शनिवार, 23 मार्च 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..१४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १४)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

आह राजा धर्मसुतः चिन्तयन् सुहृदां वधम् ।
प्राकृतेनात्मना विप्राः स्नेहमोहवशं गतः ॥ ४७ ॥
अहो मे पश्यताज्ञानं हृदि रूढं दुरात्मनः ।
पारक्यस्यैव देहस्य बह्व्यो मेऽक्षौहिणीर्हताः ॥ ४८ ॥
बालद्विजसुहृन् मित्र पितृभ्रातृगुरु द्रुहः ।
न मे स्यात् निरयात् मोक्षो ह्यपि वर्ष अयुत आयुतैः ॥ ४९ ॥
नैनो राज्ञः प्रजाभर्तुः धर्मयुद्धे वधो द्विषाम् ।
इति मे न तु बोधाय कल्पते शासनं वचः ॥ ५० ॥
स्त्रीणां मत् हतबंधूनां द्रोहो योऽसौ इहोत्थितः ।
कर्मभिः गृहमेधीयैः नाहं कल्पो व्यपोहितुम् ॥ ५१ ॥
यथा पङ्केन पङ्काम्भः सुरया वा सुराकृतम् ।
भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञैः मार्ष्टुमर्हति ॥ ५२ ॥

शौनकादि ऋषियो ! धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर को अपने स्वजनों के वध से बड़ी चिन्ता हुई। वे अविवेकयुक्त चित्त से स्नेह और मोह के वश में होकर कहने लगे—भला, मुझ दुरात्मा के हृदय में बद्धमूल हुए इस अज्ञानको तो देखो; मैंने सियार-कुत्तों के आहार इस अनात्मा शरीर के लिये अनेक अक्षौहिणी [*] सेना का नाश कर डाला ॥ ४७-४८ ॥ मैंने बालक, ब्राह्मण, सम्बन्धी, मित्र, चाचा, ताऊ, भाई-बन्धु और गुरुजनोंसे द्रोह किया है। करोड़ों बरसोंमें भी नरकसे मेरा छुटकारा नहीं हो सकता ॥ ४९ ॥ यद्यपि शास्त्रका वचन है कि राजा यदि प्रजाका पालन करनेके लिये धर्मयुद्ध में शत्रुओंको मारे तो उसे पाप नहीं लगता, फिर भी इससे मुझे संतोष नहीं होता ॥ ५० ॥ स्त्रियोंके पति और भाई-बन्धुओंको मारनेसे उनका मेरे द्वारा यहाँ जो अपराध हुआ है, उसका मैं गृहस्थोचित यज्ञ-यागादिकों के द्वारा मार्जन करनेमें समर्थ नहीं हूँ ॥ ५१ ॥ जैसे कीचड़ से गँदला जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता, मदिरा से मदिरा की अपवित्रता नहीं मिटायी जा सकती, वैसे ही बहुत-से हिंसाबहुल यज्ञोंके द्वारा एक भी प्राणीकी हत्याका प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता ॥ ५२ ॥

..................................................................
[*] २१८७० रथ,२१८७० हाथी, १०९३५० पैदल, और ६५६१० घुडसवार-इतनी सेना को अक्षौहिणी कहते हैं—महाभारत 

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे कुन्तीस्तुतिर्युधिष्ठिरानुतापो नाम अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शुक्रवार, 22 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

 

ब्रह्मादि देवों द्वारा गोलोकधाम का दर्शन

 

श्रीनारद उवाच -
उपहास्यं गता देवा इत्थं तूष्णीं स्थिताः पुनः ।
चकितानिव तान् दृष्ट्वा विष्णुर्वचनमब्रवीत् ॥२९॥


श्रीविष्णुरुवाच -
यस्मिन्नण्डे पृश्निगर्भोऽवतारोऽभूत्सनातन ।
त्रिविक्रमनखोद्‌भिन्ने तस्मिन्नण्डे स्थिता वयम् ॥३०॥


श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तं च संश्लाघ्य शीघ्रमन्तःपुरं गता
पुनरागत्य देवेभ्योऽप्याज्ञां दत्त्वा गताः पुरम् ॥३१॥
अथ देवगणाः सर्वे गोलोकं ददृशुः परम् ।
तत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते ॥३२॥
वसन्तमानिनीभिश्च गोपीभिर्गोगणैर्वृतः ।
कल्पवृक्षलतासङ्‍घै रासमण्डलमण्डितः ॥३३॥
यत्र कृष्णानदी श्यामा तोलिकाकोटिमण्डिता ।
वैदूर्यकृत सोपाना स्वच्छन्दगतिरुत्तमा ॥३४॥
वृन्दावनं भ्राजमानं दिव्यद्रुमलताकुलम् ।
चित्रपक्षिमधुव्रतैर्वंशीवटविराजितम् ॥३५॥
पुलिने शीतले वायुर्मन्दगामी वहत्यलम् ।
सहस्रदलपद्मानां रजो विक्षेपयन्मुहुः ॥३६॥
मध्ये निजनिकुञ्जोऽस्ति द्वात्रिंशद्‌वनसंयुतः ।
प्राकारपरिखायुक्तोऽरुणाक्षयवटाजिरः ॥३७॥
सप्तधा पद्मरागाग्राजिरकुड्यविभूषितः ।
कोटीन्दुमण्डलाकारैर्वितानैर्गुलिकाद्युतिः ॥३८॥
पतत्पताकैर्दिव्याभैः पुष्पमन्दिरवर्त्मभिः ।
जातभ्रमरसङ्‍गीतो मत्तबर्हिपिकस्वनः ॥३९॥
बालार्ककुण्डलधराः शतचन्द्रप्रभाः स्त्रियः ।
स्वच्छन्दगतयो रत्‍नैः पश्यन्त्यः सुन्दरं मुखम् ॥४०॥
रत्‍नाजिरेषु धावंत्यो हारकेयूरभूषिताः ।
क्वणन्नूपुरकिङ्‌किण्यश्चूडामणिविराजिताः ॥४१॥
कोटिशः कोटिशो गावो द्वारि द्वारि मनोहराः ।
श्वेतपर्वतसङ्‍काशा दिव्यभूषणभूषिताः ॥४२॥
पयस्विन्यस्तरुण्यश्च शीलरूपगुणैर्युताः ।
सवत्साः पीतपुच्छाश्च व्रजंत्यो भव्यमूर्तिकाः ॥४३॥
घण्टामंजीरसंरावाः किं‍किणीजालमण्डिताः ।
हेमशृङ्‍ग्यो हेमतुल्यहारमालास्फुरत्प्रभाः ॥४४॥
पाटला हरितास्ताम्राः पीताः श्यामा विचित्रिताः ।
धूम्राः कोकिलवर्णाश्च यत्र गावस्त्वनेकधा ॥४५॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार उपहासके पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल न सके। उन्हें चकित-से देखकर भगवान् विष्णुने कहा ।। २९ ।

