें मरनेवालोंका दायाँ कान ऊँचा हो जाता है‒ऐसा मैंने देखा है । मानो मरते समय दायें कानमें भगवान् शंकर ‘राम’ नाम मन्त्र देते हैं । इस विषयमें सालगरामजीने भी कहा है‒

जग में जितेक जड़ जीव जाकी अन्त समय,
जम के जबर जोधा खबर लिये करे ।
काशीपति विश्वनाथ वाराणसी वासिन की,
फाँसी यम नाशन को शासन दिये करे ॥
मेरी प्रजा ह्वेके किम पे हैं काल दण्डत्रास,
सालग विचार महेश यही हिये करे ।
तारककी भनक पिनाकी यातें प्रानिन के,
प्रानके पयान समय कानमें किये करे ॥

जब प्राणोंका प्रयाण होता है तो उस समय भगवान् शंकर उस प्राणीके कानमें ‘राम’ नाम सुनाते हैं । क्यों सुनाते हैं ? वे यह विचार करते हैं कि भगवान्‌से विमुख जीवोंकी खबर यमराज लेते हैं, वे सबको दण्ड देते हैं; परन्तु मैं संसारभरका मालिक हूँ । लोग मुझे विश्वनाथ कहते हैं और मेरे रहते हुए मेरी इस काशीपुरीमें आकर यमराज दण्ड दे तो यह ठीक नहीं है । अरे भाई ! किसीको दण्ड या पुरस्कार देना तो मालिकका काम है । राजाकी राजधानीमें बाहरसे दूसरा आकर ऐसा काम करे तो राजाकी पोल निकलती है न ! सारे संसारमें नहीं तो कम-से-कम वाराणसीमें जहाँ मैं बैठा हूँ, यहाँ आकर यमराज दखल दे‒यह कैसे हो सकता है ।

राम !   राम !!   राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में  नाम-वन्दना” पुस्तकसे


गीता प्रबोधनी पहला अध्याय (पोस्ट.१०)

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न: का प्रीति: स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिन:॥ ३६॥
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव॥ ३७॥

हे जनार्दन ! इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारकर हमलोगों को क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारने से तो हमें पाप ही लगेगा। इसलिये अपने बान्धव इन धृतराष्ट्र-सम्बन्धियों को मारने के लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि हे माधव! अपने कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?

ॐ तत्सत् !

शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...