॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--सातवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)
अश्वत्थामाद्वारा द्रौपदी के पुत्रोंका मारा जाना और
अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
शौनक उवाच ।
स वै निवृत्तिनिरतः सर्वत्रोपेक्षको मुनिः ।
कस्य वा बृहतीं एतां आत्मारामः समभ्यसत् ॥ ९ ॥
सूत उवाच ।
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्ति अहैतुकीं भक्तिं इत्थंभूतगुणो हरिः ॥ १० ॥
हरेर्गुणाक्षिप्तमतिः भगवान् बादरायणिः ।
अध्यगान् महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः ॥ ११ ॥
श्रीशौनकजीने पूछा—
श्रीशुकदेवजी तो अत्यन्त निवृत्तिपरायण हैं, उन्हें किसी भी वस्तुकी अपेक्षा नहीं है। वे सदा आत्मामें ही रमण करते हैं। फिर उन्होंने किसलिये इस विशाल ग्रन्थ (श्रीमद्भागवत) का अध्ययन किया ? ॥ ९ ॥
श्रीसूतजीने कहा—
जो लोग ज्ञानी हैं, जिनकी अविद्या की गाँठ खुल गयी है और जो सदा आत्मा में ही रमण करने वाले हैं, वे भी भगवान् की हेतुरहित भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान् के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो सब को अपनी ओर खींच लेते हैं ॥ १० ॥ फिर श्रीशुकदेव जी तो भगवान् के भक्तों के अत्यन्त प्रिय और स्वयं भगवान् वेदव्यास के पुत्र हैं। भगवान् के गुणों ने उनके हृदय को अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उससे विवश होकर ही इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया ॥११॥
शेष आगामी पोस्ट में --