श्रीविष्णु बोले- जिस ब्रह्माण्ड में भगवान् पृश्निगर्भका सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट् - रूपधारी वामन) के नखसे जिस ब्रह्माण्डमें विवर बन गया है, वहीं हम निवास करते हैं ॥ ३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- भगवान् विष्णुकी यह बात सुनकर शतचन्द्राननाने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी। फिर शीघ्र ही आयी और सबको अन्तःपुरमें पधारनेकी आज्ञा देकर वापस चली गयी । तदनन्तर सम्पूर्ण देवताओंने परमसुन्दर धाम गोलोकका दर्शन किया। वहाँ 'गोवर्धन' नामक गिरिराज शोभा पा रहे थे। गिरिराजका वह प्रदेश उस समय वसन्तका उत्सव मनानेवाली गोपियों और गौओंके समूहसे घिरा था, कल्पवृक्षों तथा कल्पलताओंके समुदायसे सुशोभित था और रास- मण्डल उसे मण्डित ( अलंकृत) कर रहा था। वहाँ श्यामवर्णवाली उत्तम यमुना नदी स्वच्छन्द गतिसे बह रही है। तटपर बने हुए करोड़ों प्रासाद उसकी शोभा बढ़ाते हैं तथा उस नदीमें उतरनेके लिये वैदूर्यमणिकी सुन्दर सीढ़ियाँ बनी हैं। वहाँ दिव्य वृक्षों और लताओंसे भरा हुआ 'वृन्दावन' अत्यन्त शोभा पा रहा है; भाँति-भाँतिके विचित्र पक्षियों, भ्रमरों तथा वंशीवटके कारण वहाँकी सुषमा और बढ़ रही है | वहाँ सहस्रदल कमलोंके सुगन्धित परागको चारों ओर पुनः पुनः बिखेरती हुई शीतल वायु मन्द गतिसे बह रही है ॥ ३१-३६ ॥

वृन्दावन के मध्यभाग में बत्तीस वनोंसे युक्त एक 'निज निकुञ्ज' है। चहारदीवारियाँ और खाइयाँ उसे सुशोभित कर रही हैं। उसके आँगनका भाग लाल वर्णवाले अक्षयवटोंसे अलंकृत है। पद्मरागादि सात प्रकारकी मणियोंसे बनी दीवारें तथा आँगनके फर्श बड़ी शोभा पाते हैं। करोड़ों चन्द्रमाओंके मण्डलकी छवि धारण करनेवाले चंदोवे उसे अलंकृत कर रहे हैं तथा उनमें चमकीले गोले लटक रहे हैं। फहराती हुई दिव्य पताकाएँ एवं खिले हुए फूल मन्दिरों एवं मार्गोंकी शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ भ्रमरोंके गुञ्जारव संगीतकी सृष्टि करते हैं। तथा मत्त मयूरों और कोकिलोंके कलरव सदा श्रवणगोचर होते हैं ॥ ३७-३९ ॥

वहाँ बालसूर्य के सदृश कान्तिमान् अरुण पीत कुण्डल धारण करनेवाली ललनाएँ शत-शत चन्द्रमाओंके समान गौरवर्णसे उद्भासित होती हैं। स्वच्छन्द गतिसे चलनेवाली वे सुन्दरियाँ मणिरत्नमय भित्तियोंमें अपना मनोहर मुख देखती हुई वहाँके रत्नजटित आँगनोंमें भागती फिरती हैं। उनके गलेमें हार और बाँहोंमें केयूर शोभा देते हैं। नूपूरों तथा करधनीकी मधुर झनकार वहाँ गूँजती रहती है। वे गोपाङ्गनाएँ मस्तकपर चूड़ामणि धारण किये रहती हैं ॥ ४०-४१ ॥

वहाँ द्वार-द्वारपर कोटि-कोटि मनोहर गौओंके दर्शन होते हैं। वे गौएँ दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं और श्वेत पर्वतके समान प्रतीत होती हैं। सब की सब दूध देनेवाली तथा नयी अवस्थाकी हैं। सुशीला, सुरुचा तथा सद्गुणवती हैं। सभी सवत्सा और पीली पूँछकी हैं। ऐसी भव्यरूपवाली गौएँ वहाँ सब ओर विचर रही हैं ॥ ४२-४३ ॥

उनके घंटों तथा मञ्जीरों से मधुर ध्वनि होती रहती है। उसीपर भगवान् किङ्किणीजालों से विभूषित उन गौओंके सींगों में सोना मढ़ा गया है। वे सुवर्ण-तुल्य हार एवं मालाएँ धारण करती हैं। उनके अङ्गों से प्रभा छिटकती रहती है। सभी गौएँ भिन्न-भिन्न रंगवाली हैं— कोई उजली, कोई काली, कोई पीली, कोई लाल, कोई हरी, कोई ताँबेके रंगकी और कोई चितकबरे रंगकी हैं। किन्हीं - किन्हींका वर्ण धुए-जैसा है। बहुत-सी कोयलके समान रंगबाली हैं ॥ ४४-४५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..१३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १३)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

सूत उवाच ।

पृथयेत्थं कलपदैः परिणूताखिलोदयः ।
मन्दं जहास वैकुण्ठो मोहयन्निव मायया ॥ ४४ ॥
तां बाढं इति उपामंत्र्य प्रविश्य गजसाह्वयम् ।
स्त्रियश्च स्वपुरं यास्यन् प्रेम्णा राज्ञा निवारितः ॥ ४५ ॥
व्यासाद्यैरीश्वरेहा ज्ञैः कृष्णेनाद्‍भुत कर्मणा ।
प्रबोधितोऽपि इतिहासैः नाबुध्यत शुचार्पितः ॥ ४६ ॥

सूतजी कहते हैं—इस प्रकार कुन्तीने बड़े मधुर शब्दोंमें भगवान्‌ की अधिकांश लीलाओंका वर्णन किया। यह सब सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी मायासे उसे मोहित करते हुए-से मन्द-मन्द मुसकराने लगे ॥ ४४ ॥ उन्होंने कुन्तीसे कह दिया—‘अच्छा ठीक है’ और रथके स्थान से वे हस्तिनापुर लौट आये। वहाँ कुन्ती और सुभद्रा आदि देवियोंसे विदा लेकर जब वे जाने लगे, तब राजा युधिष्ठिरने बड़े प्रेमसे उन्हें रोक लिया ॥ ४५ ॥ राजा युधिष्ठिरको अपने भाई-बन्धुओंके मारे जानेका बड़ा शोक हो रहा था। भगवान्‌की लीलाका मर्म जाननेवाले व्यास आदि महर्षियोंने और स्वयं अद्भुत चरित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी अनेकों इतिहास कहकर उन्हें समझानेकी बहुत चेष्टा की; परंतु उन्हें सान्त्वना न मिली, उनका शोक न मिटा ॥ ४६ ॥ 

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गुरुवार, 21 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

दूसरा अध्याय  (पोस्ट 02)

 

ब्रह्मादि देवों द्वारा गोलोकधाम का दर्शन

 

तदूर्ध्वं ददृशुर्देवा विरजायास्तटं शुभम् ।
तरं‍गितं क्षौम शुभ्रं सोपानैर्भास्करं परम् ॥१४॥
तं दृष्ट्वा प्रचलन्तस्ते तत्पुरं जग्मुरुत्तमम् ।
असं‍ख्यकोटिमार्तण्ड ज्योतिषां मण्डलं महत् ॥१५॥
दृष्ट्वा प्रताडिताक्षास्ते तेजसा धर्षिताः स्थिताः ।
नमस्कृत्वाऽथ तत्तेजो दध्यौ विष्ण्वाज्ञया विधिः ॥१६॥
तज्ज्योतिर्मण्डलेऽपश्यत्साकारं धाम शान्तिमत् ।
तस्मिन्महाद्‌भुतं दीर्घं मृणालधवलं परम् ।
सहस्रवदनं शेषं दृष्ट्वा नेमुः सुरास्ततः ॥१७॥
तस्योत्सं‍गे महालोको गोलोको लोकवन्दितः ।
यत्र कालः कलयतामीश्वरो धाममानिनाम् ॥१८॥
राजन्न प्रभवेन्माया मनश्चित्तं मतिर्ह्यहम् ।
न विकारो विशत्येव न महांश्च गुणाः कुतः ॥१९॥
तत्र कन्दर्पलावण्याः श्यामसुन्दरविग्रहाः ।
द्वारि गंतुं चाभ्युदिता न्यषेधन्कृष्णपार्षदाः ॥२०॥


श्रीदेवा ऊचुः -
लोकपाला वयं सर्वे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
श्रीकृष्णदर्शनार्थाय शक्राद्या आगता इह ॥२१॥


श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तदभिप्रायं श्रीकृष्णाय सखीजनाः ।
ऊचुर्देवप्रतीहारा गत्वा चान्तःपुरं परम् ॥२२॥
तदा विनिर्गता काचिच्छतचन्द्रानना सखी ।
पीतांबरा वेत्रहस्ता सापृच्छद्वाञ्छितं सुरान् ॥२३॥


श्रीशतचन्द्राननोवाच -
कस्याण्डस्याधिपा देवा यूयं सर्वे समागताः ।
वदताशु गमिष्यामि तस्मै भगवते ह्यहम् ॥२४॥


श्रीदेवा ऊचुः -
अहो अण्डान्युतान्यानि नास्माभिर्दर्शितानि च ।
एकमण्डं प्रजानीमोऽथोऽपरं नास्ति नः शुभे ॥२५॥


श्रीशतचन्द्राननोवाच -
ब्रह्मदेव लुठन्तीह कोटिशो ह्यण्डराशयः ।
तेषां यूयं यथा देवास्तथाण्डेऽण्डे पृथक् पृथक् ॥२६॥
नामग्रामं न जानीथ कदा नात्र समागताः ।
जडबुद्ध्या प्रहृष्यध्वे गृहान्नापि विनिर्गताः ॥२७॥
ब्रह्माण्डमेकं जानन्ति यत्र जातास्तथा जनाः ।
मशका च यथान्तःस्था औदुंबरफलेषु वै ॥२८॥

वहीं ऊपर देवताओंने विरजानदी का सुन्दर तट देखा, जिससे विरजा की तरंगें टकरा रही थीं। वह तटप्रदेश उज्ज्वल रेशमी वस्त्रके समान शुभ्र दिखायी देता था । दिव्य मणिमय सोपानोंसे वह अत्यन्त उद्भासित हो रहा था। तटकी शोभा देखते और आगे बढ़ते हुए वे देवता उस उत्तम नगरमें पहुँचे, जो अनन्तकोटि सूर्योकी ज्योतिका महान् पुञ्ज जान पड़ता था । उसे देखकर देवताओंकी आँखें चौंधिया गयीं। वे उस तेजसे पराभूत हो जहाँ-के-तहाँ खड़े रह गये। तब भगवान् विष्णुकी आज्ञाके अनुसार उस तेजको प्रणाम करके ब्रह्माजी उसका ध्यान करने लगे। उसी ज्योतिके भीतर उन्होंने एक परम शान्तिमय साकार धाम देखा । उसमें परम अद्भुत, कमलनालके समान धवल-वर्ण हजार मुखवाले शेषनागका दर्शन करके सभी देवताओंने उन्हें प्रणाम किया । राजन् ! उन शेषनागकी गोदमें महान् आलोकमय लोकवन्दित गोलोकधामका दर्शन हुआ, जहाँ धामाभिमानी देवताओंके ईश्वर तथा गणनाशीलोंमें प्रधान कालका भी कोई वश नहीं चलता । वहाँ माया भी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती । मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, सोलह विकार तथा महत्तत्त्व भी वहाँ प्रवेश नहीं कर सकते हैं; फिर तीनों गुणोंके विषयमें तो कहना ही क्या है ! वहाँ कामदेवके समान मनोहर रूप लावण्य- शालिनी, श्यामसुन्दरविग्रहा श्रीकृष्णपार्षदा द्वारपाल- का कार्य करती थीं। देवताओंको द्वारके भीतर जानेके लिये उद्यत देख उन्होंने मना किया ॥१४- २० ॥

तब देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा, विष्णु, शंकर नामके लोकपाल और इन्द्र आदि देवता हैं । भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनार्थ यहाँ आये हैं ॥ २१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- देवताओंकी बात सुनकर उन सखियोंने, जो श्रीकृष्णकी द्वारपालिकाएँ थीं, अन्तःपुरमें जाकर देवताओंकी बात कह सुनायीं । तब एक सखी, जो शतचन्द्रानना नामसे विख्यात थी, जिसके वस्त्र पीले थे और जो हाथमें बेंतकी छड़ी लिये थी, बाहर आयी और उनसे उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा ॥ २२-२३ ।।

शतचन्द्रानना बोली- यहाँ पधारे हुए आप सब देवता किस ब्रह्माण्डके निवासी हैं, यह शीघ्र बताइये । तब मैं भगवान् श्रीकृष्णको सूचित करनेके लिये उनके पास जाऊँगी ॥ २४ ॥

देवताओंने कहा - अहो ! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है, क्या अन्यान्य ब्रह्माण्ड भी हैं ? हमने तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे ! हम तो यहीं जानते हैं कि एक ही ब्रह्माण्ड हैं, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं ॥ २५ ॥

शतचन्द्रानना बोली- ब्रह्मदेव ! यहाँ तो विरजा नदीमें करोड़ों ब्रह्माण्ड इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक्-पृथक् देवता वास करते हैं। अरे ! क्या आपलोग अपना नाम-गाँवतक नहीं जानते ? जान पड़ता है—-कभी यहाँ आये नहीं हैं; अपनी थोड़ी सी जानकारीमें ही हर्षसे फूल उठे हैं। जान पड़ता है, कभी घर से बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलरके फलोंमें रहनेवाले कीड़े जिस फलमें रहते हैं, उसके सिवा दूसरेको नहीं जानते, उसी प्रकार आप जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एकमात्र उसीको 'ब्रह्माण्ड' समझते हैं ।। २६ - २८ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १२)

गर्भमें परीक्षित्‌की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति और युधिष्ठिरका शोक

त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् ।
रतिं उद्वहतात् अद्धा गङ्गेवौघं उदन्वति ॥ ४२ ॥
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्णि ऋषभावनिध्रुग्
     राजन्यवंशदहन अनपवर्ग वीर्य ।
गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार
     योगेश्वराखिलगुरो भगवन् नमस्ते ॥ ४३ ॥

श्रीकृष्ण ! जैसे गङ्गा की अखण्ड धारा समुद्रमें गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही निरन्तर प्रेम करती रहे ॥ ४२ ॥ श्रीकृष्ण ! अर्जुनके प्यारे सखा यदुवंशशिरोमणे ! आप पृथ्वीके भाररूप राजवेशधारी दैत्योंको जलानेके लिये अग्निस्वरूप हैं। आपकी शक्ति अनन्त है। गोविन्द ! आपका यह अवतार गौ, ब्राह्मण और देवताओंका दु:ख मिटानेके लिये ही है। योगेश्वर ! चराचरके गुरु भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ ४३ ॥

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बुधवार, 20 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

दूसरा अध्याय  (पोस्ट 01)

 

ब्रह्मादि देवों द्वारा गोलोकधाम का दर्शन


जिह्वां लब्ध्वापि यः कृष्णं कीर्तनीयं न कीर्तयेत् ।
लब्ध्वापि मोक्षनिःश्रेणिं स नारोहति दुर्मतिः ॥१॥
अथ ते संप्रवक्ष्यामि श्रीकृष्णागमनं भुवि ।
अस्मिन्वाराह कल्पे वै यद्‌भूतं तच्छृणु प्रभो ॥२॥
पुरा दानवदैत्यानां नराणां खलु भूभुजाम् ।
भूरिभारसमाक्रांता पृथ्वी गोरूपधारिणी ॥३॥
अनाथवद्‌रुदन्तीव वेदयन्ती निजव्यथाम् ।
कम्पयन्ती निजं गात्रं ब्रह्माणं शरणं गता ॥४॥
ब्रह्माथाश्वास्य तां सद्यः सर्वदेवगणैर्वृतः ।
शङ्करेण समं प्रागाद्‌वैकुण्ठं मंदिरं हरेः ॥५॥
नत्वा चतुर्भुजं विष्णुं स्वाभिप्रायं जगाद ह ।
अथोद्विग्नं देवगणं श्रीनाथः प्राह तं विधिम् ॥६॥


श्रीभगवानुवाच -
कृष्णं स्वयं विगणिताण्डपतिं परेशं
साक्षादखण्डमतिदेवमतीवलीलम् ।
कार्यं कदापि न भविष्यति यं विना हि
गच्छाशु तस्य विशदं पदमव्ययं त्वम् ॥७॥


श्रीब्रह्मोवाच -
त्वत्तः परं न जानामि परिपूर्णतमं स्वयम् ।
यदि योन्यस्तस्य साक्षाल्लोकं दर्शय नः प्रभो ॥८॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तोऽपि हरिः पूर्णः सर्वैर्देवगणैः सह ।
पदवीं दर्शयामास ब्रह्माण्डशिखरोपरि ॥९॥
वामपादाङ्‍गुष्ठनखभिन्नब्रह्माण्डमस्तके ।
श्रीवामनस्य विवरे ब्रह्म द्रवसमाकुले ॥१०॥
जलयानेन मार्गेण बहिस्ते निर्ययुः सुराः ।
कलिङ्‍गबिम्बवच्चेदं ब्रह्माण्डं ददृशुस्त्वधः ॥११॥
इन्द्रायनफलानीव लुठन्त्यन्यानि वै जले ।
विलोक्य विस्मिताः सर्वे बभुवुश्चकिता इव ॥१२॥
कोटिशो योजनोर्ध्वं वै पुराणामष्टकं गताः ।
दिव्यप्राकाररत्‍नादि द्रुमवृन्दमनोहरम् ॥१३॥

श्रीनारदजी कहते हैं- जो जीभ पाकर भी कीर्तनीय भगवान् श्रीकृष्णका कीर्तन नहीं करता, वह दुर्बुद्धि मनुष्य मोक्षकी सीढ़ी पाकर भी उसपर चढ़नेकी चेष्टा नहीं करता । राजन् ! अब इस वाराहकल्पमें धराधामपर जो भगवान् श्रीकृष्णका पदार्पण हुआ है और यहाँ उनकी जो-जो लीलाएँ हुई हैं, वह सब मैं तुमसे कहता हूँ; सुनो।

बहुत पहले की बात है— दानव, दैत्य, आसुर स्वभाव के मनुष्य और दुष्ट राजाओंके भारी भार से अत्यन्त पीड़ित हो, पृथ्वी गौ का रूप धारण करके, अनाथ की भाँति रोती-बिलखती हुई अपनी आन्तरिक व्यथा निवेदन करने के लिये ब्रह्माजी की शरण में गयी। उस समय उसका शरीर काँप रहा था। वहाँ उसकी कष्टकथा सुनकर ब्रह्माजी ने उसे धीरज बँधाया और तत्काल समस्त देवताओं तथा शिवजी को साथ लेकर वे भगवान् नारायण के वैकुण्ठ- धाम में गये। वहाँ जाकर ब्रह्माजी ने चतुर्भुज भगवान् विष्णुको प्रणाम करके अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया। तब लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु उन उद्विग्न देवताओं तथा ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले  ॥ १-६ ॥

श्रीभगवान् ने कहा- ब्रह्मन् ! साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ही अगणित ब्रह्माण्डोंके स्वामी, परमेश्वर, अखण्डस्वरूप तथा देवातीत हैं। उनकी लीलाएँ अनन्त एवं अनिर्वचनीय हैं। उनकी कृपा के बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं होगा, अतः तुम उन्हींके अविनाशी एवं परम उज्ज्वल धाम में शीघ्र जाओ  ॥ ७ ॥

श्रीब्रह्माजी बोले- प्रभो ! आपके अतिरिक्त कोई दूसरा भी परिपूर्णतम तत्त्व है, यह मैं नहीं जानता। यदि कोई दूसरा भी आपसे उत्कृष्ट परमेश्वर है, तो उसके लोकका मुझे दर्शन कराइये ॥ ८ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर परिपूर्णतम भगवान् विष्णुने सम्पूर्ण देवताओं सहित ब्रह्माजीको ब्रह्माण्ड-शिखरपर विराजमान गोलोकधामका मार्ग दिखलाया । वामनजीके पैरके बायें अँगूठेसे ब्रह्माण्डके शिरोभागका भेदन हो जानेपर जो छिद्र हुआ, वह 'ब्रह्मद्रव' (नित्य अक्षय नीर) से परिपूर्ण था । सब देवता उसी मार्गसे वहाँके लिये नियत जलयानद्वारा बाहर निकले। वहाँ ब्रह्माण्डके ऊपर पहुँचकर उन सबने नीचेकी ओर उस ब्रह्माण्डको कलिङ्गबिम्ब (तूंबे) की भाँति देखा। इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से ब्रह्माण्ड उसी जलमें इन्द्रायण-फलके सदृश इधर-उधर लहरोंमें लुढ़क रहे थे। यह देखकर सब देवताओंको विस्मय हुआ। वे चकित हो गये । वहाँसे करोड़ों योजन ऊपर आठ नगर मिले, जिनके चारों ओर दिव्य चहारदीवारी शोभा बढ़ा रही थी और झुंड-के-झुंड रत्नादिमय वृक्षोंसे उन पुरियों की मनोरमता बढ़ गयी थी ॥ ९-१३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट ११)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो
     जिहाससि स्वित् सुहृदोऽनुजीविनः ।
येषां न चान्यत् भवतः पदाम्बुजात्
     परायणं राजसु योजितांहसाम् ॥ ३७ ॥
के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः ।
भवतोऽदर्शनं यर्हि हृषीकाणां इव ईशितुः ॥ ३८ ॥
नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर ।
त्वत्पदैः अङ्‌किता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः ॥ ३९ ॥
इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिवीरुधः ।
वनाद्रि नदी उदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः ॥ ४० ॥
अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ते स्वकेषु मे ।
स्नेहपाशं इमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु ॥ ४१ ॥
(कुन्ती श्रीकृष्ण से कह रही हैं) भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभो ! क्या अब आप अपने आश्रित और सम्बन्धी हमलोगोंको छोडक़र जाना चाहते हैं ? आप जानते हैं कि आपके चरणकमलों के अतिरिक्त हमें और किसीका सहारा नहीं है। पृथ्वीके राजाओं के तो हम यों ही विरोधी हो गये हैं ॥ ३७ ॥ जैसे जीव के बिना इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं, वैसे ही आपके दर्शन बिना यदुवंशियोंके और हमारे पुत्र पाण्डवों के नाम तथा रूपका अस्तित्व ही क्या रह जाता है ॥ ३८ ॥ गदाधर ! आपके विलक्षण चरणचिह्नोंसे चिह्नित यह कुरुजाङ्गल-देश की भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आपके चले जानेके बाद न रहेगी ॥ ३९ ॥ आपकी दृष्टिके प्रभावसे ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-वृक्षोंसे समृद्ध हो रहा है। ये वन, पर्वत, नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टिसे ही वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं ॥ ४० ॥ आप विश्वके स्वामी हैं, विश्वके आत्मा हैं और विश्वरूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवों में मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेहकी दृढ़ फाँसी को काट दीजिये ॥ ४१ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


मंगलवार, 19 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

पहला अध्याय  (पोस्ट 02)

 

शौनक - गर्ग-संवाद; राजा बहुलाश्व के पूछने पर नारदजी के द्वारा अवतार-भेद का निरूपण

 

श्रीनारद उवाच -
अंशांशोंऽशस्तथावेशः कलापूर्णः प्रकथ्यते ।
व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥१६॥
अंशांशस्तु मरीच्यादिरंशा ब्रह्मादयस्तथा ।
कलाः कपिलकूर्माद्या आवेशा भार्गवादयः ॥१७॥
पूर्णो नृसिंहो रामश्च श्वेतद्वीपाधिपो हरिः ।
वैकुण्ठोऽपि तथा यज्ञो नरनारायणः स्मृतः ॥१८॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम् ।
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते ॥१९॥
कार्याधिकारं कुर्वन्तः सदंशास्ते प्रकिर्तिताः ।
तत्कार्यभारं कुर्वन्तस्तेंऽशांशा विदिताः प्रभोः ॥२०॥
येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः ।
नानाऽऽवेषावतारांश्च विद्धि राजन्महामते ॥२१॥
धर्मं विज्ञाय कृत्वा यः पुनरन्तरधीयत ।
युगे युगे वर्तमानः सोऽवतारः कला हरेः ॥२२॥
चतुर्व्यूहो भवेद्‌यत्र दृश्यन्ते च रसा नव ।
अतः परं च वीर्याणि स तु पूर्णः प्रकथ्यते ॥२३॥
यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।
तं वदन्ति परे साक्षात्परिपूर्णतमं स्वयम् ॥२४॥
पूर्णस्य लक्षणं यत्र तं पश्यन्ति पृथक् पृथक् ।
भावेनापि जनाः सोऽयं परिपूर्णतमः स्वयम् ॥२५॥
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह ॥२६॥
पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः
परात्परो यः पुरुषः परेश्वरः ।
स्वयं सदाऽऽनन्दमयं कृपाकरं
गुणाकरं तं शरणं व्रजाम्यहम् ॥२७॥


श्रीगर्ग उवाच -
तच्छ्रुत्वा हर्षितो राजा रोमाञ्ची प्रेमविह्वलः ।
प्रमृश्य नेत्रेऽश्रुपूर्णे नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥२८॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो केन हेतुना ।
आगतो भारते खण्डे द्वारवत्यां विराजते ॥२९॥
तस्य गोलोकनाथस्य गोलोकं धाम सुन्दरम् ।
कर्माण्यपरिमेयानि ब्रूहि ब्रह्मन् बृहन्मुने ॥३०॥
यदा तीर्थाटनं कुर्वञ्छतजन्मतपःपरम् ।
तदा सत्सङ्‍गमेत्याशु श्रीकृष्णं प्राप्नुयान्नरः ॥३१॥
श्रीकृष्णदासस्य च दासदासः
कदा भवेयं मनसाऽऽर्द्रचित्तः ।
यो दुर्लभो देववरैः परात्मा
स मे कथं गोचर आदिदेवः ॥३२॥
धन्यस्त्वं राजशार्दूल श्रीकृष्णेष्टो हरिप्रियः ।
तुभ्यं च दर्शनं दातुं भक्तेशोऽत्रागमिष्यति ॥३३॥
त्वं नृपं श्रुतदेवं च द्विजदेवो जनार्दनः ।
स्मरत्यलं द्वारकायामहो भाग्यं सतामिह ॥३४॥

 

श्रीनारदजी बोले – राजन् ! व्यास आदि मुनियों ने अंशांश, अंश, आवेश, कला, पूर्ण और परिपूर्णतम – ये छः प्रकारके अवतार बताये हैं। इनमेंसे छठा – परिपूर्णतम अवतार साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। मरीचि आदि 'अंशांशावतार', ब्रह्मा आदि ‘अंशावतार', कपिल एवं कूर्म प्रभृति 'कलावतार' और परशुराम आदि 'आवेशावतार' कहे गये हैं। नृसिंह, राम, श्वेतद्वीपाधिपति हरि, वैकुण्ठ, यज्ञ और नर-नारायण – ये 'पूर्णावतार' हैं एवं साक्षात्

भगवान् श्रीकृष्ण ही 'परिपूर्णतम' अवतार हैं। असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति वे प्रभु गोलोकधाम में विराजते हैं ।। १६-१९ ।।

जो भगवान्‌ के दिये सृष्टि आदि कार्यमात्र के अधिकार का पालन करते हैं, वे ब्रह्मा आदि 'सत्' (सत्स्वरूप भगवान्) के अंश हैं। जो उन अंशों के कार्यभारमें हाथ बटाते हैं, वे 'अंशांशावतार' के नाम से विख्यात हैं। परम बुद्धिमान् नरेश ! भगवान् विष्णु स्वयं जिनके अन्तःकरण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन् ! ऐसे नानाविध अवतारों को 'आवेशावतार' समझो। जो प्रत्येक युगमें प्रकट हो, युगधर्मको जानकर, उसकी स्थापना करके, पुनः अन्तर्धान हो जाते हैं, भगवान्‌ के उन अवतारों को 'कलावतार' कहा गया है ।। २०-२२।।

 

जहाँ चार व्यूह प्रकट हों-जैसे श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न एवं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध, तथा जहाँ नौ रसों की अभिव्यक्ति देखी जाती हो एवं जहाँ बल-पराक्रमकी भी पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती हो, भगवान्‌ के उस अवतारको 'पूर्णावतार' कहा गया है। जिसके अपने तेजमें अन्य सम्पूर्ण तेज विलीन हो जाते हैं, भगवान्‌ के उस अवतारको श्रेष्ठ विद्वान् पुरुष साक्षात् 'परिपूर्णतम' बताते हैं। जिस अवतारमें पूर्णका पूर्ण लक्षण दृष्टिगोचर होता है और मनुष्य जिसे पृथक्- पृथक् भावके अनुसार अपने परम प्रिय रूपमें देखते हैं, वही यह साक्षात् 'परिपूर्णतम' अवतार है ।। २३-२५ ।।

[इन सभी लक्षणोंसे सम्पन्न ] स्वयं परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, दूसरा नहीं; क्योंकि श्रीकृष्णने एक कार्यके उद्देश्यसे अवतार लेकर अन्यान्य करोड़ों कार्यों का सम्पादन किया है। जो पूर्ण, पुराण पुरुषोत्तमोत्तम एवं परात्पर पुरुष परमेश्वर हैं, उन साक्षात् सदानन्दमय, कृपानिधि, गुणोंके आकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी मैं शरण लेता हूँ ।।

 

श्रीगर्ग जी बोले- यह सुनकर राजा हर्ष में भर गये। उनके शरीर में रोमाञ्च हो आया। वे प्रेम से विह्वल हो गये और अश्रुपूर्ण नेत्रों को पोंछकर नारदजी से यों बोले--

॥ १६–२८ ॥

 

राजा बहुलाश्वने पूछा- महर्षे ! साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र सर्वव्यापी चिन्मय गोलोकधामसे उतरकर जो भारतवर्षके अन्तर्गत द्वारकापुरीमें विराज रहे हैं— इसका क्या कारण हैं ? ब्रह्मन् ! उन भगवान् श्रीकृष्णके सुन्दर बृहत् (विशाल या ब्रह्मस्वरूप) गोलोकधामका वर्णन कीजिये। महामुने ! साथ ही उनके अपरिमेय कार्योंको भी कहनेकी कृपा कीजिये । मनुष्य जब तीर्थयात्रा तथा सौ जन्मोंतक उत्तम तपस्या करके उसके फलस्वरूप सत्सङ्गका सुअवसर पाता है, तब वह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र को शीघ्र प्राप्त कर लेता है। कब मैं भक्तिरस से आर्द्रचित्त हो मनसे भगवान् श्रीकृष्ण के दास का भी दासानुदास होऊँगा ? जो सम्पूर्ण देवताओंके लिये भी दुर्लभ हैं, वे परब्रह्म परमात्मा आदिदेव भगवान् श्रीकृष्ण मेरे नेत्रोंके समक्ष कैसे होंगे ?* ॥ २९-३२ ॥

 

श्रीनारदजी बोले – नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के अभीष्ट जन हो और उन श्रीहरिके परम प्रिय भक्त हो। तुम्हें दर्शन देनेके लिये ही वे भक्तवत्सल भगवान् यहाँ अवश्य पधारेंगे। ब्रह्मण्यदेव भगवान् जनार्दन द्वारका में रहते हुए भी तुम्हें और ब्राह्मण श्रुतदेवको याद करते रहते हैं । अहो ! इस लोक में संतों का कैसा सौभाग्य है ! ॥ ३३—३४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवाद में  'श्रीकृष्णमाहात्म्य का वर्णन' नामक पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १०)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थितः ॥ ३४ ॥
भवेऽस्मिम् क्लिश्यमानानां अविद्याकामकर्मभिः ।
श्रवण स्मरणार्हाणि करिष्यम् इति केचन ॥ ३५ ॥
श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः
स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः ।
त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं
भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम् ॥ ३६ ॥

कुछ और लोग यों कहते हैं कि यह पृथ्वी दैत्योंके अत्यन्त भारसे समुद्रमें डूबते हुए जहाजकी तरह डगमगा रही थी—पीडि़त हो रही थी, तब ब्रह्माकी प्रार्थनासे उसका भार उतारनेके लिये ही आप प्रकट हुए ॥ ३४ ॥ कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जो लोग इस संसारमें अज्ञान, कामना और कर्मोंके बन्धनमें जकड़े हुए पीडि़त हो रहे हैं, उन लोगोंके लिये श्रवण और स्मरण करनेयोग्य लीला करनेके विचारसे ही आपने अवतार ग्रहण किया है ॥ ३५ ॥ भक्तजन बार-बार आपके चरित्रका श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनन्दित होते रहते हैं; वे ही अविलम्ब आपके उस चरणकमलका दर्शन कर पाते हैं; जो जन्म-मृत्युके प्रवाहको सदाके लिये रोक देता है ॥ ३६ ॥

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सोमवार, 18 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) पहला अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)


पहला अध्याय  (पोस्ट 01)

 

शौनक - गर्ग-संवाद; राजा बहुलाश्व के पूछने पर नारदजी के द्वारा अवतार-भेद का निरूपण

 

ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥१॥
शरद्विकचपङ्‍कजश्रियमतीवविद्वेषकं
मिलिन्दमुनिसेवितं कुलिशकंजचिह्नावृतम् ।
स्फुरत्‌कनकनूपुरं दलितभक्ततापत्रयं
चलद्‌द्युतिपदद्वयं हृदि दधामि राधापतेः ॥२॥
वदनकमलनिर्यद्यस्य पीयूषमाद्यं
पिबति जनवरो यं पातु सोऽयं गिरं मे ।
बदरवनविहारः सत्यवत्याः कुमारः
प्रणतदुरितहारः शाङ्‌र्गधन्वावतारः ॥३॥
कदाचिन्नैमिषारण्ये श्रीगर्गो ज्ञानिनां वरः ।
आययौ शौनकं द्रष्टुं तेजस्वी योगभास्करः ॥४॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय शौनको मुनिभिः सह ।
पूजयामास पाद्याद्यैरुपचारैर्विधानतः ॥५॥


श्रीशौनक उवाच -
सतां पर्यटनं धन्यं गृहिणां शान्तये स्मृतम् ।
नृणामन्तस्तमोहारी साधुरेव न भास्करः ॥६॥
तस्मान्मे हृदि सम्भूतं संदेहं नाशय प्रभो ।
कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ॥७॥


श्रीगर्ग उवाच -
साधु पृष्टं त्वया ब्रह्मन् भगवद्‌गुणवर्णनम् ।
शृण्वतां गदतां यद्वै पृच्छतां वितनोति शम् ॥८॥
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण महादोषः प्रशाम्यति ॥९॥
मिथिलानगरे पूर्वं बहुलाश्वः प्रतापवान् ।
श्रीकृष्णभक्तः शान्तात्मा बभूव निरहङ्‍कृतिः ॥१०॥
अम्बरादागतं दृष्ट्वा नारदं मुनिसत्तमम् ।
सम्पूज्य चासने स्थाप्य कृताञ्जलिरभाषत ॥११॥


श्री-बहुलाश्व उवाच -
योऽनादिरात्मा पुरुषो भगवान्प्रकृतेः परः ।
कस्मात्तनुं समाधत्ते तन्मे ब्रूहि महामते ॥१२॥


श्रीनारद उवाच -
गोसाधुदेवताविप्रदेवानां रक्षणाय वै ।
तनुं धत्ते हरिः साक्षाद्‌भगवानात्मलीलया ॥१३॥
यथा नटः स्वलीलायां मोहितो न परस्तथा ।
अन्ये दृष्ट्वा च तन्मायां मुमुहुस्ते न संशयः ॥१४॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ।
साधूनां रक्षणार्थं हि कृपया वद मां प्रभो ॥१५॥

'भगवान नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि व्यास को नमस्कार करने के पश्चात् जय (श्रीहरि - की विजय गाथा से पूर्ण इतिहास-पुराण) का उच्चारण करना चाहिये। मैं भगवान् श्रीराधाकान्त के उन युगल- चरणकमलों को अपने हृदय में धारण करता हूँ, जो शरदऋतु के प्रफुल्लित कमलों की शोभाको अत्यन्त नीचा दिखानेवाले हैं, मुनिरूपी भ्रमरों के द्वारा जिनका निरन्तर सेवन होता रहता है, जो वज्र और कमल आदिके चिह्नोंसे विभूषित हैं, जिनमें सोनेके नूपुर चमक रहे हैं और जिन्होंने भक्तोंके त्रिविध तापका सदा ही नाश किया तथा जिनसे दिव्य ज्योति छिटक रही है। जिनके मुख-कमलसे निकली हुई आदि-कथारूपी सुधाका बड़भागी मनुष्य सदा पान करता रहता है, वे बदरीवनमें विहार करनेवाले, प्रणतजनों का ताप हरने में समर्थ, भगवान् विष्णुके अवतार सत्यवती- कुमार श्रीव्यासजी मेरी वाणीकी रक्षा करें—उसे दोषमुक्त करें' ॥ १-३ ॥

एक समयकी बात है, ज्ञानिशिरोमणि परमतेजस्वी मुनिवर गर्गजी, जो योगशास्त्रके सूर्य हैं, शौनकजीसे मिलनेके लिये नैमिषारण्यमें आये। उन्हें आया देख मुनियोंसहित शौनकजी सहसा उठकर खड़े हो गये और उन्होंने पाद्य आदि उपचारोंसे विधिवत् उनकी पूजा की ।। ४-५ ॥

शौनकजी ने कहा- साधुपुरुषोंका सब ओर विचरण धन्य है; क्योंकि वह गृहस्थ-जनोंको शान्ति प्रदान करनेका हेतु कहा गया है। मनुष्योंके भीतरी अन्धकारका नाश महात्मा ही करते हैं, न कि सूर्य । भगवन्! मेरे मनमें यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई है कि भगवान् के अवतार कितने प्रकारके हैं। आप कृपया इसका निवारण कीजिये ॥ ६-७ ॥

श्रीगर्गजी कहते हैं— ब्रह्मन् ! भगवान् के गुणानुवादसे सम्बन्ध रखनेवाला आपका यह प्रश्न बहुत ही उत्तम है। यह कहने, सुनने और पूछने- वाले - तीनोंके कल्याणका विस्तार करनेवाला है। इसी प्रसङ्गमें एक प्राचीन इतिहासका कथन किया जाता है, जिसके श्रवणमात्र से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। पहलेकी बात है, मिथिलापुरीमें बहुलाश्व नामसे विख्यात एक प्रतापी राजा राज्य करते थे । वे भगवान् श्रीकृष्ण के परम भक्त, शान्तचित्त एवं अहंकारसे रहित थे। एक दिन मुनिवर नारदजी आकाशमार्ग से उतरकर उनके यहाँ पधारे। उन्हें उपस्थित देखकर राजाने आसन पर बिठाया और भलीभाँति उनकी पूजा करके हाथ जोड़कर उनसे इस प्रकार पूछा ।। ८-११॥

श्रीबहुलाश्वजी बोले- महामते ! जो भगवान् अनादि, प्रकृतिसे परे और सबके अन्तर्यामी ही नहीं, आत्मा हैं, वे शरीर कैसे धारण करते हैं ? (जो सर्वत्र व्यापक है, वह शरीरसे परिच्छिन्न कैसे हो सकता है ?) यह मुझे बतानेकी कृपा करें ॥ १२ ॥

नारदजीने कहा- गौ, साधु, देवता, ब्राह्मण और वेदों की रक्षाके लिये साक्षात् भगवान् श्रीहरि अपनी लीलासे शरीर धारण करते हैं। [अपनी अचिन्त्य लीलाशक्तिसे ही वे देहधारी होकर भी व्यापक बने रहते हैं। उनका वह शरीर प्राकृत नहीं, चिन्मय है।] जैसे नट अपनी मायासे मोहित नहीं होता और दूसरे लोग मोहमें पड़ जाते हैं, वैसे ही अन्य प्राणी भगवान्की माया देखकर मोहित हो जाते हैं, किंतु परमात्मा मोहसे परे रहते हैं- इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है ।। १३-१४ ।।

श्रीबहुलाश्वजी ने पूछा- मुनिवर ! संतोंकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णु के कितने प्रकार के अवतार होते हैं ? यह मुझे बताने की कृपा करें ।। १५ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२) विराट् शरीर की उत्पत्ति हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सर...